श्री
गणेशाय नमः
श्री गुरवे
नमः
श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये
अथ श्रीपाद
श्रीवल्लभ चरित्रामृत
अध्याय १
श्री
व्याघ्रेश्वर शर्मा का वृत्तांत
श्री महागणपति, श्री महासरस्वती, श्री कृष्ण भगवान, सर्व चराचरवासी देवी-देवताओं एवं समस्त गुरुपरंपरा के चरणों में नतमस्तक
होकर मैंने अनंतकोटी ब्रह्मांड नायक श्री दत्तप्रभू के कलियुगी अवतार श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की अवतार लीलाओं का वर्णन करने का संकल्प लिया है.
अनुसूया-अत्रिनंदन भगवान
श्री दत्तात्रेय ने आंध्रप्रदेश के पीठिकापुरम गाँव में श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से
अवतार लिया. जिनके दिव्य चरित्र का समुचित वर्णन अनेक पंडित एवम् विद्वान भी न कर
सके, वही करने का दुस्साहस मैं केवल आप जैसे थोर,
विद्वान श्रोताओं के आशीर्वाद के फलस्वरूप ही कर रहा हूँ.
मैं, शंकर भट्ट, देशस्थ कर्नाटकी स्मार्त ब्राह्मण हूँ.
मेरा जन्म भारद्वाज गोत्र में हुआ. जब मैं श्रीकृष्ण दर्शन के लिए ‘उड़पी’ तीर्थक्षेत्र गया था तो वहाँ नयन मनोहर, मोरमुकुटधारी
श्रीकृष्ण ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया. उन्होंने मुझे कन्याकुमारी जाकर कन्यका
कुमारी के दर्शन करने की आज्ञा दी. तदनुसार मैंने कन्याकुमारी जाकर, त्रिवेणी सागर
में स्नान करने के उपरांत श्री कन्यका देवी के दर्शन किये. मंदिर के पुजारी बड़े
श्रद्धाभाव से देवी की पूजा कर रहे थे. मेरे द्वारा प्रस्तुत लाल पुष्प उन्होंने
श्रद्धापूर्वक देवी को समर्पित किया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ,
मानो देवी अम्बा मेरी और स्नेहसिक्त दृष्टि से देख रही हैं. वह कह रही थीं, “शंकर, तेरे अंतर्मन की भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ.
तू कुरवपुर क्षेत्र जाकर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन से अपने जीवन को
सार्थक बना. उनके दर्शनों से मन को, अंतरात्मा को होने वाले आनंद
की अनुभूति अवर्णनीय है.”
अम्बा माँ का आशीर्वाद लेकर मैंने
अपनी यात्रा आरंभ की और थोड़ी दूर पर स्थित ‘मरुत्वमलै’ गाँव पहुंचा. लंका में राम-रावण
संग्राम में लक्ष्मण पर इन्द्रजीत ने शक्ति से वार किया, जिसके फलस्वरूप लक्ष्मण अचेत हो गए. तब श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी समेत
द्रोणाचल पर्वत उठा लाये थे. संजीवनी बूटी के प्रयोग से जब लक्ष्मण सचेत हो गए, तो हनुमान जी उस पर्वत को वापस अपने स्थान पर ले चले. मार्ग में उस पर्वत
का एक बड़ा टुकड़ा यहाँ गिर पडा. इसी को ‘मरुत्वमलै’ कहते हैं. यह स्थान बड़ा रमणीय है. यहाँ अनेक गुफाएं हैं, जिनमें अनेक सिद्ध पुरुष गुप्त रूप से तपस्या करते हैं.
मैंने सारी गुफाओं के दर्शन
करने आरंभ किये. एक गुफा में मैंने एक व्याघ्र को शांत मुद्रा में बैठे देखा. उसे
देखते ही मैं भय से कांपने लगा और घबराकर जोर से चिल्लाया, “श्रीपाद! श्रीवल्लभ!” उस निर्जन वन में मेरी पुकार की प्रतिध्वनि
भी उतनी ही जोर से सुनाई दी. उस आवाज़ को सुनकर उस गुफा से एक वृद्ध तपस्वी बाहर
निकले और बोले, “हे बालक, तू धन्य है! इस निर्जन वन में श्रीपाद
श्रीवल्लभ के नाम की प्रतिध्वनि गूँजी है. श्री दत्त प्रभु ने कलियुग में श्रीपाद
श्रीवल्लभ इस नाम से अवतार लिया है. यह बात केवल योगी, ज्ञानी, परमहंस जनों को ही ज्ञात है. तू भाग्यवान है
इसीलिये इस पुण्य क्षेत्र में आया. तेरी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी. तुझे श्रीपाद
श्रीवल्लभ के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा. इस गुफा के प्रवेशद्वार पर बैठा हुआ
व्याघ्र एक ज्ञानी महात्मा है. उन्हें प्रणाम कर.” मैंने बड़ी नम्रता से उस व्याघ्र
को नमस्कार किया. व्याघ्र ने तत्काल ऊं शब्द का उच्चार किया, उस आवाज़ से पूरा ‘मरुत्वमलै’
गूँज उठा. फिर उस व्याघ्र ने बड़े मीठे
स्वर में “श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये” का जाप किया. तभी एक चमत्कार हुआ.
उस व्याघ्र के स्थान पर एक दिव्य कांति वाला पुरुष प्रकट हुआ. उसने वृद्ध तपस्वी
को साष्टांग दंडवत किया और निमिषमात्र में आकाश में लुप्त हो गया. वे वृद्ध तपस्वी मुझे आग्रहपूर्वक अपनी गुफा में ले गए.
गुफा में पहुंचकर उन्होंने केवल संकल्प मात्र से अग्नि प्रज्वलित किया. उसमें
आहुति देने के लिए आवश्यक पवित्र सामग्री, मधुर फलों का निर्माण किया. वैदिक मंत्रोच्चार सहित इस सामग्री की अग्नि
को आहुति दी.
वे वृद्ध तपस्वी बोले, “इस कलियुग में यज्ञ-याग, सत्कर्म, सभी लुप्त हो चुके हैं. मानव इस
पंचभूतात्मक सृष्टि से केवल सभी प्रकार के लाभ
पाना चाहता है, मगर उन देवताओं का उसे विस्मरण हो जाता है. ऐसा ही हो
गया है मानव स्वभाव. देवताओं का प्रेम प्राप्त करने के लिए यज्ञ करके उन्हें
संतुष्ट करना चाहिए. उनके कृपाप्रसाद से ही प्रकृति मानव के लिए अनुकूल बनती है.
प्रकृति की किसी भी शक्ति का प्रकोप मानव सहन नहीं कर सकता. मानव को प्राकृतिक
शक्तियों की यथोचित मार्ग से शान्ति करना चाहिए, अन्यथा अनेक संकट उत्पन्न होते हैं. यदि मानव
धर्माचरण नहीं करता, तो प्रकृति समय आने पर उसे दण्ड देती है. लोकहित के लिए ही मैंने
यह यज्ञ किया है. इस यज्ञ की फलप्राप्ति के रूप में तुझे श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
के दर्शन होंगे. जन्मजन्मान्तर के पुण्यों के फलस्वरूप ही इस अनुग्रह की प्राप्ति
होती है.”
उन
वृद्ध तपस्वी के मुख से निकले इस पवित्र वाक्प्रवाह से मैं मंत्रमुग्ध हो उठा और
मैंने अत्यंत नम्रतापूर्वक उन्हें साष्टांग दंडवत किया. मैंने उन तपस्वी के चरणों
में प्रार्थना की, “हे ऋषिवर,
मैं न तो पंडित हूँ, न योगी और न ही
साधक. मैं अल्पमति हूँ. मेरे मन में उठ रहे संदेहों का निवारण करके कृपया मुझ पर
अपना वरदहस्त रखें.” उस महापुरुष ने मेरी शंकाओं का समाधान करने की सहमति दर्शाई.
मैंने
पूछा, “हे सिद्ध मुनीश्वर! जब मैं कन्यका देवी के दर्शन कर रहा था,
तो देवी माँ ने कहा कि मैं कुरवपुर जाकर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन करूँ.
जब मैं कुरवपुर की यात्रा पर निकला तो मार्ग में आपके तथा व्याघ्ररूपी महात्मा के दर्शन
प्राप्त हुए. वे कौन थे? साथ ही, दत्त प्रभु अर्थात् कौन? कृपया इस विषय में विस्तार से बताने का कष्ट करें.”
तब वे वृद्ध तपस्वी बोले:
“इस
आन्ध्र प्रान्त के गोदावरी मंडल में, अत्रि ऋषि की तपोभूमि में, जो आत्रेयपुर के नाम से प्रसिद्ध है,
एक काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण परिवार रहता था. परमेश्वर की कृपा से उन्हें एक पुत्र
प्राप्त हुआ. ब्राह्मण अत्यंत विद्वान तथा आचारसंपन्न था,
परन्तु पुत्र मूर्ख था. माता-पिता ने उसका नाम रखा व्याघ्रेश्वर. व्याघ्रेश्वर की
उम्र बढ़ रही थी, परन्तु बुद्धि जहाँ की तहाँ थी. पिता ने उसे शिक्षा
देने में कोइ कसर न छोड़ी, परन्तु वह पूरी तरह से संध्यावंदन करने में भी असमर्थ
था. गाँव वाले उसे ताने देते कि इतने विद्वान ब्राह्मण का पुत्र और ऐसा मूर्ख! उसे
यह सब अच्छा नहीं लगता. एक दिन प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उसे एक दिव्य बालक के
दर्शन हुए. वह बालक आकाश से नीचे आ रहा था. उसके चरण कमल के स्पर्श से उस स्थान की
भूमि भी दैदीप्यमान हो गई. वह बालक धीरे धीरे व्याघ्रेश्वर के निकट आकर बोला, “मेरे
होते हुए तुझे किस बात का डर है? मेरे इस गाँव से ऋणानुबंध है. तू
हिमालय पर्वत स्थित बदरिकारण्य जा, वहाँ तेरा कुशल-मंगल होगा.” इतना कहकर वह बालक अंतर्धान हो
गया.
उस दिव्य बालक के आदेशानुसार व्याघ्रेश्वर शर्मा ने
हिमालय स्थित बदरिकारण्य की
ओर प्रस्थान किया. मार्ग में उसे अन्न-जल की कठिनाई नहीं हुई. श्री दत्त प्रभु की
कृपा से उसे समय पर जल-पान मिल जाता. मार्ग में उसे एक कुत्ता मिला, जो बदरिकारण्य तक उसके साथ रहा. मार्ग में उन्होंने उर्वशी-कुंड में स्नान किया. इसी समय
एक महात्मा अपने शिष्य समुदाय समेत उर्वशी-कुंड में स्नान करने के लिए पधारे
व्याघ्रेश्वर ने उन्हें प्रणाम किया और विनती की कि वे उसे अपना शिष्य बना लें.
महात्मा ने व्याघ्रेश्वर को शिष्य के रूप में स्वीकार किया
और एक आश्चर्य की बात यह हुई कि तत्काल वह कुत्ता अंतर्धान हो गया. तब वे महात्मा
बोले, “व्याघ्रेश्वर, तुम्हारे साथ आया हुआ वह श्वान
तुम्हारे पूर्व जन्म के पुण्य का प्रतीक था, उसने तुम्हें
हमारे हवाले कर दिया और वह अंतर्धान हो गया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा से
ही तुम यहाँ पहुँच कर इस पुण्यप्रद कुण्ड में स्नान कर सके. यह तपोभूमि नर-नारायण
के वास्तव्य से पुनीत हुई है,” इस पर व्याघ्रेश्वर ने पूछा, “गुरुदेव, श्रीपाद श्रीवल्लभ कौन हैं? उन्होंने मुझ पर इतनी कृपा क्यों की?”
गुरुदेव ने उत्तर दिया, “वे साक्षात दत्त प्रभु ही हैं. त्रेतायुग में महर्षि भारद्वाज ने श्री
क्षेत्र पीठिकापुरम् में ‘सावित्र काठक चयन’ नामक महायज्ञ सम्पन्न किया था. इस यज्ञ
के अवसर पर शिव-पार्वती को निमंत्रित किया गया था. उस अवसर पर शिवजी ने महर्षि को
आशीर्वाद दिया कि “आपके कुल में अनेक महात्मा, सिद्ध पुरुष,
योगी पुरुष अवतार लेंगे. अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों के फलस्वरूप श्री दत्त भक्ति
का अंकुर प्रस्फुटित होता है, और यदि वह निरंतर बढ़ता रहे, तब
कहीं जाकर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन होते हैं. उनके चरणस्पर्ष का, उनसे
संभाषण का सौभाग्य प्राप्त होता है. हे व्याघ्रेश्वर, तुम पर
स्वामी की कृपा हुई है. मैं अब मेरे गुरुदेव के दर्शन हेतु जा रहा हूँ , एक वर्ष
बाद वापस लौटूंगा. तुम लोग अपनी-अपनी गुफा में आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए
तपश्चर्या करो.” इतना कहकर गुरुदेव द्रोणागिरी पर्वत की और चल पड़े. व्याघ्रेश्वर
गुफा में बैठकर ध्यान करने लगा, परन्तु उसका सारा ध्यान
व्याघ्र रूप की ओर ही केन्द्रित था. इसका परिणाम यह हुआ कि उसे अपना इच्छित
व्याघ्र रूप ही प्राप्त हो गया. एक वर्ष बीत गया, गुरुदेव
यात्रा से वापस लौटे. उन्होंने सारी गुफ़ाएँ देखीं. वे हर शिष्य की साल भर में हुई
प्रगति का मूल्यांकन कर रहे थे. एक गुफ़ा में उन्हें एक व्याघ्र ध्यान मुद्रा में
बैठा दिखाई दिया. उन्हें बहुत अचरज हुआ. उन्हें अपने अंतर्ज्ञान से ज्ञात हुआ कि
वह व्याघ्र कोई और नहीं, अपितु व्याघ्रेश्वर ही है. हमेशा
व्याघ्ररूप का चिंतन करने से उसे व्याघ्र का ही रूप प्राप्त हुआ है. उन्होंने उसे
आशीर्वाद देकर ‘ऊंकार’ मन्त्र की शिक्षा दी , तथा “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” इस
मन्त्र का जाप करने को कहा. गुरु की आज्ञानुसार व्याघ्रेश्वर ने उसी रूप में
मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया. व्याघ्र के ही रूप में उसने कुरवपुर की ओर प्रस्थान
किया. यथावकाश वह कुरवपुर ग्राम के निकट पहुंचा, बीच में कृष्णा नदी प्रवाहित हो
रही थी. वह किनारे पर बैठकर “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” मन्त्र का जाप करने लगा.
श्रीपाद श्रीवल्लभ कुरवपुर ग्राम में अपने शिष्यों समेत बैठे थे. वे अचानक उठे, और यह कहकर कि, “मेरा परम भक्त मुझे बुला रहा है”, नदी के परले किनारे की
और चल पड़े; पानी पर चलते हुए उनके चरण कमलों के निशान पानी की सतह पर प्रकट हो रहे
थे एवं अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे. स्वामी के दूसरे किनारे पर पहुंचते ही
व्याघ्रेश्वर ने उनके दिव्य चरणों पर अपना शीश रखकर अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें
प्रणाम किया. स्वामीने बड़े आनंद से उस व्याघ्र के मस्तक को सहलाया और उस पर आरूढ़
होकर जल मार्ग से वे कुरवपुर पहुंचे. उन्हें व्याघ्र पर बैठा देखकर सबको आश्चर्य
हुआ. जैसे ही वे व्याघ्र की पीठ से
उतरे, उसके शरीर से एक दिव्य पुरुष बाहर आया. उसने प्रार्थना
की कि स्वामी उसके व्याघ्राजिन को आसन के रूप में स्वीकार करें. उसने बड़े भक्तिभाव
से स्वामी के चरणों में शीश झुकाया. उसके ह्रदय के अष्टभाव जागृत होकर प्रेमपूर्ण
अश्रुधारा से उसने स्वामी के चरणों पर अभिषेक किया. बड़े प्रेम से स्वामी ने उसे
उठाया और बोले, “हे व्याघ्रेश्वर! किसी जन्म में तू एक
अत्यंत शक्तिशाली मल्लयोद्धा था. उस समय तू व्याघ्रों से युद्ध करके उनसे अत्यंत
क्रूरता का व्यवहार करता था. तू उन्हें समय पर अन्न-जल भी नहीं देता था. उन्हें
जंजीरों से बांधकर लोगों के सामने उनका प्रदर्शन करता था. इस दुष्कर्म के फलस्वरूप
तुझे अनेक नीच जीव-जंतुओं की योनी में जन्म लेना पड़ता, मगर मेरी कृपा से उन सभी
दुष्कर्मों का नाश हो गया है. दीर्घ समय तक व्याघ्र के रूप में रहने के कारण तू
इच्छानुसार व्याघ्र का रूप धारण कर सकेगा व उसे त्याग भी सकेगा. हिमालय में वास कर
रहे, अनेक वर्षों से मेरी तपस्या में लीन सिद्ध योगियों के
दर्शन तुझे होंगे तथा उनके आशीर्वाद भी प्राप्त होंगे. योगमार्ग पर चलकर तू अत्यंत
प्रज्ञावान होगा.” स्वामी ने उसे आशीर्वाद दिया.
स्वामी आगे बोले, “ तुमने हिमालय में एक अत्यंत शांत प्रकृति के व्याघ्र को देखा था न! वह
एक महात्मा है. तपश्चर्या में लीन संत पुरुषों को सामान्य जन एवं अन्य प्राणी कष्ट
न पहूँचाएँ इसीलिये उसने व्याघ्र रूप धारण किया था और वह उनकी रक्षा कर रहा था.
गुफाओं में तपश्चर्या कर रहे संतों की वार्ता एक दूसरे तक पहुंचाने का काम भी वह
व्याघ्र बड़े प्रेम से कर रहा था. यह सारी दत्त प्रभु की लीला ही है.
श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की जय हो.
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