सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

अध्याय - २

  

श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये  

अध्याय २

सिद्ध योगी के दर्शन – विचित्रपुरी की कथा.  

 

मैंने मरुत्वमलै पुण्यक्षेत्र में घटित रोमांचकारी अनुभव को याद करते हुए, श्रीपाद श्री वल्लभ स्वामी का स्मरण करते हुए आगे की यात्रा आरम्भ की. मार्ग में अनेक पुण्यात्माओं के, थोर जनों के दर्शन लेते हुए मैं आगे चला जा रहा था. अचरज की बात यह थी कि इस यात्रा में न माँगने पर भी भोजन मिल जाता था. पांड्य देश स्थित कदंब-वन में पहुँचने तक मेरे शरीर का वज़न शनैः-शनैः कम होता जा रहा था. इस प्रान्त में एक अति-जागृत शिवलिंग का वास था. मैंने उसके दर्शन किये तथा विश्रान्ति हेतु कुछ देर शिवालय में ठहरा. फिर आगे की यात्रा आरम्भ की. मार्ग में मैंने सिद्ध योगीन्द्र नामक महान तपस्वी का आश्रम देखा. मैंने आश्रम में जाकर उस महापुरुष के चरणों में शीश नवाया. उन्होंने बड़े वात्सल्यपूर्ण भाव से मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखा और “श्रीपाद श्रीवल्लभ दर्शन प्राप्तिरस्तु” यह आशीर्वाद दिया. उनके चरण स्पर्श से मेरा शरीर रुई के समान हल्का लगने लगा. वे महायोगी बोले, “जिस शिवलिंग के तुमने दर्शन किये वह अत्यंत जागृत है. उसकी कथा भी बड़ी मनोरंजक है. देवेन्द्र ने अपने सामर्थ्य से अनेक राक्षसों का वध किया, परन्तु उनमें से एक राक्षस भाग गया और उसने महादेव की तपस्या करना प्रारम्भ किया. ध्यानावस्था में बैठे उस राक्षस का इंद्र ने बड़ी निर्दयता से वध किया. उसकी ह्त्या के कारण इंद्रा क सारा तेज लुप्त हो गया और वह कान्तिहीन दिखाई देने लगा. इस पाप का क्षालन करने के लिए उसने अनेक तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की. पांड्य देश स्थित कदम्ब-वन पहुँचते ही एक आश्चर्य की बात हुई. वहाँ स्थित शिवलिंग के प्रभाव से वह पहले जैसा कान्तिमान, तेजस्वी हो गया. उसे बड़ा आनंद हुआ एवं उसके मन में उस क्षेत्र के महात्म्य को जानने की उत्कंठा  उत्पन्न हुई. इंद्र ने बड़ी उत्सुकता से वह वन देखा. तब उसे उस दिव्य शिवलिंग के दर्शन हुए. बड़े भक्तिभाव से उसने शिवलिंग की पूजा-अर्चना की. तत्पश्चात उस स्वयंभू लिंग के चारों ओर इस सुन्दर देवालय का निर्माण किया. इंद्र द्वारा प्रतिष्ठापित यह शिवलिंग समस्त पापों का हरण करने वाला, अत्यंत मंगलदायक है. पुण्यवान व्यक्तियों को, श्री दत्त प्रभु के भक्तों को अनायास ही इसके दर्शन हो जाते हैं.”

उन महायोगी का यह वक्तव्य सुनकर मैं बहुत रोमांचित हो गया. बड़े श्रद्धाभाव से मैंने उनके चरण कमलों में प्रणाम किया. तब उन्होंने मुझे दुबारा उस शिवलिंग के दर्शन करने की आज्ञा दी. उनके आदेशानुसार मैं फिर से उस वन में पहुँचा. मुझे वहाँ एक अति सुन्दर शिवालय के दर्शन हुए, परन्तु यह पहले वाला शिव मंदिर था ही नहीं. मुझे यह मंदिर श्री मीनाक्षी सुन्दरेश्वर के मंदिर जैसा अप्रतिम प्रतीत हुआ. बड़ी श्रद्धा से मैंने शिवलिंग के दर्शन किये और वापस श्री सिद्ध योगीन्द्र के पास चला. वहाँ का परिसर मुझे जन समुदाय से भरे हुए किसी शहर जैसा प्रतीत हुआ. श्री सिद्ध योगीन्द्र का आश्रम मुझे मिला ही नहीं. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का मन ही मन चिंतन करते हुए मैंने जब आगे की यात्रा आरम्भ की तो सूर्यास्त हो चुका था, चारों और अन्धेरा था. मैं आगे बढ़ा जा रहा था. मेरे पीछे-पीछे प्रकाश पुंज आता हुआ प्रतीत हुआ; अतः मैंने पीछे मुड़कर देखा. मेरे पीछे-पीछे तीन फनों वाला एक सर्प आता दिखाई दिया. उसके मस्तक पर तीन दिव्य मणि थे, उन्हीं का प्रकाश मुझे मार्ग दिखा रहा था. मैं अत्यंत भयभीता हो गया. मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी. मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ के दिव्य नाम का जाप करते हुए आगे बढ़ा जा रहा था. उस सर्प से आता हुआ प्रकाश मेरा मार्ग दर्शन कर रहा था. अंत में मैं किसी तरह श्री सिद्ध योगीन्द्र के आश्रम पहुंचा. तब वह दिव्य सर्प और उसका प्रकाश फ़ौरन अदृश्य हो गए. श्री सिद्ध योगीन्द्र ने बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया और केले के पत्ते पर गरम-गरम भुने हुए चने प्रसाद स्वरूप दिए. मैंने पेटभर चने खाए परन्तु मेरे ह्रदय की धड़धड़ कम न हुई. तब उन दयामूर्ति योगीश्वर ने बड़े प्रेम भाव से मेरे तेज़ी से धड़कते सीने पर हाथ फेरा, फिर वह दिव्य हस्त मेरे मस्तक पर फेरा और मेरी आँखों को भी प्रेम से स्पर्श किया. उस करुणामय स्पर्श से मेरे ह्रदय की तेज धड़कन मानो भाग गई. साथ ही मस्तिष्क से बुरे विचार, दुष्ट संकल्प बाहर निकल रहे हैं, ऐसा अनुभव हुआ. मेरा ह्रदय एक अनजान प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गया.

 

श्री दत्त महिमा,

श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए योग्यता.

  अब सिद्ध योगीन्द्र बोले, “तुमने पहले जिस शिवलिंग के दर्शन किये वह शिवलिंग और बाद में जिसके दर्शन किये वह श्री सुन्दरेश्वर का मंदिर, ये दोनों अलग-अलग मंदिर नहीं हैं. तुम्हें इस प्रकार का अनुभव प्राप्त हो ऐसी प्रभु श्री दत्तात्रेय की आज्ञा थी. इसलिए तुम्हें अलग-अलग मंदिर दिखाई दिए. श्री दत्त प्रभु के कृपा प्रसाद से काल को पीछे ले जाकर देवेन्द्र द्वारा प्रतिष्ठापित शिवलिंग, उस काल का परिसर तुम्हें दिखाया. तुमने जो देखी वह सारी सृष्टि (उसे सृष्टि समझना माया का खेल ही है. सब कुछ चैतन्य स्वरूप है.) श्री दत्त प्रभू की केवल इच्छा मात्र से भविष्य से वर्त्तमान में बदल सकती है, वर्त्तमान काल भूतकाल में तथा भूतकाल वर्त्तमान में परिवर्तित हो सकता है. भूतकाल में घटित सारी घटनाएँ, वर्त्तमान में घटित हो रही घटनाएँ तथा भविष्य में घटने वाली घटनाएँ श्री दत्त प्रभु की इच्छानुसार घटित होती हैं. किसी घटना के घटित होने या न होने, या किसी  अन्य प्रकार से घटित होने का कारण श्री दत्त प्रभु की इच्छा है. जिस इच्छा से सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व विनाश होता है उस महान इच्छा शक्ति के प्रणेता प्रत्यक्ष श्री दत्तप्रभु ही हैं. वे ही सगुण रूप में पीठिकापुरम् क्षेत्र में श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से अवतरित हुए हैं. वहाँ के लोगों ने उनके सत्य स्वरूप को नहीं जाना, परन्तु कुरवपुर के मछेरों ने उन पर संपूर्ण श्रद्धा रखी और अल्पज्ञ होते हुए भी वे स्वामी की कृपा से प्रसन्नता पूर्वक भवसागर पार कर गए. श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि अपने भीतर का अहंकार पूरी तरह से समाप्त हो जाए. जब आपका ह्रदय काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन षडरिपुओं से मुक्त होकर शुद्ध हो जाए तो स्वामी की कृपा होने में ज़रा भी विलम्ब न होगा.

“देवेन्द्र द्वारा प्रस्थापित उस शिवलिंग को धनञ्जय नामक व्यापारी ने देखा. उसने इस शिवलिंग की महिमा का वर्णन अपने देश के राजा कुलशेखर पांड्य के सम्मुख किया. इसे शिव की आज्ञा समझकर राजा ने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और वहाँ एक नगर की स्थापना की. यह नगर मधुरा नगर कहलाया. कुलशेखर का पुत्र मलयध्वज अपने पिता के ही समान ईश्वरभक्त था. उसने संतान प्राप्ति हेतु “पुत्र कामेष्टी” यज्ञ किया था. उस यज्ञकुण्ड से तीन वर्ष की एक अति सुन्दर कन्या प्रकट हुई, यह देखकर राजा तथा यज्ञ कर रहे सभी विप्र एवम् ऋषिगण अति आनंदित हुए. यह कन्या थी मीनाक्षी देवी. उनका विवाह आगे चलकर सुन्दरेश्वर के साथ हुआ. इस विवाह में स्वयम् विष्णु भगवान ने कन्यादान किया था. विवाह समारंभ बड़े शानदार ढंग से आयोजित किया गया. शिवजी की जटा से निकली वेगवती नदी, मधुरानगरी से होकर बहती थी, और उसके निकट का प्रदेश अति उपजाऊ तथा नैसर्गिक            रूप से अति सुन्दर हो गया था.”

श्री सिद्ध योगीन्द्र आगे बोले, “हे वत्स! सृष्टि में उपस्थित हर वस्तु में स्पंदन होता रहता है. भिन्न-भिन्न प्रकार के स्पंदनों के कारण दो व्यक्तियों के बीच आकर्षण या विकर्षण होता है. पुण्य कर्मों, उत्तम आचार-विचारों के कारण स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह में पुण्य-स्पंदन होते हैं. पाप कर्मों से पाप-स्पंदन होते हैं. व्यक्ति के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप उसे पुण्यवान व्यक्ति की अर्थात् सत्संग की प्राप्ति होती है, पुण्य क्षेत्रों के दर्शन का लाभ होता है, पुण्य कर्मों में आसक्ति होकर पुण्य कर्म बढ़ता जाता है और पापों का नाश होता है. इस सबके फलस्वरूप श्री दत्त प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है. वत्स! शंकर भट्ट, तुम पर श्रीपाद श्रीवल्लभ की अपार कृपा हुई है तभी तुम यहाँ आ सके.”

मुझे रात में  अपने सौभाग्य पर अचरज हो रहा था. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शनों की छटपटाहट प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी. कब कुरवपुर जाकर स्वामी के चरणों में माथा टेकूंगा, ऐसी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. ऐसी अवस्था में मैं सो गया. दूसरे दिन सुबह जागा तो मुझे आश्चर्य का धक्का लगा. मैं एक ऊँची पहाड़ी पर पीपल के पेड़ के नीचे था. आसपास कोई न था. रात में मैं श्री सिद्ध योगीन्द्र के आश्रम में रुका था, वह आश्रम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मुझे संदेह हुआ कि रातभर जिस आश्रम में रुका, जहाँ मैंने श्री सिद्ध योगीन्द्र के वचनामृत का पान किया था, क्या वह भ्रम था? मन में अनेक प्रकार के संदेह उठने लगे, तब मैंने अपना सामान समेटा और आगे चल पड़ा.                                                     

मैं सुबह से निकला था, मगर दोपहर हो गई थी फिर भी चल ही रहा था. थोड़ी देर में एक छोटा सा गाँव दिखाई दिया. मुझे बहुत भूख लगी थी. मैं ब्राह्मणों के सिवा किसी और घर में अन्न ग्रहण नहीं करता था. उस गाँव में एक भी ब्राह्मण नहीं था. वह गाँव गिरिजनों का था. उस गाँव का मुखिया मेरे निकट आकर बोला कि इसा गाँव में एक भी ब्राह्मण नहीं है. हम आपको फल तथा शहद अर्पित करते है. उस वृद्ध मुखिया ने मुझे फल और शहद दिया. मैं फल खाने ही वाला था कि एक कौआ उड़कर आया और मेरे सिर पर चोंच मारने लगा. मेरे सिर में घाव हो रहे थे. मैंने उसे भगाने की बहुत कोशिश की मगर वह व्यर्थ हुई. तभी निकट के ही वृक्ष से अचानक चार-पाँच कौए आये और वे मेरे हाथों पर, कन्धों पर बैठकर अपनी चोंचों से मेरे हाथों-पैरों पर घाव करने लगे. मैं फल और शहद वहीं छोड़कर भागा. वह वृद्ध मुखिया कह रहा था कि शायद मैंने किसी सिद्ध पुरुष की निंदा की है इसीलिए कौए मुझे सता रहे हैं. मुझे याद आया कि मेरे मन में श्री सिद्ध योगीन्द्र के संबंध में संदेह उत्पन्न हुआ था, उसी अपराध का यह दंड था. मेरा शरीर लहुलुहान हो रहा था. मैं भागे जा रहा था, कौए मेरा पीछा किये जा रहे थे. मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की प्रार्थना की और विनती की, कि मुझे इस संकट से मुक्ति दें. तभी मुझे अपने सामने औदुम्बर (गूलर) का वृक्ष नज़र आया. मैं उस वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा. तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे शरीर से एक प्रकार की दुर्गन्ध आ रही है. इस दुर्गन्ध के कारण निकट की बांबी से अनेक सर्प बाहर आकर मुझे दंश करने लगे. उनके विष से मैं मृतप्राय हो गया. मुख से फेन निकल रहा था. ह्रदय गति धीमी होती जा रही थी. किसी भी समय मेरी मृत्यु हो सकती थी. शाम हो गई थी. धोबी कपड़े धोकर, सुखाकर उनकी गठरियाँ गधों पर लादकर घरों को जा रहे थे. मेरी अवस्था देखकर उनके मन में दया जागी. उन्होंने मुझे एक गधे पर बिठाया और अपने गाँव के चर्म वैद्य के पास लाये. वैद्य जी ने जंगल की कुछ जडी-बूटियों का रस निकाल कर मुझे पीने को दिया. जिन स्थानों पर सर्पों ने दंश किया था वहाँ कुछ पत्ते बांधे. पीपल के कोमल पत्तों का रस निकालकर उसे घावों पर लगाया. मेरे दोनों कानों में पीपल के पत्तों के डंठल रखे थे. जैसे-जैसे विष पीपल के पत्तों में उतरने लगा, वैसे-वैसे वेदना असह्य होकर मैं चिल्लाने लगा. विष पूरी तरह से उतर जाने पर मुझे कुछ आराम मिला. वह रात मैंने वैद्यराज के घर पर ही गुजारी. वैद्य जी श्री दत्त प्रभु के भक्त थे. रात के समय वे अपने परिवारजनों समेत दत्त प्रभु के भजन गा रहे थे. मैं पलंग पर लेटा था. उनके मधुर कीर्तन-गायन से मेरा ह्रदय श्री दत्त प्रभु की कृपा का अनुभव कर विह्वल हो रहा था. वैद्य राज द्वारा किये गए उपचारों से मैं पूरी तरह ठीक हो गया था . उनका ऋण कैसे चुकाऊँ यह मैं समझ नहीं पा रहा था. भजन समाप्त करके वैद्यराज मेरे पास                आए. उनके नेत्रों से करुणा छलक रही थी. वे बोले, “मेरा नाम वल्लभदास है. मैं चर्मकारों का वैद्य हूँ. मैं नीच जाति का होते हुए भी यह जानता हूँ कि आप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शनों के लिए निकले हैं, आपको कौओं ने क्यों सताया और साँपों ने क्यों दंश किया यह भी मुझे ज्ञात है. आपका नाम शंकर भट्ट है, यह मुझे मालूम है.”

उनके इस अचूक कथन से मैं अवाक रह गया. मैंने सोचा कि शायद वैद्यराज को ज्योतिष का ज्ञान है. जैसे ही मेरे मन में यह विचार उठा, वल्लभदास बोले, “मैं कोई ज्योतिषी नहीं. श्री पीठिकापुर मानो पंडितों का मातुल गृह है. “सांगवेदार्थ” की उपाधि से विभूषित श्री मल्लादी बापन्ना अवधानुलू ने भी इसी पुण्यभूमि में वास किया था. परन्तु वेदों के प्रकांड पंडित अहंकारवश श्रीपाद श्रीवल्लभ के वास्तविक स्वरूप को न पहचान सके. शुष्क वेदान्त करने वाले, अर्थहीन तर्क-वितर्क करने वाले पंडित श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा के पात्र न बन सके. तुम्हें चोंच मारने वाले कौए पूर्वजन्म में पीठिकापुरम में वास कर रहे महा अहंकारी पंडित ही थे. उन्होंने अपना जीवन श्रीपाद श्रीवल्लभ की महिमा को न जानते हुए, अपने ज्ञान के अहंकार में व्यर्थ गंवाया. मृत्यु के पश्चात् वे स्वर्गलोक गए. वहाँ इंद्र ने वेदपंडित घनपाठी के रूप में उनका सत्कार किया. परन्तु जब उन्हें भूख लगी और प्राण व्याकुल होने लगे, तो उन्हें खाने के लिए किसी ने कुछ नहीं दिया. इंद्र ने कहा, “यदि पृथ्वी पर रहते हुए आप लोगों ने दान धर्म किया होता, तो एक-एक दाने के बदले हज़ार-हज़ार दाने हमसे प्राप्त होते. परन्तु क्योंकि आपने किसी को भी कोई दान नहीं दिया, अतः हम आपको कुछ भी नहीं दे सकते. आप इस लोक में स्वेच्छा से चाहे जितने काल तक रह सकते हैं.” मगर अन्न-जल के बिना सारे स्वर्गसुख दंडस्वरूप ही थे. इंद्र आगे बोले, “हे पंडितों, पादगया जैसे पवित्र स्थल में रहकर भी आपने कभी अपने पितरों को श्रद्धा, भक्ति एवँ निष्ठा से पिंडदान नहीं किया. माता-पिता का यथोचित सम्मान न करते हुए बारबार यही कहते रहे कि उनकी दवादारू में इतना-इतना खर्च हुआ. यह कृतघ्नता ही थी. अपने मद में आप इतने अंधे हो गए कि श्रीपाद श्रीवल्लभ को दत्त प्रभु का अवतार नहीं माना. श्रीपाद श्रीवल्लभ के नामस्मरण से पवित्र हुए भक्त का रक्त प्राशन करने से ही तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी.”

वल्लभदास सारी कथा सुना रहा था, वह बोला, “शंकर भट्ट, ये कौए, वे सब पूर्वजन्म के अहंकारी पंडित थे. उन्होंने तुम्हारा रक्त प्राशन किया और वे उत्तम गति को प्राप्त हुए.” वल्लभदास आगे बोला. “ब्राह्मण को सत्यनिष्ठ होना  चाहिए, क्षत्रिय को धर्मबद्ध होना चाहिए, वैश्य व्यवसाय, व्यापार, गायों की रक्षा, क्रय-विक्रय आदि करे. शूद्र प्रेम से सेवा करे. मगर जहाँ तक ईश्वर भक्ति का प्रश्न है, उसके सम्मुख वर्ण, जाति, कुल, अमीरी-गरीबी, स्त्री, पुरुष यह भेदभाव नहीं है. ईश्वर अपने भक्त के प्रेमभाव को, उसकी श्रद्धा और दृढ विश्वास को ही देखता है. मानव चाहे किसी भी वर्ण में जन्म ले, कर्म उसे अपने धर्म के अनुसार ही करना चाहिए.”

वल्लभदास आगे बोले, “जब तुम छोटे थे तो विष्णुमूर्ति के ध्यान-श्लोक का पठन कर रहे थे, उस समय तुमने विनोद बुद्धि से एक श्लोक का गलत अर्थ अपने मित्र को बताया. वह श्लोक था, “शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् . प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये.”

इस श्लोक का विनोद्बुद्धि से अर्थ बतलाना श्री दत्त प्रभु को अच्छा नहीं लगा. उसीके दंडस्वरूप धोबी गधे पर बैठाकर तुम्हें यहाँ लाये. अंत में चर्मकारों के गाँव में तुम्हें पहुँचाया. तुम्हारी ऐसी दुर्गति करने के पीछे श्रीपाद श्रीवल्लभ की यह मंशा थी, कि विनोद करते हुए तुम्हें कोई पाठ पढ़ाकर तुम्हारे मन के अहंकार को दूर करें. यह बात सदैव ध्यान में रखना कि उस दयाघन श्रीपाद श्रीवल्लभ की हर पल हम पर दयादृष्टि रहती है.”

श्री वल्लभदास के हितोपदेश से मैं धन्य हो गया. मेरे भीतर ब्राह्मण होने का जो अहंकार था, वह नष्ट हो गया. मैंने वल्लभदास के आतिथ्य को स्वीकार किया. दो-तीन दिन वहाँ रहकर मैं चिदम्बर की और चला. चिदम्बर  पहुँचनें से पहले मैं विचित्रपुर गया. वहाँ का राजा भी विचित्रता से व्यवहार कर रहा था. उसका एक पुत्र था परन्तु वह मूक था, अतः राजा सदैव उदास रहता था. उसे संदेह था कि ब्राह्मणों के ‘लोपभूइष्ट (यज्ञ कर्म लोप) यज्ञ करने के कारण ही उसका पुत्र मूक हो गया है. वह ब्राह्मणों का अपमान करके उन्हें गधे पर बिठाकर घुमाता. वह ब्राह्मणों को दान के रूप में राजगिरे की भाजी दिया करता. उस राज्य में ब्राह्मण अपने अहंकार को भूल कर अत्यंत दयनीय स्थिति को प्राप्त हो गए थे. एक विद्वान ब्राह्मण को राजा ने मूक भाषा पर ग्रन्थ लिखने की आज्ञा दी. उस राजाज्ञा के अनुसार वे राजगुरू मूकभाषा पर संशोधन कर रहे थे.

शंकर भट्ट और राजा का संवाद

 

राजा के सैनिकों ने मुझसे पूछा कि क्या मैं ब्राह्मण हूँ . मैंने स्वीकारोक्ति स्वरूप गर्दन हिलाई तो वे बोले, “आपको महाराज सादर निमंत्रित करते हैं” और मुझे राजमहल चलने की प्रार्थना की. मैं उनके साथ जाकर राजा के सामने खड़ा हो गया. डर के मारे मुझे पसीना आ रहा था. तब मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ की प्रार्थना की और उनके नाम का जाप करने लगा.  

राजा ने मुझसे पहला प्रश्न पूछा, “उतने का इतना, तो इतने का कितना होगा?

मैंने गंभीरता से कहा, “इतने का इतना ही होगा.” मेरे उत्तर से राजा को आश्चर्य हुआ और वह बोला, “महात्मन् आप बड़े पंडित हैं, आपके दर्शन से मैं धन्य हुआ.”

राजा ने अपने पूर्व जन्म की स्मृतियों का वर्णन करना आरम्भ किया. पिछले जन्म में वह ब्राह्मण था. उसके घर राजगिरे की भाजी लगा करती थी. यह भाजी वह सबको दिल खोल कर दिया करता था. उसके सहपाठी इस ब्राह्मण द्वारा अपने यजमानों के घर पूजा, अर्चा, अभिषेक आदि करवा लेते. मगर यजमानों द्वारा दी गई दक्षिणा में से अधिकाँश स्वयं रखकर इसे बहुत थोड़ी दक्षिणा देते. उसके घर के राजगिरे की भाजी भी मुफ्त में ले लेते. अगले जन्म में उस गरीब ब्राह्मण ने राजा के यहाँ जन्म लिया और उसे सताने वाले, उसे लूटने वाले ब्राह्मण भी इसी राज्य में ब्राह्मण के रूप में जन्मे. वह राजा पिछले जन्म में दी गई राजगिरे की भाजी के दान का अनेक गुना दान इस जन्म में भी दे रहा था. इस अपरिमित दान का उसे क्या फल मिलेगा इस प्रश्न का उत्तर वह चाहता था. मैंने राजा से कहा, “महाराज, राजगिरे की भाजी चाहे जितनी भी दान करें, इसीका सौ गुना आपको प्राप्त होगा. वर्त्तमान परिस्थिति में रत्न, मोती, सोना इत्यादी का दान करना आपके लिए हितकर होगा.” मेरे उत्तर से राजा को प्रसन्नता हुई. अब अगला प्रश्न था मूक भाषा से संबंधित.

राजगुरू ने मेरी परिक्षा लेने के लिए अपनी दो उंगलियाँ दिखाकर “एक अथवा दो” ऐसा इशारे से ही पूछा. मैंने समझा कि वह मुझसे पूछ रहे हैं, कि क्या मैं अकेला हूँ अथवा मेरे साथ कोई और भी है. “मैं अकेला ही हूँ” यह उत्तर देने के लिए मैंने एक ही उंगली दिखाकर इशारे से ही जवाब दिया. उसके बाद उन्होंने तीन उंगलियाँ दिखाईं. तीन संख्या देखते ही मुझे श्री दत्तात्रेय की त्रिमूर्ति का स्मरण हो आया. मैंने समझा, वह मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मैं दत्त भक्त हूँ?” मैंने कहना चाहा कि भक्ति गुप्त रखना चाहिए, इस आशय से हाथ की मुट्ठी बांधकर उन्हें दिखाई और यह कहना चाहा कि भक्ति का तात्पर्य अंतर्मन से है. फिर राजगुरू ने इशारों में मुझसे कहा कि वे मिष्ठान्नों का भण्डार ही मुझे देना चाहते हैं, परन्तु मैंने हाथ से इनकार कर दिया और मेरे पास पुडिया में जो पोहे थे, उसमें से कुछ उन्हें दिए. मुझे मिष्ठान्नों की अपेक्षा पोहे अधिक पसंद हैं, ऐसा मेरा तात्पर्य था, आप भी इनका स्वाद ले सकते हैं.

मेरे उत्तरों से राजगुरू बहुत प्रसन्न हुए और राजा से बोले. “राजा, ये बहुत बड़े पंडित हैं, मूक भाषा के भी ये महान पंडित हैं.”

दो परीक्षाओं में तो मैं सफल हो गया था, अब तीसरी परिक्षा मुझे चुनौती दे रही थी. राजगुरू ने कहा, “ ‘चमक के श्लोक पढ़कर उसका अर्थ बताएं!” मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ का स्मरण करते हुए श्लोक पढ़े और उनका अर्थ सभा के सम्मुख स्पष्ट किया. मेरे द्वारा बताया गया भावार्थ इस प्रकार था:

“एकंचमे” का अर्थ है एक. “तिस्त्रश्चमे” अर्थात् एक में यदि तीन मिलाए जायें तो योग होगा चार और उसका वर्गमूल होगा दो. “पंचचमे” अर्थात् चार में पाँच जोड़ें तो योग होगा नौ, इसका वर्गमूल होगा तीन. “सप्तचमे” – इस नौ में सात जोड़ने से प्राप्त होंगे सोलह, जिसका वर्गमूल है चार. “नवंचमे” – अर्थात् सोलह में नौ जोड़ने से प्राप्त होंगे पच्चीस और इसका वर्गमूल होगा पाँच. “एकादशचमें” अर्थात् ऊपर प्राप्त पच्चीस में ग्यारह जोड़ने से योग होगा छत्तीस, जिसका वर्गमूल होगा छह. “त्रयोदशचमे” से तात्पर्य है, इस छत्तीस में यदि तेरह मिलाये जाएँ, तो प्राप्त होंगे उनचास, जिसका वर्गमूल है सात. “ पंचदशचमे” – अर्थात् ऊपर प्राप्त उनचास में यदि पंद्रह जोड़ें तो प्राप्त होंगे  चौंसठ, जिसका वर्गमूल होगा आठ . “सप्तदशचमे” का अर्थ है, इस चौंसठ में यदि सत्रह मिलाए जाएँ, तो योग होगा इक्यासी और इसका वर्गमूल होगा नौ. “नवदशचमे” अर्थात् इस इक्यासी में उन्नीस जोड़ने से प्राप्त होंगे सौ, जिसका वर्गमूल है दस. “एकविन्शतिश्चमे” अर्थात ऊपर प्राप्त सौ में इक्कीस मिलाने से योग होगा एक सौ इक्कीस, जिसका वर्गमूल है ग्यारह. “त्रयोविन्शतिश्चमे” से तात्पर्य है इस एक सौ इक्कीस में तेवीस का अंक जोड़ने से प्राप्त होंगे एक सौ चवालीस, जिसका वर्गमूल होगा बारह. “पंचविन्शतिश्चमे” अर्थात् ऊपर प्राप्त एक सौ चवालीस में पच्चीस मिलाएँ जाये तो योग होगा एक सौ उनहत्तर, इसका वर्गमूल होगा तेरह. “सप्तविन्शतिश्चमे” का अर्थ है, उपरोक्त उनहत्तर में सत्ताईस जोड़ने से प्राप्त होंगे एक सौ छियानवे, और इसका वर्गमूल होगा चौदह. “नवविंशतिश्चमे” अर्थात् उपरोक्त एक सौ छियानवे में उनतीस जोड़ने से योग होगा दो सौ पच्चीस. और इसका वर्गमूल आयेगा पंद्रह. “एकत्रिन्शश्चमे” का तात्पर्य है उपरोक्त दो सौ पच्चीस में यदि इकतीस जोड़े जाएँ, तो योग होगा दो सौ छप्पन और इसका वर्गमूल होगा सोलह. “त्रयस्त्रिन्शश्चमे” अर्थात् उपरोक्त दो सौ छप्पन में तेहतीस जोड़ने पर प्राप्त होंगे दो सौ नवासी, जिसका वर्गमूल होगा सत्रह.

मेरे इस प्रवचन पर मुझे स्वयँ को भी आश्चर्य हो रहा था. जो कुछ भी मैं कहा रहा था वहा सब सृष्टि के परमाणुओं का रहस्य था. इसका ज्ञान कणाद ऋषि को था. परमाणु के सूक्ष्म कणों की भिन्नता के फलस्वरूप ही विविध धातुओं का निर्माण होता है. मेरा प्रवचन दरबार में सभी को बहुत पसंद आया.

राजा के सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर देने के कारण तथा श्री श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा के फलस्वरूप मैं उस विचित्रपुर नगरी से सही सलामत बाहर निकल आया.

“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय हो.”

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