“ श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये “
अध्याय ३
पळनीस्वामी के दर्शन – कुरवपुर के श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
स्मरण की महिमा.
विचित्रपुर से निकल कर मैं
तीन दिन तक चलता रहा. मार्ग में अन्न-जल की व्यवस्था ईश्वर की कृपा से होती रही.
चौथे दिन मैं अग्रहारपुर पहुँचा. वहाँ एक ब्राह्मण के घर के सम्मुख खड़े होकर “ऊँ
भिक्षां देही” कहकर भिक्षा मांगी. उस घर से एक अति क्रोधित स्त्री बाहर आकर बोली, “भात नहीं, लात नहीं”. मैं थोड़ी देर उसी प्रकार
द्वार के सामने खडा रहा. थोड़ी देर में गृह स्वामी बाहर आकर बोले, “मेरी पत्नी ने गुस्से में आकर मेरे सर पर मिट्टी का घडा फोड़ दिया और अब
यह कहकर कि ‘इसकी कीमत जितने पैसे लाकर दो’, मुझे घर से बाहर
निकाल दिया. मैं आपके साथ आता हूँ. दोनों मिलकर भिक्षा मांगेंगे.” मैंने कहा, “समस्त जीवों को अन्न-जल देने वाले सर्वव्यापी श्री दत्त प्रभु ही हैं.
चलो, हम सामने वाले पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर उनका नाम-स्मरण
करें.” हम दोनों पीपल के उस विशाल वृक्ष के नीचे बैठकर श्री दत्त प्रभु का भजन
करने लगे. भूख के कारण मुख से आवाज़ भी मुश्किल से निकल रही थी. तभी वहाँ
विचित्रपुर के राजदूत आये. वे बोले, “हमारे युवराज का
गूंगापन दूर हो गया है. अब वे बोल सकते हैं. राजासाहेब ने हमें आज्ञा दी है कि
आपको उनके पास लाया जाए. आप हमारे साथ घोड़े पर चलिए.”
मैंने कहा, “मैं अकेला नहीं आऊँगा, यदि मेरे मित्र को भी साथ आने देंगे, तो मैं आऊँगा.” राजदूतों ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली. हम दोनों को
घोड़े पर बिठाकर वे राजप्रासाद की और चले. उस गाँव के लोग आश्चर्य से देख रहे थे.
राजमहल में पंहुचने पर राजा ने हमारा स्वागत किया, और कहा, “आपके
जाने के बाद युवराज अचानक बेहोश हो गया. हम घबरा गए. राजवैद्य को बुलावा भेजा, परन्तु उनके आने से पूर्व ही युवराज को होश आ गया. आँखें खोलकर वह “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा” इस मन्त्र का जाप
करने लगा. कुछ देर बाद युवराज ने बताया कि जब वह बेहोश था तो उसके पास सोलह-सत्रह
वर्ष का अत्यंत तेजस्वी, दैदीप्यमान,
कान्तियुक्त यति आया. उसने युवराज की जिह्वा पर विभूति लगाई और उसी क्षण युवराज को
वाचा प्राप्त हुई.” राजा ने पूछा, “वे यति कौन थे? श्री दत्त प्रभु से उनका क्या सम्बन्ध है? कृपया
विस्तारपूर्वक बताएँ .”
मैंने कहा कि युवराज ने जिस
सोलह-सत्रह वर्ष के दिव्यस्वरूप यति को देखा, वे श्री श्रीपाद
श्रीवल्लभ थे. उन्होंने ही युवराज को वाचा प्रदान की है. वे श्री दत्त प्रभु के
कलियुगीन अवतार हैं. उनके दर्शनों के लिए ही मैं कुरवपुर क्षेत्र जा रहा हूँ.
मार्ग में अनेक पुण्य पुरुषों के, संत-महात्माओं के दर्शनों
का लाभ हो रहा है. दरबार में बैठे सभी लोगों ने श्रीपाद श्रीवल्लभ का जयजयकार किया.
राजा ने मुझे तथा मेरे साथ आए उस व्यक्ति को सुवर्ण मुद्राएँ दान में दीं. उन्हें
लेकर हम चल पड़े. राजा के राजगुरु ने कहा, “आपके कारण हमारा
ज्ञानोदय हुआ और हमें श्री दत्त महिमा का ज्ञान हुआ.”
हमारे साथ माधव नम्बूद्री नामक
एक ब्राह्मण भी श्री स्वामी के दर्शनों के लिए कुरवपुर के लिए चल पडा. हम तीनों
विचित्रपुर से अग्रहारपुर पंहुचे. मेरे साथ अग्रहारपुर से आये हुए उस व्यक्ति ने
राजा द्वारा दी गईं सुवर्ण मुद्राएँ अपनी पत्नी को दी. वह बड़ी प्रसन्न हुई. उसने
सबको यथेच्छ भोजन दिया. उसके पश्चात् वह श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की भक्त बन गई.
मैं और माधव नम्बूद्री चिदंबरम्
की और निकल पड़े. वर्त्तमान गुंटूर (गर्तपुरी) मंडल के नम्बुरू गाँव में अनेक
विद्वान ब्राह्मण रहा करते थे. मलियाल देश के राजा ने नम्बुरू के अनेक विद्वान
पंडितों को अपने देश में बुलाकर उन्हें राजाश्रय प्रदान किया. यही ब्राह्मण नम्बूद्री
ब्राह्मण कहलाये. ये ब्राह्मण आचार सम्पन्न एवं वेद पारंगत थे. ईश्वर में उनकी दृढ़ श्रद्धा
थी. परन्तु मेरे साथ चल रहा माधव नम्बूद्री बचपन में ही अपने माता-पिता को खो चुका
था और निरक्षर था. मगर श्री दत्त प्रभु पर उसे प्रगाढ़ विशवास था. उनके प्रति उसके
मन में गहरी श्रद्धा थी.
जब हम चिदम्बर पँहुचे तो
ज्ञात हुआ कि वहाँ पळनीस्वामी नामक महात्मा का वास है. उनके दर्शनों के लिए पर्वत
पर एकांत में स्थित उनकी गुफा की ओर चले. गुफा के द्वार पर ही पळनीस्वामी हमें
देखकर बोले, “माधवा! शंकरा! दोनो मिलकर आये हो! हमारे
अहोभाग्य!” प्रथम दर्शन में ही हमारे नाम न जानते हुए भी,
हमें अपने नाम से पुकारने वाले यह महात्मा अत्यंत सिद्ध हैं,
इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था. स्वामी बोले, “बालकों, श्रीपाद श्रीवल्लभ की आज्ञानुसार मैं इस शरीर का त्याग करके दूसरे युवा
शरीर में प्रवेश करने वाला हूँ . वह समय अब निकट आ गया है. इस शरीर में मैं तीन सौ
वर्षों से वास कर रहा हूँ. इस देह को त्याग कर नूतन शरीर में और तीन सौ वर्ष रहूँ,
ऐसी श्रीपाद स्वामी ने मुझे आज्ञा दी है. जो जीवन्मुक्त हो गए हैं, जो जन्म-मरण रूपी स्रष्टि से परे हैं और समस्त स्रष्टि का चालन करने वाले
हैं, वही महासंकल्प हैं श्री श्रीपाद श्रीवल्लभ!” पळनीस्वामी
आगे बोले, “बालक, शंकर! तुमने विचित्रपुरी में कणाद महर्षि
के कणाद सिद्धांत के विषय में कहा था, उसका वर्णन करो.”
कणाद महर्षि का कण-सिद्धांत
स्वामी के प्रश्न के उत्तर
में मैंने कहा, “स्वामी, मुझे क्षमा करे.
कणाद महर्षि और उनके सिद्धांत के बारे में मैं बहुत कम जानता हूँ. जो कुछ मैंने
वर्णन किया था वह श्री दत्त प्रभु के आदेशानुसार ही मेरे मुख से फूट रहा था, आपको तो यह ज्ञात ही है,” करुणास्वरूप पळनीस्वामी
ने कण-सिद्धांत का वर्णन करना आरम्भ किया. वे बोले:
“समस्त सृष्टि का निर्माण
परम-मूल अणुओ (परमाणुओं से) से हुआ है. इन परमाणुओं से भी सूक्ष्म कणों के
अस्तित्व से विद्युत् शक्ति उत्पन्न होती है. ये सूक्ष्म कण अत्यंत वेगवान गति से
अपनी-अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते रहते हैं. जिस प्रकार स्थूल सूर्य के चारों और ग्रह
अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं, उसी प्रकार ये
सूक्ष्म कण भी अपने केंद्र के चारों और भ्रमण करते हैं. इन सूक्ष्म कणों से भी
सूक्ष्म स्थिति में प्राणिमात्र के समस्त भावावेगों का स्पंदन होता रहता है.
स्पन्दनशील जगत में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है. चंचलता उसका स्वभाव है. प्रतिक्षण
परिवर्तित होना उसकी प्रवृत्ति है. इन स्पंदनों से भी सूक्ष्म स्थिति में स्थित है
श्री दत्त प्रभु का चैतन्य. अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी सूक्ष्म रूपों
से भी सूक्ष्मतम, ऐसे श्री दत्त प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करना. यह जितना सरल है, उतना ही कठिन भी है. यदि प्रत्येक कण के अनंत भाग किये जाएँ, तो एक-एक कण
शून्य के समान होगा. अनंत शून्यों के संयोग से बनी है यह सृष्टि. जिस प्रकार
पदार्थ की सृष्टि होती है, वैसे ही व्यतिरेकी (विपरीत)
पदार्थ की भी होती है. इन दोनों का संयोग होने पर व्यतिरेकी पदार्थों का नाश होता
है, स्वयँ पदार्थों के गुणों में भी परिवर्तन होता है.
अर्चावतार में प्राणप्रतिष्ठा करने पर वह मूर्ती चैतन्यमय होकर भक्तों की मनोकामना
पूर्ण करती है. कुण्डलिनि शक्ति में सभी मन्त्र होते हैं. गायत्री मन्त्र भी इस
शक्ति में समाया हुआ है. साधारण रूप से यह माना जाता है कि गायत्री मन्त्र के तीन
चरण हैं, परन्तु इस मन्त्र में चौथा चरण भी है, वह है “परोरजाती
सावदोम”.
कुण्डलिनी शक्ति चौबीस
तत्वों से इस विश्व का निर्माण करती है. गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर हैं. चौबीस
– इस संख्या को ‘गोकुल’ भी कहते हैं. “गो” अर्थात् दो, “कुल” अर्थात् चार. ब्रह्मस्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं
होता. “परिवर्तनातीत” है इसीलिये इसे “नौ” इस अंक से प्रदर्शित किया जाता है. “आठ”
का अंक महामाया के स्वरूप को प्रकट करता है. श्रीपाद श्रीवल्लभ के भक्तजन “उन्हें
दो चौपाती देवलक्ष्मी” कहा करते थे. परब्रह्म ही सभी जीवों के “लिए पतिस्वरूप है.
पतिदेव का तात्पर्य है “नौ” के अंक से, लक्ष्मी का तात्पर्य है “आठ” के अंक से, दो का तात्पर्य “दो” के अंक से है, “चौ” अर्थात्
चार का अंक. अत “दो चौ पति लक्ष्मी” का अपभ्रंश होकर वह “ दो चौपाती देवलक्ष्मी”
हो गया. यह सभी जीवों को २४९८ इस संख्या का स्मरण कराता है. गोकुल में परब्रह्म
पराशक्ति का वास श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में ही है. श्रीकृष्ण परमात्मा श्रीपाद
श्रीवल्लभ ही हैं. गायत्री मन्त्र का स्वरूप उनकी निर्गुण पादुकाओं के समान है.”
स्वामी बोले, “वत्स, शंकर! स्थूल मानव शरीर में बारह प्रकार के
भेद है. जिस स्थूल शरीर का सबको अनुभव होता है, वह सूर्य के
प्रभाव के अंतर्गत है”. श्रीपाद श्रीवल्लभ पीठिकापुरम में मानव रूप में अवतरित
होने से लगभग १०८ वर्ष पूर्व इस प्रदेश में आये थे. उन्होंने मुझ पर अनुग्रह किया
था. अभी जिस रूप में वे कुरवपुर में वास कर रहे हैं, उसी रूप
में वे उस समय यहाँ आये थे. उस समय एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. हिमालय के कुछ
महायोगी बद्रीकेदार तीर्थक्षेत्र स्थित बद्रीनारायण की ब्रह्मकमलों से अर्चना कर
रहे थे. बद्रीनारायण के चरणों में अर्पित ब्रह्मकमल श्रीपाद श्रीवल्लभ के चरणों पर
आकर गिर रहे थे. यह दृश्य हमने स्वयं अपनी आंखों से देखा था.”
पळनीस्वामी के इस दिव्य
वक्तव्य से मैं भाव विभोर हो गया. शरीर में रोमांच उठने लगे. मैंने उनसे पूछा, “ ब्रह्मकमल क्या है? वे कहाँ मिलते हैं? आपके वक्तव्य से ज्ञात हुआ है
कि ब्रह्मकमलों से पूजा करने पर श्री दत्त प्रभु संतुष्ट होते हैं. कृपया मेरे इस
संदेह का निवारण करें.”
ब्रह्मकमल का स्वरूप
मेरी
प्रार्थना स्वीकार करते हुए श्री पळनीस्वामी स्नेह पूरित दृष्टी से मेरी ओर देखते
हुए बोले, “श्री महाविष्णु ने श्री सदाशिव की पूजा ब्रह्मकमल से की थी. श्री विष्णु
की नाभि से जो कमल निकला है, उसे भी ब्रह्मकमल ही कहते हैं. दिव्य लोक में पाए
जाने वाले ब्रह्मकमल के सादृश्य यह कमल हिमालय पर पाया जाता है. लगभग बारह हज़ार फुट
की ऊंचाई पर हिमालय पर यह ब्रह्मकमल वर्ष में एक ही बार खिलता है. और इसके खिलते
समय चारों और का परिसर अद्भुत सुगंध से परिपूर्ण हो जाता है. हिमालय में साधना
करने वाले साधक, महात्मा ऐसे ब्रह्मकमल की खोज में रहते है. शरदऋतु से
लेकर बसंतऋतु तक यह बर्फ के
नीचे दबा रहता है. चैत्र मास के आरम्भ में यह बर्फ से बाहर निकलता है. ग्रीष्म ऋतु
में इसके विकास की प्रक्रिया पूर्ण होती है. अमरनाथ स्थित अमरेश्वर हिमलिंग के
दर्शन श्रावण शुक्ल पौर्णिमा को होते हैं और इसी समय अर्धरात्रि के समय पूरी तरह
विकसित होकर यह फूल खिलता है. हिमालय पर तपस्यारत सिद्ध तपस्वी पुरुषों तथा साधकों
के लिए परमेश्वर की यह अद्भुत लीला होती रहती है. ब्रह्मकमल के दर्शनों से समस्त
पातकों का नाश हो जाता है. योगसिद्धि के मार्ग में उत्पन्न विघ्नों का नाश होता
है. इस ब्रह्मकमल के दर्शन से योगी, तपस्वी, सिद्ध पुरुष अपने-अपने मार्ग में उच्च स्थिति को
प्राप्त करते हैं. जिन भक्तों के प्रारब्ध में ब्रह्मकमल के दर्शन हैं,
उन सबके दर्शन कर लेने के पश्चात् यह कमल अंतर्धान हो जाता है.”
श्री
पळनीस्वामी आगे बोले, “वत्स शंकर! मैंने दस दिनों तक समाधी में लीन होने का
निश्चय किया है. यदि कोई भक्त मेरे दर्शन की आर्त इच्छा लेकर आये तो मेरी समाधी
भंग किये बिना उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से दर्शन करने दो. यदि सांप के काटने से
मृत हुए किसी व्यक्ति को लाया जाए, तो कहना कि मैं समाधिरत हूँ , और तब उस मृत शरीर को
नदी के जल के प्रवाह में अथवा भूमि के भीतर गाड़ कर रखना. कहना कि मेरी ऐसी आज्ञा
है.”
श्री
पळनीस्वामी जहाँ बैठे थे, उसी आसन पर समाधिस्त हो गए. मैं और माधव,
दोनों मिलकर आने वाले भक्तों को दूर से ही अत्यंत शांतिपूर्ण ढंग से उनके दर्शन
करवा रहे थे. दर्शनार्थ आये हुए कुछ भक्त स्वामी को अर्पण करने के लिए चावल,
दाल, आटा आदि सामग्री लाये थे. यह देखकर माधव ने रसोई बनाने का निश्चय किया. उसे
निकट ही पड़ा हुआ नारियल के पेड़ का एक बड़ा सूखा हुआ पत्ता दिखाई दिया. उस पत्ते का
ईंधन के रूप में प्रयोग करने की इच्छा से वह उसे उठाने के लिए उसके निकट गया. उसके
साथ एक अन्य भक्त भी था. माधव ने उस पत्ते को उठाकर अपने कंधे पर रखा,
तभी उस पत्ते के नीचे बैठे एक सर्प ने क्रोधित होकर उसे दंश कर लिया. उस सर्प का
विष इतना दाहक था कि माधव तत्काल काला-नीला पड़ गया और मृत होकर भूमि पर गिर पडा. दो-तीन
व्यक्ति उसे उठाकर गुफा तक लाये. यह दृश्य देखकर मैं घबरा गया. कुछ सूझ न रहा था
कि क्या किया जाए. तब स्वामी के आदेशानुसार उसे ज़मीन में गाड़ कर रखने का निश्चय
करके मैंने एक गढ़ा खोदना प्रारम्भ किया. अन्य भक्तों ने मेरी सहायता की. उस गढ़े
में मृत देह को रखकर जैसे ही मैं वापस आया, गाँव के कुछ लोग सत्रह-अठारह बरस के सर्पदंश से मृत
हुए एक बालक का शव लेकर आये. पहले माधव की दुर्घटना और अब यह दूसरी दुर्घटना देखकर
मैं अपने अश्रु न रोक सका. मैंने जैसे तैसे उन्हें स्वामी का आदेश सुनाया. गाँव के
लोगों ने गुफा के निकट ही एक गढ़ा खोदकर उस बालक को उसमें लिटा दिया. स्वामी के
दर्शनों के लिए रोज़ तीन-चार भक्त आते. उन्हें मैं दर्शन करवा देता. इस प्रकार दस
दिन बीत गए, ग्यारहवें दिन ब्रह्म मुहूर्त पर श्री पळनीस्वामी समाधि से बाहर आये और “माधव!
माधव!” कहकर पुकारने लगे. मैंने रोते-रोते उन्हें सारी घटना सुनाई. स्वामी ने मुझे
समझाया. उन्होंने योग दृष्टी से मेरी और देखा, तब मुझे अपनी रीढ़ की हड्डी में थोड़ी हलचल महसूस हुई
और उसमें दर्द होने लगा. तब उन्होंने दुबारा अपनी प्रसन्न दृष्टी से मेरी और देखा,
और मेरी सारी वेदना दूर हो गई. स्वामी ने कहा, “ वत्स, शंकर! माधव के प्रारब्ध में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
दर्शन स्थूल शरीर से प्राप्त होना नहीं लिखा था. अतः उसका सूक्ष्म शरीर पिछले दस
दिनों से कुरवपुर में विद्यमान श्री चरणों के सान्निध्य में है. चाहे जो भी हुआ हो,
उसकी इच्छा पूर्ण हुई. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की लीला अपरंपार है. उसे कोई नहीं
जान सकता, यही सत्य है. उसे केवल स्वामी ही जान सकते हैं. माधव को स्थूल शरीर में
वापस लाने का कार्य स्वामी ने मुझे सौंपा है.”
पळनीस्वामी
के ऐसा कहने के पश्चात् उनके आदेशानुसार मैं माधव का मृत शरीर गढ़े से बाहर निकाल
कर लाया, और दक्षिण की और स्थित ताड़ के घने वृक्ष के निकट जाकर जोर से बोला, “माधव
को दंश करने वाले नागराज! श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की आज्ञानुसार तुम पळनीस्वामी
के निकट आओ.”
श्री
पळनीस्वामी ने अपने वस्त्रों से चार कौड़ियाँ निकाल कर उन्हें मृत शरीर के चारों और
रखा. थोड़ी ही देर में वे कौडियाँ ऊपर को उछलकर आकाश में चारों दिशाओं में चली गईं.
पांच-दस मिनटों के अन्दर ही उत्तर की और से एक सर्प आया. स्वामी की चारों कौडियाँ
उसके फेन में फंस गई थीं. इस कारण वह त्रस्त होकर फुफकार कर रहा था. स्वामी ने उसे
माधव के शरीर का विष खींच लेने की आज्ञा दी. जिस स्थान पर उसने दंश किया था,
वहीं से उसने पूरा विष बाहर खींच लिया. श्री पळनीस्वामी ने मन ही मन श्रीपाद स्वामी
को प्रणाम किया और उस सर्प पर मंत्रोदक छिडका. वह सर्प स्वामी के चरण कमलों का
स्पर्श करके और तीन बार उनकी प्रदक्षिणा करके चला गया.
श्री दत्त
भक्तों को अन्नदान देने से मिलने वाला फल
श्री
पळनीस्वामी बोले, “ हे शंकर, यह सर्प पिछले जन्म में एक स्त्री था. उसने अपने जीवन
में थोड़ा पाप, थोड़ा पुण्य किया था. उसने एक दत्त भक्त को भोजन कराया
था. यह था उसके पुण्य का अंश. यथासमय देह त्यागने के पश्चात् उसे यमदूत यमराज के
पास ले गए. यमराज ने उससे कहा, “तूने एक बार एक दत्त भक्त को अन्नदान दिया था,
उसका विशेष पुण्य तुझे प्राप्त हुआ है. तुझे पहले पाप का फल भोगना है,
अथवा पुण्य का?” इस पर वह स्त्री बोली, “जो थोड़ा है वह प्रथम भोग लूँगी.” तदनुसार उसे पाप
योनी में – सर्प योनी में जन्म प्राप्त हुआ. उसका स्वभाव सबको हानि पहुँचाने का था,
अतः उसके मार्ग में जो भी कोई आता उसे वह डस लेती थी. वह स्त्री मानव जन्म में
रजोगुणी होने के कारण उसके केवल समीप पहुंचे माधव को उसने दंश कर लिया था,
परन्तु माधव अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो गया.
समयानुसार श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा से उस स्त्री को सर्प योनी से मुक्ति
मिल गई.”
योग्य
व्यक्ति को दिए गए अन्नदान का फल
श्री दत्त प्रभु अल्प से ही
संतुष्ट हो जाते हैं (वे अल्प संतोषी हैं). थोड़ी सी सेवा से प्रसन्न होकर अपने
भक्तों को अपरिमित फल देते हैं. श्री दत्त प्रभु के नाम से यदि किसी भी व्यक्ति को
अन्नदान दिया जाए, और यदि वह व्यक्ति योग्य हो, तो उस अन्नदान का विशेष फल प्राप्त होता है. अन्न के छोटे से अंश से मन का निर्माण होता है. अन्नदाता का मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर मंगल स्पंदनों से व्याप्त हो जाता है. अतः उसमें लोगों को अपनी ओर
आकृष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है. श्री पळनीस्वामी आगे बोले, “इच्छित वस्तु की समृद्धि से तात्पर्य है श्री लक्ष्मी का कृपा कटाक्ष
प्राप्त होना. यह समूची सृष्टि सूक्ष्म स्पंदनों से, सूक्ष्म
नियमों से चालित होती है.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ के नामस्मरण की महिमा
श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी का नामस्मरण करने से लक्ष्मी, धन, ऐश्वर्य, समाधान प्राप्त होता है. जिन पर वे अनुग्रह
करते हैं, उनके भाग्य का वर्णन क्या करूँ! श्री चरणों की कृपा से दस दिन तक ज़मीन में
गड़े माधव के शरीर को कुछ भी नहीं हुआ था. उसे प्राणदान करने वाले प्रभु श्रीपाद
श्रीवल्लभ की करुणा, दया, भक्त-प्रेम को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है.”
माधव
के शरीर में चैतन्य लौटने लगा. प्यास लगने के कारण उसने पानी माँगा. श्री पळनीस्वामी
ने उसे समझा बुझा कर पहले घी पीने के लिए दिया. उसके पश्चात् फलों का रस और फिर
कुछ देर बाद पानी दिया.
नागलोक का
वर्णन
माधव के पुनर्जीवित होने से
हमारे आनंद का पारावार न रहा. माधव ने अपने अनुभव का वर्णन इस प्रकार किया, “मैं सूक्ष्म शरीर से कुरवपुर पहुँचा और श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
दर्शन किये. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी आजानुबाहु हैं. उनके नेत्र विशाल हैं, उन नेत्रों में सभी प्राणियों के प्रति करुणा, दया
और प्रेम निरंतर प्रवाहित होता रहता है. मैं स्थूल देहधारी नहीं था, अतः वहाँ उपस्थित स्थूल देहधारी भक्तों को दिखाई नहीं देता था. श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी ने मुझे आज्ञा दी, “कुरवपुर स्थित उस द्वीप के मध्य
भाग में जाओ.” श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम स्मरण करते हुए मैं उस द्वीप के मध्य भाग
से गहराई में गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि पृथ्वी के भीतर गहराई में भूकेंद्र के
निकट अनेक प्रासाद, दालान हैं. वहा पाताल लोक ही था, ऐसा
मुझे विश्वास हो गया. जो स्थूलता को देखते हैं, उन्हें
स्थूलरूपी पदार्थ ही दिखाई देते हैं. सूक्ष्म रूप में होने के कारण मुझे सूक्ष्म
रूप धारण किये अनेक लोक दिखाई दिए. वहाँ उपस्थित लोग नाग जाति के थे और उन्होंने
काम रूप धारण किया था. उनमें इच्छित रूप धारण करने की शक्ति थी. मगर साधारणत: नागरूप
में ही विचरण करना उन्हें अच्छा लगता. वहाँ मैंने अनेक महासर्पों को देखा. कोई-कोई
सर्प तो हज़ार फन वाले थे. फनों पर मणि थी जिसमें से दिव्य तेज निकल रहा था. अन्य नाग
मानों योगमुद्रा में बैठे अपने फेन निकालकर मौन मुद्रा में थे. आश्चर्य की बात यह
थी कि उन्हीं में एक महासर्प था. उसके हज़ार फेन थे. उस महासर्प के ऊपर श्रीपाद
श्रीवल्लभ श्री महाविष्णु के समान शयन कर रहे थे. वहाँ उपस्थित सर्प वेदगान कर रहे
थे. स्वामी उस गान का चिदानंद स्वरूप में श्रवण कर रहे थे. मेरे निकट बैठे एक सर्प
ने श्री दत्त प्रभु की महिमा का गुण-गान करना आरंभ किया.
श्री दत्तात्रेय की महामहिमा
उसने
कहा, “श्री दत्त प्रभु नेपाल देश में स्थित चित्रकूट के “अनुसूया” पर्वत पर अत्रि-अनुसूया
के पुत्र के रूप में पूर्वयुग में अवतरित हुए. अवतार समाप्त किये बिना वे सूक्ष्म
रूप में नीलगिरी के शिखर पर, श्री शैल के शिखर पर, शबरगिरी के शिखर पर, सह्याद्री पर्वत पर संचार करते रहते हैं. उन्होंने
नाथ सम्प्रदाय के गोरक्षनाथ को योगमार्ग का उपदेश दिया. ज्ञानेश्वर नामक योगी को
खेचरी मुद्रा में बैठे निराकार योगी स्वरूप में दर्शन दिए. श्री दत्त-प्रभु देश-काल
से परे हैं. श्री दत्त प्रभु के सान्निध्य में हमें भूत,
भविष्य और वर्त्तमान पृथक-पृथक नहीं दिखाई देते. बस, सदा वर्त्तमान ही रहता है.”
अनघा सहित
श्री दत्तात्रेय के दर्शन
वह महासर्प आगे बोला, “वत्स माधव! हमें कालनाग ऋषीश्वर
कहते हैं. श्री दत्तात्रेय ने हज़ारों वर्षों तक राज्य परिपालन करने के पश्चात्
अपने रूप को गुप्त रखने का निश्चय किया. कुछ वर्षों तक वे नदी में अदृश्य रहे. फिर
वे पानी के ऊपर आये. हम सेवक, इस आशा में कि वे हमारे साथ वापस
आयेंगे, वहीं पर उनकी राह देख रहे थे. परन्तु वे हमसे
छुपने का प्रयत्न कर रहे थे. हम भी यह बात जानते थे. वे पुनः जलसमाधि में जाकर कुछ
कालांतर के पश्चात् ऊपर आये. इस समय उनके एक हाथ में मधु-पात्र था. दूसरे हाथ में
सोलह वर्ष की सुन्दर कन्या थी. मधुपान करते हुए, हमेशा उसके नशे
में चूर और स्त्री की दासता में लीन व्यक्ति को हम अज्ञानवश आज तक अपना गुरू मानते
रहे, ऐसा सोचकर हम वहाँ से वापस चले गए. तभी वे
दोनो भी अदृश्य हो गए. उनके अदृश्य होने के पश्चात् ही हमारा ज्ञानोदय हुआ. उनके
हाथ में जो मधुपात्र था, वह योगानंद स्वरूप अमृत का कलश था और
वह सुन्दरी त्रिशक्तिरूपिणी अनघालक्ष्मी देवी है, इस बात का हमें
स्मरण हुआ. वे फिर से इस भूमि पर अवतार लें इस हेतु से हमने घोर तपस्या की. हमारी
तपस्या के फलस्वरूप श्री दत्तात्रेय ने पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से
अवतार लिया.
श्री कुरवपुर
का वर्णन
श्री दत्तात्रेय प्रभु उस
दिन स्नान करने के लिए जल में उतरे थे, वही क्षेत्र आजकल
परम पवित्र कुरवपुर है. जब वे जल-समाधि में थे तब हम भी अपने सूक्ष्म स्पंदनों से
इस लोक में योग समाधि में लीन थे. कौरवों तथा पांडवों के मूल पुरुष कुरु महाराज को
जहाँ ज्ञानोपदेश हुआ वह कुरवपुर ही यह पवित्र स्थल है. वत्स, माधव! इस कुरवपुर का
वर्णन करने की सामर्थ्य आदि शेष (शेष नाग) के पास भी नहीं है.
सदाशिव ब्रह्मेन्द्र की पूर्व गाथा
श्रीपाद
श्रीवल्लभ के चरणों में मैंने अत्यंत नम्र भाव से शीश नवाया. तब प्रभु अत्यंत
करुणापूर्ण अंतःकरण से बोले, “वत्स! यह दिव्य भव्य दर्शन प्राप्त करना एक अलभ्य
संयोग है. तुमसे जो महासर्प बातें कर रहा था, वह आगामी शताब्दी में ज्योति रामलिंगेश्वर स्वामी नाम
से अवतीर्ण होकर ज्योति रूप में ही अंतर्धान होगा. तुमसे बातें कर रहा दूसरा
महासर्प सदाशिव ब्रह्मेन्द्र नाम से आगामी शताब्दी में अवतार लेकर अनेक लीलाएँ
दिखाएगा. श्री पीठिकापुर भी मेरा अत्यंत प्रिय स्थान है. पीठिकापुर में मेरी माता
के घर में, जहाँ मैंने जन्म लिया है, वहीं मेरी चरण पादुकाओं की प्रतिष्ठापना होगी. मेरा
जन्म तथा कर्म अत्यंत दिव्य है, वह एक गोपनीय रहस्य है. तुम श्री पीठिकापुर स्थित
मेरी चरण-पादुका प्रतिष्ठा स्थल से पाताल लोक जाकर वहाँ तपस्या कर रहे काल नागों
से मिलकर आओ.”
श्री
पळनीस्वामी मंद हास्य करते हुए आगे बोले, “वत्स माधव! पीठिकापुर के काल नागों के बारे में चर्चा
बाद में करेंगे. हमें तुरंत स्नान करके ध्यान धारणा में बैठना है. यह श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की आज्ञा है.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जयजयकार”
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