“श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये”.
अध्याय
५
शंकर
भट्ट का तिरुपति में आगमन, काणिपाक में तिरुमलदास
से भेंट
श्रीपाद
श्रीवल्लभ के अनुग्रह से शंकर भट्ट की शानिपीडा का निवारण
अपनी यात्रा करते-करते मैं परम पवित्र तिरुपति
महाक्षेत्र पहुँचा . मुझे ऐसी शान्ति का अनुभव हुआ, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था.
तिरुपति महाक्षेत्र में पुष्करिणी में स्नान करके श्री वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन
किये. मंदिर के प्रांगण में ही ध्यानस्थ हो गया. ध्यानावस्था में श्री वेंकटेश्वर
स्वामी को स्त्री रूप में देखा.
बालात्रिपुर्सुन्दरी के रूप में दिखने वाली वह मूर्ती कुछ ही क्षणों में परमेश्वर
के रूप में परिवर्तित हो गई और थोड़ी देर में महाविष्णु के रूप में परिवर्तित हुई.
ध्यानावस्था में ही कुछ ही देर में वह मूर्ति चौदह वर्षीय अति सुन्दर बालयति के
रूप में प्रकट हुई. उस बालयति की दृष्टि अमृतमय प्रतीत हुई. दोनों नेत्रों से
सहस्त्रों माताओं के वात्सल्य और अनुराग की मानो वर्षा हो रही थी. इसी समय उस बालयति
के निकट कृष्ण वर्णीय कुरूप मनुष्य आया. उसने बालयति से कहा, “श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभू! आप समूचे जगत का नियंत्रण करने वाले हैं. आपके भक्त शंकर भट्ट को
आज से साढेसाती का काल आरम्भ हो रहा है. इस विश्व में अनेक प्रकार के कष्ट हैं,
उनका उसे अनुभव करवाऊंगा. प्रभु की आज्ञा हेतु मैं यहाँ खडा हूँ.” करुणासागर प्रभु
ने कहा, “हे शनैश्चर! तुम कर्म कारक हो. जीवों को कर्मफल का अनुभव करवाकर उन्हें
कर्म विमुक्त करने वाले हो. तुम अपने धर्म के अनुसार कार्य करो. आश्रितों की रक्षा
करना मेरी प्रतिज्ञा है. अतः शंकर भट्ट की मैं तुमसे प्राप्त होने वाले कष्ट की
अवधि में सहायता करके उसे कष्ट से कैसे मुक्ति प्रदान करता हूँ,
यह तुम देखो.” श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी और श्री शनैश्चर के बीच हुए इस वार्तालाप
के पश्चात् वे दोनों ही मेरे ध्यान से लुप्त हो गए. परन्तु उसके पश्चात् भगवान की
मूर्ती का ध्यान करना असंभव हो गया. मेरे आपत्तिकाल का आरम्भ हो चुका था. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी कष्टों से मुझे मुक्ति अवश्य देंगे, यह दृढ़ विश्वास मन में था. मैं तिरुमला से तिरुपति
आया.
तिरुपति के रास्ते पर मनमौजी ढंग से चला जा रहा था. मन
चंचल था. एक नाई ने जबर्दस्ती रोक कर कहा, “तुम
बीस साल पहले घर से भागे हुए सुब्बय्या हो न? तुम्हारे माँ-बाप चिंताग्रस्त हैं. तुम्हारी पत्नी
रजस्वला हो चुकी है. उसके साथ गृहस्थी करो, बाल-बच्चों के साथ सुख से रहो.”
तभी मैं बोला, “अरे, मैं कन्नड़ देश में रहने वाला शंकर भट्ट नामक ब्राह्मण
हूँ, पथिक हूँ, और पूण्य क्षेत्रों के दर्शन करता हुआ घूम रहा हूँ.
मैं श्री दत्त भक्त हूँ . श्री दत्त प्रभु
श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम से अवतरित हुए हैं, यह सुनकर मैं कुरगड्डी की और जा रहा हूँ. परम पवित्र
गायत्री की शपथ लेकर कहता हूँ, कि मैं ब्रह्मचारी हूँ. तुम सोच रहे हो,
वह सुब्बय्या मैं नहीं.”
परन्तु मेरी आवाज़ सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था. वहाँ
बहुत से लोग जमा हो गए थे; हर कोई किसी न किसी कारण से मेरी निंदा ही किये जा
रहा था. मुझे सुब्बय्या नामक व्यक्ति के घर ले जाया गया. सुब्बय्या के माता-पिता मुझे
अपना बेटा समझकर अनेक प्रकार से मुझे समझा रहे थे. वे बोले, “अब
हमें छोड़कर मत जाना. रजस्वला पत्नी को छोड़ कर जाना घोर अपराध है.” उनमें से एक
आदमी बोला, “सुब्बय्या दाढ़ी-मूँछों से ढँक गया है. इसका क्षौरकर्म करने से पहला रूप
सामने आयेगा.” मैंने अनेक बार कहा कि मैं सुब्बय्या नहीं हूँ,
मगर मेरी बात सुनने वाला वहाँ कोई न था. ज़बरदस्ती मेरा क्षौरकर्म किया गया. मेरा सिर
पूरी तरह गंजा कर दिया गया. दाढ़ी-मूँछें भी निकाल दी गईं. मेरे गले में पड़ा पवित्र
जनेऊ भी निकाल फेंका. मेरे इलाज के लिए एक भूत-वैद्य को बुलवाया गया. वह रंग बिरंगी,
विचित्र वेश-भूषा में था. उसकी भयानक दृष्टी देखकर मेरा ह्रदय काँप गया. उसने मुझे
बांधकर मेरे सिर पर चाकू से वार किया. उस पर नींबू का रस और अन्य भी कई प्रकार के
रस डाले. वह पीड़ा मुझसे सही नहीं जा रही थी. इतना सब करने के पश्चात् यह निष्कर्ष
निकाला गया कि ‘सुब्बया को ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है, इसीलिये यह जनेऊ पहनकर घूमता है.’
तिरुपति में रहने वाले ब्राह्मण भी भयचकित हो गए थे.
वे यही समझे कि इस शहर में आया हुआ यात्री सुब्बया ही है,
जिसे एक ब्रह्मराक्षस ने पकड़ रखा है. मुझे उस शहर के श्रेष्ठ ब्राह्मणों के पास ले
जाया गया. मैंने उनसे कहा कि मैं कन्नड़ देशीय स्मार्त ब्राह्मण हूँ, भारद्वाज
गोत्र का हूँ, संध्यावंदन करता हूँ, नमक-चमक का भी मुझे ज्ञान है, परन्तु वे विश्वास करने
को तैयार न थे. उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने भी यही फैसला सुनाया कि सुब्बय्या को एक कन्नड़
ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है, अतः उसे योग्य उपायों से पूर्व स्थिति में लाया जाए.
सिर के घाव के कारण हो रही पीड़ा असहनीय थी. उसके कारण
मैं हैरान हो रहा था. मेरा विलाप अरण्यरुदन के समान ही था. जब मैं होश में आया तो
मुझे प्रतीत हुआ कि मेरे सामने बिलकुल मेरे ही जैसा, काले तेज वाला. विकृत स्वरूप का आदमी बैठा है. मुझसे
एक भी शब्द कहे बिना वह मुझमें समा गया. साढ़ेसाती के प्रभाव के कारण आगामी साढे सात
वर्षों तक मेरा कष्टदायक काल है, यह मैं समझ गया. मगर केवल श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
ही इस कठिन समय में मेरी रक्षा करेंगे ऐसा दृढ विश्वास मन में था. तपते ज्वर में
भी मै मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम-स्मरण कर रहा था. श्री चरणों का नाम-स्मरण
करते ही मेरी पीड़ा कम होनी आरम्भ हुई.
भूता वैद्य मुर्गियों की, बकरों की बलि देते हुए अजीबा-अजीब सी पूजा किये जा रहा
था. मुझे पथ्य का भोजन दिया जा रहा था.
‘सुब्बया को ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है,
अतः उसे शाकाहार ही दिया
जाना चाहिए’ ऐसा मान्त्रिक ने कहा था. मेरे मन को सांत्वना मिली कि श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी की कृपा से ही मुझे शाकाहार दिया गया है. तीन दिनों तक मैंने तीव्र
नरक-यातनाओं को सहा. उस संकट के बीच भी श्री चरणों का स्मरण मैं किये जा रहा था,
अतः चौथे दिन से संकटों का आना बंद हो गया. वे लोग मेरे शरीर पर विचित्र-विचित्र
प्रयोग कर रहे थे. मान्त्रिक बीच-बीच में मुझे चाबुक से मारता,
मैं रोते-रोते आर्त स्वर में पुकारता, “श्री वल्लभा शरणं शरणं.” श्री दत्त प्रभु की अनन्य
भाव से सेवा करने वालों को नरक यातनाएँ क्यों मिलती हैं,
इसका मुझे अचरज हो रहा था. तभी एक अजीब बात हुई. मेरे शरीर पर चाबुक का वार हुआ,
मगर मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई, बल्कि मान्त्रिक ही रोने लगा. वह मार तो मुझे रहा था,
मगर उस मार की पीड़ा स्वयँ उसे ही हो रही थी. ऐसा क्यों हो रहा है,
यह वह समझ नहीं पा रहा था. वह मेरी ओर पागल के समान देख रहा था. मगर मैं,
यह सोचकर कि यह सब श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की ही लीला है,
मुस्कुरा रहा था. मैं पथ्य का ही भोजन कर रहा था, मगर वह भोजन भी मुझे अत्यंत मधुर प्रतीत हो रहा था.
मैं भरपेट खाना खा रहा था. भोजन को श्रीपाद स्वामी के अनुग्रह का प्रसाद समझ कर ही
ग्रहण कर रहा था. मगर उस मान्त्रिक को अपनी पसंद का माँसाहार भी विष के समान
प्रतीत हो रहा था. उसका शरीर भी क्षीण हो रहा था. अब वह मुझे पीड़ा पहुँचाने के
बजाय केवल मन्त्र, पूजा इत्यादि में अपना समय बिता रहा था. मेरा इलाज शुरू करने के
पांचवे दिन उसका घर जल गया, उस घर में कहीं भी अग्नि था ही नहीं,
परन्तु फिर भी सबके समक्ष अचानक आग लग गई और क्षणमात्र में ही सब कुछ भस्म हो गया.
छठे दिन वह खिन्नातापूर्वक सुब्बय्या के घर आकर बोला, “सुब्बय्या को जिस ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है,
वह मान्त्रिक है, उसने मन्त्र प्रयोग से मेरे घर को दग्ध कर दिया.”
उसने कहा कि बेताल आदि क्षुद्र शक्तियों को प्रसन्न
करने के लिए अनेक प्रकार की पूजाएँ करनी पड़ेंगी, इसके लिए काफी धन राशि की आवश्यकता होगी. मन्त्र-तंत्रों
का कुछ भी लाभ नहीं हो रहा था. मुझे मालूम था कि वह मान्त्रिक धन-लोभ के कारण इस
प्रकार का व्यवहार कर रहा था. यदि विधि का विधान सिर झुका कर मान लूं, और
सुब्बय्या की स्त्री को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूँ,
तो इससे अधिक लज्जाजनक स्थिति और क्या होगी? इससे बढ़कर विश्वासघात और क्या हो सकता है,
इसका मुझे बड़ा खेद हो रहा था. मैं समझ नहीं पा रहा था कि विधाता मुझसे इतना क्रूर
व्यवहार क्यों कर रहा है. ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कोई मेरा कलेजा चीर रहा है. मैंने सुब्बय्या के
माँ-बाप से कहा, “मेरे माँ-बाप! अपनी पूरी समाप्ति (घर-बार) बेचकर इस
मान्त्रिक के मायाजाल में मत फंसो. मेरा स्वास्थ्य ठीक है. मैं तुम्हें अपने माँ-बाप
ही मानता हूँ.” उतने ही से मुझे मान्त्रिक से मुक्ति मिल गई. सुब्बय्या के माँ-बाप
बहुत प्रसन्न हो गए. उनकी आँखों में प्रसन्नता देखकर मेरी आँखें भी भर आईं. “परस्त्री
माता समान होती है, आने वाले संकट से मेरी रक्षा करें! मेरा धर्म भ्रष्ठ
न होने दें”, ऐसी प्रार्थना मैं अत्यंत दीन भाव से श्रीपाद स्वामी से मन ही मन कर
रहा था.
मेरा इलाज शुरू होने के आठ दिन बाद मैंने मेरी सेवा कर
रही सुब्बय्या की पत्नी से कहा, “मेरे बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?
क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं सचमुच में सुब्बय्या हूँ?”
इस पर वह बोली, “जब मैं दो बरस की थी, तब मेरा ब्याह हुआ था, अब मेरी आयु बाईस बरस की है. आप मेरे पति हैं या नहीं,
यह केवल ईश्वर ही जानते हैं और कोई भी नहीं जानता. नवयौवना पत्नी को देखकर पुरुष
धैर्य नहीं रख सकता. आपने इतनी पीड़ा सहते हुए भी मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार
नहीं किया. मुझे स्पर्श भी नहीं किया, यह केवल उत्तम संस्कारों वाले व्यक्ति के
लिए ही संभव है. आपके प्रति मेरे मन में कोई भी भावना नहीं है. मैंने कुल की रीति
का अनुसरण करते हुए धर्मपूर्वक जीवन व्यतीत करने का निश्चय किया है. यदि आप मेरे
पति हैं, तो इस चरणदासी को छोड़कर न जाएँ, मेरा पति बीस साल पहले भाग गया था. मेरा विवाह बचपन
में ही, अनजाने में ही हो गया था. अतः आप अपनी पत्नी के रूप में मुझे स्वीकार कर
सकते हैं. मैं आपके मार्गदर्शन में ही रहूँगी. आप जो हमेशा करते हैं,
वह, श्रीपाद स्वामी का नामस्मरण करूंगी. सद्गुरू के चरणों में मैं विनती करूंगी
कि इस जटिल समस्या का धर्म सम्मत ढंग से निर्णय करे.”
उसका कथन मुझे युक्ति संगत प्रतीत हुआ. मैंने कहा, “श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी साक्षात् श्री दत्त प्रभु हैं. इस कलियुग में उन्होंने अवतार
धारण किया है. वर्त्तमान में वे कुरवपुर में ही हैं. हमारे ह्रदय के भक्ति भाव के
अनुसार वे आचरण करते हैं. यदि श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी को सद्गुरू के रूप में
स्मरण किया जाए तो सद्गुरू जैसे अनुभव होते हैं. यदि उन्हें परमात्मा के रूप में
स्मरण करें, तो वे सिद्ध कर देते हैं कि वे ही परमात्मा हैं. तुम भी श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
का स्मरण करो. तुम्हें उचित कर्त्तव्य का बोध होगा.”
उस दिन हवेली में भविष्य कथन करने वाला एक माला जंगम
आया. जंगम का वेष धारण किये उस व्यक्ति के हाथ में ताडपत्री ग्रन्थ था. हमारी
हवेली के सभी व्यक्तियों के लिए वह शीघ्र ही आदरणीय हो गया. वह सभी को उनके भूतकाल
की तथा भविष्यकाल की जानकारी बड़े अद्भुत प्रकार से देता था. उसके पास जो ताडपत्री
ग्रन्थ था, उसे रमल शास्त्र कहते थे. वह कहता था कि उस ग्रन्थ में वर्णित घटनाएँ अचूक
ढंग से घटित होती हैं. सुब्बय्या के माता-पिता के समाधान के लिए वह हमारे घर भी आया.
उसने मेरे हाथ में कुछ कौडियाँ देकर उन्हें ज़मीन पर फेंकने के लिए कहा. इसके बाद
कुछ हिसाब लगाकर अपने ताडपत्री ग्रन्थ से एक ताड़पत्र निकाल कर पढ़ना आरम्भ किया, “प्रश्नकर्ता
शंकर भट्ट नामक कन्नड़ ब्राह्मण है. दत्तावतारी श्रीपाद श्रीवल्लभ के चरित्र का
लेखन यही करेगा. पिछले जन्म में इसका और इसके मित्र कन्दुकुर का जन्म इस शहर से कुछ ही दूर
स्थित मोगलीचर्ला नामक ग्राम में हुआ. उन्हें जुआ खेलने की आदत थी. उस गाँव में
श्री दत्त-प्रभु का एक स्वयंभू मंदिर था. इसका जन्म श्री दत्त मंदिर के पुजारी के
भाई के रूप में हुआ. बड़े भाई की अनुपस्थिति में यही पूजा-अर्चा किया करता. श्री दत्त
मंदिर के आँगन में यह और इसका मित्र जुआ खेलने में मगन रहते. यह महान पाप है,
इसका उन्हें कोई ज्ञान नहीं था. एक दिन मित्र के साथ जुआ खेलते हुए इसने एक अजीब
शर्त रखी. यदि इसका मित्र जीत गया तो जुए में हारी हुई रकम देगा,
और यदि यह जीता तो इसका मित्र अपनी पत्नी इसे देगा. श्री दत्त प्रभु को इस शर्त का
साक्षी मानकर उन्होंने जुआ खेलना आरम्भ किया.
श्री दत्त प्रभु देख रहे थे कि उनके सामने अत्यंत घृणित खेल खेला जा रहा है. जुए के उस खेल में
शंकर भट्ट जीत गया. शंकर के मित्र ने उसे अपनी पत्नी देने से इनकार कर दिया. झगड़ा
बड़े आदमियों तक पहुँचा. बिरादरी के ज्ञानी लोग एकत्रित हुए. महान पवित्र श्री दत्त
प्रभु के सम्मुख इतना बड़ा दुष्कृत्य किया गया. यह अत्यंत खेदजनक घटना थी. पराई
स्त्री का मोह रखते हुए उसे वक्र मार्ग से प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के
कारण शंकर के सिर पर गर्म तेल डाला जाए, यह निर्णय लिया गया. और जुए के खेल में अपनी पत्नी को
दाँव पर लगाने वाले इसके मित्र का इस प्रकार अंगभंग किया जाए कि वह नपुंसक हो जाए.
तत्पश्चात इन दोनों का गाँव से बहिष्कार कर दिया जाए, ऐसा न्याय विद्वानों ने दिया. उनके निर्णय का पालन किया
गया. शंकर भट्ट ने अपने पूर्व जन्म में अल्प समय के लिए श्री दत्त प्रभु की सेवा
की थी, इसलिए इस जन्म में इसके ह्रदय में ईश्वर भक्ति है. इसका मित्र सुब्बय्या
परम पवित्र तिरुपति क्षेत्र में क्षौर-कर्म करने वालों के घर पैदा हुआ. उसका मन
चंचल हो गया और वह विवाह के पश्चात् पागल होकर घर से भाग गया. सुब्बय्या की
भोलीभाली पत्नी निर्दोष है. उसके पातिव्रत्य के प्रभाव से इस रमल शास्त्र के श्रवण
करने के दूसरे दिन सुब्बय्या के मन की चंचलता कम होकर वह वापस लौट आयेगा. उस दिन
शंकर भट्ट की मुक्ति होगी. शंकर भट्ट शनि की साढ़ेसाती की दशा के प्रभाव में है,
जो श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के अनुग्रह से साढे सात दिनों में ही निकल जायेगी.
ईश्वर को साक्षी मानकर अनुचित कर्म अथवा अधर्म करने पर श्री दत्त प्रभु कठोर से
कठोर दंड देते हैं. सुब्बय्या के मन की चंचलता को दूर करने में शंकर भट्ट के पुण्य
कर्म का कुछ अंश खर्च होगा, ऐसा चित्रगुप्त ने लिखा है. कर्म का प्रभाव अत्यंत
सूक्ष्म रीति से काम करता है, इस सत्य को पहचान कर मनुष्य सदैव सत्कर्म ही करे.
दुष्कर्म कभी भी न करे. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जन्म कुण्डली के अनुसार उनके
अवतार की समाप्ति के कुछ शतकों के बाद त्रिपुर देश के जैन मतवादी अक्षय कुमार नामक
व्यक्ति द्वारा श्री पीठीकापुरम में श्री प्रभु की जानकारी पंहुचेगी. इससे पूर्व
उनकी लीलाओं का वर्णन करने वाला “श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत” प्रकाशित होगा.
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की करुणा का वर्णन मैं कैसे
करूँ? दूसरे ही दिन सुब्बय्या अपने घर वापस लौट आया. उसके मन की चंचलता पूरी तरह
नष्ट होकर वह स्वस्थ चित्त हो गया था. सुब्बय्या की पत्नी को मैंने अपनी बहिन के रूप
में स्वीकार किया. सुब्बय्या के माता-पिता से आज्ञा लेकर मैं चित्तूर जिले के काणिपाकम
गाँव पहुँचा.
काणिपाक चित्तूर से कुछ ही अंतर पर स्थित है. इस गाँव
में वरदराज स्वामी का, मणिकंठेश्वर स्वामी का और वरसिद्धि विनायक का मंदिर
है. मैं ईश्वर के दर्शन करके मंदिर से बाहर आया. वहाँ एक बड़ा कुत्ता खडा था. मुझे
बहुत डर लगा और मैं वापस वरसिद्धि विनायक के मंदिर में चला गया. कुछ देर प्रभु का
स्मरण करने के पश्चात् बाहर आया तो देखा कि उस कुत्ते जितना ही बड़ा एक और कुत्ता
वहाँ खडा है. मुझे डर हुआ कि आज ये कालभैरव मुझे काट कर ही दम लेंगे. मैं फिर से
वरसिद्धि विनायक के मंदिर के भीतर चला गया. मंदिर के पुजारी को मेरा आचरण बड़ा
विचित्र प्रतीत हुआ.
उसने पूछा, “बेटा, तू पल-पल बाहर जाकर फिर अन्दर वापस आ जाता है,
इसका क्या कारण है?” मैंने अपने भय का कारण उसे बताया. पुजारी बोला, “वे
अकारण किसी को नुक्सान नहीं पंहुचाते. वे एक धोबी के पालतू कुत्ते हैं. वह धोबी श्री
दत्तात्रेय का भक्त है. वह कहता है कि श्री दत्त प्रभु ने श्रीपाद श्रीवल्लभ के
नाम से इस भूमि पर अवतार लिया है. धोबियों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति है,
फिर भी वह इस मंदिर में नहीं आता. अपने कुत्तों को भेजता है. मैं श्री स्वामी के
प्रसाद की गठरी बांधकर उसे देता हूँ, कुत्ते वह गठरी ले जाकर उसे देते हैं. तुम कह रहे हो,
तुमने दो ही कुत्ते देखे है, जब उसके चारों कुत्ते आ जाते हैं,
तभी मैं प्रसाद भेजता हूँ. चलो, देखते है, कि बाकी के दोनों कुत्ते आ गए अथवा नहीं.”
हम बाहर आये, तब तक चारो कुत्ते वहाँ आ गए थे. पुजारी ने प्रसाद की
गठरी बनाकर दी. वे चारों कुत्ते मुझे चारों और से घेरकर खड़े हो गए. पुजारी बोला, “कुत्तों
की इच्छानुसार तुम उस धोबी के घर जाओ. तुम्हें लाभ ही होगा.”
मेरे जीवन की हर घटना श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
निर्देशानुसार ही घटित होती है, ऐसा मेरा विश्वास था. सुब्बय्या के घर में घटित घटना
के आधार पर मुझे ज्ञान हुआ कि जाती, कुल, आदि का भेद नहीं होता. एक चांडाल ब्राह्मण कुल में
जन्म ले सकता है. इस जन्म में जो ब्राह्मण है वह दूसरे जन्म में चांडाल के रूप में जन्म ले सकता है.
मानव अपने द्वारा किये गए पाप-पुण्य की गठरी उठाये जन्म जन्मान्तर कर्म के प्रवाह
में प्रवाहित होता रहता है.
शंकर
भट्ट और तिरुमलदास के बीच संवाद
मैं
धोबी के घर वाली गली में पहुँचा. तिरुमल्दास नामक वह धोबी ७० वर्ष का था. वह अपनी
झोंपड़ी से बाहर आया. जब मैं अन्दर गया तो उसने मुझे एक पलंग पर बिठाया. मेरे मन से
ब्राह्मण जन्म का अहंकार पूरी तरह नष्ट हो चुका था. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का
हर भक्त मुझे अपने आत्मीय जैसा प्रतीत हो रहा था. तिरुमलदास ने मुझे वरसिदधि
विनायक के मंदिर का प्रसाद खाने को दिया. मैंने प्रसाद ग्रहण किया. तत्पश्चात
तिरुमलदास ने कहना आरम्भ किया.
आइनविल्ली के गणपति ने ही श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लिया है.
वे बोले, “बेटा, आज
का दिन मेरे लिए अत्यंत भाग्यशाली है! आपके दर्शनों का लाभ हुआ. आप मेरे घर कब आएँगे,
माल्याद्रिपुर की और श्री पीठिकापुर की वार्ता कब सुनाएँगे,
इसकी मैं उत्सुकता से राह देख रहा हूँ. बेटा, शंकर भट्ट!
वरसिद्धि विनायक का प्रसाद तुमने ग्रहण किया. तुम आज ही “श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत” का श्रीगणेश करो. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का आशीर्वाद तुम्हें
कुरवपुर में प्राप्त होगा.”
तिरुमलदास ने अपना
पूर्व वृत्तांत सुनाना आरम्भ किया. वे बोले, “मैं पिछले जन्म में एक प्रतिष्ठित
वेद पंडित था. परन्तु मैं परम लोभी था. मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े मैंने गाय के नवजात
बछड़े को एक पुरानी चिंधी चूसते हुए देखा. मैंने अपने लड़कों को आदेश दिया कि उसे
संभाल कर रखें. मृत्यु के समय मैंने मलिन वस्त्र का मोह रखते हुए प्राण त्यागे, इसलिए मैंने रजक के रूप में जन्म लिया. मृत्यु के समय जो इच्छा मन में
रहती है, उसीके अनुसार अगला जन्म प्राप्त होता है. पूर्व
पुण्य के कारण ही मेरा जन्म गर्तपुरी (गुंटूर) मंडल के पल्यनाडू प्रांत के
माल्याद्रिपुर में हुआ. यही माल्याद्रिपुर कालान्तर में मल्लादी के नाम से जाना
जाने लगा. उस गाँव में मल्लादी नामक दो परिवार थे. महापंडित मल्लादी बापन्नावधानी,
जो हरितस गोत्र के थे, जबकि महापंडित मल्लादी श्रीधर अवधानी कौशिक
गोत्र के थे. श्रीधर अवधानी की बहन राजमांबा का विवाह बापन्ना अवधानी के साथ हुआ.
गोदावरी मंडल के अंतर्गत स्थित “आइनविल्ली” ग्राम में आयोजित किये गए गणपति
महायज्ञ के लिए ये दोनों भी गए थे. शास्त्रों के अनुसार यज्ञ की अंतिम आहुति श्री
गणपति अपनी सूंड में स्वीकार करेंगे और अपने स्वर्णकान्तिमय स्वरूप का दर्शन देंगे, पंडितों की यही मान्यता थी. यज्ञ के अंत में श्री गणपति ने स्वर्ण
कांतिमय दर्शन दिए. अंतिम आहुति उन्होंने अपनी सूंड में स्वीकार की और यह वचन भी
दिया कि “मैं स्वयं अपनी संपूर्ण कला से गणेश चतुर्थी के दिन श्रीपाद श्रीवल्लभ के
रूप में अवतार लूँगा.” यज्ञ के लिए आये सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए. उस सभा में तीन
व्यक्ति नास्तिक थे. वे बोले, “जो दिखाई दे रहा है, वह सब या तो इंद्रजाल है या महेंद्रजाल है, मगर गणेश तो है ही नहीं. यदि
यह गणेशा है, तो एक बार फिर उनके दर्शन करवाएं.”
काणिपुर विनायक की
महिमा
होमकुण्ड की विभूति ने मानावाकृति ग्रहण कर ली, फिर वह महागणपति के रूप में
परिवर्तित हो गई. वह स्वरूप बोलने लगा, “मूर्खों!
त्रिपुरासुर के वध के समय शिव ने;
चक्रवर्ती राजा बलि का निग्रहण तथा शिव के आत्मलिंग को ले जाने वाले रावण का विरोध
करते समय विष्णु ने; महिषासुर का वध करते समय पार्वती ने; भूमि का भार ग्रहण करने
से पूर्व शेषनाग ने; सभी सिद्धियों की सिद्धि करने से पूर्व सिद्ध मुनियों ने;
संसार पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से मन्मथ ने; और इसी प्रकार समस्त देवताओं
ने मेरी आराधना करके ही अभीष्ट की प्राप्ति की. समस्त शक्तियों का भण्डार मैं ही
हूँ. मैं सर्व शक्तिमान हूँ,
राक्षसी शक्ति भी मुझमें ही है. समस्त विघ्नहर्ता मैं ही हूँ. दत्तात्रेय को क्या
समझ बैठे? हरिहर पुत्र के
रूप में धर्मं के शास्ता (प्रवर्तक) वे ही हैं. जब विष्णु रूप में ब्रह्मा, रूद्र रूप विलीन हुआ, वही दत्तात्रेय रूप है. धर्मं शास्ता
रूप में गणपति एवं षण्मुख रूप विलीन होने पर उत्पन्न यह रूप भी दत्तरूप ही है.
दत्तात्रेय सदैव त्रिमूर्ति स्वरूप ही हैं. श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में महागणपति
होने के कारण उनका अवतार गणेश चतुर्थी के दिन ही होगा. उनके भीतर सुब्रह्मण्यम अंश
होने के कारण वे केवल ज्ञान अवतार के रूप में ही जाने जायेंगे. धर्म प्रवर्तक तत्व
के कारण वे समस्त कर्मों का आदि मूल समझे जायेंगे. यह अवतार माता-पिता के संयोग का
फल नहीं होगा. ज्योति स्वरूप ही मानवाकृति का रूप धारण करेगा.”
श्री गणपति आगे बोले, “मैं तुम्हें शाप देता हूँ, सत्य स्वरूप देखकर भी उसे असत्य कहा, अतः तुममें से एक अंधे के रूप में
जन्म लेगा. सत्यस्वरूप की प्रशंसा करने के स्थान पर उसका मखौल उड़ाया, अतः तुममें से एक गूंगे के रूप में
जन्म लेगा. इतना विशाल भक्तजनों का समुदाय उस सत्य का वर्णन कर रहा था, तब उसकी और दुर्लक्ष करते हुए उसे
अनसुना करा दिया,
अतः तुममें से एक बहरे के रूप में जन्म लेगा. तुम तीनों बंधू रूप में जन्म लोगे.
मेरी स्वयंभू मूर्ती के दर्शन करने के पश्चात्त ही तुम दोष मुक्त होगे.”
“वत्स! वे तीनों इस काणिपूर में भाइयों के रूप में जन्मे. त्रिमूर्ति को दोष
देने से घोर अनर्थ होता है. ये तीनों भाई इसी गाँव में एक एकड़ ज़मीन में खेती किया
करते. उनके खेत के कोने में एक कुआँ था. मशक की सहायता से फसलों को पानी दिया जाता
था. एक बार सूखा पडा. भूमि का जल सूख गया. एक दिन उनके कुएं का सारा पानी समाप्त
हो गया. तीनों भाई फावड़े लेकर बालू-रेत बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहे थे. पानी
के नीचे वाले उस भाग में एक पत्थर पर जैसे ही फावडे का प्रहार हुआ, वहाँ से रक्त का फव्वारा फूटा. उस
रक्त के स्पर्श से गूंगा बोलने लगा. कुएँ में पानी भी धीरे-धीरे भरने लगा. पानी के
स्पर्श से बहरा सुनने लगा. तीसरे,
अंधे भाई ने पानी के भीतर के पत्थर को जैसे ही स्पर्ष किया, उसे दृष्टी प्राप्त हो गई. स्वयंभू
विनायक की पत्थर की मूर्ती के शिरोभाग पर फावड़े का वार लगने से रक्तस्त्राव आरम्भ
हुआ था. उस स्वयंभू मूर्ती को बाहर निकाला गया.
उस वरसिद्धि विनायक की स्थापना करने हेतु बापन्नावधानी, जिन्हें सत्य ऋषीश्वर कहा जाता था, आए. उनके साले (शालक) श्रीधरावधानी भी
इस ग्राम में उनके साथ आए. वरसिद्धि विनायक ने उनसे कहा, “मैं महाभूमि से इस लोक में आया हूँ.
मैंने प्रथ्वी तत्व पर अवतार लिया है. यहाँ तत्व कालान्तर में अनेक रूपों में
परिवर्तित होगा. जलतत्व में,
अग्नितत्व में,
आकाशतत्व में मैं अवतरित हो ही चुका हूँ.
तुमने “आइनविल्ली” में जो महायज्ञ किया था, उसीके भस्म ने यह रूप धारण किया है. आगामी कर्तव्य के बारे में मैं आदेश
देता हूँ. श्री शैल्य में कला (तेज) कम है. सूर्यमंडल के तेज का वहाँ शक्तिपात
करना होगा. जिस दिन तुम श्री शैल्य में शक्तिपात करोगे, उसी दिन गोकर्ण में,
काशी में, बदरी में, केदार में मेरे विशेष अनुग्रह से एक
ही समय में शक्तिपात होगा. श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतरण का समय निकट आ रहा है.
श्रीधर! तुम्हारा कुलनाम बदल कर श्रीपाद रख रहा हूँ. तुम्हारे कौशिक गोत्रज वंशज
आज से श्रीपाद कुलनाम से जाने जायेंगे.”
“वत्स! शंकर! मल्याद्रिपुर से सत्यऋषीश्वर और श्रीधर पंडित पीठीकापुर में
निवास करने के लिए गए. मैंने श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की अनेक बाल लीलाएँ देखी
हैं. कल मैं विस्तारपूर्वक उनके बारे में बताऊँगा. मेरी पहली पत्नी से मुझे एक
पुत्र प्राप्त हुआ. उसका नाम रविदास है. वह कुरवपुर में ही रहता है. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की यथाशक्ति सेवा करता है. मैं श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार काणीपुर
में ही अपनी दूसरी पत्नी एवं पुत्र के साथ अपनी कुलावृत्ति का पालन करते हुए रह
रहा हूँ.”
“तुम श्री पीठीकापुरम में अनेक महानुभावों के दर्शन करोगे. जब वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी नामक व्यक्ति से मिलोगे,
तो अनेक महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में जानकारी मिलेगी. श्रीपाद प्रभु श्री
श्रेष्ठी को वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी उपनाम से पुकारते थे. श्री श्रेष्ठी के वंश पर
श्रीपाद प्रभु का अभय हस्त है. वत्सवाई उपनाम वाले नरसिंह वर्मा से भी मिलना.
श्रीपाद प्रभु से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध है, तुम्हारे द्वारा रचित होने वाले श्रीपाद प्रभु के चरित्रामृत को श्रीचरणों
का आशीर्वाद प्राप्त होगा. जिस ग्रन्थ की रचना तुम करोगे उसके अतिरिक्त अन्य कोई
भी ग्रन्थ श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की महिमा का संपूर्ण रूप से वर्णन नहीं कर पायेगा, यह श्री चरणों की आज्ञा है.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय
जयकार हो.”
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