“श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये.”
अध्याय ७
खगोल वर्णन
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत की महिमा
प्रातः काल
नित्य कर्म से निवृत्त होकर श्री तिरुमलदास ने कहना आरम्भ किया. वे बोले,
“अरे, शंकर भट्ट! श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का दिव्य चरित्र
अद्भुत्, अतर्क्य और अपूर्व है. तुझ पर उनका अपार स्नेह होने के कारण उनके दिव्य
चरित्र को लिखने का महद्भाग्य तुझे प्राप्त हुआ है. ऐसा यह दिव्य अवसर प्रभु की
इच्छा से तुझे मिला है.”
श्रीपाद प्रभु का एक
ही समय में अनेक स्थानों पर प्रकट होना.
“नरसावधानी मृत्यु के मुख से बाहर
लौटकर आये, तत्पश्चात उनके भीतर की आकर्षण शक्ति क्षीण होती गई. पहले साधना करते
समय वे जिस मनुष्य का ध्यान किया करते, वह कितनी ही दूर क्यों न हो, फिर भी आकर्षित
होकर उनके निकट आ जाया करता. वह शक्ति भी अब मंद हो गई थी. जो लोग पहले उनसे डरते
थे, उन्हें अब बिल्कुल भी नरसावधानी का डर न लगता. समय-असमय उनका उपहास करके
उन्हें दुख पहुँचाते. उनकी आर्थिक स्थिति भी कमजोर हो गई थी. कभी-कभी तो दो वक्त
का भोजन भी नसीब न होता. ऐसी कष्टप्रद अवस्था में वे आक्रोश करते हुए घर से बाहर
आए. उस समय महाचार्य बापन्नाचार्युलु अपने पोते को गोद में लेकर अपने घर की और जा
रहे थे. राज शर्मा के घर से मुड़ने पर जो मार्ग आता था, वह सीधा बापन्नाचार्युलु के घर की ओर जाता था. श्रीपाद प्रभु बचपन में अपने
घर की अपेक्षा अपने नाना के घर ही अधिक रहा करते. श्री नरसिंह वर्मा और श्री
वेंकटप्पा श्रेष्ठी के घर भी स्वेच्छा से जाते. नरसावधानी के मन में विचार आया कि
श्रीपाद स्वामी से बातें करें. उस स्वस्थ्य एवँ मोहक तथा लाडले दिव्य बालक को कम
से कम एक बार तो गोद में लेकर उसका लाड़ करें, ऐसी इच्छा मन में जागी. नरसावधानी की दृष्टी प्रभु पर पड़ी. श्रीपाद प्रभु
ने नरसावधानी की और देखकर मंद स्मित किया. वह स्मित हास्य अत्यंत मोहक था.
नरसावधानी भिक्षा माँगने श्रेष्ठी के घर गए. वहाँ उन्हें श्रेष्ठी की गोद में खेल रहे श्रीपाद स्वामी दिखाई दिए.
नरसावधानी की और देखकर श्रीपाद प्रभु शरारत से हँसे. नरसावधानी भिक्षा लेकर नरसिंह
वर्मा के घर गए, वहाँ उन्हें
श्रीपाद प्रभु नरसिंह वर्मा के कंधे पर खेलते दिखाई दिए. नरसावधानी की और देखकर
श्रीपाद प्रभु फिर से शरारत से हँसे. एक ही समय में बालक श्रीपाद श्रेष्ठी के घर, वर्मा के घर और नाना जी बापन्नाचार्युलू के घर
उपस्थित थे. नरसावधानी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या है. क्या यह स्वप्न है? अथवा विष्णुमाया है?”
गाँव के लोग नरसावधानी को सताने लगे. पादगया
क्षेत्र की स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती गायब होने के पीछे नरसावधानी का ही हाथ
है, ऐसी निन्दा
करने लगे. इस लोकनिन्दा से पीड़ित होकर नरसावधानी पागल के समान घर लौटे. उन्हें इस
अवस्था में देखकर उनकी पत्नी अत्यंत दुःखी हो गई. अपने मन की व्यथा प्रकट करने के
लिए वह पूजाघर में गई. तब उसने जो दृश्य देखा, वह अद्भुत था. उनके पूजागृह में श्रीपाद स्वामी बैठे हुए थे. उन्हें देखकर
उन पति-पत्नी को अत्यंत प्रसन्नता हुई. उन दोनों ने श्रीपाद स्वामी से राजगिरे के
साग का भोजन करने की प्रार्थना की, परन्तु श्रीपाद स्वामी ने इनकार कर दिया. काल, कर्म और कारण इन तीनों का एक ही समय में संयोग
होने से ऐसी अलभ्य संधि प्राप्त होती है. विवेकवंत ऐसी संधि का लाभ उठाते हैं, जबकि अविवेकी उस लाभ से वंचित रह जाते हैं.
श्रीपाद प्रभु ने पति-पत्नी की विनती को स्वीकार किया, परन्तु वह स्वीकारोक्ति इस जन्म के लिए न होकर अगले जन्म के लिए थी. अगले
जन्म में वे महाराष्ट्र की पुण्य भूमि में श्री नृसिंह सरस्वती के अवतार में उनके
घर भोजन के लिए अवश्य आयेंगे, ऐसा उन्होंने वचन दिया. एक बार सूर्य अथवा चन्द्रमा की गति बदलना चाहे संभव
हो सके, परन्तु प्रभु
के वचनों के विरुद्ध आचरण करना पंचभूतों सहित किसी भी प्राणी के लिए संभव नहीं है.
दुनिया चाहे उलट-पुलट हो जाए, युग चाहे बदल जाएँ, फिर भी श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ नित्य, सत्य एवँ नूतन हैं. पूजाघर में बैठकर श्रीपाद प्रभु ने नरसावधानी और उनकी
पत्नी को हितोपदेषा दिया. यह हितोपदेश दत्त-भक्तों के लिए अत्यंत उपयोगी है .
नरसावधानी तथा श्रीपाद
श्रीवल्लभ के बीच हुआ संवाद एवं श्रीपाद प्रभु का उपदेश
प्रश्न: - तू
कौन है? देवता? यक्ष? मान्त्रिक?
उत्तर:- मैं. मैं ही हूँ. पंचभूतात्मक सुष्टि के अणु-अणु में विद्यमान जो
अदृश्य शक्ति है, वह मैं ही हूँ. पशु-पक्षियों समेत समस्त प्राणिमात्र में मातृ तथा पितृ
स्वरूप में जो स्थित है, वह मैं ही हूँ. समूची सृष्टि का गुरुस्वरूप भी मैं ही हूँ.
प्रश्न: - क्या तुम दत्त प्रभु के अवतार हो?
उत्तर:- निःसंशय मैं ही दत्तात्रेय
हूँ. तुम शरीरधारी मुझे पहचान सको, इसीलिये मैंने शरीर धारण किया है. वास्तव में मैं निराकार एवँ निर्गुण हूँ.
प्रश्न – इसका मतलब यही ना, कि तुम्हारा कोई आकार तथा गुण नहीं है?
उत्तर – निराकारिता भी एक आकार ही है. इसी प्रकार निर्गुण होना भी एक गुण है.
साकार तथा निराकार, सगुण एवँ निर्गुण - इनका आधार मैं ही हूँ और यह जान लो, कि उससे भी परे
हूँ.
प्रश्न – जब तुम सर्वस्व हो तो प्राणिमात्र को सुख-दुख क्यों प्राप्त होते
हैं?
उत्तर – तुम्हारे भीतर स्थित “तू” जीव है और तुम्हारे भीतर का “मैं”
परमात्मा है. जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना है, ताबा तक “तू” “मैं” नहीं हो सकता, जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना रहेगी, तब तक सुख-दुख, पाप-पुण्य जैसे द्वंद्वों से तुझे मुक्ति नहीं मिल सकती. जब तेरे भीतर का
“तू” नष्ट होकर तेरे भीतर का “मैं” उच्च दशा में होगा, तब तू मेरे निकट होगा. जैसे-जैसे तू मेरे निकट आयेगा, वैसे-वैसे तू
सुख-दुख, पापा-पुण्य के द्वंद्व से मुक्त हो जाएगा. मेरे आश्रय में आने पर सुखी और
सम्पन्न होगा.
प्रश्न – कुछ लोग कहते हैं कि जीवात्मा एवं परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं, कुछ कहते हैं कि
जीवात्मा तथा परमात्मा में घनिष्ठ सम्बन्ध है, तो कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जीव
ही परमात्मा है. सत्य क्या है?
उत्तर – तू और मैं अलग-अलग हैं, ऐसी भिन्नता की भावना में कोई हानि नहीं. तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होने पर
हम दोनों के द्वैत स्थिति में होने पर भी आनंद की प्राप्ति होगी. मेरे अनुग्रह के
कारण ही सब कुछ घटित होता है, तू केवल निमित्त मात्र है, इस सिद्धांत का अनुसरण करने पर भी आनंद की
स्थिति प्राप्त कर लोगे. मोह का नाश होने पर द्वैत स्थिति में होते हुए भी तुम
मोक्ष सिद्धि प्राप्त कर लोगे. जब तुझमें और मुझमें अत्यंत सामीप्य की स्थिति होती
है, तब तुम्हारे
द्वारा मैं स्वयं को व्यक्त करता हूँ. मेरी सारी शक्ति तेरे माध्यम से अभिव्यक्त
होने की स्थिति में, तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होकर, मोहक्षय होने के फलस्वरूप इस विशिष्ठ अद्वैत स्थिति में भी आनंद की
प्राप्ति होगी. मोह न होने के कारण यह भी मोक्ष की ही स्थिति है. तेरे भीतर का
अहंकार पूरी तरह नष्ट होने पर, कर्तृत्व की भावना समाप्त हो जायेगी. तेरे भीतर का “तू” न रहकर केवल “मैं”
होने की उस स्थिति में मन की कल्पना से आकलन न होने वाले ब्रह्मानंद का अनुभव करता
रहता है. इसलिए, अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष को प्राप्त कर सकता है. द्वैत स्थिति
में होने पर भी विशिष्ठ द्वैत अथवा अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष स्थिति /
ब्रह्मानंद स्थिति वही रहती है. वह मन एवं वाचा के लिए अगोचर है. उसे केवल अनुभव
से जाना जा सकता है.
प्रश्न – अवधूत स्थिति में रहने वाले कुछ व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म कहते हैं,
तो क्या तुम अवधूत हो?
उत्तर – नहीं, मैं अवधूता नहीं, मैं ब्रह्म हूँ. और अवधूतों का यह अनुभव है कि ब्रह्म सर्वस्व है, तो मैं ब्रह्म हूँ
और सर्वान्तरयामी हूँ.
प्रश्न – फिर भी इस अल्प से भेद का रहस्य समझ में नहीं आया.
उत्तर – संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो चुके अवधूत मुझमें लीन होकर
ब्रह्मानंद सुख का अनुभव प्राप्त करते हैं. उनका व्यक्तित्व नहीं होता. व्यक्तित्व
न होने के कारण वे संकल्प रहित होते हैं. इस सृष्टि के महासंकल्प में, महाशक्ति में मैं
हूँ. जीव कहलाने वाली मायाशक्ति में भी मैं हूँ. मुझमें लीन हो चुके अवधूता भी “तुम दुबारा जन्म लो”, ऐसी
मेरी आज्ञा होने पर जन्म लेने को बाध्य हैं.
मेरा स्वसंकल्पयुक्त सत्य – ज्ञानानंद है, तो उनका स्वरूप है संकल्प रहित सत्य – ज्ञानानन्द का.
प्रश्न – बीज को यदि भूना जाए तो वह अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार
ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्रह्ममय हो चुके प्राणियों का दुबारा जन्म लेना कैसे संभव
है?
उत्तर – भुने हुए बीजों का पुनः अंकुरण न होना सृष्टि का धर्म है. भुने हुए
बीजों को पुनः अंकुरित करना सृष्टिकर्ता की शक्ति सामर्थ्य है. वास्तव में देखा
जाए तो मेरा अवतार इस सिद्धांत के द्वारा सत्यधर्म का निरुपण करने से पहले हुआ है.
प्रश्न – दत्त प्रभु! श्रीपाद स्वामी! कृपया विवरण दें.
उत्तर – भूत, भविष्य, वर्त्तमान – इस त्रिकाल का, उसी प्रकार सृष्टि, स्थिति, लय – त्रि अवस्थाओं का अतिक्रमण करके (उनके पार जाकर) पिता अत्रि महर्षि
प्रसिद्ध हुए. सृष्टि के किसी भी जीव के प्रति अथवा किसी भी वस्तु के प्रति असूया, द्वेश का लेशमात्र
ह्रदय में न होने से माता अनुसूया विख्यात हुईं. ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र, इनका जो आधार तथा
अतीत है, उस परम ज्योति
स्वरूप के दर्शन प्राप्त करने के उद्देश्य से अत्रि महर्षी ने घोर तपस्या की. परम
ज्योति स्वरूप परमात्मा अपनी अमृतमय दृष्टी से सृष्टि के प्रत्येक प्राणिमात्र एवं
वस्तु को देखकर उन पर अनुग्रह करें, इस हेतु से अनुसूया माँ ने तपाचरण किया था. कर्मसूत्रों के अनुसार
पाप-पुण्य के अनुसार दुःख-सुख प्राप्त होता है. माता अनुसूया इस संकल्प से
प्रार्थना करती थीं, कि महापाप का फल स्वल्प हो, तथा स्वल्प पुण्य का फल अधिक हो. माता अनुसूया ने अपने तपोबल से कठोर लौह
खण्डों का सजीव एवं खाने योग्य चनों में रूपांतर किया. खनिज पदार्थों में चैतन्य
निद्रित अवस्था में रहता है, तरु-गुल्मादी में वह अर्ध निद्रित अवस्था में रहता है, पशुओं में वह
पूर्ण चैतन्य की स्थिति में होता है. खनिज के रूप में जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त
होने के पश्चात वृक्ष आदि का जन्म लेकर, तदनंतर पशु का जन्म प्राप्त करके, अंत में मनुष्य योनी में जन्म लेने वाले मानव को विवेक पूर्ण, ज्ञानवान और
वैराग्यवंत होकर उसके भीतर सुप्त अवस्था में पड़ी परमात्म शक्ति को जागृत करके
मोक्ष प्राप्त करना चाहिए. माता अनुसूया ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकृति के परिणाम
क्रम का धर्म परमात्मा के अनुग्रह से बदल सकता है. उन्होंने त्रिमूर्ति के रूप में होने के कारण जो चैतन्य
जागृत अवस्था में था, उसे निद्रावस्था में परिवर्तित करके उन्हें नन्हें बालकों का रूप दिया.
त्रिमूर्ति की शक्तियों ने एकत्रित होकर अनघा देवी का रूप धारण किया. दत्तात्रेय
का अवतार लेकर उन्होंने अनघा देवी को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया. श्रीपाद
श्रीवल्लभावतारी, वामांग में अनघा देवी तथा दक्षिणांग में दत्तात्रेय, ऐसे अर्धनारीश्वर
रूप में प्रभु का जन्म हुआ. ऐसे, महोत्तर सृष्टि का केवल संकल्प मात्र से सृजन करने की शक्ति सामर्थ्य रखने वाले
प्रभु के लिए आवश्यकतानुसार सृष्टि धर्म में परिवर्तन लाना सहज संभव है, यह तू जान ले.
प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! सृष्टि-धर्म में परिवर्तन लाने की सामर्थ्य रखने
वाले तुम क्या मेरे दारिद्र्य का हरण नहीं कर सकते?
उत्तर – तेरे दारिद्र्य का हरण अवश्य करूँगा , परन्तु तेरे अगले जन्म में जब
तुम थोड़े से दारिद्र्य-दुःख का अनुभव कर चुके होगे. राजगिरे का विषय बहुत क्षुद्र
था, फिर भी तुझे
राजगिरे का इतना मोह था. मैंने माता, पिता अथवा नानाजी से नहीं माँगा था. मेरे
जितने बालक का आहार था ही कितना! राजगिरे की इच्छा होते ही यदि तूने मुझे वह दे
दिया होता, तो आज की
परिस्थिति उत्पन्न न हुई होती. मगर अब वह समय बीत चुका है. तेरे मनो-मालिन्य को
दूर करने के लिए यह जन्म पर्याप्त नहीं है. प्रत्येक मनुष्य को अपने पुण्य का फल
आयुष्य, ऐश्वर्य, कीर्ति, धन, सौन्दर्य आदि
रूपों में प्राप्त होता है. पापों का फल प्राप्त होता है दारिद्र्य, अल्पायुष्य,
कुरूपता, कुख्याति आदि के
रूप में. तेरे पुण्य का अधिकांश निकाल कर तुझे जीवन प्रदान किया, जिससे तेरा पुण्य
खर्च हो गया. अब तेरे पास पाप अधिक होने के कारण दारिद्र्य तो भोगना ही होगा. फिर
भी, स्वयंभू
दत्तात्रेय की आराधना के फलस्वरूप, दारिद्र्य रहने पर भी दो जून की रोटी तुझे
मिलती रहेगी, ऐसा मेरा तुझे आशीर्वाद है.
प्रश्न – हे श्रीपाद प्रभु! शास्त्रों का मत है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार
आचरण किया जाए. आपके नाना जी ने यह निर्णय दिया, कि वैश्यों का भी वेदोक्त पद्धति
से उपनयन करना संभव होगा. क्या वह निर्णय
गलत नहीं है?
उत्तर – सत्यऋषीश्वर के निर्णय में खोट ढूँढने का प्रयत्न करने के कारण तेरी
जिह्वा ही काट देनी चाहिए. नाना जी को तू क्या समझता है? वे साक्षात भास्कराचार्य
हैं! विष्णुदत्त एवं सुशीला, जो स्वार्थ की परिभाषा भी न जानने वाले परम पवित्र दंपत्ति थे, उन्हें ‘मेरे
माता-पिता के रूप में जन्म दो’ ऐसा आदेश मैंने काल देवता एवँ कर्म देवता को दिया.
नरसिंह वर्मा के पूर्वज श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी के अनन्य भक्त थे, सिंहाचल क्षेत्र में आयोजित
होने वाले याग-यज्ञ में विशिष्ट अन्न-दान करने वाले पवित्र कुल के हैं. पीठिकापुर
में मेरे जन्म लेने से पूर्व एक क्रम पद्धति से इस घटना को घटित करवाया. इन तीनों
परिवारों से मेरे ऋणानुबंध है, उन्हें एक जन्म में नहीं चुकाया जा सकता या एक
अवतार की कालावधि में उन्हें समाप्त भी नहीं किया जा सकता। मेरा वरदहस्त उन पर
वंशानुवंश रहेगा। मेरी छात्र-छाया में वे निश्चित रूप से रहेंगे।
भक्तों को श्रीपाद प्रभु का अभय वचन
अब यदि मेरे विषय में कहा जाए, तो कोई भी मूल्य न रखने वाला राजगिरा तू मुझे न दे सका. मेरे भोजन करने से
लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने का फल तुझे प्राप्त होता. तू वास्तव में बड़ा
दुर्दैवी है. धर्म क्या है, अधर्म क्या है, यदि इस विषय पर मतभेद हो तो शास्त्रों का आधार लेना चाहिए. शास्त्रों के
अनुसार आचरण करना चाहिए, अथवा नहीं, इस प्रश्न पर यदि मीमांसा हो रही हो तो निर्मल अंतःकरण युक्त सत्पुरुष का
वचन ही शास्त्र सिद्ध होगा. वे जो कह देंगे, वह वेदवाक्य समान, धर्म सम्मत कथन होगा. वे यदि अधर्मपूर्ण निर्णय देने का
प्रयत्न करेंगे, तो धर्म देवता उन्हें अधर्म के मार्ग से परावृत्त करके धर्म सम्मत निर्णय
लेने पर बाध्य करती है. हिंसाचार पाप है, ऐसा शास्त्रों का मत है, परन्तु श्रीकृष्ण परमात्मा के सम्मुख हुआ युद्ध धर्मयुद्ध था. कौरव-पांडवों
का युद्ध धर्मयुद्ध और युद्ध स्थल धर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ. यज्ञ
पुण्यफल दायक है। परंतु, परमात्मा के स्वरूप शिव का आवाहन किए बिना आयोजित दक्ष का
यज्ञ अंत में युद्ध में परिवर्तित हो गया, अतः उसे अज का सिर लगाना पड़ा. यदि रोगी
को पित्त का प्रकोप हो तो वैद्य उसका उपचार नींबू, आँवला आदि से करता है. शरीर का कोई अवयव यदि सड़ जाए तो उसे शस्त्र से छेदकर
रोग का निदान करता है. मैं भी वैसा ही हूँ. मुझमें जिस प्रकार देवताओं के अंश हैं, उसी प्रकार दानवों
के अंश भी हैं. मैं उन्मत्त के समान, राक्षस के समान, पिशाच्च के समान भी व्यवहार करता हूँ. मेरे भीतर जीवों के प्रति अत्यंत करुणा
होने के कारण, मैं तुम्हारे स्वभाव, तुम्हारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार वर्तन करता हूँ. अनन्य भाव से मेरी शरण
में आये भक्तों का हाथ मैं छोड़ता नहीं. दूर देश में स्थित मेरे भक्त को मैं मेरे
क्षेत्र में लाता हूँ. ऋषियों का कुल और नदियों का मूल पूछा नहीं जाता. क्या आदि
पराशक्ति कन्यका परमेश्वरी वैश्य कुल में अवतरित नहीं हुई? सिद्ध मुनियों में क्या
वैश्य मुनि नहीं हैं?
न केवल ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य, अपितु यदि शूद्र भी निष्ठा पूर्वक नियम धर्मों का पालन करता है तो वह वेदोक्त
पद्धति से उपनयन का अधिकारी है. उपनयन संस्कार में तीसरा नेत्र (ज्ञान नेत्र)
खोलना चाहिए. अन्तःकरण शुद्ध होकर मन ब्रह्मज्ञान में मग्न हो जाना चाहिए. तेरा मन
तो साग के ज्ञान में पूरी तरह मगन है. ब्रह्म क्या बाज़ार में बिकने वाली वस्तु है? इस जन्म में जिसने
ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया है, वह अगले जन्म में चांडाल के रूप में जन्म ले सकता है. उसी प्रकार इस जन्म
में चांडाल के रूप में जन्मा व्यक्ति अगले जन्म में ब्राह्मण के रूप में जन्म ले
सकता है.
ब्रह्म वह रहस्य है, जो कुल, मत, देश, काल से परे है, ऐसा तू जान ले.
देवता भावप्रिय है, बाह्य प्रिय नहीं है. तेरे ह्रदय के भावों के अनुसार दैव कार्य करता है.
ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते समय मैं ब्राह्मण हूँ. भक्तों के योग क्षेम एवँ उन पर
अनुग्रह करने के लिए जब मैं दरबार में रहता हूँ, तब क्षत्रिय हूँ. प्रत्येक जीव अपने-अपने पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार फल
पाता है. हरेक जीव का लेखा-जोखा मेरे पास है. नाप-तौल करके पाप-पुण्य के फल को
बाँटते समय मैं वैश्य हूँ. भक्तों के कष्ट अपने शरीर पर सहन करके उन्हें सुख-शान्ति
प्रदान करने का सेवा-धर्म जब मैं ग्रहण करता हूँ, तब मैं शूद्र होता हूँ. जीव मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात, चिताग्नि
देकर उसके शरीर को भस्म करके जब उसे उत्तम गति देता हूँ, तब मैं डोम होता
हूँ. अब तू मुझे बता, मैं किस कुल का हूँ?
प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! क्षमा करें, मैं अज्ञानी हूँ, आप साक्षात दत्त
प्रभु हैं. समस्त जीवों का आधार आप ही हैं. वास्तव में इस सृष्टि की रचना किस
प्रकार हुई इसका वर्णन करके मुझे कृतार्थ करें.
लोकालोक वर्णन
उत्तर –
नाना जी, स्वर्ग में ८८ हज़ार गृहस्थ मुनियों का वास है. पुनरावृत्ति होना उनका
धर्म है, और वे धर्म प्रचार हेतु बीज रूप में विद्यमान रहते हैं. परमात्मा की
अनिर्वचनीय शक्ति के एक अत्यंत अल्प अंश से जगत-सृष्टि करने के उद्देश्य से
ब्रह्मदेव की उत्पत्ति हुई. परमात्मा से फिर क्रमानुसार सर्वव्यापी जल का निर्माण
हुआ. परमात्मा के तेज से उस जल में करोड़ों सुवर्ण कांति युक्त अंड उत्पन्न हुए. उन
अण्डों में, एक अंड है – ब्रह्मांड, जिस पर हम रहते हैं. इसका भीतरी भाग अंधकारमय
है, वहाँ परमात्मा का तेज मूर्तिमंत होने से अनिरुद्ध नाम
प्रख्यात हुआ. उस अंड के भीतर का अन्धकार परमात्मा ने अपने तेज से नष्ट किया. वेदों
ने उनका वर्णन हिरण्यगर्भ, सूर्य,
सविता, परंज्योति जैसे अनेक नामों से किया है. त्रेता युग
में पीठिकापुर में भारद्वाज महर्षि ने, एक करोड़ ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाले
दत्तात्रेय के तेज को संबोधित करते हुए सवितृ-काठक यज्ञ का आयोजन किया था. सत्य
लोक में निरामय स्थान नामक एक स्थान है. यहाँ त्रिखंडीय सोपानों में वासु, रुद्रादित्य नाम से पितृगणों का वास है. वे निरामय स्थान के संरक्षक के
रूप में कार्यरत रहते है. कारण-ब्रह्मलोक कहलाने वाले इस स्थान में चतुर्मुख
ब्रह्मा का निवास स्थान है. उसे विद्यास्थान अथवा मूल प्रकृति स्थान के रूप में
जाना जाता है. उस पर प्रख्यात ऐसा श्रीनगर है. उसके ऊपर महाकैलाश, उसके ऊपर कारण-वैकुंठ है. सत्यलोक में पुराणपुर नामक विद्याधर स्थान है. तपोलोक
में अंजनापतिपुर में साध्यों का वास है. जनलोक में अंबावतिपुर में सनक सनंदनादि
ऋषियों का वास है. महर्लोक में ज्योतिष्मतिपुर में सिद्धादी गणों का वास है.
स्वर्गलोक में अमरावतिपुर में देवेंद्रादी देवता गणों का वास है. खगोल से संबंधित
गृह-नक्षत्रों वाले भुवर्लोक में रथन्तरपुर में विश्वकर्मा नामक देव-शिल्पी का वास
है. नाना जी! भूलोक के दो भाग हैं. एक भाग में मानव निवास करते हैं, इसे भूगोल कहते हैं. इसके अतिरिक्त जो दूसरा भाग है, उसे महाभूमि कहते हैं. यह महाभूमि भूगोलक के दक्षिण में पाँच करोड़
ब्रह्मांड योजन दूर स्थित है. मर्त्यलोक से तात्पर्य है – भूलोक एवँ भुवर्लोक से.
इसमें महाभूमि का भी समावेश है. पाताल में अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और
पाताल. यह सात प्रकार के लोक हैं. संक्षेप में इन्हें स्वर्ग, मर्त्य, पाताल कहते हैं.
हम जहाँ
रहते हैं, उस भूगोल के नीचे की और महाभूमि है, जिसका मध्यवर्ती
भाग ऊपर उठा हुआ है और चक्राकार है. इसलिए उसके ऊपरी तल पर सूर्य-चन्द्र सदैव
प्रकाशित होते रहते हैं. सदा प्रकाशित होने के कारण यहाँ कालमान संबंधी निर्णय
नहीं है. इस महाभूमि पर सप्त समुद्र एवँ सप्त द्वीप हैं. जम्बुद्वीप इसी महाभूमि
पर है. भूलोक तथा भुवर्लोक दोनों को संयुक्त रूप से मर्त्यलोक कहा जाता है. भूलोक
में महाभूमि तथा भूगोल - ये दो प्रकार हैं.
सृष्टि के
आरंभ में समस्त लोक जलमय थे. प्रजापति ने सृष्टि-रचना करने के उद्देश्य से तपाचरण
किया, तब जल पर तैरते हुए पुष्कर पर्ण के दर्शन हुए. प्रजापति ने वराह रूप धारण
करके पुष्कर पर्ण के निकट जल में दुबकी लगाई. वहाँ नीचे उसे महाभूमि दिखाई दी.
वहाँ से थोड़ी गीली मिट्टी निकालकर अपने तीक्ष्ण नुकीले दाँतो से उसने उस मृत्तिका
के दो भाग किये. एक भाग तल के ऊपर लाकर पुष्कर पर्ण पर रखा, जो
“पृथ्वी” बना.
नानाजी!
इसे भूगोल कहते हैं. महाभूमि से भूगोल तक की दूरी ५ करोड़ ब्रह्मांड-योजन है.
महाभूमि का विस्तार ५० कोटि योजन है. जम्बुद्वीप इसी महाभूमि पर है. इसमें नौ खंड
हैं. देवखण्ड देवताओं का तथा गभस्त्य खण्ड भूतों का निवास है. पुरुष खण्ड में
किन्नर, भरत खण्ड में मानव, शरभ खण्ड में सिद्ध, गन्धर्व खण्ड में गन्धर्व, ताम्र खण्ड में राक्षस, शेरू खण्ड में यक्ष तथा इंदु खण्ड में पन्नगों का निवास है. महाभूमि पर
स्थित जम्बुद्वीप के दक्षिण में भरत खंडी, भरतपुरी, वैवस्वत मनू भूऋषियों और मानवों समेत राज्य कर रहे हैं. महाभूमि पर जिस
प्रकार जम्बुद्वीप है, उसी प्रकार भूगोल पर भी जम्बुद्वीप
है. पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लेने से १०० वर्ष पूर्व इस
महाभूमि पर मेरा आगमन हुआ. महाभूमि पर स्थित जम्बुद्वीप का विस्तार लक्ष योजन है.
जम्बुद्वीप पर केवल भरतखंडी, वैवस्वत मनु हैं. अन्य खण्डों पर देवयोनियों का वास
है. नर्म, कोमल धूप के समान प्रकाश होने के कारण वहाँ दिन और
रात में भेद नहीं है. इनका विस्तार इस प्रकार से है : लवण समुद्र का एक लक्ष योजन, प्लक्ष द्वीप का दो लक्ष योजन, इक्षु-रस समुद्र का
दो लक्ष योजन, कुश-द्वीप का चार लक्ष योजन, सुरा-समुद्र का
चार लक्ष योजन, क्रौंच द्वीप का आठ लक्ष योजन, सर्पी समुद्र
का आठ लक्ष योजन, शाक द्वीप का सोलह लक्ष योजन, दधि-समुद्र का सोलह लक्ष योजन, शाल्मली द्वीप का
बत्तीस लक्ष योजन, क्षीर-समुद्र का बत्तीस लक्ष योजन, पुष्कर
द्वीप का ६४ लक्ष योजन, शुद्ध जल समुद्र का ६४ लक्ष योजन, चलाचल पर्वत का १२८ लक्ष योजन, चक्रावली पर्वत का
२५६ लक्ष योजन, लोकालोक पर्वत का ५१२ लक्ष योजन, तपोभूमि का १२५० लक्ष योजन. लोकालोक पर्वत के पार सूर्य की किरणें नहीं
जा सकतीं, अतः लोकालोक पर्वत तथा अण्डों के मध्य अन्धकार
फैला रहता है. अंडान्तों का विस्तार करोड़ों योजन है. वराहावतार अथवा नृसिंहावतार
भूमि को व्याप्त करने वाले अवतार नहीं हैं. वराह से तात्पर्य सूकर से नहीं, अपितु नुकीले दांत वाले खड्गमृग से है.
द्वीप, द्वीपाधिपति, द्वीपाधि देवताओं के दर्शन
महाभूमि में स्थित जम्बुद्वीप का स्वयम्भू मनु ने चक्रवर्ती के रूप में सर्वप्रथम
परिपालन किया. उसके सात पुत्र सात द्वीपों के अधिपति बने. प्लक्ष द्वीप के
मेधातिथि, शाल्मल द्वीप के
वपुष्मन्त, कुश द्वीप के ज्योतिष्मंत, क्रौंच द्वीप के द्युतिमंत, शाक द्वीप के हव्य, पुष्कर द्वीप के
सवन – पहले चक्रवर्ती थे. प्लक्ष द्वीप के चातुर्वर्ण – आर्यक, कुरर, विन्दक, भाविन इन नामों से
प्रसिद्ध हैं. चन्द्राकृति में स्थित विष्णु उनके आराध्य देवता हैं. शाल्मल द्वीप
में कपिल, चारणक, पीत व कृष्ण – ये
चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव विष्णु हैं. कुश द्वीप में दभी, शुश्मीना, स्नेह और संदेह –
ये चार वर्ण हैं. इनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. क्रौंच द्वीप में पुष्कर, पुष्कल, धन्य एवँ
पिष्य नामक चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव हैं – रूद्र. शाक द्वीप के चार वर्ण हैं
– मंग, मागध, मानस तथा
मंद. ये सूर्य भगवान की उपासना करते हैं. मगर पुष्कर द्वीप में चतुर्वर्ण नहीं है.
वहाँ सभी देवताओं के समान रोग एवँ शोक से मुक्त, आनंदपूर्वक काल क्रमण करते हैं. उनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. अपने भूगोल
में, जम्बुद्वीप में, भरत वर्ष, किंपुरुष वर्ष, हरी वर्ष, केतुमान्य वर्ष, इलावृत्त वर्ष, भद्राश्व वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यक वर्ष, कुरू वर्ष नामक
भाग है. महाभूमि गोलाकार है. मध्यवर्ती भाग में कछुए की पीठ के समान ऊपर उभरी हुई
है. इस उभरे हुए भाग को भूमंडल कहते हैं. मगर भूगोल नींबू के समान है. महाभूमि
मेरू रेखा की प्रदक्षिणा करती हुई ब्रह्मांड के अंत तक व्याप्त है. मगर भूगोल, ज्योतिष्चक्र के
समानांतर – मध्यभाग में स्थित है. महाभूमि के मध्यभाग में स्थित मेरू रेखा के
चारों और जम्बुद्वीप है. उसके चारों और सप्त समुद्र, द्वीपादी हैं. भूगोल के उत्तरार्ध को देव भाग तथा दक्षिणार्ध को असुर भाग
कहते हैं. महाभूमि के मध्यभाग में मेरू दैदीप्यमान है और जीवों का पालन करने वाले
मनु का निवास स्थान है. भूगोल जीवों का निवास स्थान है. महाभूमि के चारों और स्थित
चक्रावली पर्वत के शिखर पर ज्योतिश्चक्र स्थित है. मगर भूगोल इससे भिन्न है. सप्त
कक्षाओं से आवृत्त ज्योतिश्चक्र भूगोल की रोज़ एक प्रदक्षिणा करता है. महाभूमि में
शीतोष्ण, वात आदि कम हैं, वहाँ सदैव प्रकाश
रहता है. वहाँ हमेशा दिन रहने से काल का व्यतिक्रम नहीं है. भूगोल में स्थिति इसके
विपरीत है. महाभूमि केवल पुण्य फल का अनुभव प्राप्त करने के लिए योग्य है. स्थूल
शरीर के लिए वह अप्राप्य है. भूगोल पुण्य प्राप्त करने हेतु कर्मभूमि है और वह
स्थूल शरीरधारियों के वास करने की भूमि है. महाभूमि पर मनु प्रलय के अतिरिक्त कोई
अन्य प्रलय नहीं होता. भूगोल में युग प्रलय, महायुग प्रलय, मनु प्रलय आदि घटित होते हैं.
महाभूमि के अन्य नाम हैं – धात्री एवँ विधात्री. भूगोल को मही, उर्वी, क्षिति, पृथ्वी, भूमि आदि नामों से
भी जाना जाता है. नानाजी! पाताल लोक के बारे में बताता हूँ, सुनिए! अतल लोक
में पिशाच्च गण, वितल लोक में गुह्यक, सुतल लोक में राक्षस, रसातल में भूत, तलातल में यक्ष, महातल में पितर व पाताल में पन्नगों का वास है.
लोकों के निवासी, लोकाधिपति
एवं खंडों का विवरण
वितल लोक
का नवनिधियों का अधिपति कुबेर है. यह ब्रह्मांड का कोषाधिपति है और
उत्तर दिशा में अलकापुरी में इसका वास है.
वितल लोक
में मेरू के पश्चिम में योगिनीपुर में मय का वास है. मय राक्षसों का शिल्पी है,
इसने त्रिपुरासुर के लिए आकाश में ऊंचे, विहार करने योग्य त्रिपुर का निर्माण
किया.
सुतल के
वैवस्वतपुर में यम का आधिपत्य है. यह दक्षिण दिशा का अधिपति है. इस नगर में प्रवेष
करने से पहले अग्निहोत्रा नदी पड़ती है. इस नदी को वैतरणी कहते हैं. पुण्यवान
व्यक्ति इसे सहजता से पार कर जाते हैं. पापात्माओं के लिए इसे पार करना अति
कष्टदायक है.
रसातल में
पुण्यनगर में नैऋति नामक दैत्य राज्य करता है. यह नैऋत्य दिशा का अधिपति है.
तलातल लोक में
धनिष्ठापुर में पिशाच्चगणों समेत, वेताल का राज्य है.
महातल में
कैलासपुरी में सर्वभूतगणों सहित कात्यायनीपति ईशान है. वह ईशान्य दिशा का अधिपति
है.
पाताल में
वैकुंठनगर है. इसमें श्रीमन्नारायण, पाताल में स्थित असुरों समेत,
वासुकी इत्यादि सर्पश्रेष्ठों के साथ शेषशायी होकर विराजमान हैं. इसे श्वेतद्वीप
स्थित कार्यवैकुंठ कहते हैं.
पाताल लोक
में त्रिखण्ड सोपान हैं. प्रथम खण्ड में अनंग जीवों का निवास है. द्वितीय खण्ड में
प्रेतगणों का वास है. तृतीय खण्ड में यातनामय शरीर प्राप्त हुए जीव दुःख से आक्रोश
करते रहते हैं.
महाभूमि
में सप्त समुद्र, सप्त द्वीप हैं. इनके मध्य में जम्बुद्वीप है. जम्बुद्वीप नौ खण्डों में
विभाजित है. दक्षिण की और स्थित खण्ड को भरतखण्ड कहते हैं. भरतखण्ड के भरतपुर में
स्वयंभू मनु रहते थे. अनेक पुण्यात्मा, ऋषि इत्यादि स्वयंभू
मनु के राज्य में वास करते. वे लोगों का तथा धर्म का पालन करते थे. महाभूमि पर
सप्तद्वीपों के चारों और चराचर, चक्रवाल, लोकालोक पर्वत
स्वर्ग लोक तक व्याप्त हैं. ये पर्वत कांति किरणों को कभी भी अपने भीतर से
प्रसारित नहीँ होने देते.
महाभूमि के
नीचे सात अधोलोक हैं. इन्हें सप्त पाताल कहते हैं. अतल लोक में पिशाच्चों का निवास
है. वितल लोक में अलकापुरी में कुबेर का वास है और योगिनीपुर में राक्षसों सहित मय
का वास है. सुतल लोक में राजा बलि अपने परिवार सहित वास करते है. वैवस्वतपुर यम का
निवास स्थान है, यहाँ के नरक में पापी जीव यातनाएँ भोगते है. रसातल लोक के
पुण्यपुर में नैऋति भूत अपने गणों सहित निवास करता है. तलातल लोक में धनिष्ठापुर
में वेताल का निवास है और कैलासपुरी में रूद्र का. महातल में पितृ देवों का वास
है.
पाताल में
श्वेत द्वीप वैकुण्ठ है. यहाँ नारायण का निवास है. मेरू से लगे हुए अधोभाग में अनंग
जीव, प्रेत गण तथा यातना देह वास करते हैं. निरालम्ब सूच्यग्रस्थान में
महापातकी वास करते हैं. भोजन के अंत में “रौरवे अपुण्य निलये पद्मार्बुद
निवासिनाम्। अर्थिनाम् उदकम् दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठति।।“ कहकर उत्तरापोषण के समय इन्हें उदक प्रदान किया
जाता है.
लोकों के नाम, उनका विस्तृत वर्णन
भूलोक में
स्थित भूगोल एवँ महाभूमि भिन्न-भिन्न हैं, यह अच्छी तरह समझ लो. भूगोल
बिंदु के ऊपर ऊर्ध्व ध्रुव स्थान तक के प्रदेश मे मेरू रेखा को प्रकाशित करने वाला
सूर्य लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है, सूर्य मंडल नहीं. इसी प्रकार चन्द्र लोक, अंगारक
लोक, बुध लोक, गुरू लोक, शुक्र लोक, शनैश्चर लोक,
राश्यादी देवता लोक, नक्षत्र देवता लोक, सप्त ऋषि लोक, ऊर्ध्व ध्रुव लोक हैं. इनके अतिरिक्त अन्य अवांतर लोक भी
हैं.
भूमध्य लोक
से सूर्य लोक एक लक्ष ब्रह्माण्ड योजन के अंतर पर है. भूमध्य लोक से चन्द्र लोक दो
लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, अंगारक लोक तीन लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, बुध लोक पाँच लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, गुरू लोक सात लक्ष ब्रह्माण्ड योजन,
शुक्र लोक नौ लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, शनैश्चर लोक ग्यारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन,
राश्यादि देवता लोक बारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, नक्षत्रादि देवता लोक तेरह लक्ष
ब्रह्माण्ड योजन, सप्तर्षि लोक चौदह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, ध्रुव लोक पंद्रह लक्ष
ब्रह्माण्ड योजन दूर है.
इसी
प्रकार, भूमध्य बिंदु से विविध अंतर पर स्वर्गलोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक
हैं.
भूमध्य
बिंदु से ब्रह्माण्ड के चारों और दीवार के समान, अर्थात्, अंडान्त तक २४ करोड़ ५०
लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूमध्य बिंदु से अंडान्त के बाहरी भाग तक २६
करोड़ा पचास लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक प्रलय
काल में नष्ट हो जाते हैं. स्वर्लोक के ऊपर स्थित महर्लोक कुछ अंशों में नष्ट होकर
उसके कुछ अंश स्थिर रहते हैं. उसके ऊपर स्थित जन, तप व सत्य
लोक ब्रह्मा के आयुष्य के अंत में नष्ट होते हैं. स्वर्ग से तात्पर्य है स्वर्लोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक और अंडान्त तक का प्रदेश.
दत्त
अर्थात् कौन?
नाना जी! यदि तुम दत्त
तत्व का अनुभव करना चाहते हो, तो लक्ष बार जन्म लेना होगा. कोटि-कोटि ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाली, उनका अतिक्रमण करने
वाली जो एकमेव तेजोमहाराशी है, वही दत्त है, ऐसा समझो. वे दत्त प्रभु ही तेरे सामने उपस्थित श्रीपाद
श्रीवल्लभ हैं, यह जान लो.
श्री चरणों (श्री
प्रभु) द्वारा किया गया हितोपदेश सुनकर नरसावधानी और उनकी पत्नी चकित हो गए. एक
वर्ष के बालक द्वारा अधिकार पूर्ण स्वर में इतने महत्त्वपूर्ण एवँ गहन विषय का
वर्णन और स्वयँ दत्त होने का निरूपण सुनकर नरसावधानी एवँ उनकी पत्नी से रहा नहीं
गया. वे फूट-फूट कर रोने लगे. उस दिव्य बालक के श्रीचरणों को स्पर्श करने की इच्छा
उन्होंने व्यक्त की. श्रीपाद प्रभु ने इनकार कर दिया. नरसावधानी और उनकी पत्नी
जडवत् रह गए.
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मैं दत्त हूँ,
कोटि-कोटि ब्रह्मांडो में व्याप्त एकमेव तत्व मैं ही हूँ. दिग् – यही मेरा वस्त्र
है, इसलिए मैं दिगम्बर
हूँ. जो कोई त्रिकरण शुद्धि से दत्त दिगंबरा! श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा! नृसिंह सरस्वति दिगंबरा! कहकर भजन कीर्तन करते हैं, वहाँ मैं सूक्ष्म रूप से सदैव उपस्थित रहता हूँ. मेरे
मातामह श्री बापन्नार्य, पर-प्रांत से पादगया क्षेत्र में श्राद्धादि कर्म करने
हेतु आये हुए लोगों की सेवाभाव से भोजन व आवास की व्यवस्था कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने आक्षेप उठाया, “कहाँ हैं,
तुम्हारे स्वयंभू दत्त? अदृश्य हो गए ना?” तब
श्रीपाद प्रभु बोले, “वह दत्त मैं ही हूँ. जिस घर में मैंने जन्म लिया, वहाँ रहने के लिए जो लोग आयेंगे, वे निश्चय ही पवित्र
हो जायेंगे. पितृ देवों को अवश्य ही पुण्यलोक की प्राप्ति होगी. जीवित प्राणियों
का, उसी प्रकार मृत जीवों का योग-क्षेम वहन करने वाला
प्रभु मैं ही हूँ . मेरे लिए जन्म, मरण दोनों एक समान हैं, फिर भी तुम्हारे मन में यह व्यथा है कि “मेरे द्वारा
की गई स्वयंभू दत्तात्रेय की आराधना का क्या यही फल है?” तुझ पर
आया हुआ वृथा आरोप नष्ट करने के उद्देश्य से स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन शीघ्र ही
होंगे, और मूर्ती की प्रतिष्ठापना होगी. मैंने तुम्हें जीवन
दिया है. दत्त का हमेशा स्मरण रहे. अगले जन्म में तुझ पर अनुग्रह होगा, यह आश्वासन
देता हूँ. इस जन्म में मेरे चरणों को स्पर्श करने का महत्पुण्य तेरे भाग्य में
नहीं. कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन, रक्षण एवँ विनाश करने वाला एकमेव प्रभु, जो
मैं हूँ, अपने वरद हस्त से तुझे आशीर्वाद देता हूँ!” महाभयंकर ध्वनि के मध्य
श्रीचरणों (श्री प्रभु) के शरीर के अणु-परमाणु विघटित होकर श्रीपाद प्रभु अदृश्य
हो गए.
बेटा!
शंकर भट्ट! श्रीपाद स्वामी ने उनके नाम के साथ ‘दिगंबरा’ नाम जोड़कर जप करने का मर्म इस प्रकार से निरूपित किया
: उनका सर्वव्यापी तत्व, जो निराकार है, वह तत्व
साकार रूप में किस प्रकार अवतरित हुआ, यह हमारी कल्पना से परे है. नन्हें बालक के रूप में,
लुभावना, मोहक रूप धारण करके आए उस जगत्प्रभु की बाल्यावस्था
से होती आ रही लीलाओं का अंत कहाँ?”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय-जयकार हो”
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