।। श्रीपाद राजम् शरणम् प्रपद्ये।।
अध्याय १४
दत्त दासों को अभय
प्रदान
मैं (शंकर भट्ट) थोड़े दिनों की यात्रा के पश्चात “मुन्ताकल्लू” गाँव में
पहुँचा. रास्ता चलते लोगों से पूछा तो ज्ञात हुआ कि कुछ और दिनों के पश्चात
कुरवपुर पहुँचूंगा. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के सगुण स्वरूप को देखने की मन में
ललक थी. जिस रास्ते से मैं जा रहा था, उसी पर एक
व्यक्ति हाथ में ताड़ी का पात्र लिए चल रहा था. उस ताड़ी की बदबू मुझसे बर्दाश्त
नहीं हो रही थी. उसे टालने के लिए मैं श्रीपाद प्रभु का स्मरण करते हुए तेज़ी से
आगे बढ़ा जा रहा था. वह व्यक्ति भी अपनी चाल तेज़ करके मेरे निकट पहुँचा. उसने पूछा, “जब मैं तुम्हारे निकट आ रहा हूँ, तो तेरा इस तरह से दूर जाना क्या उचित है?”
मैंने पूछा, “ऐ! तू कौन
है? मुझसे तुझे क्या काम है?”
इस पर वह जोर से हंसा, उसके मुंह
से ताड़ी की तेज़ बू आई. “मैं कौन हूँ, यह जानने से पहले यह बता कि तू कौन है? कहाँ से आया? कहाँ जा रहा
है?” शायद ताड़ी बेचने वाले भी वेदान्त विषय पर
इतना अच्छा बोल सकते हैं.
उसने रास्ते पर चलने वाले लोगों को आवाज़ दे-देकर इकट्ठा कर लिया. काफी लोग
जमा हो गए. ताड़ी वाला उनसे बोला, “मैं यहाँ
ताड़ी बेचता हूँ. धर्म का अनुसरण करके जीवन यापन करता हूँ. ताड़ी का पेड़ ही मेरे लिए
कल्पवृक्ष के समान है. जब तक मैं पेड़ पर चढ़कर ताड़ी नीचे लाया, यह ब्राह्मण मेरी राह देखते हुए खडा रहा. “मैं ब्राह्मण होकर भी मुझे ताड़ी
पीने की आदत है. परन्तु मेरे पास तुम्हें देने के लिए पैसे नहीं हैं. थोड़ी ताड़ी
देकर पुण्य प्राप्त करो,” ऐसा इसने
कहा. मैंने “ना” कहा. परन्तु जब मैं इसे ताड़ी देने के लिए तैयार हो गया, तो रास्ते
पर लोगों का आना-जाना बढ़ गया था. लोगों के सामने ताड़ी पीने से ब्राह्मणत्व को दोष
लगेगा, ऐसा विचार कर, अब यह मना कर रहा है. अब वचन भंग का दोष लगकर मैं महापापी हो जाऊँगा.
वास्तव में देखा जाए तो मेरे कुल के लिए यह एक महान अवसर है. इस अमूल्य ताड़ी को
ब्राह्मण को देने से मुझे बड़े पुण्य की प्राप्ति होगी, मेरी इस आशा पर इसने पानी फेर दिया है. पूज्य लोगों, आप इस ब्राह्मण को धर्मोपदेश दें और मेरी इस पाप से रक्षा करें”
वहाँ एकत्रित हुए सारे लोग ताड़ी बेचने वाले गौड़ लोग ही थे. उन्होंने ताड़ी
वाले की बात का समर्थन किया और उस ताड़ी वाले ने मुझे ज़बरदस्ती ताड़ी पिला दी. इसके
पश्चात सब लोग चले गए. मैं बहुत दुखी हो गया. उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर
अत्यंत नीच, ऐसी ताड़ी का मैंने प्राशन कर लिया. मेरा
ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया. अब मैं परम पवित्र श्रीपाद प्रभु के मुखकमल का दर्शन
कैसे करूँ? सत्यानाश हो गया मेरे कर्म का, मेरे भाग्य का. विधि ने यही लिखा था मेरे ललाट पर, तो कुछ अन्य कैसे होता?
मेरे पाँव लड़खड़ाने लगे. मुँह से तीव्र बदबू आ रही थी. नसीब को कोसते हुए, श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करते हुए मैं चलने लगा.
मार्ग में एक तपोभूमि दिखाई दी. वहाँ कोई महात्मा वास करते थे. इस पवित्र
भूमि पर पैर रखने में मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा था. मैं अपने रास्ते जा रहा था, इतने में पीछे से आवाज़ आई, “अरे, शंकर भट्ट! रुको. श्री दत्तानंद स्वामी ने तुम्हें आश्रम ले चलने की आज्ञा
दी है.” ईश्वर की लीला को देखकर मैं चकित रह गया. मुझे श्री दत्तानंद स्वामी के
सम्मुख लाकर खडा किया गया. करुणामय नेत्रों से मेरी और देखते हुए उन्होंने मुझे
शीघ्र स्नान करके आने को कहा. स्नान के पश्चात मुझे मधुर फल खाने को दिए. श्री
स्वामी ने मुझे निकट बुलाकर कहा, “अरे, शंकर भट्ट! दत्तात्रेय के नए अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ की तुझ पर कितनी
कृपा दृष्टी है. उन्होंने अपने अमृत हस्त से तुझे अमृत पिलाया. उन्हें तू गौड़ कुल
का ताड़ी बेचने वाला समझा, उनके दिए गए
अमृत को भ्रमवश ताड़ी समझ बैठा. कैसी है यह भ्रामकता!”
मुझे वह सारा प्रसंग याद आया. सभी प्रसंग एक के बाद एक नज़रों के सामने तैर
गए. इसके बाद मुझे ऐसा अनुभव हुआ, मानो अनंत
चैतन्य शक्ति महासागर की असंख्य लहरें मुझ से आ आकर टकरा रही हैं. इसा अनंत शक्ति
में मेरा अत्यंत हीन अहंकार नष्ट हो गया. “मैं” कौन हूँ , समझ में नहीं आ रहा था,
समझ में आ भी नहीं सकता था. एक दिव्य आनंद में मैं डूब गया था. मेरा सीमित “मैं”
नष्ट हो गया था और समूची सृष्टि स्वप्नवत् प्रतीत हो रही थी.
तभी स्वामी जी ने मुझ पर मंगल जल छिड़का. अपने
दिव्य हस्त से पवित्र भस्म का मेरे माथे पर लेप किया. मैं प्रकृति के आधीन हो गया.
कुछ क्षणों तक मैं दिव्य आनंद का अनुभव ले रहा था. इसके पश्चात मेरे प्रकृतिस्थ मन
को यह आभास हुआ कि मैं स्थूल तत्व में फंसता जा रहा हूँ.
श्री स्वामी जी बोले, “पहले किसी
एक जन्म में तू गौड़ कुल में जन्मा था. ताड़ी का सेवन बहुत अधिक मात्रा में किया
करता था. तेरी ताड़ी पीने की इच्छा शेष रह गई. यदि श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह न होता
तो तुझे वह बुरी लत लग जाती और तू पतित हो जाता. तेरी कुण्डली में अनेक गंडांतर
(आपदाएं) हैं. परन्तु श्रीपाद प्रभु की अमृत दृष्टी से तुझे ज्ञान हुए बिना ही
उनका परिहार हो जाता है. श्री गुरू की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है/ वेद भी ‘नेति, नेति’ कहकर मौन हो
गए.”
इस पर मैंने कहा, “श्रीपाद
प्रभु हमेशा कहते हैं कि वे नृसिंह सरस्वती के रूप में अवतार लेने वाले हैं. उनकी
लीलाओं के पीछे जो गर्भित अर्थ है, उसे जानने
की इच्छा है.”
यह सुनकर स्वामी जी बोले, “वेद ऋषियों
के तत्ववेत्तापन का वह प्रमुख लक्षण है. अध्यात्म में निहित सत्यवचन अपने सरल
शब्दों में संतों ने कहे हैं. यही आत्मसत्य है. वास्तव में कर्मकाण्ड के अनुसार
व्याख्या करते हुए आत्मसत्य को ही सत्य, यज्ञ, जल,
अन्न आदि नामों से संबोधित किया गया है. इसी प्रकार से देखा जाए तो ‘सरस्वती’ शब्द का भी बड़ा वैशिष्ट्य है. सरस्वती नदी अन्तर्वाहिनी है. उसका वर्णन
करते समय उसे सत्य वाक्यों का बोध करने वाली, महार्णव को स्पष्ट करके चित्त को प्रकाशित करने वाली कहा गया है. श्री
गुरू से तात्पर्य है एक अनुपम प्रबोध शक्ति, प्रबोधिनी प्रवाह. उनकी सत्य वाणी चित्त को प्रकाशित करती है, उसी तरह परम सत्य एवँ अंतर्ज्ञान को हमारे भीतर स्थिर करती है. वेदों में
वर्णित “यज्ञ” – यह अंतः प्रवृत्ति का बाह्य प्रतीक है. यज्ञ द्वारा मानव ईश्वर को
वह अर्पण करता है, जो उसका
होता है. उसे प्रत्युपकार स्वरूप देवता गोधन, अश्व देते हैं. गोधन से तात्पर्य है तेज संपदा, अश्व से तात्पर्य है शक्ति संपदा. इस प्रकार देवता हमें तप शक्ति (प्रसाद)
देते हैं. वेदों में निहित ज्ञान अत्यंत गुप्त रखा गया है, जिससे उसे अत्यंत योग्य व्यक्ति ही समझ सकें.”
औदुम्बर वृक्ष को दिया
गया वरदान
नृसिंह सरस्वती अवतार की
विशेषता
श्री महाविष्णु हिरण्यकश्यपु का संहार करने के
लिए औदुम्बर (गूलर) वृक्ष के स्तम्भ से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए. उन्होंने प्रह्लाद
की रक्षा की हिरण्यकश्यपु के वध के पश्चात उसे राजसिंहासन पर बिठाया. कुछ समय
पश्चात उस टूटे हुए स्तम्भ से पत्ते निकलने लगे और फिर वही औदुम्बर के वृक्ष में
रूपांतरित हो गया. प्रह्लाद आश्चर्य चकित होकर उस औदुम्बर वृक्ष की पूजा करने लगा.
प्रह्लाद को एक बार औदुम्बर वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ अवस्था में बैठे श्री
दत्तात्रेय ने दर्शन दिए और उपदेश दिया. प्रह्लाद की द्वैत-सिद्धांत के प्रति
आसक्ति को देखते हुए श्री दत्तात्रेय ने कलियुग में “यतिवेष धारण करके तू दीन जनों
का उद्धार करेगा”, ऐसा उसे आशीर्वाद दिया. परम पवित्र औदुम्बर वृक्ष ने मनुष्य का
रूप धारण करके श्री दत्त प्रभु के चरणों पर गिर कर प्रार्थना की, कि उसे भी वरदान दें. तब श्री दत्तात्रेय बोले, “हर औदुम्बर
वृक्ष की जड़ में मैं सूक्ष्म रूप से वास करूंगा. तुझसे नरसिंह भगवान प्रकट हुए थे, अतः कलियुग में मैं नृसिंह सरस्वती का अवतार धारण करूंगा, यह मेरा वचन है.”
स्वामी की बातें सुनकर मैंने कहा, “महाराज, श्री
पीठिकापुरम् में श्रीपाद प्रभु के दर्शन प्राप्त करने के लिए और उनकी बाल लीलाएं
सुनने के लिए मन सदा लालायित रहता है.”
श्रीपाद प्रभु की अद्भुत् लीलाएं
स्वामी बोले, “बचपन में
मैं स्पष्ट रूप से बोल नहीं सकता था, तुतलाता था, इसलिए सभी लड़के मेरा मज़ाक उड़ाया करते. मुझे एक विचित्र बीमारी हुई. पाँच
वर्ष की आयु से वह बीमारी बढ़ने लगी. एक वर्ष बीतता तो यूँ प्रतीत होता, जैसे मेरी आयु दस वर्ष बढ़ गई हो. जब मैं दस वर्ष का हुआ तो पचास वर्ष की
आयु जैसे शारीरिक लक्षण दिखाई देने लगे, उस समय बापन्नाचार्युलु
पीठिकापुरम् में यज्ञ कर रहे थे. मेरे पिताजी
यज्ञ के लिए मुझे वहां ले गए थे. उस समय श्री प्रभु की आयु छः वर्ष से अधिक नहीं
थी. यज्ञ के लिए घी इकट्ठा करके रखा था, उसे एक वृद्ध ब्राह्मण की देखरेख में रखा
गया था. उस घी में से वह ब्राह्मण एक तिहाई भाग अपने घर में छुपाकर रखता और बचा
हुआ दो तिहाई भाग यज्ञ के लिए लाता. यज्ञ आरम्भ हुआ, परन्तु घी कुछ ही देर में
समाप्त होने लगा. उसी समय घी तैयार करना कठिन था. श्री बापन्नाचार्युलु ने सहेतुक
श्रीपाद प्रभु की और देखा, तब श्रीपाद
प्रभु बोले, “कुछ चोर मेरे धन का अपहरण करने की योजना
बना रहे हैं, परन्तु मैं उनके प्रयत्न सफल न होने दूंगा.
योग्य समय आने पर उन्हें दंड दूँगा. उसके घर उसकी पत्नी के साथ शनिदेव का वास हो, ऐसी आज्ञा करता हूँ.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने उस वृद्ध ब्राह्मण को
बुलाकर ताडपत्री पर यह लिखा, “माँ, गंगा! यज्ञ के लिए आवश्यक घृत प्रदान करें. तुम्हारा ऋण मेरे नानाजी वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी चुकाएंगे, यह श्रीपाद श्रीवल्लभ की आज्ञा है.” यह पत्र उन्होंने श्रेष्ठी को दिखाया. श्रेष्ठी ने मान्य कर लिया.
उस वृद्ध ब्राह्मण के साथ चार अन्य ब्राह्मण पादगया तीर्थ पर गए. वह पत्र उन्होंने
तीर्थ राज को अर्पण किया और अपने साथ जो पात्र ले गए थे, उसमें तीर्थ स्थल से जल भर लिया. वेद मन्त्रों का पठन करते हुए वे उस जल
को यज्ञस्थल पर लाये. वह जल सब के सामने घृत में परिवर्तित हो गया. उस घृत की
आहुति से यज्ञ की पूर्णता हुई. सभी जन प्रसन्न हो गए. वचन के अनुसार श्रेष्ठी ने
उस पात्र में घी भरकर तीर्थराज को समर्पित किया. उंडेलते समय घी का पानी हो गया
था.
मेरे पिता ने मेरी बीमारी के बारे में श्रीपाद प्रभु को बताया. वे बोले, “थोड़ी देर रुकिए. रोग का निवारण हो जाएगा. तुतलापन समाप्त कर दूँगा. एक घर
जलने वाला है, उसके लिए
मुझे मुहूर्त निश्चित करना है.” प्रभु के वचन समझ से परे थे. तभी वह वृद्ध
ब्राह्मण वहाँ आया. घी चुराने से कोई हानि तो नहीं हुई, यह देखने के लिए वह आया था. कुछ हुआ भी हो तो श्रीपाद प्रभु के दर्शन से
सब शुद्ध ही होगा, ऐसा दृढ़ विश्वास
उसके मन में था. श्रीपाद प्रभु ने उससे कहा, “दादा जी! आप मुहूर्त निकालने में पारंगत हैं. एक घर की परशुराम प्रीती
करनी है (उसे नष्ट करना है), उसके लिए उचित मुहूर्त बताएँ.” तब वह वृद्ध ब्राह्मण बोला, “गृह निर्माण के लिए, भूमि पूजन
के लिए तो मुहूर्त होते हैं, परन्तु गृह दाह
के लिए मुहूर्त नहीं होते.” श्रीपाद प्रभु बोले, “चोरी करने के लिए, गृह दाह
करने के लिए मुहूर्त कैसे नहीं होते?” वृद्ध
ब्राह्मण बोला, “ऐसे
मुहूर्तों के बारे में मैंने सुना नहीं है.” श्रीपाद प्रभु बोले, “कैसी शुभ वार्ता बताई आपने. परम पवित्र यज्ञ के लिए संगृहीत घृत एक धूर्त
ने चुरा लिया. अग्नि देवता अपनी भूख रोक नहीं सके. धर्मानुसार जो घी उन्हें मिलना
चाहिए था, वह न मिलने से वे घर को जलाकर अपनी भूख मिटा
रहे हैं. अग्नि देवता प्रसन्नता से नाच रहे हैं.”
श्रीपाद प्रभु की बात सुनकर उस वृद्ध ब्राह्मण का चेहरा काला पड़ गया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “तेरा घर
भस्म हो गया है. थोड़ी सी राख लेकर आ.” श्रीपाद प्रभु अनुग्रह करें तो वरदान देते
हैं, परन्तु यदि क्रोधित हो जाएँ तो नष्ट करते
हैं, यह बात उस ब्राह्मण को ज्ञात थी. उसने एक भी शब्द नहीं कहा और अपने भस्म हो
गए घर का भस्म लेकर आया. श्रीपाद प्रभु ने मुझे उस भस्म को पानी में मिलाकर पीने
की आज्ञा दी, और तीन दिनों तक ऐसा करने के लिए कहा. हम श्री बापन्नाचार्य के घर
तीन दिन रुके, और मैं वह
भस्मयुक्त पानी पीता रहा. मेरा तोतलापन पूरी तरह लुप्त हो गया, और मैं स्वस्थ्य हो गया. श्रीपाद प्रभु ने अपना दिव्य हस्त मेरे मस्तक पर
रखकर शक्तिपात करते हुए मुझे ज्ञान दान किया और बोले, “आज से तू दत्तानंद के नाम से प्रसिद्ध होगा. गृहस्थाश्रम स्वीकार करके
भक्तों का कल्याण करेगा. उन्हें धर्म बोध करवाएगा. तू और यह वृद्ध ब्राह्मण मिलकर
पिछले जन्म में व्यापार करते थे. व्यापार के दौरान वैमनस्य उत्पन्न होने से तुम
दोनों एक दूसरे को नष्ट कर देना चाहते थे. एक दिन तुमने इस वृद्ध ब्राह्मण को घर
बुलाया और प्रेम पूर्वक उसे खीर खिलाई. उस खीर में ज़हर मिलाया गया है, यह मालूम न होने के कारण उसने पूरी खीर खा ली और कुछ ही समय बाद प्राण
त्याग दिए. इस ब्राह्मण ने भी तेरे अनजाने में कुछ लोगों के द्वारा तेरे घर में आग
लगवा दी थी, और तेरा घर जल कर भस्म हो गया. तेरी पत्नी
उस आग में जलकर मर गई. घर लौटने पर सर्वनाश हुआ देखकर ह्रदयाघात से तेरी भी मृत्यु
हो गई. पिछले जन्म में विष का प्रयोग किया था, इसीलिए इस जन्म में तू ऐसी विचित्र व्याधि से ग्रस्त हुआ. इस ब्राह्मण ने
पिछले जन्म में तेरा घर जलाया था, इस जन्म में
इसका घर भी भस्म हो गया. यह लीला करके मैंने तुम दोनों को तुम्हारे कर्म बंधन से
मुक्त कर दिया.”
श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करके मैं अपने घर लौटा. उनकी कृपा से
वेद-शास्त्र संपन्न पंडित बना. उस वृद्ध ब्राह्मण को नरसिंह वर्मा ने नया घर बनवाकर
दिया. श्रीपाद प्रभु की कृपा से हम दोनों के कर्म बंधन टूट गए, दोनों का हित हो गया. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अत्यंत दिव्य एवँ अगाध
हैं.”
दत्तानंद आगे बोले, “अरे, शंकर भट्ट! सभी देवता तेज से उत्पन्न हुए हैं. अदिति माता सभी देवताओं की
माता हैं. देवता ही मानव की प्रकृति एवँ विकास के लिए सहायक हैं. देवता मानव को
तेज प्रदान करते हैं, मानव की आत्मा पर दिव्य चैतन्य संपदा की वर्षा करते हैं. वे
सत्य के पोषक हैं, सत्य लोक के निर्माता हैं. मानव के संपूर्ण मोक्ष में, निर्मल आनंद में सहायक हैं.”
ब्राह्मण – भूलोक के देवता
सभी देवता मन्त्र स्वरूप हैं. यह
विश्व ईश्वराधीन है. इस प्रकार देवता मंत्राधीन हैं. मन्त्र सद्ब्राह्मणों के आधीन
हैं. अतः ब्राह्मण भूलोक में देवता समान हैं.
शब्द को पंचेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर सकते हैं. शब्दों का प्रयोग
मानव कुछ मूलभूत भावों, जैसे प्रकाश, स्पर्श, शीतोष्ण, विस्मृति, बल प्रयोग, गमन आदि को
व्यक्त करने के लिए करता है. जैसे जैसे भाषा की प्रगति होती है, वैसे वैसे क्रमशः भावों की विविधता, निश्चितता भी भाषा में बढ़ती है. फिर क्रमशः अस्पष्टता से निश्चित ऐसे
निश्चल तत्व की भौतिक से मानसिक अंश में , व्यक्त से अव्यक्त भावना में अभिव्यक्ति
- इस प्रकार भाषा की वृद्धि होती रहती है.
पवित्र ग्रन्थ पठन विशेष
फलदायी है
तुम्हारा श्रीपाद प्रभु के दिव्य चरित्र को
संस्कृत भाषा में लिखने का निश्चय बहुत प्रशंसनीय है. यह ग्रन्थ कालान्तर में संस्कृत
भाषा से तेलुगु भाषा में अनुवादित किया जाएगा. अनुवादित ग्रन्थ के पठन का फल मूल
ग्रन्थ के पठन के फल जैसा ही है. श्रीपाद प्रभु के चरित्र का कोई भी, कहीं भी पठन करे, श्रीपाद प्रभु स्वयं वहां सूक्ष्म रूप में
उपस्थित होकर उसका श्रवण करते हैं. इस संबंध में एक कथा सुनाता हूँ, ध्यान से सुनो.
श्रीपाद प्रभु जब सात वर्ष के हो गए, तब उनका वेदोक्त विधि से उपनयन संस्कार किया गया. उस काल में किसी संपन्न
घर में जब ऐसे आयोजन किये जाते थे, तो चारों और अत्यंत प्रसन्नता का वातावरण
निर्मित हो जाता था. बापन्नाचार्युलु के हर्ष का तो पारावार न था. उन्होंने अपने जाति बांधवों को श्री दत्त-चरित्र सुनने के लिए
बुलाया था. वे सब बड़ी उत्सुकता से श्री दत्तात्रेय-चरित्र को सुनने के लिए आये थे.
दत्तदास ने दत्त चरित्र का पठन आरम्भ किया. वे
कहने लगे, “पूर्व युग में अनुसूया तथा अत्री महर्षि – इस
परम पावन दंपत्ति को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. उसका नाम रखा गया –
दत्तात्रेय. वही परम् ज्योति दत्तात्रेय इस कलियुग में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप
में पीठिकापुरम् में अवतरित हुए हैं. उन महाप्रभु का उपनयन संस्कार आज संपन्न हुआ
है. उपनयन के पश्चात दिव्य तेजस्वी श्रीपाद प्रभु और भी अधिक तेजःपुंज प्रतीत होने
लगे. उन दीन जनों के उद्धारक श्री प्रभु का नित्य मंगल हो!”
यही कथा वे बार-बार कह रहे थे और श्रोता तन्मयता
से सुन रहे थे. इस प्रकार त्रेपन्न बार उन्होंने यह कथा कही. दत्त दास को श्रीपाद
प्रभु ने अपनी अमृत दृष्टि से देखा. उपनयन के पश्चात श्रीपाद प्रभु वहाँ उपस्थित
ब्राहमणों से बोले कि वे फ़ौरन मलदासरी के घर जायेंगे. जब उनसे कारण पूछा गया तो उन्होंने
कहा कि विशुद्ध अन्तःकरण वाला दत्त दास मेरे चरित्र का पठन कर रहा है. उसके एक बार
कथन किये गए कथाभाग को यदि एक अध्याय माना जाए तो त्रेपन्न अध्याय पूरे हो चुके
हैं. मेरे चरित्र के त्रेपन्न अध्यायों को पूरा करने वालों को जो फल प्राप्त होता
है वह उसे तुरंत देना है.”
श्रीपाद
प्रभु के भक्त-वात्सल्य को जाति-कुल का भेद नहीं
श्रीपाद प्रभु को दत्तदास के घर जाने की अनुमति
ब्राह्मणों ने नहीं दी. तब श्रीपाद प्रभु क्रोधित होकर बोले, “आप लोग किसी को भी पंचम कहकर, नीचा जाति के लोगों को क्रूरता से दबाकर
रखते हो, परन्तु उन पर मेरी अधिक कृपा दृष्टी रहने से
आगामी शताब्दी में वे उन्नत स्थिति में रहेंगे और तुम लोगों का ब्राह्मणत्व,
तुम्हारे अधिकार उनकी सेवक वृत्ति धारण करके धर्मभ्रष्ठ और कर्मभ्रष्ठ हो जायेंगे.
मेरे वचन को पत्थर की लकीर समझो, इसका एक भी अक्षर मिथ्या नहीं होगा. तुम
ब्राह्मणों में से जो लोग धर्माचरण करते हुए दत्त भक्ति में रत होकर अपना जीवन
व्यतीत करेंगे, उनकी मैं सतर्कता से रक्षा करूंगा.”
श्रीपाद प्रभु के माता-पिता ने उनके क्रोधावेश
को शांत करने का प्रयत्न किया. कुछ देर बाद वे शांत हो गए.
ठीक उसी समय दत्त दास के घर श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु ने अपने दिव्य मंगल स्वरूप में दर्शन दिए. उनके द्वारा प्रेम भाव से अर्पित
फलों को स्वीकार किया. उन्होंने जो दूध अर्पण किया उसका प्रेम पूर्वक सेवन किया.
उन्होंने सबको अपने दिव्य हस्त से मिठाई का प्रसाद दिया और दत्त दास के घर में
उपस्थित सभी को उन्होंने आशीर्वाद दिया.
“बेटा, शंकर भट्ट! देखा
भक्तों के प्रति श्रीपाद प्रभु का प्रेम! वे भावना से ही संतुष्ट हो जाते हैं.
उन्हें कुल, गोत्र, भौतिक परिस्थिती
से कोई मतलब नहीं. यदि नीच कुल का व्यक्ति भी तुम्हें दत्त प्रसाद दे तो भक्तिभाव
से उसे स्वीकार करो. यदि उसे अनदेखा करोगे या प्रसाद को अस्वीकार करोगे तो कष्टों
का सामना करना पडेगा..”
श्रीपाद प्रभु द्वारा भक्तों को दिए गए बारह अभय वचन
१.
जिस स्थान पर मेरे चरित्र का पठन हो रहा होता है, वहाँ मैं सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहता हूँ.
२.
काया, वाचा, मनसा रूप से जो साधक मेरे प्रति समर्पित हैं, उनकी मैं सदैव सतर्कता पूर्वक रक्षा करता हूँ.
३.
श्री पीठिकापुरम् में मैं प्रतिदिन मध्याह्न काल में आकर भिक्षा स्वीकार
करता हूँ. मेरा आना देवी-रहस्य है.
४.
जो निरंतर मेरा ध्यान करता है, उसके
अनेकानेक जन्मों के कर्मफल को मैं भस्म कर देता हूँ.
५.
अन्न ही परब्रह्म है – अन्नमोरामचन्द्राय. जो क्षुधितों को अन्न देता है, उस पर मैं प्रसन्न होता हूँ.
६.
मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ हूँ. मेरे भक्तों के घर में महालक्ष्मी अपनी संपूर्ण
कलाओं से प्रकाशित होती है.
७.
यदि तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध है, तो मेरी
कृपा सदैव तुम पर बनी रहेगी.
८.
तुम किसी भी देवता-स्वरूप की आराधना करोगे, किसी भी सद्गुरू की उपासना करोगे, वह मुझे ही प्राप्त होगी.
९.
तुम्हारी की हुई प्रार्थना मुझ तक ही पहुँचती है. मेरा आशीर्वाद तुम्हें
आराध्य देवता द्वारा, तुम्हारे
सद्गुरू द्वारा तुम्हें प्राप्त होता है.
१०. श्रीपाद श्रीवल्लभ केवल नाम रूप ही नहीं है.
सकल देवताओं के स्वरूपों, समस्त शक्तियों के सम्मलेन से मेरा विराट रूप बना है.
इसे तुम अनुष्ठान द्वारा ही समझ सकोगे.
११. श्रीपाद श्रीवल्लभ का अवतार मेरा संपूर्ण योग
अवतार है. जो महायोगी, महासिद्धपुरुष
नित्य मेरा ध्यान करते हैं, वे मेरे ही
अंश हैं.
१२. यदि तुम मेरी आराधना करोगे, तो मैं तुम्हें धर्ममार्ग का, कर्ममार्ग
का ज्ञान देता हूँ. तुम पतित न हो जाओ, इसलिए मैं
सदैव तुम्हारी रक्षा करता हूँ.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।