।। श्रीपाद राजम् शरणं
प्रपद्ये।।
अध्याय १३
आनन्द शर्मा की कथा
शंकर भट्ट बोले, “मैं सुब्बय्या
श्रेष्ठी की अनुमति लेकर कुरवपुर की दिशा में चल पडा. रात के समय एक गाँव में आया.
भिक्षा के लिए किस घर में जाऊँ यह विचार कर रहा था. इसी मार्ग पर एक घर के सामने
ड्योढी में एक ब्राह्मण पड़ोसी से बातें करते दिखाई दिए. उनके नेत्रों में तेज था
और वे करुना से ओत-प्रोत थे. उन्होंने आदरपूर्वक मुझे घर के अन्दर बुलाकर भोजन
करवाया. भोजन होने के पश्चात वे कहने लगे, “मुझे आनन्द शर्मा
कहते हैं. मैं गायत्री मन्त्र का अनुष्ठान करता हूँ. कुछ ही देर पूर्व माता
गायत्री ने मुझे मेरी अंतर्दृष्टि में
दर्शन दिए और बोली, “एक दत्त भक्त आ रहा है. उसे भरपेट भोजन करवाओ.
दत्त प्रभु के दर्शनों का फल तुझे प्राप्त होगा. उनकी आज्ञानुसार आपके दर्शन करके
मैं कृतार्थ हुआ.”
इस पर मैं बोला, “मैं दत्त भक्त
ही हूँ. वर्त्तमान में श्री दत्त प्रभु भूलोक में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में
वास कर रहे हैं, यह सुनकर उनके दर्शनों के लिए मैं कुरवपुर जा रहा हूँ. मेरा नाम
शंकर भट्ट है. मैं कर्नाटकी ब्राह्मण हूँ.
कण्व मुनि आश्रम की कथा
मेरी बात सुनकर आनन्द शर्मा हँस पड़े और बोले, “मेरे पिता जी ने जब मेरा यज्ञोपवीत संस्कार किया, तब एक अवधूत आये थे. हमारे घर के सभी व्यक्तियों ने उनकी यथोचित सेवा की.
गायत्री अनुष्ठान के बारे में उन्होंने अनेक बातें बताईं. ‘पेंचलकोनं’ प्रदेश के
श्री नृसिंह स्वामी के दर्शन लेने का उन्होंने आदेश दिया. मेरे पिता मुझे
‘पेंचलकोनं’ लेकर गए. वहाँ श्री नृसिंह स्वामी का दर्शन करने के पश्चात वे
ध्यानस्थ हो गए. उनकी यह ध्यानावस्था प्रातःकाल से रात तक चली. मुझे डर लग रहा था
और भूख भी लग रही थी. किसी अपरिचित व्यक्ति ने मुझे भोजन लाकर दिया. वह महात्मा
मुझे लेकर दुर्गम जंगल से होते हुए एक पहाडी पर स्थित गुफा में गया और वहाँ
अंतर्धान हो गया. उस गुफा में एक वृद्ध तपस्वी बैठे थे. उनके नेत्र अग्नि के गोल
के समान लाल-लाल थे. एक सौ एक ऋषि उनकी सेवा कर रहे थे. वे वृद्ध तपस्वी स्वयँ कण्व
मुनि थे. यह उनकी तपोभूमि थी एवँ सेवा करने वाले उनके शिष्य थे. यद्यपि वे युवा
प्रतीत हो रहे थे, परन्तु उनकी
आयु हज़ारों वर्षों की थी. अवधूत रूप में श्री दत्त प्रभु के दर्शन करने के कारण वे
यहाँ पहुँच सके थे. मैं संदेहावस्था में था, मैं आश्चर्यचकित हो गया, मेरे मुख से
एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. मेरा शरीर कांपने लगा. तभी कण्व मुनि ने मुझसे कहा, “वर्त्तमान में श्री दत्त प्रभु पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप
में उपस्थित हैं. ‘हम पर कृपा दृष्टी डालें’, यह संदेश उन तक पहुँचा देना. तुम्हें शीघ्र ही श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की
चरण पादुकाओं के दर्शन हों.” ऐसा आशीर्वाद
देकर उन्होंने मेरे मस्तक पर अपना वरद हस्त रखा. मैं पल भर में अपने पिता के पास
पहुंच गया. उनकी समाधि समाप्त हो गई थी. इसके पश्चात हम अपने गाँव वापस आ गए. कण्व
ऋषि के आश्रम में प्राप्त अनुभव के बारे में मैंने अपने पिता को कुछ नहीं बताया.
यह भी नहीं बताया कि श्री दत्त प्रभु का नया अवतार पीठिकापुरम् में हुआ है.
राजमहेंद्री के निकट
पट्टसाचला पुण्यक्षेत्र
समय बीत रहा था. कण्व ऋषि के आशीर्वाद से मुझे ध्यानावस्था
में श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाओं के दर्शन होते रहते थे.
एक बार हमारे घर कुछ रिश्तेदार आए. उनकी इच्छा थी कि पुण्य नदी में स्नान
करके पुण्य क्षेत्र के दर्शन करें. उन रिश्तेदारों ने मेरे पिता से उनके साथ चलने
की प्रार्थना की. उन्होंने इस अनुरोध को मान लिया और मुझे भी इस यात्रा पर साथ ले
चले. राजमहेंद्री गोदावरी के तट पर स्थित एक अत्यंत पुण्य क्षेत्र है. राजमहेंद्री
के उत्तर में स्थित एक पहाडी पर कुछ ऋषि तपस्या कर रहे थे, कुछ अन्य ऋषि पूर्व
दिशा की ओर स्थित पहाडी पर तपस्या में रत थे. राजमहेंद्री से कुछ दूर स्थित
‘पट्टसाचला’ पुण्य क्षेत्र गोदावरी नदी के बीचोंबीच है. महाशिवरात्रि के शुभ अवसर
पर कुछ ऋषि ‘पट्टसाचला’ आते, तो कुछ अन्य
ऋषि राजमहेंद्री के कोटीलिंग क्षेत्र में वेदों का स्वस्ति-वाचन करते. ये ऋषि मध्य
भाग से होकर पूर्व दिशा से आते. पश्चिम, उत्तर और दक्षिण की और से आने वाले ऋषिगण
‘येदुरुपल्ली’ गाँव में एकत्रित होते. इस येदुरुपल्ली ग्राम के बिलकुल निकट स्थित
मुनीकूडली ग्राम में विश्राम करके परस्पर चर्चा करते. सौभाग्य से मैं अपने पिता के
साथ मुनीकूडली ग्राम के दर्शन कर सका. यह श्री दत्त प्रभु की लीला ही थी.
कलियुग में श्री
दत्तात्रेय का प्रथम अवतार – श्रीपाद श्रीवल्लभ
वहाँ एकत्रित ऋषिगण अत्यंत गहन विषयों पर, उदाहरणार्थ वेदान्त, योग शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र पर चर्चा कर रहे थे. इस चर्चा में भाग लेने वाले सभी
महर्षि इस बात की जोर शोर से घोषणा कर रहे थे कि श्रीपाद श्रीवल्लभ पीठिकापुर में
अवतरित हुए हैं. वे ही कलियुग के प्रथम अवतार हैं. जिन्हें उनके भौतिक स्वरूप के
दर्शन करना संभव नहीं जान पड़ता था, वे ध्यान की
प्रक्रिया द्वारा अपने-अपने ह्रदय में ही उनके दर्शन कर रहे थे. यह अवतार अत्यंत
शांतिमय है एवँ करुणारस से परिपूर्ण है, ऐसा वे कह
रहे थे.
मेरे पिता मुझे पीठिकापुरम् ले गए. हमारे साथ आये हुए पंडित गणों ने पादगया
तीर्थ में स्नान किया. तत्पश्चात कुक्कुटेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठापित देवताओं के
दर्शन करने के उपरांत उन्होंने वेद पठन किया. फिर वे श्री बापन्नाचार्युलु के घर
की और चले. श्री बापन्नाचार्युलु एवँ श्री अप्पल राजू शर्मा ने पंडितवृन्द के साथ
वेदों का स्वस्तिवाचन करके हमसे भेंट की. वह दृश्य अत्यंत मनोहारी था. ऐसे दिव्य
भव्य दृश्य को देखना पूर्व सुकृतों का ही फल था.
श्रीपाद प्रभु के दिव्य
मंगल स्वरूप का वर्णन
हम सब के लिए श्री बापन्नाचार्युलु ने भोजन की
उत्तम व्यवस्था की. उस समय बालक श्रीपाद की आयु पांच वर्ष से कम ही थी. सुकोमल, अल्प आयु का वह दिव्य शिशु अत्यंत तेजस्वी, वर्चस्वी, सुन्दर, आजानुबाहु था. उसके नेत्रों में अपरिमित करुणा
थी. जिसके स्वरूप का वर्णन करके वेद भी थक गए हैं, वहाँ मैं पामर उस
स्वरूप का क्या वर्णन करूँ. जब मैंने उनके श्री चरणों को स्पर्श करके नमस्कार किया
तब उन्होंने अपना अभय हस्त मेरे सिर पर रखा. जन्म जन्मान्तर से मेरा अनुग्रह तुझे
प्राप्त है. ‘अगले जन्म में वेंकटय्या नाम से अवधूत होकर निरताग्निहोत्री बनेगा.
अकाल के समय वर्षा करवाने की सामर्थ्य तुझे प्राप्त होगी,‘ ऐसा आशीर्वाद श्रीपाद
प्रभु ने मुझे दिया.
श्रीपाद प्रभु से प्राप्त गायत्री मन्त्र के सर्वाक्षरों
की महिमा
आनंद शर्मा बोले, “गायत्री की
शक्ति विश्वव्याप्त है. उससे संबंध स्थापित करने से सूक्ष्म प्रकृति स्वाधीन हो
जाती है. उसकी महिमा से भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों की संपत्ति प्राप्त हो सकती है. मानव शरीर में
असंख्य नाड़ियो का जाल फैला हुआ है, इनमें से
कुछ नाड़ियाँ, जो एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं, ‘ग्रंथि’ कहलाती हैं.
जाप-योग में जिसकी श्रद्धा होती है, उस साधक के
मंत्रोच्चारण से ये ग्रंथियां जागृत होकर उनकी सुप्त शक्तियाँ जागृत होती है.
ऊँ – इस अक्षर का उच्चार करने से मस्तक का भाग
प्रभावित होता है,
भूः -- इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं आंख के ऊपर
चार उँगलियों वाले माथे का भाग जागृत होता है.
भुवः -- इस अक्षर का उच्चार करने से भृकुटी के ऊपर
तीन उँगलियों का भाग प्रभावित होता है
स्वः -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिनी आंख के
ऊपर माथे का चार ऊंगलियों वाला भाग जागृत होता है
तत् -- इस अक्षर का उच्चार करने से आज्ञा चक्र में
स्थित ‘तापिनी’ ग्रंथी में
सुप्तावस्था में पडी हुई ‘साफल्य’ शक्ति जागृत
होती है
स -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिनी आंख में
स्थित ‘सफलता’ नामक ग्रंथि
में सुप्त रूप से विद्यमान ‘पराक्रम’ शक्ति
प्रभावित होती है
वि --- इस अक्षर का उच्चार करने से दाईं आंख की
‘विश्व’ ग्रंथि में स्थित ‘पालन’ शक्ति जागृत होती है
तु -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाएं कान में
स्थित ‘तुष्टि’ नामक ग्रंथि
की ‘मंगलकारी’ शक्ति प्रभावित होती है
र्व --- इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ कान में स्थित ‘वरदा’ ग्रंथि में विद्यमान ‘योग’ नामक शक्ति सिद्ध होती है.
रे --- इस अक्षर का उच्चार करने से नासिका के मूल
में स्थित ‘रेवती’ ग्रंथि की
‘प्रेम’ नामक शक्ति जागृत होती है
णि --- इस अक्षर का उच्चार करने से ऊपरी होंठ पर
स्थित ‘सूक्ष्म’ ग्रंथि की
सुप्त शक्ति ‘धन’ सांध्य
जागृत होती है.
यम् --- इस अक्षर का उच्चार करने से निचले होंठ पर स्थित ‘ज्ञान’ ग्रंथि की ‘तेज’ नामक शक्ति सिद्ध
होती है
भ --- इस अक्षर का उच्चार करने से कंठ स्थित ‘भग’ ग्रंथि की ‘रक्षणा’ शक्ति जागृत
होती है
र्गो -- इस अक्षर का उच्चार करने से कंठकूप में स्थित
‘गोमती’ नामक ग्रंथि की ‘बुद्धि’ शक्ति सिद्ध होती है
दे -- इस अक्षर का उच्चार करने से सीने के दायें भाग
के ऊपरी हिस्से में स्थित ‘देविका’ ग्रंथि’ की ‘दमन’ शक्ति
प्रभावित होती है
व -- इस अक्षर का उच्चार करने से सीने के बाएँ
भाग के ऊपरी हिस्से में स्थित ‘वाराही’ ग्रंथि की
‘निष्ठा’ शक्ति सिद्ध होती है
स्य --- इस अक्षर का उच्चार करने से पेट के ऊपरी भाग में (जहाँ पसलियाँ जुड़ी होती हैं) ‘सिंहिनी’ नामक ग्रंथि होती है, जिसकी ‘धारणा’ शक्ति प्रभावित
होती है
धी - इस अक्षर का उच्चार करने से यकृत में स्थित
‘ध्यान’ ग्रंथि की ‘प्राण’ शक्ति जागृत होती है
म - इस अक्षर का उच्चार करने से प्लीहा में स्थित
‘मर्यादा’ ग्रंथि की ‘संयम’ शक्ति जागृत होती है
हि - इस अक्षर का उच्चार करने से नाभि में स्थित
‘स्फुट’ ग्रंथि की ‘तपो’ शक्ति सिद्ध होती है
धी -- इस अक्षर का उच्चार करने से मेरूदंड के
निचले भाग में स्थित ‘मेधा’ ग्रंथि की ‘दूरदर्शिता’ शक्ति सिद्ध होती है.
यो -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाईं भुजा में
स्थित ’योगमाया’ ग्रंथि की
‘अन्तर्निहित’ शक्ति जागृत
होती है
यो -- इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं भुजा में
स्थित ‘योगिनी’ ग्रंथि की
‘उत्पादन’ शक्ति जागृत होती है
नः --- इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ बाजू में
स्थित ‘धारिणी’ ग्रंथि की
‘सरसता’ शक्ति की सिद्धी होती है
प्र --- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिने बाजू के
टखने में ‘प्रभव’ ग्रंथि की ‘आदर्श’
नामक शक्ति जागृत होती है
चो - इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं कलाई में स्थित
‘उष्मा’ ग्रंथि की ‘साहस’ शक्ति जागृत होती है
द - इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ तलवे पर
स्थित ‘दृश्य’ नामक ग्रंथि
की ‘विवेक’ शक्ति जागृत होती है
यात्त् -- इस अक्षरद्वय का उच्चार करने से दाहिने तलवे
पर स्थित ‘निरंजन’ ग्रंथि की
‘सेवा’ शक्ति जागृत होती है.
इस प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों का चौबीस ग्रंथियों और उनमें
निहित चौबीस प्रकार की शक्तियों से निकट का संबंध है.
‘नौ’ यह संख्या अपरिवर्तनीय है एवँ ब्रह्मतत्व को सूचित करती है. ‘आठ’ की संख्या मायातत्व को सूचित करती है.
दो चपाती देव लक्ष्मी’
इस वाक्य का विवरण
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु अपनी पसंद के घर से दो चपातियां स्वीकार किया करते
थे. वे “दो चपाती देव लक्ष्मी” कहने के स्थान पर “दो चौपाती देव लक्ष्मी” कहा करते
थे. “दो” अर्थात् दो की संख्या, चौ –
अर्थात् चार. “पतिदेव” इस शब्द में जगत्प्रभु परमात्मा की नौ संख्या सूचित होती
है. “लक्ष्मी” शब्द माया स्वरूप ऐसे – “आठ” इस संख्या की सूचना देता है. अतः २४९८
संख्या अद्भुत् संख्या मानी जाती है. वही गायत्री का स्वरूप है. परमात्मा स्वरूप
है. पराशक्ति भी वही है, यह सूचित
करने के लिए इन संख्याओं को श्रीपाद प्रभु इस प्रकार से जोड़ा करते थे. तब मैंने
कहा, “महाराज! गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों
के बारे में जो कुछ भी आपने बताया, उसका अल्पांश
मैं समझ पाया हूँ. ९ (नौ) का अंक परमात्मा स्वरूप है तथा ८ (आठ) का अंक माया
स्वरूप है, ऐसा आप कहते हैं, कृपया समझाएं.”
नवम् (नौ)
संख्या का विवरण
आनंद शर्मा बोले, “अरे, शंकर भट्ट! परमात्मा
विश्वातीत है. वह किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता. “नौ” यह संख्या बड़ी
विचित्र है. ९ को १ से भाग दें, तो ९ ही प्राप्त होते हैं. ९ को २ से गुणा करें, तो १८ प्राप्त
होते हैं, १ एवँ ८ का योग ९ ही है. ९ को ३ से गुणा करें
तो २७ प्राप्त होते हैं, २ एवँ ७ का योग भी ९ ही है. इस प्रकार ९ को
किसी भी संख्या से गुणा करें तब भी प्राप्त संख्या के आंकड़ों का योग ९ ही होगा.
अतः “९” की संख्या ब्रह्मतत्व की और इशारा करती है.”
गायत्री मन्त्र का विवरण
गायत्री मन्त्र कल्प वृक्ष के समान है. इसका ॐकार भूमि से ऊपर निकलता हुआ
अंकुर माना जाता है. ॐकार के उच्चार से परमेश्वर के प्रति निष्ठा व्यक्त होती है,
उसके अस्तित्व का ज्ञान होता है. यह अंकुर तीन शाखाओं – भू:, भुवः, स्वः – के रूप
में फैलता है. “भू:” आत्मज्ञान प्राप्ति में सहायक है; “भुवः” यह सुझाता है कि शरीर धारण करने के
पश्चात जीव को कौन से कर्मयोग का अनुसरण करना है. “स्वः” समस्त दुविधाओं को समाप्त
कर समाधि स्थिति प्राप्त करने में सहायता करता है.
“भू:” – इस शाखा से “तत् सवितुः वरेण्यम्” ये उपशाखाएं निकलीं। शरीर धारण करने
वाले को जीव का ज्ञान करवाने में “तत्” उपयोगी है. शक्ति प्राप्त करने के लिए
“सवितु:” की सहायता प्राप्त होती है. “वरेण्यम्” मानव को जंतु स्थिति से दिव्य
स्थिति तक ले जाने में सहायता करता है.
““भुवः” इस शाखा से “भर्गो, देवस्य, धीमही” ये तीन
उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं. “भर्गो” निर्मलत्व की वृद्धि करता है; “देवस्य” केवल देवताओं के लिए ही जो साध्य है, ऐसी दिव्य दृष्टी प्रदान
करता है. “धीमही” से सद्गुणों की वृद्धि होती है.
“स्वः” शाखा से उत्पन्न “धियो” से विवेक; ‘योनः” से संयम; “प्रचोदयात्” से समस्त जीव सृष्टि का सेवाभाव वृद्धिंगत होता है.
अतः गायत्री कल्पवृक्ष की तीन शाखाएं हैं,
प्रत्येक शाखा की तीन-तीन उपशाखाएं हैं. समझ गए ना? इसलिए २४९८ यह
संख्या श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की और इशारा करती है. इस संख्या के “९” का विवरण
तुम्हें बताया.
अष्टम (८) संख्या का विवरण
“आठ” – यह संख्या मायास्वरूप है. यह अनघा माता का तत्व है. ८ को १ से गुणा
करें तो ८ ही प्राप्त होते हैं. यदि इसे २ से गुणा करें तो प्राप्त होते हैं – १६, जिसके अंकों का योग है – ७, जो ८ से कम है. ८ को ३ से गुणा करने पर २४
प्राप्त होंगे, जिसके अंकों का योग है – ६. यह ७ से कम है. इस
प्रकार सृष्टि की समस्त जीव राशि की शक्ति हराने की सामर्थ्य जगन्माता में है. कोई
कितना भी बड़ा हो, उसे छोटा कर दिखाने की सामर्थ्य माया में है.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु गायत्री माता स्वरूप हैं, वे अनघा देवी के समेत श्री दत्त
प्रभु हैं. उनकी काया, वाचा, मनसा, कर्मणा प्रकार से आराधना करने से सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं.
गायत्री माता के भीतर प्रात:काल में हंसारूढ
ब्राह्मी शक्ति का वास होता है. मध्याह्न समय में गरुडारूढ़ वैष्णवी शक्ति एवँ
संध्या समय में वृषभारूढ़ शाम्भवी शक्ति का वास होता है. गायत्री मन्त्र की अधिष्ठात्री
देवता सविता है. त्रेतायुग में श्री पीठिकापुरम् में भारद्वाज महर्षि ने सावित्र
काठक यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार हुआ. सविता
देवता प्रात:काल में ऋग्वेद स्वरूप में एवं रात में अथर्व वेद के रूप में रहती
हैं. हमारे नेत्रों को दिखाई देने वाला सूर्य केवल एक प्रतीक रूप है. जब योगीजन
महाउन्नत स्थिति को पहुँचते हैं, तब वे त्रिकोणाकार
महाजाज्वल्यमान ब्रह्म योनी के दर्शन कर सकते हैं. यहीं से कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड
प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं, प्रतिक्षण उनका संरक्षण होता है, प्रतिक्षण विनाश होता है. असंख्य खगोलों में सुष्टि, स्थिति एवँ लय का निर्माण करने वाली शक्ति का नाम “सावित्री” है. परन्तु
फिर भी गायत्री एवँ सावित्री अभिन्न हैं. जीव की आध्यात्मिक उन्नति गायत्री माता
के अनुग्रह से होती है, इह लोक में सभी सुखों का अनुभव लेने के लिए, परलोक की विमुक्त स्थिति के दिव्यानंद का अनुभव प्राप्त करने के लिए दोनों
का समन्वय होना आवश्यक है. श्रीपाद प्रभु के चरणाश्रितों को इहलोक एवँ परलोक दोनों
का लाभ होता है. अन्य देवताओं की तथा श्री दत्तात्रेय की आराधना में यही अंतर है.”
आनंद शर्मा द्वारा मुझे दी गई जानकारी कितनी
अपूर्व थी! तब मैं (शंकर भट्ट) बोला, “ महाराज, आप धन्य हैं, श्रीपाद प्रभु जब नृसिंह सरस्वती का अवतार धारण करेंगे, उस समय आप उनके गुरू के रूप में उन्हें संन्यास दीक्षा प्रदान करेंगे. उस
जन्म में आप श्री कृष्ण सरस्वती नाम से संन्यास धर्म का आचरण कर रहे होंगे.”
इस पर आनंद शर्मा बोले, “भगवान का अवतार भक्तों के लिए ही होता है. वे मानव रूप धारण कर पृथ्वी पर
आते हैं और अपने आदर्श आचार से संपन्न जीवन से सभी मानवों को शिक्षा देते हैं. वे
स्वयँ सर्वज्ञ हैं, फिर भी गुरू का स्वीकार करके समाज को गुरू की आवश्यकता का
महत्त्व अपनी कृति से समझाते हैं. अवतारी पुरुष का गुरू होने की क्षमता कदाचित ही
किसी को प्राप्त होती है. अवतारी पुरुष का जन्म जिस वंश में होता है, उसकी पहले की अस्सी पीढ़ियाँ पुण्य का संचय कर चुकी होती हैं. उसी प्रकार जो
अवतारी पुरुष का गुरू होता है, उस व्यक्ति के वंश का भी परम पवित्र होना
आवश्यक है.”
“श्री बापन्नाचार्युलु एवँ सायणाचार्य के वंशों
के अनेक पीढ़ियों से संबंध थे. मल्लादी के यहाँ यदि पुत्री का जन्म होता तो वाजपेय
याजुलू के घर की बहू बनती और वाजपेय याजुलू के घर पुत्री का जन्म होता तो वह
मल्लादी के घर की पुत्र वधू बनाती, ऐसा वे मज़ाक में कहा करते. श्री
बापन्नाचार्युलु की पुत्री सकल सौभाग्यवती सुमति वाजपेय याजुलू के घर नहीं दी गई.
उसका विवाह विधि के विधान के अनुसार घण्डिकोटा अप्पल राजू शर्मा के साथ हुआ.
साक्षात् दत्तावतार ऐसे श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी ने अपनी माता के रक्त-संबंधी वाजपेय याजुलू का भी उद्धार किया. माधवाचार्य
के ह्रदय में श्रीपाद प्रभु के प्रति अत्यंत वात्सल्य का भाव था. ये ही आगे चलाकर
विद्यारण्य महर्षि हुए. उनके शिष्य मलयानंद, उनके शिष्य
देवतीर्थ, उनके शिष्य
यादवेन्द्र सरस्वती और यादवेन्द्र सरस्वती के शिष्य श्रीकृष्ण सरस्वती. विद्यारण्य
महर्षि एवँ श्रीकृष्ण सरस्वती के मध्य गुरु-शिष्यों की तीन पीढियां होंगी, श्री विद्यारण्य ही श्रीकृष्ण सरस्वती के रूप में अवतार लेंगे, और वे श्रीपाद स्वामी के अगले अवतार में उनका गुरुपद सुशोभित करेंगे.
श्रीपाद प्रभु नित्य सत्य वचन बोला करते. उनका
कहा हुआ प्रत्येक वाक्य सत्य होता. एक बार सुमति महारानी बालक श्रीपाद को स्नान करवा
रही थीं, तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी वहां आये. उन्हें
देखकर श्रीपाद प्रभु बोले, “क्या आपका गोत्र मार्कंडेय है?” श्रीपाद प्रभु के मीठे वचन सुनकर वे जवाब दिए बिना मुस्कुराए. वास्तव में
श्रीपाद प्रभु का गोत्र भारद्वाज था, श्रीपाद प्रभु ने सोचा कि वेंकटप्पय्या भी
उन्हीं के गोत्रज हैं. स्नान के पश्चात सुमति देवी ने घड़े का पानी उनके चारों और
घुमाकर फेंका और “मार्कंडेय के समान आयुष्मान हो” ऐसा आशीर्वाद दिया. मार्कंडेय की
आयु केवल सोलह वर्ष थी. आगे चलकर शिव के आशीर्वाद से वह चिरंजीवी हुआ. श्रीपाद
प्रभु सोलह वर्षों तक माता-पिता के साथ रहेंगे, यह वर्म उन्होंने
गूढ़ता से सुझाया था. सोलह वर्षों के पश्चात मार्कंडेय ने गृह त्याग किया था और वे
चिरंजीव हो गए थे. श्रीपाद प्रभु भी सोलह वर्षों तक माता-पिता के साथ रहे, तत्पश्चात वे जगद्गुरु हो गए. फिर यथासमय वे गुप्त हो गए. उनके शरीर को
चिरंजीवित्व प्राप्त हुआ. हम जिस स्वरूप में श्रीपाद प्रभु को देखते हैं, उसी स्वरूप में वे अत्री-अनुसूया के पुत्र के रूप में अवतरित हुए थे. ऐसा
उन्होंने अपनी बातों में अनेकों बार कहा था.
श्रीपाद प्रभु के विविध रूप
श्रीपाद प्रभु अपनी योग शक्ति को बहिर्मुख करके स्त्री रूप में दर्शन दिया
करते थे. साथ ही अपनी योगशक्ति के दर्शन भी साधकों को देते थे. यह सब कितना
अद्भुत् था! केवल श्री दत्तात्रेय भगवान ही कुण्डलिनी शक्ति को इस प्रकार बहिर्मुख
कर सकते थे. सोलह वर्षीय नवयौवन दंपत्ति रूप श्रीपाद प्रभु ने अपने माता-पिता, नरसिंह वर्मा एवँ उनकी पत्नी,
बापन्नाचार्युलु – राजमाम्बा,
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ उनकी पत्नी को अपनी अद्भुत् लीलाशक्ति का स्वरूप
दिखाया.
श्रीपाद प्रभु का विवाह सोलह वर्ष की आयु में किया जाए ऐसी उनके माता-पिता
की इच्छा थी, परन्तु उन्हें निराश ही होना पडा. श्रीपाद
प्रभु ने जब सुमती माता को अवधूत रूप में दर्शन दिए थे तब कहा था, “माता! तुम्हारा पुत्र सोलह वर्ष की आयु तक ही तुम्हारे पास रहेगा. उसके
विवाह का यदि निश्चय किया तो वह गृह त्याग करके चला जाएगा. अतः उसकी इच्छानुसार
बर्ताव करना होगा. श्री अनघा-दत्त आदिदाम्पत्य हैं. वे जन्म-मरण से परे हैं. वे
सदा लीला-विहार करते हैं. वे श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में, नृसिंह सरस्वती के रूप में, स्वामी
समर्थ के रूप में अर्धनारीश्वर रूप में रहेंगे.
मंडल काल अर्चना एवँ श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत के
पठन का फल
श्रीपाद प्रभु का अवतार गणेश चतुर्थी के दिन हुआ, यह विशेष है. श्री गणेश
का पुत्र “लाभ” किसी युग में लाभाद महर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुआ था. वही
श्रीकृष्ण अवतार में नन्द के रूप में जन्मा. श्री वासवी माता इस पृथ्वी पर
भास्कराचार्य के नाम से अवतरित हुईं. श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार काल में “लाभ” ने
उनके नानाजी के रूप में जन्म लिया था. अपने तत्व में विघ्ननाशक तत्व को स्थिर करके
श्रीपाद प्रभु ने अवतार लिया. जब वे अवतरित हुए, तब चित्रा नक्षत्र था. इस नक्षत्र
से सत्ताईसवां नक्षत्र (हस्त नक्षत्र) जब था, तब वे कुरवपुर में अद्रश्य हो गए. जन्म कुण्डली के हिसाब से २७ नक्षत्रों
में भ्रमण करने वाले नवग्रहों से उत्पन्न होने वाले अनिष्ट फल को दूर करने के लिए
श्रीपाद प्रभु के भक्त ‘मंडल’ दीक्षा ग्रहण करते हैं. एक मंडल में श्रद्धा-भक्ति
पूर्वक श्रीपाद प्रभु की अर्चना करने से अथवा उनके दिव्य चरित्र का पठन करने से
सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं. मन, बुद्धि, चित्त एवँ अहंकार एक एक दिशा में अपने स्पंदन तथा प्रकंपन छोड़ते हैं. उनके
ये प्रकम्पन चालीस विभिन्न दिशाओं में प्रसारित होते हैं. इन चालीस दिशाओं में
होने वाले प्रकम्पनों को रोक कर यदि श्रीपाद प्रभु की और मोड़ दिया जाए तो वे
श्रीपाद प्रभु के चैतन्य में विलीन हो जाते हैं. वहां उनमें आवश्यक परिवर्तन होकर, स्पंदनों में परिवर्तित होकर वे वापस साधक की ओर लौटते हैं. इसके पश्चात
साधक की धर्मानुकूल सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं.
“अरे, शंकर भट्ट! तू श्रीपाद प्रभु के चरित्र को
लेखनीबद्ध करेगा, ऐसा
अंतर्दुष्टि से ज्ञात हुआ है. आम तौर से पारायण ग्रन्थ में लेखक की वंशावली. इच्छा
न होते हुए भी रचे गए स्तोत्र आदि सम्मिलित होते हैं. तू जो प्रभु चरित्र लिखेगा, उसमें तेरी वंशावली की आवश्यकता नहीं है. श्रीपाद प्रभु का ध्यान करके, अपनी अंतर्दृष्टि के सम्मुख श्रीपाद प्रभु को पाते हुए. सबको सरलता से समझ
में आये, इस प्रकार से जब रचना करेगा, तब श्रीपाद प्रभु का चैतन्य तेरी लेखनी के माध्यम से जो कुछ भी व्यक्त
करेगा, वही सत्य होगा. इस प्रकार आत्मस्फूर्ती से
जो ग्रन्थ लिखा जाता है, अथवा जिन
मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, उनका
छंदबद्ध होना आवश्यक नहीं है, किन्हीं
महान भक्तों को देवता का साक्षात्कार होता है एवँ उन्हें अपनी स्थानीय भाषा में प्रार्थना
स्तोत्रों को रचने की स्फूर्ति प्राप्त होती है. इन प्रार्थना स्तोत्रों का
छंदबद्ध होना अथवा व्याकरण की दृष्टी से सही होना ज़रूरी नहीं है. भक्त जो
प्रार्थना पद गाते हैं, उनमें
परमेश्वर द्वारा संतुष्ट होकर दिया गया वरदान होता है, अतः उनमें परमेश्वर की अनुग्रह शक्ति होती है. इन स्तोत्रों का पठन करने
से हमारा चैतन्य तत्काल प्रभु के चैतन्य से सामीप्य प्राप्त करता है. परमेश्वर को
भावना प्रिय होती है - भाषा नहीं. भावना शाश्वत शक्ति है.
श्रीपाद प्रभु की मल्लादी, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी तथा वत्सवाई परिवारों से अत्यंत निकटता थी. एक बार
किसी त्यौहार के अवसर पर वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने अप्पल राजू दंपत्ति को अपने घर
निमंत्रित किया था. उस दिन श्रेष्ठी बड़े चिंतामग्न प्रतीत हो रहे थे. इसके पीछे
वैसा ही गंभीर कारण था. पीठिकापुरम् के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी ने श्रेष्ठी की
मृत्यु का समय, दिन, तारीख, तिथि – सब
कुछ बताया था. उनका ज्योतिष कभी भी झूठा नहीं होता था. श्रेष्ठी की चिंता का कारण
यही था. उस ज्योतिषी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि उसका भविष्य झूठा निकलेगा, तो वह सिर मुंडवा कर, गधे पर बैठकर पूरे गांव में घूमेगा.
अपमृत्यु टालने के लिए अप्पल राजू शर्मा ने कालाग्निशमन दत्तात्रेय की पूजा
करके श्रेष्ठी को पूजा का प्रसाद लाकर दिया. कुछ ही देर में सुमति महारानी ज़री के
वस्त्र परिधान कर बालक श्रीपाद को लिए श्रेष्ठी के घर आईं. तभी श्रेष्ठी के ह्रदय
में असह्य वेदना होने लगी, वे जोर से
“माँ” कहकर चिल्लाए. सुमति महारानी भागकर उनके निकट गईं, दिव्य मंगल स्वरूप की उस साध्वी ने अपने दिव्य हस्त से श्रेष्ठी के ह्रदय
को स्पर्श किया, तभी बालक
श्रीपाद ज़ोर से चिल्लाए, “ जाओ!”
श्रेष्ठी के घर में एक बैल था, उसने कुछ ही
क्षणों में तड़फड़ाते हुए प्राण त्याग दिए और श्रेष्ठी बच गए. यह वार्ता मालूम होते
ही वह ज्योतिषी दौड़ते हुए श्रेष्ठी के घर आया. उसे इस बात का दुःख हुआ कि उसकी
भविष्यवाणी झूठी निकली.
श्रीपाद प्रभु उस ज्योतिषी से बोले, “तूने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन किया है, परन्तु सब ज्योतियों की ज्योति, जो मैं हूँ, उसके उपस्थित रहते श्रेष्ठी को मृत्यु का भय कैसा? तुझे सिर मुंडवा कर, गधे पर बैठकर घूमने की आवश्यकता नहीं. तुझे
पश्चात्ताप हुआ है – यही पर्याप्त है. जब तेरे पिता जीवित थे, तब उन्होंने श्रेष्ठी से कर्ज़ लिया था. उसे उन्होंने वापस तो किया नहीं, उल्टे गायत्री की झूठी शपथ लेकर कहा कि वे क़र्ज़ लौटा चुके हैं. उस पाप
कर्म के फलस्वरूप उन्हें श्रेष्ठी के घर बैल का जन्म लेना पडा. हीन योनि प्राप्त
तेरे पिता को मैंने उत्तम जन्म प्राप्त करने का प्रसाद दिया. श्रेष्ठी की अपमृत्यु
के फल को बैल की और मोड़ दिया. तू इस बैल का दहन संस्कार करके अन्न दान कर. तेरे
पिता के पाप कर्म का फल नष्ट होकर उन्हें उत्तम जन्म प्राप्त होगा.” उस ज्योतिषी
ने श्रीपाद प्रभु की आज्ञा का पालन किया.
श्रीपाद प्रभु अनेक प्रकार से प्राणों की रक्षा कर सकते हैं. श्रीपाद प्रभु
योग सम्पन्न अवतार हैं. उनके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है. उच्छ्वास, निश्वास की गति
का विच्छेदन करके मुक्ति प्राप्त करना आसान है. क्रिया योगी अपनी प्राण शक्ति को
आज्ञा चक्र, विशुद्ध अनाहत, मणीपुर, स्वाधिष्ठान
एवँ मूलाधार चक्रों में ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ले जाते हैं. इस एक बार की
क्रिया के लिए जितना समय आवश्यक है, वह एक वर्ष
में होने वाले आध्यात्मिक विकास जितना होता है. यदि रात-दिन के एक तिहाई समय में
एक हज़ार ऐसी क्रियाएँ की जाएं, तो केवल तीन
वर्षों में प्रकृति द्वारा दस लाख वर्षों में किया जाने वाला परिणाम दिखाई देता
है.
आनंद शर्मा की अच्छी बातें सुनकर मुझे बहुत कुछ ज्ञात हुआ. प्रात:काल का
आह्निक समाप्त करके मैंने श्री आनंद शर्मा से बिदा ली और श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
के दर्शन हेतु कुरवपुर की और चल पडा.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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