।। श्रीपाद राजम्
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – 12
कुलशेखर की कथा
श्री सुब्बय्या श्रेष्ठी अनेक नये-नये विषय बड़ी
सहजता से समझाते. उनके कथन को सुनकर आत्म विकास होता था. वे कहते कि श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु साक्षात वेंकटेश्वर स्वामी ही हैं. कलियुग में वे ही कल्कि-अवतार
धारण करेंगे. काल गणना के अनुसार कलियुग में साधारणत: चार लाख बत्तीस हज़ार वर्ष
हैं. परन्तु सान्ध्र सिन्धु वेद के अनुसार कलियुग के पाँच हज़ार वर्ष बीत जाने पर
एक सामान्य प्रलय होकर सत्ययुग की स्थापना होगी. इस सम्बन्ध में ब्राह्मणों द्वारा
बताई गई जानकारी श्रेष्ठी द्वारा कथन की गई जानकारी से भिन्न थी.
श्वास और आयु का संबंध
कलियुग में कलि की अन्तर्दशा पाँच हज़ार वर्ष में
समाप्त हो जायेगी. इसके उपरांत थोड़ा सा कालखण्ड – संधिकाल रहेगा. इसके पश्चात
कलियुग में सत्ययुग की अन्तर्दशा प्रारंभ होगी. कलियुग में यद्यपि चार लाख बत्तीस
हज़ार वर्षों का कालखंड है, फिर भी अन्तर्दशा, सूक्ष्म दशा, विदशा इत्यादि का भी अस्तित्व होता है. यह विषय उन्हीं को समझ में आता है, जिन्हें योग शास्त्र का ज्ञान होता है.
ब्रह्म देव ने प्रत्येक व्यक्ति को एक सौ बीस
वर्षों की आयु प्रदान की है. परन्तु हर व्यक्ति एक सौ बीस वर्षों की आयु पूरी
करेगा, यह निश्चित नहीं है. एक सौ बीस वर्षों में
कितने श्वास-प्रश्वास कोई व्यक्ति सामान्यतया ले सकता है, उतने श्वास-प्रश्वास उसे दिए गए हैं. जिनका मन चंचल है, जो क्रोधी स्वभाव के हैं, जो शीघ्रता से दौड़–धूप करते हैं, जो सदा दुःखी एवँ उदास रहते हैं, जो दुष्टता का व्यवहार करते हैं, ऐसे लोग अपना श्वास-प्रश्वास अल्प समय में पूर्ण कर लेते हैं. सबसे कम गति
से श्वास-प्रश्वास लेने वाला कछुआ तीन सौ वर्षों तक जीवित रहता है. अत्यंत चंचल
स्वभाव वाले वानर अल्प काल ही जीवित रहते हैं. श्वास-प्रश्वास के दौरान इन्द्रियों
का अच्छी स्थिति में होना आवश्यक है. योगी पुरुष वायु का कुंभक निर्मित करके श्वास
शरीर के अंतर्गत भागों में भ्रमण करता रहे, ऐसी व्यवस्था
करते हैं. इसके फलस्वरूप कितने ही श्वास बच रहते हैं, और वे दीर्घ काल
तक जीवित रहते हैं. मनुष्य के शरीर में जीवाणु परिणाम क्रमानुसार बदलते रहते हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत के पारायण/ पठन का फल
दस वर्ष पूर्व शरीर की जो अवस्था थी, वैसी आज नहीं रहती है. पुराने जीवाणुओं का स्थान नए जीवाणु लेते हैं. जिस
प्रकार नए शारीरिक भाग का जन्म होता है, उसी प्रकार
प्राण-शक्ति भी अनेक परिवर्तनों से गुज़रती है. जीवनदायक नई प्राण-शक्ति का निर्माण
होता है. रोगी, पुरानी, प्राण-शक्ति नष्ट होती है. इसी प्रकार मानसिक-शक्ति में भी अनेक परिवर्तन
होते हैं. पुराने विचार नष्ट होकर नए विचारों का जन्म होता है. नई मानसिक शक्ति
में दैवीशक्ति, दैवीकृपा प्राप्त करने की सामर्थ्य होती है, उसी मार्ग से मन, प्राण एवँ शरीर में भी परिवर्तन होने लगते हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत ग्रन्थ साक्षात परमेश्वर स्वरूप है. इस
ग्रन्थ के प्रत्येक अक्षर में सिद्धशक्ति, योगशक्ति अन्तर्निहित है. ऐसे ग्रंथों
का मानसिक, वाचिक अथवा मानस-वाचिक पठन करने से श्रीपाद
प्रभु का दिव्य मानस-चैतन्य आकर्षित होता है. ग्रन्थ का पठन (पारायण) करने वाले
भक्त के शारीरिक, मानसिक
प्राण, रोग, बाधा, कष्ट आदि से संबंधित समस्त स्पंदन श्रीपाद प्रभु के मानसिक चैतन्य
में विलीन हो जाते हैं. वहाँ वे शुद्ध होकर दिव्य, अनुग्रह युक्त स्पंदनों के रूप में साधक की ओर वापस लौटते है. ऐसी स्थिति
में साधक को इहलोक – परलोक सुख की प्राप्ति होती है.
सत्पुरुषों को दिए गए अन्नदान का फल
ग्रन्थ का पारायण करने के पश्चात कम से कम ग्यारह सत्पुरुषों को भोजन
करावें अथवा उसके लिए आवश्यक धन राशि दत्त क्षेत्र में दान करें सत्पुरुषों को
भोजन कराने से साधक को आयुष्य की प्राप्ति होती है. उसे कुछ और काल के लिए आवश्यक
भोजन एवँ अनाज किसी अव्यक्त रूप में प्राप्त होता है. इतना ही नहीं, सत्पुरुष के संतुष्ट होने पर शान्ति, पुष्टि, तुष्टि, ऐश्वर्य इत्यादि से संबंधित भोग, योग के
स्पंदन अव्यक्त रूप में उत्पन्न होते हैं. कालान्तर से इस अव्यक्त अवस्था के बीज
व्यक्त स्थिति में अंकुरित होकर महावृक्ष के रूप में विराजमान होते हैं. वनवास में
स्थित द्रौपदी से अन्न का एक कण स्वीकार करके श्रीकृष्ण भगवान ने दुर्वासा महर्षि
एवँ उनके दस हज़ार शिष्यों के पेट भर दिए थे. श्री गुरु को श्रद्धाभाव से समर्पित
होकर अव्यक्त रूप से बीजावस्था में स्थित ये कण कालान्तर में व्यक्त रूप से प्रकट
होकर साधक को मनोवांछित भोग-भाग्य के प्रसाद के रूप में प्राप्त होते हैं.
संदीपनी ऋषि के आश्रम में जब श्रीकृष्ण एवँ सुदामा विद्याध्ययन करने के लिए
रहते थे , तब एक बार वे दोनों दर्भ लाने के लिए वन में गए. थक जाने के कारण
श्रीकृष्ण कुछ देर के लिए सुदामा की गोद में सिर रखकर सो गए. सुदामा को भूख
लगी थी. गुरुमाता ने दोनों के लिए थोड़े से
पोहे (चुड़वा) दिए थे. श्रीकृष्ण को कुछ भी बताये बिना सुदामा अकेले ही पोहे खाने
लगा. नींद का नाटक किये हुए श्रीकृष्ण नींद से जागते हुए बोले, “सुदामा, भूख लगी है.
आश्रम से चलते समय गुरुमाता ने कुछ खाने को दिया था क्या?” सुदामा ने कहा, “नहीं.”
श्रीकृष्ण बोले, “मुझे ऐसा
प्रतीत हुआ, जैसे तुम कुछ खा रहे हो.” सुदामा बोले, “मैं विष्णु सहस्त्रनाम का जाप कर रहा हूँ.” श्रीकृष्ण बोले, “ओ हो! तो ऐसी बात है ! मुझे स्वप्न में ऐसा दिखाई दिया कि गुरुमाता ने हम
दोनों के लिए पोहे दिए हैं, और तुम मुझे
दिए बिना अकेले ही खा रहे हो.” इतने में सुदामा बोला, “श्रीकृष्ण! तुम थक गए हो ना? फिर दोपहर
के समय देखे हुए स्वप्न का कोई फल नहीं होता, ऐसा शास्त्रों का कथन है,” श्रीकृष्ण मुस्कुरा कर चुप रह गए.
कालान्तर में सुदामा निर्धन एवँ भाग्यहीन हो गया. उसने अपने कष्टों के
निवारण के लिए अनेकों बार विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया, परन्तु विशेष लाभ नहीं
हुआ. अंत में श्रीकृष्ण का उस पर अनुग्रह हुआ. श्रीकृष्ण ने सुदामा के पोहे खाए और
उसे विशेष राज वैभव का प्रसाद दिया. श्रीकृष्ण ने सुदामा की गोद में सिर रखकर कुछ
देर तक विश्राम किया था, उसक्र बदले में उन्होंने सुदामा को अपनी गोद में लिटाया, उसके पैर के कांटे निकाल कर उसके पैर दबाये. कर्म सूत्र कितनी गूढ़ता से
कार्य करता है यही प्रभु ने इस कार्य के द्वारा सूचित किया था.
मल्ल योद्धा का गर्व हरण
श्रीपाद प्रभु जब चार वर्ष के थे तब पीठिकापुरम्
में मल्याल देश से एक मल्ल योद्धा आया. उसका नाम था कुलशेखर. वह सप्तगिरी बालाजी
का भक्त था. प्रत्येक राज्य के मल्ल योद्धाओं को पराजित करके पीठिकापुरम् आया.
पीठिकापुरम् के मल्ल योद्धाओं को पक्का मालूम था कि उन्हें कुलशेखर के हाथों से
मार खाकर अपमानित होना है. मगर इनमें से कुछ मल्ल योद्धाओं को श्रीपाद प्रभु पर
दृढ़ विश्वास था. वही इस संकट से उनकी रक्षा करेंगे, यह सोचकर वे बड़ी
श्रद्धा से श्रीपाद प्रभु की शरण में आये. श्रीपाद प्रभु ने उन्हें अभय वरदान
दिया.
पीठिकापुरम् में एक कुबड़ा युवक था. उसके आठ अंग
टेढ़े थे, वह बहुत निर्बल था, कुछ काम नहीं कर
सकता था, फिर भी श्रेष्ठी उसे तनख्वाह दे दिया करते. वह श्रीपाद प्रभु का भक्त था, और उनसे अपनी विकृति दूर करने की प्रार्थना किया करता था. श्रीपाद प्रभु ने
उस युवक, भीम को यह आश्वासन दिया था कि उचित समय आने पर
उसकी विकृति दूर करेंगे.
श्रीपाद प्रभु उन मल्लों से बोले, “अपना भीम है ना? कुलशेखर से मल्ल युद्ध के लिए वही योग्य है.
भीम अपने साथ है तो भय किस बात का?” भीम की भी श्रीपाद प्रभु पर अटल श्रद्धा थी.
भीम एवँ कुलाशेखर के बीच मल्ल युद्ध का आरंभ
हुआ. अनेक लोग इस अद्भुत् युद्ध को देखने के लिए उपस्थित थे. कुक्कुटेश्वर के
मंदिर के प्रांगण में मल्ल युद्ध आरंभ हुआ. कुलशेखर के हर वार से भीम का शरीर
अधिकाधिक बलवान हो रहा था. वह जिस स्थान पर भीम को मारता, उसी स्थान पर स्वयँ कुलशेखर को उतनी ही जोर की मार लगती. कुलशेखर थक गया.
भीम का कूबड़ नष्ट होकर वह बलवान हो गया. कुलशेखर श्रीपाद प्रभु की शरण में आया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “कुलशेखर, मानव शरीर पर एक
सौ आठ मर्म स्थान हैं, उन सबके बारे में तुझे ज्ञान है. भीम का केवल
मुझ पर विश्वास है. मैं ही उसका रक्षक हूँ – इसी बात का उसे ज्ञान है. तू अहंकार
से उन्मत्त हो गया है. आज से भीम की सारी दुर्बलता तुझे देता हूँ. अन्न-वस्त्र की
तुझे कमी नहीं रहेगी. तेरे शरीर की प्राणशक्ति लेकर भीम अत्यंत बलवान हो गया है.
तिरुपति में जो है, वह मैं ही हूँ.”
कुलशेखर को श्रीपाद प्रभु ने क्षणभर के लिए श्री
वेंकटेश्वर के रूप में दर्शन देकर कृतार्थ किया.
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अचिन्त्य हैं. उनकी
करुणा प्राप्त करना ही हमारे लिए एकमात्र मार्ग है.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
की जय जयकार हो।।
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