।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ११
सुब्बय्या श्रेष्ठी, चिंतामणि, बिल्वमंगल
का वृत्तांत
दत्त प्रभु की आराधना से सभी देवताओं की आराधना का फल
श्रीपाद प्रभु का जन्म – अत्यद्भुत ज्योतिर्मय
दूसरे दिन प्रातः सुबबय्या श्रेष्ठी ने अपनी कथा आरंभ की। वे बोले, “ श्री
दत्त प्रभु सभी देवताओं के स्वरूप हैं. श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से सभी
देवताओं की आराधना का फल प्राप्त होता है. सभी देवताओं में दत्त प्रभु अंतर्भूत
हैं.
श्री सुमति माता शनि प्रदोष काल में अनुसूया तत्व में उपस्थित परम शिव की
आराधना किया करती थीं. इसके परिणाम स्वरूप श्री दत्त प्रभु में विद्यमान शिवतत्व
अनुसूया तत्व में प्रतिबिंबित होकर, अनुसूया माता के सदृश्य सुमति माता के उदर से श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुआ. यह एक अद्भुत योग-प्रक्रिया ही थी. माता-पिता के
संयोग के बिना योगनिष्ठा में लीन अप्पल राजू शर्मा एवँ सुमति माता के नेत्रों से
योग-ज्योति प्रकट होकर, उनका संयोग होकर, सुमति माता के गर्भ में प्रवेश करके नौ मास के उपरांत केवल ज्योति रूप में वे
बाहर आये. वास्तव में देखा जाए तो श्रीपाद ज्योतिस्वरूप ही थे. उन्होंने अपनी आयु
के तीसरे वर्ष में ही आश्चर्यकारक लीलाएँ करना आरम्भ किया.
कालांतर में श्रीपाद प्रभु को एक बहन की प्राप्ति हुई. उसका नाम रखा गया
विद्याधरी.
विद्याधरी के जन्म के दिन बापन्नाचार्युलु के एक दूर के भाई, जिनका नाम मल्लादी रामकृष्णावधानुलू था, उनके घर आये. वे एक महान पंडित थे. उनका चन्द्रशेखर नामक एक पुत्र था.
घंडीकोटा के घर महालक्ष्मी ने ही जन्म लिया, वे रिश्तेदार कहने लगे कि वह मल्लादी
वंश की पुत्र वधू बनने के लिए सर्वदा उपयुक्त है. श्रीपाद प्रभु को भी यह संबंध
पसंद था. उनकी इच्छा के अनुरूप यथा समय विद्याधरी एवँ चंद्रशेखर का विवाह पीठिकापुरम्
में बड़े ठाठ-बाट से सम्पन्न हुआ.”
“सुश्री विद्याधरी के पश्चात श्रीपाद स्वामी को राधा नामक बहन की प्राप्ति
हुई. उसका विवाह विजयवाटिका क्षेत्र के विश्वनाथ कृष्णावधानुलू
नामक ब्राह्मण से सम्पन्न हुआ. राधा के पश्चात् और एक बहन का श्रीपाद प्रभु के घर
जन्म हुआ. उसका नाम था सुरेखा. उसका विवाह मंगलगिरी के ताड़पल्ली दत्तात्रेय
अवधानुलू नामक एक विद्वान सच्चरित्र युवक के साथ हुआ.
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अकल्पनीय हैं. उनके स्मरण मात्र से ही पाप नष्ट हो
जाते हैं. गोदावरी मंडल में ताटंकपुर (तणुकु) नामक गाँव है. वहाँ अनेक वाजपेयी
हैं, जिनमें पौण्डरीक महायज्ञ करने वाला एक परम पवित्र वंश है. ये वाजपेयी
यज्ञकर्ता हैं. पीठिकापुर के मल्लादी वंश का एवँ वाजपेयी याजी (याज्ञिक) का बहुत
निकट का संबंध होने से वाजपेयी याजी “इदं ब्रह्म्य मिदं क्षात्रं” इस सिद्धांत पर
विश्वास करते थे. वे वशिष्ठ, शक्ति, पराशर ऋषियों के प्रवरान्वित पाराशर गोत्रोत्पन्न ऋग्वेदी थे, जबकि
मल्लादी यजुर्वेदी थे. कन्नड़ देश में ऋग्वेद पाठ करने वाले बालकों को शिक्षा
प्रदान करने के लिए उत्तम गुरु नहीं था. इसलिए ताटंकपुर से वाजपेयी याजी
मायणाचार्युलू को निमंत्रित करके उन्हें हमेशा के वास्तव्य के लिए होयशाला ले जाया
गया. तबसे उन्हें होयशाला ब्राह्मण कहने लगे. इन्होंने ब्राह्मण वृत्ती तथा
क्षात्र वृत्ती का समान भाव से स्वीकार किया. सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने
अनेक कठिनाइयों का सामना किया. मायणाचार्युलू के दो पुत्र थे. माधवाचार्य एवँ सायणाचार्य.
ये दोनों महान पंडित थे. सायणाचार्य ने वेदों पर भाष्य की रचना की थी. माधवाचार्य
ने श्री महालक्ष्मी का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की. “विशेष कृपा
कटाक्ष” की याचना की. तब लक्ष्मी देवी बोलीं, “यह इस जन्म में साध्य नहीं है.” तब माधवाचार्य बोले, “माता! मैं संन्यास ले रहा हूँ और संन्यास का तात्पर्य मानव के दूसरे जन्म
से ही तो है.” तब देवी ने उन्हें इच्छित वर प्रदान किया. इस वर के प्रभाव से लोहे
को स्पर्श करते ही वह सोना बन जाता था. सन्यासाश्रम में माधवाचार्य का नाम था
विद्यारण्य स्वामी. उन्हें श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त था. उनकी तीसरी पीढ़ी
में संन्यास आश्रम की परम्परा के श्रीकृष्ण सरस्वती का जन्म होगा, जो श्रीपाद प्रभु के अगले अवतार, अर्थात् श्री नृसिंह सरस्वती अवतार में, उन्हें संन्यास दीक्षा देने वाले गुरु होंगे, ऐसी भविष्यवाणी की थी.
माधवाचार्य की भोग-लालसा की इच्छा नष्ट न होने के कारण वे अगली शताब्दी में
सायणाचार्य के वंश में गोविन्द दीक्षित नाम से जन्म लेंगे. तंजावुर प्रांत के
नहाराज के महामंत्री होंगे. उनकी कर्तव्यनिष्ठा की चारों और प्रशंसा होगी.
यह भविष्यवाणी श्रीपाद प्रभु का सत्य संकल्प ही तो थी. वे साधकों के अभीष्ट
पूर्ण करते. जो दत्तप्रभू के आश्रय में है, वह जिस देवता का अंश है, उससे कौन सा
कार्य किस प्रमाण में करवाना है, यह श्री
दत्त प्रभु ही निश्चित करते हैं. बालक ध्रुव ने कठोर तप करके श्री महाविष्णु को
प्रसन्न किया था. उन्होंने ध्रुव को पितृ वात्सल्य प्रदान किया.
श्री दत्त प्रभु सगुणतत्व के, निर्गुणतत्व
के, अतीत के आधार के परम तत्व हैं, चरम तत्व भी
वही हैं, आदितत्व भी वे ही हैं, आदि-अंत रहित तत्व वे ही हैं, यह सब अनुभव
से ही जानना होता है. शब्दों में यह विषय समझाया नही जा सकता. कोई कार्य पूर्ण
होगा अथवा नहीं, क्या किसी
और पद्धति से होगा – यह सब सामर्थ्य श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार का रहस्य है.”
श्रीपाद तत्व
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वयँ अपने घर में प्रतिष्ठापित कालाग्निशमन दत्तात्रेय
की आराधना किया करते थे. एक बार बापन्नाचार्युलु ने उनसे पूछा, “बेटा,
श्रीपाद! तू दत्तात्रेय है या दत्तात्रेय
का उपासक है?” श्रीपाद प्रभु फ़ौरन बोले, “जब मैं कहता हूँ कि मैं दत्तात्रेय हूँ, तब मैं दत्तात्रेय ही होता हूँ. जब मैं कहता हूँ कि दत्त-उपासक हूँ, तब मैं दत्तात्रेय का उपासक ही रहता हूँ. जब मैं कहता हूँ कि मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ
हूँ, तब मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ होता हूँ. जैसा
निश्चय मैं करता हूँ, वैसा ही
होता है. जिस बात की मैं कल्पना करता हूँ, वैसा ही घटित होता है. यही है मेरा तत्व.” नाना जी को यह सब बड़ा
आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहा था. श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “आप और मैं एक ही है, अगले जन्म
में बिलकुल आप जैसे रूप में ही मैं अवतार लेने वाला हूँ. आपके ह्रदय में संन्यास
ग्रहण करने की तीव्र इच्छा है, परन्तु आप
इस जन्म में अथवा अगले जन्म में संन्यास ग्रहण करें, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है. बिलकुल आप जैसे रूप में अवतार लेकर आपके कर्म
बंधन, वासना आदि का नाश करने का मेरा निश्चय है.” बालक श्रीपाद ने नानाजी के
भ्रूमध्य को स्पर्श किया. भ्रूमध्य कूटस्थ चैतन्य का स्थान है. उन्हें कुछ ही
क्षणों में हिमालय में निश्चल, तपस्यामग्न बाबाजी के दर्शन हुए. कुछ ही देर में वे
प्रयाग क्षेत्र में त्रिवेणी संगम में स्नान करते हुए दिखाई दिए, इसके उपरांत श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप के दर्शन हुए. वह स्वरूप
कुक्कुटेश्वर देवालय में प्रतिष्ठापित स्वयंभू दत्तात्रेय में विलीन हो गया. उनके
भीतर का अवधूत स्वरूप बाहर निकला. उन्हें बापन्नाचार्युलु की कन्या सौभाग्यवती
सुमति महारानी भिक्षा प्रदान करती हुई दिखाई दी. उस अवधूत ने श्रीपाद श्रीवल्लभ का
बाल्य रूप धारण किया और बापन्नाचार्य को वह नन्हें शिशु के रूप में सुमति महारानी
की गोद में सोये हुए दिखाई दिए. माता की गोद में सोया बालक देखते-देखते सोलह वर्ष
के युवक के रूप में परिवर्तित हो गया. उस युवक ने उनकी और देखते हुए बिल्कुल
बापन्नाचार्युलू के समान रूप धारण किया – यह मूर्ति सन्यासी की थी. दो नदियों के
संगम पर स्नान करके वे अपने शिष्यों सहित गर्दन ताने चल रहे थे. वह सन्यासी
बापन्नाचार्युलु की और देखकर बोला, “आप सोच रहे
हैं, कि मैं कौन हूँ. मुझे नृसिंह सरस्वति कहते
हैं. यह गन्धर्वपुर है.” इतना कहकर उन्होंने कुछ ही क्षणों में अपना वस्त्र नदी के
जल पर फैलाया और उस पर बैठकर श्री शैल्यम गए. वहाँ कर्दलीवन में उपस्थित
महापुरुषों, महायोगियों ने उन्हें साक्षात दंडवत किया. महाप्रभु इस वन में आयें, इस उद्देश्य से वे सब अनेक शतकों से तपस्या कर रहे थे. प्रभु के दर्शन से
वे धन्य हो गए थे. अनेक वर्षों की तपस्या के बाद वे कौपीनधारी वृद्ध के रूप में
दिखाई दिए. अपनी वही तेजस्वी दुष्टि उन्होंने बापन्नाचार्युलु पर टिका दी. आगे
बोले, “मेरे इस रूप को स्वामी समर्थ कहते हैं. कुछ
ही देर में उन्होंने प्राण त्याग दिए. उनकी प्राण-शक्ति वट वृक्ष में समा गई. उनकी
दिव्यात्मा श्री शैल्यम के मल्लिकार्जुन शिवलिंग में विलीन हो गई. उस महापवित्र
एवँ अत्यंत शक्तिमान शिवलिंग से घन गंभीर आवाज़ सुनाई दी, “हे बापन्नार्य! तू धन्य है. अनंत, कैवल्य ज्ञानस्वरूप, अविनाशी ऐसा मैं, तेरे एक क्रियाशक्ति योग के कारण सूर्य मंडल से शक्तिपात करके इस
ज्योतिर्लिंग में आकर्षित हो गया हूँ. इस ज्योतिर्लिंग में विलीन हुए सोलह हज़ार
दिव्य पुरुष सदा मेरी सेवा करते हैं. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु आये हुए
भक्तों की ये दिव्य पुरुष भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करते हैं.
त्रिमूर्ति स्वरूप – मैं – श्रीपाद श्रीवल्लभ, नृसिंह सरस्वति तथा स्वामी समर्थ के रूपों में तुझ पर अनुग्रह करता हूँ.”
ऐसे शब्द बापन्नाचार्युलु को सुनाई दिए.
इस प्रसंग से बापन्नाचार्युलु स्तब्ध रह गए. उन्होंने अपने सामने तीन वर्ष
के बालक श्रीपाद को मुस्कुराते हुए देखा. जो अनुभव उन्हें हुए थे, वे दिव्य एवँ मधुर थे. उन्होंने बड़े प्रेम से बालक श्रीपाद को ह्रदय से लगा
लिया. वे दिव्य, तन्मय अवस्था में चले गए. न जाने इसी अवस्था में कितना समय बीत
गया. जब उन्होंने आंखें खोलीं तो अग्निहोत्र का समय हो गया था. वे अग्निहोत्र करने
के लिए उठे.
बापन्नाचार्युलु की अग्निहोत्र क्रिया भी अभिनव थी. आम तौर से शमी अथवा
पीपल की लकड़ी से अग्नि उत्पन्न करते हैं, परन्तु बापन्नाचार्युलु समिधा अग्निकुण्ड
में डालकर मंत्रोच्चारण से अग्नि उत्पन्न करते थे. अप्पल राजू शर्मा भी इसी प्रकार
अग्निहोत्र किया करते थे. उनके वंश में अग्नि पूजा होती थी. प्रज्वलित हुए
अग्निकुण्ड में उतर कर वे आहुति दिया करते. ऐसा विशेष उत्सवों के अवसर पर किया
करते थे. इस प्रकार अग्नि पूजा करते समय उनके शरीर को एवँ वस्त्रों को किसी भी
प्रकार की हानि नहीं पहुँचती थी. यह महद आश्चर्य की बात थी.
श्रीपाद प्रभु की अघटित
सामर्थ्य
बापन्नाचार्युलु ने उस दिन अग्निहोत्र के लिए
अनेक बार वेद मन्त्रों का पठन किया, परन्तु अग्नि प्रज्वलित ही नहीं हो रही थी. वे
पसीने से तर-बतर हो गए, मगर अग्नि प्रज्वलित नहीं हुई. बालक श्रीपाद ने
अपने नाना जी की यह दशा दूर से देखी. वे अग्निकुण्ड की और देखकर बोले, “हे अग्निदेव! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, नाना जी के देव
कार्य में विघ्न मत डालो.” अग्नि तत्काल प्रकट हो गई. बापन्नाचार्युलु ने कलश से पानी अग्निकुण्ड में डाला, परन्तु बुझने के स्थान पर ज्वालाएं और अधिक भड़क गईं. यह चमत्कार देखकर नाना जी भौंचक्के रह गए. श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी, मेरे अवतार लेने के पीछे कारण हैं आप, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और नरसिंह वर्मा. इसलिए आप और मेरे पिता वेंकटप्पय्या से अथवा नरसिंह वर्मा से धन की
अथवा किसी अन्य प्रकार की सहायता स्वीकार करेंगे तो वह दान नहीं कहलायेगी. उसी
प्रकार वह सहायता ग्रहण न करने पर दैव-द्रोह भी हो सकता है. इस सहायता को परमेश्वर
की कृपा समझें. मुझे जन्म देने वाली मातृमूर्ति सुमति महारानी केवल मल्लादी वंश की
ही नहीं, अपितु वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और वत्सवाई कुटुंब
की भी बेटी है, ऐसा समझें. यह
मेरा आदेश है.”
जब श्रीपाद प्रभु यह सब कह रहे थे तब सुमति
महारानी और अप्पल राजू शर्मा वहाँ उपस्थित थे, साथ ही वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और
नरसिंह वर्मा भी वहीं थे. इस समय श्रीपाद प्रभु ने कहा, “मेरी इच्छा के
बिना बापन्नाचार्युलु जैसे महान तपस्वी भी अग्नि का निर्माण नहीं कर सकते. जब मेरे
पिता अग्निकुण्ड में आते हैं, तब अग्नि अपना प्रताप दिखाती है. यदि मेरी
आज्ञा हो तो वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी भी निष्कांचन हो जायेंगे. अपार भूमि के स्वामी नरसिंह
वर्मा को खड़े होने लायक स्थान न मिलेगा, ऐसी उनकी अवस्था हो जायेगी. आप सब मेरी
इच्छा से ही इस अवस्था में हैं. मैं भिखारी को महाराजा तथा महाराजा को भिखारी बना
सकता हूँ. मेरी भक्ति करने वाले की हर इच्छा मैं पूरी कर सकता हूँ. परन्तु इससे
पूर्व मैं यह भी देखता हूँ कि वह मेरे दान को संभालने योग्य है भी अथवा नहीं, अपने
शक्ति सामर्थ्य का वह लोकहित के लिए ही उपयोग करता है अथवा नहीं, इस बात की मैं
परीक्षा लेता हूँ. जब मेरी इच्छा हो तो मैं आकाश का पृथ्वी में और पृथ्वी का आकाश
में रूपांतर कर सकता हूँ. जब बापन्नाचार्युलु कृतयुग में लाभाद महर्षि के रूप में
थे, तब उनका मंगल महर्षि नामक एक शिष्य था. वह जब दर्भ काट रहा था तब गलती से उसका हाथ
ज़ख़्मी हो गया और उसमें से खून बहने लगा. उस रक्त की एक गाँठ बनकर वह सुगन्धित
विभूति में परिवर्तित हो गया. उसके मन में गर्व उत्पन्न हुआ कि “अहा! मैंने कितनी
बड़ी सिद्धि प्राप्त कर ली है.” तभी वहाँ परम शिव प्रकट हुए. उन्होंने अपना हाथ
हिलाया. हिमालय में जैसे बर्फ गिरती है, उस प्रकार शिव के
हाथ से विभूति गिर रही थी. परम शिव बोले, “त्रेतायुग में
भारद्वाज ऋषि पीठिकापुर में सवितृकाठकायन् यज्ञ करने वाले हैं, उस महाचयन में जमा
होने वाली विभूति का केवल अंश मात्र ही तुम्हें दिखाया है.” इतनी बात सुनकर मंगल
महर्षि का गर्व दूर हो गया.”
सभी अवाक् होकर श्रीपाद प्रभु की बातें सुन रहे
थे. श्रीपाद प्रभु बोले, “इस पीठिकापुर में पैर रखना अनंत जन्मों के
पुण्य से संभव होता है. मेरे इस अवतार के समय आप सब का मेरे साथ होना, यह एक अवर्णनीय घटना है. मेरी शक्ति का अनुभव हो इसके लिए सर्वप्रथम आपको
उत्तम साधक बनना होगा, तभी मेरी शक्ति का, कारुण्य का, वात्सल्य का, रक्षण का, पाप विमोचन का
अनुभव प्राप्त कर सकेंगे. मेरी जन्मभूमि, बापन्नाचार्युलु
के इस घर में, मेरी चरण-पादुकाओं की स्थापना होगी. मैं पीठिकापुरम्
में प्रातःकाल के समय माता सुमति की गोद में दुग्ध प्राशन करूंगा, दोपहर को माता
मुझे दूध-चावल के साथ मधुर ग्रास खिलायेगी. रात्रि के समय माता सुमति मुझे गोद में
लेकर गेहूं के रवे का हलवा खिलायेगी. जब मैं पीठिकापुरम् में रहूंगा, उसी समय नृसिंह सरस्वति के रूप में भी रहूँगा. दोपहर को नियमित रूप से
गंधर्वपुर में भिक्षा ग्रहण करूंगा. अंतर्दृष्टि रखने वाले भक्तों को यह स्पष्ट
रूप से नज़र आयेगा. मेरी जन्मभूमि में मेरी श्रीपादुकाओं की स्थापना होने वाली है.
महापुरुष, महायोगी एवँ सभी देशों से लोग हज़ारों की संख्या
में मेरे दरबार में दर्शन हेतु आयेंगे. वे “दत्त दिगंबरा, दत्त दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा, नृसिंह सरस्वति दत्त दिगंबरा” ऐसा घोष करते हुए तन्मय होकर नृत्य करेंगे.
काल पुरुष को जब मैं अनुमति दूँगा, उसी क्षण फ़ौरन न होने वाले कार्य हो जायेंगे.
मेरे नाम से एक महासंस्थान का निर्माण होगा. जैसे-जैसे मेरा प्रभाव बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे पीठिकापुरम् की महत्ता बढ़ेगी, बिक्री लायक कोई भी स्थान शेष नहीं
बचेगा, जिसे मुझे वहाँ बुलाना होगा, उन्हें मैं ज़बरदस्ती वहाँ ले आऊँगा. कितना भी बड़ा धनी अथवा योगी क्यों न हो, मेरी इच्छा के बिना वह पीठिकापुरम् में प्रवेष नहीं कर सकेगा, यह सत्य
जानिये. मेरे निजतत्व को समझ कर, जान कर प्रसन्न रहिये. यह क्षण फिर से लौटकर
नहीं आने वाला. सभी देवता शक्तियाँ मेरे ही स्वरूप में लीन हैं. यदि कोई मुझे
दक्षिणा समर्पित करे तो मैं उसे तुरंत उसका सौ गुना लौटाता हूँ. जो धर्म के विपरीत
जाकर धनार्जन नहीं करते, उनकी मनोकामना मैं पूर्ण करता हूँ. सत्कर्म
करने से मोह माया का नाश होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है.” श्रीपाद प्रभु
के इन अमृत वचनों को सुनकर सभी धन्य हो गए.
दूसरे दिन नरसिंह वर्मा अपनी घोड़ागाड़ी में
श्रीपाद प्रभु को अपना खेत एवँ ज़मीन दिखाने ले गए. वर्मा के पास काफी ज़मीन थी. उस
जमीन में अनेक प्रकार की फसलें होती थीं. परन्तु तुरई की बेल में फूल नहीं लगता
था. यदि आता भी, तो सूख जाता था. उसके स्थान पर फूल नहीं लगता था. यदि किसी बेल
में कभी फल आ भी जाए, तो वह इतना कड़वा होता कि खाया नहीं जाता था.
नरसिंह वर्मा ने यह बात श्रीपाद प्रभु को बताई. वे प्रसन्नता से बोले, “हमारे घर में सबको तुरई की दाल पसंद है. मुझे भी वह अच्छी लगती है.
प्राचीन काल में एक दत्तोपासक इस भूमि पर तप किया करता था. यह पवित्र भूमि मेरे, जो साक्षात दत्त का स्वरूप है, चरण स्पर्श के लिए तड़प रही थी. अपनी तड़प वह आप
तक इस प्रकार से पहुँचा रही थी. मैं इस भूमाता की इच्छा पूरी करूंगा. इस भूमि के
मेरा चरण स्पर्ष करते ही इसके भूमितत्व में परिवर्तन होगा. तब आपको यह भूमाता
स्वादिष्ट तुरई का फल देगी. नाना जी, आप निःसंकोच हमारे
घर यहाँ की पकी हुई तुरई भेजिए. घर के अन्य लोगों के साथ मैं भी उन्हें खाऊंगा.”
उस दिन से वहाँ प्रचुर मात्रा में तुरई होने लगी
– स्वादिष्ट एवँ उत्तम प्रकार की. श्रीपाद प्रभु घोड़ागाड़ी से उतर कर कुछ देर उस
भूमि पर घूमे. तभी वहाँ कुछ चंचु (वहाँ के आदिवासी) युवक एवँ युवतियां आये.
उन्होंने श्रीपाद प्रभु को बड़े श्रद्धा भाव से प्रणाम किया. उन्हें बालक श्रीपाद
के दिव्य मुखकमल के चारों और दिव्य कांति का तेजोवलय दिखाई दिया. तब श्रीपाद प्रभु
बोले, “नाना जी, ये सभी चंचु लोग नरसिंह
अवतार से संबंधित हैं. वे श्री महालक्ष्मी को बहन मानकर उसकी आराधना करते हैं. आप
नरसिंह स्वामी के भक्त हैं, यदि आप इनकी शरण में जायेंगे तो आपको नरसिंह
स्वामी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होगा. नरसिंह वर्मा ने सोचा कि श्रीपाद मज़ाक
में यह सब कह रहे हैं. वे बोले, “अरे, चंचु युवकों.
क्या तुमने नरसिंह भगवान को देखा है, क्या उनका पता-ठिकाना मुझे बताओगे?” इस पर एक चंचु युवक बोला, “यह कौनसा कठिन काम है? जिसका सिंह का चेहरा, एवँ मनुष्य का शरीर है, ऐसा एक युवक इस
जंगल में घूमता रहता है. वह हमारी बहन चंचुलक्ष्मी से प्रेम करता है. हमारी छोटी
को भी वह अच्छा लगता है. हमने उनका विवाह करवा दिया है. अगर आप चाहें तो
चंचुलक्ष्मी तथा नरसिंह को आपके सामने लाकर खडा कर देते हैं. इतना कहकर वे चंचु
युवक एवँ युवतियां वहाँ से निकल गए. नरसिंह वर्मा आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे.
तभी रास्ते के बीच में एक युवक एवँ युवती उनकी और आते हुए दिखाई दिए. श्रीपाद
प्रभु ने सुब्बय्या श्रेष्ठी को निकट बुलाया और बोले, “वे दोनों जो इधर
आ रहे हैं, क्या आपको ज्ञात हैं, कौन हैं? वे दोनों हैं बिल्वमंगल एवँ चिंतामणि. कुछ लकडियाँ एकत्रित करके आग जलाओ.
हम देखेंगे मजेदार नज़ारा.” नरसिंह वर्मा को पसीना छूटने लगा. वे आने वाले
बिल्वमंगल और चिंतामणि ही थे. वे दोनों गुरुवायुर क्षेत्र में श्रीकृष्ण के दर्शन
करके लौट रहे थे, रास्ते में कुरूर अम्मा नामक महायोगिनी के दर्शन हुए. उसने बड़े
सहज भाव से उन्हें आशीर्वाद दिया, “श्रीपाद श्रीवल्लभ दर्शन प्राप्तिरस्तु!” उसके
आशीर्वाद के फलस्वरूप उनके ह्रदय में भक्ति और वैराग्य उत्पन्न हुए. मंगलगिरी के
नरसिंह स्वामी के दर्शन करके वे पीठिकापुरम् की ओर श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए
आ रहे थे. महायोगिनी के आशीर्वाद के प्रभाव से उन्हें यहीं पर श्रीपाद प्रभु के
दर्शन हो गए. जब लकडियाँ जल रही थीं, तो बिल्वमंगल और चिंतामणि को इतना कष्ट होने
लगा, मानो वे स्वयँ जल रहे हैं. कुछ देर पश्चात उनके
शरीरों से उन्हीं के समान दो काली आकृतियाँ बाहर आकर रोते हुए अग्नि में गिर पडीं
और भस्म हो गईं. इसके पश्चात उन दोनों की चेतना लौटी.
तभी चंचु युवक और युवतियां चंचुलक्ष्मी को लेकर
आए. नरसिंह प्रभु के हाथ पीछे की और बांधकर चंचु लोगों ने उन्हें श्रीपाद प्रभु के
सम्मुख खड़ा कर दिया था.
ऐसी अजीब घटनाएं इससे पूर्व किसी भी युग में
घटित नहीं हुई थीं.
श्रीपाद प्रभु के अवतार काल में अनेक लीलाएँ
हुईं जो चमत्कारपूर्ण एवँ अनाकलनीय हैं. श्रीपाद प्रभु ने नरसिंह स्वामी से प्रश्न
किया, “पूर्व काल के नरसिंह स्वामी तुम ही थे ना? यह चंचुलक्ष्मी तुम्हारी ही पत्नी है ना? हिरण्यकश्यप का
वध करके प्रहलाद की रक्षा करने वाले तुम ही हो ना? ” इस पर नरसिंह
भगवान ने तीन बार “हाँ” कहा. उसी समय चंचुलक्ष्मी और नरसिंह प्रभु ने ज्योति रूप
में श्रीपाद प्रभु के शरीर में प्रवेष किया. चंचु लोग अंतर्धान हो गए. बिल्वमंगल
महान भक्त बना. वही बाद में महर्षि बिल्वमंगल कहलाया. चिंतामणि महायोगिनी हुई.
नरसिंह वर्मा का वह गाँव जहाँ ये चित्र-विचित्र
एवँ अद्भुत घटनाएं घटित हुई थीं, “चित्रवाडा” नाम से जाना जाने लगा.
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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