मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

अध्याय - १०

 

 



।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।

 

अध्याय – 10


नरसिंह मूर्ति का वर्णन


तिरुमलदास की आज्ञा लेकर मैंने कुरवपुर की दिशा में प्रस्थान किया. श्रीपाद स्वामी की लीलाओं के स्मरण से मन रोमांचित हो उठता था. कुछ दूर जाने के बाद मुझे एक अश्वत्थ वृक्ष दिखाई दिया. दोपहर हो चुकी थी. मैं भूख से व्याकुल हो रहा था. यदि आसपास ब्राह्मणों के घर हों. तो वहाँ भिक्षान्न सेवन करके विश्राम करने के लिए इस पवित्र अश्वत्थ वृक्ष की छाया में आ जाऊँगा, ऐसा विचार मन में लिए मैं चल पड़ा. मैंने देखा कि उस वृक्ष की छाया में कोई विश्राम कर रहा है. निकट जाकर देखा कि उस व्यक्ति ने यज्ञोपवीत धारण किया है.

जब मैं अश्वत्थ वृक्ष के निकट पहुँचा तो उस व्यक्ति ने आदरपूर्वक मुझे बैठने के लिए कहा. उनके नेत्रों में अथाह करुणा थी. उनके सामने एक झोली थी, उसमें कोई भी खाद्य पदार्थ न था, बस एक ताम्र पात्र था. वे निरंतर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का नाम स्मरण कर रहे थे. मैंने उनसे पूछा, “महाशय! आप क्या श्रीपाद स्वामी के दिव्य चरणों के आश्रित हैं? क्या आपने उनके दर्शन किये हैं?

वे बोले, “मेरा जन्म एक भले वैश्य कुल में हुआ है और मेरा नाम सुब्बय्या श्रेष्ठी है. हमारा वंश ग्रंथी कहलाता है. पूर्वजों के समय से ही हमारे यहाँ सद्ग्रंथों का पठन-पाठन होता आ रहा है. इसलिए हमारे वंश का नाम “ग्रंथी” पड़ गया. बचपन में ही मेरे माता-पिता का निधन हो गया. मेरा घर धन-धान्य से समृद्ध है. मैं दूर-दूर के देशों में जाकर व्यापार करता हूँ. इस सन्दर्भ में कई बार कांचीपुरम जा चुका हूँ. वहाँ चिंतामणी नामक वैश्या से परिचय हुआ. उस पर मैंने बहुत धन लुटाया. मल्याल (केरल) देश के पालक्काड नामक प्रांत से बिल्वमंगल नामक ब्राह्मण भी व्यापार के लिए कांचीपुरम आया करता था. वह अरबी नागरिकों को सुगंधी द्रव्य बेचकर उनसे रत्न एवँ घोड़े खरीदता था. कभी-कभी हम दोनों मिलकर व्यापार करते. दुर्भाग्यवश हम दोनों वैश्या की संगत में भ्रष्ठ हो गए थे. कुछ समय तक तो अरबों के साथ हमारा व्यापार अच्छा चला, उसके बाद अरबों ने हमें धोखा दिया. ऊँची जाति के घोड़ों की कीमत लेकर निम्न जाति के घोड़े हमें बेचे, जिससे हमें बहुत हानि हुई. कई राजा-महाराज हमसे ऊँची जाति के घोड़े खरीदा करते थे. व्यापार में नुक्सान होने के कारण हमारी संपत्ति नष्ट हो गई. मेरी पत्नी इस दुख में परलोक सिधार गई. मेरा एक पुत्र था जो मंदबुद्धि था. उसका भी अल्पायु में निधन हो गया. भाई! समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ एवँ विख्यात पाद-गया क्षेत्र में स्थित पीठिकापुर मेरा जन्म स्थान है. हम वहीं के हैं. जब मैं अज्ञानी था, तो देवताओं एवँ ब्राह्मणों का अनिष्ट किया करता था. क़र्ज़ की वसूली निर्दयता से किया करता था. श्रीपाद स्वामी के पिता श्री अप्पलराजू के घर आईनविल्ली से उनके रिश्तेदार मिलने के लिए आये. उन सबके भोजनादि की व्यवस्था करने के लिए अप्पल राजू के पास पर्याप्त धन नहीं था. वे दान नहीं स्वीकारते थे. श्री वेंकटप्पय्या के घर से प्राप्त भिक्षा से उदार निर्वाह एवँ अन्य व्यवहार किया करते थे. श्रेष्ठी के कुल-पुरोहित होने के कारण वे भिक्षा के रूप में धन स्वीकार नहीं करते थे.

एक दिन मजबूरी में उन्होंने एक वराह मूल्य की सामग्री हमारी दुकान से उधार ली. मैंने अप्पल राजू को ताकीद दी थी कि रिश्तेदारों के जाते ही मेरी रकम लौटा दें. ‘मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है, मगर जब मुझे धन प्राप्त होगा तब मैं अवश्य लौटा दूँगा.’ ऐसा अप्पल राजू बोले. मैं चक्रब्याज वसूलने में उस्ताद था. समय बीत रहा था. ब्याज पर ब्याज लगाकर, झूठा हिसाब दिखाकर, मैंने अप्पल राजू को सूचना भेजी कि उन्हें मुझे दस वराह लौटाने हैं. इतना धन लौटाने में अप्पल राजू को अपना घर बेचना पड़ता. उस समय के मूल्य के हिसाब से यदि मैं वह घर खरीदता तो अप्पल राजू और १-२ वराह देकर ऋणमुक्त हो जाते, ऐसा मैंने कई लोगों से कहा था. अप्पल राजू को बेघर करना ही मेरा उद्देश्य था. मेरे इस दुष्ट विचार को भांप कर वेंकटप्पय्या ने मेरी भर्त्सना की, “अरे दुरात्मा! धन के मद में तू मनमानी कर रहा है. हमारे कुल-पुरोहित का अपमान हमारा ही अपमान हुआ. तू अपना बर्ताव सुधार, वरना तुझ पर घोर विपदा आएगी. अग्निहोत्र से भी अधिक पवित्र अप्पल राजू शर्मा को तू जो कष्ट पहुंचा रहा है, उसके बदले में रौरवादि नरक को प्राप्त होगा.”

एक बार, जब बालक श्रीपाद श्रेष्ठी के घर में थे, तब मैंने श्रेष्ठी से व्यंग्यपूर्वक कहा, “यदि अप्पल राजू शर्मा मेरा ऋण चुकाने में असमर्थ हैं, तो वे अपने पुत्रों में से किसी एक पुत्र को मेरी दुकान पर नौकरी करने के लिए भेजें, अथवा वे स्वयं मेरे यहाँ नौकरी करें. एक पुत्र तो अंधा है, दूसरा है पंगु और तीसरा, यह श्रीपाद, यह तो केवल तीन वर्ष का है. मेरा ऋण कैसे उतारेंगे भला?” यह सुनकर श्रेष्ठी के मन को बड़ी ठेस पहूँची. उनके नेत्रों से अश्रुधारा बह चली. बालक श्रीपाद ने अपने दिव्य हस्त से उनके आँसू पोंछते हुए कहा, “दादा जी! मेरे होते हुए भय किस बात का? हिरण्याक्ष एवँ हिरण्यकश्यप का वध मैंने ही किया, तो सुब्बय्या के ऋण को चुकाने में मुझे कठिनाई कैसी?” इतना कहकर मेरी और मुड़कर बोले, “ अरे! तेरा ऋण मैं चुकाऊंगा. चल तेरी दुकान में. तेरी दुकान में चाकरी कर के ऋण चुकाऊंगा. मगर तेरा ऋण उतर जाने पर तेरे घर में लक्ष्मी नहीं रहेगी. सोच ले.”

बालक श्रीपाद को लेकर वेंकटप्पय्या सुब्बय्या की दुकान में आये. वे सुब्बय्या से बोले, “बालक श्रीपाद के बदले मैं तुम्हारी दुकान में चाकरी करूंगा. कोई आपत्त्ति तो नहीं है? सुब्बय्या ने इनकार करते हुए गर्दन हिला दी. तभी दूकान में एक जटाधारी आया. वह सुब्बय्या श्रेष्ठी की दूकान ढूंढ रहा था. उसे एक ताँबे का बर्तन खरीदना था. वह श्रेष्ठी से बोला, “मुझे एक ताँबे के बर्तन की बड़ी आवश्यकता है. मूल्य यदि अधिक हो तो भी कोई बात नहीं, सुब्बय्या की दूकान में ताँबे के बत्तीस पात्र थे, परन्तु उसने जटाधारी से झूठ कहा, “मेरे पास ताँबे का केवल एक ही पात्र है. यदि उसके लिए दस वराह दे सकते हो तो वह तुम्हें मिल जाएगा.” वह सन्यासी तुरंत तैयार हो गया. उसकी बस एक ही शर्त थी कि वह पात्र वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी की गोद में बैठे बालक श्रीपाद अपने हाथों से उसे दें. शर्त के अनुसार बालक श्रीपाद ने अपने हाथ से वह पात्र सन्यासी को दिया. पात्र देते हुए श्रीपाद प्रभु हँस रहे थे. वे बोले, “अरे, अब तेरी इच्छा पूरी हो गई है ना? तेरे घर में लक्ष्मी सदा बनी रहेगी. अब अपनी संन्यास दीक्षा छोड़कर घर जाओ! तेरी पत्नी एवँ बच्चे तेरी राह देख रहे हैं.” वह जटाधारी सन्यासी खुशी-खुशी चला गया.

वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ अप्पल राजू शर्मा का अपमान करने की सुब्बय्या की इच्छा थी. वह पूरी होने से उसके मन में थोड़ा अहंकार निर्माण हो गया था. उसी मद में उसने कहा, “आज की बिक्री से मुझे विशेष धन लाभ हुआ है. मुझे ऐसा लगा मानो अप्पलराजू शर्मा के दस वराहों का ऋण उतर गया है. इसी क्षण श्रीपाद राय ऋणमुक्त हो गए.” वेंकटप्पय्या बोले, “यह जो कुछ भी तुम कह रहे हो, वह गायत्री को साक्षी मानकर कहो.” सुब्बय्या ने ऐसा ही किया.

श्रीपाद प्रभु तथा वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी जब चले गए तो सुब्बय्या ने अन्दर जाकर देखा कि इकतीस पात्रों में से केवल एक ही ताँबे का पात्र बचा था. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अनाकलनीय, अद्भुत् है. उनके सम्मुख जो भी वचन बोले जाते हैं, वे सत्य होते थे.

साक्षात दत्त प्रभु के हाथों से ताँबे का पात्र ग्रहण करने वाला वह सन्यासी कितना भाग्यवान था और सुब्बय्या कितना अभागा था! उसका दस वराहों का ऋण तो श्रीपाद प्रभु ने अपनी लीला से चुका दिया, परन्तु उसी क्षण से उसके घर की धन संपत्ति क्षीण होने लगी. इकतीस पात्रों के स्थान पर केवल एक ही पात्र शेष बचा था. सुब्बय्या ने अप्पल राजू से दस वराह प्राप्त करना है, ऐसा झूठा हिसाब दिखाया था. उस पाप का फल उसे इस प्रकार से प्राप्त हुआ था.

शंकर भट्ट ने कहा, “अरे सुब्बय्या! सूर्योदय के पूर्व एवँ सूर्यास्त के पूर्व का समय अत्यंत पवित्र होता है.  प्रातः-संध्या एवँ सायं-संध्या के समय अग्निहोत्र करना विशेष फलदायी होता है. प्रातः काल के समय सूर्य भगवान सभी शक्तियों के स्त्रोतों से सिद्ध होते हैं. सायंकाल के समय वे ही शक्तियां पुनः सूर्य में विलीन हो जाती हैं.

इस पर सुब्बय्या बोला, “महाराज! दान स्वीकारने से पुण्य कम होता है, ऐसा मैंने सुना है. परन्तु उसे न स्वीकारने से भी पाप लगता है, ऐसा आप से सुना था. इन दोनों कथनों का अर्थ समझ नहीं पा रहा हूँ. उसी प्रकार यह भी समझ नहीं पाता हूँ कि श्रीपाद स्वामी को श्री दत्तात्रेय का अवतार कहा जाता है, वहीं नरसिंह स्वामी को शिव का अवतार कहते हैं. शिव में अनुसूया का तत्व किस प्रकार अनुभूत है? कृपया यह बातें मुझे विस्तार से समझाएं.”

परन्तु इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले सबको भूख लगाने के कारण पहले भोजन करने की सोची. आश्चर्य की बात यह थी कि उस छोटे से स्थान पर एक ताँबे के पात्र के सिवा कुछ भी नहीं था. सुब्बय्या दो केले के पत्ते लाया. शंकर भट्ट नदी पर जाकर शुचिर्भूत होकर आये.  खाने में चावल और तुरई की दाल थी. केले के पत्तों पर पलाश के पत्तों के दोने रखे. उस जटाधारी सन्यासी ने आंखें मूँद कर क्षणभर ईश्वर का ध्यान किया और निकट ही पड़े ताँबे के पात्र से दोनों में पानी डाला. फिर उसी पात्र से स्वादिष्ट तुरई की दाल परोसी, तत्पश्चात चावल परोसा. उस अमृतमय भोजन के सेवन से हम तृप्त हो गए. खाली पात्र से पहले पानी, फिर भोजन का निकलना एक दैवी चमत्कार ही था. भोजन के पश्चात वह पात्र खाली ही रहा.

 

शनिवार प्रदोष काल में की गई शिवार्चना का फल

श्रीपाद स्वामी सकल देवताओं के स्वरूप हैं. श्री शनिदेव कर्मकारक हैं. नवग्रहों में जो छायाग्रह – राहू एवँ केतु – हैं, उनमें से राहू शनि के कारण फल देता है. केतु मंगल के कारण फल देता है. कर्मकारक शनि कर्म-साक्षी सूर्य का पुत्र होने के कारण शनिवार की शाम शक्तिमान होती है. चतुर्थी एवँ त्रयोदशी को राहू बलवान होता है. शनि त्रयोदशी के महापर्व काल में शाम को शिव की आराधना करने से मानव द्वारा पूर्वजन्म में किये गए पाप नष्ट होते हैं. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार मंगल ग्रह के चित्रा नक्षत्र पर हुआ है, अतः इस नक्षत्र पर श्रीपाद प्रभु की पूजा-अर्चना करने से सभी ग्रहों के दोषों का शमन होता है. युद्ध, आपदा, अस्त्र-शस्त्रों के कारण अकाल मृत्यु, ऋणग्रस्त होने पर आने वाले संकटों का कारण मंगल ग्रह होता है. चित्रा नक्षत्र पर अथवा मंगलवार को श्रीपाद स्वामी अरुण वर्ण के समान प्रकाशमान होते हैं. ऋण अर्थात् पाप, अऋण से तात्पर्य है पाप रहित होना. उस दिन श्रीपाद प्रभु साक्षात अरुणाचलेश्वर के रूप में विद्यमान होते है. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा तथा बापन्नार्य शनिप्रदोष की शाम को शिवाराधना किया करते थे. उस दिन अप्पल राजू शर्मा ने भी बड़े श्रद्धा भाव से आराधना में भाग लिया था. अखंड सौभाग्यवती सुमति महारानी शिव स्वरूप में विद्यमान अनुसूया महातत्व का ध्यान किया करती थीं. उस महा तपस्या के फलस्वरूप ही श्रीपाद स्वामी का अवतार हुआ था. इसी कारण वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा अथवा बापन्नार्युलू से धन का स्वीकार करने पर वह दान नहीं होगा. परन्तु यदि उनसे धन न स्वीकारा जाए तो वह महापाप होगा ऐसा श्रीपाद स्वामी अपने पिता को मौन रहकर बताना चाहते थे. श्रीपाद प्रभु सकल देवताओं के स्वरूप हैं. सभी देवताओं से परे – ऐसा महान तत्व हैं. उनके दर्शन, स्पर्श तथा उनसे संभाषण का लाभ जिन भाग्यवन्तों को हुआ वे धन्य है.”

श्रीपाद स्वामी ने अपनी असाधारण लीला से अपने पिता को ऋणमुक्त कर दिया – यह समाचार पीठिकापुर में दावानल की भाँति फ़ैल गया. तीन वर्ष के बालक श्रीपाद के अप्पल राजू को ऋणमुक्त करने पर उनके नेत्रों से पुत्र के प्रति स्नेहवश अश्रु धारा बह निकली. महारानी सुमति अपने पुत्र को ह्रदय से लगाए कितनी ही देर तक तन्मय अवस्था में थी. उस समय उनके घर वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा, बापन्नार्य एवँ सुब्बय्या आये हुए थे. सुब्बय्या ने सभी ज्येष्ठ व्यक्तियों के सम्मुख कहा कि श्री अप्पल राजू का उधार चुक गया है. इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “ पिता को ऋणमुक्त करना पुत्र का धर्म ही है.”

अप्पल राजू ने पूछा, “कोई जटाधारी दस वराह देकर ताँबे का पात्र ले गया, इससे मेरा ऋण कैसे उतर गया?” इस प्रकार की अनेक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की गईं. बापन्नार्युलु ने श्रीपाद स्वामी से पूछा, “क्या तुम जानते हो कि वे जटाधारी सन्यासी कौन थे?” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं न केवल उस जटाधारी के, अपितु सभी जटाधारी सन्यासियों के बारे में जानता हूँ.”

 

श्रीपाद स्वामी कौन हैं? और उनका स्वरूप क्या है?

 

बापन्नार्युलु बालक श्रीपाद से बोले, “तू तीन वर्ष का बालक है, परन्तु बातें बड़े आदमियों जैसी कर रहा है. सब बातें जानने के लिए क्या तू सर्वज्ञ है?” इस पर बालक श्रीपाद बोले, “आपको ऐसा प्रतीत होता है कि मैं तीन वर्ष का हूँ, परन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता. मेरी आयु लाखों वर्षों की है. मैं इस सृष्टि से पहले था, प्रलय के पश्चात भी रहूँगा. सृष्टि की निर्मिती के समय मैं था. मेरे बिना सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवँ विलय हो ही नहीं सकता. मैं साक्षीभूत होकर सभी क्रियाकलापों का अवलोकन करता हूँ.” इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “श्रीपाद! कोई छोटा बालक यदि केवल कल्पना करे कि वह चंद्रमंडल में है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह यथार्थ में चंद्रमंडल में है. प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता होती है. सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमानता – ये केवल जगन्नियंता के लक्षण हैं.”

इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं वह आदितत्व हूँ, जो सर्वत्र स्थित है. आवश्यकतानुसार मैं उचित प्रसंग पर उचित स्थान पर प्रकट होता हूँ. सभी प्राणियों में मैं अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवँ आनंदमय कोष में विद्यमान रहता हूँ. मेरी उपस्थिति के कारण ही इन पंचकोषों के सभी क्रिया कलाप चलते रहते हैं. यदि किसी विशिष्ट कोष में अपने होने की अनुभूति तुम्हें दूं तो उस कोष में मेरी उपस्थिति का आभास होगा. मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि मैं ऐसी अनुभूति न दूं, तो मैं वहाँ हूँ ही नहीं. मैं सर्वव्यापी हूँ. समस्त ज्ञान-विज्ञान मेरे चरणों में लीन हैं. मेरी केवल इच्छा मात्र से इस समूची सृष्टि का निर्माण हुआ है. मैं सर्वत्र विद्यमान हूँ. इसमें क्या आश्चर्य है?

इस पर अप्पल राजू शर्मा ने कहा, “ बेटा, बचपन से ही तू हमारे लिए तू एक पहेली है. तू बार-बार ‘मैं दत्त प्रभु हूँ, मैं दत्त प्रभु हूँ’ ऐसा कहता है. ‘नृसिंह सरस्वति के रूप में अवतार लूँगा’ ऐसा कहता है. लोग तो कौओं जैसे हैं. पीठिकापुर के ब्राह्मण तो नरक के लौह-कागों से भी भयानक हैं. इन सब बातों को वे मन की चंचलता एवँ बुद्धिभ्रष्ठता कहते हैं. हम ब्राह्मण हैं. विधियुक्त धर्म-कर्म का आचरण करना हमारे लिए श्रेष्ठ है. इससे बढ़कर यदि यह कहें, कि तू ईश्वरी अंशयुक्त अवतारी पुरुष है, तो वे समझते हैं कि ये हम केवल अहंकारवश कह रहे हैं.”

इस पर बालक श्रीपाद ने उत्तर दिया, “तात, आपकी बात मैं अमान्य नहीं करता, परन्तु जो सच है वह तो कहना ही चाहिए ना? पञ्चभूतों से साक्षी प्राप्त करते समय, मैं दत्त प्रभु नहीं हूँ, ऐसा कहने से क्या असत्य भाषण का दोष नहीं लगेगा? यदि आकाश के सूर्य से यह कहा जाए कि तू सूर्य नहीं है, तो क्या वह सूर्य न रहेगा? सत्य देश काल की सीमाओं से परे है. जिस प्रकार हमारे पीठिकापुर के ब्राह्मण स्वयँ को देहधारी समझकर मनुष्यत्व का अनुभव ले रहे हैं, उसी प्रकार मैं भी सर्वज्ञता, सर्वशक्तित्व, सर्वान्तर्यामित्व युक्त दत्त हूँ. इस बात का मैं पग पग पर सबको अनुभव करवा रहा हूँ. युग बीतते रहेंगे. अनेक बार सृष्टि का लय हो सकता है, परन्तु मैं, जो साक्षात दत्त हूँ. वह दत्त नहीं हो, ऐसा कैसे हो सकता है?

इसके बाद बापन्नार्युलु ने कहा, “श्रीपाद! जटाधारी के जाने के पश्चात सुब्बय्या के पास इकतीस पात्रों के स्थान पर केवल एक ही पात्र बचा. क्या तुमने किसी चमत्कार से उनको अदृश्य कर दिया?” इस पर दत्त प्रभु बोले, “सभी घटनाएं काल एवँ कर्म के अनुसार किसी न किसी कारण वश घटित होती हैं. कारण के बिना कार्य संभव नहीं है. यह प्रकृति का नियम है. यह सुब्बय्या पिछले जन्म में वन्य प्रांत में दत्त पुजारी थे, परन्तु वन में दत्त का दर्शन वे कभी-कभार ही किया करते थे. उनके भीतर स्त्री कामना बड़ी प्रबल थी. यह स्त्री लोलुप पुजारी प्राचीन काल की परंपरानुसार पूजित ताँबे की विशाल दत्त मूर्ती को बेचना चाहता था. अतः एक दिन इसने उस मूर्ती को बेच दिया और उससे प्राप्त धन को गलत ढंग से खर्च कर दिया. मगर, लोगों में इसने यह समाचार फैला दिया कि दत्त मूर्ती की चोरी हो गई है. जटाधारी के रूप में जो सन्यासी आया था, वह पूर्व जन्म में सुनार था. उसने धन के लालच में उस दत्त मूर्ती को पिघलाया था. इस जन्म में वह जन्मतः दरिद्री रहा. दत्त मूर्ति की अनेक वर्षों तक पूजा करने के फलस्वरूप उस पुजारी का धनवान श्रेष्ठी कुल में जन्म हुआ. इन दोनों ने उस मूर्ती को पिघला कर उसके बत्तीस पात्र बना कर बेचे थे. उस सुनार के घर में नृसिंह देव की पूजा-आराधना होती थी. नृसिंह भगवान की मूर्ती के सम्मुख ही ये ताँबे के  बर्तन बनाए गए थे. ईश्वर की इच्छा से नृसिंह भगवान के बत्तीस अवतारों के अंशों ने उन ताँबे के बर्तनों में प्रवेश किया था. इस जन्म में अपने पूर्व जन्म का ज्ञान होकर उस सुनार ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से मेरी सेवा की. मैंने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और पीठिकापुर आकर मेरे हाथ से ताँबे के पात्र को स्वीकार करने की आज्ञा दी. साथ ही श्रेष्ठी को दस वराह देकर मुझे बंधन मुक्त करने की भी आज्ञा दी. ऐसा करके वह धन्य हो गया. उसकी आर्थिक समस्या दूर होने का आशीर्वाद मैंने उसे दिया था. लेनदारों के तकाजों से बचने के लिए उसने जटाधारी सन्यासी का वेष धारण किया था. मुझे तो जटाधारी के बारे में सभी कुछ मालूम है ना? यह सुब्बय्या श्रेष्ठी वाम मार्ग से हमारे परिवार से दस वराह वसूल करना चाहता था. उसे दस वराह प्राप्त हों, ऐसी व्यवस्था मैंने कर दी. परन्तु इसके बदले में सुब्बय्या का सभी पूण्य फल नष्ट हो गया. अरे, सुब्बय्या! चिंतामणि के साथ तूने जो श्रुंगार-व्यभिचार किया, वह सब मुझे ज्ञात है. तेरी कथा मेरे कथामृत में हास्यास्पद होगी. तू झोली लेकर छोटे बच्चों के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ बेचकर अपना उदार निर्वाह करेगा. तुझ से जो धन उधार लिया था, उससे मेरे माता-पिता ने भोजनादि की व्यवस्था की थी. तुझ से ज़्यादा तो बनिए का हिसाब मैं जानता हूँ. भोजन में बनाए चावल तथा तुरई की सब्जी बनाने में ही तेरे पास से लिया धन समाप्त हो गया था. अन्य खर्चों के लिए मेरे पिता द्वारा कष्ट से अर्जित किया गया धन ही खर्च हुआ था. जब तू खाने को मोहताज हो जाए तो तेरे पास के इस ताम्र पात्र से तुझे केवल जल, चावल तथा तुरई की बनी दाल ही प्राप्त होगी. वह भी सिर्फ उतनी जितनी कि तू खाकर औरों को खिला सके.”

बालक श्रीपाद ने इतनी बातें अत्यंत तीव्रता पूर्वक कहीं. उनका मुखमंडल दिव्य, प्रखर तेजस्वी प्रतीत हो रहा था. उनके नेत्र अग्नि-गोल के समान लाल हो रहे थे. वे आगे बोले, “अरे, सुब्बय्या श्रेष्ठी! आज रात को तेरे घर के दक्षिण द्वार के निकट एक भैंस आयेगी. तेरा अंतःकाल निकट आ गया है, ऐसे यमराज के संदेश वाहक के रूप में वह आएगी. मैं तुझ पर एक अनुग्रह करने जा रहा हूँ. तू अपने हाथ से भोजन बनाकर तुरई की दाल तथा चावल उस भैंस को खिला. उस भैंस की केवल एक ही यह इच्छा तू पूरी कर. उस अन्न को खाकर वह भैंस मर जायेगी, परन्तु उसी क्षण से तू उत्तरोत्तर निर्धन होता जाएगा. तू झोली लेकर मैंने जो कहा है वह कर. इसके पश्चात जब तू दाने-दाने के लिए तरसेगा, तब ताँबे के पात्र का लाभ तुझे मिलेगा.”

श्रीपाद स्वामी ने यह बात अत्यंत कठोर शब्दों में कही. उस समय वेंकटप्पा श्रेष्ठी क्रोधित श्रीपाद प्रभु को देखकर अत्यंत भयभीत हो गए. उन्होंने बालक श्रीपाद को इतने क्रोध में कभी नहीं देखा था. तब बालक श्रीपाद ने कहा, “नाना जी! डर गए क्या? मैं नरसिंह मूर्ती ही हूँ. आपको वरदान देकर आप पर कृपा कर रहा हूँ. क्या आपने ऐसा सोचा कि मैं वैश्य कुल के सभी लोगों को शाप दूँगा? मेरी बहन वासवी ने अपने कुल के लोगों के सौन्दर्य में कुछ त्रुटी रहने का शाप दिया था. मैं श्रीपाद उसी प्रकृति का हूँ! कहीं आपके मन में ऐसी आशंका तो नहीं उठी कि मैं सभी वैश्यों को निर्धन होने शाप दूँगा? आप घबराएं नहीं. ईश्वर के लिए जाति-कुल का भेदभाव नहीं होता, उसी प्रकार भक्तों की भी न कोई जाति होती है, न कोई कुल, आर्य वैश्यों के तथा मेरे अनुबंध बहुत पुराने हैं. बापन्नार्य अर्थात प्राचीन काल के लाभाद महर्षि ही तो हैं. वैश्यों में लाभाद महर्षि गोत्र लुप्त हो गया है. बापन्नार्य के सभी वंशजों को (कलियुग के अंत तक के) मेरा आशीर्वाद है. उन पर मेरा वरद हस्त सदा बना रहेगा. आपको जो दी है, वह झोली बिलकुल भिन्न है. उसमें दत्त-मिठाई भरी है. कितनी भी दीजिये, कम न होगी. परन्तु वह किसी के नेत्रों को दिखाई नहीं देती. नृसिंह के बत्तीस अवतारों के सभी लक्षण मुझमें विद्यमान हैं. बापन्नार्युलु की तेहतीसवीं पीढी में मेरे इस जन्म स्थान पर एक महासंस्थान का निर्माण होकर उसमें मेरी चरण-पादुकाओं की स्थापना की जायेगी. आपके वंश का कोई भी पुरुष यदि श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दिव्य एवँ भव्य रूप की नवविध भक्ति के किसी भी मार्ग से आराधना करेगा, तो श्री दत्तात्रेय के श्वान अदृश्य रूप से उसकी देखभाल करेंगे. वेद, पुराण, उपनिषद् ये सब श्वान रूप में अदृश्य रहकर सदैव रक्षा करेंगे. तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने श्रीपाद प्रभु को प्रेम से गोद में लिया. उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बह निकले. बापन्नार्युलु के मुख से बोल नहीं फूट रहे थे. सुमति माता इस संदेह में थी कि यह सब स्वप्न है अथवा वैष्णवी माया. अप्पल राजू शर्मा विस्मय चकित रह गए. बालक श्रीपाद के दोनों भाई भयभीत दृष्टि से उनकी और देखते हुए सोच रहे थे कि यह हमारा अनुज है अथवा दत्त प्रभु?

नरसिंह वर्मा ने बालक श्रीपाद को अपनी गोद में ले लिया. श्रीपाद प्रभु वर्मा से बोले, “दादा जी, कल हम दोनों घोडागाडी में अपनी ज़मीन देखने जायेंगे. वहाँ भूमाता मुझसे कई दिनों से आर्त स्वर में प्रार्थना करते हुए कह रही है कि अपने पद स्पर्श से मुझे कब पावन करोगे? मेरा तो वचन है कि मैं “आर्तत्राण परायण” हूँ.  तब वर्मा बोले, “अरे श्रीपाद! मेरी एक छोटी-सी विनती है. अपने पीठिकापुर के निकट मेरी ज़मीन है न? वहीं एक छोटा-सा गाँव बसाकर वहाँ के निवासियों से खेती-बाडी करवाई जाए. ग्राम वासियों को कम पैसों में खेती करने के लिए देकर ज़मींदारी का दायित्व निभाने के लिए कुलकर्णी पद तुम्हारे पिता को दिया जाए. परन्तु अभी यह कुलकर्णी पद अपने पास नहीं है ना?” इस पर बालक श्रीपाद हँस कर बोले, “दादा जी, आपने अपनी ज़मींदारी पर तो विचार कर लिया, मगर मेरी ज़मींदारी के विषय में कुछ नहीं सोचा. मुझे यह स्वीकार नहीं. पहले पिता जी से कहिये कि कुलकर्णी पद का निर्माण करें.”

“इसके पश्चात वह कुलकर्णी पद तुम्हें ही संभालना है,” ऐसा वर्मा बोले.

“घंडीकोटा श्रीपाद श्रीवल्लभ राज शर्मा किसी एक गाँव का कुलकर्णी था, केवल इतना ही इतिहास में शेष रहेगा. परन्तु जो कुलकर्णी पद मैं निभाने वाला हूँ, वह विश्वात्मक है. मेरे हिसाब-किताब मुझे ही करने हैं. प्रतिदिन करोड़ों-करोड़ों पुण्य राशि का हिसाब-किताब होता रहता है. मेरे अवतार का प्रयोजन है – विश्व कुण्डलिनी को झकझोरना. मानव के ही समान प्रत्येक गाँव की, शहर की, पुण्य क्षेत्रों की भी कुण्डलिनी होती है. सान्ध्र सिन्धुवेद का ज्ञान जिन्हें है, वे ही इस योग-रहस्य को जान सकेंगे. पीठिकापुरम् की कुण्डलिनी बापन्नार्युलु, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी तथा वत्सवाई की तैतीसवीं पीढ़ी में जागृत हो सकती है. अभी उसकी जल्दी क्या है? दैवयोग से आपको प्राप्त हुए इस महापुण्य काल के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना उचित होगा.”

श्रीपाद प्रभु के इस कथन के पश्चात वे सदा पीठिकापुरम् में ही रहें, ऐसा प्रयत्न नरसिंह वर्मा ने किया था.

 

श्रीपाद प्रभु का वैभव

मैं अज्ञान से भरा हुआ हूँ. श्रीपाद श्रीवल्लभ जब कहते थे कि “मैं स्वयँ श्रीकृष्ण हूँ,” तो सामान्य लोगों को यह हास्यास्पद प्रतीत होता. उस अज्ञानता के वश ही मैंने प्रश्न किया, “श्रीपाद, तू स्वयँ को श्रीकृष्ण कहता है तो तेरी अष्ट भार्याएं एवँ सोलह सहस्त्र गोपिकाएं भी क्या इस अवतार में हैं?” इस पर श्रीपाद प्रभु मंद हास्य करने हुए बोले, “मेरी अष्टविध प्रकृति ही अष्ट भार्याएं हैं. मेरे इस शरीर से दसों दिशाओं में प्रतिक्षण शक्ति स्वरूप स्पंदन प्रवर्तित होते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक क्षण में एक-एक कला से, शरीर, मन एवँ आत्म तत्व से (10 × 10 ×10 = 1000) अर्थात् एक हज़ार स्पंदन प्रवर्तित होते हैं. इसा प्रकार सोलह कलाओं में से कुल सोलह हज़ार स्पंदन प्रवर्तित होते हैं. ये ही मेरी सोलह हज़ार गोपिकाएं हैं. पूर्वावतार में ये सभी कलाएँ मानव रूपों में प्रकट हुई थीं. इस अवतार में वे सब निराकार रूप में स्पन्दनशील हैं. 

विविध देवताओं के माध्यम से मेरी पूजा-आराधना करने में कोई भूल नहीं है. वह मेरी ही आराधना है. मुझमें उपस्थित शिव स्वरूप, विष्णु रूप और ब्रह्मस्वरूप की आराधना की जा सकती है. विभिन्न प्रकार की साधन पद्धतियाँ, साधक की विभिन्न साधना अवस्थाएं, काल, कर्म एवँ कारण जैसी प्राणियों की अवस्था पर प्रभाव डालती रहती हैं.”

 

नरसिंह प्रभु के ३२ रूप

 

उस रात को नरसिंह प्रभु ने नरसिंह राज वर्मा को बत्तीस रूपों में दर्शन दिए थे. ये रूप इस प्रकार हैं:

1.   कुंदपाद नरसिंह मूर्ती

2.   कोप नरसिंह मूर्ती

3.   दिव्य नरसिंह मूर्ती

4.   ब्रह्माण्ड नरसिंह मूर्ती

5.   समुद्र नरसिंह मूर्ती

6.   विश्वरूप नरसिंह मूर्ती

7.   वीर नरसिंह मूर्ती

8.   रौद्र नरसिंह मूर्ती

9.   क्रूर नरसिंह मूर्ती

10. विभत्स नरसिंह मूर्ती

11. धूम्र नरसिंह मूर्ती

12. वह्नि नरसिंह मूर्ती

13. व्याघ्र नरसिंह मूर्ती

14. बिडाल नरसिंह मूर्ती

15. भीम नरसिंह मूर्ती

16. पाताल नरसिंह मूर्ती

17. आकाश नरसिंह मूर्ती

18. वक्र नरसिंह मूर्ती

19. चक्र नरसिंह मूर्ती

20. शंख नरसिंह मूर्ती

21. सत्व नरसिंह मूर्ती

22. अद्भुत नरसिंह मूर्ती

23. वेग नरसिंह मूर्ती

24. विदारण नरसिंह मूर्ती

25. योगानंद नरसिंह मूर्ती

26. लक्ष्मी नरसिंह मूर्ती

27. भद्र नरसिंह मूर्ती

28. राज नरसिंह मूर्ती

29. वल्लभ नरसिंह मूर्ती

इसके पश्चात तीसवीं नरसिंह मूर्ती के रूप में उन्होंने श्रीपाद श्रीवल्लभ को देखा. इकतीसवीं नरसिंह मूर्ती को श्री नृसिंह सरस्वति अवतार में और बत्तीसवीं नरसिंह मूर्ती के रूप में प्रज्ञापुर (अक्कल कोट) के स्वामी समर्थ को देखा.

 

श्रीनिवास का वृत्तांत

कन्या मास के श्रवण नक्षत्र पर द्वादशी, सोमवार को सिद्ध योग पर श्री वेंकटेश अर्च्य रूप में प्रकट हुए. वैशाख शुद्ध सप्तमी को विलम्बी नाम संवत्सर में उन्होंने कुबेर से ऋण लेकर ऋण पत्र लिख कर दिया. श्री पद्मावती देवी ने मृग नक्षत्र पर जन्म लिया. वैशाख शुद्ध दशमी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर श्रीनिवास प्रभु का पद्मावती देवी के साथ विवाह संपन्न हुआ. श्रीनिवास प्रभु भी भारद्वाज गोत्र में अवतरित हुए थे. पांडवों के वंश में सुधन्वा नागकन्या द्वारा प्रसूत पुत्र आकाश महाराज था. उसका भाई था तोंडमान. वसुधानु था आकाश महाराज का पुत्र. श्रीनिवास प्रभु ने अगस्ती महर्षि की सलाह के अनुसार आधा राज्य तोंडमान को तथा आधा राज्य वसुधानु को दे दिया.

उस रात को उन सबने श्रीपाद प्रभु के दिव्य नाम का कीर्तन किया. दूसरे दिन श्रीपाद प्रभु की आश्चर्यकारक लीलाओं का वर्णन करने का आश्वासन देकर सुब्बय्या श्रेष्ठी निकट ही स्थित एक कुटी में शंकर भट्ट को ले गए. उस कुटिया में ताड़पत्री की दो चटाइयां थीं. चार श्वान उस कुटी की रक्षा कर रहे थे.

 

श्रीपाद प्रभु के स्मरण से प्राप्त फल

श्रीपाद प्रभु की ह्रदयंगम लीलाओं के केवल स्मरण मात्र से अनेक जन्मों की संचित पाप राशियाँ भस्म हो जाती हैं.

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जय जयकार हो।।

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