बुधवार, 30 मार्च 2022

अध्याय - ८

 

“श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये”


अध्याय ८

दत्तावतार का वर्णन


कैसे होता है आत्म साक्षात्कार ? ब्रह्म ज्ञान हेतु तप करने वाले ही हैं सच्चे ब्राह्मण 

अगले दिन अपना नित्य नैमित्यिक अनुष्ठान पूरा करने के पश्चात तिरुमलदास बोले: “अरे, शंकर भट्ट! जब आत्म साक्षात्कार होता है, उस समय षोडश कलाएँ अपने-अपने भूतों में लीन हो जाती हैं. इनसे संबंधित देवता शक्तियाँ अपने-अपने मूलभूत चैतन्य में लीन हो जाती हैं. आत्मज्ञान, कर्म इत्यादि ब्रह्म स्वरूप में लीन होते रहते हैं. ऐसे ब्रह्म-ज्ञान के लिए जो परिश्रम करता है, वही सच्चे अर्थों में ब्राह्मण है. प्राण, विश्वास, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, इंद्रियें, मन, अन्न, बल, विचार, मन्त्र, धर्म, लोक, लोकों के विविध नाम – इन्हें सोलह कलाएँ कहते हैं. श्रीपाद प्रभु सोलह कलाओं से परिपूर्ण परब्रह्मावतार हैं.”

 

अन्न ही मन है – सात्विक अन्न के सेवन से मन का निर्मलत्व प्राप्त होता है.

विधाता ने प्रथम प्राणों की रचना की, प्राण से तात्पर्य है संपूर्ण विश्व में विद्यमान प्राण-शक्ति. इस प्राण-शक्ति का एक सूक्ष्मात्मा होता है, इसे हिरण्यगर्भ नाम से भी संबोधित किया जाता है. प्राणमय कोष में स्थित जीव-धातु शक्ति को शक्ति-शरीर कहते हैं. प्राणमय चैतन्य को संतुलित रीति से प्रवाहित करने से मनुष्यों के भौतिक दुःखों का निवारण होता है. मनुष्य का स्थूल देह रोग ग्रस्त होने से पूर्व उसका प्राणमय शरीर रोगग्रस्त होता है. इसके पश्चात् स्थूल शरीर रोग ग्रस्त होता है. सृष्टि के प्रारम्भ का निश्चय होने के बाद पंचमहाभूतों का अविर्भाव हुआ. इन पंचमहाभूतों का अनुभव करने के उद्देश्य से पंचेन्द्रियों की रचना हुई. इनका संधान करके सुव्यवस्थित ढंग से काम करने के लिये पंचेन्द्रियो की योजना हुई. इन दसों इन्द्रियों पर मन का अधिकार रहता है. मन आहार से बनता है, अतः मनुष्य को अपने आहार के विषय में अत्यंत सावधान रहना चाहिए, क्योंकि आहार के सूक्ष्म अंश से ही मनोभावनाएँ प्रकट होती हैं. आहार के जैसे गुण होंगे, मनुष्य के विचार भी उसी के अनुरूप बनाते हैं. मन के विचारों की धारा को क्रमबद्ध करके नियंत्रित करने को ही “मन्त्र” कहते हैं यज्ञ-यागादी का विधिपूर्वक आचरण करते हुए कर्मकाण्ड में वर्णित तत्संबंधी मन्त्रोच्चारण को विधिपूर्वक संपन्न करने को “कर्म” कहते हैं. विश्व निर्माण का आधार कर्म ही है. नाम रूप विहीन जग हो ही नहीं सकता. हमारे भीतर प्रत्येक इन्द्रिय का संबंध एक-एक देवता से होता है. इस देवता के प्रभाव से संबंधित इन्द्रिय कार्य करते हैं. समाधिस्थ अवस्था में बैठे योगी को जब आत्म-साक्षात्कार होता है, उस समय सोलह कलाएँ मूलतत्व में विलीन हो जाती हैं. योगी की भौतिक इन्द्रियों की चैतन्य शक्ति विश्व की चैतन्य शक्ति में लीन हो जाती है. कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों से युक्त मानव कर्म किये बिना नहीं रह सकता.

 

अहंकार नष्ट हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती.

मनुष्य के अहंकार के कारण ही कर्माचरण होता रहता है. मन एवँ बुद्धि के अज्ञान के आवरणों से आच्छादित होने पर जो अशुद्ध चैतन्य उत्पन्न होता है, वही अहम् है. आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर चुके योगी के लिए जन्मान्तरों का कर्मफल शेष नहीं बचता. अहंकार पूरी तरह नष्ट हुए बिना आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं है. योगी को जब आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है, तब श्रौत (वैदिक) कर्म और उसका प्रतिफल – महद अहंकार, माया जाल समेत शाश्वत परमात्मा में लीन होकर, वह व्यक्तित्व-रहित हो जाता है. परमात्मा व्यक्तित्व-सहित शक्ति स्वरूप है. कर्म तथा उसके फल का नाश होने पर योगी सिद्धावस्था को प्राप्त होता है. योगी चाहे अपने स्थूल शरीर से कर्मफल का भोग भोगता है, फिर भी उसमें देहाभिमान न होने के कारण वह हमेशा मुक्तावस्था में रहता है. परमात्मा योगियों के माध्यम से अपनी लीलाएँ प्रकट करता रहता है. यदि किसी योगी को अपनी यौगिक शक्ति का अहंकार हो जाता है, तो उसकी सभी शक्तियों का हरण करके उसके गर्व का नाश करने की सामर्थ्य परमात्मा के पास होती है. श्री बापन्नार्य ने श्रीशैल्यम् क्षेत्र में स्थित श्री मल्लिकार्जुन तथा गोकर्ण क्षेत्र में स्थित महाबलेश्वर एवँ कुछ अन्य स्थानों पर सौर मंडल से शक्तिपात किया था. स्वयंभू दत्तात्रेय की उत्सव मूर्ती तथा अर्चना मूर्ती में भी शक्तिपात किया था. अग्नि से संबंधित इस शक्ति का शान्ति-विधान करना आवश्यक है. यदि वैसा न किया गया, तो अर्चक समेत अर्चना करवाने वाले व्यक्ति भी अर्चना मूर्ती के प्रखर तेज से दण्ड के भागी होकर उन्हें अनिष्ठ फल प्राप्त होता है. स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती में हुए शक्तिपात का रहस्य केवल वही योगी जान सकते हैं, जो अंतर्ज्ञानी हो. श्रीशैल्य-मल्लिकार्जुन स्थान पर शक्तिपात सहस्त्र लोगों की उपस्थिति में श्री बापन्नार्य के यजमानत्व में हुआ था. सूर्य-मंडल से तेज निकल कर सब के समक्ष मल्लिकार्जुन के लिंग में लीन हो गया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार एवँ यह शक्तिपात – ये दो अत्यंत गोपनीय देवी रहस्य हैं. उनका वर्णन केवल महायोगियों के सम्मुख ही किया जाना चाहिए तथा वे ही इसे जानने के लिए योग्य हैं. श्रीशैल्यम में हुए शक्तिपात का शान्ति विधान किया गया. इस विधान के अंतर्गत हज़ारों की संख्या में अन्नदान किया गया. इसके फलस्वरूप जठराग्नि शांत हुआ. उग्रत्व की शक्ति शिथिल होकर शान्ति-तत्व में लीन होने के कारण सब कार्य शांत एवं शुभप्रद हो गया. पीठिकापुर के स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ति पर हुए शक्तिपात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण एवँ साक्षी न होने से वहाँ शान्ति-विधान अथवा अन्नदान नहीं किया गया. श्री बापन्नार्य ने अन्नदान करने का सुझाव दिया था, परन्तु पीठिकापुर के ब्राह्मण पंडितों ने तर्क, वितर्क करके श्री बापन्नार्य के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.

 

 

श्रीपाद स्वामी षोडश कला परिपूर्ण है.

काल अपनी गति से चला जा रहा था. श्रीपाद प्रभु की आयु अब दो वर्ष की हो गई. इन दो वर्षों की कालावधि में उन्होंने अनेक बाललीलाओं द्वारा प्रमाणित कर दिया था कि वे षोडश कलाओं से परिपूर्ण इस युग के महा अवतार हैं. सोलहवे वर्ष में श्रीपाद प्रभु के पीठिकापुर छोड़ दिया. तत्पश्चात चौदह वर्षों तक वे कुरवपुर एवँ कुछ अन्य क्षेत्रों में रहे. परन्तु उनकी शरीरयष्टि सोलह वर्ष के किशोर के समान ही थी.

 

श्री दत्तात्रेय के सोलह अवतार

 

सोलह – इस संख्या को एक वैशिष्ट्य प्राप्त है. श्री दत्तात्रेय ने पूर्व युग में सोलह अवतार धारण किये थे. वे इस प्रकार है:

१.     योगिराज

२.     अत्रिवरद

३.     दिगम्बरावधूत

४.     कालाग्निशमन 

५.     योगीजन वल्लभ

६.     लीला विश्वंभर

७.     सिद्धराज

८.     ज्ञान सागर

९.     विश्वंभरावधूत

१०.  मायामुक्तावधूत

११.  आदिगुरू

१२.  संस्कारहीन शिवस्वरूप

१३.  देव देव

१४.  दिगम्बर

१५.  दत्तावधूत

१६.  श्यामकमल लोचन .

 

श्री दत्तात्रेय प्रभु भोग तथा मोक्ष के दाता हैं. उनकी आराधना करने के लिए केवल उनकी चरण पादुकाओं की आराधना करना पर्याप्त है. चारों वेद समूची अपवित्रता को पवित्र करते हुए श्वान रूप में उनके चरण कमलों में पड़े रहते हैं. श्री दत्तात्रेय की पवित्रता की कल्पना करने में मानव तो क्या, देवता तथा सप्त ऋषि भी असमर्थ हैं. युगांतर में जब वामनावतार हुआ, तब उनके समकालीन रह चुके श्री वामदेव महर्षि का भी जन्म हुआ. उनके जन्म के समय माता के गर्भ से केवल सिर बाहर आया और चारों दिशाओं का अवलोकन करके वापस गर्भ में समा गया. तब देवताओं तथा ऋषिगणों के प्रार्थना करने पर श्री वामदेव ने पुनः जन्म लिया. वे जन्मतः शुद्ध ब्रह्मज्ञानी थे.

ऐसी ही घटना श्रीपाद प्रभु के जन्म के समय घटित हुई. वे केवल ज्योति-स्वरूप थे. इस प्रकार दो बार जन्म लेने के कारण वे आजन्म द्विज थे. वे संपूर्ण, अखण्ड, अद्वैत, सच्चिदानंदघन होने के कारण इस अवतार में उनके कोई गुरू नहीं थे. वास्तव में वे त्रिमूर्ति के संयुक्त स्वरूप न होकर त्रिमूर्ति से भी जो परे है, ऐसे एक विशिष्ठ तत्व थे. इसलिए वे उस त्रिमूर्ति से परे स्थित चतुर्थतत्व हैं, यह संकेत देने के लिए उन्होंने चतुर्थी के दिन अवतार लिया. माता के गर्भ से बाहर आकर पुनः गर्भस्थ हो जाने पर, महायोगियों, सिद्ध पुरुषों एवँ देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुबारा जन्म लेने के कारण वे आजन्म ब्रह्मज्ञान संपन्न थे. चित्रा नक्षत्र का अधिपति मंगल ग्रह है. यह ग्रह नीच स्थान में रहते हुए समूचे जीवों के लिए अमंगलकारी होता है. समूचे अमंगल का हरण करके शुभ मंगल प्रदान करने के लिए प्रभु ने चित्रा नक्षत्र में जन्म लिया. चित्रा नक्षत्र के दौरान यदि श्रीपाद प्रभु का पूजन किया जाए तो वह विशेष फलदायी होता है. श्रीपाद प्रभु स्वयं धर्मं शास्ता (धर्म प्रवर्तक) हैं. वे हरिहरात्मज श्री अय्यप्पा स्वामी हैं, यह दर्शाने के लिए उन्होंने तुला राशि में जन्म लिया. ऐसा कोई धर्मं शास्त्र नहीं, जिसका उन्हें ज्ञान न हो. धर्मं संकट में फँसे हुए मनुष्य को उनकी प्रार्थना करने से धर्म-पथप्रदर्शन की प्राप्ति होती है. सूर्य ग्रहों का अधिपति है. सिंह लग्न में जन्म लेने के कारण वे मानो यह सूचित करते हैं, कि वे सकल विश्व के नाथ एवँ चक्रवर्ती शासक हैं.

श्री दत्त प्रभु से त्रिमूर्ति तथा त्रिमूर्ति से तीन कोटि देवों की, जिनसे तेहतीस कोटि देवताओं की उत्पत्ति हुई. अतः केवल श्री दत्त प्रभु के नामस्मरण से समस्त देवताओं के स्मरण का फल प्राप्त होता है.

श्री दत्त प्रभु के ब्रह्म मुख का ऋषि पूजन करना चाहिए. विष्णुमुख की अर्चना श्री सत्यनारायण व्रत तथा विष्णु सहस्त्र नाम से करना चाहिए. उनके रूद्र मुख का रुद्राभिषेक से सिंचन करना चाहिए. श्री दत्त प्रभु के ब्रह्म मुख की जिह्वा पर सरस्वति का वास है. विष्णुमुख के वक्षस्थल पर लक्ष्मी का वास है. रूद्र मुख के वाम भाग में गौरी का वास है. सृष्टि की समूची स्त्री-देवता शक्ति श्रीपाद प्रभु के वामभाग में तथा पुरुष-देवता शक्ति दक्षिण भाग में विराजमान है. तिरुपति में सप्त गिरी पर अवतरित हुए श्री वेंकटेश्वर स्वामी साक्षात श्री दत्त प्रभु ही हैं. “वें”कार – अमृत बीज तथा “कट” – ऐश्वर्य बीज है. इसलिए श्री वेंकटेश्वर अमृत एवँ ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं. “वें” से तात्पर्य है पाप से, तथा “कट” का अर्थ है – खंडन करने वाला या हरण करने वाला. श्री वेंकटेश्वर तथा श्रीपाद श्रीवल्लभ वास्तविक रूप से एक ही हैं. वे अभिन्न हैं.”

तब मैंने कहा, “हे तिरुमलदास ! प्राचीन काल में विद्वज्जनों का ऐसा मत था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन कठोरता से किया जाए. परन्तु श्रीपाद प्रभु का मत इसके विपरीत था, ऐसा मैं समझा हूँ, कृपया मेरी इस शंका का समाधान करें.”

 

ब्राह्मणों के लक्षण

 

इस पर तिरुमलदास बोले, “अरे, यदि ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना जीवन बिताये, तभी वह सद्ब्राह्मण कहलाता है. निर्धारित धर्मं, कर्म का त्याग कर दुराचारी होने से वह दुष्ट ब्राह्मण बन जाएगा. उसके दुराचारों के बढ़ने पर यदि वह गोहत्या करने तथा गौ-माँस भक्षण करने पर प्रवृत्त हो जाए तो उसके भीतर का ब्राह्मणत्व विलुप्त होकर उसका ब्रह्म तेज पूरी तरह से क्षीण हो जाता है. उसके शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होकर वह चांडालत्व को प्राप्त होता है. उस अवस्था में वह ब्राह्मण नहीं हो सकता. क्षत्रिय यदि ब्रह्मज्ञान की आकांक्षा से निरंतर तपाचरण करे तो वह ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है. क्षत्रियों के शरीर में जन्मतः विद्यमान जीवन कणों में तपाचरण के परिणाम स्वरूप परिवर्तन होने पर, उसे ब्राह्मणत्व प्राप्त होता है. विश्वामित्र को इसी प्रकार ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ था. शनि ग्रह का तीन राशियों में, अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक भ्रमण होता है. उस अवधि में प्रत्येक मनुष्य के शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होता है. पुराने जीवन कणों का नाश होकर नूतन जीवन कणों का सृजन होता रहता है. मनुष्य इस बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता.

 

 

क्षत्रियों के लक्षण

 

क्षत्रिय यदि क्षात्र धर्म का त्याग करके शान्तिरस प्रधान धर्मों, जैसे कृषि, गो-सेवा, वाणिज्य, आदि का पालन करे और स्वकर्म छोड़ दे तो उसके भीतर का क्षात्र तेज बना नहीं रहता. उसके मन, बुद्धि एवँ शरीर में अनेक परिवर्तन घटित हो जाते हैं और वह वैश्यत्व को प्राप्त होता है. ब्राह्मण यदि क्षात्र धर्म का अवलंबन करे तो वह परशुराम के समान हो जाता है. प्राचीन काल में द्रोणाचार्य एवँ कृपाचार्य ने जन्म से ब्राह्मण होने पर भी क्या क्षात्र-धर्म का पालन नहीं किया था? कुसुम श्रेष्ठी ने वैश्य होते हुए भी क्या क्षत्रिय वृत्ति का अवलंबन नहीं किया था? जन्मतः शूद्र होते हुए भी क्या मुझे श्रीपाद प्रभु की कृपा से ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है? निरंतर तपाचरण से शूद्र भी वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण हो सकता है. केवल किसी एक वर्ण में जन्म लेने का यह अर्थ कदापि नहीं कि व्यक्ति यम-नियम, धर्म, शिक्षा का आचरण करे या न करे. बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्ण उसके शुभ कर्मों के फल के अनुसार निर्धारित होता है. जन्मतः शूद्र होते हुए भी मुझे अगला जन्म ब्राह्मण का प्राप्त हो सकता है. उसी प्रकार जो जन्म से ब्राह्मण है, उसे भी अगला जन्म शूद्र का प्राप्त हो सकता है. वर्ण-भेद की व्यवस्था सामाजिक कारणों से की गई. श्रीपाद प्रभु ने एक पर्याय दिया है कि परमात्मा का मुख ब्राह्मणत्व का, बाहू क्षत्रियत्व के, उरू (जंघा) वैश्यत्व का एवँ पाद शूद्रत्व के सूचक हैं. तुमने मेरे आतिथ्य का स्वीकार किया. मेरे घर का भोजन ब्राह्मण के घर का भोजन ही है.

 

 

कर्म – रहस्य

 

निरंतर श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण तथा ध्यान करने से इस परिसर का वातावरण शुभप्रद एवँ पवित्र स्पंदनों से परिपूरित है. नरसावधानी जन्मतः ब्राह्मण थे, फिर भी उनके घर में भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्पंदन विषपूरित होने के कारण वहां का वायुमंडल कलुषित हो गया था. इसी कारण श्रीपाद प्रभु ने उनके आदरातिथ्य को स्वीकार नहीं किया. इसके पीछे यही रहस्य था! किसी भी जीव को अपने परिणाम-क्रम से या विपरिणाम-क्रम से कर्मसूत्र के अनुसार जन्म लेने के लिए किसी न किसी वर्ण की आवश्यकता होती है. है ना? इसलिए वर्णाश्रम की योजना की गई. जॉन, जर्मनी देश का निवासी था, फिर भी उसके मन में ब्रह्मज्ञान की तीव्र जिज्ञासा थी. परिणाम-क्रम की अंतिम अवस्था में उसे कुरवपुर में श्रीपाद प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए और परम अनुग्रह की प्राप्ति हुई. नरसावधानी पीठिकापुर में होते हुए भी उन्हें यह जानने में अनेक वर्ष लग गए कि श्रीपाद प्रभु श्री दत्तात्रेय के अवतार हैं. यह जानने के पश्चात भी साधना-क्रम के बिना श्री दत्त प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होना असंभव है.

इस पर मैंने कहा, “स्वामी, आपके कथनानुसार प्रत्येक जीव-कण में परिवर्तन होता रहता है. तो क्या प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट आत्मा होता है? पार्वती देवी हिम पर्वत की कन्या हैं ऐसा कहा जाता है, इसके पीछे क्या कारण है?

इस पर तिरुमलदास बोले, “प्रत्येक जाति का एक आत्मा होता है. वह शक्ति-स्वरूप में विद्यमान रहता है. वह शक्ति श्री दत्त प्रभु से, जो दिव्यात्मा हैं, निकली है. इस शक्ति का परमात्मा के साथ निरंतर संबंध होने के कारण वह महाशक्ति है. ‘जाति’ इस शब्द का वह अर्थ नहीं है जो तुम समझ रहे हो. उसका तात्पर्य जीवित व्यक्ति में उपस्थित चैतन्यमय जीव-कणों से है. उसी प्रकार सामूहिक / सांघिक रूप में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के शक्ति – सामर्थ्य गुण-कण उसमें अंतर्लीन रहते हैं. इसी प्रकार प्रत्येक गाँव की, प्रत्येक शहर की, प्रत्येक राष्ट्र की एक आत्मा होती है. हम जहाँ रहते हैं, उस भूमि की भी आत्मा है. भूमि की जो अधिष्ठित देवता है, उसे हम भू-माता कहते हैं. उसकी आत्मा में परमात्मा का अंश होने के कारण वह मानसिक संबंध स्थापित करने वाली महाशक्ति है. उसी प्रकार हिम पर्वत की अधिष्ठित देवता शक्ति को ‘हिमवंत नाम से संबोधित किया जाता है. उस हिमवंत की पुत्री है, हेमवती. यदि यह माना जाए कि सर्वसाक्षी सूर्य भगवान के पुत्र हैं यमराज, तो इसका अर्थ यह हुआ कि वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार उन्हें न्याय प्रदान करके, पापियों को शिक्षा देने वाली देवता-शक्ति हैं.

संसार के समस्त प्राणी अपना-अपना कार्य करने के लिए सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं. आकाश में विराजमान सूर्य-बिंब से उसमें अधिष्ठित देवता-स्वरूप, देवतात्मा भिन्न है. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी तीस वर्ष की आयु में लुप्त हो जायेंगे, ऐसा मैंने तुमसे कहा था. वे ब्रह्माण्ड में उपस्थित अनंत कोटि अणु-रेणुओं में विलीन हो जायेंगे. वे सर्वान्तर्यामी हैं ना? फिर, ये ‘विलीन होने का क्या अर्थ है, तुम यह प्रश्न पूछ सकते हो. वे सर्वान्तर्यामी होने पर भी उनकी शक्ति के प्रभाव से थोड़ी दूर पर कोटि-कोटि ब्रह्मांड हैं. इन ब्रह्मांडों के परिभ्रमण को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से अपने शक्ति प्रभाव से उन ब्रह्मांडों को वे अपनी और आकर्षित करते हैं. संपूर्ण सृष्टि में परिणामी दशा में यदि कोई विपथ-गामी स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो श्री दत्तात्रेय का अवतार होता है. यह ज्ञात है कि चुम्बक लोहे को आकर्षित करता है, परन्तु यदि लोहे पर मलिनता का आवरण हो तो चुम्बक की आकर्षण शक्ति कम हो जाती है. मलिनता को हटाकर, सृष्टि के प्रत्येक अणु को आकर्षित करके, विश्व-परिणाम को नूतन दिशा प्रदान करने का संकल्प जब होता है, तब इस प्रकार के अवतार होते हैं.”

 

पंच कन्याओं का विवरण

 

 तब मैंने कहा, “स्वामी!

 “अहिल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, मंदोदरस्तथा।

पंचकन्याम् पठेन्नित्यम् महापातक नाशनम् ।।“ ऐसा कहते हैं. यह विषय मेरी समझ से परे है, अतः कृपया इसका विवरण करे,

इस पर तिरुमलदास बोले, “अहिल्या पर इंद्र मोहित हुआ था और उसे प्राप्त करने के लिए उसने माया का उपयोग किया. कुक्कुट का रूप धारण करके उसने बांग दी. गौतम ऋषि ने समझा कि सुबह हो गई है, अतः वे अपने अनुष्ठान हेतु बाहर गए. अहिल्या पतिव्रता थीं, अतः इंद्र उसे स्पर्श नहीं कर सकता था. देवशक्ति से सम्पन्न होने के कारण इंद्र देवता ने मायावी अहिल्या उत्पन्न करके उन्होंने समागम किया. मायावी अहिल्या के शरीर के जीवाणु इंद्र की तीव्र इच्छा के कारण उत्पन्न हुए थे. मायावी अहिल्या और इंद्र को उस अवस्था में देखकर गौतम ऋषि ने क्रोधित होकर उन दोनों को शाप दिया. अहिल्या बोली, “हे मुनिवर. आपने यह क्या कर दिया!” आध्यात्मिक दृष्टी से अहिल्या गौतम से उच्च स्तर पर थी, अहिल्या के शाप के कारण गौतम ऋषि बारह वर्षों तक भ्रमित अवस्था में रहे, तदनंतर शिवजी की उपासना करके स्वस्थ्य हुए. अहिल्या की मनोशक्ति जड़ हो जाने के कारण उसका शरीर भी जड़ होकर शिला के रूप में परिवर्तित हो गया. श्री रामचंद्र की चरण धूल से अहिल्या का शाप-विमोचन हुआ. इसलिए अहिल्या परम पवित्र है, यह जान लो.”

शाप ग्रस्त होकर इंद्र ने पञ्च पांडवों के रूप में जन्म लिया. पांच शरीर, पांच मन होने पर भी उनका जो आकार-आत्मा था वह एक ही था. यह एक विस्मयचकित करने वाला विषय है. शची देवी यज्ञकुंड से द्रौपदी के रूप में अवतरित हुईं. वे अयोनिजा हैं.   

वास्तविक सीता को अग्निदेव ने अपने भीतर छिपा लिया और मायावी सीता को रावण लंका ले गया. सीता के अग्नि प्रवेश करने पर उनका मायावी रूप लुप्त हो गया और वास्तविक सीता बाहर आईं. इसलिए सीता महा पतिव्रता है, यह सत्य है.

भूचक्र की बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र हैं. इन सत्ताईस नक्षत्रों की जो अधिष्ठित देवता है, उनका जन्म तारा देवी के रूप में हुआ. यौवनावस्था में तारा पर गुरू ग्रह के अधिष्ठित देवता, बृहस्पति मोहित हो गए और उन्होंने उससे विवाह कर लिया. वृद्ध पति युवा पत्नी को संतुष्ट नहीं कर सकता. यह विषय धर्मं के विरुद्ध है, इसलिए विवाह के समय ली गई शपथ का यदि उल्लंघन हो जाए तो कोई हानि नहीं है. तारा देवी के मन ने बृहस्पति को कभी भी पति के रूप में स्वीकार नहीं किया. तारा देवी के मन में अपने पति के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व बृहस्पति का था. वैसा न करने से सकल धर्मों के ज्ञाता बृहस्पति ने धर्म विरुद्ध आचरण किया. तारा देवी के शरीर के जीवाणुओं में उनकी मनोवृत्ति के अनुरूप परिवर्तन हुए. उनके मन में चन्द्रमा का रूप स्थिर हुआ, उनका ह्रदय चन्द्रमा के आधीन हो गया. इस प्रकार परिवर्तित हुई तारा देवी उस तारा देवी से भिन्न हैं, जिनका बृहस्पति से विवाह हुआ था. अतः तारा-चन्द्र का मिलन धर्म विरुद्ध नहीं है. सृष्टि के नियम के अनुसार सत्ताईस नक्षत्रों से होकर भ्रमण करना चन्द्र का धर्म है, गुरू ग्रह का नहीं. यदि गुरू ग्रह ऐसा करे, तो यह धर्म के विरुद्ध होगा. कोई भी कार्य धर्म के विरुद्ध करने से अधोगति प्राप्त होती है. अतः सत्ताईस नक्षत्रों की अधिष्ठित देवता तारा देवी, चन्द्र मंडल के अधिष्ठित देवता चन्द्र को प्राप्त हुई – यही धर्म है. बेटा! इस सूक्ष्म धर्म का अनुसरण करने वाली तारा देवी महा पतिव्रता है.

भीष्म जब शर-शैया पर थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर को हितोपदेश दिया था. भीष्म ने कहा था, “कुकर्म होते देखकर उसका यथासंभव विरोध करना चाहिए, अथवा जिस स्थान पर अधर्म हो रहा हो उस स्थान को त्याग देना चाहिए.” इस पर द्रौपदी हँस पडी. तब भीष्म बोले, “जिस समय द्रौपदी का मान भंग हुआ, उस समय का मेरा व्यवहार अनुचित था, क्योंकि उस समय मैं दुर्योधन के आश्रय में था. उसके अन्न के सेवन से मेरा रक्त कलुषित हो गया था तथा बुद्धि भ्रष्ठ हो गई थी. अब वह कलुषित रक्त मुझमें नहीं है. मेरी बुद्धि कल्मष रहित होकर मेरा ज्ञानोदय हो गया है.” 

परिणाम दशा में जीव अनेक जन्म लेता है, किसी जन्म में स्त्री के, तो किसी जन्म में पुरुष के रूप में अवतरित होता है. मानव रूप के अतिरिक्त वह पशु-पक्षियों आदि का भी जन्म लेता है. किसी जन्म में मंदोदरी पुरुष रूप में जन्मी थी. उस जन्म में उसकी तीन पत्नियां थीं – एक चंचल स्वभाव की, दूसरी दुष्ट स्वभाव की और तीसरी मृदु स्वभाव की. उस जन्म की चंचल स्वभाव वाली पत्नी ने वानर होकर बाली के रूप में जन्म लिया. दुष्ट स्वभाव की पत्नी ने राक्षस होकर रावण के रूप में जन्म लिया और मृदु स्वभाव की पत्नी का जन्म विभीषण के रूप में हुआ. उस जन्म में ये तीनों उसकी पत्नियाँ थे, तो इस जन्म में वह चंचल वृत्ति वाले बाली की पत्नी बनी, उससे उसने अंगद को जन्म दिया. तत्पश्चात दुष्ट प्रवृत्ति वाले रावण की भार्या बनी. रावण संहार के पश्चात मृदु स्वभाव वाले विभीषण की पटरानी बनी. अर्थात बाली की, रावण की तथा विभीषण की पत्नी होते हुए भी उसके शरीर के जीवाणु भिन्न-भिन्न थे. अतः मंदोदरी भी महापतिव्रता हुई!”

तब मैंने कहा, “स्वामी! स्त्री को एक ही पति, अथवा पुरुष को एक ही पत्नी होना चाहिए, ऐसा कहा जाता है. तो बहुभार्या अथवा बहुभर्तृत्व निंदनीय है ना?”

 

कर्मचक्र परिणाम

 

श्री तिरुमलदास बोले, “तुम ठीक कहते हो. कोई पुरुष यदि अकारण ही अपनी पत्नी को कष्ट पहुंचाता है तो वह सात जन्मों तक बाल-विधुर होता है. कोई पुरुष यदि चार–पाँच स्त्रियों से विवाह करता है, तो अगले जन्म में यह पुरुष स्त्री के रूप में जन्म लेता है और वे चार-पांच स्त्रियाँ, उनकी कामवासना एवँ संस्कार क्षीण न होने के कारण, पुरुष जन्म लेकर उस स्त्री का उपभोग करते हैं. एक जन्म में यदि ऐसा घटित हो, तो व्यभिचार का दोष होता है. परन्तु विविध जन्म लेकर, प्रत्येक जन्म में एक ही से विवाह करने पर यह दोष नहीं लगता. यह कालचक्र का प्रभाव है. ऐसी कितनी ही आश्चर्यजनक घटनाएँ इस महाचक्र में घटित होती रहती हैं. स्त्री जन्म प्राप्त होने पर उस जन्म के अनुकूल कर्माचरण करना चाहिए.”

“जो व्यक्ति पति-पत्नी के बीचा कलह उत्पन्न करता है, वह अगले जन्म में स्त्री अथवा पुरुष न होकर नपुंसक होता है एवँ संसार सुख से वंचित होकर दुखी होता है.

माँसाहार निषिद्ध है. कल्पना करो कि कोई व्यक्ति किसी बकरे को मारकर चार-पांच लोगों के साथ माँसाहार करता है. उस बकरे को प्राणोत्क्रमण के समय अत्यंत पीड़ा होती है, उसके पीड़ित स्पंदन वायुमण्डल में विचरण करते रहते हैं. बेटा! वायुमंडल में पीडामय तथा आनंदमय, दोनों प्रकार के स्पंदन विद्यमान रहते हैं. सत्कर्मों के परिणामस्वरूप आनंदमय स्पंदन एवँ दुष्कर्मों के कारण पीडामय स्पंदन उत्पन्न होते हैं. मृत बकरा उसे मारकर खाने वाले उन चार-पांच मानवों का प्रतिशोध लेने की भावना से प्राण त्यागता है, इस कारण वह मानव का जन्म ग्रहण करता है तथा उसका माँस भक्षण करने वाले मानवों का बकरे के रूप में जन्म होता है. अतः मानवों को क्षमा-गुणों को अपनाना चाहिए, सात्विक व्यक्ति के मन में बकरे को देखकर भी उसका माँस भक्षण करने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती. यदि वह बकरा पूर्व जन्म में उसे मारने वाले मनुष्यों को क्षमा करे तो उसे प्राणदान देने का पुण्य प्राप्त होकर उसका कर्मचक्र रुक जाता है.

पीठिकापुर के निवासियों का सामूहिक पुण्य तथा सामूहिक पाप एक ही समय में फलीभूत होने से वह श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के जन्म हेतु कारणीभूत हुआ. पुण्यवान लोग यह जानकर कि श्रीपाद प्रभु श्री दत्त प्रभु हैं और अधिक पुण्यफल प्राप्त करते रहे, जबकि पापी जन श्रीपाद स्वामी के श्री दत्त प्रभु होने को नकार कर अधिक पाप के भागीदार बने. श्री दत्तात्रेय की आराधना करते हुए श्रीपाद स्वामी की निंदा करने वालों को रौरवादी नरक की प्राप्ति होती है. यदि किसी विषय को समझाने में कोई व्यक्ति असमर्थ हो, तो उसके लिए मौन धारण करना ही उचित है. परन्तु उस दिव्य, भव्य, मंगल स्वरूप की निंदा करना उचित नहीं. उनके मुख की मंगलारती करके पैरों में कीलें ठोंकने वाले, ऐसे लोग व्याधिग्रस्त होंगे. इतना ही नहीं, श्री दत्तात्रेय प्रभु ने अपने अनुग्रह से एक विचित्र योग शक्ति का समावेष किया. पुण्यवान जनों के केवल नामस्मरण करने से सकल मनोरथ पूरे हो जाते, जबकि श्रीपाद प्रभु की निंदा करने के कारण पापीजनों पर नाना प्रकार के विघ्नों एवँ अनिष्टों का पहाड़ टूट पड़ता.

श्रीपाद स्वामी का स्वरूप अग्नि स्वरूप है. उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह अग्नि वस्त्र है. वे पवित्र योगाग्नि स्वरूप हैं. उनकी चरण पादुकाओं की महिमा का वर्णन करने में अनेकानेक युग भी कम ही हैं. वेद-उपनिषद् भी  उनकी चरण पादुकाओं की महिमा का वर्णन करने में असमर्थ हैं. कितने युग बीत गए! कितने कल्प बीत गए! कितनी बार सृष्टि, स्थिति, लय के क्रम पूर्ण हुए! परन्तु श्री दत्तात्रेय, श्री दत्तात्रेय ही हैं. वे अद्वितीय हैं, वे साक्षात श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं! सृष्टि का प्रत्येक अणु इस परम सत्य का साक्षी है.

 

स्वयंभू दत्तात्रेय की पुनः प्रतिष्ठा.

 

श्री पीठिकापुर में एक अवधूत का आगमन हुआ. वे उन्मत्त अवस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष थे. उनका व्यवहार बड़ा विचित्र था. यदि किसी को आशीर्वाद देते, तो उस पर गालियों की बौछार करते. ऐसा विचित्र था उनका स्वभाव! यदि किसी की स्तुति करते, तो उस व्यक्ति का पुण्य क्षीण हो जाता.

पीठिकापुरवासियों ने उस सिद्ध से पूछा कि स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती कहां है, तब वे बोले कि श्री दत्तात्रेय सकल पुण्य क्षेत्रों में स्नान करने के पश्चात इस समय एक नदी में हैं. भक्तों ने ढूँढने का खूब प्रयत्न किया, तब एक नदी में स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती मिली. एक शुभ मुहूर्त पर उस मूर्ती की पुनः प्रतिष्ठा सर्व मंगलप्रद सुमति महारानी एवँ ब्रह्मतेज से युक्त श्री अप्पलराज शर्मा ने की. उस महोत्सव की यजमानी कर रहे थे श्री बापन्नार्य.

 

विद्यायरण्यों का प्रकटन

 

मंदिर में मूर्ति की पुनःप्रतिष्ठा जिस दिन हुई, उस दिन श्री बापन्नार्य ने उस सिद्ध पुरुष को अपने घर भिक्षा हेतु आने की प्रार्थना की. नानाजी के घर उस सिद्ध योगी को श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. केवल दो वर्ष के उस बालक को देखकर उस सिद्ध पुरुष के मन में पुत्र-वात्सल्य की भावना हुई. श्रीपाद प्रभु अपने मामा के कंधे पर बैठकर उनकी शिखा से खेलते हुए, सिद्ध की और देखकर हँसे. वह हास्य देखकर सिद्ध योगी तत्क्षण समाधिस्त हो गए. समाधि से निकलने पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माधवा! तेरी इच्छा के अनुसार हिन्दू राज्य की स्थापना, मेरी आयु १६ वर्ष की होने पर, करेंगे. तुझे हरिहर-बुक्कराय के साथ हमेशा रहना होगा. तुम विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होगे. तुम्हारे भाई सायणाचार्य के वंश में आगामी शताब्दी में गोविन्द दीक्षित का जन्म होगा. वह गोविन्द दीक्षित कोई और नहीं, अपितु तू ही होगा! राजर्षि होकर तंजावूर संस्थान में महामंत्री पद का भार संभाल कर कृतकृत्य हो जाओगे.”

यह सुनकर सिद्ध योगी के नेत्रों से आनंदाश्रू बहने लगे, उन्होंने श्रीपाद प्रभु को अपने पास लिया. इतने में श्रीपाद प्रभु ने उस सिद्ध योगी के चरणों में प्रणाम किया. सिद्ध योगी के आश्चर्य प्रकट करते ही श्रीपाद प्रभु बोले, “तुम विद्यारण्य के नाम से श्रुंगेरी के पीठाधिपति बनोगे. तुम्हारी शिष्य परंपरा में तीसरे शिष्य कृष्ण सरस्वति भी तुम ही होगे. तुम्हारे मन में मेरे प्रति पुत्र भाव उत्पन्न हुआ, अतः नृसिंह सरस्वति के नाम से होने वाले मेरे अगले अवतार में, काशी क्षेत्र में कृष्ण सरस्वति के रूप में तुम मुझे संन्यास दीक्षा दोगे. तुम संन्यास धर्म का उद्धार करोगे. इसके साक्षी होंगे श्री काशी विश्वेश्वर एवँ माता अन्नपूर्णा.

वशिष्ठ शक्ति पराशर त्र्यार्षेय (प्रवरान्वित) पाराशर गोत्रोद्भव् ऋग्वेदान्तर्गत, वाजपेययाजी माधवाचार्य विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होंगे. बेटा! कल तुझे कुछ और चरित्र-महिमा सुनाऊंगा,

इतना कहकर तिरुमलदास ने उस दिन का निरूपण वहीं समाप्त किया.

 

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जयजयकार हो।।

गुरुवार, 24 मार्च 2022

अध्याय - ७

 

 

“श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये.”


अध्याय ७


खगोल वर्णन


श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत की महिमा

 

प्रातः काल नित्य कर्म से निवृत्त होकर श्री तिरुमलदास ने कहना आरम्भ किया. वे बोले, “अरे, शंकर भट्ट! श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का दिव्य चरित्र अद्भुत्, अतर्क्य और अपूर्व है. तुझ पर उनका अपार स्नेह होने के कारण उनके दिव्य चरित्र को लिखने का महद्भाग्य तुझे प्राप्त हुआ है. ऐसा यह दिव्य अवसर प्रभु की इच्छा से तुझे मिला है.”

 

श्रीपाद प्रभु का एक ही समय में अनेक स्थानों पर प्रकट होना.

 “नरसावधानी मृत्यु के मुख से बाहर लौटकर आये, तत्पश्चात उनके भीतर की आकर्षण शक्ति क्षीण होती गई. पहले साधना करते समय वे जिस मनुष्य का ध्यान किया करते, वह कितनी ही दूर क्यों न हो, फिर भी आकर्षित होकर उनके निकट आ जाया करता. वह शक्ति भी अब मंद हो गई थी. जो लोग पहले उनसे डरते थे, उन्हें अब बिल्कुल भी नरसावधानी का डर न लगता. समय-असमय उनका उपहास करके उन्हें दुख पहुँचाते. उनकी आर्थिक स्थिति भी कमजोर हो गई थी. कभी-कभी तो दो वक्त का भोजन भी नसीब न होता. ऐसी कष्टप्रद अवस्था में वे आक्रोश करते हुए घर से बाहर आए. उस समय महाचार्य बापन्नाचार्युलु अपने पोते को गोद में लेकर अपने घर की और जा रहे थे. राज शर्मा के घर से मुड़ने पर जो मार्ग आता था, वह सीधा बापन्नाचार्युलु के घर की ओर जाता था. श्रीपाद प्रभु बचपन में अपने घर की अपेक्षा अपने नाना के घर ही अधिक रहा करते. श्री नरसिंह वर्मा और श्री वेंकटप्पा श्रेष्ठी के घर भी स्वेच्छा से जाते. नरसावधानी के मन में विचार आया कि श्रीपाद स्वामी से बातें करें. उस स्वस्थ्य एवँ मोहक तथा लाडले दिव्य बालक को कम से कम एक बार तो गोद में लेकर उसका लाड़ करें, ऐसी इच्छा मन में जागी. नरसावधानी की दृष्टी प्रभु पर पड़ी. श्रीपाद प्रभु ने नरसावधानी की और देखकर मंद स्मित किया. वह स्मित हास्य अत्यंत मोहक था. नरसावधानी भिक्षा माँगने श्रेष्ठी के घर गए. वहाँ उन्हें श्रेष्ठी की गोद में खेल रहे श्रीपाद स्वामी दिखाई दिए. नरसावधानी की और देखकर श्रीपाद प्रभु शरारत से हँसे. नरसावधानी भिक्षा लेकर नरसिंह वर्मा के घर गए, वहाँ उन्हें श्रीपाद प्रभु नरसिंह वर्मा के कंधे पर खेलते दिखाई दिए. नरसावधानी की और देखकर श्रीपाद प्रभु फिर से शरारत से हँसे. एक ही समय में बालक श्रीपाद श्रेष्ठी के घर, वर्मा के घर और नाना जी बापन्नाचार्युलू के घर उपस्थित थे. नरसावधानी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या है. क्या यह स्वप्न है? अथवा विष्णुमाया है?

गाँव के लोग नरसावधानी को सताने लगे. पादगया क्षेत्र की स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती गायब होने के पीछे नरसावधानी का ही हाथ है, ऐसी निन्दा करने लगे. इस लोकनिन्दा से पीड़ित होकर नरसावधानी पागल के समान घर लौटे. उन्हें इस अवस्था में देखकर उनकी पत्नी अत्यंत दुःखी हो गई. अपने मन की व्यथा प्रकट करने के लिए वह पूजाघर में गई. तब उसने जो दृश्य देखा, वह अद्भुत था. उनके पूजागृह में श्रीपाद स्वामी बैठे हुए थे. उन्हें देखकर उन पति-पत्नी को अत्यंत प्रसन्नता हुई. उन दोनों ने श्रीपाद स्वामी से राजगिरे के साग का भोजन करने की प्रार्थना की, परन्तु श्रीपाद स्वामी ने इनकार कर दिया. काल, कर्म और कारण इन तीनों का एक ही समय में संयोग होने से ऐसी अलभ्य संधि प्राप्त होती है. विवेकवंत ऐसी संधि का लाभ उठाते हैं, जबकि अविवेकी उस लाभ से वंचित रह जाते हैं. श्रीपाद प्रभु ने पति-पत्नी की विनती को स्वीकार किया, परन्तु वह स्वीकारोक्ति इस जन्म के लिए न होकर अगले जन्म के लिए थी. अगले जन्म में वे महाराष्ट्र की पुण्य भूमि में श्री नृसिंह सरस्वती के अवतार में उनके घर भोजन के लिए अवश्य आयेंगे, ऐसा उन्होंने वचन दिया. एक बार सूर्य अथवा चन्द्रमा की गति बदलना चाहे संभव हो सके, परन्तु प्रभु के वचनों के विरुद्ध आचरण करना पंचभूतों सहित किसी भी प्राणी के लिए संभव नहीं है. दुनिया चाहे उलट-पुलट हो जाए, युग चाहे बदल जाएँ, फिर भी श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ नित्य, सत्य एवँ नूतन हैं. पूजाघर में बैठकर श्रीपाद प्रभु ने नरसावधानी और उनकी पत्नी को हितोपदेषा दिया. यह हितोपदेश दत्त-भक्तों के लिए अत्यंत उपयोगी है .

 

नरसावधानी तथा श्रीपाद श्रीवल्लभ के बीच हुआ संवाद एवं श्रीपाद प्रभु का उपदेश

  

प्रश्न: -  तू कौन है? देवता? यक्ष? मान्त्रिक?     

उत्तर:- मैं. मैं ही हूँ. पंचभूतात्मक सुष्टि के अणु-अणु में विद्यमान जो अदृश्य शक्ति है, वह मैं ही हूँ. पशु-पक्षियों समेत समस्त प्राणिमात्र में मातृ तथा पितृ स्वरूप में जो स्थित है, वह मैं ही हूँ. समूची सृष्टि का गुरुस्वरूप भी मैं ही हूँ.

 प्रश्न: -  क्या तुम दत्त प्रभु के अवतार हो?

उत्तर:-  निःसंशय मैं ही दत्तात्रेय हूँ. तुम शरीरधारी मुझे पहचान सको, इसीलिये मैंने शरीर धारण किया है. वास्तव में मैं निराकार एवँ निर्गुण हूँ.

प्रश्न – इसका मतलब यही ना, कि तुम्हारा कोई आकार तथा गुण नहीं है?

उत्तर – निराकारिता भी एक आकार ही है. इसी प्रकार निर्गुण होना भी एक गुण है. साकार तथा निराकार, सगुण एवँ निर्गुण - इनका आधार मैं ही हूँ और यह जान लो, कि उससे भी परे हूँ.

प्रश्न – जब तुम सर्वस्व हो तो प्राणिमात्र को सुख-दुख क्यों प्राप्त होते हैं?

उत्तर – तुम्हारे भीतर स्थित “तू” जीव है और तुम्हारे भीतर का “मैं” परमात्मा है. जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना है, ताबा तक “तू” “मैं” नहीं हो सकता, जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना रहेगी, तब तक सुख-दुख, पाप-पुण्य जैसे द्वंद्वों से तुझे मुक्ति नहीं मिल सकती. जब तेरे भीतर का “तू” नष्ट होकर तेरे भीतर का “मैं” उच्च दशा में होगा, तब तू मेरे निकट होगा. जैसे-जैसे तू मेरे निकट आयेगा, वैसे-वैसे तू सुख-दुख, पापा-पुण्य के द्वंद्व से मुक्त हो जाएगा. मेरे आश्रय में आने पर सुखी और सम्पन्न होगा.

प्रश्न – कुछ लोग कहते हैं कि जीवात्मा एवं परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं, कुछ कहते हैं कि जीवात्मा तथा परमात्मा में घनिष्ठ सम्बन्ध है, तो कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जीव ही परमात्मा है. सत्य क्या है?

उत्तर – तू और मैं अलग-अलग हैं, ऐसी भिन्नता की भावना में कोई हानि नहीं. तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होने पर हम दोनों के द्वैत स्थिति में होने पर भी आनंद की प्राप्ति होगी. मेरे अनुग्रह के कारण ही सब कुछ घटित होता है, तू केवल निमित्त मात्र है, इस सिद्धांत का अनुसरण करने पर भी आनंद की स्थिति प्राप्त कर लोगे. मोह का नाश होने पर द्वैत स्थिति में होते हुए भी तुम मोक्ष सिद्धि प्राप्त कर लोगे. जब तुझमें और मुझमें अत्यंत सामीप्य की स्थिति होती है, तब तुम्हारे द्वारा मैं स्वयं को व्यक्त करता हूँ. मेरी सारी शक्ति तेरे माध्यम से अभिव्यक्त होने की स्थिति में, तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होकर, मोहक्षय होने के फलस्वरूप इस विशिष्ठ अद्वैत स्थिति में भी आनंद की प्राप्ति होगी. मोह न होने के कारण यह भी मोक्ष की ही स्थिति है. तेरे भीतर का अहंकार पूरी तरह नष्ट होने पर, कर्तृत्व की भावना समाप्त हो जायेगी. तेरे भीतर का “तू” न रहकर केवल “मैं” होने की उस स्थिति में मन की कल्पना से आकलन न होने वाले ब्रह्मानंद का अनुभव करता रहता है. इसलिए, अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष को प्राप्त कर सकता है. द्वैत स्थिति में होने पर भी विशिष्ठ द्वैत अथवा अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष स्थिति / ब्रह्मानंद स्थिति वही रहती है. वह मन एवं वाचा के लिए अगोचर है. उसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है.

प्रश्न – अवधूत स्थिति में रहने वाले कुछ व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म कहते हैं, तो क्या तुम अवधूत हो?

उत्तर – नहीं, मैं अवधूता नहीं, मैं ब्रह्म हूँ. और अवधूतों का यह अनुभव है कि ब्रह्म सर्वस्व है, तो मैं ब्रह्म हूँ और सर्वान्तरयामी हूँ.

प्रश्न – फिर भी इस अल्प से भेद का रहस्य समझ में नहीं आया.

उत्तर – संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो चुके अवधूत मुझमें लीन होकर ब्रह्मानंद सुख का अनुभव प्राप्त करते हैं. उनका व्यक्तित्व नहीं होता. व्यक्तित्व न होने के कारण वे संकल्प रहित होते हैं. इस सृष्टि के महासंकल्प में, महाशक्ति में मैं हूँ. जीव कहलाने वाली मायाशक्ति में भी मैं हूँ. मुझमें लीन  हो चुके अवधूता भी “तुम दुबारा जन्म लो”, ऐसी मेरी आज्ञा होने पर जन्म लेने को बाध्य हैं.

मेरा स्वसंकल्पयुक्त सत्य – ज्ञानानंद है, तो उनका स्वरूप है संकल्प रहित सत्य – ज्ञानानन्द का.

प्रश्न – बीज को यदि भूना जाए तो वह अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्रह्ममय हो चुके प्राणियों का दुबारा जन्म लेना कैसे संभव है?

उत्तर – भुने हुए बीजों का पुनः अंकुरण न होना सृष्टि का धर्म है. भुने हुए बीजों को पुनः अंकुरित करना सृष्टिकर्ता की शक्ति सामर्थ्य है. वास्तव में देखा जाए तो मेरा अवतार इस सिद्धांत के द्वारा सत्यधर्म का निरुपण करने से पहले हुआ है.

प्रश्न – दत्त प्रभु! श्रीपाद स्वामी! कृपया विवरण दें.

उत्तर – भूत, भविष्य, वर्त्तमान – इस त्रिकाल का, उसी प्रकार सृष्टि, स्थिति, लय – त्रि अवस्थाओं का अतिक्रमण करके (उनके पार जाकर) पिता अत्रि महर्षि प्रसिद्ध हुए. सृष्टि के किसी भी जीव के प्रति अथवा किसी भी वस्तु के प्रति असूया, द्वेश का लेशमात्र ह्रदय में न होने से माता अनुसूया विख्यात हुईं. ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र, इनका जो आधार तथा अतीत है, उस परम ज्योति स्वरूप के दर्शन प्राप्त करने के उद्देश्य से अत्रि महर्षी ने घोर तपस्या की. परम ज्योति स्वरूप परमात्मा अपनी अमृतमय दृष्टी से सृष्टि के प्रत्येक प्राणिमात्र एवं वस्तु को देखकर उन पर अनुग्रह करें, इस हेतु से अनुसूया माँ ने तपाचरण किया था. कर्मसूत्रों के अनुसार पाप-पुण्य के अनुसार दुःख-सुख प्राप्त होता है. माता अनुसूया इस संकल्प से प्रार्थना करती थीं, कि महापाप का फल स्वल्प हो, तथा स्वल्प पुण्य का फल अधिक हो. माता अनुसूया ने अपने तपोबल से कठोर लौह खण्डों का सजीव एवं खाने योग्य चनों में रूपांतर किया. खनिज पदार्थों में चैतन्य निद्रित अवस्था में रहता है, तरु-गुल्मादी में वह अर्ध निद्रित अवस्था में रहता है, पशुओं में वह पूर्ण चैतन्य की स्थिति में होता है. खनिज के रूप में जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात वृक्ष आदि का जन्म लेकर, तदनंतर पशु का जन्म प्राप्त करके, अंत में मनुष्य योनी में जन्म लेने वाले मानव को विवेक पूर्ण, ज्ञानवान और वैराग्यवंत होकर उसके भीतर सुप्त अवस्था में पड़ी परमात्म शक्ति को जागृत करके मोक्ष प्राप्त करना चाहिए. माता अनुसूया ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकृति के परिणाम क्रम का धर्म परमात्मा के अनुग्रह से बदल सकता है. उन्होंने  त्रिमूर्ति के रूप में होने के कारण जो चैतन्य जागृत अवस्था में था, उसे निद्रावस्था में परिवर्तित करके उन्हें नन्हें बालकों का रूप दिया. त्रिमूर्ति की शक्तियों ने एकत्रित होकर अनघा देवी का रूप धारण किया. दत्तात्रेय का अवतार लेकर उन्होंने अनघा देवी को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया. श्रीपाद श्रीवल्लभावतारी, वामांग में अनघा देवी तथा दक्षिणांग में दत्तात्रेय, ऐसे अर्धनारीश्वर रूप में प्रभु का जन्म हुआ. ऐसे, महोत्तर सृष्टि का केवल संकल्प मात्र से सृजन करने की शक्ति सामर्थ्य रखने वाले प्रभु के लिए आवश्यकतानुसार सृष्टि धर्म में परिवर्तन लाना सहज संभव है, यह तू जान ले.

प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! सृष्टि-धर्म में परिवर्तन लाने की सामर्थ्य रखने वाले तुम क्या मेरे दारिद्र्य का हरण नहीं कर सकते?

उत्तर – तेरे दारिद्र्य का हरण अवश्य करूँगा , परन्तु तेरे अगले जन्म में जब तुम थोड़े से दारिद्र्य-दुःख का अनुभव कर चुके होगे. राजगिरे का विषय बहुत क्षुद्र था, फिर भी तुझे राजगिरे का इतना मोह था. मैंने माता, पिता अथवा नानाजी से नहीं माँगा था. मेरे जितने बालक का आहार था ही कितना! राजगिरे की इच्छा होते ही यदि तूने मुझे वह दे दिया होता, तो आज की परिस्थिति उत्पन्न न हुई होती. मगर अब वह समय बीत चुका है. तेरे मनो-मालिन्य को दूर करने के लिए यह जन्म पर्याप्त नहीं है. प्रत्येक मनुष्य को अपने पुण्य का फल आयुष्य, ऐश्वर्य, कीर्ति, धन, सौन्दर्य आदि रूपों में प्राप्त होता है. पापों का फल प्राप्त होता है दारिद्र्य, अल्पायुष्य, कुरूपता, कुख्याति आदि के रूप में. तेरे पुण्य का अधिकांश निकाल कर तुझे जीवन प्रदान किया, जिससे तेरा पुण्य खर्च हो गया. अब तेरे पास पाप अधिक होने के कारण दारिद्र्य तो भोगना ही होगा. फिर भी, स्वयंभू दत्तात्रेय की आराधना के फलस्वरूप, दारिद्र्य रहने पर भी दो जून की रोटी तुझे मिलती रहेगी, ऐसा मेरा तुझे आशीर्वाद है.

प्रश्न – हे श्रीपाद प्रभु! शास्त्रों का मत है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आचरण किया जाए. आपके नाना जी ने यह निर्णय दिया, कि वैश्यों का भी वेदोक्त पद्धति से उपनयन करना संभव होगा. क्या वह  निर्णय गलत नहीं है?

उत्तर – सत्यऋषीश्वर के निर्णय में खोट ढूँढने का प्रयत्न करने के कारण तेरी जिह्वा ही काट देनी चाहिए. नाना जी को तू क्या समझता है? वे साक्षात भास्कराचार्य हैं! विष्णुदत्त एवं सुशीला, जो स्वार्थ की परिभाषा भी न जानने वाले परम पवित्र दंपत्ति थे, उन्हें ‘मेरे माता-पिता के रूप में जन्म दो’ ऐसा आदेश मैंने काल देवता एवँ कर्म देवता को दिया. नरसिंह वर्मा के पूर्वज श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी के  अनन्य भक्त थे, सिंहाचल क्षेत्र में आयोजित होने वाले याग-यज्ञ में विशिष्ट अन्न-दान करने वाले पवित्र कुल के हैं. पीठिकापुर में मेरे जन्म लेने से पूर्व एक क्रम पद्धति से इस घटना को घटित करवाया. इन तीनों परिवारों से मेरे ऋणानुबंध है, उन्हें एक जन्म में नहीं चुकाया जा सकता या एक अवतार की कालावधि में उन्हें समाप्त भी नहीं किया जा सकता। मेरा वरदहस्त उन पर वंशानुवंश रहेगा। मेरी छात्र-छाया में वे निश्चित रूप से रहेंगे।

 

भक्तों को श्रीपाद प्रभु का अभय वचन

 

अब यदि मेरे विषय में कहा जाए, तो कोई भी मूल्य न रखने वाला राजगिरा तू मुझे न दे सका. मेरे भोजन करने से लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने का फल तुझे प्राप्त होता. तू वास्तव में बड़ा दुर्दैवी है. धर्म क्या है, अधर्म क्या है, यदि इस विषय पर मतभेद हो तो शास्त्रों का आधार लेना चाहिए. शास्त्रों के अनुसार आचरण करना चाहिए, अथवा नहीं, इस प्रश्न पर यदि मीमांसा हो रही हो तो निर्मल अंतःकरण युक्त सत्पुरुष का वचन ही शास्त्र सिद्ध होगा. वे जो कह देंगे, वह वेदवाक्य समान, धर्म सम्मत कथन होगा. वे यदि अधर्मपूर्ण निर्णय देने का प्रयत्न करेंगे, तो धर्म देवता उन्हें अधर्म के मार्ग से परावृत्त करके धर्म सम्मत निर्णय लेने पर बाध्य करती है. हिंसाचार पाप है, ऐसा शास्त्रों का मत है, परन्तु श्रीकृष्ण परमात्मा के सम्मुख हुआ युद्ध धर्मयुद्ध था. कौरव-पांडवों का युद्ध धर्मयुद्ध और युद्ध स्थल धर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ. यज्ञ पुण्यफल दायक है। परंतु, परमात्मा के स्वरूप शिव का आवाहन किए बिना आयोजित दक्ष का यज्ञ अंत में युद्ध में परिवर्तित हो गया, अतः उसे अज का सिर लगाना पड़ा. यदि रोगी को पित्त का प्रकोप हो तो वैद्य उसका उपचार नींबू, आँवला आदि से करता है. शरीर का कोई अवयव यदि सड़ जाए तो उसे शस्त्र से छेदकर रोग का निदान करता है. मैं भी वैसा ही हूँ. मुझमें जिस प्रकार देवताओं के अंश हैं, उसी प्रकार दानवों के अंश भी हैं. मैं उन्मत्त के समान, राक्षस के समान, पिशाच्च के समान भी व्यवहार करता हूँ. मेरे भीतर जीवों के प्रति अत्यंत करुणा होने के कारण, मैं तुम्हारे स्वभाव, तुम्हारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार वर्तन करता हूँ. अनन्य भाव से मेरी शरण में आये भक्तों का हाथ मैं छोड़ता नहीं. दूर देश में स्थित मेरे भक्त को मैं मेरे क्षेत्र में लाता हूँ. ऋषियों का कुल और नदियों का मूल पूछा नहीं जाता. क्या आदि पराशक्ति कन्यका परमेश्वरी वैश्य कुल में अवतरित नहीं हुई? सिद्ध मुनियों में क्या वैश्य मुनि नहीं हैं?

न केवल ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य, अपितु यदि शूद्र भी निष्ठा पूर्वक नियम धर्मों का पालन करता है तो वह वेदोक्त पद्धति से उपनयन का अधिकारी है. उपनयन संस्कार में तीसरा नेत्र (ज्ञान नेत्र) खोलना चाहिए. अन्तःकरण शुद्ध होकर मन ब्रह्मज्ञान में मग्न हो जाना चाहिए. तेरा मन तो साग के ज्ञान में पूरी तरह मगन है. ब्रह्म क्या बाज़ार में बिकने वाली वस्तु है? इस जन्म में जिसने ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया है, वह अगले जन्म में चांडाल के रूप में जन्म ले सकता है. उसी प्रकार इस जन्म में चांडाल के रूप में जन्मा व्यक्ति अगले जन्म में ब्राह्मण के रूप में जन्म ले सकता है.

ब्रह्म वह रहस्य है, जो कुल, मत, देश, काल से परे है, ऐसा तू जान ले.

देवता भावप्रिय है, बाह्य प्रिय नहीं है. तेरे ह्रदय के भावों के अनुसार दैव कार्य करता है. ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते समय मैं ब्राह्मण हूँ. भक्तों के योग क्षेम एवँ उन पर अनुग्रह करने के लिए जब मैं दरबार में रहता हूँ, तब क्षत्रिय हूँ. प्रत्येक जीव अपने-अपने पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार फल पाता है. हरेक जीव का लेखा-जोखा मेरे पास है. नाप-तौल करके पाप-पुण्य के फल को बाँटते समय मैं वैश्य हूँ. भक्तों के कष्ट अपने शरीर पर सहन करके उन्हें सुख-शान्ति प्रदान करने का सेवा-धर्म जब मैं ग्रहण करता हूँ, तब मैं शूद्र होता हूँ. जीव मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात, चिताग्नि देकर उसके शरीर को भस्म करके जब उसे उत्तम गति देता हूँ, तब मैं डोम होता हूँ. अब तू मुझे बता, मैं किस कुल का हूँ?

प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! क्षमा करें, मैं अज्ञानी हूँ, आप साक्षात दत्त प्रभु हैं. समस्त जीवों का आधार आप ही हैं. वास्तव में इस सृष्टि की रचना किस प्रकार हुई इसका वर्णन करके मुझे कृतार्थ करें.

 

लोकालोक वर्णन

 

उत्तर – नाना जी, स्वर्ग में ८८ हज़ार गृहस्थ मुनियों का वास है. पुनरावृत्ति होना उनका धर्म है, और वे धर्म प्रचार हेतु बीज रूप में विद्यमान रहते हैं. परमात्मा की अनिर्वचनीय शक्ति के एक अत्यंत अल्प अंश से जगत-सृष्टि करने के उद्देश्य से ब्रह्मदेव की उत्पत्ति हुई. परमात्मा से फिर क्रमानुसार सर्वव्यापी जल का निर्माण हुआ. परमात्मा के तेज से उस जल में करोड़ों सुवर्ण कांति युक्त अंड उत्पन्न हुए. उन अण्डों में, एक अंड है – ब्रह्मांड, जिस पर हम रहते हैं. इसका भीतरी भाग अंधकारमय है, वहाँ परमात्मा का तेज मूर्तिमंत होने से अनिरुद्ध नाम प्रख्यात हुआ. उस अंड के भीतर का अन्धकार परमात्मा ने अपने तेज से नष्ट किया. वेदों ने उनका वर्णन हिरण्यगर्भ, सूर्य, सविता, परंज्योति जैसे अनेक नामों से किया है. त्रेता युग में पीठिकापुर में भारद्वाज महर्षि ने, एक करोड़ ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाले दत्तात्रेय के तेज को संबोधित करते हुए सवितृ-काठक यज्ञ का आयोजन किया था. सत्य लोक में निरामय स्थान नामक एक स्थान है. यहाँ त्रिखंडीय सोपानों में वासु, रुद्रादित्य नाम से पितृगणों का वास है. वे निरामय स्थान के संरक्षक के रूप में कार्यरत रहते है. कारण-ब्रह्मलोक कहलाने वाले इस स्थान में चतुर्मुख ब्रह्मा का निवास स्थान है. उसे विद्यास्थान अथवा मूल प्रकृति स्थान के रूप में जाना जाता है. उस पर प्रख्यात ऐसा श्रीनगर है. उसके ऊपर महाकैलाश, उसके ऊपर कारण-वैकुंठ है. सत्यलोक में पुराणपुर नामक विद्याधर स्थान है. तपोलोक में अंजनापतिपुर में साध्यों का वास है. जनलोक में अंबावतिपुर में सनक सनंदनादि ऋषियों का वास है. महर्लोक में ज्योतिष्मतिपुर में सिद्धादी गणों का वास है. स्वर्गलोक में अमरावतिपुर में देवेंद्रादी देवता गणों का वास है. खगोल से संबंधित गृह-नक्षत्रों वाले भुवर्लोक में रथन्तरपुर में विश्वकर्मा नामक देव-शिल्पी का वास है. नाना जी! भूलोक के दो भाग हैं. एक भाग में मानव निवास करते हैं, इसे भूगोल कहते हैं. इसके अतिरिक्त जो दूसरा भाग है, उसे महाभूमि कहते हैं. यह महाभूमि भूगोलक के दक्षिण में पाँच करोड़ ब्रह्मांड योजन दूर स्थित है. मर्त्यलोक से तात्पर्य है – भूलोक एवँ भुवर्लोक से. इसमें महाभूमि का भी समावेश है. पाताल में अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल. यह सात प्रकार के लोक हैं. संक्षेप में इन्हें स्वर्ग, मर्त्य, पाताल कहते हैं.

हम जहाँ रहते हैं, उस भूगोल के नीचे की और महाभूमि है, जिसका मध्यवर्ती भाग ऊपर उठा हुआ है और चक्राकार है. इसलिए उसके ऊपरी तल पर सूर्य-चन्द्र सदैव प्रकाशित होते रहते हैं. सदा प्रकाशित होने के कारण यहाँ कालमान संबंधी निर्णय नहीं है. इस महाभूमि पर सप्त समुद्र एवँ सप्त द्वीप हैं. जम्बुद्वीप इसी महाभूमि पर है. भूलोक तथा भुवर्लोक दोनों को संयुक्त रूप से मर्त्यलोक कहा जाता है. भूलोक में महाभूमि तथा भूगोल - ये दो प्रकार हैं.

सृष्टि के आरंभ में समस्त लोक जलमय थे. प्रजापति ने सृष्टि-रचना करने के उद्देश्य से तपाचरण किया, तब जल पर तैरते हुए पुष्कर पर्ण के दर्शन हुए. प्रजापति ने वराह रूप धारण करके पुष्कर पर्ण के निकट जल में दुबकी लगाई. वहाँ नीचे उसे महाभूमि दिखाई दी. वहाँ से थोड़ी गीली मिट्टी निकालकर अपने तीक्ष्ण नुकीले दाँतो से उसने उस मृत्तिका के दो भाग किये. एक भाग तल के ऊपर लाकर पुष्कर पर्ण पर रखा, जो “पृथ्वी” बना.                                             

नानाजी! इसे भूगोल कहते हैं. महाभूमि से भूगोल तक की दूरी ५ करोड़ ब्रह्मांड-योजन है. महाभूमि का विस्तार ५० कोटि योजन है. जम्बुद्वीप इसी महाभूमि पर है. इसमें नौ खंड हैं. देवखण्ड देवताओं का तथा गभस्त्य खण्ड भूतों का निवास है. पुरुष खण्ड में किन्नर, भरत खण्ड में मानव, शरभ खण्ड में सिद्ध, गन्धर्व खण्ड में गन्धर्व, ताम्र खण्ड में राक्षस, शेरू खण्ड में यक्ष तथा इंदु खण्ड में पन्नगों का निवास है. महाभूमि पर स्थित जम्बुद्वीप के दक्षिण में भरत खंडी, भरतपुरी, वैवस्वत मनू भूऋषियों और मानवों समेत राज्य कर रहे हैं. महाभूमि पर जिस प्रकार जम्बुद्वीप है, उसी प्रकार भूगोल पर भी जम्बुद्वीप है. पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लेने से १०० वर्ष पूर्व इस महाभूमि पर मेरा आगमन हुआ. महाभूमि पर स्थित जम्बुद्वीप का विस्तार लक्ष योजन है. जम्बुद्वीप पर केवल भरतखंडी, वैवस्वत मनु हैं. अन्य खण्डों पर देवयोनियों का वास है. नर्म, कोमल धूप के समान प्रकाश होने के कारण वहाँ दिन और रात में भेद नहीं है. इनका विस्तार इस प्रकार से है : लवण समुद्र का एक लक्ष योजन, प्लक्ष द्वीप का दो लक्ष योजन, इक्षु-रस समुद्र का दो लक्ष योजन, कुश-द्वीप का चार लक्ष योजन, सुरा-समुद्र का चार लक्ष योजन, क्रौंच द्वीप का आठ लक्ष योजन, सर्पी समुद्र का आठ लक्ष योजन, शाक द्वीप का सोलह लक्ष योजन, दधि-समुद्र का सोलह लक्ष योजन, शाल्मली द्वीप का बत्तीस लक्ष योजन, क्षीर-समुद्र का बत्तीस लक्ष योजन, पुष्कर द्वीप का ६४ लक्ष योजन, शुद्ध जल समुद्र का ६४ लक्ष योजन, चलाचल पर्वत का १२८ लक्ष योजन, चक्रावली पर्वत का २५६ लक्ष योजन, लोकालोक पर्वत का ५१२ लक्ष योजन, तपोभूमि का १२५० लक्ष योजन. लोकालोक पर्वत के पार सूर्य की किरणें नहीं जा सकतीं, अतः लोकालोक पर्वत तथा अण्डों के मध्य अन्धकार फैला रहता है. अंडान्तों का विस्तार करोड़ों योजन है. वराहावतार अथवा नृसिंहावतार भूमि को व्याप्त करने वाले अवतार नहीं हैं. वराह से तात्पर्य सूकर से नहीं, अपितु नुकीले दांत वाले खड्गमृग से है.

 

द्वीप, द्वीपाधिपति, द्वीपाधि देवताओं के दर्शन

 

महाभूमि में स्थित जम्बुद्वीप का स्वयम्भू मनु ने चक्रवर्ती के रूप में सर्वप्रथम परिपालन किया. उसके सात पुत्र सात द्वीपों के अधिपति बने. प्लक्ष द्वीप के मेधातिथि, शाल्मल द्वीप के वपुष्मन्त, कुश द्वीप के ज्योतिष्मंत, क्रौंच द्वीप के द्युतिमंत, शाक द्वीप के हव्य, पुष्कर द्वीप के सवन – पहले चक्रवर्ती थे. प्लक्ष द्वीप के चातुर्वर्ण – आर्यक, कुरर, विन्दक, भाविन इन नामों से प्रसिद्ध हैं. चन्द्राकृति में स्थित विष्णु उनके आराध्य देवता हैं. शाल्मल द्वीप में कपिल, चारणक, पीत व कृष्ण – ये चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव विष्णु हैं. कुश द्वीप में दभी, शुश्मीना, स्नेह और संदेह – ये चार वर्ण हैं. इनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. क्रौंच द्वीप में पुष्कर, पुष्कल, धन्य एवँ पिष्य नामक चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव हैं – रूद्र. शाक द्वीप के चार वर्ण हैं – मंग, मागध, मानस तथा मंद. ये सूर्य भगवान की उपासना करते हैं. मगर पुष्कर द्वीप में चतुर्वर्ण नहीं है. वहाँ सभी देवताओं के समान रोग एवँ शोक से मुक्त, आनंदपूर्वक काल क्रमण करते हैं. उनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. अपने भूगोल में, जम्बुद्वीप में, भरत वर्ष, किंपुरुष वर्ष, हरी वर्ष, केतुमान्य वर्ष, इलावृत्त वर्ष, भद्राश्व वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यक वर्ष, कुरू वर्ष नामक भाग है. महाभूमि गोलाकार है. मध्यवर्ती भाग में कछुए की पीठ के समान ऊपर उभरी हुई है. इस उभरे हुए भाग को भूमंडल कहते हैं. मगर भूगोल नींबू के समान है. महाभूमि मेरू रेखा की प्रदक्षिणा करती हुई ब्रह्मांड के अंत तक व्याप्त है. मगर भूगोल, ज्योतिष्चक्र के समानांतर – मध्यभाग में स्थित है. महाभूमि के मध्यभाग में स्थित मेरू रेखा के चारों और जम्बुद्वीप है. उसके चारों और सप्त समुद्र, द्वीपादी हैं. भूगोल के उत्तरार्ध को देव भाग तथा दक्षिणार्ध को असुर भाग कहते हैं. महाभूमि के मध्यभाग में मेरू दैदीप्यमान है और जीवों का पालन करने वाले मनु का निवास स्थान है. भूगोल जीवों का निवास स्थान है. महाभूमि के चारों और स्थित चक्रावली पर्वत के शिखर पर ज्योतिश्चक्र स्थित है. मगर भूगोल इससे भिन्न है. सप्त कक्षाओं से आवृत्त ज्योतिश्चक्र भूगोल की रोज़ एक प्रदक्षिणा करता है. महाभूमि में शीतोष्ण, वात आदि कम हैं, वहाँ सदैव प्रकाश रहता है. वहाँ हमेशा दिन रहने से काल का व्यतिक्रम नहीं है. भूगोल में स्थिति इसके विपरीत है. महाभूमि केवल पुण्य फल का अनुभव प्राप्त करने के लिए योग्य है. स्थूल शरीर के लिए वह अप्राप्य है. भूगोल पुण्य प्राप्त करने हेतु कर्मभूमि है और वह स्थूल शरीरधारियों के वास करने की भूमि है. महाभूमि पर मनु प्रलय के अतिरिक्त कोई अन्य प्रलय नहीं होता. भूगोल में युग प्रलय, महायुग प्रलय, मनु प्रलय आदि घटित होते हैं.

महाभूमि के अन्य नाम हैं – धात्री एवँ विधात्री. भूगोल को मही, उर्वी, क्षिति, पृथ्वी, भूमि आदि नामों से भी जाना जाता है. नानाजी! पाताल लोक के बारे में बताता हूँ, सुनिए! अतल लोक में पिशाच्च गण, वितल लोक में गुह्यक, सुतल लोक में राक्षस, रसातल में भूत, तलातल में यक्ष, महातल में पितर व पाताल में पन्नगों का वास है.

लोकों के निवासी, लोकाधिपति एवं खंडों का विवरण

वितल लोक का नवनिधियों का अधिपति कुबेर है. यह ब्रह्मांड का कोषाधिपति है और उत्तर दिशा में अलकापुरी में इसका वास है.

वितल लोक में मेरू के पश्चिम में योगिनीपुर में मय का वास है. मय राक्षसों का शिल्पी है, इसने त्रिपुरासुर के लिए आकाश में ऊंचे, विहार करने योग्य त्रिपुर का निर्माण किया.

सुतल के वैवस्वतपुर में यम का आधिपत्य है. यह दक्षिण दिशा का अधिपति है. इस नगर में प्रवेष करने से पहले अग्निहोत्रा नदी पड़ती है. इस नदी को वैतरणी कहते हैं. पुण्यवान व्यक्ति इसे सहजता से पार कर जाते हैं. पापात्माओं के लिए इसे पार करना अति कष्टदायक है.

रसातल में पुण्यनगर में नैऋति नामक दैत्य राज्य करता है. यह नैऋत्य दिशा का अधिपति है.

तलातल लोक में धनिष्ठापुर में पिशाच्चगणों समेत, वेताल का राज्य है.

महातल में कैलासपुरी में सर्वभूतगणों सहित कात्यायनीपति ईशान है. वह ईशान्य दिशा का अधिपति है.

पाताल में वैकुंठनगर है. इसमें श्रीमन्नारायण, पाताल में स्थित असुरों समेत, वासुकी इत्यादि सर्पश्रेष्ठों के साथ शेषशायी होकर विराजमान हैं. इसे श्वेतद्वीप स्थित कार्यवैकुंठ कहते हैं.

पाताल लोक में त्रिखण्ड सोपान हैं. प्रथम खण्ड में अनंग जीवों का निवास है. द्वितीय खण्ड में प्रेतगणों का वास है. तृतीय खण्ड में यातनामय शरीर प्राप्त हुए जीव दुःख से आक्रोश करते रहते हैं.

महाभूमि में सप्त समुद्र, सप्त द्वीप हैं. इनके मध्य में जम्बुद्वीप है. जम्बुद्वीप नौ खण्डों में विभाजित है. दक्षिण की और स्थित खण्ड को भरतखण्ड कहते हैं. भरतखण्ड के भरतपुर में स्वयंभू मनु रहते थे. अनेक पुण्यात्मा, ऋषि इत्यादि स्वयंभू मनु के राज्य में वास करते. वे लोगों का तथा धर्म का पालन करते थे. महाभूमि पर सप्तद्वीपों के चारों और चराचर, चक्रवाल, लोकालोक पर्वत स्वर्ग लोक तक व्याप्त हैं. ये पर्वत कांति किरणों को कभी भी अपने भीतर से प्रसारित नहीँ होने देते.

महाभूमि के नीचे सात अधोलोक हैं. इन्हें सप्त पाताल कहते हैं. अतल लोक में पिशाच्चों का निवास है. वितल लोक में अलकापुरी में कुबेर का वास है और योगिनीपुर में राक्षसों सहित मय का वास है. सुतल लोक में राजा बलि अपने परिवार सहित वास करते है. वैवस्वतपुर यम का निवास स्थान है, यहाँ के नरक में पापी जीव यातनाएँ भोगते है. रसातल लोक के पुण्यपुर में नैऋति भूत अपने गणों सहित निवास करता है. तलातल लोक में धनिष्ठापुर में वेताल का निवास है और कैलासपुरी में रूद्र का. महातल में पितृ देवों का वास है.

पाताल में श्वेत द्वीप वैकुण्ठ है. यहाँ नारायण का निवास है. मेरू से लगे हुए अधोभाग में अनंग जीव, प्रेत गण तथा यातना देह वास करते हैं. निरालम्ब सूच्यग्रस्थान में महापातकी वास करते हैं. भोजन के अंत में “रौरवे अपुण्य निलये पद्मार्बुद निवासिनाम्। अर्थिनाम् उदकम् दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठति।।“  कहकर उत्तरापोषण के समय इन्हें उदक प्रदान किया जाता है.

 

लोकों के नाम, उनका विस्तृत वर्णन

 

भूलोक में स्थित भूगोल एवँ महाभूमि भिन्न-भिन्न हैं, यह अच्छी तरह समझ लो. भूगोल बिंदु के ऊपर ऊर्ध्व ध्रुव स्थान तक के प्रदेश मे मेरू रेखा को प्रकाशित करने वाला सूर्य लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है, सूर्य मंडल नहीं. इसी प्रकार चन्द्र लोक, अंगारक लोक, बुध लोक, गुरू लोक, शुक्र लोक, शनैश्चर लोक, राश्यादी देवता लोक, नक्षत्र देवता लोक, सप्त ऋषि लोक, ऊर्ध्व ध्रुव लोक हैं. इनके अतिरिक्त अन्य अवांतर लोक भी हैं.

भूमध्य लोक से सूर्य लोक एक लक्ष ब्रह्माण्ड योजन के अंतर पर है. भूमध्य लोक से चन्द्र लोक दो लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, अंगारक लोक तीन लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, बुध लोक पाँच लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, गुरू लोक सात लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, शुक्र लोक नौ लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, शनैश्चर लोक ग्यारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, राश्यादि देवता लोक बारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, नक्षत्रादि देवता लोक तेरह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, सप्तर्षि लोक चौदह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, ध्रुव लोक पंद्रह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन दूर है. 

इसी प्रकार, भूमध्य बिंदु से विविध अंतर पर स्वर्गलोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक हैं.

भूमध्य बिंदु से ब्रह्माण्ड के चारों और दीवार के समान, अर्थात्, अंडान्त तक २४ करोड़ ५० लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूमध्य बिंदु से अंडान्त के बाहरी भाग तक २६ करोड़ा पचास लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक प्रलय काल में नष्ट हो जाते हैं. स्वर्लोक के ऊपर स्थित महर्लोक कुछ अंशों में नष्ट होकर उसके कुछ अंश स्थिर रहते हैं. उसके ऊपर स्थित जन, तप व सत्य लोक ब्रह्मा के आयुष्य के अंत में नष्ट होते हैं. स्वर्ग से तात्पर्य है स्वर्लोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक और अंडान्त तक का प्रदेश.

                      

दत्त अर्थात् कौन?

 

नाना जी! यदि तुम दत्त तत्व का अनुभव करना चाहते हो, तो लक्ष बार जन्म लेना होगा. कोटि-कोटि ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाली, उनका अतिक्रमण करने वाली जो एकमेव तेजोमहाराशी है, वही दत्त है, ऐसा समझो. वे दत्त प्रभु ही तेरे सामने उपस्थित श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं, यह जान लो.

श्री चरणों (श्री प्रभु) द्वारा किया गया हितोपदेश सुनकर नरसावधानी और उनकी पत्नी चकित हो गए. एक वर्ष के बालक द्वारा अधिकार पूर्ण स्वर में इतने महत्त्वपूर्ण एवँ गहन विषय का वर्णन और स्वयँ दत्त होने का निरूपण सुनकर नरसावधानी एवँ उनकी पत्नी से रहा नहीं गया. वे फूट-फूट कर रोने लगे. उस दिव्य बालक के श्रीचरणों को स्पर्श करने की इच्छा उन्होंने व्यक्त की. श्रीपाद प्रभु ने इनकार कर दिया. नरसावधानी और उनकी पत्नी जडवत् रह गए.

श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मैं दत्त हूँ, कोटि-कोटि ब्रह्मांडो में व्याप्त एकमेव तत्व मैं ही हूँ. दिग् – यही मेरा वस्त्र है, इसलिए मैं दिगम्बर हूँ. जो कोई त्रिकरण शुद्धि से दत्त दिगंबरा! श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा! नृसिंह सरस्वति दिगंबरा! कहकर भजन कीर्तन करते हैं, वहाँ मैं सूक्ष्म रूप से सदैव उपस्थित रहता हूँ. मेरे मातामह श्री बापन्नार्य, पर-प्रांत से पादगया क्षेत्र में श्राद्धादि कर्म करने हेतु आये हुए लोगों की सेवाभाव से भोजन व आवास की व्यवस्था कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने आक्षेप उठाया, “कहाँ हैं, तुम्हारे स्वयंभू दत्त? अदृश्य हो गए ना?” तब श्रीपाद प्रभु बोले, “वह दत्त मैं ही हूँ. जिस घर में मैंने जन्म लिया, वहाँ रहने के लिए जो लोग आयेंगे, वे निश्चय ही पवित्र हो जायेंगे. पितृ देवों को अवश्य ही पुण्यलोक की प्राप्ति होगी. जीवित प्राणियों का, उसी प्रकार मृत जीवों का योग-क्षेम वहन करने वाला प्रभु मैं ही हूँ . मेरे लिए जन्म, मरण दोनों एक समान हैं, फिर भी तुम्हारे मन में यह व्यथा है कि “मेरे द्वारा की गई स्वयंभू दत्तात्रेय की आराधना का क्या यही फल है?” तुझ पर आया हुआ वृथा आरोप नष्ट करने के उद्देश्य से स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन शीघ्र ही होंगे, और मूर्ती की प्रतिष्ठापना होगी. मैंने तुम्हें जीवन दिया है. दत्त का हमेशा स्मरण रहे. अगले जन्म में तुझ पर अनुग्रह होगा, यह आश्वासन देता हूँ. इस जन्म में मेरे चरणों को स्पर्श करने का महत्पुण्य तेरे भाग्य में नहीं. कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन, रक्षण एवँ विनाश करने वाला एकमेव प्रभु, जो मैं हूँ, अपने वरद हस्त से तुझे आशीर्वाद देता हूँ!” महाभयंकर ध्वनि के मध्य श्रीचरणों (श्री प्रभु) के शरीर के अणु-परमाणु विघटित होकर श्रीपाद प्रभु अदृश्य हो गए.

बेटा! शंकर भट्ट! श्रीपाद स्वामी ने उनके नाम के साथ ‘दिगंबरा नाम जोड़कर जप करने का मर्म इस प्रकार से निरूपित किया : उनका सर्वव्यापी तत्व, जो निराकार है, वह तत्व साकार रूप में किस प्रकार अवतरित हुआ, यह हमारी कल्पना से परे है. नन्हें बालक के रूप में, लुभावना, मोहक रूप धारण करके आए उस जगत्प्रभु की बाल्यावस्था से होती आ रही लीलाओं का अंत कहाँ?

 

“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय-जयकार हो”

Complete Charitramrut

                     दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा                श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत लेखक   शंकर भ ट्ट   ह...