“श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये”
अध्याय ८
दत्तावतार
का वर्णन
कैसे होता है आत्म साक्षात्कार ? ब्रह्म
ज्ञान हेतु तप करने वाले ही हैं सच्चे ब्राह्मण
अगले दिन अपना नित्य
नैमित्यिक अनुष्ठान पूरा करने के पश्चात तिरुमलदास बोले: “अरे, शंकर भट्ट! जब आत्म
साक्षात्कार होता है, उस समय षोडश कलाएँ अपने-अपने भूतों में लीन हो जाती हैं.
इनसे संबंधित देवता शक्तियाँ अपने-अपने मूलभूत चैतन्य में लीन हो जाती हैं.
आत्मज्ञान, कर्म इत्यादि ब्रह्म
स्वरूप में लीन होते रहते हैं. ऐसे ब्रह्म-ज्ञान के लिए जो परिश्रम करता है, वही सच्चे अर्थों में
ब्राह्मण है. प्राण, विश्वास, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, इंद्रियें, मन, अन्न, बल, विचार, मन्त्र, धर्म, लोक, लोकों के विविध नाम –
इन्हें सोलह कलाएँ कहते हैं. श्रीपाद प्रभु सोलह कलाओं से परिपूर्ण परब्रह्मावतार
हैं.”
अन्न ही मन है –
सात्विक अन्न के सेवन से मन का निर्मलत्व प्राप्त होता है.
विधाता ने प्रथम
प्राणों की रचना की, प्राण से तात्पर्य है संपूर्ण विश्व में विद्यमान प्राण-शक्ति. इस
प्राण-शक्ति का एक सूक्ष्मात्मा होता है, इसे हिरण्यगर्भ नाम से भी संबोधित किया जाता है. प्राणमय कोष में स्थित
जीव-धातु शक्ति को शक्ति-शरीर कहते हैं. प्राणमय चैतन्य को संतुलित रीति से
प्रवाहित करने से मनुष्यों के भौतिक दुःखों का निवारण होता है. मनुष्य का स्थूल
देह रोग ग्रस्त होने से पूर्व उसका प्राणमय शरीर रोगग्रस्त होता है. इसके पश्चात्
स्थूल शरीर रोग ग्रस्त होता है. सृष्टि के प्रारम्भ का निश्चय होने के बाद
पंचमहाभूतों का अविर्भाव हुआ. इन पंचमहाभूतों का अनुभव करने के उद्देश्य से
पंचेन्द्रियों की रचना हुई. इनका संधान करके सुव्यवस्थित ढंग से काम करने के लिये
पंचेन्द्रियो की योजना हुई. इन दसों इन्द्रियों पर मन का अधिकार रहता है. मन आहार
से बनता है, अतः मनुष्य को अपने आहार के विषय में अत्यंत सावधान रहना चाहिए,
क्योंकि आहार के सूक्ष्म अंश से ही मनोभावनाएँ प्रकट होती हैं. आहार के जैसे गुण
होंगे, मनुष्य के विचार भी
उसी के अनुरूप बनाते हैं. मन के विचारों की धारा को क्रमबद्ध करके नियंत्रित करने
को ही “मन्त्र” कहते हैं यज्ञ-यागादी का विधिपूर्वक आचरण करते हुए कर्मकाण्ड में
वर्णित तत्संबंधी मन्त्रोच्चारण को विधिपूर्वक संपन्न करने को “कर्म” कहते हैं.
विश्व निर्माण का आधार कर्म ही है. नाम रूप विहीन जग हो ही नहीं सकता. हमारे भीतर
प्रत्येक इन्द्रिय का संबंध एक-एक देवता से होता है. इस देवता के प्रभाव से
संबंधित इन्द्रिय कार्य करते हैं. समाधिस्थ अवस्था में बैठे योगी को जब
आत्म-साक्षात्कार होता है, उस समय सोलह कलाएँ मूलतत्व में विलीन हो जाती हैं. योगी की भौतिक
इन्द्रियों की चैतन्य शक्ति विश्व की चैतन्य शक्ति में लीन हो जाती है.
कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों से युक्त मानव कर्म किये बिना नहीं रह सकता.
अहंकार नष्ट हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति
नहीं होती.
मनुष्य के अहंकार के कारण ही कर्माचरण होता रहता
है. मन एवँ बुद्धि के अज्ञान के आवरणों से आच्छादित होने पर जो अशुद्ध चैतन्य
उत्पन्न होता है, वही अहम् है. आत्मसाक्षात्कार
प्राप्त कर चुके योगी के लिए जन्मान्तरों का कर्मफल शेष नहीं बचता. अहंकार पूरी
तरह नष्ट हुए बिना आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं है. योगी को जब आत्मसाक्षात्कार की
प्राप्ति होती है, तब श्रौत (वैदिक)
कर्म और उसका प्रतिफल – महद अहंकार, माया जाल समेत शाश्वत परमात्मा में लीन होकर, वह
व्यक्तित्व-रहित हो जाता है. परमात्मा व्यक्तित्व-सहित शक्ति स्वरूप है. कर्म तथा
उसके फल का नाश होने पर योगी सिद्धावस्था को प्राप्त होता है. योगी चाहे अपने स्थूल
शरीर से कर्मफल का भोग भोगता है, फिर भी उसमें देहाभिमान न होने के कारण वह हमेशा मुक्तावस्था में रहता
है. परमात्मा योगियों के माध्यम से अपनी लीलाएँ प्रकट करता रहता है. यदि किसी योगी
को अपनी यौगिक शक्ति का अहंकार हो जाता है, तो उसकी सभी शक्तियों का हरण करके उसके गर्व का
नाश करने की सामर्थ्य परमात्मा के पास होती है. श्री बापन्नार्य ने श्रीशैल्यम्
क्षेत्र में स्थित श्री मल्लिकार्जुन तथा गोकर्ण क्षेत्र में स्थित महाबलेश्वर एवँ
कुछ अन्य स्थानों पर सौर मंडल से शक्तिपात किया था. स्वयंभू दत्तात्रेय की उत्सव
मूर्ती तथा अर्चना मूर्ती में भी शक्तिपात किया था. अग्नि से संबंधित इस शक्ति का
शान्ति-विधान करना आवश्यक है. यदि वैसा न किया गया, तो अर्चक समेत अर्चना करवाने वाले व्यक्ति भी
अर्चना मूर्ती के प्रखर तेज से दण्ड के भागी होकर उन्हें अनिष्ठ फल प्राप्त होता
है. स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती में हुए शक्तिपात का रहस्य केवल वही योगी जान
सकते हैं, जो अंतर्ज्ञानी
हो. श्रीशैल्य-मल्लिकार्जुन स्थान पर शक्तिपात सहस्त्र लोगों की उपस्थिति में श्री
बापन्नार्य के यजमानत्व में हुआ था. सूर्य-मंडल से तेज निकल कर सब के समक्ष मल्लिकार्जुन
के लिंग में लीन हो गया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार एवँ यह शक्तिपात – ये दो
अत्यंत गोपनीय देवी रहस्य हैं. उनका वर्णन केवल महायोगियों के सम्मुख ही किया जाना
चाहिए तथा वे ही इसे जानने के लिए योग्य हैं. श्रीशैल्यम में हुए शक्तिपात का
शान्ति विधान किया गया. इस विधान के अंतर्गत हज़ारों की संख्या में अन्नदान किया
गया. इसके फलस्वरूप जठराग्नि शांत हुआ. उग्रत्व की शक्ति शिथिल होकर शान्ति-तत्व
में लीन होने के कारण सब कार्य शांत एवं शुभप्रद हो गया. पीठिकापुर के स्वयंभू
दत्तात्रेय की मूर्ति पर हुए शक्तिपात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण एवँ साक्षी न होने
से वहाँ शान्ति-विधान अथवा अन्नदान नहीं किया गया. श्री बापन्नार्य ने अन्नदान
करने का सुझाव दिया था, परन्तु पीठिकापुर के ब्राह्मण पंडितों ने तर्क, वितर्क करके श्री
बापन्नार्य के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.
श्रीपाद
स्वामी षोडश कला परिपूर्ण है.
काल अपनी गति से चला जा
रहा था. श्रीपाद प्रभु की आयु अब दो वर्ष की हो गई. इन दो वर्षों की कालावधि में
उन्होंने अनेक बाललीलाओं द्वारा प्रमाणित कर दिया था कि वे षोडश कलाओं से परिपूर्ण
इस युग के महा अवतार हैं. सोलहवे वर्ष में श्रीपाद प्रभु के पीठिकापुर छोड़ दिया.
तत्पश्चात चौदह वर्षों तक वे कुरवपुर एवँ कुछ अन्य क्षेत्रों में रहे. परन्तु उनकी
शरीरयष्टि सोलह वर्ष के किशोर के समान ही थी.
श्री दत्तात्रेय के सोलह अवतार
सोलह – इस संख्या को एक वैशिष्ट्य प्राप्त है.
श्री दत्तात्रेय ने पूर्व युग में सोलह अवतार धारण किये थे. वे इस प्रकार है:
१.
योगिराज
२.
अत्रिवरद
३.
दिगम्बरावधूत
४.
कालाग्निशमन
५.
योगीजन वल्लभ
६.
लीला विश्वंभर
७.
सिद्धराज
८.
ज्ञान सागर
९.
विश्वंभरावधूत
१०. मायामुक्तावधूत
११. आदिगुरू
१२. संस्कारहीन
शिवस्वरूप
१३. देव देव
१४. दिगम्बर
१५. दत्तावधूत
१६. श्यामकमल लोचन .
श्री दत्तात्रेय
प्रभु भोग तथा मोक्ष के दाता हैं. उनकी आराधना करने के लिए केवल उनकी चरण पादुकाओं
की आराधना करना पर्याप्त है. चारों वेद समूची अपवित्रता को पवित्र करते हुए श्वान
रूप में उनके चरण कमलों में पड़े रहते हैं. श्री दत्तात्रेय की पवित्रता की कल्पना
करने में मानव तो क्या, देवता तथा सप्त ऋषि भी असमर्थ हैं. युगांतर में जब वामनावतार हुआ, तब उनके समकालीन
रह चुके श्री वामदेव महर्षि का भी जन्म हुआ. उनके जन्म के समय माता के गर्भ से
केवल सिर बाहर आया और चारों दिशाओं का अवलोकन करके वापस गर्भ में समा गया. तब
देवताओं तथा ऋषिगणों के प्रार्थना करने पर श्री वामदेव ने पुनः जन्म लिया. वे
जन्मतः शुद्ध ब्रह्मज्ञानी थे.
ऐसी ही घटना
श्रीपाद प्रभु के जन्म के समय घटित हुई. वे केवल ज्योति-स्वरूप थे. इस प्रकार दो
बार जन्म लेने के कारण वे आजन्म द्विज थे. वे संपूर्ण, अखण्ड, अद्वैत, सच्चिदानंदघन होने
के कारण इस अवतार में उनके कोई गुरू नहीं थे. वास्तव में वे त्रिमूर्ति के संयुक्त
स्वरूप न होकर त्रिमूर्ति से भी जो परे है, ऐसे एक विशिष्ठ तत्व थे. इसलिए वे उस त्रिमूर्ति
से परे स्थित चतुर्थतत्व हैं, यह संकेत देने के लिए उन्होंने चतुर्थी के दिन अवतार
लिया. माता के गर्भ से बाहर आकर पुनः गर्भस्थ हो जाने पर, महायोगियों, सिद्ध पुरुषों एवँ
देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुबारा जन्म लेने के कारण वे आजन्म
ब्रह्मज्ञान संपन्न थे. चित्रा नक्षत्र का अधिपति मंगल ग्रह है. यह ग्रह नीच स्थान
में रहते हुए समूचे जीवों के लिए अमंगलकारी होता है. समूचे अमंगल का हरण करके शुभ
मंगल प्रदान करने के लिए प्रभु ने चित्रा नक्षत्र में जन्म लिया. चित्रा नक्षत्र
के दौरान यदि श्रीपाद प्रभु का पूजन किया जाए तो वह विशेष फलदायी होता है. श्रीपाद
प्रभु स्वयं धर्मं शास्ता (धर्म प्रवर्तक) हैं. वे हरिहरात्मज श्री अय्यप्पा
स्वामी हैं, यह दर्शाने के लिए उन्होंने तुला राशि में जन्म लिया. ऐसा कोई धर्मं
शास्त्र नहीं, जिसका उन्हें
ज्ञान न हो. धर्मं संकट में फँसे हुए मनुष्य को उनकी प्रार्थना करने से
धर्म-पथप्रदर्शन की प्राप्ति होती है. सूर्य ग्रहों का अधिपति है. सिंह लग्न में
जन्म लेने के कारण वे मानो यह सूचित करते हैं, कि वे सकल विश्व के नाथ एवँ चक्रवर्ती शासक हैं.
श्री दत्त प्रभु से
त्रिमूर्ति तथा त्रिमूर्ति से तीन कोटि देवों की, जिनसे तेहतीस कोटि देवताओं की उत्पत्ति हुई. अतः
केवल श्री दत्त प्रभु के नामस्मरण से समस्त देवताओं के स्मरण का फल प्राप्त होता
है.
श्री दत्त प्रभु के
ब्रह्म मुख का ऋषि पूजन करना चाहिए. विष्णुमुख की अर्चना श्री सत्यनारायण व्रत तथा
विष्णु सहस्त्र नाम से करना चाहिए. उनके रूद्र मुख का रुद्राभिषेक से सिंचन करना
चाहिए. श्री दत्त प्रभु के ब्रह्म मुख की जिह्वा पर सरस्वति का वास है. विष्णुमुख
के वक्षस्थल पर लक्ष्मी का वास है. रूद्र मुख के वाम भाग में गौरी का वास है.
सृष्टि की समूची स्त्री-देवता शक्ति श्रीपाद प्रभु के वामभाग में तथा पुरुष-देवता
शक्ति दक्षिण भाग में विराजमान है. तिरुपति में सप्त गिरी पर अवतरित हुए श्री
वेंकटेश्वर स्वामी साक्षात श्री दत्त प्रभु ही हैं. “वें”कार – अमृत बीज तथा “कट” –
ऐश्वर्य बीज है. इसलिए श्री वेंकटेश्वर अमृत एवँ ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं.
“वें” से तात्पर्य है पाप से, तथा “कट” का अर्थ है – खंडन करने वाला या हरण
करने वाला. श्री वेंकटेश्वर तथा श्रीपाद श्रीवल्लभ वास्तविक रूप से एक ही हैं. वे
अभिन्न हैं.”
तब मैंने कहा, “हे तिरुमलदास !
प्राचीन काल में विद्वज्जनों का ऐसा मत था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन कठोरता से
किया जाए. परन्तु श्रीपाद प्रभु का मत इसके विपरीत था, ऐसा मैं समझा हूँ, कृपया
मेरी इस शंका का समाधान करें.”
ब्राह्मणों के लक्षण
इस पर तिरुमलदास बोले, “अरे, यदि ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना जीवन बिताये, तभी वह सद्ब्राह्मण
कहलाता है. निर्धारित धर्मं, कर्म का त्याग कर दुराचारी होने से वह दुष्ट ब्राह्मण बन जाएगा. उसके
दुराचारों के बढ़ने पर यदि वह गोहत्या करने तथा गौ-माँस भक्षण करने पर प्रवृत्त हो
जाए तो उसके भीतर का ब्राह्मणत्व विलुप्त होकर उसका ब्रह्म तेज पूरी तरह से क्षीण
हो जाता है. उसके शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होकर वह चांडालत्व को प्राप्त
होता है. उस अवस्था में वह ब्राह्मण नहीं हो सकता. क्षत्रिय यदि ब्रह्मज्ञान की
आकांक्षा से निरंतर तपाचरण करे तो वह ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है. क्षत्रियों
के शरीर में जन्मतः विद्यमान जीवन कणों में तपाचरण के परिणाम स्वरूप परिवर्तन होने
पर, उसे ब्राह्मणत्व
प्राप्त होता है. विश्वामित्र को इसी प्रकार ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ था. शनि ग्रह
का तीन राशियों में, अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक भ्रमण होता है. उस अवधि में प्रत्येक मनुष्य के
शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होता है. पुराने जीवन कणों का नाश होकर
नूतन जीवन कणों का सृजन होता रहता है. मनुष्य इस बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता.
क्षत्रियों के लक्षण
क्षत्रिय यदि क्षात्र धर्म का त्याग करके शान्तिरस प्रधान धर्मों, जैसे कृषि, गो-सेवा, वाणिज्य, आदि का पालन करे और
स्वकर्म छोड़ दे तो उसके भीतर का क्षात्र तेज बना नहीं रहता. उसके मन, बुद्धि एवँ शरीर में
अनेक परिवर्तन घटित हो जाते हैं और वह वैश्यत्व को प्राप्त होता है. ब्राह्मण यदि
क्षात्र धर्म का अवलंबन करे तो वह परशुराम के समान हो जाता है. प्राचीन काल में
द्रोणाचार्य एवँ कृपाचार्य ने जन्म से ब्राह्मण होने पर भी क्या क्षात्र-धर्म का
पालन नहीं किया था? कुसुम श्रेष्ठी ने वैश्य होते हुए भी क्या क्षत्रिय वृत्ति का अवलंबन नहीं
किया था? जन्मतः शूद्र होते हुए भी क्या मुझे श्रीपाद प्रभु की कृपा
से ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है? निरंतर तपाचरण से शूद्र भी वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण हो सकता है. केवल किसी एक
वर्ण में जन्म लेने का यह अर्थ कदापि नहीं कि व्यक्ति यम-नियम, धर्म, शिक्षा का आचरण करे या न करे. बल्कि प्रत्येक व्यक्ति
का वर्ण उसके शुभ कर्मों के फल के अनुसार निर्धारित होता है. जन्मतः शूद्र होते
हुए भी मुझे अगला जन्म ब्राह्मण का प्राप्त हो सकता है. उसी प्रकार जो जन्म से
ब्राह्मण है, उसे भी अगला जन्म शूद्र का प्राप्त हो सकता है. वर्ण-भेद की व्यवस्था
सामाजिक कारणों से की गई. श्रीपाद प्रभु ने एक पर्याय दिया है कि परमात्मा का मुख
ब्राह्मणत्व का, बाहू क्षत्रियत्व के, उरू
(जंघा) वैश्यत्व का एवँ पाद शूद्रत्व के सूचक हैं. तुमने मेरे आतिथ्य का स्वीकार
किया. मेरे घर का भोजन ब्राह्मण के घर का भोजन ही है.
कर्म
– रहस्य
निरंतर
श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण तथा ध्यान करने से इस परिसर का वातावरण शुभप्रद एवँ
पवित्र स्पंदनों से परिपूरित है. नरसावधानी जन्मतः ब्राह्मण थे, फिर भी उनके घर में भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक
स्पंदन विषपूरित होने के कारण वहां का वायुमंडल कलुषित हो गया था. इसी कारण
श्रीपाद प्रभु ने उनके आदरातिथ्य को स्वीकार नहीं किया. इसके पीछे यही रहस्य था!
किसी भी जीव को अपने परिणाम-क्रम से या विपरिणाम-क्रम से कर्मसूत्र के अनुसार जन्म
लेने के लिए किसी न किसी वर्ण की आवश्यकता होती है. है ना?
इसलिए वर्णाश्रम की योजना की गई. जॉन, जर्मनी देश का निवासी था, फिर भी उसके मन में ब्रह्मज्ञान की तीव्र जिज्ञासा थी. परिणाम-क्रम की
अंतिम अवस्था में उसे कुरवपुर में श्रीपाद प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए और परम
अनुग्रह की प्राप्ति हुई. नरसावधानी पीठिकापुर में होते हुए भी उन्हें यह जानने
में अनेक वर्ष लग गए कि श्रीपाद प्रभु श्री दत्तात्रेय के अवतार हैं. यह जानने के
पश्चात भी साधना-क्रम के बिना श्री दत्त प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होना असंभव है.
इस
पर मैंने कहा, “स्वामी, आपके
कथनानुसार प्रत्येक जीव-कण में परिवर्तन होता रहता है. तो क्या प्रत्येक जाति का
एक विशिष्ट आत्मा होता है? पार्वती देवी हिम पर्वत की कन्या
हैं ऐसा कहा जाता है, इसके पीछे क्या कारण है?”
इस
पर तिरुमलदास बोले, “प्रत्येक जाति का एक आत्मा
होता है. वह शक्ति-स्वरूप में विद्यमान रहता है. वह शक्ति श्री दत्त प्रभु से, जो दिव्यात्मा हैं, निकली है. इस शक्ति का परमात्मा
के साथ निरंतर संबंध होने के कारण वह महाशक्ति है. ‘जाति’ इस शब्द का वह अर्थ नहीं
है जो तुम समझ रहे हो. उसका तात्पर्य जीवित व्यक्ति में उपस्थित चैतन्यमय जीव-कणों
से है. उसी प्रकार सामूहिक / सांघिक रूप में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के शक्ति –
सामर्थ्य गुण-कण उसमें अंतर्लीन रहते हैं. इसी प्रकार प्रत्येक गाँव की, प्रत्येक शहर की, प्रत्येक राष्ट्र की एक आत्मा
होती है. हम जहाँ रहते हैं, उस भूमि की भी आत्मा है. भूमि की
जो अधिष्ठित देवता है, उसे हम भू-माता कहते हैं. उसकी आत्मा में परमात्मा का अंश
होने के कारण वह मानसिक संबंध स्थापित करने वाली महाशक्ति है. उसी प्रकार हिम
पर्वत की अधिष्ठित देवता शक्ति को ‘हिमवंत’ नाम से संबोधित
किया जाता है. उस हिमवंत की पुत्री है, हेमवती. यदि यह माना
जाए कि सर्वसाक्षी सूर्य भगवान के पुत्र हैं यमराज, तो इसका
अर्थ यह हुआ कि वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार उन्हें न्याय प्रदान करके, पापियों को शिक्षा देने वाली देवता-शक्ति हैं.
संसार
के समस्त प्राणी अपना-अपना कार्य करने के लिए सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं.
आकाश में विराजमान सूर्य-बिंब से उसमें अधिष्ठित देवता-स्वरूप, देवतात्मा भिन्न
है. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी तीस वर्ष की आयु में लुप्त हो जायेंगे, ऐसा मैंने तुमसे कहा था. वे ब्रह्माण्ड में उपस्थित अनंत कोटि अणु-रेणुओं
में विलीन हो जायेंगे. वे सर्वान्तर्यामी हैं ना? फिर, ये ‘विलीन’ होने का क्या अर्थ है, तुम यह प्रश्न
पूछ सकते हो. वे सर्वान्तर्यामी होने पर भी उनकी शक्ति के प्रभाव से थोड़ी दूर पर
कोटि-कोटि ब्रह्मांड हैं. इन ब्रह्मांडों के परिभ्रमण को सुव्यवस्थित करने के
उद्देश्य से अपने शक्ति प्रभाव से उन ब्रह्मांडों को वे अपनी और आकर्षित करते हैं.
संपूर्ण सृष्टि में परिणामी दशा में यदि कोई विपथ-गामी स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो
श्री दत्तात्रेय का अवतार होता है. यह ज्ञात है कि चुम्बक लोहे को आकर्षित करता है, परन्तु यदि लोहे पर मलिनता का आवरण हो तो चुम्बक की आकर्षण शक्ति कम हो
जाती है. मलिनता को हटाकर, सृष्टि के प्रत्येक अणु को
आकर्षित करके, विश्व-परिणाम को नूतन दिशा प्रदान करने का
संकल्प जब होता है, तब इस प्रकार के अवतार होते हैं.”
पंच कन्याओं का विवरण
तब मैंने कहा, “स्वामी!
“अहिल्या, द्रौपदी,
सीता, तारा, मंदोदरस्तथा।
पंचकन्याम्
पठेन्नित्यम् महापातक नाशनम् ।।“ ऐसा कहते हैं.
यह विषय मेरी समझ से परे है, अतः कृपया इसका विवरण करे, “
इस पर तिरुमलदास बोले, “अहिल्या पर इंद्र मोहित हुआ था और उसे प्राप्त करने के लिए उसने माया का
उपयोग किया. कुक्कुट का रूप धारण करके उसने बांग दी. गौतम ऋषि ने समझा कि सुबह हो
गई है, अतः वे अपने अनुष्ठान हेतु बाहर गए. अहिल्या पतिव्रता थीं, अतः इंद्र उसे स्पर्श नहीं कर सकता था. देवशक्ति से सम्पन्न होने के कारण
इंद्र देवता ने मायावी अहिल्या उत्पन्न करके उन्होंने समागम किया. मायावी अहिल्या
के शरीर के जीवाणु इंद्र की तीव्र इच्छा के कारण उत्पन्न हुए थे. मायावी अहिल्या
और इंद्र को उस अवस्था में देखकर गौतम ऋषि ने क्रोधित होकर उन दोनों को शाप दिया.
अहिल्या बोली, “हे मुनिवर. आपने यह क्या कर दिया!”
आध्यात्मिक दृष्टी से अहिल्या गौतम से उच्च स्तर पर थी,
अहिल्या के शाप के कारण गौतम ऋषि बारह वर्षों तक भ्रमित अवस्था में रहे, तदनंतर शिवजी की उपासना करके स्वस्थ्य हुए. अहिल्या की मनोशक्ति जड़ हो
जाने के कारण उसका शरीर भी जड़ होकर शिला के रूप में परिवर्तित हो गया. श्री
रामचंद्र की चरण धूल से अहिल्या का शाप-विमोचन हुआ. इसलिए अहिल्या परम पवित्र है,
यह जान लो.”
शाप
ग्रस्त होकर इंद्र ने पञ्च पांडवों के रूप में जन्म लिया. पांच शरीर, पांच मन होने पर भी उनका जो आकार-आत्मा था वह एक ही था. यह एक विस्मयचकित
करने वाला विषय है. शची देवी यज्ञकुंड से द्रौपदी के रूप में अवतरित हुईं. वे
अयोनिजा हैं.
वास्तविक
सीता को अग्निदेव ने अपने भीतर छिपा लिया और मायावी सीता को रावण लंका ले गया.
सीता के अग्नि प्रवेश करने पर उनका मायावी रूप लुप्त हो गया और वास्तविक सीता बाहर
आईं. इसलिए सीता महा पतिव्रता है, यह सत्य है.
भूचक्र
की बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र हैं. इन सत्ताईस नक्षत्रों की जो अधिष्ठित देवता
है, उनका जन्म तारा देवी के रूप में हुआ. यौवनावस्था
में तारा पर गुरू ग्रह के अधिष्ठित देवता, बृहस्पति मोहित हो गए और उन्होंने उससे
विवाह कर लिया. वृद्ध पति युवा पत्नी को संतुष्ट नहीं कर सकता. यह विषय धर्मं के
विरुद्ध है, इसलिए विवाह के समय ली गई शपथ का यदि उल्लंघन हो जाए तो कोई हानि नहीं
है. तारा देवी के मन ने बृहस्पति को कभी भी पति के रूप में स्वीकार नहीं किया.
तारा देवी के मन में अपने पति के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व
बृहस्पति का था. वैसा न करने से सकल धर्मों के ज्ञाता बृहस्पति ने धर्म विरुद्ध
आचरण किया. तारा देवी के शरीर के जीवाणुओं में उनकी मनोवृत्ति के अनुरूप परिवर्तन
हुए. उनके मन में चन्द्रमा का रूप स्थिर हुआ, उनका ह्रदय
चन्द्रमा के आधीन हो गया. इस प्रकार परिवर्तित हुई तारा देवी उस तारा देवी से
भिन्न हैं, जिनका बृहस्पति से विवाह हुआ था. अतः तारा-चन्द्र
का मिलन धर्म विरुद्ध नहीं है. सृष्टि के नियम के अनुसार सत्ताईस नक्षत्रों से
होकर भ्रमण करना चन्द्र का धर्म है, गुरू ग्रह का नहीं. यदि
गुरू ग्रह ऐसा करे, तो यह धर्म के विरुद्ध होगा. कोई भी कार्य धर्म के विरुद्ध
करने से अधोगति प्राप्त होती है. अतः सत्ताईस नक्षत्रों की अधिष्ठित देवता तारा
देवी, चन्द्र मंडल के अधिष्ठित देवता चन्द्र को प्राप्त हुई –
यही धर्म है. बेटा! इस सूक्ष्म धर्म का अनुसरण करने वाली तारा देवी महा पतिव्रता
है.
भीष्म
जब शर-शैया पर थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर को हितोपदेश
दिया था. भीष्म ने कहा था, “कुकर्म होते देखकर उसका यथासंभव
विरोध करना चाहिए, अथवा जिस स्थान पर अधर्म हो रहा हो उस
स्थान को त्याग देना चाहिए.” इस पर द्रौपदी हँस पडी. तब भीष्म बोले, “जिस समय द्रौपदी का मान भंग हुआ, उस समय का मेरा व्यवहार अनुचित था, क्योंकि उस समय मैं दुर्योधन के आश्रय में था. उसके अन्न के सेवन से मेरा
रक्त कलुषित हो गया था तथा बुद्धि भ्रष्ठ हो गई थी. अब वह कलुषित रक्त मुझमें नहीं
है. मेरी बुद्धि कल्मष रहित होकर मेरा ज्ञानोदय हो गया है.”
परिणाम
दशा में जीव अनेक जन्म लेता है, किसी जन्म में
स्त्री के, तो किसी जन्म में पुरुष के रूप में अवतरित होता
है. मानव रूप के अतिरिक्त वह पशु-पक्षियों आदि का भी जन्म लेता है. किसी जन्म में
मंदोदरी पुरुष रूप में जन्मी थी. उस जन्म में उसकी तीन पत्नियां थीं – एक चंचल
स्वभाव की, दूसरी दुष्ट स्वभाव की और तीसरी मृदु स्वभाव की.
उस जन्म की चंचल स्वभाव वाली पत्नी ने वानर होकर बाली के रूप में जन्म लिया. दुष्ट
स्वभाव की पत्नी ने राक्षस होकर रावण के रूप में जन्म लिया और मृदु स्वभाव की
पत्नी का जन्म विभीषण के रूप में हुआ. उस जन्म में ये तीनों उसकी पत्नियाँ थे, तो इस जन्म में वह चंचल वृत्ति वाले बाली की पत्नी बनी, उससे उसने अंगद को जन्म दिया. तत्पश्चात दुष्ट प्रवृत्ति वाले रावण की
भार्या बनी. रावण संहार के पश्चात मृदु स्वभाव वाले विभीषण की पटरानी बनी. अर्थात
बाली की, रावण की तथा विभीषण की पत्नी होते हुए भी उसके शरीर
के जीवाणु भिन्न-भिन्न थे. अतः मंदोदरी भी महापतिव्रता हुई!”
तब
मैंने कहा, “स्वामी! स्त्री को एक ही पति, अथवा पुरुष को एक ही पत्नी होना चाहिए, ऐसा कहा
जाता है. तो बहुभार्या अथवा बहुभर्तृत्व निंदनीय है ना?”
कर्मचक्र परिणाम
श्री
तिरुमलदास बोले, “तुम ठीक कहते हो. कोई पुरुष यदि
अकारण ही अपनी पत्नी को कष्ट पहुंचाता है तो वह सात जन्मों तक बाल-विधुर होता है. कोई
पुरुष यदि चार–पाँच स्त्रियों से विवाह करता है, तो अगले
जन्म में यह पुरुष स्त्री के रूप में जन्म लेता है और वे चार-पांच स्त्रियाँ, उनकी
कामवासना एवँ संस्कार क्षीण न होने के कारण, पुरुष जन्म लेकर उस स्त्री का उपभोग
करते हैं. एक जन्म में यदि ऐसा घटित हो, तो व्यभिचार का दोष होता है. परन्तु विविध
जन्म लेकर, प्रत्येक जन्म में एक ही से विवाह करने पर यह दोष
नहीं लगता. यह कालचक्र का प्रभाव है. ऐसी कितनी ही आश्चर्यजनक घटनाएँ इस महाचक्र
में घटित होती रहती हैं. स्त्री जन्म प्राप्त होने पर उस जन्म के अनुकूल कर्माचरण
करना चाहिए.”
“जो
व्यक्ति पति-पत्नी के बीचा कलह उत्पन्न करता है, वह अगले
जन्म में स्त्री अथवा पुरुष न होकर नपुंसक होता है एवँ संसार सुख से वंचित होकर
दुखी होता है.
माँसाहार
निषिद्ध है. कल्पना करो कि कोई व्यक्ति किसी बकरे को मारकर चार-पांच लोगों के साथ
माँसाहार करता है. उस बकरे को प्राणोत्क्रमण के समय अत्यंत पीड़ा होती है, उसके
पीड़ित स्पंदन वायुमण्डल में विचरण करते रहते हैं. बेटा! वायुमंडल में पीडामय तथा
आनंदमय, दोनों प्रकार के स्पंदन विद्यमान रहते हैं. सत्कर्मों के परिणामस्वरूप
आनंदमय स्पंदन एवँ दुष्कर्मों के कारण पीडामय स्पंदन उत्पन्न होते हैं. मृत बकरा उसे
मारकर खाने वाले उन चार-पांच मानवों का प्रतिशोध लेने की भावना से प्राण त्यागता
है, इस कारण वह मानव का जन्म ग्रहण करता है तथा उसका
माँस भक्षण करने वाले मानवों का बकरे के रूप में जन्म होता है. अतः मानवों को
क्षमा-गुणों को अपनाना चाहिए, सात्विक व्यक्ति के मन में
बकरे को देखकर भी उसका माँस भक्षण करने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती. यदि वह बकरा
पूर्व जन्म में उसे मारने वाले मनुष्यों को क्षमा करे तो उसे प्राणदान देने का
पुण्य प्राप्त होकर उसका कर्मचक्र रुक जाता है.
पीठिकापुर
के निवासियों का सामूहिक पुण्य तथा सामूहिक पाप एक ही समय में फलीभूत होने से वह
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के जन्म हेतु कारणीभूत हुआ. पुण्यवान लोग यह जानकर कि
श्रीपाद प्रभु श्री दत्त प्रभु हैं और अधिक पुण्यफल प्राप्त करते रहे, जबकि पापी जन श्रीपाद स्वामी के श्री दत्त प्रभु होने को नकार कर अधिक
पाप के भागीदार बने. श्री दत्तात्रेय की आराधना करते हुए श्रीपाद स्वामी की निंदा
करने वालों को रौरवादी नरक की प्राप्ति होती है. यदि किसी विषय को समझाने में कोई
व्यक्ति असमर्थ हो, तो उसके लिए मौन धारण करना ही उचित है. परन्तु
उस दिव्य, भव्य, मंगल स्वरूप की निंदा
करना उचित नहीं. उनके मुख की मंगलारती करके पैरों में कीलें ठोंकने वाले, ऐसे लोग
व्याधिग्रस्त होंगे. इतना ही नहीं, श्री दत्तात्रेय प्रभु ने
अपने अनुग्रह से एक विचित्र योग शक्ति का समावेष किया. पुण्यवान जनों के केवल
नामस्मरण करने से सकल मनोरथ पूरे हो जाते, जबकि श्रीपाद
प्रभु की निंदा करने के कारण पापीजनों पर नाना प्रकार के विघ्नों एवँ अनिष्टों का
पहाड़ टूट पड़ता.
श्रीपाद
स्वामी का स्वरूप अग्नि स्वरूप है. उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह अग्नि वस्त्र है. वे पवित्र योगाग्नि स्वरूप हैं. उनकी चरण पादुकाओं
की महिमा का वर्णन करने में अनेकानेक युग भी कम ही हैं. वेद-उपनिषद् भी उनकी चरण पादुकाओं की महिमा का वर्णन करने में
असमर्थ हैं. कितने युग बीत गए! कितने कल्प बीत गए! कितनी बार सृष्टि, स्थिति, लय के क्रम पूर्ण हुए! परन्तु श्री दत्तात्रेय, श्री दत्तात्रेय ही हैं.
वे अद्वितीय हैं, वे साक्षात श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं! सृष्टि
का प्रत्येक अणु इस परम सत्य का साक्षी है.
स्वयंभू
दत्तात्रेय की पुनः प्रतिष्ठा.
श्री पीठिकापुर में एक अवधूत का आगमन हुआ. वे उन्मत्त
अवस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष थे. उनका व्यवहार बड़ा विचित्र था. यदि किसी को
आशीर्वाद देते, तो उस पर गालियों की बौछार करते. ऐसा विचित्र था उनका
स्वभाव! यदि किसी की स्तुति करते, तो उस व्यक्ति का पुण्य क्षीण हो जाता.
पीठिकापुरवासियों ने उस सिद्ध से पूछा कि स्वयंभू
दत्तात्रेय की मूर्ती कहां है, तब वे बोले कि श्री दत्तात्रेय सकल पुण्य क्षेत्रों
में स्नान करने के पश्चात इस समय एक नदी में हैं. भक्तों ने ढूँढने का खूब प्रयत्न
किया, तब एक नदी में स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती मिली. एक शुभ मुहूर्त पर उस
मूर्ती की पुनः प्रतिष्ठा सर्व मंगलप्रद सुमति महारानी एवँ ब्रह्मतेज से युक्त श्री
अप्पलराज शर्मा ने की. उस महोत्सव की यजमानी कर रहे थे श्री बापन्नार्य.
विद्यायरण्यों का प्रकटन
मंदिर
में मूर्ति की पुनःप्रतिष्ठा जिस दिन हुई, उस दिन श्री
बापन्नार्य ने उस सिद्ध पुरुष को अपने घर भिक्षा हेतु आने की प्रार्थना की. नानाजी
के घर उस सिद्ध योगी को श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. केवल दो वर्ष के उस बालक को
देखकर उस सिद्ध पुरुष के मन में पुत्र-वात्सल्य की भावना हुई. श्रीपाद प्रभु अपने
मामा के कंधे पर बैठकर उनकी शिखा से खेलते हुए, सिद्ध की और देखकर हँसे. वह हास्य
देखकर सिद्ध योगी तत्क्षण समाधिस्त हो गए. समाधि से निकलने पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माधवा! तेरी इच्छा के अनुसार हिन्दू राज्य की स्थापना, मेरी आयु १६ वर्ष की होने पर, करेंगे. तुझे हरिहर-बुक्कराय
के साथ हमेशा रहना होगा. तुम विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होगे. तुम्हारे
भाई सायणाचार्य के वंश में आगामी शताब्दी में गोविन्द दीक्षित का जन्म होगा. वह
गोविन्द दीक्षित कोई और नहीं, अपितु तू ही होगा! राजर्षि होकर तंजावूर संस्थान में
महामंत्री पद का भार संभाल कर कृतकृत्य हो जाओगे.”
यह
सुनकर सिद्ध योगी के नेत्रों से आनंदाश्रू बहने लगे, उन्होंने
श्रीपाद प्रभु को अपने पास लिया. इतने में श्रीपाद प्रभु ने उस सिद्ध योगी के चरणों
में प्रणाम किया. सिद्ध योगी के आश्चर्य प्रकट करते ही श्रीपाद प्रभु बोले, “तुम विद्यारण्य के नाम से श्रुंगेरी के पीठाधिपति बनोगे. तुम्हारी शिष्य
परंपरा में तीसरे शिष्य कृष्ण सरस्वति भी तुम ही होगे. तुम्हारे मन में मेरे प्रति
पुत्र भाव उत्पन्न हुआ, अतः नृसिंह सरस्वति के नाम से होने
वाले मेरे अगले अवतार में, काशी क्षेत्र में कृष्ण सरस्वति के रूप में तुम मुझे
संन्यास दीक्षा दोगे. तुम संन्यास धर्म का उद्धार करोगे. इसके साक्षी होंगे श्री
काशी विश्वेश्वर एवँ माता अन्नपूर्णा.
वशिष्ठ
शक्ति पराशर त्र्यार्षेय (प्रवरान्वित) पाराशर गोत्रोद्भव् ऋग्वेदान्तर्गत,
वाजपेययाजी माधवाचार्य विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होंगे. बेटा! कल तुझे
कुछ और चरित्र-महिमा सुनाऊंगा,”
इतना
कहकर तिरुमलदास ने उस दिन का निरूपण वहीं समाप्त किया.
।।
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जयजयकार हो।।