।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १५
बंगारप्पा. सुन्दरराम शर्मा की कथा
मैंने श्री दत्तानंद से आज्ञा लेकर आगे की
यात्रा आरम्भ की. रास्ते में मुझे प्यास लगी और मैं निकट ही स्थित एक कुएँ के पास
गया. पानी निकालने के लिए वहाँ एक डोल भी था. मैंने कुएँ में यह देखने के लिए
झांका कि उसमें कितना पानी है. मुझे एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया. कुएँ के भीतर एक
टहनी को पकड़कर एक व्यक्ति ऊपर नीचे कुलांटे मार रहा था. उस अपरिचित व्यक्ति ने
स्नेहपूर्वक मेरी और देखा और बोला, “अरे, शंकर भट्ट!” मुझे
आश्चर्य हुआ कि उसे मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ. मैंने उत्सुकतावश उससे पूछा, “आपको मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?” वह व्यक्ति बोला, “मैं न सिर्फ तुम्हारा
नाम जानता हूँ, बल्कि यह भी जानता हूँ, कि तू श्रीपाद प्रभु का भक्त है और उनके दर्शन के लिए कुरुगड्डी जा रहा है.
मैं तेरी ही राह देख रहा था.”
मैं यह सोच रहा था कि उसे कुएँ से बाहर कैसे
निकालूँ. मेरे पास जो रस्सी थी, वह मज़बूत नहीं थी. मेरे मन के भाव जानकर वह पुण्य
पुरुष बोला, “तू सांसारिक बंधनों में जकड़ा, संसार रूपी कुएँ
में पडा मानव मुझे क्या बाहर निकालेगा जो इस विचित्र योग-प्रक्रिया में निहित
आत्मानंद में मगन है? मैं स्वयँ ही बाहर आऊँगा. यदि मेरी शक्ति
अपर्याप्त होगी तो श्रीपाद प्रभु करुणापूर्वक अपना अनुग्रह करते हैं.”
इतना कहने के बाद पल भर में ही वह मेरे निकट खडा
था. मैं हैरान हो गया. वह बोला, “मेरा नाम बंगारप्पा है. लगता है कि तुझे प्यास
लगी है, मैं तेरी प्यास बुझाऊंगा.” ऐसा कहकर उसने डोल की सहायता से जल्दी-जल्दी
पानी निकाला और स्वयँ ही उसे पी गया. परन्तु आश्चर्य की बात यह थी कि पानी उसने
पिया, और प्यास मेरी बुझ गई. मैं विस्मित था. फिर हम
दोनों साथ-साथ आगे चल पड़े.
उसने कहना आरम्भ किया, “मैं सुनार हूँ. मैंने मन्त्र-तंत्र विद्या आत्मसात की थी. मेरे मन्त्रों
की सामर्थ्य से मैं अपने अप्रिय व्यक्ति को मार भी सकता था. भूत-प्रेत, पिशाचों के सहवास में भी मैं रह चुका था. मेरा नाम सुनकर लोग डर जाते थे.
जिस गाँव में मैं जाता, वहाँ मैं भूत-प्रेत के प्रयोग न करूँ, इसलिए लोग मुझे बहुत सारा धन देते. मेरे मुख से साधारण व्यक्ति के चहरे पर
रहने वाली प्रसन्नता लुप्त हो गई, और उस पर भूत-प्रेतों के विकृत भाव आ गए, चेहरा
अत्यंत क्रूर दिखाई देने लगा.
एक बार अपने पूर्व पुण्य के फलस्वरूप यात्रा
करते-करते पीठिकापुरम् पहुँचा. श्री दत्त प्रभु के अवतार से पवित्र हुए उस गाँव
में क्षुद्र कुतंत्र की, परस्पर कलह की कोई कमी नहीं थी. श्री
बापन्नाचार्युलु तथा श्रीपाद प्रभु के बारे में अनेक विचित्र बातें मैंने सुनी
थीं. मैंने सोचा कि सर्वप्रथम बापन्नाचार्युलु को मार डाला जाए. मैं एक झरने के
निकट जाकर चुल्लू भर-भरकर पानी पीने लगा. मनुष्यों को मारने की अनेक विद्याओं का
मुझे ज्ञान था, उनमें से एक यह थी कि जिस व्यक्ति का अंत करना हो, उसका ध्यान करके पानी पीने से पानी उस व्यक्ति के पेट में जाता था. मैं जब
उस झरने में से पानी पी रहा था तो श्रीपाद प्रभु बापन्नाचार्युलु के पास बैठे थे.
श्रीपाद प्रभु प्रेम पूर्वक बापन्नाचार्युलु के पेट पर हाथ फेरते और वह पानी तुरंत
उड जाता. मैं पानी पी-पीकर थक गया, परन्तु बापन्नाचार्युलु पर उसका कोई भी अनिष्ट परिणाम नहीं हुआ. वे सुरक्षित ही रहे.
मेरी विद्या फलीभूत नहीं हुई, इसका मुझे दुख हुआ.
श्रीपाद प्रभु ने क्षुद्रोपासक को दण्ड दिया
मुझे एक सर्प मन्त्र ज्ञात था. इस मन्त्र के प्रयोग से इच्छित व्यक्ति के
घर जाकर सर्प उसे दंश करता था. मैंने बापन्नाचार्युलु का ध्यान करके उस मन्त्र का
पाठ किया. अनेक सर्प बापन्नाचार्युलु के घर गए और उनके घर में एक बेल पर पडवल के समान
लटकने लगे. परन्तु वे बापन्नाचार्युलु का कुछ भी बिगाड़ न सके. दो मुहूर्त की
समयावधि समाप्त होने पर वे जहाँ से आये थे, वहीं लौट गए. मेरा दूसरा प्रयत्न भी निष्फल हो गया था. मेरे अधीनस्थ
भूत-प्रेत बापन्नाचार्युलु के घर के निकट भी नहीं जा सकते थे. मैं समझ गया कि यह
सब श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का चमत्कार है. मैंने स्मशान में जाकर श्रीपाद प्रभु
की आटे की मूर्ती बनाई और उसमें बत्तीस स्थानों पर सुईयां गडा दीं. इस मारण क्रिया
में श्रीपाद प्रभु के शरीर के बत्तीस स्थानों पर घाव हो जाएँ, वे सुईयां द्रवित होकर उनके शरीर में ज़हर बन कर फ़ैल जाए और इसी से उनका
अंत हो जाए – ऐसी दुष्ट चाल थी मेरी. परन्तु यह कोशिश भी सफल न हुई. एक रात में
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मेरे शरीर में पानी भरता जा रहा है. इससे मुझे अतीव
वेदना होने लगी. बापन्नाचार्युलु के घर जो सर्प मैंने छोड़े थे, वे सब मेरे पास पहुंचकर मुझे ही दंश करने लगे. श्रीपाद प्रभु की आटे की
मूर्ती में मैंने जहाँ-जहाँ सुईयां चुभोई थीं, उन-उन स्थानों पर मुझे असह्य वेदना होने लगी, मैं नरक यातनाओं का अनुभव कर रहा था. मैं अपने अंतर्मन सहित श्रीपाद प्रभु
की शरण में गया. मेरी अंतर्दृष्टि को श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. वे बोले, “बंगारप्पा! तूने जो महापाप किये हैं उनके परिणाम स्वरूप तुझे इस लोक में
तो क्या, नरक में भी दुःख भोगने पड़ते. परन्तु मैंने
तुझ पर कृपा करके एक रात की यातनाओं
द्वारा तेरे कर्मों का नाश कर दिया है. तेरी सारी क्षुद्र विद्याएँ भी मैं नष्ट कर
रहा हूँ. फिर भी यदि तुझे कोई प्यासा व्यक्ति दिखाई दे तो तू स्वयँ पानी पीकर उसकी
प्यास बुझा सकेगा. कुंलाटे मारते हुए झूलना एक योग प्रक्रिया है. उसका अभ्यास करके
तू आनंद को प्राप्त कर सकेगा. आज से सात्त्विक प्रवृत्तियों का स्वीकार करेगा.
मेरे माता-पिता के अथवा श्री बापन्नाचार्युलू के घर में पैर रखने के लिए अनेक
जन्मों के पुण्य की आवश्यकता होती है. इस जन्म में वह सौभाग्य तुझे प्राप्त नहीं
होगा. जीवन प्रदान करने वाला परमेश्वर है, अतः प्राण हरण करने का अधिकार भी उसीका है. माता-पिता जन्मदाता हैं, अतः वे परमपूज्य होते हैं. जो उनकी वृद्धावस्था में उनका अनादर करता है, उन पर मैं अनुग्रह नहीं करता. तूने अपनी क्षुद्र विद्या से कितने ही
निष्पाप व्यक्तियों को अकाल मृत्यु दी है. उस पाप का फल तू शंकर भट्ट नामक कन्नड़
ब्राह्मण की भेंट होने तक भोगेगा. फिर वह पाप समाप्त हो जाएगा. शंकर भट्ट मेरे
चरित्र को लेखनीबद्ध करेगा. ऐसा श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा था.”
जब यह घटना घटित हुई तब श्रीपाद प्रभु की आयु सात-आठ वर्ष की थी. उस दिन से
मैं तुम्हारी राह देखा रहा हूँ. आज मेरे लिए बड़े सौभाग्य का दिन है, ऐसा बंगारप्पा ने कहा.
इस घटना से मैं विस्मय चकित रह गया. मैंने पूछा, “आपके पानी पीने से दूसरे की प्यास कैसे बुझती है? इसके पीछे कारण क्या है?”
इस पर बंगारप्पा बोले, “एक योग
प्रक्रिया के द्वारा मैं अन्य व्यक्तियों की प्राणमय शक्ति से संबंध स्थापित करता
हूँ. इसके माध्यम से, तादात्म्य भावना से, यह संभव होता है. रामायण युग में किष्किन्धा नगरी के वानर राज बाली को एक
योग प्रक्रिया के माध्यम से उससे युद्ध कर रहे योद्धा से दुगुनी शक्ति प्राप्त हो
जाती थी. इसी कारण श्री रामचंद्र ने पैड के पीछे छिपकर उसका वध किया था.
महर्षि विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को बला एवँ अतिबला नामक दो अत्यंत
पवित्र मन्त्रों का उपदेश किया था. इन मन्त्रों में निहित स्पंदनों के प्रभाव से
प्राणशक्ति की सिद्धी की जा सकती है. मानव शरीर के शुद्धि-क्रम की बारह अवस्थाएँ
होती है. श्री रामचंद्र का देह बारहवीं अवस्था में था. श्रीपाद प्रभु का देह भी
बारहवीं अवस्था में है, अतः उनकी
अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान, अनंत व्यापकता सहज सिद्ध है.
साधना मार्ग
की सात अवस्थाएँ
मानव अपने विकास क्रम में सात अवस्थाओं में होता है.
पहली अवस्था में वह स्थूल देहेंद्रियों का एक साथ प्रयोग कर सकता है. दूसरी
अवस्था में सूक्ष्म देहेंद्रियों के आधार पर सूक्ष्म प्रपंच का अनुभव करते हुए
छोटे-छोटे चमत्कार करने की सामर्थ्य उसे प्राप्त होती है. तीसरी अवस्था में
सूक्ष्म शरीर द्वारा दूर प्रयाण कर सकता है. तीसरी एवँ चौथी अवस्थाओं में वशीकरण
केंद्र होता है. वशीकरण की अवस्था में वह जिस स्थिति में होता है, उसीमें रहता है.
जब गौतम महर्षि ने अहिल्या को शाप दिया तो वह आश्चर्य चकित रह गई. उसका दृढ़
विश्वास था, कि वह शील चैतन्य की अवस्था में है. श्री
रामचंद्र के दर्शन होने तक वह उसी स्थिति में रही. जिस प्रकार अहिल्या का शरीर
शिला की अवस्था में चला गया था, उसी प्रकार
उसका मन भी उस स्थिति में चला गया था. अर्थात् वह तीसरी और चौथी अवस्था के बीच में
स्थित वशीकरण केंद्र में रही. श्री रामचंद्र की चरण रज के स्पर्श से उनका मनोपुष्प
विकसित हुआ और वह अपनी सहज स्थिति में आ गई.
चौथी अवस्था में स्थित आत्मा को अतिशय विस्तारित योग शक्ति प्राप्त होती
है. अतः यदि अपनी योग शक्ति का उपयोग लोक कल्याण के लिए किया जाए तो उच्चस्थिति
प्राप्त होती है. परन्तु यदि इस शक्ति का प्रयोग पाप कार्यों के लिए, तुच्छ
प्रयोजनों के लिए किया जाए तो पतन होकर शिला की अवस्था में जाने का भय होता है.
ऐसा होने पर अनेक हज़ार जन्मों के उपरांत मानव जन्म प्राप्त होता है. पाँचवीं
अवस्था में स्थित साधक संकल्पज्ञानी होते हैं. छठी अवस्था वाले भावज्ञानी होते हैं
संकल्पज्ञानी साधक दैवी साक्षात्कार के साथ साथ सांसारिक कार्यकलाप भी चलाते हैं.
भावज्ञानी साधकों की सांसारिक कार्यों में रूचि कम होती है. सातवीं अवस्था वाले
साधक परमात्मा के पास जो ज्ञान है उसे प्राप्त कर सकते हैं.
अवतारी पुरुष एवँ साधक में अंतर
बंगारप्पा की बातें सुनकर मेरे मन में कुछ संदेह उत्पन्न हुए. उनका समाधान
प्राप्त करने के लिए मैंने उनसे प्रश्न किया, “महाराज, जीवन में
क्या परिणाम क्रम ही होता है? क्या यह
अवतारी पुरुषों के लिए भी सत्य है?”
इस पर बंगारप्पा बोले, “अवतारी
पुरुष काल की महिमा से जन्म लेते हैं. जब मानव भगवान हो जाता है, तब उसे समर्थ सदगुरु कहते हैं, जब ईश्वर मानव के रूप में आते हैं, तब उन्हें अवतारी पुरुष कहते हैं. मत्स्य पानी में तेज़ गति से तैर सकता
है. कूर्म पानी में तथा ज़मीन पर, दोनों
स्थानों पर रह सकता है. वराह, अर्थात् खड्ग
मृग भूमि पर सहजता से चल सकने वाला प्राणी है. सिंह पशुओं में सर्व श्रेष्ठ प्राणी
है. नरसिंह अवतार में विष्णु भगवान ने सिंह का मुख एवँ मानव का शरीर धारण किया था.
याचना प्रवृत्ति रखने वाला, तमोगुण
प्रधान अवतार था वामन अवतार. रजोगुण से युक्त था परशुराम अवतार, सत्वगुण प्रधान अवतार था – श्री रामावतार. त्रिगुणों से परे, निर्गुण तत्व
प्रधान – ऐसा था श्री कृष्णावतार. जिसमें कर्म प्रधान था, वह था बुद्ध अवतार. समस्त सृष्टि के एकत्व के अनेकत्व को, और अनेकत्व के
एकत्व को स्वयँ में सम्मिलित करने वाला, अत्यंत
अद्भुत, अत्यंत विलक्षण युगावतार – अर्थात् श्रीपाद
श्रीवल्लभावतार. श्रीपाद प्रभु से जिनका कोई ऋणानुबंध नहीं – ऐसे कोई योग
संप्रदाय, कोई मत, कोई धर्म नहीं है. श्रीपाद प्रभु की स्थिति को अत्यंत बुद्धिवान
भी समझ नहीं पाते. उनके जैसे बस वे ही हैं. सभी सिद्धांतों का, सभी सम्प्रदायों का समन्वय उन्हीं से होता है, इस समूची सृष्टि के आदि बिंदु वे ही हैं, अंतिम बिंदु भी वे ही हैं. स्पन्दनशील, ऐसे संसार के व्यवहारों का
निरीक्षण करने वाले, उसकी रक्षा
करने वाले, उसका निर्माण एवँ विनाश करने वाले वे ही
हैं. यह एक गूढ रहस्य है. सप्त ऋषि भी जिसे समझ नहीं पाए, उसके बारे में मैं क्या
बताऊँ? बेटा, शंकर भट्ट! तू धन्य है. उनकी निर्मल करुणा जिसे प्राप्त होती है, वह धन्य है. अन्य सभी जीव व्यर्थ हैं.
सत्कर्म एवँ दुष्कर्म का फल
मैंने पूछा, “महाराज, मेरे मन में एक संदेह उठा है. समस्त कर्मों का बोध करवाने वाला जब वही है, तो कुछ लोग अच्छे, तथा कुछ लोग
बुरे क्यों पैदा होते हैं?” इस पर
बंगारप्पा जोर से हँसे और बोले, “तूने अच्छा प्रश्न पूछा है. समूची सृष्टि द्वैत से ही निर्मित हुई है. यदि मृत्यु का भय न हो तो जन्म
देने वाली माँ भी बच्चे से प्यार नहीं करेगी. वेदों में ‘पुरुष’ इस शब्द का ‘आत्मा’ के अर्थ में प्रयोग किया जाता है, फिर भी
‘आत्मा’ अर्थात ‘पुरूष’ नहीं है. ‘पुरूष’ शब्द ‘देह’ का प्रतीक है,
जबकी ‘आत्मा’ ‘देह’ नहीं है. वह ‘देह’ से भिन्न है. वह अजन्मा, अव्यक्त, अचिन्त्य और विकार रहित है. मानव
में तथा प्राणिमात्र में एक ही आत्मा का वास है. परन्तु मनुष्यों और देवताओं में
भेद होता है. उसी भेद के कारण मनुष्य देवत्व प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील
रहता है. इस प्रयत्न के कारण ही मानव का विकास होता है. ऐसी बात नहीं है कि
देवताओं में केवल अच्छी, सृजनात्मक शक्ति ही
होती है. उनमें कुछ विघटनकारक, विनाशकारक शक्तियां भी होती हैं. आवश्यकतानुसार
अच्छी अथवा बुरी शक्तियों का प्रयोग करके देवता सृष्टि के क्रम को सुव्यवस्थित रूप
से चलाते हैं.
मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख पूर्व कर्मानुसार आते हैं. दुःखों
के आने पर मानव को सुख का महत्त्व ज्ञात होता है और वह सुख प्राप्त करने की इच्छा
करता है. कई बार ऐसा प्रतीत होता है, कि जगत में अनेक दुष्ट, कुकर्मी, नास्तिक, दूसरों को सताने वाले लोग
अत्यंत सुखी जीवन जीते हैं, जबकि सत्यवचनी, सदाचारी, सत्शील, प्रामाणिक व्यक्तियों को
अनेक भीषण संकटों का सामना करना पड़ता है. इस विरोधाभास का कारण यह है कि कुकर्म
करते हुए सुख का उपभोग करने वाले लोगों ने अपने पूर्व जन्मों में कुछ सत्कर्म किये
थे, जिनके
फलस्वरूप उन्हें इस जन्म में सुख प्राप्त हुआ है. उसी प्रकार सज्जन लोग आज जिन
दुःखों को भोगते दिखाई देते हैं, वे उनके पूर्व जन्मों के पापों का फल है. मनुष्य को
अपने पाप एवँ पुण्य का फल तुरंत प्राप्त नहीं होता, कुछ समय पश्चात प्राप्त होता
है. परन्तु यदि पाप अथवा पुण्य अत्यंत तीव्र स्वरूप का हो तो उसका फल तुरंत मिलता
है. अच्छे अथवा बुरे कर्म करना मानव के हाथ में है. जब जब समाज में अधर्म की
वृद्धि होकर दुष्ट, दुराचारी लोगों द्वारा सज्जनों को, संतों को सताया जाता है, तब तब भगवान सगुण रूप में
अवतार लेकर पापियों, दुराचारियों का नाश करके संतों की, सज्जनों की रक्षा
करते हैं.
हज़ारों वर्षों से आकाश में तारे, ग्रह आदि हैं, परन्तु वे आज
जैसे सुव्यवस्थित नहीं थे. समयानुसार इन तारामंडलों के अनेक तारे गिरकर पाषाण बन
गए, अनेक ग्रह एक दूसरे में समा गए. पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते
हैं. इन ग्रहों के आकर्षण, विकर्षण, से ही सृष्टि का चालन होता है.
परमेश्वर के प्रति आकर्षण से लोग आस्तिक होकर सत्कर्म की
और प्रवृत्त होते हैं. जिन लोगों के मन में ईश्वर के प्रति आकर्षण नहीं होता वे
नास्तिक होकर दुष्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं. इन दोनों प्रकार के कर्मों का कारण
वे स्वयँ ही होते हैं.
वेलुप्रभु महाराज का गर्व भंग
पीठिकापुरम्
नगर में वेलूप्रभु महाराज का राज्य था. वे वेष बदलकर नगर में घूम घूम कर प्रजा की
स्थिति का अवलोकन किया करते. एक बार उनके मन में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु से मिलने
की इच्छा उत्पन्न हुई. उन्होंने अपने सेवकों को अप्पल राजू शर्मा के घर पर यह आदेश
देकर भेजा कि श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को तुरंत लेकर आएँ. उस समय श्री बापन्नाचार्युलु घर में
थे. सेवकों ने उन्हें राजाज्ञा सुनाई. नाना जी ने प्रभु से कहा, कि पीठिकापुरम्
के महाराज ने तुम्हें मिलने के लिए बुलाया है. श्रीपाद प्रभु बोले, “ताता!
राजा के मन में भक्तिभाव नहीं है, वह अहंकारवश मुझे आने की आज्ञा दे रहा है. उसे ऐसा
प्रतीत होता है कि वह महाराज है, अतः सब
लोगों पर उसका अधिकार है. जो वह कहे, वैसा ही होना चाहिए, ऐसा उसका विश्वास है.
परन्तु उसे यह नहीं मालूम है कि मेरे दर्शन प्राप्त करना आसान नहीं. मैं महाराज से
मिलने नहीं जाऊंगा.”
प्रभु
ने राजा के सेवकों से कहा, “तुम्हारे महाराज केवल इस पीठिकापुरम् के राजा हैं,
परन्तु मैं तो समस्त विश्व का चक्रवर्ती सम्राट हूँ. अपने महाराज से कहो कि यदि
मेरे दर्शनों की इच्छा है तो वे स्वयँ हमारे घर आएं. आते समय गुरुदक्षिणा एवँ
चक्रवर्ती सम्राट के लिए यथोचित उपहार लाना न भूलें.”
श्रीपाद
प्रभु का यह कथन सुनकर अप्पल राजू शर्मा एवँ बापन्नाचार्युलु ने आपस में विचार
विमर्श करके सेवकों को संदेश देकर भेज दिया.
सेवकों
ने प्रभु का सन्देश राजा को दिया. राजा अत्यंत क्रोधित होकर बोला, “मैं इस
नगरी का महाराजा हूँ. देखता हूँ, कि श्रीपाद श्रीवल्लभ मेरी आज्ञा का कैसे उल्लंघन करते
हैं.” इतना कहते ही वे चक्कर खाकर सिंहासन से
नीचे गिर पड़े. सभी सेवक सिंहासन के पास भागे. उन्होंने पानी पिलाकर राजा को
होश में लाने का प्रयत्न किया, परन्तु राजा की मानो समूची शक्ति नष्ट हो गई थी एवँ
उन्हें भयानक नरक यातनाएँ होने लगीं. फ़ौरन राज पुरोहित श्री कोटसुन्दर शर्मा को
बुलाया गया. उन्होंने महाराज की परिस्थिति देखकर स्वयँ श्री दत्तात्रेय की श्रद्धा
भाव से पूजा की एवँ तीर्थ-प्रसाद महाराज को दिया. माथे पर विभूति लगाई. राज
पुरोहित बोले, “देखा न मेरी पूजा-अर्चना का परिणाम! आपने श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के
दर्शनों की इच्छा की, वह व्यर्थ है. क्योंकि वे स्वयँ ही श्री दत्त प्रभु के अवतार हैं. उनके
पूजन से छोटी-छोटी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं. बापन्नाचार्युलु को भी उन्हीं के
कारण मन्त्र सिद्धी प्राप्त हुई है. श्री वेंकट शास्त्री - जो धूर्त वैश्य है,
झूठा प्रचार करता है कि प्रभु को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हैं. महाराज, माना कि
आप शक्तिशाली हैं, परन्तु श्रीपाद स्वामी को बांधकर लाना योग्य नहीं है, और वह
आपके हित में नहीं.”
महाराज
राजपुरोहित से बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने किन्हीं दुष्ट शक्तियों का प्रयोग करके हमें
हानि पहुँचाई है. आप इस पर कोई उपाय बताएँ.”
राज
पुरोहित बोले, “महाराज, आप विद्वान ब्राह्मणों द्वारा श्री दत्त-पुराण पठन करवाएं. स्वयंभू श्री
दत्तात्रेय की पूजा करके समाराधना कराएं और ब्राह्मणों को भूदान, सुवर्णदान, एवँ
अन्नदान करें. ऐसा करने से श्री दत्त प्रभु प्रसन्न होकर आपकी व्याधि पूरी तरह ठीक
करेंगे.”
राजा
ने राज पुरोहित के कथनानुसार विद्वान ब्राह्मणों द्वारा श्री दत्त-पुराण का पठन
प्रारम्भ करवाया. परन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि पठन आरम्भ करने पर नगर में
चोरों की संख्या बहुत बढ़ गई, उन पर नियंत्रण करना राजा के लिए असंभव हो गया. उसी रात
को राजा के सपने में उसके पितर आये. वे एकदम क्षीण एवँ दयनीय दिखाई दे रहे थे. वे
कह रहे थे, “अरे वेलू! तू हमें श्राद्ध का भोजन नहीं देता. इस प्रेत योनि से मुक्ति
दिलाने के लिए कुछ नहीं करता.” महाराज बोले, “तात! मैं तो शास्त्रों के
अनुसार ही श्राद्ध कर्म करता हूँ.” पितर बोले, “परन्तु वह हम तक नहीं
पहुँचता. परन्तु ब्राह्मण खा-खाकर हृष्ट-पुष्ट होते जा रहे हैं. यदि राजा एवँ
ब्राह्मण दोनों श्रद्धायुक्त अंतःकरण से मंत्रोच्चारसह श्राद्ध कर्म करें, तभी वह
हमें प्राप्त होगा.”
पितरों
की बातें सुनकर राजा को रात में नींद भी नहीं आई. इसी समय उसकी विवाह योग्य, सुन्दर
कन्या भूत-बाधा से पीड़ित होकर, बाल खोलकर, भयानक हास्य करते हुए, क्रोधित होकर घर की सब
वस्तुएं बाहर फेंकने लगी. वह भोजन करने बैठती तो उसे अन्न में कीड़े दिखाई देते और
वह भोजन फेंक देती. उसके शरीर के वस्त्रों में एकदम आग लग जाती. इस प्रकार महाराज
को चारों और से संकटों ने घेर लिया. उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई.
राजा
की सहायता करने वाले राज पुरोहित की स्थिति भी अत्यंत शोचनीय हो गई थी. उसकी सौम्य, शांत
स्वभाव की पत्नी अचानक भयानक क्रोधित स्वभाव की हो गई. वह पति के सिर पर बर्तन
मारने लगी. उसके पुत्र ने खुद राज पुरोहित को घर में रस्सी से एक खम्भे के साथ
बाँध दिया. जब उसे भूख लगती तो उसके सामने घास की पूली डाल देता और उसके न खाने पर
गर्म सलाखों से उसे दाग देता. जो ब्राह्मण श्री दत्त-चरित्र का पठन कर रहे थे, वे जैसे
ही पठन समाप्ति के पश्चात भोजन करके घर लौटते, उन्हें घर में तांडव करते
भूत पिशाच्च दिखाई देते. यह देखकर वे बेचारे ब्राह्मण अत्यंत भयभीत हो जाते. वे
भूत ब्राह्मणों से कहते, “तुम्हारे महाराज ने अनगिनत पाप किये हैं, हमें अपने
पति से दूर करके हम पर बड़े-बड़े अत्याचार किये. राजा द्वारा वाम मार्ग से प्राप्त
किये धन को तुम दान-दक्षिणा के रूप में स्वीकार कर रहे हो, इसीलिये हम तुम्हें
कष्ट दे रहे हैं.
यह
सब परिस्थिति देखकर ब्राह्मण, राज पुरोहित एवँ स्वयँ महाराज अत्यंत भयभीत हो गए. वे
समझ नहीं पा रहे थे कि इस सबसे कैसे मुक्ति पाएँ.
राज
पुरोहित ने राजा से कहा, “श्री दत्त-चरित्र के पठन से सब दुःखों का नाश होकर सुख
की प्राप्ति होगी, ऐसा सोचा था, परन्तु सब कुछ विपरीत ही हो गया. अब वे श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के सामर्थ्य को जान गए और उन्हें अपनी
करनी पर पछतावा हुआ. महाराज राजपुरोहित और ब्राह्मणों को साथ लेकर श्रीपाद स्वामी
के दर्शनों के लिए गए और उनकी शरण में जाकर क्षमा याचना की. क्षमाशील एवँ दयानिधान
श्रीपाद प्रभु ने उदार अन्तःकरण से उनके अपराध क्षमा कर दिए. वे बोले, “इस
सृष्टि में प्रत्येक व्यक्ति सेवक ही होता है. मैं जब प्रसन्न होता हूँ, तो उस
सेवक को उसकी सेवा का अधिकाधिक फल प्रदान करता हूँ, परन्तु यदि मैं अप्रसन्न
होता हूँ, तो उसकी सेवा का उसे अत्यंत कम फल देता हूँ. मंदिर में प्रतिष्ठापित
स्वयंभू दत्तात्रेय मैं ही हूँ. कालाग्नि स्वरूप में जो है, वह दत्त
रूप मेरा ही है. प्राणियों के उद्धार के लिए मैं इस जन्म में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
रूप में अवतरित हुआ हूँ. जो श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से मेरी भक्ति करता है उस पर
मैं प्रसन्न होता हूँ. मेरे माता-पिता सौभाग्यवती सुमति और श्री अप्पलराजू
प्रत्यक्ष श्रीलक्ष्मी और भगवान विष्णू ही हैं. मेरे नाना जी किसी एक पूर्व जन्म
में लाभाद महर्षि थे. मेरा जन्म गणेश चतुर्थी के दिन हुआ है.
“अगले,
नृसिंह सरस्वती के अवतार में, मैं अपने नाना जी बापन्नाचार्युलु जैसा दिखूंगा. उस
अवतार में मैं जब गंधर्वपुर क्षेत्र में निवास करूंगा तब भूतों को, प्रेतों
को उनकी योनि से मुक्त करूंगा. मानव को कभी भी विपुल धन, दौलत, शक्ति, सामर्थ्य
का गर्व नहीं करना चाहिए. संपत्ति सत्य मार्ग से अर्जित होनी चाहिए, वाम मार्ग
से उसे कभी न कमाएं. जो संपत्ति वाम मार्ग से अर्जित की जाती है, वह दुःख,
क्लेश, अशांति, वैमनस्य का कारण बनती है. चित्रगुप्त के पास प्रत्येक प्राणी के पाप-पुण्य
का हिसाब होता है. यदि मेरी शरण में आकर आर्तभाव से मुझे श्रीपाद श्रीवल्लभ, दिगंबरा, दिगंबरा,
दत्तात्रेय कहकर पुकारोगे तो मैं तुम्हारे सारे पापों को दहन करके तुम्हें
पुण्यात्मा बनाऊँगा. महाराजा, तूने सत्य को असत्य बतलाकर, असत्य को सत्य कहकर उसका
प्रतिपादन किया इस कारण तुझे इतने संकटों का सामना करना पडा. श्रीपाद श्रीवल्लभ का
उचित सम्मान न करके श्री दत्त-पुराण का पठन करने पर भी तुझे उसका फल प्राप्त न हुआ, उलटे, संकट
झेलने पड़े. श्री दत्त प्रभु स्वयँ ही श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं, यह
त्रिवार सत्य है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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