।। श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १९
श्री गुरुचरण
समागम
वल्लभेश्वर शर्मा दंपत्ति,
सुब्बन्ना शास्त्री और मैं – ऐसे हम चार लोग श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का स्मरण कर
रहे थे. उसी समय उनके घर एक दूर का रिश्तेदार लिंगन्ना शास्त्री आया. वह वेद
शास्त्र पारंगत था. लिंगन्ना शास्त्री ने कहा, “मैं पिता के तर्पण निमित्त पादगया
क्षेत्र,
पवित्र, ऐसे पीठिकापुरम् क्षेत्र में आया. मेरे दादा कर्मठ ब्राह्मण थे. वे धनवान
होते हुए भी स्वभाव से मितव्ययी थे. संकट में पड़े लोगों को शास्त्रों में वर्णित
कोई उपाय बताकर उन्हें अपना बना लेते. पितृ देवताओं को संतुष्ट करने के लिए भाविक
लोग दस प्रकार के दान यथाशक्ति दिया करते. परन्तु मेरे दादा जी अत्यंत कम धन में
सब विधि निपटा देते और इस प्रकार करते जिससे उनका स्वयँ का अधिकाधिक लाभ हो. उनका
यह व्यवहार ब्राह्मण धर्म के अनुरूप नहीं था. कुछ काल के उपरांत,
वार्धक्यावस्था में उनका देहांत हो गया. मेरे पिता भी मेरे दादा जी के ही समान थे.
कालानुसार उनकी भी मृत्यु हो गई. मगर मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार और शास्त्रों के
अनुसार पितृ देवताओं का श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म किया करता. हमारे घर में अकारण
होने वाले गृह कलह के कारण मेरी मन:शान्ति हमेशा भंग होती रहती. मेरे आप्त मित्र, जो
परम शांत स्वभाव के थे, हमारे घर में प्रवेश करते ही रौद्र रूप धारण कर
लेते. इसी समय मेरी पत्नी रूठ कर अपने मायके चली गई. मेरा पुत्र,
पुत्री, दामाद
सभी पग-पग पर मेरा अपमान करते. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया था. मेरा जीवन
नरकमय हो गया था. जीवन में यदि धन हो तो जीने में आनंद आता है. परन्तु मेरे पास तो
धन था ही नहीं. साथ ही गृह कलह भी था. इस सबसे ऊब कर मैंने आत्महत्या करने का
निश्चय किया. परन्तु मन में भय था कि ऐसा करने से मृत्योपरांत पिशाच्च योनि
प्राप्त होगी. मेरी मृत्यु के उपरांत मेरी अंतःक्रिया शास्त्रोक्त पद्धति से नहीं
की जायेगी यह निश्चित था.
एक दिन मैं गौशाला की साफ-सफाई का
काम समाप्त करके भोजन के लिए बैठा. उस दिन मेरी बहू ने मुझे सडा हुआ भोजन परोसा.
उसमें दुर्गन्ध आ रही थी. कुछ कीड़े भी दिखाई दे रहे थे. गौशाला के काम से मैं
अत्यंत थक गया था, और
भूख के कारण मेरी आंखों में आँसू आ गए थे. मेरी स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई थी. मेरे
आप्त गण, मेरे मित्र, पुत्र, पत्नी,
कन्या...ये क्या वास्तव में मेरे हैं? कहीं यह सारा मायाजाल तो नहीं? मेरे
मन में संदेह उठ रहे थे. विचार शक्ति कुंठित हो गई थी. तभी एक अवधूत ने मुझे दर्शन
दिए. उसके नेत्रों से अपार करुणा का सागर उमड़ रहा था. उस करुणा मूर्ती को देखते ही
मैं एक बालक के समान भाग कर उसके पास गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह व्यक्ति
मेरा चिर-परिचित है. उस अवधूत के चरणों पर मैं नतमस्तक हो गया. मैंने उन दिव्य
चरणों को ह्रदय में समा लिया. अवधूत ने थाली में परोसे सड़े हुए अन्न को स्पर्श
करके उसे शुद्ध किया. थाली में परोसा हुआ अन्न अदृश्य होकर उसके स्थान पर “हलवा”
प्रकट हो गया. उस थाली में से थोड़ा-सा हलवा अवधूत ने खाया और बचा हुआ प्रसाद के
रूप में मुझे दिया. मैंने बड़े आनंद से उसे खाया और तृप्त हो गया. उस प्रसाद के
सेवन से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मुझमें नई शक्ति का संचार हो गया हो. फिर अवधूत
ने मुझे एक फावड़ा दिया और मुझसे कहा कि मैं ईशान्य दिशा में भूमि खोदूं. एक बड़ा
गड्ढा खोदने के पश्चात उसमें से कुत्तों के अस्थि पंजर दिखाई दिए. अवधूत ने मुझसे
उस गढ़े में चावल की मांड डालने के लिए कहा. उनके आदेशानुसार मैंने मांड डालकर
उस गढ़े को वापस भर दिया. तब वे अवधूत बोले, “अब
तेरी पिशाच बाधा से मुक्ति हो गई है, और तेरे घर की स्थल शुद्धि हो गई है, अब
सारी बातें तेरे लिए अनुकूल ही होंगी. पादगया जितनी ही महिमा वाले पीठिकापुरम् से
तुझे बुलावा आया है. तू तत्काल यात्रा की तैयारी कर, बाकी व्यवस्था मैं देख लूँगा. हम
पीठिकापुरम् में मिलेंगे.”
अवधूत के आदेशानुसार मैं पीठिकापुरम्
के लिए चल पडा. घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. शरीर पर पहने एकमात्र वस्त्र
में ही मैं निकल पडा. थोड़ी देर बाद शाम हो गई. एक आमराई में मैंने प्रवेश किया.
उसके मालिक नरसिंहप्पा ने मेरा यथोचित स्वागत किया. खाने के लिए आम तथा कुछ अन्य मीठे
फल दिए. उन्हें खाकर मेरी भूख मिट गई. उस आमराई के मालिक की विनती पर मैंने रात
वहीं बिताई. प्रात: स्नान संध्यादी से निवृत्त होकर आगे जाने के लिए निकला, तब
नरसिंहप्पा ने मुझे एक कपडे में कुछ आम बांधकर दिए. अवधूत के कथनानुसार मेरी रहने
की और खाने-पीने की व्यवस्था उत्तम प्रकार से हो गई थी. मुझे उस अवधूत की लीला का
बड़ा आश्चर्य हो रहा था. फिर नरसिंहप्पा ने मुझसे कहा, “कल
से मेरे सपने में एक अवधूत आ रहा है. वह अवधूत मुझसे कह रहा है, कि कल
तेरे पास एक सद्ब्राह्मण आएगा. उसका उत्तम प्रकार से स्वागत करके जाते समय उसे
वस्त्र दान एवँ दक्षिणा भी दे. मार्ग में खाने के लिए तेरे खेत के आम दे. मेरा
सपना आज पूरा हुआ. आपकी सेवा करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ और आपके दर्शनों का
लाभ हुआ. मैं धन्य हो गया.” इस घटना से मुझे पूरा विश्वास हो गया कि वह अवधूत कोई दिव्य
महापुरुष है. कोई साधारण व्यक्ति न होकर कोई दिव्य महापुरुष ही है.
मैं आगे की यात्रा पर चला पडा. नए
वस्त्र पहनकर वेदस्मरण करते हुए जब मैं चल रहा था तो मुझे ऐसा अनुभव हुआ, मानो
मेरे शरीर में तेज़ी से विद्युत् प्रवाहित हो रही है. उस विद्युत् प्रवाह से मुझे
एक अनामिक सुख की अनुभूति हो रही थी. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे साथ-साथ एक
वेदपारंगत महापंडित चल रहा है. वह वेदों में वर्णित सावित्री मन्त्रों का पाठ कर
रहा था. मैं भी उसके साथ वेद पठन कर रहा था. तभी वह बोला,
“सावित्री वर्णन मुख्य मन्त्र है. त्रेता युग में भारद्वाज ऋषि ने सावित्री काठक
चयन किया. यह भी पीठिकापुरम् में ही हुआ. कभी किया गया विधान आज सत्य होकर पीठिकापुरम् में श्री दत्तात्रेय प्रभु श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुए हैं. वेद अपौरुषीय एवँ ईश्वर निर्मित हैं. वेद
पठन का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को ही है, परन्तु वेदाध्ययन सभी वर्णों के लोग कर
सकते हैं. ब्राह्मण श्रीकृष्ण की भक्ति करते थे, परन्तु श्रीकृष्ण प्रभु ब्राह्मणों
का सत्कार करके उनके पैर धोते और इस जल का अपने सर पर प्रोक्षण करते. तुझे
पीठिकापुरम् से बुलावा आया है, तू कितना भाग्यवान है!” तब मैंने पूछा,
“महाराज,
श्रीपाद श्रीवल्लभ कौन हैं और क्या उनकी महिमा का आप वर्णन करेंगे?”
“अरे बेटा,
श्रीपाद प्रभु के दर्शन से सब पापों का क्षालन हो जाता है. वे साक्षात दत्तात्रेय
प्रभु हैं. उनकी जन्मभूमि पीठिकापुरम् क्षेत्र है. प्राचीन काल में जब जब भी धर्म
का ह्रास हुआ, तब तब
परमेश्वर ने पृथ्वी पर मानव अवतार धारण करके सज्जनों का रक्षण तथा दुर्जनों का हनन
किया.
उस समय विष्णुदत्त एवँ सुशीला नामक
एक पुण्यवान दंपत्ति रहते थे. सुशीला एक साध्वी स्त्री थी एवँ अपने पातिव्रत्य तथा
साधना सामर्थ्य के बल पर वह सती अनुसूया के समान थी. विष्णुदत्त अत्यंत विद्वान,
आचारसंपन्न, सत्यशील ब्राह्मण था. उसने अपनी साधना तथा विद्वत्ता के बल पर अत्री
ऋषि के समान स्थान प्राप्त कर लिया था. इस दंपत्ति ने सती अनुसूया एवँ अत्री मुनि
के साथ तादात्म्य स्थिति प्राप्त कर ली थी. यह स्थिति निराकार होते हुए नेत्रों के
लिए अगोचर होती है. शब्दों से उसका वर्णन करना असंभव है, उसे सिर्फ अनुभव किया जा
सकता है. विष्णुदत्त एवँ सुशीला ने अगले जन्म में अप्पल राजू शर्मा तथा सुमति महाराणी
के रूप में जन्म लिया. उनके द्वारा किये गए तप के फलस्वरूप ही उन्हें श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में एक दिव्य पुत्र की प्राप्ति हुई. अप्पल राजू भारद्वाज गोत्र
की आपस्तम्भ शाखा के कृष्ण यजुर्वेदी
ब्राह्मण थे. प्राचीन युग में लाभाद नामक एक वैश्य मुनि थे. वे श्री माता के वासवी
कन्यका अवतार में उनके पिता भास्कराचार्युलू थे. वे ही श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार
में सुमति महाराणी के पिता थे. तुझे पीठिकापुरम् में उस महापुरुष के दर्शन प्राप्त
होंगे. तेरा जिसने उत्तम प्रकार से आदरातिथ्य करके तुझे वस्त्रादि दक्षिणा दी, वह
किसान पूर्व जन्म में पीठिकापुरम् के वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ उनके पिता
सुब्बरामय्या श्रेष्ठी के घर में सेवक था. परम पवित्र सुब्बरामय्या श्रेष्ठी के घर
सेवा करके तथा उनका पवित्र अन्न ग्रहण करने के फल
स्वरूप वह एक वतनदार होकर सभी सुखों को भोग रहा है. पीठिकापुरम् के वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी तथा नरसिंह वर्मा श्रीपाद प्रभु को अत्यंत प्रिय थे. उन्हें श्रीपाद
प्रभु की वात्सल्य भक्ति का लाभ प्राप्त हुआ था.
सभी बंधनों में अत्यंत क्लिष्ट बंधन
है – कर्म बंधन. यदि यज्ञ करते समय गलती से भी पवमान घट टूट जाए तो यज्ञकर्ता
ब्राह्मण का सिर फूटकर वह तत्काल मृत्यु प्राप्त करता है, ऐसा
शास्त्रों का वचन है. परन्तु आजकल यदि पवमान घट टूट भी जाए तो भी यज्ञकर्ता
ब्राहमण को कुछ भी नहीं होता. इसके पीछे क्या कारण है? ऐसा
प्रश्न श्रीपाद प्रभु से शिष्यों ने पूछा. उसी प्रकार वेद शास्त्रों में वर्णित
यज्ञ के फलस्वरूप शुभ घटनाएं ही घटित होती हैं, अशुभ घटनाएं नहीं होतीं. इसके पीछे
क्या कारण है?
श्रीपाद प्रभु ने कहा,
“पुत्र,
वर्त्तमान समय में यज्ञ संपन्न करते समय विद्युत् पदार्थ उतने प्राणघातक नहीं
होते. यज्ञकर्ता पुरोहित का उत्तम साधक होना अनिवार्य है. उनके भीतर प्रचुर मात्रा
में योगाग्नि का होना आवश्यक है. उस अग्नि से पवमान घट के भीतर की विद्युत् भी जल
सकती है. यदि यज्ञकर्ता पुरोहित महायोगी हो और वह शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ करे तो
उसका अच्छा फल प्राप्त होकर विश्व का कल्याण होता है. परन्तु यदि ऐसा न हो तो यज्ञ
की प्रक्रिया तो होती है, परन्तु वेदशास्त्रोक्त फल प्राप्त
नहीं होता. यज्ञादि कर्म में दी जाने वाली दक्षिणा रुपये १६, ११६, १११६ –
ऐसी ही संख्या में दी जाती है. इसके पीछे भी रहस्य है. गोत्र – पितृ संबंधित होता
है, वह सृष्टि के अंत तक बदलता नहीं है. धर्म – सात पुरुषों के बीच ही भ्रमण करता
रहता है. सपिंड – माता से संबंधित होता है. विवाह योग्य पुत्र एवँ धन – दोनों ही
उत्तम कर्म के फल हैं. स्त्री – अग्निरूप होती है – वह प्रकृति के लिए अत्यंत
आवश्यक है.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु अद्वैत मत
के समर्थक थे. वे आदि शंकराचार्य की भाँति पक्षपात रहित थे. गुण भेद रहित श्रीपाद
प्रभु के लिए कुल भेद लेशमात्र भी नहीं था. आदिशंकराचार्य ने अपनी हेम विद्या
सत्वगुणी ब्राह्मण को न देकर रजोगुणी गौड़ कुल के लोगों को दी. शंकराचार्य ने सोचा
कि यदि ब्राह्मणों को हेम विद्या दी गई तो वे धन के लोभ में अपने इष्ट धर्म का
पालन नहीं करेंगे. शंकराचार्य की ही भाँति श्रीपाद प्रभु ने जाति, वर्ण, मत आदि का
भेद भाव न करते हुए हरेक को उसकी योग्यतानुसार अनुग्रह प्रदान किया. पृथ्वी, आप,
तेज, वायु, एवँ
आकाश – ये पञ्च महाभूत एवँ मन, बुद्धि तथा अहंकार - यह अष्टधा
प्रकृति जड़ स्वरूप है. एक (१) यह चित्र प्रकृति का प्रतीक है. २ से ९ तक की आठ
संख्याएं जड़ प्रकृति के द्योतक हैं. शून्य (०) – ब्रह्म तत्व का दिग्दर्शक है. नौ
(९) – इस संख्या में समूची पृथ्वी के कार्यकलापों का रहस्य छिपा हुआ है. श्रीपाद
स्वामी हँस कर कहा करते, “दो चौपाती देव लक्ष्मी” और दो रोटियों के लिए
भिक्षा माँगा करते. यह कथन २,४,९,८ इस संख्या का प्रतीक है. स्वामी के
इस कथन में नाना अर्थ दिखाई देते हैं. सुष्टि के सभी द्वंद्व का प्रतीक है दो (२).
देह के स्थूल,
सूक्ष्म, कारण, एवँ
महाकारण – इस प्रकार के चार (४) प्रतीक हैं. ब्रह्मतत्व कभी भी बदलता नहीं है. वह
नौ (९) संख्या का द्योतक है. महामाया आठ (८) इस अंक से दर्शाई जाती है.
श्रीपाद श्री वल्लभ प्रभु अर्ध नारी
नटेश्वर हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का विराट रूप
मैं
ब्रुहत्शिला नगरी के पेनुगोंदा गाँव का रहने वाला हूँ. मेरा नाम गणपति शास्त्री
है. मैं वेदाध्ययन करने के लिए वायासपुर(काकीनाडा) आया. गुरु की सेवा करते हुए मैं
वेदाध्ययन करता था. मेरे गुरुदेव के घर के निकट ही उनकी खेती थी. गाय-बछड़े थे. मैं
गाय-बछड़ों को चराने के लिए जंगल ले जाया करता. उनका दूध निकाल कर उसे बांटने का
काम भी बड़े प्रेम से किया करता.
एक दिन जब
मैं गायों को लेकर वन में गया था तो मुझे दस वर्ष का एक अत्यंत तेजस्वी बालक दिखाई
दिया. वह हमारे खेत में आया. उसके गले में जनेऊ देखकर मुझे विश्वास हो गया कि वह
ब्राह्मण ही है. मैंने उससे पूछा, “तेरे गले में जनेऊ दिखाई दे रहा है, तू कौन
है?: इस पर
वह बालक बोला, :मैं, “मैं” ही हूँ. सृष्टि के सारे तत्व मुझमें ही समाए
हुए हैं. सबके लिए आधारभूत जो है वह “मैं” ही हूँ. मुझमें ब्राह्मण के लक्षण देखकर
तू मुझे ब्राह्मण समझा – यह गलत नहीं है. परन्तु यही परम सत्य नहीं है. मुझमें
क्षत्रिय के लक्षण देखकर यदि कोई मुझे क्षत्रिय समझे तो वह झूठ नहीं है, परन्तु
वह पूर्ण सत्य नहीं है. मुझमें वैश्य के लक्षण देखकर यदि कोई मुझे वैश्य समझे तो
वह असत्य नहीं है, परन्तु वह भी पूर्ण सत्य नहीं है. मुझमें शूद्र के
लक्षण देखकर यदि कोई मुझे शूद्र समझे तो वह भी झूठ नहीं, मगर वह
पूर्ण सत्य भी नहीं है. तू मुझे यदि चांडाल समझ ले, तो वह भी अयोग्य नहीं होगा, मगर वह
भी संपूर्ण सत्य नहीं होगा. मैं सभी सीमाओं से परे हूँ, हैं, अतीत हूँ. मैं सत्य एवँ असत्य, सभी
विषयों से परे हूँ, मगर सभी का आधार भूत भी हूँ. “मैं” परम सत्य हूँ, यह
अवधूतों को ज्ञात है. मेरा धर्म – परम धर्म है. वह सभी धर्मों से परे है और उसका
आधार भी है. यही मेरा परम प्रिय तत्व है. सृष्टि के जीवों में विद्यमान प्रेम तत्व
की अपेक्षा यह सुमधुर है. यही नहीं, यह सभी का आधार (मूल) है. तू और मैं – यद्यपि पुरुष
हैं, परन्तु
स्त्रियों की भाँति व्यवहार करते हैं. स्त्री हो, तो भी वह पुरुष की भांति व्यवहार करती है. अर्धनारी
नटेश्वर – इन दो रूपों से एकत्र हुआ मैं मन तथा वाचा के लिए अगोचर होते हुए, दिव्यानंद
तत्व भी मैं ही हूँ. इतने विलक्षण रूप से युक्त मुझको तू कैसे पहचानेगा?”
उस चरवाहे
के ऐसा कहने पर मेरे शरीर में कंपकंपी होने लगी. मेरी मन:स्थिति को जानकर वह दिव्य
ग्वाला बोला, “अभी अभी मैंने शनिदेवता से बात की है. मैंने इस
गणपति शास्त्री को चित्र विचित्र बंधनों में बांधकर उसे कष्ट दिए तब वह मुझसे बंधन
मुक्त करने की विनती करने लगा. इस पर मैंने कहा, “मैंने इसका कर्मफल गाय के दूध के रूप में ग्रहण किया
है. तू ऐसे बंधनों में न पड़.” यह सुनकर मेरा शरीर कांपने लगा. मेरी कुण्डली में इस
काल में मेरी दयनीय स्थिति दिखाई गई थी. मैं कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं
था. तभी वह ग्वाला एक गाय के निकट जाकर बोला, “हे गायत्री, मुझे खूब भूख लगी है. दूध दोगी क्या?” गोमाता
ने सहमति में सिर हिलाया और उसके स्तनों से उष्ण दूध की धाराएं बहने लगीं. उस
ग्वाले ने भरपेट दूध पिया. आश्चर्य की बात यह थी कि वह गाय बाँझ थी, फिर भी
उसने उस ग्वाले को दूध दिया. ग्वाला तृप्त होकर एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गया.
मैंने एक बार फिर उसकी और देखा. उसके साथ एक दस वर्ष की किसान कन्या भी थी. देखने
में दोनों ही सुन्दर थे. उनके विनोद पूर्ण वार्तालाप को सुनते रहने को जी चाहता
था. बोलते समय होने वाले उनके हाव भाव नयनरम्य थे. तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी अपनी
घोड़ा गाडी से उतरे. उनके साथ दस वर्ष का एक तेजस्वी बालक था. मुझे बाद में ज्ञात
हुआ कि वह श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं. मेरे गुरुदेव को यह भूमि वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी
ने अपने पिता की स्मृति प्रीत्यर्थ दान दी थी. इस भूमि से लगा हुआ उनका एक
विस्तीर्ण खेत था. इस खेत को देखने के लिए श्रेष्ठी पीठिकापुरम् से वायसपुर आया
करते थे. श्रेष्ठी ने जब उस ग्वाले के साथ कन्या को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य
हुआ. उस ग्वाले ने एवँ उस कन्या ने श्रीपाद प्रभु को प्रणाम किया.
“दादा जी, आपको
इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है?” दादाजी बोले, “उन दोनों की और देखो, कितना नयन मनोहारी दृश्य है. दर्शक एवँ दृश्य दोनों
एक ही हैं इसमें निहित वेदान्त विषय मैं समझ नहीं पा रहा.” तब श्रीपाद प्रभु बोले, “इसमें
वेदान्त कहाँ है? श्रीहरी भी अपरिमित, निर्गुण, निराकार
होते हुए भी अपनी मायागति को देखकर आश्चर्य चकित होते हैं. यह सृष्टि नवरस पूर्ण है.
आश्चर्य पूर्ण दृश्यों की कल्पना करना भी सृष्टि का ही एक नियम है. जहाँ द्वैत
दिखाई देता है, वहाँ वास्तव में अद्वैत होता है. तो सत्य क्या है –
द्वैत अथवा अद्वैत? यह सोचकर बताना चाहिए”
उस ग्वाले
को और किसान कन्या को देखते हुए श्रेष्ठी के मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि कहीं
वह श्रीपाद प्रभु की ही माया तो नहीं है? श्रेष्ठी की ठोढी को हलके से स्पर्श करते हुए श्रीपाद
प्रभु बोले, “दादा जी, किस बात
की शंका उत्पन्न हुई है आपके मन में? जब तक आपके घर के लोग मुझे भूलेंगे नहीं, तब तक
मैं अपनी सर्व शक्ति के साथ अदृश्य रूप में आपके घर में वास करूंगा. आपके घर में
हर साधक को हमेशा मेरी पग ध्वनि सुनाई देगी. अनघा देवी समेत दत्त स्वरूप अर्धनारी
नटेश्वर के रूप में है, परन्तु वह आपको दिखाई नहीं देता. वही आपको श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में अपने समक्ष दिखाई देते हैं. मैं सुमति माता का प्रथम पुत्र
हूँ. मैंने अपनी माता से स्पष्ट कह दिया था कि मेरा विवाह न करे. यदि ऐसा प्रयत्न
किया तो मैं गृह त्याग करूंगा. श्रेष्ठी राजऋषि हैं। उन्होंने मुझे निष्कलंक भक्ति
पाश में बांधकर रखा है, इसलिए मैं अनघा देवी समेत अपने अनघ स्वरूप में आपको दर्शन
दे रहा हूँ. श्रीपाद प्रभु के सान्निध्य में कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता.
सृष्टि के नियम विचित्र हैं. कर्म एवँ कर्मफल का निर्णय देश कालानुसार निश्चित
होता है. सभी भक्त गणों को मेरे आचरण से, मेरी लीला से, मेरी महिमा से ज्ञान बोध करवाना – यह भी मेरे अवतार
कार्य का ही भाग है.”
श्रीपाद
प्रभु इस प्रकार हमारे साथ बातें कर रहे थे, तभी उनकी कांति हमारे देखते-देखते एक अनामिक तेज से
दैदीप्यमान हो गई. फिर वे आम के पेड़ की और मुड़े. वे उस वृक्ष की ओर देख रहे थे –
तभी उस किसान कन्या तथा ग्वाले की कांति दैदीप्यमान हो गई और वे श्रीपाद प्रभु के
रूप में विलीन हो गए. वसन्त ऋतु न होते हुए भी आम के पेड़ पर बैठकर कोयल मधुर स्वर
में गाने लगी. उस पेड़ पर एक ही फल लगा था. वह फल श्रीपाद प्रभु ने तोड लिया.
स्वामी के स्पर्श से वह कच्चा फल तुरंत पक गया और मधुर, रसभरित हो गया. जिस प्रकार
माता अपने शिशु को मिष्ठान्न बड़े प्रेम से भक्षण कराती है, भोजन में परोसा गया
प्रत्येक पदार्थ शिशु खाए इसके लिए गाने गाकर, कहानी सुनाकर उसे खिलाती है, उतने ही
प्रेम से श्रीपाद प्रभु ने वह मीठा आम श्रेष्ठी को खिलाया. स्वामी के प्रेमपूर्ण
स्पर्श से श्रेष्ठी की आंखों में आनंदाश्रु बह निकले. श्रीपाद स्वामी का अपने भक्त
के प्रति स्नेह सहस्त्रों माताओं के प्रेम से भी ज़्यादा श्रेष्ठ था. उनके दिव्य
नेत्रों से करुणा, प्रेम बह रहा था, वे साक्षात स्त्री शक्ति स्वरूपिणी
अनघा माता प्रतीत हो रहे थे. श्रीपाद प्रभु द्वारा तोड़ा गया आम उनके सामने एक
आज्ञाकारी सेवक के समान प्रतीत हो रहा था. श्रीपाद प्रभु की अंजुली से थोड़ा रस ऊपर
उड़ा तो उनकी दिव्य कांति ही ऊपर उठती हुई प्रतीत हुई. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “बीज
पहले होता है, अथवा पेड़ – ऐसा निष्कारण वितंडवाद लोग करते रहते हैं.
इन दोनों से भी पहले एक शक्ति होती है – वह शक्ति है – “ईश्वर”. उसकी इच्छानुसार
“बीज” से पेड़ अथवा पेड़ से “बीज” निर्मित होता रहता है. उसकी अमोघ इच्छा-शक्ति की
कल्पना कोई कर ही नहीं सकता. मलिनता से जो उदास हो गए हैं, ऐसे
जीवात्मा को परमात्मा अपने पास बुलाता रहता है. मालिन्य रहित जीवात्मा उस ईश्वरी
शक्ति को रोके रखता है. परमात्मा में जो विलीन हो चुका है वह जीवात्मा अच्छी फसल
देने वाली उर्वरक ज़मीन में “बीज” के समान होता है. ऐसे जीवात्मा को सृष्टि चक्र
में आने से कोई रोक नहीं सकता. परमेश्वर की इच्छानुसार उसकी शरण में आए हुए
जीवात्मा ‘कारण’ देह धारण करके पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं एवम् दैवी
कार्य सम्पन्न करते हैं. यह कार्य पूर्ण होने पर वे फिर से परमात्म स्वरूप में
विलीन हो जाते है. ऐसे जीव परमात्मा के अत्यंत समीप रहकर अत्युच्च आनंद का लाभ
प्राप्त करते है. जीवात्मा एवँ परमात्मा में भेदभाव करने वाले जीव भी कारण-देह को
प्राप्त कर दैवी कार्य को सम्पन्न करते हैं, परन्तु उनकी स्थिति में परिवर्तन नहीं होता. द्वैत, विशिष्ट
अद्वैत अथवा अद्वैत स्थिति को मानने वाले लोगों की एकाध मनोकामना पूर्ण होती है.
इस कारण सर्व सामान्य लोगों के मन में यह संदेह उत्पन्न होता है कि द्वैत श्रेष्ठ
है, अथवा विशिष्ठ अद्वैत श्रेष्ठ है, या फिर अद्वैत श्रेष्ठ है? ‘सृष्टि, स्थिति एवँ लय’ ये क्रियाएँ प्रतिक्षण होती ही रहती हैं. ब्रह्मा, विष्णु
तथा महेश तीनों अपने अपने कल्पांत में अव्यक्त स्वरूप में होते हैं. वे परमेश्वर
की महान इच्छा का अनुसरण करते हुए व्यक्त, साकार रूप में प्रकट होकर नए स्वरूप में निर्मित
ब्रह्मांड में सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं. जीवात्माओं को उनके संस्कार तथा
योग्यतानुसार विश्व पालन के कार्य में सहयोग देना पड़ता है. इस कार्य में देवी
शक्तियां उनकी सहायता करती है. इन देवी शक्तियों का विरोध करने वाली अनेक राक्षसी
शक्तियां भी होती हैं. यवन लोग सगुण स्वरूप के निराकार ईश्वर को “अल्ला” के नाम से
संबोधित करते हैं, ईसाई लोग उसी को “येशू” कहते हैं. संबोधन चाहे कोई भी
हो, मगर सभी
में एक ही आदरणीय, वात्सल्यपूर्ण, करुणामय दिव्य चैतन्य प्रवाहित होता
रहता है. सभी धर्मों में, सभी मतों में, सभी सिद्धांतों में स्वयंप्रकाश से चमकने वाला
मूलतत्व “मैं” ही हूँ. प्रत्येक जीवात्मा की इच्छा-आकांक्षा के अनुसार उसे विशेष
मार्ग से, विशेष
स्थिति के अनुरूप चलाने वाला “मैं” ही हूँ. “मैं” सभी तंत्रों में स्वतन्त्र होने
के कारण मेरे लिए साध्य अथवा असाध्य ऐसा कोई भी विधान नहीं है. सभी देव-देवताओं के
स्वरूप में अन्तर्निहित जाज्वल्य से प्रकाशित होने वाला “मैं” ही हूँ. इसलिए उस
विशेष स्वरूप द्वारा पूजा, स्तोत्र अथवा सभी विचारों को स्वीकार करने वाला “मैं”
ही हूँ. सबको ज्ञान बोध करवाने वाला “मैं” ही हूँ. कलीपुरुष के अंतर्धान होने के
पश्चात सभी मतों का सार, जो सनातन धर्म है, वह मेरा ही स्वरूप है, ऐसे ज्ञान का
उदय होगा. तब साधक बहिर्रूप से अथवा अन्तर्यामी होकर सदैव मेरा दर्शन
करेंगे. उनसे प्रेमपूर्वक संवाद स्थापित करने वाला “मैं” ही हूँ. वेदान्त में भी
प्रथम ‘सत्य’, फिर ‘ज्ञान’ और तत्पश्चात ‘ब्रह्म’ का वर्णन है. ‘सत्य’, ज्ञान’ और
‘ब्रह्म’ तीनों का स्वरूप “मैं” ही हूँ. ‘ईश्वर नहीं है’, ऐसा
नास्तिकों से कहने वाला मैं ही हूँ . आस्तिकों को ईश्वर के ‘अस्तित्व का प्रमाण “मैं”
ही देता हूँ. समस्त ‘गुरुस्वरूप’ मेरा ही है. सत्यलोक में, गोलोक में, महाशून्य में निहित समस्त साधना स्थिति में
स्वयंप्रकाशित होने वाला “मैं” ही हूँ. जो साधक निर्मल भाव भक्ति से मेरी आराधना
करता है, अपने
जीवन का सारा भार मुझ पर सौंप कर अनन्य भाव से मेरी शरण में आता है, उसका योग
क्षेम मैं ही सदा वहन करता हूँ. मैं श्रीपाद हूँ. मैं श्रीवल्लभ हूँ. दादा जी, उस समय
का अति प्राचीन योगी – अत्रि-अनुसूयानंदन – आज श्रीपाद श्रीवल्लभ है. भारद्वाज
मुनि को दिए गए वचन के अनुसार मैंने पीठिकापुरम् क्षेत्र में अवतार लिया है.”
श्री
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के नेत्रों से आनंदाश्रु बह निकले. उन्होंने श्रीपाद प्रभु
का दृढ़ता से आलिंगन किया. उन्हें हो रही आत्मानुभूति को शब्दों में प्रकट करना
असंभव था. कुछ देर के पश्चात वे वापस सामान्य अवस्था में आए और श्रीपाद प्रभु से
बोले, “अरे
बेटा, श्रीपाद, हमारे वंश पर इसी प्रकार कृपा दृष्टी बनाए रखना. हमारे
सभी गोत्रजों पर अपना अनुग्रह हस्त रहने दे. हमारे आर्य वैश्य कुल पर सदा अपनी
छत्रछाया रहने दे.”
इस पर
श्रीपाद प्रभु बोले, “तथास्तु!” ब्राह्मणों को एक वर माँगने का अधिकार है,
क्षत्रियों को दो वर माँगने का, वैश्यों को तीन वर माँगने का, और
शूद्रों को चार वर माँगने का अधिकार है. तेहतीस कोटि देवताओं को साक्षी मानते हुए
मैं वरदान देता हूँ. बापन्नाचार्युलु के घर में जिस स्थान पर मेरा जन्म हुआ वहाँ
पर “श्रीपाद श्रीवल्लभ महासंस्थान” की स्थापना होगी. यह महासंस्थान आपके घर से
तैंतीस कदम की दूरी पर होगा. उसी प्रकार वह श्री बापन्नाचार्युलु तथा श्री नरसिंह
वर्मा के घरों से भी तैंतीस-तैंतीस कदमों की ही दूरी पर रहेगा. आपके वंश के
तैंतीसवें व्यक्ति को निमित्तमात्र बनाकर मेरे महासंस्थान का निर्माण करके उसकी
सारी व्यवस्था मैं ही देखूंगा. आपके वंश के ‘मार्कंडेय’ नामक महापुरुष को मैं इस संबंध में आदेश देने वाला
हूँ, यह आदेश
इस प्रकार का होगा – वह गुरूवार को मध्याह्न समय में किसी भी रूप में आकर मेरे लिए
नैवेद्य स्वरूप बनाए गए पदार्थ का थोड़ा सा भाग स्वीकार करे. इसके फलस्वरूप
मार्कंडेय गोत्र में जन्म लेने वाले सभी व्यक्तियों पर मेरा सदैव अभय हस्त रहेगा, उनकी
सदैव उन्नति होती रहेगी. आपकी इच्छानुसार आर्यवंश पर मेरी कृपा दृष्टी सदा बनी
रहेगी. आर्यवंशियों को राज्याधिकार प्राप्त होंगे. भविष्य में आर्यवंशी भारत का
राजा बनेगा और विधि के लेख के अनुसार वह पीठिकापुरम् आएगा. उसे मेरा अनुग्रह
प्राप्त होगा. नेपाल राज्य से असंख्य भक्तगण मेरे दर्शनों के लिए पीठिकापुरम्
आयेंगे. मेरा यह कथन काले पत्थर की लकीर के समान है. सृष्टि का कोई भी प्राणी इसे
असत्य नहीं सिद्ध कर सकता. दादा जी, कालान्तर में मेरी इस जन्मभूमि पर अनेक परिवर्तन
होंगे. इस स्थान के नूतनीकरण की प्रक्रिया में भूमि से मृण्मय पात्र मिलेगा.
पीठिकापुरम् क्षेत्र में निर्माण होने वाले महासंस्थान के देव कार्य में धन सेवा
करने का लाभ केवल पूर्व सुकृत से ही प्राप्त होगा. आर्यवंश कुल के किसी एक
भाग्यवान व्यक्ति को ही धन-सेवा करने का महाभाग्य प्राप्त होगा. उसके द्वारा ही यह
देव कार्य होने वाला है. अविश्वासी, अहंकारी लोग हर बार तुझसे सहायता मांग कर तुम्हें
महत्त्व देंगे. मेंरे चरित्र का पठन करने वालों को “अभिष्ट सिद्धी” प्राप्त होगी.
पीठिकापुरम् के मेरे महासंस्थान से संबंधित किसी भी सत्कार्य में सहभागी होने वाले
भक्तों को मैं सभी बंधनों से मुक्त करूंगा. जो पीठिकापुरम् क्षेत्र में मेरे जन्म
नक्षत्र “चित्रा” पर श्रद्धापूर्वक मेरी अर्चना करेगा उसे मैं ऋण बंधन से मुक्त
करूंगा. कुमारी कन्याओं को योग्य वर प्राप्त होकर उनके विवाह संपन्न होंगे ऐसा
मेरा आशीर्वाद है. भूत, प्रेत, पिशाच्चादि अदृश्य शक्ति से उत्पन्न व्यथा मैं दूर
करूंगा. श्रावण शुद्ध पौर्णिमा के दिन, मेरी बहिन वासवी कन्यका ने मुझे राखी बांधी थी. वह
अत्यंत पुण्य दिन है. इस दिन पीठिकापुरम् क्षेत्र में मेरे सान्निध्य में जो साधक
आयेगा उसके भाग्य में चित्रगुप्त द्वारा महापुण्य लिखा जाएगा. इन सब बातों का
प्रमाण मैं स्वयँ ही हूँ. मेरी लीलाएँ स्वयँ प्रमाणित हैं. सूर्य सूर्य की साक्षी
किस प्रकार दे सकता है?”
श्रीपाद
प्रभु के इस वक्तव्य से सब भाव विभोर हो गए. उनकी लीलाओं का वर्णन करना महाकठिन
है.
दूसरे दिन
मैं,
वल्लभेश्वर शर्मा दंपत्ति, सुब्बण्णा शास्त्री, लिंगय्या शास्त्री श्रीपाद प्रभु
के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी की ओर चल पड़े. श्रीपाद प्रभु ने हमें एक बार फिर से
आशीर्वाद दिया और सुहास्य वदन से बोले, “अहा हा! आज की चर्चा कैसा रंग लाई! श्रीपाद
श्रीवल्लभ महासंस्थान का वर्णन करने में काफी समय निकल गया. मल्लादी वंश का ऋण
वेंकटप्प्य्या श्रेष्ठी का ऋण और वत्सवाई का ऋण मैं कभी चुका नहीं पाऊंगा.” इतना
कहकर स्वामी ने मौन मुद्रा धारण कर ली.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें