मंगलवार, 2 अगस्त 2022

अध्याय - ४३

 

 

।। श्रीपाद राजं शरण प्रपद्ये।।


अध्याय – ४३


श्री अनघा लक्ष्मी वर्णन – श्रीपाद प्रभु की वैष्णवी माया


श्री भास्कर पंडित ने अपनी सायंकालीन आराधना पूरी करने के उपरांत कहना आरम्भ किया. वे बोले, “अरे महोदय! विद्योपासना सर्वश्रेष्ठ है. विद्योपासना के लिए कोई आयु-सीमा नहीं होती. वास्तव में श्रीपाद श्रीवल्लभ महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली स्वरूप हैं.” इस पर मैंने कहा, “श्रीपाद प्रभु श्री पद्मावती-वेंकटेश्वर स्वरूप हैं, ऐसा आपने पहले कहा था. अब आप कह रहे हैं कि वे ही उपरोक्त त्रिमाताएं भी हैं. साथ ही उन्हें अनघा लक्ष्मी समेत अनघ देव भी कहा जाता है. मुझे इसका बोध नहीं हो रहा है, कृपया विस्तार से समझाएं.”

 

श्रीपाद प्रभु का विराट स्वरूप

तब वे महापंडित बोले, “बंधुओं! परमात्मा सभी जीव राशियों में विद्यमान है ऐसा शास्त्रों का वचन है. पिपीलिका से लेकर ब्रह्मा तक, सभी में वह व्याप्त है. श्रीपाद प्रभु के अवतार में वे पिपीलिका रूप में भी हैं एवँ ब्रह्म स्वरूप में भी हैं. इसीलिये पूरी सृष्टि में वे सृष्टि रूप में विद्यमान हैं. वे सम्पूर्ण जीवराशि के चैतन्य में तादात्म्य स्थिति से एकरूप हो जाते हैं. यही उनकी विशेषता है. उनके सभी जीवराशियों में तादात्म्य रूप से रहते हुए भी किसी भी जीव में उनके स्पर्श का अनुभव नहीं होता. यही उनकी वैष्णवी माया है. सृष्टि की मर्यादा के, उसकी सीमा के, कुछ नियम होते हैं. श्रीपाद प्रभु का महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली रूपों में होने का तात्पर्य यह है कि उस चैतन्य रूप में वे व्यक्त होते हैं. वे चैतन्य रूप में स्वयँ ही होते हैं. जिस रूप की अभिव्यक्ति होती है, उस स्वरूप में वे अपनी योगमाया से निरंतर तादात्म्य स्थिति में होते हैं. वे जब महासरस्वती का चैतन्य ग्रहण करके तादात्म्य स्थिति में होते हैं, तब चतुर्मुखी ब्रह्म स्वरूप से तादात्म्य को प्राप्त होते हैं. महासरस्वती हो अथवा हिरण्यगर्भ रूप में हों, वे स्पर्श बंधन में होते हैं. इसी प्रकार एक ही आत्मा चार-पाँच पुरुष रूपों में भी अवतरित हो सकता है. इस आत्मा की स्त्री शक्ति एक ही समय में चार-पाँच रूपों में भी अवतरित हो सकती है. उसी प्रकार पुरुष रूप के लिए स्त्री भी सगुण साकार रूप लेकर विधि निर्णय के अनुसार निश्चित मर्यादा का अचूक पालन करती है.

इस हिसाब से श्रीपाद प्रभु अनघा लक्ष्मी सहित अनघ देव के रूप में वास्तव्य करते हैं. वह उनका अर्धनारीश्वर रूप है. वर्त्तमान में, श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार में यतीश्वर के रूप में हैं. सगुण साकार रूप की मर्यादा का, उसकी सीमा का वे अचूक पालन करते हैं. यह धर्म की सूक्ष्मता है. धर्म अलग है, एवँ धर्म-सूक्ष्मता भिन्न है. श्रीपाद प्रभु ने दिव्य अनुभवों की विशेष वर्षा करने के लिए सृष्टि रूप धारण किया है. सृष्टि में विद्यमान तादात्म्य स्थिति के कारण मानव को त्वरित गति प्राप्त हो सकती है. इसका यह तात्पर्य है. श्रीपाद प्रभु जप, ध्यान, तपस्या करते और उसका फल स्वयँ न लेकर सृष्टि को देते. भक्तों को आधि-व्याधि से मुक्त करने के लिए वे अपनी तपस्या का फल देकर उनको कर्म बंधन से मुक्त करते हैं.

जगन्नाथ अपनी चार शक्तियां – महासरस्वती, महालक्ष्मी. महाकाली, राज राजेश्वरी – विश्व में दैवाभिव्यक्ति हेतु , विश्व परिपालन हेतु, आविर्भूत करते हैं. अंबिका देवी की तीन स्थितियां होती हैं. १. अतीत स्थिति २. विश्व स्थिति एवँ ३. शक्ति स्थिति. सृष्टि का कार्य चलाने के लिए पराशक्ति अतीत स्थिति में होती है. परमात्मा में विद्यमान अनंत सत्य को वह अपनी और आकर्षित करके, उसे अपने चैतन्य में सम्मिलित करके, फिर सृष्टि में जन्म लेती है. उसका कार्य केवल जन्म लेने से पूरा नहीं होता. वह सब जीवों का निर्माण करके, उन्हें अपने भीतर सम्मिलित करके, उनमें प्रवेश करके उन्हें बल प्रदान करती है. यह उसका विश्वस्थाई स्वभाव है. व्यक्ति स्थाई होने के कारण वह मानवी व्यक्तित्व की दिव्य प्रकृति के मध्यवर्ती भाग में रहती है. यही अनघा लक्ष्मी रूप में आविर्भूत होने का रहस्य है. उसके मूल-तत्व से थोड़ा-सा अंश लेकर वह अवतार धारण करती है. उस अंश के निर्वाहन का काम पूरा होने के पश्चात उस अंश को पुन: मूल तत्व में आकर्षित कर लेती है. अनघ देव के संकल्प के बिना अनघा लक्ष्मी छोटा-सा काम भी नहीं कर सकती. परन्तु वही प्रभु का प्रत्येक संकल्प पूरी तरह से पूर्णत्व की और ले जाती है. श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में माता एवँ पिता – दोनों रूप होने के कारण उनका विशेष अनुग्रह होता है. अनघा लक्ष्मी की प्रमुखतः तीन प्रकार की भूमिकाएं हैं. पदार्थगोल विषयक सच्चिदानंद भूमिका. इस भूमिका में उसमें अनंत – ऐसी स्थिति, अनंत – ऐसी शक्ति , अनंत – ऐसा दिव्य आनंद ओत प्रोत रहता है. इस भूमिका का वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं.

सच्चिदानंद भूमिका से निचली भूमिका में दिव्य चैतन्य सृष्टि लोक है, जो सभी प्रकार से परिपूर्ण है. इस भूमिका में अनघा लक्ष्मी की दिव्य चैतन्य महाशक्ति स्थित होती है. वेदों में इस विश्व को ‘महालोक कहा गया है. इस लोक में कर्मों को कभी भी अपयश प्राप्त नहीं होता. प्रत्येक प्रक्रिया में ज्ञान एवँ शक्ति प्रयत्नों के बिना ही परिपूर्णता को प्राप्त होती है. यहाँ निरंतर दिव्य आनंद का अनुभव होता है. यहाँ असत्य, बाधा, दुःख, पीड़ा का संपूर्ण अभाव रहता है. इस भूमिका से नीचे है – अज्ञान भूमिका. यहाँ के जन समुदाय में अज्ञान व्याप्त होता है. यहाँ के लोगों में भी मन, जीव, शरीर होता है, परन्तु उनका अनुभव अपरिपूर्ण, परिमित एवँ विफलतायुक्त होता है.

 

 

 

 

 

 

राजराजेश्वरी महिमा 

 

राज राजेश्वरी चैतन्य मातृमूर्ति में अनंत करुणा ओतप्रोत भरी है. वह सभी भक्तजनों को अपने बालकों के समान मानती है. प्राणमयी, मनोमयी भूमिका में अज्ञानी जीवों को “असुर” कहते हैं. वे डरपोक, आत्मनिग्रही तथा तपस्वी होते हैं, जो अहंकारपूर्ण होते हैं. प्राणमयी भूमिका में अधिकारी पक्ष में होने वालों को “राक्षस” कहते हैं, उनकी शक्ति असीमित होती है, उनकी भावनाएँ प्रचंड तथा तीव्र होती हैं. इसके अतिरिक्त किन्हीं निचले स्तरों की निम्न प्राणमय भूमिका में रहने वाले लोगों को पिशाच अथवा प्रमादी कहते हैं. वे कोई भी असुर रूप एवँ वेष धारण कर सकते हैं. वास्तव में देखा जाए तो पिशाच कोई व्यक्ति नहीं हो सकता. केवल कोई इच्छा अथवा दुराशा यदि अपूर्ण रह जाती है तो वह मन का काल्पनिक रूप होती है. राक्षसों की प्राणमयी स्थिति बलवान होती है. उनका “मन” आदि होता ही नहीं है. जो मिले, उसी को वे कस कर पकडे रखने का प्रयत्न करते हैं.

काली माता का जो रूप हमें दिखाई देता है, वह काली, श्याम प्राणमयी स्थिति द्वारा प्रदर्शित रूप होता है. “काली” का तात्पर्य “ विध्वंसक शक्ति” से है. यह अज्ञानी प्रकृति शक्ति है जो सबको दु:खी – कष्टी बनाकर उनकी अवस्था छिन्न भिन्न कर देती है. महाकाली उन्नत भूमिका में होती है. वह साधारणत: सुवर्ण रूप में होती है. राक्षसों को वह महाभयंकर स्वरूप में दिखाई देती है. राजराजेश्वरी विवेक का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि महाकाली बलशक्ति प्रदर्शित करती है. इस माता में असीम विनाश-शक्ति होती है. यह शक्ति जब प्रकट होती है, तो विनाश एवँ संघर्ष के उपरांत ही शांत होती है. महाकाली काली-माता से भिन्न देवता है. यदि साधक को अपनी साधना में विघ्न उत्पन्न होने का आभास हो, तब उसे अपने अन्तरंग में उपस्थित महाकाली शक्ति का आह्वान करना चाहिए.

 

असुरी, काली, श्यामा, महाकाली इत्यादि के स्वरूप

 

काली एवँ श्यामा आद्य प्राणशक्ति हैं. काली विध्वंसकारी शक्ति है. महाकाली सुवर्णवर्णा हैं एवँ असुरों के लिए महाभयंकरी है. राजराजेश्वरी विवेक की स्वामिनी हैं, महाकाली बल की स्वामिनी हैं. महालक्ष्मी का सौन्दर्य अप्रतिम है. विवेक तथा शक्ति पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए सौन्दर्य का होना आवश्यक हो. यदि यह न हो तो अपने प्रयत्न फलीभूत नहीं होते. परन्तु कहीं-कहीं किसी प्रकार की संतुलित अवस्था पाई जाती है. किसी समय विशेष में वह परिपूर्ण प्रतीत होती है. कुछ उन्नत अवस्था में पहुँचने पर वहाँ एक नई परिस्थिति का अनुभव होता है, जिसके अनुरूप नई संतुलित स्थिति प्राप्त होती है. यह अवस्था हमें परिपूर्ण प्रतीत होती है. इस अवस्था की प्रतीक हैं महालक्ष्मी. यदि विवेक परिपूर्णता को प्राप्त कर ले, परन्तु बल एवँ शक्ति में परिपूर्णता न हो तो पूर्व सिद्धि अनुकूल नहीं होती. इसीलिये परिपूर्ण परिपूर्णता साध्य करने के लिए विवेक, बल, सौन्दर्य तथा परिपूर्णता – इन चार गुणों की आवश्यकता होती है. मनुष्य के लिए जो रहस्य गूढ़ है, वह है दिव्य सामरस्यपूर्ण सौन्दर्य. यह सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाला चिद्विलास है. केवल श्री महालक्ष्मी के अनुग्रह से इस विविधता से मंडित सृष्टि की वस्तुएं, शक्ति तथा जीव-जंतु एकात्मता से रहते हैं. इस एकात्म स्थिति में ही आनंद की अनुभूति होती है. वह विविध प्रकार की वस्तुओं की, शक्ति की एवँ जीवों की लयबद्ध एवँ रूपबद्ध वृद्धि करती है. महालक्ष्मी परम प्रेम एवँ परम आनंद की आदि देवता हैं. उसी प्रकार लक्ष्मी भौतिक वस्तुओं के संचय की प्रतीक है. जबकि महालक्ष्मी भौतिक वस्तु, जीव एवँ शक्ति को दिव्यानंद के साम्राज्य की ओर मोड़कर दिव्य जीवन का आनंद प्रदान करने वाली महाशक्ति है.

अनघा लक्ष्मी की शक्ति को पूर्णतः प्राप्त करने के लिए विवेक, बल एवँ सौन्दर्य के साथ-साथ कर्म में भी कौशल्य प्राप्त करना आवश्यक है. वेदों में सरस्वती माता की प्रशंसा है. दशमहाविद्याओं में इसे मातंगी कहते हैं. उसकी वाणी वैखरी है. महासरस्वती इससे भिन्न है. दिव्य नैपुण्य, आत्म चैतन्य कर्म की प्रतीक है महासरस्वती. इस महामाता की कृपा से एवँ करुणा से हमारे इष्ट कर्म पूर्णत्व प्राप्त करते है. उसके प्रसाद स्वरूप प्राप्त दिव्य ज्ञान का हमारी कर्मसिद्धि में उपयोग होता है. आत्म चैतन्य का अन्वय किस प्रकार किया जाए इसका ज्ञान होता है; अनेक शक्तियों के सामरस्य से आनंद की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका ज्ञान होता है. महासरस्वती पर दृढ़ श्रद्धा रखने से परिवर्तनीयता, परिपूर्णता आदि अति दुर्गम विषयों का तथा अति सूक्ष्म विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है.

श्रोताओं! आनंद परमेश्वर से संबंधित विषय है, परन्तु अत्युच्च आनंद का अनुभव केवल योगियों को ही होता है. निरीच्छ योगी को जिस हर्ष की प्राप्ति होती है, वह ये ही है. सब जीवों को अपने पूर्व सुकृतों के अनुसार सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु प्रत्येक सुख के पीछे-पीछे दुःख भी आता ही है.”

 

दत्त भक्तों द्वारा अनघा देवी के व्रत का आचरण

 

श्री अनघा देवी का रूप श्री लक्ष्मी देवी का ही रूप है. उनमें राजराजेश्वरी. महालक्ष्मी, महाकाली – इन देवताओं के लक्षण ओत प्रोत भरे हैं. श्री अनघा देवी का एक विष्णु रूप भी है, इसमें परमेश्वर के, श्री दत्तात्रेय के लक्षण परिपूर्णता पूर्वक भरे हैं. इसी कारण अनघा देवी की आराधना सहित विष्णुरूप अनघा की आराधना करने से सर्व फल की प्राप्ति नीहोती है. “अनाघाष्टमी” का व्रत दत्त भक्तों के लिए अति आदरणीय है. इस व्रत के आचरण से सब सुखों की प्राप्ति होती है.

 

श्रीपाद प्रभु का महत्त्व – दत्त आराधना का माहात्म्य.

“श्रोताओं! श्री अनघा देवी समेत अनघ रूप विष्णु ही श्रीपाद प्रभु का अवतार है. वे सर्व सामान्य जनों के बौद्धिक, मानसिक एवँ आत्मिक चैतन्य के अत्यंत निकट होते हैं. वे सर्वगामी हैं एवँ भक्तों की पुकार पर फ़ौरन दौड़ कर आते हैं. वे अपने भक्तों एवँ आश्रितों के दुःख नष्ट करके उन्हें सुख प्रदान करते हैं. दशमहाविद्याओं की आराधना करने से जो फल प्राप्त होता है, वह केवल श्रीपाद प्रभु की अथवा श्री दत्तात्रेय की आराधना करने से तत्काल प्राप्त हो जाता है. अन्य देवताओं की श्रद्धा भाव से आराधना करने से इष्ट फल की प्राप्ति होती है, परन्तु श्री दत्तात्रेय की आराधना तत्काल फलदायी है. दत्तात्रेय प्रभु सब देवताओं का स्वरूप हैं, वे चतुर्युगों में महान अवतार हैं. उनका महाअवतार समाप्त न होने वाला है तथा वे अत्यंत सुलभता से साध्य हैं.”

 

श्रीपाद चरित्रामृत लीला

 

“हे शंकर भट्ट! तुम जिस पवित्र ग्रन्थ की रचना कर रहे हो, उसका अध्ययन महापुरुष और महायोगी भी करेंगे. वे अपने संबंधित व्याकरण से उसका अर्थ निकालेंगे. योग संपन्न विभूति इस ग्रन्थ का अध्ययन करके ज्ञान सम्पादन करेंगे. सर्व सामान्य भक्त इस ग्रन्थ का पारायण करके इहलोक तथा परलोक का सुख, वैभव एवँ समृद्धि प्राप्त करेंगे. यह ग्रन्थ अक्षर सत्य है, एवँ इसका प्रत्येक अक्षर बीजाक्षर है, शक्तियुक्त है. इस ग्रन्थ का श्रद्धा एवँ भक्तियुक्त अंतःकरण से किसी भी भाषा में पारायण करने से इष्ट फल की प्राप्ति होती है. यह महाग्रंथ उस महाप्रभु का प्रत्यक्ष अक्षर-स्वरूप है.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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