।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय ४५
श्री हनुमान को पृथ्वी
पर अवतार लेने की आज्ञा –
काशी क्षेत्र में
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ.
श्री भास्कर पंडित के घर में हमने दोपहर का भोजन
किया. उसके बाद उन्होंने कहना आरम्भ किया. वे बोले, “
श्रोताओं! श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अतर्क्य हैं. उन्होंने काशी में अनेक
महापुरुषों को आशीर्वाद दिए. उन्हें इच्छित सिद्धियों की प्राप्ति करवाई. वे
ऋषियों के समूह को संबोधित करते हुए बोले, “मैं
नृसिंह सरस्वती के नाम से एक और अवतार धारण करने वाला हूँ. पीठिकापुरम् में अदृश्य
होकर काशी क्षेत्र में आने का मुख्य कारण यह है कि यह एक महापुण्य क्षेत्र है.
सिद्ध संकल्प की यहाँ पूर्ती होती है. प्रतिदिन गंगा स्नान के लिए मैं योग मार्ग
से आता हूँ. नृसिंह सरस्वती के अवतार में मैं यहीं पर संन्यास दीक्षा ग्रहण करने
वाला हूँ. आगामी शताब्दी में क्रिया योग का ज्ञान पाने के इच्छुक गृहस्थाश्रमी
लोगों को विद्या प्रदान करने के उद्देश्य से श्यामाचरण नामक साधक को यहाँ काशी में
जन्म लेने का आदेश दे रहा हूँ. आने वाले युग में हनुमान को श्यामाचरण से क्रिया
योग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा है. यह वचन त्रिवार सत्य है.”
हनुमान को सीता, राम, लक्ष्मण एवँ भारत के दर्शन
तभी श्रीपाद प्रभु ऋषि-समुदाय सहित योग मार्ग का अनुसरण करते हुए बद्रिका
वन में आ पहुंचे. वहाँ उन्होंने नर-नारायण गुफा में अनेक शिष्यों को क्रिया योग की
दीक्षा दी. वहाँ से बारह कोस दूर स्थित उर्वशी कुंड के निकट वे आए. ऋषि-गंगा में
भी उन्होंने स्नान किया. पाँच हज़ार वर्षों से तपस्या कर रहे सर्वेश्वरानंद नामक
महायोगी को श्रीपाद प्रभु ने आशीर्वाद दिया. वहाँ से वे नेपाल गए. वहाँ एक पर्वत
पर राम-नाम में ध्यान मग्न हनुमान को एक साथ श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, भरत एवँ शत्रुघ्न के
दर्शन श्रीपाद प्रभु ने करवाए. वे हनुमान से बोले, “हे हनुमंत, तुमने राम-नाम का कितने करोड़ की
संख्या में जाप किया है, इसका अनुमान करना असंभव हो गया
है. इतने अल्प काल में तुमने राम-नाम का इतनी महान संख्या में जाप किया है कि
चित्रगुप्त के लिए भी उसका हिसाब रखना असंभव हो गया है. इसी जाप के कारण तुम
चिरंजीवी पद को प्राप्त हो गए हो. तुम कालातीत हो. तुम्हारी आयु कितने लाख वर्षों
की है, यह लिखना चित्रगुप्त के लिए भी
असंभव है. तुम कलियुग में अवतार लो, जितेन्द्रिय
होकर सबके लिए वन्दनीय हो जाओ.”
राम-बीज महिमा
इस पर हनुमान ने कहा, “प्रभु, राम-बीज अग्नि-बीज ही है. इसीके कारण मुझे अग्नि सिद्धि प्राप्त हुई है.
मैं देह-बुद्धि से आपका अंश हूँ. आत्मा-बुद्धि से मैं आप ही का स्वरूप हो गया हूँ.
मैं किस स्वरूप में अवतार लूं, कृपया
यह मुझे बताएँ.”
श्रीपाद प्रभु मंद-मद मुस्कुराते हुए बोले, “तुम शिवांश रूप के राम भक्त हो. अरबी भाषा में ‘अल्’ से तात्पर्य है –
‘शक्ति’ एवँ ‘अहा’ का
अर्थ है – “उस शक्ति को धारण करने वाला”. इसलिए “अल्लाह” का तात्पर्य है “शिव
शक्ति स्वरूप!” इतने वर्षों तक सीतापति के रूप में मेरी सेवा की, अब यवन जाति के लोगों को स्वीकार्य ऐसे शिवशक्ति स्वरूप ‘अल्लाह’ के नाम से मेरी आराधना करो.”
इस पर हनुमान ने कहा, “प्रभु, मुझे यह ज्ञात था कि भारद्वाज ऋषि त्रेता युग में पीठिकापुरम् में
‘सावित्री काठक’ यज्ञ करने वाले थे. उस समय आपने यह वर दिया था
कि आप भारद्वाज गोत्र में जन्म लेने वाले हैं. अतः मैं तो किसी भी परिस्थिति में
आपको छोड़कर नहीं रह सकता. आपका और मेरा गोत्र एक ही है. इस कारण से मैं आपका पुत्र
ही हुआ ना?”
श्रीपाद प्रभु एवँ हनुमान के बीच संवाद
इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “बालक, हनुमान, तेरे द्वारा धारण किया गया यह देह भारद्वाज गोत्र का है.” हनुमान ने पूछा, “”अल्ला मालिक” से “अल्ला ही सबका
मालिक है, यही हुआ ना?” श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से
हनुमान का आलिंगन किया और बोले, “ हनुमान, तू देह बुद्धि छोड़ दे. तू मेरा ही
अंश है.”
“प्रभो, मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि
मैं आप ही का अंश हूँ>” हनुमान ने उत्तर दिया. “मैं इस
भूमि पर आपका कार्य करने के पश्चात जब मूल तत्व में विलीन हो जाऊंगा, तब अंश अवतार भी पूरी तरह से नष्ट
हो जाएगा. अंश अवतार में मूल तत्व निरंतर मेरे साथ ही रहेंगे. जब उन तत्वों का
विकास होगा, तब अपनी शक्ति संपदा एवँ मूल
तत्वों से मुझे संभाले रखना.” इस पर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे, हनुमान, तू अत्यंत बुद्धिमान है. जो शक्तियां मेरी हैं, वे तुम्हारी भी हैं. मैं नृसिंह सरस्वती के अवतार में श्री शैल्यम के निकट
स्थित कर्दली वन में तीन सौ वर्षों तक गुप्त रूप से योग समाधि में रहूँगा. इसके
पश्चात प्रज्ञापुर (वर्त्तमान में अक्कलकोट) में स्वामी समर्थ के नाम से प्रसिद्ध
होऊँगा. इस अवतार को समाप्त करते समय साईं रूप में तुझमें अवतरित होऊँगा. मैं
स्पष्ट रूप से यह कहता हूँ कि मेरा अवतार तेरे स्वरूप में प्रकट होगा. उस समय तू
एक समर्थ सद्गुरू के अवतार में विख्यात होगा.
इसके पश्चात हनुमान ने कहा, “प्रभु, मैं आपका सेवक. “अल्ला मालिक है!”
ऐसा कहते हुए संचार करूंगा, जीवत्व
बुद्धि के अनुसार मैं आपका अंश होते हुए भी आपके समान व्यवहार न कर पाऊंगा. आपके
श्री चरण प्रत्यक्ष दत्त प्रभु ही हैं. आपमें और मुझमें अंतर कैसे हो सकता है? जब मैं आपके
स्वरूप में, तथा आप मेरे स्वरूप में परिवर्तित
हो जाएंगे, तब हमारे बीच अद्वैत सिद्ध होगा.
इसलिए आप मुझे श्री दत्त प्रभु की सायुज्यता का प्रसाद दें.”
श्रीपाद प्रभु ने काल पुरुष को अपने पास आने की आज्ञा दी. कालपुरुष हाथ
जोड़कर श्रीपाद प्रभु के सम्मुख खडा हो गया. तब श्रीपाद प्रभु ने कहा, “हे कालपुरुष! यह हनुमान कालातीत
है. मैंने इसे प्रसाद स्वरूप अपनी सायुज्यता दी है. इसे ‘नाथ’ का संबोधन देता हूँ. अब से यह
साईंनाथ के नाम से संबोधित किया जाएगा. चलो, आज दत्त जयन्ती का आयोजन करते हैं.”
हनुमान का चैतन्य दत्त स्वरूप में प्रकट हुआ यह देखकर ऋषि समुदाय श्रीपाद
प्रभु की ओर आश्चर्य से देखने लगा. तभी हनुमान के शरीर के जीवाणुओं का विघटन हुआ.
उनमें से अनुसूया माता प्रकट हुईं. वे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को देखकर बोलीं, “बेटा, कृष्णा! तू कितना बढ़िया बालक है. जब मैंने तुझे जन्म दिया, उस समय साधारणतः माँ को होने वाली
प्रसव वेदना मुझे नहीं हुई. माँ के लिए वह वेदना भी सुखदायक है. उसमें एक माधुर्य
की अनुभूति होती है. परन्तु तेरे जन्म के समय मैं इस सुख से वंचित रही. क्या तू
मेरे उदर में दुबारा जन्म नहीं लेगा? तेरी यह
वैष्णवी माया मेरी समझ से परे है.? इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “हे माँ! पुत्र को माँ की
धर्मबद्ध इच्छा पूरी करनी ही चाहिए. तेरे गर्भ से प्रकट हुआ यह हनुमान है. इसे
मेरी सायुज्य स्थिति प्रदान कर दी है. दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी माया से मैं
तुम्हारे उदार से दुबारा जन्म ले रहा हूँ. थोड़ी ही देर में तुम्हें तीव्र प्रसव
वेदना का अनुभव होगा.”
अनुसूया माता ने तीन शिरों वाली दत्त मूर्ति को जन्म दिया. कुछ ही देर में
वह मूर्ति अंतर्धान हो गई, एवँ अनुसूया माता की गोद में एक
शिशु प्रकट हुआ. उस नवजात शिशु को अनुसूया देवी ने स्तनपान कराया. इस घटना के कुछ
ही देर के पश्चात हनुमान का स्वरूप दिखाई दिया. उनके सम्मुख श्री रामचंद्र प्रभु
खड़े थे. इसके बाद हनुमान ने कहा, “म्लेच्छ
धर्म के उत्तम तत्व तथा सनातन धर्म के उत्तम तत्वों का समन्वय करने का मैं प्रयत्न
करूंगा. म्लेच्छ लोगों का भी कोइ गुरू होना चाहिए ना?”
श्रीपाद प्रभु ने उत्तर दिया, “महबूब
सुभानी नामक एक महाज्ञानी मुझमें समाया हुआ है. वह वारिफ अलिफ के नाम से अवतरित
होगा. वह तुम्हारा गुरू बनकर योग रहस्य का ज्ञान तुम्हें देगा. क्रिया योग का
ज्ञान शामाचरण नामक गुरू देंगे, उनसे तुम्हें
इच्छित वर प्राप्त होंगे,”
माणिक प्रभु का अवतार
हनुमान ने कहा, “प्रभु, मैंने सूना था कि आप पद्मावती-व्यंकटेश स्वरूप हैं. आपकी आराधना जानने वाले
वैष्णव स्वामी को भी आपका अनुग्रह प्राप्त हुआ.”
तब श्रीपाद प्रभु ने कहा, “निरंतर मेरा स्मरण करके अपने मन को सदैव मेरे चैतन्य रूप में लीन करो. मैं
तुम्हें वर देता हूँ कि गोपाल राव नामक महावैष्णव तुम्हारे गुरू होंगे. वे श्री
वेंकटेश्वर के भक्त होकर व्यंकन्ना के नाम से प्रसिद्ध होंगे. उनके महाप्रयाण के
पश्चात उनकी अस्थियाँ एक मिट्टी के पात्र में रखकर ज़मीन के अन्दर कुछ समय तक
सुरक्षित रखना. मेरी सूचना मिलने पर तुम वह पात्र खोलकर देखना, उसमें वेंकटेश की मूर्ति दिखाई देगी. उस मूर्ति की तुम पूजा करना. मैं
प्रसन्न होकर तुम्हें इच्छित वर प्रदान करूंगा.” तब हनुमान ने जानकी माता से कहा, “माता, आपने मुझे अत्यंत प्रेम एवँ वात्सल्य भाव से एक
माणिक मोतियों का हार दिया था. उन मोतियों में प्रभु श्री राम को ढूँढने के लिए
मैंने उन मोतियों को पत्थर से तोडा, परन्तु
उनमें श्री राम प्रभु दिखाई नहीं दिए, इसलिए
मैंने उस हार को फेंक दिया. उस महान अपराध के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें.”
श्रीपाद प्रभु ने इस पर कहा, “ईश्वर
के सान्निध्य के बगैर कोई भी कार्य पूर्ण नहीं होता. माणिक मोतियों का वह हार
मैंने सुरक्षित रखा है. वह हार दत्त स्वरूप है, इसमें
कोइ संदेह नहीं. मेरी आत्मज्योति से मैंने उस हार में प्राण डाल दिए हैं. वह माणिक
हार गुरूस्वरूप के दिव्य तेज से दमक रहा था. वह गुरू स्वरूप माणिक प्रभु के स्वरूप
में प्रकट होगा”
श्रीपाद श्रीवल्लभ बद्रीनाथ क्षेत्र के नारायण
स्वरूप हैं. वे पुनः मानव देह धारण करने वाले हैं, परन्तु
उनका नाम व रूप किस प्रकार का होगा यह कोई भी नहीं जान सकता.
श्रीपाद प्रभु का द्रोणागिरी पर्वत के निकट शंबलगिरी
ग्राम में निवास
श्रीपाद प्रभु के मामा वेंकटावधानी महाराज विद्यार्थियों को वेदों की
शिक्षा दिया करते थे. उस स्थान के निकट ही एक नारियल का वृक्ष था. वेद पाठशाला के
दिव्य परिसर में एक वानर वेदाध्ययन की और आकर्षित हुआ. वह वानर पेड़ के नारियल को न
तोड़ता, किसी अन्य वस्तु को भी हाथ न
लगाता. बस, चुपचाप बड़े श्रद्धाभाव से पेड़ पर
बैठकर पाठ का श्रवण करता. श्रीपाद प्रभु ने बड़े भोलेपन से पूछा, “मामा, भगवान के अवतार के समान क्या नारियल के पेड़ का भी अवतार होता है?”
“कृष्णा, यह कैसा प्रश्न पूछ रहे हो? प्रश्न का भी कुछ अर्थ होना चाहिए.”
इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “वो बात नहीं, मामा. पेड़ों पर फल लगते हैं. उस
फल के बीज से फिर नए वृक्ष की उत्पत्ति होती है. इस प्रकार बीज से वृक्ष एवँ वृक्ष
से पुनः बीज के निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलती ही रहती है.”
इतने पर ही वार्तालाप रुक गया. उसी समय उनकी बगल में खड़े वृक्ष से एक बड़ा
नारियल नीचे गिरा. उस नारियल को श्रीपाद प्रभु ने अपने हाथ में लिया. उस वानर की ओर
देखकर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तुझे खाली हाथ भेजना मैंने योग्य
नहीं समझा. मेरे हाथों से तुझे प्रसाद स्वरूप यह नारियल दे रहा हूँ.” श्रीपाद
प्रभु ने वह नारियल उस वानर के हाथों में देकर प्रेम से उसकी पीठ सहलाई और बोले, “तू मुझसे और नारियल मत मांगना, यदि यह स्वीकार है, तभी मैं यह नारियल ले जाने दूँगा.”
वानर ने सहमति से सिर हिलाया और नारियल लेकर प्रसन्नता से वहाँ से चला गया.
वह वानर कौन था? श्रीपाद प्रभु ने उसे नारियल
क्यों दिया? एक और नारियल नहीं दूँगा, ऐसा उन्होंने क्यों कहा? बिना कोई प्रयत्न किये नारियल
नीचे कैसे गिरा? किसके लिए गिरा? इन सब प्रश्नों के उत्तर कौन दे
सकता है? श्रीपाद प्रभु की लीला अद्भुत्,
अगम्य एवँ अनाकलनीय है, यही सत्य है.
श्रीपाद प्रभु द्रोणागिरी नामक संजीवनी पर्वत पर गए. कुछ दिन वहाँ के ऋषि-मुनियों
के समुदाय के साथ प्रसन्नता पूर्वक रहे. वहाँ उपस्थित महायोगियों को अनुग्रह
प्रदान कर कृतार्थ किया. वहाँ से वे उस गाँव में गए जहाँ श्री कल्कि प्रभु का जन्म
होने वाला है. उस प्रदेश को महायोगियों ने भी नहीं देखा है. हिमालय में हज़ारों
वर्षों से तपस्या करने वाले महापुरुष इस ग्राम में हैं. संबल गाँव के पर्वत के
शुद्ध जल का श्री प्रभु ने प्राशन किया. उस जल की यह महिमा है कि उसे पीने वाले की
आयु बढ़ती नहीं है. इसी कारण श्रीपाद प्रभु की आकृति हमेशा सोलह वर्षीय कुमार जैसी
ही रही. आयु के अनुसार उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ.
श्रीपाद प्रभु का
गोकर्ण क्षेत्र से दिव्य लोक को प्रयाण
तत्पश्चात श्रीपाद प्रभु अनेक दिव्य स्थलों पर
जाते हुए, साधकों, भक्तों, महापुरुषों को अनुग्रह प्रदान करते हुए गोकर्ण महाबलेश्वर क्षेत्र में
पहुंचे. इस क्षेत्र में प्रभु तीन वर्षों तक रहे. इस पूण्य क्षेत्र में उन्होंने
अनेक लीलाओं का प्रदर्शन किया, परन्तु उनका वर्णन करना नितांत असंभव है. गोकर्ण क्षेत्र
से श्रीपाद प्रभु श्री शैल्य क्षेत्र में पधारे. श्री बापन्नाचार्युलु ने वहाँ एक
महायज्ञ किया था. इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप ही श्रीपाद प्रभु का अवतार हुआ.
श्रीपाद प्रभु योगमार्ग से महा अग्निगोल के समान तप्त लाल होकर सूर्य मंडल
गए. वहाँ से ध्रुव नक्षत्र से, सप्त
ऋषिमंडल से, आर्द्रा नक्षत्र में घूम कर चार मास पश्चात श्री शैल्य क्षेत्र में
वापस लौटे. उनके साथ उस नक्षत्र पर वास करने वाले महर्षि अत्यंत नूतन योग सीखने के
लिए आए. श्री शैल्य के सिद्ध पुरुषों की, ऋषियों
की एक सभा आयोजित करके सब ऋषियों को, दूसरे ग्रह से आये हुए ऋषियों को उस नूतन
महायोग का, सिद्धयोग का बोध कराया. उस ज्ञान से सब ऋषि, मुनिगण
अत्यंत प्रसन्न हो गए. इस ज्ञानामृत प्राशन के उपरांत आर्द्रा नक्षत्र के ऋषि अपने
स्थान को लौट गए. श्रीपाद प्रभु कुछ दिनों के बाद श्री शैल्य से पवित्र क्षेत्र कुरुगड्डी आए.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
की जी जयकार हो।।
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