।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय ४९
श्रीपाद प्रभु का कर्म विनाश के
संबंध में विधान
तैतीस (३३) संख्या की विशेषता – कुरुगड्डी
में
श्रीपाद प्रभु के कार्यक्रम
श्रीपाद प्रभु ने एक बार कहा, “शंकर भट्ट! हम जिसका
अनुष्ठान करते हैं, वह अग्नि विद्या है. अग्नि उपासना करना श्रोत्रिय लक्षण
है. तेरी अग्नि उपासना तो बुझी हुई अंगीठी पर खाना बनाने जैसी है. इस पर मैं प्रभु
की जय जयकार करते हुए बोला, “महाराज, मेरे जीवन के उपरांत भी यह अंगीठी ऐसी ही रहने
वाली है.” श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तेरी बुझी हुई अंगीठी में स्वयँ की शक्ति नहीं
है. मेरी योग शक्ति से उस अंगीठी पर बनाया गया भोजन प्रसाद स्वरूप होकर भक्तों के दैन्य. दुःख का हरण कर रहा है. यह अंगीठी
और नौ वर्षों तक जलती रहेगी. इसलिए मैं तैंतीस (३३) वर्षों तक गुप्त स्वरूप में
रहा. पश्चात तीन वर्ष तेज स्वरूप में रहकर श्रद्धालु भक्तों को ही दर्शन देता रहा.
तब मैं तैंतीस वर्ष का था. योगियों के जीवन में तैंतीसवें वर्ष में अनेक परिवर्तन
होते हैं. रूद्र गणों की संख्या तैंतीस करोड़ है.” श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “हमारा अग्नियज्ञ इसके पश्चात भी चलता ही रहेगा. कर्म को स्थूल रूप प्रदान
कर उसे दग्ध करने के प्रतीक स्वरूप अग्नि आराधना की जाती है. इससे भक्तों के कर्म स्थूल
रूप ग्रहण करने से पहले सूक्ष्म-रूप में रहते हैं, इससे पूर्व कारण-रूप देह
कारण-शरीर में स्थित होता है. इसलिए तैंतीस वर्ष हो जाने पर इस प्रकार की
अग्निपूजा की आवश्यकता नहीं रहती. उस समय मेरे आश्रय में आने वालों के पाप-कर्म
सूक्ष्म-शरीर में रहकर एवँ कारण-शरीर में रहकर योग अग्नि से दग्ध हो जाते हैं.
मेरे भक्त आकर
अपना-अपना भोजन बना कर अपनी क्षुधा तृप्ति करेंगे. ऐसा तीन वर्षों तक चलता रहेगा. इसके
पश्चात इस स्थूल रूप में अग्निपूजा करने की आवश्यकता न रहेगी. पृथ्वी यज्ञ का
प्रारम्भ मैंने कर दिया है, वह यशस्वी रीति से चल रहा है. उसी प्रकार जल यज्ञ भी मैंने आरम्भ कर दिया
है. वह भी धूमधाम से चल रहा है. अब अग्नि पूजा एवँ अग्नि यज्ञ का आरम्भ करना है.
वह यज्ञ भी अद्वितीय होगा, इसमें कोई संदेह नहीं. समस्त जीव राशि में अग्नि स्वरूप
मेरा ही है. सबका शुद्धिकरण मैं ही करता हूँ. सबका नाश करने वाला भी मैं ही हूँ.
पंचतत्वों से संबंधित यज्ञ की जितनी जानकारी मुझे है, उतनी किसी को भी नहीं है.
एक दिन एक नवविवाहित
जोड़ा श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए आया. प्रभू ने उन्हें पंचदेव पहाड़ के दरबार
में रहने की आज्ञा दी. उनके आदेशानुसार वे दोनों पति-पत्नी पंचदेव पहाड़ के दरबार
में गए. परन्तु दो ही दिनों में वह युवक गतप्राण हो गया. उसकी अकस्मात् मृत्यु से
वह नववधू बहुत भयभीत हो गई. वह बोली, “प्रभु अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और उनकी
कृपा दृष्टी सब पर रहती है, ऐसा सुना था. परन्तु आज तो यह अघटित घटना हो गई.” वह शोक में विलाप करने
लगी. उनके रिश्तेदार सूचना मिलते ही पंचदेव पहाड़ पर आए. उस मृत देह का दहन
क्यों न किया जाए – यह प्रश्न सबके सम्मुख था.
श्रीपाद प्रभु की आज्ञा के बिना मृत देह दरबार से
बाहर नहीं ले जाया जा सकता, ऐसा दरबार के
सेवाधारी भक्त बोले. तभी श्रीपाद प्रभु दरबार में आये. शोक सागर में डूबी हुई उस
नववधू ने श्रीपाद प्रभु को अपने दुर्भाग्य की कथा सुनाई. श्रीपाद प्रभु बोले, “ कर्म का फल भोगना अनिवार्य है. नववधू ने बड़े श्रद्धा भाव से कहा, “प्रभु! आपके लिए असंभव ऐसा इस विश्व में कुछ भी नहीं है. मेरा मांगल्य देकर
मुझे इस भयंकर दुःख से उबारें.” उस नववधू को श्रीपाद प्रभु के करुणामय स्वभाव पर
दृढ़ विश्वास था.
मृतक को जीवन दान
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तेरा दृढ़ विश्वास ही फलदायक होगा. मुझ पर जो तेरी श्रद्धा है, उसके फलस्वरूप तेरा
पति अवश्य ही जीवित हो जाएगा. कर्म सिद्धांत का व्यतिरेक न करते हुए तुझे एक उपाय
बताता हूँ. तू अपने पति के वजन के बराबर लकडियाँ खरीद. इसके लिए अपना मंगलसूत्र
बेच दे. उन लकड़ियों पर खाना बना. जैसे-जैसे चूल्हे में वे लकडियाँ जलेंगी, वैसे-वैसे तेरा अमंगल
दग्ध हो जाएगा.” श्रीपाद प्रभ की आज्ञानुसार उस नववधू ने किया. सारी लकडियाँ जल
जाने के बाद वह नवयुवक ऐसे उठ गया मानो नींद से जागा हो. अपने चारों और सभी
रिश्तेदारों को देखकर उस नववधू के आनंद की सीमा न रही. सभी भक्तजनों ने हर्षोल्लास
के साथ श्रीपाद प्रभु का जय जयकार किया.
दरिद्री ब्राह्मण पर श्रीपाद प्रभु
की विशेष कृपा
एक बार एक अत्यंत गरीब ब्राह्मण श्रीपाद प्रभु के
दर्शन के लिए आया. वह अपनी परिस्थिति से इतना दुखी था कि श्रीपाद प्रभु की
कृपादृष्टि प्राप्त न होने पर उसने आत्मह्त्या करने का निश्चय कर लिया था. श्रीपाद
प्रभु उसके मन का भाव जान गए. उन्होंने अंगीठी से एक जलती हुई लकड़ी निकाल कर उससे
ब्राह्मण की पीठ को स्पर्श किया. उस जलती हुई लकड़ी के कारण ब्राह्मण की पीठ जल गई
और काफी देर तक उसे वेदनाएं होती रहीं. श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे ब्राह्मण! तू
आत्महत्या करने निकला था. यदि मैं तेरी उपेक्षा करता तो तू सचमुच में आत्महत्या कर
लेता. उस आत्महत्या से संबंधित समस्त पाप कर्मों के स्पंदन इस जलती हुई लकड़ी के
स्पर्श से नष्ट हो गए. अब तुझे दारिद्र्य से मुक्ति मिल जायेगी.” इतना कहकर श्रीपाद
प्रभु ने वह ठंडी हो गई लकड़ी उस ब्राह्मण को दी और उसे अपने उत्तरीय में बांधकर
संभाल कर घर ले जाने को कहा. प्रभु के आदेशानुसार ब्राह्मण उस लकड़ी को अपने
उत्तरीय में बांधकर घर ले गया. घर पहुँच कर जैसे ही उत्तरीय खोलकर देखा तो वह लकड़ी
सोने में परिवर्तित हो गई थी. इस प्रकार उस गरीब ब्राह्मण पर श्रीपाद प्रभु ने विशेष
कृपा की थी.
श्रीपाद प्रभु ने अनेक भक्तों के पापों का अग्नि
यज्ञ से दहन किया था. कभी वे भक्तों को बैंगन, भिन्डी, कद्दू आदि सब्जियां
लाने को कहते. उन सब्जियों के रूप में भक्तों के पापकर्मों के स्पंदन आकर्षित कर
लेते. इस प्रकार की सब्जियां पकाकर भक्तों को खिलाते. ऐसा करने से वे कर्म बंधन से
मुक्त हो जाते.
एक बार एक उपवर कन्या श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के
लिए आई. उसकी शादी कहीं निश्चित नहीं हो रही थी. उसे मंगल का दोष होने के कारण प्रभु
ने उसे कंद लाने के लिए कहा. उस कंद की सब्जी उस लड़की समेत उसके परिवार जनों को
खाने के लिए कहा. ऐसा करने से कर्मबंधन से मुक्त होकर उसका एक सुयोग्य वर के साथ
विवाह हो गया.
श्रीपाद प्रभु कुछ लोगों से गाय का घी लाकर उसे
भोजन बनाने के लिए देने को कहते. किसी-किसी को गाय के घी का दिया भगवान के सामने
जलाने को कहते. घर में यदि अत्यंत विकट परिस्थिति हो, अथवा
कन्या के विवाह में कठिनाई आ रही हो तो ऐसे भक्तों को श्रीपाद प्रभु हर शुक्रवार
को राहुकाल में (प्रातः १०.३० से १२.०० तक) अंबिका माता की पूजा करने के लिए कहते.
एक बार श्रीपाद प्रभु का एक भक्त खूब बीमार हो
गया. प्रभु ने उसके परिवार वालों से कहा, कि रोगी के कमरे में एरंडी के तेल का दिया निरंतर
जलाएं और यह ध्यान रखें कि वह बुझने न पाए. ऐसा करने से वह भक्त शीघ्र ही रोगमुक्त
हो गया.
एक भक्त की आर्थिक परिस्थिति अत्यंत विकट थी. उसे
श्रीपाद प्रभु ने लगातार आठ दिनों तक गाय के घी का अखण्ड दीपक जलाने को कहा. ऐसा
करने से उसके घर को लक्ष्मी जी का वरद हस्त प्राप्त हुआ.
इस प्रकार
की अनेक नई-नई विधियों द्वारा श्रीपाद प्रभु ने अपने भक्तों को पापकर्मों से मुक्त
किया. इस सब के बारे में समझना सामान्य मानव के लिए असंभव है.
।। श्रीपाद प्रभु की जय जयकार हो।।
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