।। श्रीपाद राजं शरणं
प्रपद्ये।।
अध्याय – ४७
पीठिकापुरम् से पंचदेव पहाड़ ग्राम
तक श्रीपाद प्रभु के माता-पिता , नाना-नानी एवँ भक्तगणों का विचित्र प्रयाण
श्रीपाद प्रभु के दरबार में सबको यथेच्छा भोजन
मिलता था. अन्नपात्र से चाहे जितना भी अन्न निकालो, उसमें से भोजन कभी
समाप्त ही न होता था. यह बड़ा दिव्य आश्चर्य था. सभी प्राणियों के भरपेट भोजन के
पश्चात जलचरों को भी यह प्रसाद प्राप्त हो, इस उद्देश्य से भोजनपात्र
में बचा हुआ अन्न कृष्णा नदी में छोड़ दिया जाता था.
श्रीपाद प्रभु ने बापन्नाचार्युलु से कहा, “नाना जी, आपने श्री शैल्य पर
सावित्री काटक यज्ञ संपन्न करके सूर्य मंडल का तेज शक्तिपात द्वारा आकर्षित किया
था. साथ ही, भारद्वाज मुनि ने भी अत्यंत आर्त भाव से प्रार्थना की थी कि मैं अवतार
लूँ. उन्हें दिए हुए वचन का पालन करने के लिए मैंने अवतार धारण किया है. ब्रह्म
स्वरूप को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता. मन में भी उसकी कल्पना नहीं की जा
सकती. उस ब्रह्मस्वरूप को केवल दत्तात्रेय
प्रभु ही जान सकते हैं. अतः हम उन्हीं के नाम का जयघोष करें. मैं देश एवँ काल पर
विजय प्राप्त कर सकता हूँ. मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ हो ही नहीं सकता. मेरी
आवश्यकता के अनुसार मैं मेरे मतों-विचारों का आपके मतों-विचारों से तादात्म्य
स्थापित कर सकता हूँ. अंतरिक्ष के सभी तारे तथा ग्रह मेरे हाथों के खिलौने हैं.
मैंने आपकी हर इच्छा-आकांक्षा पूरी की है. नाना जी, पहले आप जब लाभाद
महर्षि, नन्द, भास्कराचार्य थे, तब हर बार मैंने आप
पर अनुग्रह किया, अब बापन्नाचार्युलु के रूप में आये हैं, और मैं श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में भाव विभोर होकर आया हूँ. इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात ही
नहीं है.”
इसके उपरांत वेंकटप्पा श्रेष्ठी बोले, “हे सोन्या, हे कृष्णा, तुम्हें तो सब कुछ
बड़ा आसान लगता है. परन्तु हमें वह असाधारण एवँ रोमांचकारी प्रतीत होता है.”
श्रीपाद प्रभु ने उत्तर दिया, “दादा जी, मैं पूर्ण प्रज्ञ हूँ
और प्रत्येक प्राणी को उसके धर्म कर्म के अनुसार फल देता हूँ. मुझसे निकली हुई
सूक्ष्मतम किरण भी पृथ्वी सहन नहीं कर सकती. थोड़ी सी कुण्डलिनी जागृत करूँ तो भी
आप उसे सहन नहीं कर सकते. इसलिए मैं अपनी ही माया के भीतर अपने आपको सुरक्षित रखता
हूँ. आवश्यकता होने पर ही मैं असाधारण कार्य कर सकता हूँ. ऐसा कोई भी वरदान नहीं
है, जिसमें मेरी माया न हो. ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जो मैं नहीं कर सकता.
आप सबको पीठिकापुरम् से पंचदेवपहाड़ ग्राम तक इतने अल्प समय में लाने का उद्देश्य
यही था कि आपको ज्ञात हो जाए कि मैं दत्त प्रभु ही हूँ.”
नरसिंह वर्मा ने कहा, “सब प्राणियों की
रक्षा करने वाले एकमेव क्षत्रिय तुम ही हो. बाकी सारे तो नाम मात्र के क्षत्रिय
हैं.” इस पर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “ क्षत्रियत्व मेरा
चिर स्वभाव ही है. शिवाजी महाराज के नाम से महाराष्ट्र में अवतार लेकर सनातन धर्म
की रक्षा करूँ, ऐसी ईश्वरी इच्छा थी. इस इच्छा के अनुसार शिवाजी राजा
का अवतार धारण करके महाराष्ट्र में हिन्दवी राज्य की प्रतिष्ठापना करूंगा.”
इस पर नरसिंह वर्मा ने कहा, “सार्वभौम श्रीपाद
प्रभु की जय जयकार हो!”
श्रीपाद प्रभु की नानी बोली, “अरे बेटा! तुम्हारे
विवाह का समारोह देखने के लिए हमारे नेत्र आतुर हैं. तुम्हारी शादी धूमधाम से होते
हुए और तुम्हें भाल पर तिलक लगाए, माथे पर मोती-माला बांधे, सब श्रृंगारों से सुसज्जित दूल्हे के रूप में हम
देखना चाहते हैं.” श्रीपाद प्रभु ने कहा, “नानी! तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी. मैं शंबल
ग्राम में कल्की अवतार में जन्म लूँगा. उस अवतार में पद्मावती नामक अनघालक्ष्मी से
विवाह करूंगा. परन्तु इसके लिए कुछ समय की आवश्यकता है. परन्तु आपकी इच्छा मैं
अवश्य पूरी करूंगा.”
वेंकट सुब्बम्मा श्रीपाद प्रभु से बोलीं, “हे कान्हा! मेरे हाथ
से तुझे दूध, दही, मलाई, मक्खन खिलाए बहुत दिन हो गए. अपने हाथों से तुम्हें
खिलाने की तीव्र इच्छा है.”
मायानाटक
सूत्रधारी श्रीपाद प्रभु एवँ उनका लीला विनोद
श्रीपाद प्रभु बोले, “नानी, तुम अवश्य खिलाओ. मुझे
अपने हाथों से खाने में उकताहट होती है. तुम लोग पीठिकापुरम् से आते हुए दूध, दही, मक्खन लाओगे, यह मुझे ज्ञात हो गया
था, परन्तु इतनी दूर की यात्रा में वह खराब न हो जाए, अतः आपके वात्सल्य प्रेम
से बंधे हुए, मैंने ऐसी लीला की कि वह सब, जैसा था वैसा, अच्छा ही रहे. नानी, इसके लिए मैंने कितना कष्ट उठाया, क्या बताऊँ! इतनी दूर
से अठारह घोड़ागाडियों को पंचदेव पहाड़ तक लाना क्या आसान बात है? मेरा पूरा शरीर दर्द
कर रहा है. देखो, मेरे हाथों पर कितने बल पड़ गए हैं.” वास्तव में श्रीपाद प्रभु की हथेलियों
पर फोड़े हो गए थे, वेंकट सुब्बम्मा ने अत्यंत मृदु भाव से श्रीपाद प्रभु की
हथेलियों पर मक्खन लगाया, और उनके शरीर को गर्म जल से सेंका. सचमुच, माया नाटक सूत्रधारी श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ
अगम्य थीं.
राजमांबा ने कहा, “हे कृष्णा, तेरी पसंद का हलवा
बनाकर चांदी के पात्र में रखकर लाई हूँ. तू मेरे पास आ जा, तुझे खिलाती हूँ.”
श्रीपाद प्रभु की तीनों नानी-दादियों ने मिलकर उन्हें वह मधुर हलवा खिलाया, परन्तु
उस पात्र का हलवा समाप्त ही नहीं हो रहा था. श्रीपाद प्रभु बड़ी देर तक यह लीला
दिखाते रहे. वे नानी से बोले, “आप तीनों के मन में मेरे प्रति अत्यंत प्रेम भाव है. तीनों ने मिलकर मुझ
अकेले को ही यदि हलवा खिलाया तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?” इसके पश्चात श्रीपाद
प्रभु ने अपने हाथों से वह हलवा अपने भाईयों को, बहनों को, जीजाओं को खिलाया. वहाँ आये हुए भाविकों के बीच
वेंकय्या नामक एक किसान था. उसे प्रभु ने दीक्षा दी एवँ अपने हाथों से हलवा दिया.
बचा हुआ हलवा गाडीवानों एवँ घोड़ों को देने को कहा. चांदी का वह पात्र वेंकय्या को
भेंट स्वरूप दिया.
अप्पल राजू शर्मा बोले, “बेटा, तू दत्त प्रभु है, यह समझ न पाने के कारण
हमारे हाथों से अनजाने में हुए अपराधों को क्षमा कर.”
श्रीपाद प्रभु बोले, “तात! आप मेरे पिता हैं. क्या पुत्र पिता को क्षमा करे, ऐसा होता है? आप मुझे पहले ही की
भाँति अपना बेटा समझ कर मुझ पर सदा वात्सल्यामृत का सिंचन करें. साथ ही मेरे
अभ्युदय की कामना भी करें!”
इस समय श्री वेंकटावधानी
एवँ उनकी पत्नी के नेत्रों से अश्रुध्रारा बह रही थी. श्रीपाद प्रभु ने उनसे कहा, “मामा, हमारा संबंध शाश्वत स्वरूप का है. मैं केवल आप ही का नहीं, अपितु आपके वंश में
जन्म लेने वाले हर व्यक्ति का दामाद हूँ. अपनी दिव्य लीलाओं से मैं आपको सुख देता
रहूँगा. कल्की अवतार के समय पद्मावती देवी को वधू के रूप में स्वीकार करके आपकी
मनोकामना पूरी करूंगा. सुमती महाराणी का दुःख दूर करूंगा. अपने लाडले पुत्र को
अन्य सभी पुत्रों के समान दूल्हे के रूप में देखने के स्थान पर वैराग्य ग्रहण किये
हुए एक यति के रूप में देखकर वह दुखी हो गई है.”
श्रीपाद प्रभु माता की ओर
देखकर बोले, “माँ! तुममें और अनुसूया माता में मुझे कोई अंतर
नहीं दिखाई देता. तुम दोनों की मनोकामना मैं कल्की-अवतार में अवश्य पूरी करूंगा.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “माँ, तुम्हारे गर्भ से जन्म लेकर मैं कितना महान हो गया हूँ. तुम्हारे
वात्सल्यामृत से ही मेरा पालन-पोषण हुआ है. मेरी बहन वासवी ने कितना महान कार्य
किया, यह जानती हो ना? जब मुझे भूख लगी थी, तब मुझे एक छोटे शिशु के रूप में परिवर्तित करके अनुसूया माता के पास दुग्धपान के लिए भेज दिया.”
वेंकय्या ने कहा, “ हे महागुरू! आपके चरणों में एक नम्र प्रार्थना है. आपने जो असंख्य लीलाएँ
इस दरबार में की हैं, वह दरबार एवँ उसके आसपास का परिसर विश्व में विख्यात हो जाए.” श्रीपाद
प्रभु बोले, “भविष्य में मेरा दरबार एक पक्की इमारत में
परिवर्तित होगा. इसमें गोधन भी होगा. वहाँ मेरी कितनी सारी लीलाएँ प्रदर्शित
होंगी. मेरे नेत्रों को भविष्य काल का यह अनुभव दिखाई दे रहा है.”
वहाँ एकत्रित सभी भाविक
भक्तों को गहरी निद्रा आ गई और कुछ ही क्षणों में मैं, वह सन्यासी, श्रीपाद प्रभु एवँ उनका पूरा दरबार
– सभी अदृश्य हो गए. उस सबका क्या हुआ होगा, यह चिंता मुझे सताने लगी. मेरे मन में यह शंका
उत्पन्न हुई कि कहीं यह राक्षसी माया तो नहीं? इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मेरे निकट कोई भी राक्षसी माया चल ही नहीं सकती. मैंने उन सबको सुरक्षित
रूप से पीठिकापुरम् पहुँचा दिया है. यह एक महान अनुभूति थी. जो मुझे जिस भाव से
भजता है, उसी भाव से मैं उसकी रक्षा करता हूँ. यह मेरा व्रत है. ”
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो.
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