श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये
अध्याय – ४८
श्रीपाद
प्रभु का स्त्री-पुरुषों को संबोधन
श्रीपाद प्रभु प्रत्येक
गुरूवार को पंचदेव पहाड़ पर सत्संग करते थे. श्रीपाद प्रभु कृष्णा नदी के पानी पर
चलकर जाया करते. उनके पग जहाँ-जहाँ पड़ते वहाँ-वहाँ एक कमल विकसित हो जाता. उस कमल
पुष्प पर श्रीपाद प्रभु के चरणों के चिह्न प्रकट हो जाते. यह कैसे होता था ये मानव
की सीमित बुद्धि की समझ से परे की पहेली थी. इतना ही नहीं, पानी पर चलकर जाना भी
एक अद्भुत् विषय था. कुछ दिनों तक देखने वालों को इस बात से आश्चर्य होता, परन्तु कालान्तर में
लोग इसे श्रीपाद प्रभु की साधारण लीला समझने लगे. श्रीपाद प्रभु जब कृष्णा नदी से
चलकर दूसरे किनारे तक पहुँचते, तो सारे भक्त गण उनका भव्य स्वागत करते. शाम तक सत्संग चलता रहता. फिर वे
वापस कृष्णा नदी पर चलकर दूसरे किनारे पर जाते, तब भक्तगण बड़े श्रद्धाभाव से उनकी जय जयकार
करते. रात के समय वे अकेले ही कुरुगड्डी में रहते थे. पंचदेव पहाड़ और कुरुगड्डी के
मध्य में कृष्णा नदी का पात्र है.
हर शुक्रवार को वे
विवाह योग्य कन्याओं को सौभाग्य का मंगल आशीर्वाद देते. महिलाओं को हल्दी की गाँठ
देते. श्रीपाद प्रभु आयु में उनसे बड़ी महिलाओं को “अम्मा सुमति” अथवा “अम्मा
अनुसूया तल्ली” कहकर संबोधित करते. आयु में छोटी महिलाओं को “अम्मा वासवी” अथवा “अम्मा
राधा”, “अम्मा सुरेखा” कहकर बुलाते. उनसे बड़े पुरुषों को वे “अय्या” अथवा “नायना”
कहकर बुलाते. आयु में उनसे छोटे लड़कों को “अरे अब्बी”, अथवा “बंगारू” कहकर
पुकारते. अपने नानाजी की आयु के वृद्ध पुरुषों को “ताता “ कहते, तथा वृद्ध स्त्रियों को “अम्मम्मा” कहकर पुकारते.
श्रीपाद
प्रभु के नित्य कार्यक्रम एवँ सत्संग
गुरूवार एवँ शुक्रवार
का सत्संग श्रीपाद प्रभु की इच्छानुसार कभी कुरुगड्डी में होता था अथवा कभी पंचदेव
पहाड़ पर. इतवार के सत्संग में श्रीपाद प्रभु अत्यंत गहन योग विद्या के बारे में
चर्चा करते. इसके पश्चात दर्शन हेतु आए हुए सभी भक्तों से उनका कुशल क्षेम पूछ कर
उनकी कठिनाइयों का, प्रश्नों का बड़े प्रेमभाव से समाधान करते और उन्हें अभय वचन देते. सोमवार
के सत्संग में पुराणों से ली गई कथाएँ सुनाते. उसके पश्चात भक्तों की समस्याओं का
निराकरण करते. मंगलवार के सत्संग में उपनिषदों का बोध करवाते, तत्पश्चात भक्तों की
व्यक्तिगत समस्याओं पर चर्चा कर उन्हें दूर करने का उपाय बतलाते. बुधवार को वेद
एवँ वेदों का अर्थ बताया जाता. गुरूवार को गुरुतत्व का विवेचन होता. इसके पश्चात
श्रीपाद प्रभु शान्ति से भक्तों की आधि-व्याधि के बारे में सुनकर उनके निराकरण का
उपाय बताते. इस दिन विशेष भोजन बनता. सबको भरपेट स्वादिष्ट भोजन मिलता. इस भोजन की
विशेषता यह होती कि श्रीपाद प्रभु स्वयँ पंगत में कोई न कोई पदार्थ परोसते. कुछ
भाग्यशाली व्यक्तियों को अपने हाथ से ग्रास देते. श्रीपाद प्रभु के पास अनाज का
अथवा धन का अभाव कभी भी नहीं होता था. शुक्रवार के सत्संग में वे श्रीविद्या के बारे
में बोध कराते और सबको विधियुक्त ढंग से हल्दी की गाँठ का प्रसाद देते. शनिवार को
शिवाराधना की महिमा पर प्रकाश डालते. श्रीपाद प्रभु के सत्संग का लाभ जिन्हें हुआ
वे सचमुच ही धन्य हैं.
श्रीपाद प्रभु के भक्त
साग-सब्जी, ज्वारी, रागी आदि अपने खेतों से लाते. भक्तों के लिए प्रतिदिन अन्नदान का आयोजन था, परन्तु गुरूवार के दिन
विशेष भोजन बनता था. उस दिन अन्य पदार्थों के साथ-साथ एक मिष्ठान्न भी बनाया जाता,
जिसे प्रसाद स्वरूप सारे भक्तों को दिया जाता था.
श्रीपाद प्रभु का ह्रदय
मक्खन जैसा मुलायम था. उनसे भक्तों के दुःख देखे नहीं जाते. उनके सत्संग में आया
हुआ दुखी श्रोता आनंद पूर्वक घर लौटता था. श्री दत्तात्रेय के दत्त पुराण का पाठ करने
वाले भक्तों को तत्काल श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होता. ऐसी श्रीपाद प्रभु
की यह माया कोटि-कोटि माताओं के वात्सल्य प्रेम से भी बढकर थी.
रात के समय किसी को भी कुरुगड्डी
में रुकने की अनुमति न थी, परन्तु मेरे साथ आये हुए वृद्ध सन्यासी को श्रीपाद
प्रभु ने वहाँ रुकने की अनुमति दी. मुझे भी श्रीपाद प्रभु ने रात को कुरुगड्डी में
रुकने के लिए कहा. दूसरे दिन श्रीपाद प्रभु ने उस सन्यासी को काशी जाने का आदेश देते
हुए कहा कि वह अपने अंतकाल तक वहीं रहे. भोजन हेतु प्रयुक्त बर्तन माँजना, भोजन
बनाना, आने वाले भक्तों की सब प्रकार से व्यवस्था करना – ये मेरे काम थे. दरबार
में कोइ भक्त चाहे किसी भी समय आये, उसे भोजन अवश्य मिलता था. जो भक्त अपने घर से भोजन करके आते, उन्हें भी प्रसाद
स्वरूप भोजन करना ही पड़ता. यदि भोजन के लिए आये हुए भक्तों की संख्या अधिक होती और
बनाया गया भोजन कम होता, तो श्रीपाद प्रभु अपने कमण्डलु से खाद्य पदार्थों पर जल छिड़कते. फिर सारे भक्तों
के भोजन के पश्चात भी खाद्य पदार्थ शेष ही रहते. श्रीपाद प्रभु ने इस प्रकार की
अनेक लीलाएँ कीं. रात के समय अनेक देवता विमान से कुरुगड्डी आते और श्रीपाद प्रभु
की सेवा करते. सुबह होते ही श्रीपाद प्रभु का आशीर्वाद लेकर स्वस्थान को लौट जाते.
कभी-कभी हिमालय से कुछ योगीजन आते. वे भी कृष्णा नदी के जल पर चलते हुए आते. उनके
शरीर अत्यंत कान्तिमान एवँ दैदीप्यमान होते थे. इन योगियों को श्रीपाद प्रभु स्वयँ
भोजन परोसते.
श्रीपाद प्रभु का भोजन केवल
मुट्ठीभर ही होता था. चाहे वह मोरधन हो, या ज्वारी का भात हो या रागी की संकटी हो.
भक्तों का पेट भरने से ही उन्हें अपना पेट भरने की तृप्ति प्राप्त होती थी.
रविदास नामक एक रजक था.
उसे श्रीपाद प्रभु के वस्त्र धोने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. परन्तु श्रीपाद
प्रभु के दर्शन के पश्चात भी बुरी प्रवृत्तियाँ उसे कष्ट पहुंचाती थीं. उनके
निवारण के लिए उसने श्रीपाद प्रभु के चरणों में आश्रय लिया. श्रीपाद प्रभु कहा
करते कि “पितरों का विधियुक्त श्राद्ध करने से उन्हें शान्ति प्राप्त होकर मुक्ति
मिलती है. अष्टादश वर्णों के सभी लोगों को अपने-अपने धर्म-कर्म के अनुसार फल भोगना
पड़ता है. इसमें किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होता. आज जो सुसन्धि प्राप्त हुई है, वह हमेशा मिलती रहेगी, ऐसा संभव नहीं है.
मेरे अगले अवतार में मुझे थोड़ा कठिन प्रवर्तन करना होगा.”
अनेक जन्मों के पुण्यों
के फलस्वरूप ही श्रीपाद प्रभु के दर्शन का लाभ होता है. ऐसी संधि का पूरा-पूरा लाभ
उठाना चाहिए. इस संधि का उपयोग न करने से अनेक जन्मों तक सद्गुरू के दर्शन होना
कठिन है. इस विशाल प्रपंच में, जिस युग में एक लाख पच्चीस हज़ार महासिद्ध पुरुषों
में उनके अंशमात्र में विद्यमान भक्त को उनका आश्रय एवँ अनुग्रह प्राप्त होता है,
और उसीके माध्यम से इस सृष्टि को इन भक्तों का ही आधार प्राप्त होता है. श्रीपाद
प्रभु के केवल संकल्प मात्र से सृष्टि का निर्माण, स्थिति एवँ विनाश होता रहता है.
जब भक्तजन अपने गुरू को
श्रद्धाभाव से प्रणाम करते हैं, तब गुरू उस प्रणाम को अपने गुरू तक पहुँचाते हैं. इस प्रकार हमारे द्वारा
अपने गुरू के चरणों में किया गया प्रणाम अनेक गुरुओं तक पहुंचता है. यदि ईश्वर हम
पर क्रोधित भी हो जाएँ, फिर भी गुरू उस क्रोध से हमारी रक्षा करते हैं. प्रत्येक शिष्य को गुरू का
आशीर्वाद प्राप्त होता है. गुरू की आराधना से इहलोक एवँ परलोक, दोनों की प्राप्ति
होती है. श्रीपाद प्रभु के सारे शिष्य सात्विक भाव वाले थे.
ह्रदय
में ईश्वर का नामस्मरण करते हुए कर्म का आचरण
कुरुगड्डी की विशेष
महिमा नित्य क्षेत्र के समान है. यहाँ स्थित देवता जागृत स्वरूप में हैं. इस
क्षेत्र में अनेक देवता, महर्षि, महापुरुष वेष बदलकर गुप्त रूप में आकर रहते हैं. यहाँ उनका अपना-अपना स्थान
निश्चित है. ह्रदय में ईश्वर का नाम भरकर सदाचरण करते हुए विहित कर्म करते रहो, ऐसा श्रीपाद प्रभु
अपने भक्तों से कहा करते थे. यदि हर व्यक्ति अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करे, फलस्वरूप पूर्व जन्म
के पापों का क्षय करे, पश्चात पुण्य कर्म करते हुए उसका श्रेय स्वयँ को न दे, तो उसे पुण्य कर्म का
शुभ फल प्राप्त होता है. श्रीपाद प्रभु के इस दिव्य वचन का पालन करने से हमारी
जीवन नौका इस भवसागर को सुलभता से पार करेगी.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें