श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये
अध्याय
– ५१
जलोदर से रक्षा – ग्रन्थ पारायण की
महिमा
मैं कुरवपुर में ही था कि अश्विन कृष्ण द्वादशी का
दिन आ पहुंचा. उस दिन हस्त नक्षत्र था. कृष्णा नदी में स्नान करने के पश्चात
श्रीपाद प्रभु कुछ देर तक ध्यान मुद्रा में बैठे. ध्यान से बाहर आकर उन्होंने मुझे
एक बार और स्नान करने के लिए कहा. उनकी आज्ञा के अनुसार मैंने एक बार फिर कृष्णा
नदी में दुबकी लगाई और उनके पास आया. तब प्रभु बोले, “अरे, शंकर भट्ट ! मेरे
गुप्त रूप से रहने का समय आ गया है. मैं कृष्णा नदी में अंतर्धान होकर इस कुरवपुर
में गुप्त रूप से संचार करूंगा, पश्चात नृसिंह सरस्वती के नाम से सन्यासी रूप में
धर्मोद्धार के लिए अवतार लूँगा.”
तू जिस ग्रन्थ की रचना कर रहा है, वह “श्रीपाद
श्रीवल्लभ चरित्रामृत” महा पवित्र ग्रन्थ भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के समान लाभदायक
होगा. वह ग्रन्थ “अक्षर सत्य” होगा. “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ
दिगंबरा “ – मेरे इस मन्त्र का जयघोष सर्वत्र होगा. इस ग्रन्थ के पठन से संसार
सुखी होगा. इहलोक एवँ परलोक में सौख्य की प्राप्ति होगी. इस ग्रन्थ का प्रत्येक
शब्द वेद वाक्य के समान माना जाएगा. तू जो लिख रहा है, वह संस्कृत ग्रन्थ
मेरे महासंस्थान के औदुम्बर वृक्ष के नीचे शब्द स्वरूप में हमेशा रहेगा. वहाँ से
निकलने वाले दिव्य शब्द दर्शन हेतु आने वाले भक्तों को सुनाई देंगे. ह्रदय पूर्वक
जो व्यक्ति मेरे दर्शनों के लिए तड़प रहे हैं, उन्हें मेरे दर्शन
अवश्य होंगे. मैं अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहता हूँ. तेरे इस
संस्कृत ग्रन्थ का तेलुगु भाषा में अनुवाद किया जाएगा. वह अनुवाद बापन्नाचार्युलु
की तैंतीसवी पीढी के वंशज द्वारा प्रकाश में आएगा. इस ग्रन्थ के अनेक भाषाओं में
अनुवाद होंगे. इस पवित्र ग्रन्थ का पठन चाहे किसी भी भाषा में क्यों न किया जाये, दिव्य अनुभव की
प्राप्ति होगी और पठन करने वाले भक्तों का सब कुछ शुभ मंगल होकर, उनकी सकल
व्याधियों से रक्षा होगी.
भक्तों को श्रीपाद प्रभु का अभय वचन
श्रीपाद प्रभु ने शंकर भट्ट
से आगे कहा, “तूने मेरी बहुत सेवा की है. तूने मुझे पिता के
समान सन्मान देकर, मनःपूर्वक मेरी सेवा का व्रत अत्यंत श्रद्धा एवँ नियम पूर्वक
निभाया है. मैं अपनी लकड़ी की चरण पादुकाएं तुझे भेंट स्वरूप दे रहा हूँ. मेरे न
होने पर दु:खी मत होना. तू तीन वर्षों तक यहीं रहना. इन तीन वर्षों में मैं तुझे
तेजोवलय रूप में दर्शन देता रहूँगा. साथ ही अनेक योग-रहस्यों के बारे में ज्ञान
दूँगा.”
श्रीपाद प्रभु अंतर्धान हुए
“हे शंकर भट्ट! तीन वर्षों के पश्चात आने वाली अश्विन
कृष्ण द्वादशी के दिन तेरे द्वारा रचित :श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत” ग्रन्थ
मेरी चरण पादुकाओं के निकट रखना. उस दिन दर्शन हेते आने वाले सारे भक्त धन्य हो
जायेंगे. सबको मेरा मंगलमय आशीर्वाद.”
इस प्रकार श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने बिदा ली और वे
कृष्णा नदी में अंतर्धान हो गए. उनकी लकड़ी की चरण पादुकाएं लेकर मैंने ह्रदय से
लगा लीं और माँ से बिछुड़े हुए बालक की भाँति फूट-फूटकर रोने लगा. श्रीपाद प्रभु
पानी में दिखाई दे रहे हैं, अथवा नहीं, यह देखने के लिए
मैंने फिर एक बार नदी में स्नान किया और बाहर आकर ध्यानस्थ हो गया.
तब मेरे मन:चक्षुओं को श्रीपाद प्रभु ने तेजोमय
रूप में दर्शन दिए..
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