।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४४
स्वर्ण पीठिकापुर
का वर्णन
श्री भास्कर पंडित ने हमसे विनती की कि उस दिन हम उनके घर में उनका
आदरातिथ्य स्वीकार करें एवँ श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का चरित्र सुनाएं. हम भास्कर
पंडित की बात टाल न सके. रात में उनके घर रुके, दूसरे दिन स्नान संध्या के पश्चात त्रिपुरान्तकेश्वर के दर्शन के लिए गए.
वहाँ श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के अत्यंत रसभरित चरित्र का वर्णन हुआ. वक्ता ने
अपनी मधुर वाणी से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर लिया था.
श्रीपाद प्रभु का जन्म
स्थान
“श्रोताओं! श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रत्यक्ष शिव
स्वरूप हैं. वे पीठिकापुरम् से अंतर्धान होकर काशी में अवतरित होते और गंगा स्नान
करते. पीठिकापुरम् में उनके अवतरित होने से वहाँ की भूत-पिशाच बाधा का निर्मूलन हो
गया था. पीठिकापुरम् में उनके जन्म स्थल की भूमि चैतन्यमय हो गई थी. भविष्य में, कुछ शताब्दियों के पश्चात उनके जन्म स्थान पर
निर्मित होने वाले महासंस्थान में उनकी दिव्य चरण पादुकाओं की प्रतिष्ठापना होगी.
वहाँ की भूमि जागृत होकर क्रमशः अपने आस-पास की भूमि को जागृत करेगी. वहाँ का जन
समुदाय पीठिकापुरम् के दिव्य आकर्षण से आकर्षित होगा. जिस-जिस स्थान पर श्रीपाद
प्रभु ने संचार किया एवँ जहाँ-जहाँ वे संचार करेंगे उस प्रदेश में अनजाने ही
जागृति का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है एवँ दैवी शक्ति का अनुभव होता है.
प्रत्येक मानव में एक पृथ्वी तत्व होता है, यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवँ गंध इन तत्वों से बनता है. योग दृष्टि से देखने पर ऐसा ज्ञात होता
है कि जिस शरीर में पृथ्वीतत्व होता है, वह श्रीपाद प्रभु के दिव्य करुणा भाव के कारण निश्चित रूप से पीठिकापुरम्
की और आकर्षित होता है.” इस पर मैंने पूछा, “आर्यावर्त के लोग उनके भीतर के पृथ्वी तत्व की जागृति के कारण क्या भौतिक
रूप से पीठिकापुरम् आते हैं?”
सुवर्ण पीठिकापुर महिमा
श्रीपाद प्रभु ने मंद हास्य किया और बोले, “ तुमने जो प्रश्न किया वह उचित ही है. भौतिक रूप से दिखाई देने वाले पीठिकापुरम् में एक सुवर्ण पीठिकापुर है. भौतिक
पीठिकापुरम् का जितना क्षेत्रफल है, उतना ही सुवर्ण पीठिकापुरम् का भी है. सुवर्ण पीठिकापुरम् केवल चैतन्य से
निर्मित हुआ है. वास्तव में साधकों में उपस्थित चैतन्य से संबंधित पदार्थों का जब
निर्माण होता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि वह सुवर्ण पीठिकापुरम् में वास कर रहा है. इस सुवर्ण पीठिकापुरम्
के चैतन्य के कारण हज़ारों दिव्य किरणों की आभा का निर्माण होता है. योगी, तपस्वी, महापुरुष इस सुवर्ण पीठिकापुरम् में रहने के लिए उत्सुक
होते हैं. परन्तु ये दिव्य पुरुष हमारी सामान्य दृष्टि को दिखाई नहीं देते. सुवर्ण
पीठिकापुरम् केवल योग चक्षु, ज्ञान चक्षु वाले साधकों को ही दिखाई देता है.”
काशी की पंचकोस यात्रा की विशेषता
“सुवर्ण पीठिकापुरम् ही के समान
सुवर्ण काशी नामक दिव्य क्षेत्र है. वह भौतिक काशी के विस्तार जितना ही है. सुवर्ण
काशी चैतन्यमय पदार्थों से निर्मित है. “काशी यात्रां गमिष्यामि, तत्रैव निवासाम्यहम्”। इति ब्रुवाणः सततं
काशीवासं फलं लभेत्त्।।“ ऐसा शास्त्रों का वचन है. “मैं काशी जा रहा हूँ और वहीं
पर रहने का मेरा विचार है,” ऐसा हमेशा कहने
वालों को भी काशीवास का फल प्राप्त होता है. सुवर्ण काशी में निवास करने के बारे
में और श्री काशी विश्वेश्वर के दर्शनों के बारे में प्रत्येक व्यक्ति को बड़े
श्रद्धाभाव से निरंतर चिंतन करना चाहिए.
तुम्हारे अन्नमय कोष से संबंधित एक भौतिक पीठिकापुरम्
है, उसी प्रकार एक भौतिक काशी भी है. प्राणमय कोष
के सापेक्ष एक भौतिक पीठिकापुरम् एवँ भौतिक प्राणमय काशी है. मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष एवँ आनंदमय कोष – इन प्रत्येक
कोषों से संबंधित एक-एक पीठिकापुरम् तथा एक-एक काशी है.
इस आनंदमय पीठिकापुरम् को ही सुवर्ण पीठिकापुरम्
कहते हैं. उसी प्रकार आनंदमय काशी को ही सुवर्ण काशी कहते हैं.”
इस पर मैंने कहा, “महाशय, मैं अल्पज्ञ हूँ. कृपया मुझ पर अनुग्रह करके इस
विषय के बारे में विस्तार से बताएँ. कुछ लोग काशी की पंचकोष यात्रा के फल के बारे
में कहते हैं. वह यात्रा कौनसी है?”
मेरे प्रश्न का समाधान करते हुए श्री भास्कर
पंडित बोले, “बेटा, पञ्चकोष यात्रा से तात्पर्य भौतिक
यात्रा से है. वास्तव में जो यात्रा हमें करनी चाहिए, वह अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोष कहलाई जाने वाली
पंचकोष यात्रा है. इसे चैतन्य रूप से ही करना पड़ता है. यही इस पंचकोषमय यात्रा का
गूढ़ दैवरहस्य है. श्रीपाद प्रभु के अनुग्रह के कारण ही साधक को पंचकोष यात्रा करने
की सामर्थ्य प्राप्त होती है, इसी अनुग्रह के फलस्वरूप पंचभूतों से संबंधित पञ्च
महायज्ञ श्रीपाद प्रभु की योग शक्ति से सिद्ध होते हैं. इस पञ्च महायज्ञ के प्रतीक
स्वरूप ही कुरुगड्डी के निकट पंचदेव पहाड़ सुशोभित किया गया है. जिन साधकों ने
देव-रहस्य का अनुष्ठान किया है, जिनके पास योग
दृष्टि है, उन्हीं को इस सबका आकलन होता है, सामान्य मानवों को इस बारे में कोई जानकारी
नहीं होती.”
“जब श्रीपाद प्रभु ने गंगा स्नान किया, तब गंगा माता प्रत्यक्ष हुईं और उन्होंने
श्रीपाद प्रभु से प्रार्थना की कि वे प्रतिदिन गंगा स्नान करें. उस समय श्रीपाद
प्रभु ने वरदान दिया , “मैं प्रतिदिन गंगा स्नान करूंगा,” इसी कारण से गंगा माता
का चैतन्य भी पंचकोष में समाया हुआ है. उसी प्रकार गंगा माता का वास्तव्य भी
पंचकोष में है.”
इस पर मैंने पूछा, “गंगा माता तो जल स्वरूप होती है ना? वह पंचकोषों में किस
प्रकार हो सकती है? यह मैं समझ नहीं पा
रहा हूँ.” इस पर भास्कर पंडित हँसते हुए बोले, “बेटा, देवता मन्त्र स्वरूप होते हैं. वे भौतिक स्वरूप
में नहीं होते. मन्त्र स्वरूप से तात्पर्य
है शब्द-ब्रह्म का शक्ति रूप. गंगा माता शक्ति देवता हैं, इसका अर्थ यह है कि वह देवता-चैतन्य स्वरूप
हैं. भौतिक स्वरूप वाली गंगा नदी तादात्म्य स्थिति की अभिमान-देवता तथा चैतन्य-स्वरूपी
देवता हैं. उसी प्रकार सूर्य देवता (चैतन्य-स्वरूपी) जो सृष्टि में दिखाई देते हैं, वे सूर्य खगोल में तादात्म्य स्थिति के चैतन्य-स्वरूप
देवता होते हैं. यह धर्मंसूक्ष्म, गूढ़, दिव्य रहस्य अब तुम
भली प्रकार समझ गए होगे.”
“ प्रत्येक मानव में जल तत्व होता है, इसके शुद्धिकरण के लिए जलयज्ञ का संकल्प किया
जाता है. इसलिए वे प्रतिदिन काशी में गंगा स्नान हेतु जाते हैं. इस योग प्रक्रिया
के कारण भौतिक रूप में विद्यमान जल-वासना को पवित्रता प्राप्त होती है. पवित्र
नदियाँ अपने अति पवित्र जल से मानव का मालिन्य दूर करके उसे पवित्रता प्रदान करती
हैं. गंगा, गोदावरी आदि महानदियाँ पापी जनों द्वारा उनके
जल में किये गए स्नान के कारण अपवित्र हो जाती हैं, परन्तु जब इन नदियों में चैतन्य-स्वरूप महापुरुष तथा पुण्यात्मा स्नान करते
हैं, तब ये महानदियाँ पूर्ववत पवित्र हो जाती हैं.
जलयज्ञ से तात्पर्य है जीवराशी के शरीर में जलस्वरूप एवँ जलतत्व का शुद्धिकरण.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु सार्वभौम हैं. केवल एक आदेश मात्र से कोटि-कोटि
ब्रह्मांडों की रचना, उनकी रक्षा एवँ
तत्पश्चात विलय करने वाले महान त्रिमूर्ति स्वरूप दत्त प्रभु ही हैं. त्रेता युग
में भारद्वाज मुनि को दिए गए वचनानुसार, भारद्वाज गोत्र में, सावित्रिकाठक महायज्ञ की पुण्य भूमि अर्थात्
पीठिकापुरम् गाँव में श्रीपाद प्रभु ने अवतार धारण किया. उनके अवतार का प्रयोजन है
महायोगियों, महासिद्धों, महापुरुषों को अनुगृहीत कर उनके माध्यम से धर्म का उद्धार करना. उन्होंने
इस अवतार के पश्चात नरसिंह सरस्वती नाम रूप से अवतार धारण करने के बारे में कहा
है. इस दिव्य वचन पर जो अविश्वास करेगा उन्हें, तथा जो श्रीपाद प्रभु के अवतार की अवहेलना करेगा उन्हें पिशाच्च योनि
प्राप्त होगी. वे बलहीन एवँ अत्यंत दीन हीन अवस्था को प्राप्त होकर नरक यातना
भोगेंगे. ऐसे पापियों को श्री गाणगापुर क्षेत्र में श्री नृसिंह सरस्वती स्वामी के
अवतार में मुक्ति मिलेगी. ऐसा श्रीपाद प्रभु ने कहा है.”
“तू जो लिख रहा है, वह श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का चरित्रामृत ग्रन्थ अक्षर सत्य ग्रन्थ है. इस
ग्रन्थ का सभी भाषाओं में अनुवाद होगा. इस महान ग्रन्थ का किसी भी भाषा में पारायण
करने से उसका विशिष्ठ फल प्रत्येक मानव को प्राप्त होगा. इसका अनुवाद करने की
योग्यता वाले व्यक्तियों का चयन वे स्वयँ ही करेंगे, इस ग्रन्थ का अनुवाद करने वाले एवँ अनुवाद कार्य में सहायता करने वालों पर
प्रभु की विशेष कृपा होगी. यह ग्रन्थ पवित्र मंदिर में रखकर इसकी पूजा करने से
उनको प्रभु की कृपा का लाभ होगा. इस ग्रन्थ के पठन से कलियुग में सब कुछ शुभ होगा, ऐसा महाप्रभु ने कहा. तुम्हारा यह ग्रन्थ लेखन का
कार्य श्रीपाद प्रभु ही तुमसे पूरा करवाएंगे.” इस पर मैंने कहा, “महाराज, आपने जो कुछा कहा, वह योग्य ही है.
परन्तु मैं तो पंडित नहीं हूँ, इसके अतिरिक्त
वेद-वेदान्तों के ज्ञान से भी अनभिज्ञ हूँ. इस अल्पज्ञ के हाथों से आप कितना महान
कार्य करवा रहे हैं, इसका मुझे आश्चर्य
होता है, और प्रसन्नता भी होती है.”
इस पर भास्कर पंडित बोले, “वास्तव में यह दत्त विधान ही है कि निषिद्ध
पदार्थो ने रोगों में वृद्धि होती है, परन्तु आश्चर्य की
बात यह है कि अद्भुत महत्कार्य अज्ञानी, सामान्य व्यक्ति द्वारा करवा लेने का श्रीपाद प्रभु का नित्य विनोदी स्वभाव
है. यह उनकी दिव्य शक्ति का ही उदाहरण है.”
एक दिन एक सन्यासी पीठिकापुरम् के कुककुटेश्वर
के मंदिर में आए. उस समय श्रीपाद प्रभु बाल्यावस्था में थे. श्री नरसिंह वर्मा एवँ
श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी बालक श्रीपाद श्रीवल्लभ को घोडागाडी में कुक्कुटेश्वर
के मंदिर में लाए. उस समय वह सन्यासी स्वयंभू दत्तमंदिर में ध्यानावस्था में बैठे
थे. उन्हें देखकर श्रीपाद प्रभु ने श्रेष्ठी महाशय से कहा, “इस साधू को मंदिर में क्यों आने दिया?” नरसिंह वर्मा ने हौले से श्रीपाद प्रभु से कहा, “अरे बेटा, वे सन्यासी हैं. यदि इन्हें क्रोध आ गया तो वे
हमें शाप दे देंगे.” श्रीपाद प्रभु बोले, “ओ हो, तो इन्हें भी क्रोध आता है! मछलियाँ पकड़ कर
जिनके शरीर से मछलियों की बू आती है, उन्हें क्या सन्यासी
कहते हैं?” तभी उस सन्यासी ने नेत्र खोले. उनके शरीर से
मछलियों की बू आ रही थी. सन्यासी इस बात को समझ गए. वे वास्तव में सचमुच के
सन्यासी ही थे. उन्होंने श्रीपाद प्रभु की और देखा. उन्हें मत्स्य-अवतार के श्री
विष्णु का स्मरण हो आया. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “आपके कमण्डलु में भी
छोटी-छोटी मछलियाँ हैं, आप ही देख लीजिये.”
सन्यासी पर विशेष अनुग्रह
सन्यासी को अपने कमण्डलु
में मछलियाँ देखकर बहुत आश्चर्य हुआ. श्रीपाद प्रभु उस सन्यासी की और तीव्र दृष्टि
से देख रहे थे. तभी सन्यासी अंतर्मुख हो गए. उन्हें योग दृष्टि प्राप्त हो गई और ऐसा
प्रतीत हुआ मानो उनकी रक्त वाहिनी में विभिन्न द्रवों के छोटे-छोटे कण मत्स्य के
आकार के हैं. वे कण विविध प्रकार की अनुभूतियों का प्रदर्शन कर रहे थे. एक-एक कण
मानो एक-एक वासना का रूप लेकर मछली के आकार में तैर रहा था. “अहा! मत्स्यावतार
प्रक्रिया क्या यही है?” आश्चर्य चकित होकर सन्यासी चिल्लाए. उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया कि इन
सूक्ष्म कणों के विषय में ज्ञान प्राप्त होने पर विश्व की सब वासनाओं पर नियंत्रण
रखना संभव है. सन्यासी बहिर्मुख हुए. उन्होंने मंद-मंद मुस्काते हुए बड़े
श्रद्धाभाव से श्रीपाद प्रभु के मुख की और देखा. श्रीपाद प्रभु ने भी मंद हास्य
करते हुए उनकी और देखा. सन्यासी श्रीपाद प्रभु के चरण कमलों पर नतमस्तक हो गए.
श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से अपना हाथ सन्यासी के मस्तक पर रखकर उन्हें अनुग्रह
प्रदान किया. इस स्पर्श से सन्यासी के शरीर से मछलियों की बू लुप्त हो गई, और उसके स्थान पर दैवी सुगंध छा गई. इस समय उस
सन्यासी को वह घटना स्मरण हो आई जब पाराशर मुनि ने अपनी कृपा दृष्टि से मत्स्यगंधा
के शरीर से आने वाली मछलियों की दुर्गन्ध को दूर करके वहाँ सुगंध भर दी थी. इसी
प्रकार पतिव्रता मातली के शरीर से भी सुगंध आती थी, इसलिए उसे सुवासिनी कहते थे.
जिस प्रकार शरीर के भीतर
की अनुभूति सुगंध में परिवर्तित होती है, उसी प्रकार भौतिक शरीर में भी परिवर्तन होकर सुगंध की अनुभूति होती है, इस प्रकार का मौन बोध श्रीपाद प्रभु ने उस
सन्यासी को दिया. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे बाबा, तुझे मत्स्य अवतार के बारे में ज्ञान हुआ. दैवी प्रकृति एवँ आसुरी प्रकृति
को कूर्मावतार का आधार होता है. मंदार पर्वत को कूर्म पर प्रस्थापित करके देवताओं
एवँ दानवों ने समुद्र मंथन किया था. तुम अंतर्मुख होकर, जिस तरह कूर्म संकट के समय
अपनी इन्द्रियों को भीतर लेकर उन्हें नियंत्रण में रखता है, उस प्रकार से यदि अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवँ
कर्मेन्द्रियों को अपने वश में रखोगे तो बहुत बड़े योगी हो जाओगे. ऐसा न करने से
बहिर्मुख होकर, सब दुर्गुणों से युक्त राक्षस बन जाओगे. जिस क्षण तुम बहिर्मुख
होगे, उसी क्षण कोई तुम्हें मार डालेगा. यदि तुम्हें जीवन चाहिए तो अंतर्मुख होकर
योगाभ्यास करो. ऐसा करने से तुम्हें सब बंधनों से मुक्ति प्राप्त हो जायेगी.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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