।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४२
श्रीपाद प्रभु पीठिकापुर से अन्तर्धान
श्रीपाद प्रभु के माता-पिता एवँ बापन्नाचार्युलु
को दिव्य दर्शन
दोपहर के भोजन के पश्चात श्री भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद प्रभु ने शूद्र के घर जाकर दत्त दीक्षा दी. दीक्षा विधि के समय की
जाने वाली पूजा-अर्चना तथा अन्य नियमों का पालन न करते हुए केवल भक्तों के हाथों
में पवित्र धागा बांधा एवँ उन्हें भोजन करने के लिए कहा. श्रीपाद प्रभु ने दीक्षा
लेने वाले भक्तों से कहा था कि वे स्वयँ ही दत्तात्रेय हैं एवँ उनके स्मरण मात्र
से ही भक्तों की पीड़ा एवँ उनके कष्टों का
निवारण होता है. कोई ऐसा विचार भी मन में न लाये कि इस दीक्षा विधि में शास्त्रों
की अवहेलना की गई. प्रभु ऐसा बार-बार जोर देकर कह रहे थे. परन्तु पीठिकापुरम् के
ब्राह्मणों ने एकत्रित होकर तत्कालीन पीठाधीश शंकराचार्य से इस विषय में शिकायत कर
दी. साथ ही श्री बापन्नाचार्युलु एवँ अप्पल राजू शर्मा को ब्राह्मण कुल से
बहिष्कृत कर दिया जाए ऐसी सिफारिश भी की. उस समय श्री शंकराचार्य प्रभु
अंतर्ध्यानस्थ थे, अतः वह चर्चा वहीं समाप्त हो गई. श्री शंकराचार्य की अनुमति के
बिना आध्यात्मिक विषयों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना संभव नहीं है, ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया. अनेक ब्राह्मणों
का यह मत था कि इस सन्दर्भ में सोलह वर्ष की आयु के बालक द्वारा स्वयँ को श्री
दत्त प्रभु के अवतार होने की घोषणा करना देवद्रोह के समान है. कुछ ब्राह्मणों के
मन में कपट था, परन्तु ऊपर से झूठी सहानुभूति प्रकट करने के
लिए वे बापन्नाचार्युलु के घर आए. बापन्नाचार्युलु ने कहा, “ श्रीपाद प्रभु अपने तेज से हमें चकाचौंध कर
रहे हैं. वे महाप्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में बालक रूप में हमारे आँगन में
खेले, और उन्होंने हमें अपने दिव्य आनंद का लाभ
प्रदान किया. हमारी आंखों पर पडा हुआ मायारूपी परदा उन्होंने दूर हटाया. आज वे
हमारे नेत्रों में किरण के सामान चमक रहे हैं. उनके नयन-मनोहारी, दिव्य दर्शन से
हम भाव विभोर हो गए हैं. हम कितने भाग्यवान हैं, इसकी गणना ही नहीं की जा सकती.”
बापन्नाचार्युलु का यह वक्तव्य सुनकर झूठी सहानुभूति दिखाने आए ब्राह्मण कुछ
भी बोले बिना वापस चले गए. उनके मन का किल्मिष धुल चुका था. कुछ देर में श्रीपाद
प्रभु अपने घर लौटे. सुमति महाराणी, अप्पल राजू शर्मा, उनकी बहनें तथा भाई सभी अत्यंत प्रसन्न थे.
श्री अप्पल राजू शर्मा बोले, “श्रीपाद प्रभु के
विषय में पहले हम बहुत चिंतित थे, परन्तु अब हमारे
ह्रदय का बोझ हल्का हो गया है. उनका स्मरण करते ही वे हमारे मनःचक्षुओं के सामने
प्रकट हो जाते हैं. हम जो भी उनसे माँगते हैं, उसे वे स्थूल रूप में आकर, हमसे वार्तालाप करके, देते हैं. श्री दत्त प्रभु को जन्म देने वाले जनक-जननी होने के कारण हम
अत्यंत धन्य हैं. अब हमें निरंतर आनंद की प्राप्ति हो गई है.” इतना कहकर अप्पल
राजू शर्मा ने अपने उत्तरीय से आंखों से बहने वाले आनंदाश्रु पोंछे. ब्राह्मणों ने
जो सोचा था, यहाँ की स्थिति उससे पूरी तरह भिन्न थी.
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी सब ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले, “हे विप्रगण! आज तक हम केवल कुछ पल श्रीपाद
प्रभु के साथ बिताते थे, परन्तु इसके पश्चात
वे हमारे मनःचक्षुओं में सदैव वास करने वाले हैं. इसी प्रकार स्थूल देह से दर्शन
देकर हमारे घर में ही निवास करने वाले हैं.” इसके बाद नरसिंह वर्मा ने ब्राह्मणों
से कहा, “श्रीपाद प्रभु ने हमारी आंखों से माया का
पर्दा हटाया है. नित्य विनोद, दिव्य विनोद करने
वाले महाप्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में हमारे साथ उत्कट हास्य करते हुए हमारे
चारों और रहेंगे. पहले से भी अधिक उत्साह भाव से वे स्थूल रूप में हमें दर्शन
देंगे.”
श्रीपाद प्रभु के इस स्थूल स्वरूप की कल्पना कुक्कुटेश्वर में उपस्थित दत्त
भक्त सन्यासी को हुई और उसके ह्रदय में खलबली मच गई. श्रीपाद प्रभु स्वयँ साक्षात
दत्तात्रेय प्रभु हैं ऐसा स्पष्ट रूप से इशारा देकर वे ध्यानस्थ हो गए. श्रीपाद
प्रभु कोई और देवता न होकर उनके उपास्य देव दत्तात्रेय हैं, यह उन्होंने जोर देकर कहा. श्रीपाद प्रभु का
विरोध करने वाले कुछ ब्राह्मण पीठिकापुरम् में थे. उनके मन में सदा यही प्रश्न
उठता था कि “क्या वास्तव में प्रभु श्री दत्तात्रेय श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में
अवतरित हुए हैं? यदि यह सत्य है तो हमारा उन्हें कष्ट पहुंचाना
कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है.”
श्री दत्तात्रेय प्रभु का स्वभाव बहुत विशेष है. वे स्वयँ कष्ट सहन करके
अनन्य भाव से शरण में आये हुए अपने साधकों का उद्धार करते हैं. यह उनके स्वभाव की
विशेषता है. पीठिकापुरम् के अनेक ब्राह्मणों ने श्रीपाद प्रभु को ब्रह्म-रथ में
बैठाकर शोभा यात्रा का आयोजन किया था. एक बड़ी राशि भी दक्षिणा स्वरूप अर्पण की थी.
दत्त दीक्षा देने वाले सन्यासी केवल गुरु दक्षिणा के लोभ में दीक्षा दे रहे
थे. उन्होंने इसे धनार्जन का साधन बना लिया था. दीक्षित साधकों की इच्छा यदि पूरी
न होती तो वे कह देते कि उनमें निष्ठा का अभाव है. इच्छा, मनोकामना पूरी होने पर वे कहते कि यह दत्त
दीक्षा का फल है. उस सन्यासी के मन में श्रीपाद प्रभु का डर सदैव बना रहता. उन्हें
ऐसा लगता था कि श्रीपाद प्रभु अपनी दिव्य लीलाओं से उनका सत्य स्वरूप सबके सामने
उजागर कर देंगे.
उस समय कुक्कुटेश्वर के मंदिर में एक वृद्ध ब्राह्मण आया. उसका नाम था
नरसिंह, गोत्र था काश्यप. वह दूरस्थ महाराष्ट्र प्रदेश
से आया था. उसने कुक्कुटेश्वर प्रभु के दर्शन बड़े भक्ति भाव से किये, फिर स्वयंभू श्री दत्तात्रेय के दर्शन किये. उस
समय उसे ज्ञात हुआ कि वहाँ दत्त दीक्षा दी जा रही है. वह वृद्ध ब्राह्मण दीक्षा
देने वाले परिव्राजकाचार्य के पास आया. उसने उस सन्यासी को बड़े नम्र भाव से
नमस्कार किया और गुरुदक्षिणा के लिए लाये हुए सिक्के दिए. दक्षिणा देखकर सन्यासी
बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने दीक्षा देने के लिए ब्राह्मण से अपनी अंजुली आगे बढाने को
कहा. उसके हाथ पर कमंडलु का पवित्र जल डालने के लिए सन्यासी ने अपना कमंडलु उठाया
और ब्राह्मण के हाथ पर पवित्र जल डाला. परन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि कमंडलु से
जल के साथ साथ एक बिच्छू भी ब्राह्मण के हाथ पर गिरा. उस ब्राह्मण का गला सूख गया.
सन्यासी ने ब्राह्मण से हाथ पर डाला हुआ जल पीने को कहा और बोला, “ अहाहा! तूने अनेक वर्षों से की गई तपश्चर्या
का फल आज मुझे अर्पण किया.” तभी वह ब्राह्मण बिच्छू के दंश से चिल्लाया. मंदिर में
उपस्थित कुछ ब्राह्मणों को बिच्छू के दंश का दाह कम करने का मन्त्र ज्ञात था.
उन्होंने ब्राह्मण के लिए वह मन्त्र पढ़ा, परन्तु दाह कम न हुआ. अब सन्यासी डर के
मारे मंदिर के एक कोने में छिप गया. दाह कम होने के लिए अनेक मन्त्र पढ़े गए, कुक्कुटेश्वर का अभिषेक किया गया; स्वयंभू
दत्तात्रेय की विशेष कर्पूर आरती की गई, परन्तु किसी भी बात से कोई भी
सुधार नहीं हुआ. ब्राह्मण मूर्च्छित अवस्था में पडा था, उसके मुख से झाग निकल रहा था. झाग देखकर कुछ लोगों ने सोचा कि ब्राह्मण को
शायद साँप ने काटा है. परन्तु कुछ ब्राह्मणों ने उस ब्राह्मण के हाथ पर कमंडलु के
जल के साथ गिरते हुए बिच्छू को देखा था. सभी ने अपनी ओर से ब्राह्मण की सहायता
करने की पूरी कोशिश की, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ. अब सभी ने सोचा कि इस पूरी घटना
का कारण वह सन्यासी ही है. वेदना सहन न कर पाने के कारण वृद्ध ब्राह्मण कुछ देर तक
गड़बड़ लोटता रहा, फिर मूर्च्छित हो गया.
कुछ देर बाद ब्राह्मण को होश आया, परन्तु उसके पेट में असह्य वेदना होने लगी और वह हिचकियाँ लेने लगा. तभी
वहाँ एक किसान आया. उसने वृद्ध ब्राह्मण से कहा, “हमारे कुल के वेंकय्या नामक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने श्रीपाद प्रभु की
मंत्राक्षताएं दी है. ब्राह्मण ने अत्यंत श्रद्धाभाव से श्रीपाद प्रभु का स्मरण
किया और उन मंत्राक्षताओं को हाथ में लेकर अपने मस्तक पर धारण कर लिया. और, आश्चर्य की बात यह हुई कि कुछ ही क्षणों में
ब्राह्मण की सारी वेदनाएं नष्ट हो गईं और वह पूर्ववत स्वस्थ्य हो गया.
इस घटना से लोगों का सन्यासी से विश्वास उठ गया. सब दीक्षित साधकों ने उसे
दी हुई गुरुदक्षिणा उससे वापस ले ली और उसे पीठिकापुरम् से निकाल दिया.
सन्यासी से वापस ली गई धनराशि का उपयोग किस प्रकार से किया जाए, इस बारे में सभी साधकों ने बापन्नाचार्युलू से
पूछा, तब वे बोले, “उस धन से भोजन सामग्री लाकर सबको अन्नदान किया
जाए. अन्नदान से दत्त प्रभु प्रसन्न होंगे, किसी और दत्त दीक्षा की आवश्यकता नहीं
है.”
बापन्नाचार्युलु के कथनानुसार कुक्कुटेश्वर के प्रांगण में एक बड़ा मंडप डाला
गया. वहाँ बड़ी मात्रा में अन्न संतर्पण किया गया. भोजन के पश्चात सब लोगों ने
“दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा” इस दिव्य नाम घोष से पूरा परिसर गुंजायमान कर
दिया. इस दिव्य महामंत्र से सारा विश्व व्याप्त हो जाएगा, ऐसी भविष्यवाणी श्रीपाद प्रभु पहले ही कर चुके
थे.
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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