रविवार, 24 जुलाई 2022

अध्याय - ३९

  

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ३९

नागेन्द्र शास्त्री के साथ

 मैंने कालनाग मणि स्वीकार किया और अपनी यात्रा पर चल पडा. श्री पीठिकापुरम् क्षेत्र पहुँचने की तीव्र इच्छा थी. शीघ्रातिशीघ्र पहुँचना चाहता था.

 

काल नाग का स्वरूप

रास्ते में हमने एक ब्राह्मण का आदरातिथ्य स्वीकार किया. ब्राह्मण का नाम नागेन्द्र शास्त्री था. वह मन्त्र शास्त्र विद्या में अति निपुण था. उसके घर में अनेक नाग और सर्प निर्भयता से घूम रहे थे. वे किसी को काटते नहीं थे. नागेन्द्र शास्त्री इन नागों तथा सर्पों की देखभाल अपनी संतान की भाँति करता था. वे उसके शरीर पर खेलते रहते.

दिव्य नागों के पास मणि होती है. अनेक वर्षों से नागेन्द्र शास्त्री नागोपासना कर रहा था. उसने पूजा हेतु “कालनाग मणि” प्राप्त करने के लिए नाग देवता की अखंड आराधना की थी.

 

 

नागमणि का प्रभाव

नागेन्द्र शास्त्री ने हमसे कहा, “बंधुओं! आज का दिन अत्यंत शुभ है. आप जैसे थोर व्यक्तियों के  चरण कमल मेरी कुटिया में पधारे. पंद्रह वर्ष की आयु में मैं श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए गया था. पीठिकापुरम् क्षेत्र के कुक्कुटेश्वर मंदिर एवँ पादगया क्षेत्र के दर्शन किये. मंदिर में स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ति के निकट एक काल नाग को देखा. उसके फन पर एक मणि थी. काल पर शासन करने वाले नाग को कालनाग कहते हैं. कालनाग के फन पर मणि होती है और वह किसी महर्षि के समान योग ध्यान में मग्न रहता है. मानवों के ही समान नागों की भी विभिन्न स्थितियाँ होती हैं. साधारणतः कालनाग मनुष्य को दिखाई नहीं देता. कालनाग के फन पर स्थित मणि में मंगल गृह से आते हुए अशुभ स्पंदनों का निवारण करने की शक्ति होती है. इस नागमणि के कारण अशुभ स्पंदन लुप्त होकर शुभ स्पंदन उत्पन्न होते हैं. इन मंगलदायी स्पंदनों से मंगल ग्रह से पीड़ित व्यक्तियों की पीड़ा नष्ट होकर उन्हें शुभ फल की प्राप्ति होती है. यदि जन्म कुण्डली में मंगल ग्रह उचित स्थान पर न हो तो जीवन में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं, जैसे कि घर वालो का विरोध, बांधवों का, मित्रों का विरोध, ऋण-बाधा, कन्या के विवाह में अकारण विलंब, किसी भी काम को करने की सामर्थ्य होते हुए भी उसमें यश प्राप्ति न होना इत्यादि. स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन के पश्चात मेरे मन में नागमणि को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई. ऐसा प्रतीत हुआ मानो उस मणि को प्राप्त करके जीवन में सब कुछ प्राप्त हो जाएगा.

 

श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाओं की महिमा;

 नाग दोष निवारणार्थ नियम

मैं नरसिंह वर्मा के घर के निकट से जा रहा था. श्रीपाद प्रभु उनके घर के सामने के आँगन में लीला विनोद कर रहे थे. साथ में पेड़ों को पानी भी डाल रहे थे. श्री नरसिंह वर्मा पेड़ों के चारों और क्यारियाँ बना रहे थे. उनके आँगन में एक औदुम्बर वृक्ष था. उसे पानी भली प्रकार से प्राप्त हो, इसलिए नरसिंह वर्मा जब उसके चारों और क्यारी बना रहे थे, तभी उनके हाथों में श्रीपाद प्रभु की ताम्र पादुकाएं आईं. उस बारह वर्ष के बालक की वे चरण पादुकाएं सामुद्रिक शुभ लक्षणों से युक्त थीं. तभी मेरे कानों में “नागेन्द्र शास्त्री” ऐसी पुकार आई. मैं आश्चर्य से उनके निकट गया. नरसिंह वर्मा उन चरण पादुकाओं को शुद्ध जल से, एवँ उसके पश्चात नारियल के जल से धो रहे थे. उन्हें धोकर नरसिंह वर्मा ने श्रीपाद प्रभु के चरण कमलों के पास रखा. वर्मा उन चरण पादुकाओं की पूजा करने के लिए अत्यंत उत्सुक प्रतीत हो रहे थे, परन्तु श्रीपाद प्रभु की इच्छा कुछ और ही थी. उन्होंने उन चरण पादुकाओं को बड़े प्रेम से सहलाया और नागेन्द्र शास्त्री से बोले कि वे एक पीठ की स्थापना करके इन चरण पादुकाओं की पूजा करें. प्रभु बोले, “नागेन्द्र शास्त्री, तू ‘कालनाग मणि की प्राप्ति के लिए बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहा था. मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ, कालनाग जिन दिव्य पादुकाओं की आराधना करके अपनी दिव्य मणि से जिस स्वामी की पूजा करता है, वह महास्वामी मैं ही हूँ. ये दिव्य पादुकाएं मेरी ही हैं. इन्हींकी तुम नित्य नियम पूर्वक पूजा करते रहो. आधि-व्याधि से पीड़ित जन तुम्हारे पास आयेंगे. उन्हें इन चरण पादुकाओं का तीर्थ देना. इसे प्राशन करते ही उन्हें व्याधियों से मुक्ति प्राप्त होकर शान्ति मिलेगी.” इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने नागदोष परिहारार्थ दी जाने वाली दक्षिणा के बारे में विस्तार से बताया और बोले, “अरे नागेन्द्र शास्त्री! मेरे इन वचनों का तुम पालन करना. लोक कल्याण के लिए ही नागशास्त्र विद्या का उपयोग करना.”

दत्त प्रभु की आराधना करने वाले भक्तों को प्राप्त विशेष फल

 

श्रीपाद प्रभु बोले, “हे नागेन्द्र शास्त्री! कालान्तर से शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त तुम्हारे पास अवश्य आयेंगे. मेरी दिव्य चरण पादुकाओं के कारण तुझे दिव्य कालनाग मणि अवश्य प्राप्त होगी, तब तक तू नित्य नियम से मेरी दिव्य पादुकाओं की आराधना करना. जिस प्रकार शरीर धर्म का भी एक काल होता है, उसी प्रकार मन का, प्राण का भी एक काल होता है, परन्तु आत्मा कालातीत है. प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र के अनुसार वह एक विशेष काल होता है. वृद्धि अथवा क्षय कालानुसार होते रहते हैं. अनेक ब्रह्मांडों का जन्म होकर उनकी वृद्धि होती है. कुछ काल तक वे एक स्थिति में रहते हैं, तत्पश्चात वे सब विलीन हो जाते हैं. यह अंत ही काल-महिमा है. इस प्रकार का काल-स्वरूप भी मेरे ही आधीन है. मेरी आराधना करने वालों के काल पुरुष को मैं सदा अनुकूल रखता हूँ. दत्त आराधना करने वाले साधकों का भूत-प्रेत पिशाच्चादि शक्तियां भी कुछ भी बिगाड़ नहीं सकतीं; उनका बुरा नहीं कर सकतीं. इस सृष्टि में विद्यमान सभी प्राणियों से अधिक बलवान मैं ही हूँ. मुझसे ही बल प्राप्त करके जीवराशियाँ वृद्धिंगत होती हैं. गर्व से मदोन्मत्त हुए मानव से मैं अपना बल वापस ले लेता हूँ. गर्व के लिए, अहंकार के लिए तथा अन्य सभी अनिष्ट स्वरूप की घटनाओं के लिए मैं ही कारणीभूत हूँ. मेरी आराधना करते हुए, सदा शांत चित्त होकर रहने वालों को मैं नित्य संतुष्ट रखता हूँ, उन्हें आनंद प्रदान करता हूँ.

उन महापुरुषों ने श्री वर्मा के घर मेरे भोजन की व्यवस्था की थी. श्री वर्मा स्वयँ भी अन्नदाता हैं. दत्तात्रेय प्रभु को अन्नदान बहुत प्रिय था. कोई भी प्राणी यदि भूखा रहता, तो उन्हें बड़ी दया आती थी. वे उसके भोजन की व्यवस्था करते. वे सर्वभूत हितकारी थे. मैं महास्वामी की आज्ञा लेकर निकल पडा. इस स्थान पर मैंने आश्रम बनाया. जो भी कोई मेरे पास आता उसे मैं वर्णाश्रम धर्म के बारे में समझाता. श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा, “अपनी मन्त्र शास्त्र विद्या का प्रयोग अच्छे कामों के लिए करना. पंडितों की निरपेक्ष भाव से सेवा करना. लोगों द्वारा केवल स्वेच्छा से दिए गए धन का ही  स्वीकार करना. अधिक धन की अपेक्षा न करना.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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