।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३२
नवनाथों का वर्णन
नवनाथों का वृत्तांत
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
के दिव्य चरणों को स्पर्श करके मैंने उनसे प्रश्न किया, “हे महाप्रभु! मैंने सुना
था कि नवनाथों के नाम से प्रसिद्ध सभी सिद्ध योगी श्री दत्त प्रभु के अंशावतार
हैं. उनके बारे में कृपया विस्तार से बताएँ, ऐसी श्रीचरणों में नम्र प्रार्थना है.”
श्री नवनाथों का नाम
सुनते ही श्रीपाद प्रभु के दोनों नेत्रों से अमृत वृष्टि का प्रवाह बहिर्मुख होकर
सृष्टि पर पड़ता हुआ प्रतीत हुआ. उनके नेत्रों से प्रेम चैतन्य प्रवाहित हो रहा था.
वे अत्यंत आनंदित होकर बोले, “श्रोता गण! मच्छेन्द्र, गोरक्ष, जालंधर, गहनी, अडभंग, चौरंग, भर्तरी, चर्पट तथा नागनाथ – ये नवनाथ हैं. इनके स्मरण मात्र से ही शुभफल की सिद्धि
होती है. नवनाथों का स्मरण करने वालों पर श्री दत्त प्रभु की अपार कृपा रहती है.
कलियुग के प्रारम्भ से पूर्व श्रीकृष्ण ने उद्धव जैसे महान भक्त सहित, साथ ही
समस्त यादवों के साथ चर्चा करके आज नवनाथों के नाम से प्रसिद्ध नवनारायणों का
स्मरण किया था.”
“ऋषभ चक्रवर्ती के सौ
पुत्र थे. उनमें से नौ पुत्रों का जन्म नारायण के अंश से हुआ था. इसलिए उन्हें नवनारायण
कहते हैं. उनके नाम हैं – १. कवि २. हरी ३. अंतरिक्ष ४. प्रबुद्ध ५. पिप्पलायन ६.
अविर्होत्र ७. दृमिल ८. चमस एवँ ९. करभाजन. ये सभी अवधूत स्थिति में रहने वाले
सिद्ध पुरुष थे. मेरी आज्ञा के अनुसार इन नवनारायणों ने धर्मं संस्थापनार्थ नवनाथों
के नाम से पुनः पृथ्वी पर अवतार धारण किया.
प्रथम पुत्र ‘कवि’ ने “मच्छेन्द्रनाथ” के नाम से जन्म लिया.
अंतरिक्ष ने “जालंदर” के रूप में जन्म लिया. इनके शिष्य के रूप में प्रबुद्ध ने “कानिफा”
नाम से जन्म लिया. पिप्पलायन ने “चर्पटनाथ” के नाम से, अविर्होत्र ने “नागेशनाथ” के नाम से जन्म लिया. दृमिल ने “भर्तरिनाथ” के
नाम से, चमस ने “रेवणनाथ” के नाम
से और करभाजन ने “गहनीनाथ” के नाम से जन्म लिया. सृष्टि पर अनेक स्थानों पर किसी
कारण से ब्रह्मा का वीर्य गिरा. इससे अनेक ऋषि जन्म लेंगे ऐसा व्यास मुनि ने अपने ‘भविष्य
पुराण’ में कहा था.
उपरिचर नामक एक वासु था.
उसने एक बार ऊर्वशी को देखा और उस पर अत्यंत मोहित हो गया. इस समय उसका वीर्य द्रवित
होकर यमुना के जल में गिरा. उसे एक मछली निगल गई. इस मछली से मच्छेन्द्रनाथ का
जन्म हुआ. कामदेव को शिव जी ने क्रोधित होकर अपनी ललाटाग्नि से भस्म कर दिया. उस
भस्म में मन्मथ का आत्मा सूक्ष्म रूप से विद्यमान था. बृहद्रथ ने जब यज्ञ किया था
तो उस यज्ञकुंड से जालंदरनाथ का आविर्भाव हुआ. रेवा नदी अर्थात् आज की नर्मदा नदी.
इस नदी में गिरे हुए ब्रह्म वीर्य से रेवणनाथ का जन्म हुआ.
एक बार थोड़ा सा ब्रह्मवीर्य
एक नागिन के सिर पर पडा. इसे भक्ष्य समझ कर नागिन ने खा लिया. इस कारण वह नागिन
गर्भवती हो गई. इसी समय जनमेजय राजा सब नागों, सर्पों को नष्ट करने के लिए सर्प यज्ञ कर रहा था. ब्राह्मणों के
मंत्रोच्चारण के साथ ही सैंकड़ों नाग यज्ञ कुण्ड में आ आकर गिरने लगे. इस महा भयानक
नाग यज्ञ से बचाने के लिए तक्षक की पुत्री को एक बड़े वटवृक्ष के बिल में छिपाया
गया. इस गर्भपिन्ड से अविर्होत्र का जन्म होने वाला था, इसलिए उस अंडे को उस बिल में रखकर तक्षक की पुत्री स्वस्थान को चली गई.
यथावकाश उस अंडे में से वटसिद्ध नागनाथ का जन्म हुआ.
जब मच्छेन्द्रनाथ देश
भ्रमण करते समय एक स्थान पर रुके, उनके दर्शनों के लिए अनेक लोग आते थे. एक बाँझ स्त्री ने मच्छेन्द्रनाथ को
प्रणाम किया एवँ अपनी व्यथा सुनाई. मच्छेन्द्रनाथ ने भस्म मंत्रित करके उसे दिया
परन्तु उस स्त्री ने अविश्वास से उस भस्म को कचरे के ढेर पर फेंक दिया. उस भस्म की
अमोघ शक्ति सम्पन्नता से उसमें से गोरक्षनाथ का जन्म हुआ.
पार्वती के विवाह के समय
पौरोहित्य कर रहे ब्रह्मदेव उसका अनुपम लावण्य देखकर उस पर मोहित हो गए और उनका
वीर्य स्त्रवित हो गया. इससे वह अत्यंत लज्जित हो गए और उन्होंने उस वीर्य को अपनी
जंघा पर पोंछ डाला. तत्क्षण उस वीर्य के साठ हज़ार भाग हो गए और उसमें से बालखिल्य
नामक साठ हज़ार ऋषियों का जन्म हुआ. जो थोड़ा सा भाग बचा था उसे कचरा समझ कर भागीरथी
नदी में फेंक दिया गया. वह कचरा नदी की घास में अटक कर वहीं रह गया. उसमें
पिप्पलायन की आत्मा ने प्रवेश किया और उससे चर्पटनाथ का जन्म हुआ.
कोलिक मुनि ने अपनी
पर्णकुटी से बाहर जाते समय अपना भिक्षापात्र पर्णकुटी से बाहर रख दिया था. इसी समय
सूर्य का तेज उस पात्र में गिरा. महर्षि को जब यह बात ज्ञात हो गयी तो उन्होंने उस
पात्र को संभाल कर रखा दिया. भिक्षापात्र का अर्थ “भर्तरी” भी होता है. उस पात्र
से एक नवनाथ का जन्म हुआ, अतः उनका नाम भर्तरिनाथ पड़ गया.
हिमालय में एक पर्वत के
एक घने जंगल में एक हाथी सो रहा था. एक बार जब ब्रह्मदेव सरस्वती पर मोहित हुए और
उनका वीर्य द्रवित होकर नीचे गिरा और उस हाथी के कान में जा गिरा. उस कान में से
प्रबुद्ध को जन्म प्राप्त हुआ. कान में से जन्म होने के कारण उनका नाम “कर्ण
कानिफा” पडा.
गोरक्षक ने संजीवनी
मन्त्र का जाप करते हुए भूमि पर मिट्टी में एक आकृति बनाई. उस आकृति में से करभाजन
को उस संजीवनी मन्त्र की सहायता से जीवन प्राप्त हुआ और उन्होंने गहनीनाथ के नाम
से अवतार लिया.
श्रीकृष्ण भगवान की
आज्ञानुसार इन नवनारायणों ने अपने स्थूल शरीर को मंद पर्वत पर समाधि अवस्था में
संभाल कर रखा और अंशावतार से नवनाथों के नाम से पृथ्वी पर जन्म लिया. धर्मं
संस्थापना का महान कार्य करने के लिए ही इन नवनाथों का अवतार हुआ था.”
नवनाथों के जन्म के संबंध
में श्रीपाद प्रभु के मुख से यह आश्चर्यजनक वर्णन सुनकर हम मंत्रमुग्ध हो गए. हमने
प्रभु के चरणों में वंदन करके उनकी जय जयकार की. इसके बाद मैंने पूछा, “प्रभु! नवनाथों के अवतार
नव नारायणों के अंशावतार हैं, ऐसा आपने कहा, क्या नवनाथों एवँ नव नारायणों में कोई अंतर है?”
अपनी दिव्य, प्रेमपूर्ण दृष्टी से हमारी और देखते हुए प्रभु
ने मंद हास्य किया और बोले, “श्रोतागण! समस्त सृष्टि के महासंकल्प का स्वरूप
मैं ही हूँ. देवी-देवताओं के कार्य करने के संकल्प भी मेरे महासंकल्प के अंश मात्र
होते हैं. इन अंश मात्र संकल्पों को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता रहती है. यह स्वतंत्रता
वैसी ही होती है, जैसे खेत में पेड़ से बंधी हुई गाय को चरने के लिए दी जाती है. उसी प्रकार
कर्मसूत्रों का अनुसरण करते हुए अंशावतारों को स्वेच्छा प्रदान की जाती है. परन्तु
संकल्प मूल तत्व से ही निकलते हैं. उनका योग्य प्रकार से नियंत्रण करना अंशावतार
का कार्य होता है. किसी भी प्रकार की समस्या के निर्माण होने पर अंशावतार उसके
निराकरण हेतु मूलतत्व के पास निवेदन लेकर आते हैं. मूलतत्व से अनुमति प्राप्त कर
जीवों का कल्याण करते हैं. इस अंशावतार में क्रोध, लोभ, मद-मत्सर, अहंकार जैसे मानवीय
दुर्गुण नहीं होते. इस कारण मूल तत्व की कार्य-सामर्थ्य अंशावतार में भी
प्रतिलक्षित होती है. इस कारण से अंशावतार एवँ पूर्णावतार में कोई अंतर नहीं होता.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें