।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३८
बगुलामुखी देवी की आराधना
पीठिकापुरम् के रास्ते पर
हमें एक बैरागी मिला. वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा था. उसकी आंखें बड़ी
तेजस्वी थीं. हमें देखते ही बैरागी ने पूछा, ‘क्या आप लोग शंकर भट्ट और धर्मगुप्त हैं? हमने “हाँ” कह दिया. वह बोला, “इस पीपल के पेड़ की छाया में कुछ देर विश्राम कर लो.
आपके पास श्रीपाद प्रभू की चर्म पादुकाएं हैं न, वे मुझे दे दो और मुझसे कालनाग मणि स्वीकार करो.” हमने उसकी बात मान ली और
उसे चर्म पादुकाएं देकर उससे वह दिव्य मणि ले लिया.
मैंने उस बैरागी से कहा, “महाराज! मैंने श्रीपाद
प्रभु के दिव्य चरित्र के लेखन का संकल्प किया है. उनके जीवन में घटित प्रत्येक
वर्ष की घटनाओं का मैं श्रीपाद प्रभु के भक्तों के सम्मुख वर्णन करता हूँ. इन
लीलाओं का श्रवण करके वे आसानी से भव सागर पार कर जाते हैं. इस सब के लिए मैं तो
केवल निमित्त मात्र हूँ.”
इस पर बैरागी बोला, “श्रीपाद
श्रीवल्लभ आदिभैरव एवँ आदिभैरवी का संयुक्त रूप हैं. काल के ऊपर शासन करने वाले
कालभैरव भी वे ही हैं, वे कालस्वरूप हैं, कालपुरुष उनसे भिन्न नहीं है, महाकाल स्वरूप भी वे ही हैं. किस समय कौनसी घटना
घटित होगी इसका सम्पूर्ण ज्ञान उन्हें ही होता है. इसलिए अव्यक्त रूप में स्थित श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु के संकल्प स्वरूप को समझना देश तथा काल की परिधि में कैद प्राणी
के लिए संभव नहीं है. देश एवँ काल के साथ क्रीडा, प्राणियों का विकास, धर्म, कर्म – उनका फल तथा उनका प्रभाव पूरी तरह से श्रीपाद प्रभु के आधीन होता
है. ज्ञान का अभाव होते हुए भी स्वयँ को महापंडित समझने वाले लोगों का गर्व वे
तत्काल हरण करते हैं एवँ उन्हें अहंकार रहित करते हैं. इसी प्रकार विनयशील, नम्र परन्तु ज्ञान रहित साधकों को वे अपनी कृपा
दृष्टी से पंडित बना सकते हैं. उनका यह अवतार योग संपन्न अवतार है. वे अवतारी
पुरुष हैं; प्रत्यक्ष श्री दत्तात्रेय के अवतार हैं, यह समझने के लिए प्राणी की पाप
राशियों को पहले दग्ध होना पड़ता है , और पुण्य
राशियों को संचित होना पड़ता है. यह सर्व साधारण नियम है. उनका कृपा कटाक्ष प्राप्त
होने पर इस साधारण नियम को दूर करके वे भक्तों की रक्षा करते हैं. श्रीपाद प्रभु
के चरित्र का पठन करने वाले भक्तों का एक क्रमबद्ध पद्धति से विकास होता है. उनके
जीवन के प्रत्येक वर्ष में घटित एक या दो दिव्य लीलाएँ साधक समझ सकता है. वे
क्रमानुसार ही समझ में आयें, यह भी उन दिव्य लीलाओं का अंतर्भाव है. श्रीपाद प्रभु
ने केवल एक देश अथवा एक ही प्रांत के लोगों के उद्धार के लिए अवतार नहीं लिया है.
प्रतिक्षण अनंत कोटि
ब्रह्मांडों का निर्माण, स्थिति एवँ लय होता रहता है. उनका परिणाम क्रम भी श्रीपाद
प्रभु के अधिकार में होता है. उनके दिव्य नेत्र गोलकों में कोटि-कोटि ब्रह्मांडों
की वृद्धि तथा क्षय होता रहता है. यही उनका निज तत्व स्वरूप है. उनका निराकार
स्वरूप ही परतत्व है. अव्यक्त स्वरूप में विद्यमान उनके स्वरूप को कोई भी जान नहीं
सकता है. उनके महातत्व का साकार रूप में पीठिकापुरम् में अवतरित होना उनकी एक दिव्य
लीला ही है. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अत्यंत अद्भुत और अनाकलनीय हैं. उनकी लीलाओं
का कोई अंत नहीं. वेद भी उनका वर्णन करते हुए मौन हो गए. श्रीपाद प्रभु का जन्म
अनंत है. वेदों में सिमटा हुआ ज्ञान सीमित है, परन्तु श्रीपाद प्रभु का ज्ञान, उनकी दिव्य शक्ति, उनकी करुणा अनंत है. वे सभी देशों में, सभी काल में विद्यमान रहते हैं. सत्य का सत्य, ज्ञान का ज्ञान एवँ अनंत को भी अवगत न होने वाला ऐसा उनका महामंगल स्वरूप
है.
बगुलामुखी देवी की उपासना
बैरागी ने कहा, “वास्तव में मैं बंगाल
देश का निवासी हूँ. मैं बगुलामुखी देवी की आराधना करता हूँ. यह देवी दशमहाविद्याओं
में से एक है. शत्रु नाश की इच्छा करने वालों को बगुलामुखी देवी की आराधना करनी
चाइये. सभी रूपों के परमेश्वर की संहार शक्ति बगुलादेवी ही हैं. इस देवी की आराधना
करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है. मनोवाक्य तथा कर्ममूल के ऐक्य भाव से
धर्मबद्ध जीवन बिताने वाले लोगों द्वारा कहा गया प्रत्येक वाक्य सत्य समझा जाता
है. वाक्य में भी परा, पश्यन्ति, मध्यमा –
ये भेद होते हैं.”
“सत्य युग में संपूर्ण जगत का नाश करने वाला एक भयानक बादल उठा था. पृथ्वी
पर आये हुए इस संकट से विष्णु भगवान चिंतित हो गए थे. तब उन्होंने तपस्या आरंभ की.
उस समय विद्या महादेवी बगुलामुखी के रूप में अवतरित हुईं. श्रीमन्नारायण को दर्शन
देकर उसने सृष्टि का विनाश करने वाले उस बादल को रोका. इस देवी को कुछ लोग वैष्णवी
देवी भी मानते हैं. मंगलवार को चतुर्दशी की अर्धरात्रि को यह देवी प्रकट हुईं.
बगुलामुखी देवी स्तम्भन शक्ति रूपिणी है. इसी देवी के कारण सूर्यमंडल का अस्तित्व
है, स्वर्ग का अस्तित्व भी बगुलामुखी माता के कारण ही है. यह देवी अपनी कृपा से
इहलोक एवँ परलोक के सभी सुख अपने भक्तों को प्रदान करती है. साधकों के जीवन में
खलबली मचाने वाली दुष्ट शक्तियों तथा अंध शक्तियों का निर्मूलन करके बगुलामुखी माता
प्रगति का अभयदान देती है. बगुलामुखी देवी को ‘वडवामुखी’, ‘जातवेद्मुखी’, ‘उल्कामुखी’, ‘ज्वालामुखी’, ब्रुहद्भानुमुखी’ आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है. सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने बगुला
महाविद्योपासना की थी. देवी ने ब्रह्मदेव को बाल रूप में दर्शन दिए. ब्रह्माजी ने
तिरुपति तिरुमलै क्षेत्र में माता की अर्चना की थी. इस देवी की मूर्ति की
वेंकटेश्वर-पद्मावती की मूर्तियों के साथ ही ब्रह्मोत्सव के मंगल पर्व पर अर्चना
की जाती है. इस महाविद्या का उपदेश ब्रह्मदेव ने सनकादि ऋषियों को दिया था.
ब्रह्माजी के बाद बगुलामुखी देवी की उपासना विष्णुजी ने की थी. भगवान परशुराम ने
भी अपने शत्रुओं का नाश करने के लिए बगुलामुखी देवी की उपासना की थी.
मैं तीर्थयात्रा करते हुए पीठिकापुरम् पहुँचा. श्री कुक्कुटेश्वर देवस्थान
में आराधना की. उसके बाद एक सुन्दर बालक को देखा जो अत्यंत मधुर वाणी में बोल रहा
था. उस बालक ने मुझसे कहा, “महाशय! आप बंगाल देश
से आये हैं, यह मुझे ज्ञात है. मैं लम्बे समय से आज तक इस मंदिर
में स्वयंभू दत्तात्रेय के रूप में विद्यमान हूँ. मेरी नित्य पूजा की व्यवस्था
करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र एक अर्चक की व्यवस्था करो.”
उस बालक के कथनानुसार एक उत्तम ब्राह्मण द्वारा अर्चना करवाकर उनका यथोचित
सम्मान किया गया. उस अर्चक का नाम था – कलवर. उसने कुक्कुटेश्वर तथा स्वयंभू
दत्तात्रेय, दोनों की अत्यंत मनोभाव से, अपने कष्टों की
परवाह किये बिना आराधना की थी. इस कार्य के लिए उसे काफी सारी दक्षिणा दी गई थी.
भोजन के लिए भी दक्षिणा दी गई. उसने यह धनराशि घर ले जाकर संदूक में रखी और अचरज
की बात यह हुई कि सुबह वह अदृश्य हो गई थी. भोजन के सारे पदार्थ अदृश्य हो गए थे, मगर वहाँ उपस्थित ब्राह्मणों के पेट प्रतिदिन
की अपेक्षा दुगुने-तिगुने अधिक भर गए. इस कारण वे सुस्त हो चले थे. सुस्ती आना, धन-दक्षिणा, भोजन का अदृश्य होना – सर्व साधारण व्यक्ति यह सब समझ नहीं पा रहा था. कलवर
एक निष्ठावंत, नियम-निष्ठ, वेद-शास्त्रों को
जानने वाला तथा उनका प्रचार करने वाला अर्चक था. परन्तु यक्षिणीयों के प्रभाव के
कारण वह अत्यंत क्षीण हो चला था. इस कारण उसकी स्थिति लज्जाजनक हो गई थी. परन्तु
सारे ब्राह्मण इस बारे में मौन ही रहते. इस विषय पर वे चर्चा नहीं करते थे.
एक बार एक बैरागी साधु कुक्कुटेश्वर के मंदिर में बेहोश हो गया. उसके शरीर
में किसी भी प्रकार की हलचल न देखकर लोगों ने सोचा कि वह मर गया है. कुछ ही देर
में उसे श्रीपाद प्रभु के नानाजी, बापन्नाचार्युलु के
पास ले गए. उन्होंने उस साधु की परिक्षा की एवँ बोले कि साधु न तो मृत है, न ही मूर्छित हुआ है, अपितु यह समाधि अवस्था
में है. परन्तु लोगों ने बापन्नाचार्युलु की बात पर विश्वास नहीं किया और वे उस
साधू को दहन हेतु ले गए. आश्चर्य की बात यह हुई कि श्रीपाद प्रभु के कृपा प्रसाद
से उसे अग्नि जला न सका. वह समाधि से बाहर आया और चिता से उठ कर नीचे आया. आठ ही
दिनों में वह साधू पूर्ववत हो गया. परन्तु इस घटना के पश्चात गाँव के ब्राह्मण
समाज ने उसे भिक्षा देना बंद कर दिया, इसलिए उसे मजबूर होकर
ग्वाले के घर रहना पडा. वहाँ उसकी भिक्षा की व्यवस्था हो गई. कुल, जाति, वर्ण का भेदभाव न मानने वाला वह साधू ग्वाला समाज में अति लोकप्रिय हो गया
था.
ग्वाला-समाज में लक्ष्मी नामक एक युवती थी. वह बचपन में ही विधवा हो गई थी.
उसका पति उससे अत्यंत प्रेमपूर्वक व्यवहार करता था. उसे सभी चाहते थे. अपने समाज
में उसे श्रेष्ठत्व प्राप्त था. ग्वालों के बीच के वाद विवाद अपनी कुशाग्र बुद्धि
से वह तत्काल सुलझा देता एवँ योग्य निर्णय लिया करता था. उसकी अल्पायु की ओर न
देखते हुए लोगों ने उसे अपना नेता चुना था. उसकी पत्नी लक्ष्मी बड़ी पतिव्रता
स्त्री थी.
उस दौरान श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी की गाय गुम हो गई थी. इसलिए लक्ष्मी
श्रेष्ठी के घर दूध लाकर दिया करती थी. श्रीपाद प्रभु हमेशा श्रेष्ठी के घर जाया
करते थे. जब भी वे दादी से कहते कि भूख लगी है, महालक्ष्मी समान वेंकट सुब्बम्मा तुरंत श्रीपाद प्रभु को गरम दूध दिया करती, इतना ही नहीं, वह बड़े प्रेम से प्रभु को मलाई, मक्खन भी देती. एक
बार जब लक्ष्मी दूध लेकर आई, तो श्रीपाद प्रभु
वहीं थे. वे कहने लगे, “मुझे खूब भूख लगी है.”
तब वेंकट सुब्बम्मा ने लक्ष्मी से और दूध लाने के लिए कहा. उसने अपने घर में खुद
के लिए जो दूध रखा था वह भी लाकर दिया और स्वयँ छाछ से काम चलाया. कुक्कुटेश्वर के
मंदिर में दस दिनों तक उत्सव चल रहा था. उत्सव में ब्राह्मणों को यथोचित दक्षिणा
दी जा रही थी. इस कारण यक्षिणी का प्रभाव कुछ कम हो रहा था, परन्तु अभी भी
ब्राह्मण-भोजन के लिए तैयार की गई पाक सामग्री अदृश्य हो जाती थी. इससे ब्राह्मणों
को समय पर भोजन नहीं मिलता था और वे क्षीण होते जा रहे थे.
पुराण वाचक पंडित
की कथा
पीठिकापुरम् में एक पुराण
वाचक पंडित आया था. कुक्कुटेश्वर मंदिर
के बाहर के आँगन में प्रवचन की व्यवस्था की गई थी. पुराण सुनाने के लिए गाँव की
सभी जातियों के लोग आया करते. पुराण वाचक पंडित के भोजन की व्यवस्था
बापन्नाचार्युलु ने अपने घर में की थी. पुराण कहने से पहले वह पुराणिक लक्ष्मी
ग्वालन द्वारा लाया गया दूध पीता था. श्रीपाद प्रभु सभी ह्रदयों के अन्तर्यामी
होने के कारण उन्हें पंडित के बारे में सब कुछ ज्ञात था. यह पुराण वाचक महापंडित
एक महायोगी था. अपनी योग शक्ति से वह अपनी आत्मा द्वारा पूर्व में धारण किये किये
गए रूपों को पहचान सकता था. इन रूपों के चैतन्य को वह आकर्षित कर लेता था. ग्वालन
लक्ष्मी की और वह योग दृष्टि से देखा करता. लक्ष्मी के पति के रूप में भी उस पंडित
को स्वयँ अपनी आत्मा दिखाई देती थी. लक्ष्मी का पति मृत्योपरांत एक ब्राह्मण ज़मींदार के घर बाल रूप में
जन्मा था. उस समय वह चार-पाँच मास का था. पुराण पंडित ने योग शक्ति से यह भी देखा
था कि उसका अपना शक्ति रूप कैसा है. उसका मूल रूप स्त्री समान लक्ष्मी से संबद्ध
था – यह उसे ज्ञात हुआ. उसने अपने स्वरूप को स्त्री तत्व की लक्ष्मी में विलीन
होते हुए देखा. उसका अपना पुरुष तत्व चार मास के बालक में विद्यमान है तथा कुछ ही
दिनों में उसका कर्मशेष पूरा हो रहा है, ऐसा उसे प्रतीत हुआ. पीठिकापुरम् में अपने कर्मऋणानुबंध पूर्ण करने के लिए
उसने पुराण पंडित का रूप धारण किया था.
लक्ष्मी का अपने पति पर निस्सीम प्रेम था. उसके
पति का चैतन्य भूतकाल का शरीर छोड़कर आ नहीं सकता, यह बात उसे मालूम हो गई थी. लक्ष्मी के पति का चैतन्य मूलतत्व पुराण पंडित
में विलीन हो चुका था यह बात सर्वज्ञानी श्रीपाद प्रभु को ज्ञात थी. श्रीपाद प्रभु
ने उस पुराण पंडित से कहा, “अरे, पंडित! यह लक्ष्मी मासूम है, यह कुछ ही दिनों में अपनी जीवन यात्रा पूरी करने वाली है. मृत्यु के
पश्चात इसकी क्या गति होगी? तुम या तो ज्ञान रूपी ब्राह्मण बनोगे अथवा अज्ञानी ग्वाले बनोगे. उस रूप
में लक्ष्मी तेरे दुख-सुख में तेरा साथ देगी. अपने प्रेम से उसने अपने पति के
चैतन्य को अपनी और आकर्षित किया है. ग्वालन के रूप में उपस्थित चैतन्य कुछ दिनों
पश्चात शरीर का पतन होने के बाद ब्राह्मण के चैतन्य में मिल जाएगा ना? यह ग्वालन के रूप में ब्राह्मण स्त्री है. तू
ब्राह्मण के रूप में ग्वाला है. तुम दोनों के कर्म संबंध मुझे भली-भाँती ज्ञात
हैं. भविष्य में ब्राह्मणी स्वरूप लेने वाली इस लक्ष्मी को पद्मावती स्वरूप मानकर
मैं उसे सुवर्ण तिलक लगाकर आशीर्वाद दूँगा और मांगल्य प्रदान करके हिरण्य लोक में
सुरक्षित रखूंगा. अगले जन्म में तुम एक आदर्श दंपत्ति होगे, और मेरे भक्त बनकर तुम्हारा उद्धार होगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. उनकी लीलाएँ
अगम्य, अद्भुत होती हैं.
।।श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु की जय जयकार हो।।
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