शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

अध्याय - ४१

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ४१


परिव्राजक का वृत्तांत


श्री भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली, राजराजेश्वरी स्वरूप हैं. उनके देवीतत्व का ज्ञान उनका अनुष्ठान करने वाले भक्तों को होता है.”

मैंने भास्कर पंडित से पूछा, “हे आर्य! मैंने सूना है कि वाणी के चार रूप – परा, पश्यंती, मध्यमा एवँ वैखरी होते हैं. कृपया इनके बारे में विस्तार से बताएँ.” इस पर भास्कर पंडित बोले, “अंबिका प्रत्येक वाक्य द्वारा व्यक्त होती है. वह प्रत्येक व्यक्ति के माध्यम से बोलती है. जो वाक्य हम अपने कानों से सुनते हैं, वह स्थूल होता है. कभी-कभी वाक्य मुख के बाहर बिलकुल सुनाई नहीं देता, केवल होठों की हलचल से ही अर्थ बोध होता है. तब इसे “मध्यमा” वाणी कहते हैं. इस “मध्यमा” से कुछ और सूक्ष्म वाणी को “वैखरी” कहते हैं. कंठ के भीतर जब वाणी गले तक आए, परन्तु बाहर न आ सके, अर्थात जो भीतर ही भीतर मन में घूमती है, उसे “पश्यंती” वाणी कहते हैं. इस “पश्यंती” से भी सूक्ष्म वाणी को, जो नाभि स्थान से निर्विकल्प रूप से संकल्प मात्र होती है, वह “परा” वाणी है.

अंबिका की आराधना त्रिपुर भैरवी स्वरूप में भी की जाती है. गुणत्रय, जगत्रय, मूर्तीत्रय, अवस्थात्रय – इन सबकी आदिशक्ति त्रिपुर भैरवी है. बालकों! यदि हम श्रद्धापूर्वक आत्मसमर्पण करके संपूर्ण शरणागति स्वीकार कर लें, तो इस लोक में अथवा अदृश्य लोक में किसी भी प्रकार का शत्रुत्व हमारा कोई नुक्सान नहीं कर सकता. विरोध शक्ति केवल भौतिक जगत में ही सीमित नहीं है, बल्कि वह प्राणमय, भौतिकमय, मानसिकमय, अध्यात्मिकमय भी होती है. हमें जितनी प्रगति करने की इच्छा है, उतनी प्रगति प्राप्त करने पर, भौतिक जगत में हम जिस प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य लोकों में भी उसी प्रकार का जीवन बिता सकते हैं.

मानव को यदि प्रगति करना हो, तो मन में श्रद्धा का होना आवश्यक है. हम अपना जीवन विश्वास के आधार पर ही बिताते हैं. संकट के समय परमेश्वर निश्चय ही सहायता करेंगे और वे ही इस संकट से मुक्ति देंगे, यह दृढ़ विश्वास मन में होना चाहिए. यह विश्वास ही एक प्रकार की सुरक्षा की भावना उत्पन्न करता है और आत्मविश्वास को बढाता है.

शक्तिहीन ज्ञान निर्लेपता की और बहता है.ज्ञानहीन शक्ति अंधी होती है और वह विनाश का कारण बनती है. इसलिए मानव को ज्ञान संपादन करके प्रकृति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए. शक्ति अनुग्रह के उपरांत परिपूर्णता साधनी चाहिए.

सांख्य मार्ग में चैतन्य को पुरुष कहा गया है. कर्म करने वाले को प्रकृति कहा गया है. निम्नावस्था में इन दोनों में विरोध होता है. चैतन्य – कर्म नहीं करता एवँ प्रकृति में ज्ञान नहीं होता. प्रकृति एवँ पुरुष दोनों मिलकर ही सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं. ये दोनों ही अपंग हैं. चैतन्य – देखा जाए तो लंगडा है और प्रकृति – अंधी है. सभी लोगों में यह अपंगत्व- अंधापन और लंगड़ापन – किस प्रकार व्याप्त है, यह समझाने के लिए श्रीपाद प्रभु के परिवार में एक भाई जन्म से अंधा था तथा एक भाई जन्म से लंगडा था. ये दोनों अंधत्व एवँ लंगडेपन के प्रतीक थे.

उन्नत स्थिति में पहुँचने पर पुरुष एवँ प्रकृति “ईश्वर” तथा “ईश्वरी” नाम से जाने जाते हैं. तब इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं होता. श्रीपाद प्रभू योग्य काल आने पर अपने बंधुओं का अपंगत्व दूर करेंगे, इसमें कोइ संदेह नहीं. लोगों में व्याप्त अंधत्व एवँ पंगुत्व को दूर करने के अपने ब्रुहदत्तर कार्य की सूचना स्वरूप वे यह करेंगे. अतीत ऐसे स्वामी रूप में विद्यमान पुरुष-प्रकृति को ब्रह्म माया के नाम से संबोधित किया जाता है. श्रीपाद प्रभु ने अपनी आयु के सोलहवें वर्ष में वैराग्य धारण किया और घर त्याग कर धर्म प्रचार हेतु निकल पड़े. इस गृहत्याग का उद्देश्य था सामान्य लोगों को यह समझाना कि वे स्वयं ही ब्रह्म हैं और वे ही माया हैं. अपरिमित एवँ अनंत गुणों से युक्त ब्रह्मस्वरूप को परिमितता देने वाली शक्ति ही माया है. श्रीपाद प्रभु का जन्म पीठिकापुरम् में हुआ – इसका उद्देश्य यह सूचित करना था कि वे अपरिमित ब्रह्मस्वरूपी होने के कारण माया के सम्मुख न झुकते हुए परिमित व्यवहार करते हैं. सोलह वर्ष की आयु में वे माया के बंधन में न पड़कर केवल भक्तों का उद्धार करने का संकल्प करके घर त्याग कर चले गए.

समूचे विश्व में श्रीपाद प्रभु की महिमा का विस्तार होने के पश्चात आगामी शतक में उनके संकल्प के अनुसार पीठिकापुरम् के निवासियों का भी ज्ञानोदय होने वाला है. श्रीपाद प्रभु की दिव्य चैतन्य शक्ति    मानव चैतन्य के अंधत्व तथा अपंगत्व का निवारण करेगी. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ सामान्य मानवों के लिए अनाकलनीय हैं.

एक बार एक सन्यासी श्री कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आया. वह श्री दत्तात्रेय का भक्त था. वह दत्त दीक्षा भी दिया करता था. उसने अपने वक्तव्य में कहा था कि दत्त दीक्षा लेने से मानव का नियोजित कार्य बिना किसी विघ्न बाधा के सिद्ध हो जाता है. पीठिकापुरम् के अनेक ब्राह्मणों ने दत्त दीक्षा स्वीकार की. वह सन्यासी दीक्षा देकर साधक से दक्षिणा स्वीकार करता था. इस दक्षिणा का कुछ भाग वह दीक्षित ब्राह्मणों को दिया करता. अनेक ब्राह्मणों तथा अन्य कुलीनों ने विचार विमर्श करके दत्त दीक्षा ली और गुरुदक्षिणा दी. परन्तु मंदिर में आये कुछ लोगों में यह विवाद प्रारम्भ हो गया कि दत्त दीक्षा ली जाए अथवा नहीं. ब्राह्मण परिषद्, क्षत्रिय परिषद्, वैश्य परिषद् का एक संयुक्त सम्मलेन आयोजित किया गया. सम्मलेन के अध्यक्ष श्री बापन्नाचार्युलु थे. वे बोले, “श्री दत्तात्रेय प्रभु सभी के हैं. अतः सभी दत्त दीक्षा ले सकते हैं. अष्टादश वर्णों के लोग सन्यासी महाराज से दत्त दीक्षा ले सकते हैं. दीक्षा प्राप्त करने की यह सुवर्ण संधि सभी के लिए उपलब्ध है. इस अवसर पर ब्राह्मण परिषद् के कुछ व्यक्तियों का यह मत था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य आचार संपन्न होने के कारण दीक्षा के पात्र होते हैं, परन्तु शूद्र अनाचारी होने के कारण दीक्षा के अधिकारी नहीं हैं. उनसे दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से उन्हें शुद्ध कर सकते हैं. इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “सभी कुलों में आचारवंत तथा अनाचारी – दोनों प्रकार के लोग होते हैं. कौन आचारवान है तथा कौन अनाचारी – यह कहना कठिन है. इसलिए सामूहिक कल्याण, स्थैर्य, क्षेम को दृष्टिगत रखते हुए हम श्री दत्त-होम अथवा अन्य यज्ञ-यागादी कार्यक्रम करके संघ के भीतर क्षेम, स्थैर्य बनाए रख सकते हैं. दक्षिणा लेकर शूद्रों को दीक्षा न देना उन पर अन्याय करने के समान है, ऐसा मेरा मत है. दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से शूद्र लोगों को शुद्ध करने के पश्चात ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य लोगों का भी उद्धार कर सकते हैं. इस प्रकार किसी भी कुल के लोगों को व्यक्तिगत दीक्षा की आवश्यकता नहीं. इसके अतिरिक्त दक्षिणा की राशि बहुत अधिक रखी गई है. प्रत्येक कुल में गरीब लोग होते हैं. वे इतनी धन राशि दक्षिणा के रूप में नहीं दे पायेंगे. इतना धन देने के पश्चात उन्हें कुछ दिनों के लिए भूखा रहना पडेगा. अतः दक्षिणा ऐच्छिक होनी चाहिये. यथाशक्ति एवँ श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से दी गई दक्षिणा का ही स्वीकार करना चाहिए, तभी श्री दत्त प्रभु संतुष्ट होंगे.”

इस पर वहाँ एकत्रित ब्राह्मण बोले, “महाराज जब हमारे गाँव में पधारे तो हमने उनका स्वागत पूर्ण कुम्भ से एवँ वेद मन्त्रों के घोष से नहीं किया. महाराज ने स्वयँ ही जनहित की भावना से हम सबको दत्त दीक्षा दी, परन्तु हमारी ब्राह्मण परिषद् ने उन्हें कुछ भी नहीं दिया, यह बड़ी लज्जाजनक बात है.”

इस पर बापन्नाचार्युलू ने कहा, “वास्तव में देखा जाए तो परमहंस परिव्राजकाचार्य का स्वागत करने की एक विशेष विधि होती है. प्रथम, उनके प्रधान शिष्यों द्वारा कुछ दिन पूर्व ब्राह्मण परिषद् को सूचना भेजी जानी चाहिए. परिषद् इस पर पूरी तरह से विचार करके प्रधान शिष्यों से विचार विमर्श करके सारी बातें निश्चित करती है. इससे प्रधान शिष्यों का सबसे परिचय हो जाता है. तत्पश्चात परिषद् एक निर्णय लेकर एक योग्य परिव्राजक शिष्य का चुनाव करती है. इसके बाद परमहंस परिव्राजक अपने पधारने का निर्णय लेते हैं. तब उनका स्वागत वेदमंत्रों से, पूर्ण कुम्भ से किया जाता है. फिर उनके साथ शास्त्र चर्चा की जाती है. फिर परिव्राजक महोदय की सूचनानुसार यज्ञ, याग, दीक्षा अथवा प्रवचनों का आयोजन किया जाता है. इस प्रकार की कोई भी पूर्व सूचना दिए बिना परिव्राजकाचार्य कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आ गए. आते ही उन्होंने दीक्षा का प्रस्ताव रखा एवँ गुरुदक्षिणा की भी मांग की. यह सब हमारे नियमों के विरुद्ध हुआ है.”

इस पर ब्राह्मणों ने उत्तर दिया, “नियमों के उल्लंघन के बारे में चर्चा करने का यह समय नहीं है. अब आप अथवा आपके दामाद अप्पल्रराजू शर्मा दीक्षा दक्षिणा देने वाले हैं अथवा नहीं ?” इस पर बापन्नाचार्युलु ने उत्तर दिया, “सामूहिक स्थैर्य के लिए दीक्षा लेने का हमारा विचार है. व्यक्तिगत क्षेम अथवा स्थैर्य के लिए नहीं. हम दीक्षा नहीं ले रहे, इसलिए दक्षिणा भी नहीं देंगे. जिन ब्राह्मणों को दीक्षा लेनी है वे स्वेच्छा से दीक्षा ले सकते हैं. ब्राह्मण परिषद् सामूहिक समस्याओं के निवारण के लिए होती है. सामूहिक प्रयोजन वाले विषयों पर परिषद् विचार विनिमय करती है. व्यक्तिगत दीक्षा एवँ व्यक्तिगत समस्या पर विचार नहीं करती.” श्रेष्ठी एवँ नरसिंह वर्मा ने दीक्षा लेने से इनकार कर दिया. ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य लोगों को उनकी इच्छानुसार दीक्षा लेने अथवा न लेने की स्वतंत्रता दी गई थी.

 

श्रीपाद प्रभु से दत्त दीक्षा

श्रीपाद प्रभु पर श्रद्धा भक्ति रखने वाले लोगों में कुछ काश्तकार / किसान भी थे. इनमें प्रमुख थे वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी. श्रीपाद प्रभु वेंकटप्पय्या के घर गए और कहने लगे, “दत्त दीक्षा प्राप्त नहीं हुई इस बात से कोई भी निराश न हो. मैं दत्त दीक्षा दूँगा. इसके लिए मंडल (४० दिन) दीक्षा की भी आवश्यकता नहीं. एक रात भी दीक्षा ली जाए तो पर्याप्त है.”

श्रीपाद प्रभु एक दिन भर वेंकटप्पय्या के घर अष्टादश वर्ण के लोगों को दीक्षा दे रहे थे. दीक्षा ग्रहण करने वाले साधकों में कुछ ब्राह्मण, कुछ क्षत्रिय एवँ कुछ वैश्य थे.

 

श्रीपाद प्रभु का श्री दत्तात्रेय स्वरूप में प्रकट होना

श्रीपाद प्रभु बहुरूपी थे – यह उनके श्री दत्त स्वरूप में प्रकट होने का दिन था. वह दिन दत्त प्रभु का प्रिय दिन गुरूवार था. जिन भक्तों को उन्होंने दीक्षा दी थी, उन्हें मंगल आशीर्वाद दिया. सब भक्तों ने बड़े श्रद्धा भाव से श्री दत्त प्रभु का भजन अर्चन किया. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने अपने भावी कार्यक्रम के बारे में भक्तों को विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने भक्तों से कहा कि श्री दत्त प्रभु स्मरण करते ही भक्तों को दर्शन देते हैं और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं. इसके बाद दूसरे दिन (अर्थात शुक्रवार को) सुबह मैं नरसिंह वर्मा के घर गया. वहाँ श्रीपाद प्रभु का मंगल स्नान हो रहा था. स्नान के पश्चात नरसिंह वर्मा ने श्रीपाद प्रभु को खाने के लिए अनेक फल लाकर दिए परन्तु उन्होंने केवल एक केला ही उठाया. वह भी वर्मा के घर में बंधी गोमाता को दे दिया. इसके पश्चात वे वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर आये. यहाँ भी उन्हें मंगल स्नान करवाया गया. वहाँ श्रीपाद प्रभु ने मक्खन, दूध, छाछ एवँ मलाई स्वीकार की. वहाँ उन्होंने कहा, “मेरे भक्त मुझे बुला रहे हैं. पीठिकापुरम् छोड़कर जाने का समय हो रहा है.”

वेंकटप्पय्या के घर से निकल कर वे अपने नाना जी बापन्नाचार्युलु के घर आये. वहाँ भी उन्होंने मंगल स्नान किया. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु प्रत्यक्ष दत्त स्वरूप हैं. उन्होंने अपने भक्तों के दुःख, पीड़ा, बाधाएं दूर करने के लिए अवतार धारण किया है. अपने वक्तव्य में उन्होंने अनेक बार स्पष्ट रूप से यह बात कही थी. अपनी दिव्य लीलाओं द्वारा जनता जनार्दन के उद्धार हेतु नियत किये गए कार्यक्रम की जानकारी श्रीपाद प्रभु ने अपने भक्तों को दी. इसके पश्चात वे अपने घर आये. श्रीपाद प्रभु के पीठिकापुरम् छोड़कर जाने के निश्चय के बारे में उनके माता-पिता को ज्ञात हो चुका था. उन्होंने श्रीपाद प्रभु को समझाने का काफी प्रयत्न किया, परन्तु प्रभु अपने निर्णय पर अडिग रहे. इसके बाद श्रीपाद प्रभु के माता-पिता ने उनके विवाह संबंधी चर्चा आरम्भ की. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “मैंने अनेक बार श्रेष्ठी दादा जी को, वर्मा दादा जी को अनघालक्ष्मी सहित दर्शन दिए हैं. इस दिव्य दंपत्ति का विहार श्रेष्ठी दादाजी की आमराई में सबने देखा है. यह देखो अनघा लक्ष्मी सहित मेरा दिव्य मंगलमय स्वरूप.”  इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने उस दिव्य स्वरूप के दर्शनों का लाभ माता-पिता को दिया. उस मंगलमय स्वरूप को देखकर माता-पिता भाव विभोर हो गए. उनके मुख से शब्द ही नहीं निकले. श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं जब अवधूत रूप में आया था, तभी मैंने कहा था कि मेरे विवाह का प्रस्ताव रखते ही मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा.”

इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने अपने दोनों बड़े भाइयों को स्पर्श करके अपनी अमृतमय दृष्टी से उनकी और देखा. तत्काल अंधे बंधू को दृष्टी प्राप्त हो गई, और पंगु भाई चलने लगा. उस दिव्य स्पर्श से दोनों बंधुओं को ज्ञान की प्राप्ति भी हो गई और वे ज्ञान के तेज से दमकने लगे. यह सब देखकर प्रभु के माता-पिता को आनंदाश्चर्य का धक्का लगा, उनके मुख से शब्द ही नहीं फूटे. तभी वहाँ नानी राजमाम्बा और नाना जी बापन्नाचार्युलू आये. साथ ही वेंकटप्पा श्रेष्ठी और उनकी धर्मपत्नी सुब्बमाम्बा; नरसिंह वर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी अम्माजम्मा आए. श्रीपाद प्रभु प्रसन्नता पूर्वक सबके साथ हँसी मज़ाक करते हुए बातें कर रहे थे. तब सुमति महाराणी ने कहा, “बेटा, श्रीपाद! तुमने कहा था कि तुम सारी जिम्मेदारियां पूरी करके जाओगे परन्तु तुमने अभी तक वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर की दूध बाकी , वत्सवाई के घर की दूध बाकी, मल्लादी की दूध बाकी पूरी नहीं की.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माँ! तुम ठीक कहती हो. इन तीनों वंशों के लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा. यदि मैं भूल भी जाऊँ, तो तुम याद दिला देना. उनसे यथायोग्य सेवा करवाकर मैं उन्हें वर प्रदान करूंगा. तुम्हारे मायके के किसी एक घर में भोजन के लिए आता रहूँगा, परन्तु दक्षिणा स्वीकार नहीं करूंगा. तुम्हारे मायके के लोग मुझसे अत्यंत वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करते हैं, और मुझे दामाद कहकर संबोधित करते हैं. मैं इस मानवी संबंध को स्वीकार करके उनके साथ दामाद के लिए योग्य व्यवहार ही करूंगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने पिता की और मुड़कर कहा, “तात, हमारे घंडीकोटा वंश में अनेक वर्षो से वेद परंपरा चली आ रही है. अब मेरे दोनों बड़े भाई वेदशास्त्र संपन्न होकर महापंडित हो गए हैं. वे अपनी वेद परंपरा जारी रखेंगे. घंडीकोटा  वंश के लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा.” श्रीपाद प्रभु कुछ देर आँखें बंद करके बैठे और फिर बोले, “अपने श्रीधर शर्मा आगे किसी जन्म में “समर्थ रामदास” नाम से एक महापुरुष के रूप में महाराष्ट्र में जन्म लेंगे. नरसिंह वर्मा छत्रपति शिवाजी के नाम से जन्म लेकर महाराष्ट्र में राज्य स्थापित करेंगे और श्री समर्थ रामदास का शिष्यत्व स्वीकार करेंगे. इस प्रकार अपने पूर्व संबंध बंधू रूप में स्पष्टत: कायम रहेंगे. समर्थ रामदास के पश्चात श्रीधर शर्मा शिवग्राम (शेगांव) क्षेत्र में गजानन नामक महायोगी के रूप में जन्म लेंगे. उनके कारण शिवग्राम  क्षेत्र की महिमा अपरंपार बढ़ेगी. रामराज शर्मा “श्रीधर” के नाम से जन्म लेकर महायोगी बनेंगे. श्रीधर की शिव परंपरा वाले इस पीठिकापुर में मेरे आंगन में महासंस्थान का निर्माण होने वाला है. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के साथ के अपने ऋणानुबंध  स्थायी स्वरूप ग्रहण करेंगे. इतना ही नहीं, बल्कि इसके पश्चात वत्सवाई कुटुंब के लोग भी यहां आएँगे. यहाँ सावित्र-पन्न का पारायण (वाचन) होगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. उन्हें वेद-पठन अत्यंत प्रिय था. अनेक बार श्रीपाद प्रभु वेद पठन होते देखकर आत्मलीन हो जाते थे. उस समय वेद पठन करने वाले विप्रगण अत्यंत श्रद्धाभाव से श्री प्रभु के दिव्य मुख की और एकाग्रता से देखते हुए वेद पठन जारी रखते.

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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