।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३६.
वेदान्त शर्मा का वृत्तांत
मैं एवँ धर्मगुप्त प्रभु से भेंट स्वरूप प्राप्त हुए पैंजन लेकर आगे की
यात्रा पर निकल पड़े. रात भर उन पैंजनों की मधुर ध्वनि हमारे ह्रदय में प्रतिध्वनित
होती रही. ह्रदय के अनाहत चक्र से ऊँकार बड़े प्रयत्न से ही सुनाई देता है, ऐसा हमने सुना था. पिछली रात को इसका प्रत्यक्ष
अनुभव प्राप्त हुआ. उन पैंजनों की मधुर ध्वनि, राग-ताल युक्त संगीत के समान थी. अनाहत चक्र से शक्ति अन्य चक्रों की ओर
प्रवाहित होती है. इस शक्ति का प्रसार होते समय शरीर की सभी नसों में नूतन शक्ति
का प्रादुर्भाव होता रहता है.
जब तक हम चलते रहते, पैंजनों की ध्वनि आती
रहती. हम रुकते तो वह ध्वनि भी रुक जाती. उस भाग में, एक खेत में हमने एक आश्रम देखा. निकट ही छोटा सा गाँव भी दिखाई दिया. गाँव
की सीमा पर एक दलित लोगों की बस्ती थी. बस्ती के निकट ही यह आश्रम था.
जैसे ही हम आश्रम के निकट पहुंचे, पैंजनों की ध्वनि रुक गई. हमने सोचा कि यहाँ कोई दिव्य अनुभव प्राप्त होने
वाला है, और वह भी प्रभु की केवल एक दिव्य लीला ही होगी. तभी उस आश्रम से लगभग ६०
वर्ष के एक तेजस्वी महर्षि बाहर आए. उनके पीछे-पीछे करीब ३० वर्ष की योगिनी माता
बाहर आईं. वे दोनों अत्यंत आदरपूर्वक हमें आश्रम के भीतर ले गए. जलपान के पश्चात महर्षि
कहने लगे, “ वास्तव में मेरा नाम वेदान्त शर्मा है. मैं पीठिकापुरवासी हूँ. अब मुझे
बंगारय्या के नाम से जानते हैं. इसका नाम बंगारम्मा है. मैं जन्म से ब्राह्मण हूँ, और यह स्त्री जन्म से नीच कुल की है. हमारे घर
में मातंगी माता का पीठ है. मातंगी माता दशमहाविद्या में से एक हैं, उसीकी हम यहाँ
आराधना करते हैं.
इतना सुनते ही मैं रोमांचित हो गया. यह व्यक्ति तो ब्राह्मण है और यह स्त्री
नीच कुल की है. तब इनका दाम्पत्य धर्मसम्मत कैसे हुआ, यह प्रश्न मुझे सताने लगा.
हमें भोजन में कंद, मूल एवँ फल दिए गए.
बंगारय्या ने आगे कहा, “ बेटा! जब अरुंधती
ने वशिष्ठ महामुनि से विनती की कि वे उससे विवाह करें, तब वशिष्ठ मुनि ने उसके सामने एक शर्त रखी. वे बोले, “ मैं कुछ भी करूँ, फिर भी तुम विरोध न
करना.” अरुंधती ने यह बात स्वीकार कर ली. महर्षि ने उसे सात बार दग्ध किया फिर भी
उसने विरोध नहीं किया. इसीलिये उसका नाम अरुंधती पडा. इसके पश्चात महर्षि ने उसे
अपनी धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार किया.
जब मैं पीठिकापुरम् में था तब तीन बार मेरा विवाह हुआ था. तीनों पत्नियां
स्वर्ग सिधार गईं. मैं उनमें से किसी का भी संग प्राप्त न कर सका. अपने नसीब को
दोष देते हुए मैं अत्यंत दुखी हो गया था. इस पर श्रीपाद प्रभु मुस्कुरा कर बोले, “नाना जी, मैंने तुम्हारे लिए एक और नई नानी ढूंढी है.
विवाह किये बिना यदि आप उसको धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे तो आपको उत्तम
जन्म का प्रसाद प्राप्त होगा.”
बापन्नाचार्युलु पीठिकापुर की ब्राह्मण परिषद् के अध्यक्ष थे. ब्राह्मण समाज
की यह राय थी कि इस संबंध में वेद पंडितों की बैठक बुलाई जाए. धर्म-कर्म के
सन्दर्भ में शास्त्रानुसार चर्चा करने के पश्चात ही निर्णय लिया जाए, ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया. दूर दूर के
प्रान्तों के पंडितों को निमंत्रण भेजे गए. किस-किस को बुलाया जाए इसका कार्यभार
मुझे सौंपा गया.
श्रीपाद प्रभु ने उपनयन संस्कार होने के पश्चात अन्य बालकों के समान वेद पठन
नहीं किया. नानाजी के अथवा पिता के सम्मुख उन्होंने कभी भी पाठ नहीं पढ़े और जो
किया उसके बारे में कभी बताया नहीं. परन्तु यदि कोई परिक्षा लेने के उद्देश्य से
उनसे कुछ पूछे तो श्रीपाद प्रभु तुरंत उसका उत्तर देते थे. बापन्नाचार्युलु का
संपूर्ण वेदान्त श्रीपाद प्रभु को ज्ञात था. इतना ही नहीं, वेदान्त एवँ उसका रहस्यमय गूढार्थ तो श्रीपाद
प्रभु के लिए मानो हाथों का मेल था. संक्षेप में, श्रीपाद प्रभु
विद्वान पंडित ही थे. उन्हें भी परिषद् में आमंत्रित करने का निर्णय मैंने लिया.
ब्राह्मणों का उद्देश्य कुछ और ही था. अप्पल राजू को एवँ बापन्नाचार्युलु को
कुल से बहिष्कृत किया जाए, ऐसा निर्णय ब्राह्मण सभा में लिया गया. इस निर्णय की एक
प्रति श्री शंकराचार्य को भेजी गई और यह विचार किया गया
कि शंकराचार्य की अनुमति प्राप्त होते ही इन दोनों परिवारों को पीठिकापुरम् से बाहर
निकाल दिया जाए. जब श्रीपाद प्रभु ने उनकी मंशा के बारे में मुझे बताया तो मैं भी ब्राह्मणों
की और हो गया, क्योंकि मेरे मन में ब्राह्मण परिषद् का
अध्यक्ष पद प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो गई थी.
श्रीपाद प्रभु कुल की, मतभेदों की परवाह
किये बिना सभी के घर जाया करते और सब से समान बर्ताव करते थे. पीठिकापुरम् में
बंगारय्या और बंगारप्पा दम्पत्ति रहते थे. उन्हें श्रीपाद प्रभु से मिलने की, उनसे बातें करने की उत्कट इच्छा थी.
श्रीपाद प्रभु ने जब यह इच्छा प्रकट की कि उन्हें चर्म पादुकाएं चाहिए, तब उनकी आयु चौदह वर्ष की थी. घर के बड़े लोगों
ने उनसे कहा कि ब्राह्मणों को लकड़ी की खडाऊ पहनना चाहिए, न कि चमड़े की. इस बात की भनक उस चमार दंपत्ति तक पहुँची. श्रीपाद प्रभु को
चमड़े की पादुकाएं समर्पित करके जीवन को सार्थक किया जाए, ऐसा निश्चय उस दंपत्ति ने
किया. तभी उनके घर में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रकट हुए. उनके दिव्य चरणों की नाप ली
गई. बंगारम्मा बोली, “महाप्रभु! मेरी ही
चमड़ी निकाल कर उसकी पादुका बना दूं, ऐसी मेरे मन में
इच्छा है. इस पर श्रीपाद श्रीवल्लभ मंद मंद मुस्कुराए और अंतर्धान हो गए. हमारे
यहाँ एक बढ़िया गाय थी. अचानक वह एक असाध्य रोग से ग्रस्त होकर मर गई. उस गाय का
चमडा निकाल कर, उसे शुद्ध करके श्रीपाद प्रभु के लिए चर्म पादुकाएं बनाई गईं.
इधर वेद पंडितों की सभा बैठी. चर्चा आरम्भ हुई. चर्चा का मुख्य विषय था –
आदि शंकर का काशी में मंडन मिश्र से हुआ वाद विवाद. वाद विवाद में यदि उभय भारती
देवी को भी पराजित किया गया तो परिक्षा पूर्ण होगी, ऐसा भारती देवी ने कहा. उभय भारती ने काम शास्त्र पर प्रश्न पूछा. इस
शास्त्र में आदि शंकर को कोई ज्ञान नहीं था. उन्होंने उत्तर देने के लिए छः मास की
अवधि मांगी. धर्म के विरुद्ध न जाते हुए काम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने का
निर्णय शंकराचार्य ने किया.
इसी समय उस राज्य के महाराजा का निधन हुआ था. आदि शंकर ने परकाया प्रवेश
विद्या का उपयोग किया और उस राजा के शरीर में सूक्ष्म शरीर से प्रवेश किया.
उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि उनका भौतिक शरीर संभाल कर रखा जाए और यदि
कोई महत्त्वपूर्ण सन्देश हो तो राजप्रासाद के निकट आकर सांकेतिक भाषा में उन्हें
बताया जाए. महारानी को अपने महाराज में कुछ परिवर्तन, कुछ नयेपन का अनुभव हुआ.
उसने जान लिया कि किसी महापुरष
की आत्मा का प्रवेश उसके पति के शरीर में हुआ है. वह दिव्यात्मा महारानी के पति के
मृत शरीर में प्राणमय जगत के चैतन्य को आकर्षित करके प्रविष्ट हुआ है. केवल इसलिए
कि दाम्पत्य सुख का अनुभव साक्ष भावना से देखकर उस संबंध में ज्ञान प्राप्त कर सके
– इस बात को भी महारानी समझ गई. जब तक इस दिव्यात्मा का वास मेरे पति के शरीर में
है, तभी तक उसके प्राण शरीर में रहेंगे, यह बात वह जान गई. उसने आदेश दिया कि नगर में यदि कोई ऐसा मृत शरीर हो, जिसका दाह संस्कार न किया गया हो, तो उसे फ़ौरन जला दिया जाए. शंकराचार्य का शरीर
दहन करने के लिए ले जाया गया. तब उनके शिष्यों ने तुरंत सांकेतिक भाषा में राजवेश
धारण किये हुए शंकराचार्य को इस बात की सूचना देने का प्रयत्न किया, परन्तु तब तक देर हो चुकी थी. अग्नि में
शंकराचार्य के हाथ-पैर जल गए थे जो उन्होंने श्री लक्ष्मी नरसिंह की कृपा से वापस
प्राप्त कर लिए.
ब्राह्मण परिषद् में श्रीपाद प्रभु का अद्भुत संवाद
श्रीपाद प्रभु ने परिषद् से प्रश्न किया, “आप कहते हैं, कि आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश तभी
कर सकती है जब वह अपने पहले अवतार को छोड़ दे. परन्तु मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ, क्या आत्मा एक ही समय में तीन-चार शरीरों में
प्रवेश करके तीन-चार जन्मों के कर्मफल प्राप्त कर सकती है?” परिषद् ने उत्तर दिया, “यह बड़ा जटिल विषय है. आज तक इस संबंध में कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है.”
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “प्राचीन युग में ऐसा
हुआ है, परन्तु आपको वह ज्ञात नहीं है. शाप के कारण
देवेन्द्र को पञ्च पांडवों का जन्म लेना पडा और शची देवी को द्रौपदी के रूप में
जन्म लेना पडा. उसे पांडवों की पत्नी होना पडा. शची-पुरंदर ने यद्यपि पृथ्वी पर
जन्म लिया, फिर भी उनका मूलतत्व निश्चय ही स्वर्ग में था. द्रौपदी
का शय्या सुख केवल अर्जुन को ही प्राप्त हुआ. मंत्रांग विषयों पर वह धर्मराज से
चर्चा करती थी, भीम को माता जैसा रुचिकर भोजन बनाकर देती थी.
नकुल को वह लक्ष्मी स्वरूपिणी प्रतीत होती थी, सहदेव को भूत, भविष्य एवँ
वर्त्तमान का ज्ञान था, इसलिए आगे घटित होने
वाली घटनाएं जल्दी-जल्दी होकर संग्राम शीघ्र समाप्त हो जाए ऐसी इच्छा वह प्रकट
करता. इसलिए भूमाता से भी अधिक सहनशील वृत्ति से वह उसके साथ व्यवहार करती थी.
देवता धर्म, मनुष्य धर्म एवँ जंतु धर्म एक दूसरे से भिन्न
हैं. उन सबको एक साथ मिलाना नहीं चाहिए.”
इस पर मैंने कहा, “पुराण काल में ऐसी
आश्चर्यजनक घटनाएं हुई होंगी, परन्तु वर्त्तमान
में ऐसा कुछ नहीं होता.”
श्रीपाद प्रभु की तीक्ष्ण दृष्टी मुझ पर पडी. वे बोले, “तुम्हारा तीन स्त्रियों के साथ विवाह हुआ. वे तीनों परलोक सिधार गईं. क्या
उन तीनों की तीन अलग-अलग आत्माएं थीं? यदि नहीं, तो क्या उनकी आत्मा एक ही थी? पुरुष तीन स्त्रियों से विवाह करे, यह धर्म सम्मत है. परन्तु क्या एक स्त्री का तीन पुरुषों से विवाह करना
धर्म सम्मत है? वास्तव में देखा जाए, तो आत्मा क्या है? दाम्पत्य जीवन का अर्थ क्या है?”
तभी मैंने कहा, “पुरुष चाहे जितनी भी
स्त्रियों से विवाह कर सकता है, मगर स्त्री को यह अधिकार नहीं है.” श्रीपाद प्रभु
बोले, “ओ हो! क्या तू जगन्नियंता से बड़ा है? मंदोदरी अपने
पातिव्रत्य के लिए प्रसिद्ध थी. जब वह बाली की पत्नी थी, तब उसके शरीर के अणु भिन्न थे. रावण की पत्नी
के रूप में उसके शरीराणु भिन्न थे और विभीषण की पत्नी के रूप में भी उसके शरीराणु भिन्न
थे. आत्मा निर्विकार होता है, अतः किन्ही भी गुणों से उसका मेल नहीं होता. इसीलिये
आत्मा नित्य निर्विकार, सत्ययुक्त, शुद्ध एवँ अत्यंत पवित्र है. मंदोदरी ने
तमोगुणी रावण के साथ उसके उपयुक्त ही व्यवहार किया. विभीषण के साथ उसने सत्वगुण
प्रधान होकर उत्तरदायित्व निभाया.”
मैं निरुत्तर हो गया. परन्तु थोड़ी देर विचार करने के बाद बोला, “यदि आपकी बात को सत्य मान लिया जाए, तो बहुपतीत्व को स्वीकारना होगा.” इस पर
श्रीपाद प्रभु बोले, “यह कलियुग है. यहाँ
कितनी ही भिन्न-भिन्न अवांतर जातियों का आविर्भाव होता रहता है. पशु-पक्षी, वृक्ष, कृमि-कीटक, मानव जन्म ले रहे हैं. उनके अपने स्वभाव के
कारण विभिन्न प्रकार के संबंध स्थापित हो रहे हैं. धर्म विरुद्ध संबंध स्थापित
होने पर अवांतर कुल का निर्माण होता है. कलियुग के अंत में ऐसे कुलों का नाश होना
ही है. ये अवांतर कुल आसुरी शक्ति के कारण निर्माण होते हैं, इसीलिये असुर ध्वंस करना पड़ता है. एक बार असुर
का नाश होने पर उसे दुबारा जन्म नहीं मिलता. परन्तु एक असुर के स्थान पर दस-दस
असुरों का जन्म होने लगा है. धर्मबद्ध संबंध ही सदा के लिए शाश्वत रहते हैं, इसीलिये सबको कुल गोत्र एवँ वर्णाश्रम धर्म का
पालन करना चाहिए.”
“दिव्यात्मा का प्रादुर्भाव बिरले ही होता है. उनकी आत्मा एक ही होती है.
यदि इस आत्मा का पुरुष-रूप में प्रादुर्भाव होता है, तो उस आत्मा की शक्ति का
प्रादुर्भाव स्त्री-रूप में होता है. इन्हीं को दिव्य-दाम्पत्य कहते हैं. ऐसे
दिव्यात्मा सृष्टि के आदि से अंत तक होते हैं. पराशक्ति एवँ परब्रह्म ही अद्वितीय
स्वरूप में सायुज्य स्थिति में रहते हैं.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “अब देखो, वेदान्त शर्मा नामक ब्राह्मण तू ही था.
बंगारय्या के नाम से चमार कुल में जन्मा है. यह सब एक ही समय में हुआ है. तेरी ही
पत्नी तेरी तीन पत्नियों के रूपों में चमार पत्नी बंगारम्मा के नाम से जन्मी है.
अभी-अभी तेरे घर में जिस गाय की मृत्यु हुई है, वह एक समय में तेरी पत्नी ही थी.
तेरी दिवंगत पत्नी का चैतन्य एवँ उस गोमाता का चैतन्य प्रस्तुत बंगारम्मा नामक इस
महान स्त्री के चैतन्य में सम्मिलित हो गया है. चैतन्य जहाँ से आता है, वहाँ उसे जाकर मूल चैतन्य में मिल जाना है, यह निश्चित है. सृष्टि का रहस्य अति गहन है. इसे समझने के लिए सप्त ऋषियों
की सामर्थ्य भी पर्याप्त नहीं है. बंगारम्मा का शरीर बंगारय्या के लिए ही नियत है, इसलिए यह बिलकुल भी धर्मं विरुद्ध नहीं है, तू इसके साथ संसार कर. उससे तुझे शरीर सौख्य
प्राप्त नहीं होगा. यह निर्णय मैंने धर्मस्थान में बैठकर किया है. प्रकृति में
जन्म लेने के पश्चात प्रकृति के धर्म का, उसकी मर्यादा का पालन विधिवत करना ही पड़ता है.”
“बंगारम्मा ने मुझसे कहा था कि अपनी चमड़ी से चप्पल बनाकर मुझे देगी. मैंने
स्वीकार कर लिया. वह बंगारम्मा जीवित रहते हुए भी उसने अनजाने में गाय का जन्म
लिया. उसके अनजाने में ही उसने तेरी तीनों पत्नियों के रूपों में जन्म लिया. जब चैतन्य
तीन-चार शरीरों में विभाजित हो गया, तब उस प्रत्येक शरीर
के चैतन्य को यह आभास होता है कि केवल वही उपस्थित है. उनके बीच की एकात्मता समझ
में नहीं आती. ‘कलौ पञ्चसहस्त्राणि जायते वर्णसंकर:’ ऐसा कहा गया है. इसका अर्थ यह
हुआ कि कुल सांकर्य का नहीं, अपितु वर्ण सांकर्य
का ही उल्लेख किया गया है. कुल सांकर्य होने पर नीच जन्म प्राप्त होता है. वर्ण
सांकर्य होने पर नूतन शक्तियुक्त नवीन जातियों का उद्भव होता है. परिणाम स्वरूप नई
मानव जाति को दैवत्व की प्राप्ति होती है. इस भूमि पर दैवत्व का लाभ प्राप्त करने
योग्य जातियों को उत्पन्न करना है.”
“इस ब्राह्मण परिषद् का असली उद्देश्य मुझे ज्ञात है. मेरे नाना जी एवँ पिता
जी को कुल से बहिष्कृत करने का उद्देश्य उनके मन में खदखदा रहा है. इसीलिये मैं
वेदान्त शर्मा को कुल बहिष्कृत करता हूँ. आज से तेरा नाम बंगारय्या होगा.”
पूरी ब्राह्मण परिषद् चकरा गई. सबकी नज़रों के सामने ही एक ज्योति स्वरूप
मुझमें विलीन हो गया. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “आपकी आंखों के सामने
ही बंगारप्पा की आत्मज्योति वेदान्त शर्मा में विलीन हो गई. यह ब्राह्मण है, अथवा चांडाल है यह निर्णय आप स्वयँ ही कर लीजिए.
हमें कुल से बहिष्कृत करने के लिए शंकराचार्य की अनुमति प्राप्त करने का प्रयत्न
भी आपने कर लिया. शंकराचार्य मेरा क्या कर लेंगे? आप सबके देखते-देखते
ही मैं अपने नाना जी अथवा पिता जी से वेदाभ्यास ग्रहण न करते हुए भी, वेदोच्चारण कर सकता हूँ. एक ही समय में अनेक
स्थानों पर दर्शन दे सकता हूँ. शंकराचार्य मेरे सामने भी आ जाएँ, तो भी मुझे किस बात का डर है? उन्हें उनके नित्य आराधित शारदा चंद्रमौलीश्वर
के रूप में दर्शन देकर उन पर अनुग्रह करूंगा, तब कोई अन्य उपाय न होने के कारण उन्हें
मुझे ईश्वर के रूप में स्वीकार करना होगा. तब उनका निर्णय आप सबके लिए
दुर्भाग्यशाली होगा. क्षत्रिय परिषद्, वैश्य परिषद् आपके
निर्णय को सम्मति नहीं देगी. यदि वे पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, दान, दक्षिणा, सीधा आदि देना बंद कर दें, तब बाल बच्चों समेत आप सबकी दीन हीन अवस्था हो
जायेगी. यदि मुझसे लड़ाई मोल लोगे तो सर्वनाश का मूल कारण तुम ही बनोगे. मैं कह रहा
हूँ कि चतुराश्रम का धर्म पालन करो. यह कह रहा हूँ कि अष्टादश वर्णों के लोग
सुख-संतोष से रहें. आप लोग अपने-अपने धर्म के नियमों का अचूक पालन करके धर्म
संस्थापन में सहयोग दें. वैसा न करने पर अनेक आपत्तियां टूट पड़ेंगी. मैं तो शांत
ही रहूँगा, परन्तु आपकी स्थिति दुखमय हो जायेगी. प्रकृति
दो प्रकार से परिणाम देती है, पहला – एकदम सुधार करना और दूसरा – धीरे-धीरे सुधार
करना. दूसरी विधि के अनुसार पर्याप्त समयावधि दी जायेगी. यदि आप लोग अपने आपको
नहीं सुधारेंगे तो विनाश को आमंत्रित करेंगे. मैं तो विनाश करके भी धर्म की
स्थापना करूंगा.”
इतना कहने के पश्चात श्रीपाद प्रभु ने मौन धारण कर लिया. बंगारय्या आगे बोले, “मुझे कहीं भी कोई आधार न था, ऐसी स्थिति में मैं
बंगारम्मा को लेकर गाँव-गाँव घूमते हुए यहाँ आ पहुँचा. हमारे इस आश्रम में मातंगी
देवी की प्रतिष्ठा करके जीवन काट रहा हूँ.”
श्रीपाद प्रभु इस मार्ग से गुज़रते हुए यहाँ आये. उन्होंने हमें आशीर्वाद
दिया और बोले, “इस शरीर के पतन के पश्चात तू फिर से अपने ऋणानुबंध से ब्राह्मण कुल में
जन्म लेगा और बंगारम्मा शूद्र जाति में जन्म लेगी, तब तुम दोनों पति पत्नी बनोगे, तुम्हें संतान की
प्राप्ति होगी. उस संतान को कुरुगड्डी में मेरी सेवा करने की संधि प्राप्त होगी,
सुखी भव!”
“बेटा, यही हमारा वृत्तांत है. आप इस प्रदेश में
आयेंगे, आपके पास उनके पैंजन हैं. वे पैंजन आपसे लेकर आपको
उनकी चर्म पादुकाएं दे दूं, ऐसा उनका आदेश है.”
“हम मातंग मुनि की कन्या मातंगी देवी के उपासक हैं. इस मातंगी माँ की आराधना
करने से उत्तम दाम्पत्य सुख की प्राप्ति होती है. इसे राज मातंगी, कर्ण मातंगी आदि नामों से भी संबोधित किया जाता
है. एक बार श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने भौतिक स्वरूप में इस आश्रम में दर्शन दिए.
उस समय बंगारम्मा दूध गरम कर रही थी. जिस गोमाता के चर्म से ये पादुकाएं बनाई हैं, वह गोमाता भी सामने से गर्दन हिलाती हुई गई,
ऐसा प्रतीत हुआ. श्रीपाद प्रभु ने हमारे दूध को स्वीकार किया. हमारे द्वारा पूजित
मातंगी देवी की मूर्ती उनके नाम से संस्थापित संस्थान के औदुम्बर वृक्ष के नीचे
अनेक गज नीचे चली जायेगी और वहाँ अनेक सिद्ध पुरुषों द्वारा उसकी सेवा की जायेगी.
वे बंगारम्मा को बुलाकर बोले, “अम्मा! तेरा पति खूब
अनुकूल है. अगले जन्म में तुझे इससे सारे सुख प्राप्त होंगे. तेरे लिए सोने की
बिंदी तैयार करके रखी है. एक शुभप्रद मंगलसूत्र भी बना लिया है. ये दोनों चीज़ें हिरण्यलोक
में सुरक्षित रखी हैं. अगले अवतार में मैं स्वयँ ही तुम पर कृपा करके अपने हाथों
से तुम्हारा विवाह करूंगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु अंतर्धान हो गए. “
:बेटा! तुमने हमारी कथा सुनी. हमेशा “सिद्ध मंगल स्तोत्र” का पठन करना चाहिए, तुमको अवश्य ही महापुरुषों का अनुग्रह प्राप्त
होगा. सिद्ध, महासिद्ध, महायोगी पुरुष श्रीपाद प्रभु के कर-चरण आदि अवयवों के समान हैं. उनके
माध्यम से ही श्रीपाद प्रभु अपने संकल्प की पूर्ति करते हैं. एक बार उन्होंने
राजमाता मातंगी देवी के रूप में दर्शन देकर हमें अनुगृहीत किया. समस्त सृष्टि एवँ सृष्टि
का रहस्य उनके आधीन है. तुम हमेशा, हर पल उनका स्मरण
करना, ध्यान करना, उनकी अर्चना करना. वे ही सर्वसिद्ध हैं. माता
के समान वे तुम्हारी रक्षा करेंगे. कोटि-कोटि माताओं के प्रेम की तुलना में
श्रीपाद प्रभु का अपने भक्तों पर प्रेम कितनी उच्च कोटि का होता है!”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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