मंगलवार, 19 जुलाई 2022

अध्याय - ३७

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।

अध्याय ३७

छिन्नमस्ता देवी का वर्णन

बंगारय्या और बंगारम्मा से बिदा लेकर, उनकी दी हुई चर्म पादुकाएं लेकर हम आगे चल पड़े. हम एक जंगल में से होकर जा रहे थे. चलते-चलते एक वट वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए रुक गए. तभी वहाँ योगिनियों का एक समूह आया. वे हमें देखकर बोलीं, “अब सायं संध्या का समय हो चला है. इस समय आपका इस प्रदेश में आना उचित नहीं है. यहाँ हम छिन्नमस्ता देवी का पूजन करने वाले हैं. वह बड़ी रहस्यमय देवता है. यहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. इतना ही नहीं, यह देव भूमि है. यहाँ आकर कोई भी जीवित वापस नहीं जा सकता.” यह सुनते ही हमारे पैरों तले की ज़मीन खिसकने लगी. तभी एक तेजोमयी योगिनी माता वहाँ आई. उसके नेत्र अग्नि के समान लाल-लाल थे. उसके साथ आई हुई योगिनियाँ एक टोकरे में छिन्नमस्ता देवी को साथ में लाई थीं. तब वह योगिनी माता बोली, “इन्हें पहनने के लिए साड़ी-चोली दो.” उसकी आज्ञानुसार हमें वस्त्र दिए गए और हमारे वस्त्रों को वहाँ प्रज्वलित अग्निकुण्ड में फेंक दिया गया.

साड़ी-चोली पहनने पर हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो हमारे शरीरों में परिवर्तन हो रहा है. हमारा पुरुषत्व समाप्त होने लगा, उरोज पुष्ट होने लगे. हम पूरी तरह से स्त्री बन गए. हमारा नाम भी नए प्रकार से रखा गया. मेरा नाम रखा गया – शंकरम्मा, और धर्मगुप्त का – धर्मम्मा. हमें भोजन में मांसाहारी पदार्थ दिए गए, पीने के लिए मदिरा दी गई.

हमने ऐसे शेर के बारे में सुना तो था कि वह दिन में मनुष्य की भाँति तथा रात में शेर की भाँति  संचार करता है. परन्तु इस प्रकार की किसी देवता के बारे में अथवा योगीजनों के संकल्प के बारे में नहीं सुना था जो पुरुष को स्त्री के रूप में परिवर्तित करती हो. हमने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था. हमें भयभीत करके नृत्य करने के लिए मजबूर किया गया. तभी योगिनी माता बोलीं, “ कबंध मुनि परिवर्तनशील जगत के अधिपति हैं. परिवर्तन- शक्ति को ही छिन्नमस्ता देवी कहते हैं. इस संसार में निरंतर वृद्धि एवँ क्षय होता रहता है. जब क्षीणत्व कम होता है, उस समय विकास का स्तर अपने आप बढ़ जाता है, उस समय भुवनेश्वरी देवी प्रकट होती है. इसके विपरीत जब क्षीणत्व में वृद्धि होकर विकास का स्तर कम हो जाता है, उस समय छिन्नमस्ता देवी का प्राधान्य होता है.

इस महामाता का स्वरूप अत्यंत रहस्यमय है. एक बार पार्वती देवी अपनी सखियों के साथ मंदाकिनी नदी पर स्नान के लिए गई थीं. स्नान होने के पश्चात दोनों सखियों को खूब भूख लग आई, इससे वे कृष्णवर्णा हो गईं. भोजन की याचना करने पर पार्वती देवी ने उनसे कुछ देर रुकने को कहा. थोड़ी देर के बाद सखियों ने फिर से भोजन की प्रार्थना की. इस बार भी उन्हें रुकने के लिए कहा गया. ऐसा कई बार हुआ. अंत में पार्वती देवी ने अपनी तलवार से अपना सिर तोड दिया. उसके कंठ से खून की तीन धाराएं बह निकलीं. दो धाराएं उसने दोनों सखियों को पीने के लिए दीं और तीसरी धार से स्वयँ रक्त प्राशन किया. मस्तक छेदन करने के कारण देवी को छिन्नमस्ता कहते हैं.

आधी रात को की गई छिन्नमस्ता देवी की उपासना बहुत शुभ फल देती है. शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए, शत्रु के समूह को रोक कर रखने के लिए, राज्य प्राप्ति के लिए, दुर्लभ ऐसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए इस देवी की उपासना अत्यंत फलदायी है. चारों दिशाएं इस महामाया के वस्त्र हैं. इसके नाभिस्थान में योनिचक्र होता है. कृष्णवर्ण अर्थात तामसी गुण और रक्तवर्ण अर्थात् राजसी गुण. इन दोनों गुणों से युक्त सखियाँ माता के साथ रहती हैं. उन्होंने अपने मस्तक का खण्डन कर दिया फिर भी वे सजीव ही रहीं योगभाषा में इसका अर्थ यह हुआ कि वह परिपूर्ण अंतर्मुखत्व का प्रतीक हैं. अग्निस्थान वाले मणिपुर केंद्र में योगीजन छिन्नमस्ता देवी का ध्यान करते हैं. यह हिरण्यकश्यपू की उपास्य देवता हैं.”

यह सारा अनुभव हमारे लिए अत्यंत विचित्र एवँ भयानक था. तभी आधी रात हो गई. चित्र-विचित्र प्राणियों की आवाजें आने लगीं. शेर की दहाड़ सुनकर तो हम भय से थरथराने लगे. शेर की आवाज़ उस शांत वातावरण को दहला रही थी. योगिनी जनों ने सोचा कि दो अच्छी स्त्रियों की बलि मिली है. उनके निकट उपस्थित हम दोनों का वध करना अत्यंत श्रेयस्कर है ऐसा उन्होंने सोचा. उन्होंने हमारे सिरों पर नीम के पत्ते बांधे. ललाट पर बड़ा सा कुंकुम का तिलक लगाया. एक तेज़ धार वाले चाकू से हमारे सिर काट दिए. खून की धाराएं देखकर योगिनियों को बड़ी प्रसन्नता हुई. वे मदोन्मत्त होकर रक्तपान करने लगीं. हमारे सिर एक तरफ तथा धड दूसरी तरफ फेंक दिए. फिर भी ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हम सजीव ही हैं. शरीर में असहनीय जलन हो रही थी. हम उन योगिनियों की क्रूर एवँ अत्यंत हीन क्षुद्र विद्या की बलि चढ़ गए थे.

तभी हम गहरी निद्रा में सो गए. निद्रावस्था में हमें अस्पष्ट रूप से आकाश में एक प्रकाश पुंज दिखाई दिया. हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह प्रकाश निकट आते हुए काल के समान योगिनियों के चारों और की हवा में लीन हो गया. हमारे सिर पुनः हमारे धडों से लग गए. हम हमेशा की भाँति नींद से जागे. हमारे शरीरों पर साड़ी-चोली थी. हमारे शरीर के स्त्रियोचित लक्षण धीरे-धीरे लुप्त होने लगे और पुरुषोचित लक्षण स्पष्ट होने लगे. रात की अग्नि में हमारे स्त्री वस्त्र दग्ध हो गए और उनके स्थान पर नए पुरुषोचित वस्त्र प्रकट हो गए. स्नानादि के पश्चात हमने वे वस्त्र धारण कर लिए.

तभी एक पथिक हमारे पास आया और बोला, “मित्रों, कल रात को तुमने जो देखी, वह एक प्रकार की यौगिक-प्रक्रिया है. तुम्हारे शरीर के भीतर के स्त्री तत्व को शुद्ध कर दिया गया है. प्रत्येक प्राणी के शरीर में स्त्री एवँ पुरुष – दोनों तत्व विद्यमान रहते हैं. दोनों तत्वों की शुद्धि के बिना योग शक्ति विश्व चैतन्य से होकर प्रवाहित नहीं होती. आपके भीतर के विश्व चैतन्य से आवश्यक मात्रा में शक्ति प्रवाहित हो रही है. आत्मा के लिए स्त्री-पुरुष भेद नहीं होता. वह इन दोनों तत्वों के आधार से परे है.”

आप लोगों को श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की कृपा से योगिनी गणों की असाधारण प्रक्रिया के द्वारा अनुपम करुणा प्राप्त होगी. अनेक प्रयत्नों के पश्चात भी ज्ञात न होने वाले सुषुम्ना मार्ग का ज्ञान आपको हो गया है. इससे बढकर सौभाग्य और क्या हो सकता है? इस महाभाग्य की प्राप्ति का कारण श्रीपाद प्रभु की वे चर्म पादुकाएं हैं. जो आपके पास हैं. चर्म देह के चैतन्य से निकलकर आप चैतन्य प्रवाह रूप ऐसे दिव्य तत्व के सान्निध्य में हैं. श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाएँ वे स्वयँ ही जानते हैं. औरों के लिए वे अति अगम्य, अद्भुत् एवँ चमत्कारपूर्ण होती हैं.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।


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