।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३४
शरभेश्वर का वृत्तांत
हम दोनों कई दिनों तक चलकर
एक गाँव में पहुंचे. रास्ते में हम श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का नामस्मरण करते,
उनकी अलौकिक लीलाओं को याद करते हुए जा रहे थे. मार्ग में हमारा आदरातिथ्य भी होता
था. कभी बैलगाड़ी मिल जाती, कभी कोई घोड़ा गाडी तो कभी-कभी पैदल चलना पड़ता था. हमारी यात्रा के मार्ग
में श्रीपाद प्रभु के भक्तों द्वारा आदरातिथ्य किया जा रहा था, यह सब परोक्ष रूप से श्रीपाद प्रभु की लीला ही
थी.
उस गाँव में पहुँचते ही
हमने देखा कि एक ब्राह्मण के घर उसका सारा सामान बाहर फेंका जा रहा है. ब्राह्मण
की पत्नी एवँ बच्चे घर में ही थे. इस ब्राह्मण ने साहूकार से थोड़ा क़र्ज़ लिया था, जिसे वह वापस नहीं कर पाया. एक दिन साहूकार ने
ब्राह्मण को रास्ते में ही रोक लिया और उसके चारों और कोयले से एक गोल घेरा बनाकर
ब्राह्मण को धमकाया कि वह उस घेरे से बाहर न आये. साहूकार ने क्रोध में ब्राह्मण
से कहा कि अपने पवित्र यज्ञोपवीत की शपथ लेकर बताए कि कितने दिनों में उसके पैसे
वापस करेगा. मैं आपके पैसे दो सप्ताह में वापस कर दूँगा, ऐसा ब्राह्मण ने आश्वासन दिया, परन्तु पंद्रह दिनों में वह धन की व्यवस्था
न कर सका, और वह अपने वचन का पालन
न कर सका. समयावधि समाप्त हो जाने पर भी अपना पैसा प्राप्त न होने के कारण वह
साहूकार ब्राह्मण के घर का सामान रास्ते पर फेंक रहा था. ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा बच्चे सभी उदास होकर देख रहे
थे. गाँव के लोग बस तमाशा देख रहे थे. किसी ने भी साहस जुटाकर साहूकार से यह नहीं
कहा कि ब्राह्मण को कुछ और दिनों का समय दे दे.
श्रीपाद प्रभु की भक्ति परिक्षा
एवँ
भक्तों को तारना
श्री धर्मगुप्त को
ब्राह्मण की यह अवस्था देखकर बड़ी दया आई, परन्तु सहायता करने के लिए उनके पास धन नहीं था, और मैं तो निर्धन ही था. परन्तु मैंने धैर्य करके कहा, “बाबा! इस दुर्बल
ब्राह्मण को दया करके और दो महीने का समय दे दो. इस अवधि में श्रीपाद श्रीवल्लभ की
कृपा से उसके कष्ट दूर हो जायेंगे. थोड़ी शान्ति से विचार करो. इसका कर्जा चुकाने
की ज़िम्मेदारी मेरी है, ऐसा ही समझा लो.” कहने को तो मैंने ऐसा कह दिया, पर मन में अत्यंत भयभीत था. साहूकार ने कहा, “ठीक है! तुम्हारी बात पर विश्वास करके मैं इसे
और दो महीने की अवधि देता हूँ. मेरा धन वसूल होने तक तुम दोनों यहाँ से कहीं मत
जाना. मान लो, यदि निश्चित अवधि में इसने मेरा धन वापस नहीं किया, तो इसके घर पर तो कब्ज़ा कर ही लूँगा, साथ ही बिचौलियापन करने के लिए तुम दोनों को भी
अदालत में घसीटूँगा. तब न्यायाधीश जो भी सज़ा सुनाएँगे, वही तुम दोनों को भी भुगतनी पड़ेगी.”
मुझे और धर्मगुप्त को तो
यह असंभव ही प्रतीत हो रहा था कि ब्राह्मण इस अवधि में क़र्ज़ चुका पायेगा. बिना
सोचे-समझे, अविवेक से, मैंने वचन दे दिया था. इस अविचारपूर्ण बर्ताव
के लिए मैं स्वयँ को ही कोस रहा था. इस मामले में श्रीपाद प्रभु को दोष देना उचित
नहीं था. मैंने अपने साथ-साथ धर्मगुप्त को भी संकट में डाल दिया था. यह भी एक
प्रकार से पाप कर्म ही मुझसे हो गया था. जुबान को लगाम न देने से कितना अनर्थ हो
जाता है, यह इसीका उदाहरण था.
परन्तु प्रभु की लीला अपरंपार है, उसका कोई अंत ही नहीं है. ऐसी परिस्थिति में
मानव की प्रभु के ऊपर भक्ति दृढ़ हो जाती है, अथवा वह भक्तिहीन हो जाता है.
मैं अति चिंतित था, मगर धर्मगुप्त निश्चिन्त
थे. वे बोले, “शंकर भट्ट! बीती हुई घटना पर विचार नहीं करना चाहिए. जो हो चुका है, जो हो रहा है, तथा आगे होने वाला है, अर्थात् भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान सब प्रभु की लीला है. जो ब्रह्मलिखित है, वही होगा, उसे तो टाला नहीं जा सकता.”
ब्राह्मण पूरी तरह निर्धन एवँ दरिद्री हो चुका था. वह और उसके परिवार के सब
लोग भूखे ही रहते थे. हम उनके घर में अतिथि थे, अतः हमें भी भूखा रहना पड़ता था. परिस्थिति बड़ी दयनीय थी. श्रीपाद प्रभु के
अनुग्रह से रहने को स्थान तो मिल गया था, हम उनके आभारी थे. भूख, प्यास, थकान होने पर,
लेनदारों के आने पर श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का नाम ही एकमेव तरणोपाय है, ऐसा दृढ़ विश्वास मन में अवश्य था. हमने स्नान संध्या
करने के उपरांत श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करने का निश्चय किया. उस ब्राह्मण के
घर में भगवान के सम्मुख दिया जलाने के लिए बाती भी नहीं थी. हम जोर जोर से, ऊंचे
सुर में “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” गाते जा रहे थे. घर के सभी सदस्य हमारे साथ
इसी मन्त्र का जाप कर रहे थे. पड़ोस के आबाल वृद्ध लोग जमा हो गए और भक्ति भाव से
नाम स्मरण करने लगे.
ब्राह्मण के घर एक किसान आया है, ब्राह्मण का क़र्ज़
चुकाने की ज़िम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली है, तभी यह बात भी चारों
और फ़ैल गई कि मैं किसी महापुरुष का शिष्य हूँ और अपनी दैवी शक्ति के बल पर ही
ब्राह्मण का ऋण चुकाने को सिद्ध हुआ हूँ, ऐसा गाँव के लोग समझ बैठे. उन्होंने गाँव
में यह भी प्रचार किया कि मैं बहुत बड़ा ज्योतिषी हूँ.
उस गाँव में किसानों को शर्त लगाने की लत थी. मैं उस ब्राह्मण का ऋण चुका
पाऊंगा या नहीं इस प्रश्न पर किसान शर्त लगा रहे थे. यदि मैंने ब्राह्मण का ऋण न
चुकाया तो हमें न्यायालय में घसीटा जाने वाला था. मेरे साथ-साथ धर्मगुप्त भी संकट
में पड़ गए थे. मेरे केवल वाग्दान पर लोग शर्तें लगा रहे थे. यह एक तरह से सट्टा ही
खेला जा रहा था. इसका कारण था मेरे द्वारा दिया गया वचन. क्या किया जाए कुछ समझ
में नहीं आ रहा था. ऐसी परिस्थिति में हमने केवल श्रीपाद प्रभु के नाम स्मरण का ही
सहारा लिया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं इसके लिए भी योग्य नहीं हूँ.
‘मैं एक बड़ा ज्योतिषी हूँ, देवी शक्ति से संपन्न हूँ’, ऐसा प्रचार चल ही रहा था. परन्तु दिव्य, क्षण-क्षण लीलाविहारी श्रीपाद प्रभु के चरण कमल ही मुझे इस
संकट से उबारेंगे इस दृढ़ विश्वास के भरोसे मैं बैठा था. मुझे ‘सत्यं विधातुं निज भृत्यु
भाषितं’ इस नारद मुनि द्वारा श्री महाविष्णु को कहे गए वाक्य का स्मरण हो आया. नारायण
के भक्त जिन शब्दों का उच्चार करते हैं,
उन शब्दों को सत्य सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी नारायण प्रभु की ही होती है.
उस गाँव में शरभेश्वर शास्त्री नामक एक पंडित रहता था. वह बड़ा
भारी मन्त्र शास्त्रवेत्ता था. उस पर एक प्रेतात्मा का अनुग्रह था. इस बल पर वह
भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान का अचूक वर्णन करता
था. जिन किसानों ने मुझ पर शर्त लगाई थी,
वे शरभेश्वर शास्त्री के पास यह पूछने के लिए गए कि शर्त का क्या होगा? उस प्रेतात्मा ने बताया कि ब्राह्मण साहूकार का क़र्ज़ लौटा
नहीं पायेगा. इसके बाद तो शर्तों ने और जोर पकड़ लिया और सौ-सौ वराहों की शर्त लगी.
शर्त लगाने वाले इस बात को जानने के लिए अति उत्सुक थे कि शरभेश्वर शास्त्री बड़ा
है या शंकर भट्ट बड़ा है.
आखिरकार हमें पुरानी हवेली में ले जाकर न्यायालय ले जाने के
लिए तैयार किया गया. उस ब्राह्मण के मन में आशा जगाकर मैंने उसे निराश किया था,
धर्मगुप्त को भी अपने साथ संकट में डाला था. श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीला का गूढार्थ क्या होगा, यह मैं समझ नहीं पा रहा था. मैंने थोड़ी बहुत शिक्षा पाई
थी, परन्तु मेरे पास किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति
नहीं थी, ज्योतिष विद्या तो मुझे लेशमात्र भी नहीं आती थी. जप-तप, योगाभ्यास, नियम-निष्ठा आदि का तो बिलकुल भी
ज्ञान नहीं था. श्रीपाद प्रभु के चरित्र लेखन का संकल्प मैंने कुतूहलवश किया था, परन्तु इसके लिए आवश्यक योग्यता मेरे पास नहीं थी. “मेरी
इस आपदा से रक्षा करके मेरा उद्धार करें, बाकी सब आपकी इच्छा पर निर्भर है”
ऐसी आर्त-प्रार्थना मैंने श्रीपाद प्रभु के चरणों में की. अचानक न जाने कैसे
मुझमें विलक्षण धैर्य आ गया. जो होने वाला है, वह तो होगा ही, परन्तु श्रीपाद श्रीवल्लभ इस
विपत्ती से मेरी रक्षा करेंगे ऐसा दृढ़ विश्वास मन में उत्पन्न हो गया.
शरभेश्वर शास्त्री की एक बहिन थी. वह भी उसी गाँव में रहती थी. उसने एक दिन
प्रात:काल सपने में देखा कि उसे तेज़ बुखार चढ़ा है, उसके पति की मृत्यु हो गई है और वह विधवा हो गई है. उसने अपने भाई से इस
सपने का फल पूछा. शरभेश्वर ने अपने भीतर उपस्थित प्रेतात्मा से उस सपने के बारे
में पूछा. उस प्रेतात्मा ने कहा, कि इसके पति को परदेस
में जाते समय मार्ग में चोरों ने घेर लिया और उसका सारा धन लेकर उसे मार दिया.
यह सुनते ही वह जोर से विलाप करने लगी, अपने भाग्य को दोष देने लगी. तभी कुछ लोग उसके घर आये, उसे धीरज देने लगे और बोले कि अपने गाँव में
शंकर भट्ट नामक महापंडित आये हैं. उन्हें भूत एवँ भविष्य का ज्ञान है. श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु उनके आराध्य देव हैं. उनसे सत्यासत्य की जांच पड़ताल कर लो. यह सलाह उसे
लोगों ने दी. उसे ज्ञात न था कि उसके भाई से बड़ा कोई और पंडित भी है. उसके मन में
इच्छा हुई कि शंकर भट्ट से आशिर्वाद लिया जाए.
उसने हमारे घर आकर दीन वाणी से प्रार्थना की, “भैया! मेरे सुहाग की
रक्षा करो!” यह सुनकर मेरा कलेजा पानी
पानी हो गया. मुझे याद आया कि श्रीपाद प्रभु के पास से पंचदेव पहाड़ ग्राम के किसान
को विवाह समारंभ में अक्षता प्राप्त हुई थी. उनमें से थोड़ी सी मेरे पास बची है.
मुझमें एक दिव्य स्फूर्ति का प्रादुर्भाव हुआ. ये मंत्राक्षता साक्षात श्रीपाद
प्रभु के कर कमलों से प्राप्त हुई हैं, इनसे इसके सुहाग की
रक्षा निश्चित ही होगी, ऐसा दृढ़ विश्वास मन में जागा. मैंने उस स्त्री को बुलाकर
कहा, :बहन! ये मंत्राक्षता लो और अपने पूजा घर में
संभाल कर रखो. तुम्हारा पति कुछ ही दिनों में वापस आयेगा. यही सत्य है! त्रिवार
सत्य है!”
इस घटना की सूचना कुछ किसानों ने शरभेश्वर शास्त्री को दी. शरभेश्वर
शास्त्री को अपनी बहन पर बड़ा क्रोध आया.
“मेरा पति जब सकुशल वापस लौट आयेगा, तब मैं उस गरीब ब्राह्मण का कर्जा तो चुकाऊंगी ही, साथ ही शंकर भट्ट को गुरु मानकर श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु का नाम स्मरण तथा आराधना करूंगी,” ऐसा संकल्प उस स्त्री ने किया.
तीन दिन बीत गए. इन तीन दिनों में किसानों ने हमें सीधा-सामग्री लाकर दी. इन
किसानों ने ही मुझ पर शर्त लगाई थी, यदि मैं विजयी हुआ
तो उनकी भी जीत होगी और शर्त के पैसे उन्हें मिलने वाले थे.
चौथे दिन शरभेश्वर शास्त्री की बहन का पति देशाटन करके सकुशल घर वापस लौट
आया. उस ब्राह्मण स्त्री के आनंद की कोई सीमा ही नहीं थी. उस मंत्राक्षता के बल पर
ही उसके सुहाग की रक्षा हुई है, इसका उसे पूरा विश्वास
हो गया. उसके पति को मार्ग में चोरों ने मार डालने का प्रयत्न तो किया था, परन्तु एक यवन मल्ल ने उन चोरों को मार कर उस
ब्राह्मण की रक्षा की थी.
अहा! श्रीपाद प्रभु की महिमा अगाध है, अमोघ है. शरभेश्वर शास्त्री का अहंकार नष्ट हो गया. मेरा भविष्य सत्य सिद्ध
होने पर जिस घर में हम रुके थे, उसके मालिक का क़र्ज़
शरभेश्वर शास्त्री ने चुकाया और उन्होंने हमसे प्रार्थना की कि हम उनके घर
आदरातिथ्य स्वीकार करें. हम मान गए.
शरभेश्वर शास्त्री बोले, “बेटा! धूमावती देवी
दशमहाविद्या में से एक है. मैं उनका उपासक हूँ. वह बड़ी उग्र देवता है, परन्तु यदि
प्रसन्न हो जाए तो रोग, शोक आदि का नाश करती
हैं. कुपित होने पर सब सुखों का, सब कामनाओं का नाश
कर देती हैं. इन देवी की शरण में जाने से सभी विपत्तियों का नाश होकर सभी संपदाओं
की प्राप्ति होती है. यदि देवी क्रोधित हो जाए तो घर में उपवास, कलह, दारिद्र्य इत्यादि का आगमन होता है. मुझ पर धूमावती माता का अनुग्रह है.
टोना-टोटका आदि से त्रस्त जनों का उद्धार करने के लिए इस देवी की
उपासना अनिवार्य है. लोक कल्याण हेतु मैंने कुछ दिनों तक बिनामूल्य सेवा की.
परन्तु थोड़े दिनों में मेरे भीतर धन के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो गई और मैं अधिक धन
स्वीकार करने लगा. माता को यह बात अच्छी नहीं लगी. इसी समय मेरा एक बलशाली प्रेतात्मा
से संबंध स्थापित हो गया. उसकी सहायता से भूत, भविष्य, वर्त्तमान काल के बारे में कथन करने की शक्ति
मुझे प्राप्त हुई.
प्रेतात्मा की, पहले तो, उपासना करनी ही नहीं चाहिए, और यदि करो तो उसकी शक्ति के कारण प्राप्त धन
का उपयोग प्रजा की सेवा के लिए, गरीबों को दान देने
के लिए करना चाहिए. ऐसा करने से प्रेतात्मा हमेशा हमारे वश में रहती है. ऐसा न
करने से वह प्रेतात्मा गलत भविष्य बताती है और ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती है, कि उसके साधक का अपमान हो और वह निर्धन हो जाए.
इतना ही नहीं, उसके प्राण भी संकट में पड़ जाते हैं.
स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने से अपनी संचित पुण्य राशि नष्ट हो जाती है. तब वह
प्रेतात्मा साधक के सामने कष्टों के पहाड़ खड़े करती है. इससे बाहर निकलना आसान नहीं
होता.
मैंने अविवेकवश धनार्जन किया और हमेशा अपने ही स्वार्थ के बारे में सोचता
रहा. इसीलिये इस प्रेतात्मा ने गलत भविष्य बताकर मुझे संकट में डाल दिया और मेरा
अपमान भी हुआ. आज से आप ही मेरे गुरु हैं. कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में
स्वीकार करे, यह नम्र प्रार्थना है.” इस पर मैंने कहा, “बाबा! इस सृष्टि का, इस प्रपंच का
गुरुत्व करने का अधिकार केवल श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को ही है. उनके सिवा कोई अन्य
गुरु है ही नहीं. यदि मैंने अहंकारवश गुरुत्व स्वीकार कर लिया तो तुम्हारे अपमान
से भी ज़्यादा कुछ और मुझे भोगना पडेगा. हम जब कुरुगड्डी से निकल रहे थे, उस समय श्रीपाद
प्रभु ने दशमहाविद्याओं का संक्षिप्त वर्णन किया था. शेष भाग वह योग्य समय आने पर बताएंगे.
दशमहाविद्याओं में से काली के बारे में, धूमावती के बारे में उन्होंने हमें बताया ही
है.” “ बाबा! तुम मुझे गुरु न बनाओ! श्रीपाद
प्रभु के लिए भक्तों को संकट में डालना और फिर उनसे मुक्त कराना एक चमत्कार के समान
ही है. सदा सर्वदा श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करना ही इह तथा परलोक का साधन है.”
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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