गुरुवार, 7 जुलाई 2022

अध्याय - ३१

 

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये ।।


अध्याय – ३१

दशमहाविद्याओं का वर्णन

 

हम रोज़ शाम को श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार कृष्णा के दूसरे किनारे पर जाकर रात भर वहीं रहते थे. प्रातःकाल स्नान-संध्या समाप्त करके पुनः श्रीगुरु के सान्निध्य में जाते. इस अलभ्य सत्संग में श्री प्रभु के प्रसाद रूपी दर्शन, नित्य नूतन योगानुभव एवँ अनेक दिव्य रहस्यों के भेद ज्ञात होते थे. देवी तत्व की उपासना दशमहाविद्या रूप से ही होती है. ऐसा हमने सूना था, अतः हमने “श्री” के चरणों में नम्र प्रार्थना की कि इन दशमहाविद्या रूपों की संपूर्ण जानकारी हमें बताएँ.

श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे, शंकर भट्ट, श्री विद्या की उपासना अत्यंत श्रेष्ठ है. प्राचीन काल में हयग्रीव के कृपा प्रसाद से ही अगस्त्य महामुनि को श्री विद्या के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ. उन्होंने यह विद्या अपनी पत्नी लोपामुद्रा को दी. लोपामुद्रा देवी ने इस महाविद्या का गहन अध्ययन करके उसका गूढार्थ अगस्त्य ऋषि को समझाया. इस प्रकार वे दोनों एक दूसरे के गुरु हुए.”

 

लोपामुद्रा एवँ अगस्त्य ऋषि के चरित्र.

 

“विदर्भ देश के राजा को कई वर्षों तक संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी. अगस्त्य महामुनि के तपोबल से राजा को एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई. उस कन्या का नाम रखा गया लोपामुद्रा. जब लोपामुद्रा समयानुसार युवावस्था को प्राप्त हुई तो अगस्त्य मुनि ने उससे विवाह करने की इच्छा दर्शाई. दोनों की आयु के अंतर को देखकर राजा विचार मग्न हो गया. इतनी छोटी कन्या का विवाह वृद्ध महामुनि से किस प्रकार करूँ, यही चिंता उसे सता रही थी. अंत में उसने अपनी कन्या से ही इस विवाह के विषय में अपने विचार प्रकट करने को कहा, तब क्षण भर का भी विलम्ब किये बिना वह बोली, “पिताश्री, मेरा जन्म अगस्त्य मुनि के लिए ही हुआ है. मैं उन्हींसे विवाह करूंगी.” राजा ने दोनों का विवाह कर दिया. राजकन्या लोपामुद्रा राजमहल छोड़कर वल्कल परिधान करके अगस्त्य मुनि के साथ तपोभूमि को चली गई. कालान्तर में अगस्त्य ऋषि ने उससे शास्त्रयुक्त संग करने की इच्छा व्यक्त की. इस पर लोपामुद्रा ने मुनि से कहा, “नाथ, मैं ललिता स्वरूप की उपासना करके ललिता स्वरूप ही हो चुकी हूँ. आप भी शिवोपासना करके जब शिवरूप हो जायेंगे, तब मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगी. अगस्त्य मुनि ने घोर तपस्या करके शिवरूप प्राप्त कर लिया. फिर उन्होंने अपनी इच्छा लोपामुद्रा के सम्मुख व्यक्त की. इस पर वह बोली, “नाथ, मैंने एक राजकुल में जन्म लिया है. क्षत्रियोचित धन, आभूषण, रेशमी वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, उपभोग की समस्त वस्तुओं के बिना मुझसे संग करना योग्य नहीं है. अतः आप इन सब वस्तुओं का संग्रह करें, साथ ही स्वयँ के लिए भी ज़री के वस्त्र लाएं. यह सब भोग सामग्री लाने के पश्चात ही आपकी इच्छा पूर्ण होगी. अगस्त्य मुनि धन संपादन करने के इरादे से इलवल नामक एक राक्षस के पास गए. अपनी माया से उसे अपना बनाकर उससे धन, आभूषण, वस्त्र आदि लेकर लोपामुद्रा के पास आए और उन्होंने पत्नी की इच्छा पूरी की. यथावकाश उन्हें उत्तम संतान की प्राप्ति हुई. एक बार अगस्त्य ऋषि ने अपने तपोबल से समूचे सागर को ही अपने कमण्डलु में भर लिया था, और उसे पी गए थे. अगस्त्य महर्षि ने विन्ध्याचल पर्वत का गर्व हरण किया था. आज भी दक्षिण भारत में अगस्त्य मुनि को एक महान सिद्ध पुरुष माना जाता है. अनेक स्थानों पर उनके मंदिर हैं.” श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “जब मैं कल्कि अवतार धारण करूंगा तब अगस्त्य ऋषि को परशुराम जैसा गुरुस्थान प्रदान करूंगा.”

 

देवी की दशमहाविद्या

श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “ ‘काली’ दशमहाविद्याओं में प्रथम रूप है. ‘महाकाली समस्त विद्याओं की आदि देवता है. उसकी विद्यामय विभूति को ही महाविद्या कहते हैं. किसी समय हिमालय पर मातंग ऋषि के आश्रम में सब देवताओं ने महामाया की स्तुति की. उस समय अम्बिका ने ‘मतंग वनिता के रूप में उन्हें दर्शन दिए. वह काजल के समान काले रंग की होने के कारण उसका नाम कालिका देवी पडा. उसने शुंभ-निशुंभ राक्षसों का वध किया. उसका रूप काला-नीला होने के कारण उसे तारा देवी के नाम से भी जाना जाता है. कोई भी संकल्प अथवा फलीभूत न हुई योगसाधना अल्पकाल में ही गंतव्य स्थल तक पहुंचे इसलिए काली माता की उपासना की जाती है. इस साधना काल में काली माता के साधक के शरीर में भयंकर दाह होता है, जिसे साधक को सहन करना पड़ता है.

दशमहाविद्या में दूसरा रूप तारा देवी का है. यह माता मोक्ष दायिनी, सब दुःखों से तारने वाली है, इसलिए वह ‘तारा’ नाम से प्रख्यात हुई. इस देवी को ‘नील सरस्वती भी कहते हैं. भयानक विपत्ती में भक्त की रक्षा करने वाली होने के कारण योगीजन ‘उग्रतारा रूप में इसकी आराधना करते हैं. वशिष्ठ महामुनि ने भी तारा देवी की आराधना की थी. चैत्र शुद्ध नवमी की रात को ‘तारा रात्रि कहते हैं.

दशमहाविद्या का तीसरा रूप है ‘छिन्नमस्ता देवी. छिन्नमस्ता देवी का यह रूप अत्यंत गोपनीय है. एक बार देवी अपनी दो सखियों सहित मंदाकिनी नदी पर स्नान के लिए गई थी. जब द्वारपालों ने उससे भोजन के विषय में पूछा, तब उसने अपनी तलवार से अपना ही शिरच्छेद कर दिया. उसका सिर वाम हस्त पर आकर गिरा. उसके धड़ से निकली रक्त की दो धाराओं का सखियों ने प्राशन किया और तीसरी धार देवी ने स्वयँ ही प्राशन की. तब से उसका नाम ‘छिन्नमस्ता देवी पडा. हिरण्यकश्यपु आदि दानव इसी देवी के उपासक थे.

दशमहाविद्या में चौथा रूप ‘षोडशीमहेश्वरी’ का है. इस देवी का स्वरूप मक्खन की भाँति मुलायम है और वह अत्यंत दयावती है. इनके आश्रय में आये हुए साधकों को त्वरित ज्ञान प्राप्ति होती है. विश्व के सभी मन्त्र तंत्रों के निर्माता इस देवी के उपासक हैं. इस ‘षोडशीमहेश्वरी देवी का वर्णन वेद तथा श्रुति भी नहीं कर सके, वे ‘नेति नेति कहकर शांत हो गए. यह प्रसन्नवदना माता भक्तों के सकल मनोरथ पूर्ण करती है. इस भगवती की उपासना से भोग एवँ मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है.

दशमहाविद्या में पाँचवां रूप ‘भुवनेश्वरी देवी का है. सप्त कोटि महामंत्र इस देवी के उपासक हैं. इस देवी की काली तत्व से लेकर कमला तत्व तक दस अवस्थाएं होती हैं. इनमें से अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती है. प्रलय काल में कमल से, अर्थात् व्यक्त जगत से क्रमशः लय होते हुए काली के मूल स्वरूप में परिवर्तित होती है. इसलिए इस देवी को काल की जन्मदात्री भी कहते हैं.

दशमहाविद्या में छठा रूप ‘त्रिपुर भैरवी का है. महाकाल को शांत करने में समर्थ इस शक्ति रूप को ही त्रिपुर भैरवी कहते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपुर भैरवी नरसिंह भगवान की अभिन्न शक्ति हैं. सृष्टि में परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. इस प्रक्रिया के मूल कारण स्वरूप हैं आकर्षण और विकर्षण. यह प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया है. इस त्रिपुर भैरवी का रात्रि का नाम काल-रात्रि तथा भैरव का नाम काल-भैरव है. इन दोनों के संयुक्त स्वरूप से ही मेरा आगामी नृसिंह सरस्वती का अवतार होने वाला है. यह अवतार महायोगियों के लिए त्रिपुर भैरवी एवँ काल भैरवनाथ अवतार माना जाएगा.

दशमहाविद्या का सातवाँ अवतार धूमावती है. यह धूमावती उग्रतारा ही है. इस देवी की शरण में जाने वाले साधकों के सारे संकट नष्ट होकर उसकी कृपा से सकल संपदा प्राप्त होगी.

दशमहाविद्या का आठवां रूप ‘बगुलामुखी देवी का है. ऐहिक, पारलौकिक, देश, समाज का अरिष्ट निवारण करने के लिए, साथ ही शत्रु के शमन के लिए इस देवी की आराधना की जाती है. विष्णु भगवान, परशुराम इस देवी के भक्त थे. श्री तिरुमला क्षेत्र के श्री वेंकटेश्वर स्वामी ने इस देवी की माता स्वरूप में आराधना की थी.

दशमहाविद्या का नवम् रूप ‘मातंगी माता’ का है. मानव के गृहस्थ जीवन को सुखी बनाकर पुरुषार्थ को सिद्ध करने की शक्ति मातंगी माता में ही है. इस देवी को मातंग ऋषि की कन्या भी मानते हैं.

दशमहाविद्या का दसवां रूप ‘कमलालया माता का है. यह सुख एवँ समृद्धि प्रदान करने वाली देवता है. भार्गव मुनि ने इस देवी की आराधना की थी इसलिए इसे भार्गवी भी कहते हैं. इस देवी की कृपा से पृथ्वी के पतित्व एवँ पुरुषोत्तमत्व का लाभ होता है. यही देवी तिरुमला क्षेत्र में श्री वेंकटेश्वर स्वामी के साथ पद्मावती के रूप में निवास करती है.”

श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “दशमहाविद्या स्वरूपिणी अनघा देवी तथा उनके प्रभु अनघ (अर्थात् साक्षात श्री दत्त प्रभु) की अर्चना करने से अष्टसिद्धि की प्राप्ति होती है. प्रत्येक मास की कृष्ण अष्टमी को अनघाष्टमी मानकर अनघा माता की पूजा-अर्चना करें. इस आराधना से तुम्हारी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी.”

प्रभु ने आगे कहा, “अरे, शंकर भट्ट! तेरे द्वारा रचित इस श्रीपाद श्रीवल्लभामृत का पारायण करके, इसके पश्चात आने वाली शुक्ल अथवा कृष्ण अष्टमी को “अनघाष्टमी” का व्रत करके ग्यारह गृहस्थों को भोजन करावें, अथवा इस हेतु आवश्यक शिधा-सामग्री का दान करें. इस प्रकार के पारायण से तथा अन्नदान से इच्छित फल की प्राप्ति निश्चित रूप से होती है.”

 

चरित्रामृत के पारायण की महिमा

श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “श्री चरित्रामृत को केवल एक ग्रन्थ ही न समझें. यह एक सजीव महाचैतन्य का प्रवाह है. जब तुम इसका पठन करते हो, तब इसके प्रत्येक अक्षर की शक्ति मेरे चैतन्य में प्रवाहित होती है. अनजाने ही तुम्हारा मुझसे संबंध स्थापित हो जाता है. इससे तुम्हारी सभी धर्मबद्ध इच्छाएँ मेरी कृपा से पूर्ण होती हैं. इस ग्रंथराज को तुम्हारे पूजा घर में सिर्फ रखने मात्र से इसमें से शुभप्रद स्पंदन निकलते हैं. ये स्पंदन दुष्ट शक्तियों को, दुर्दैवी शक्तियों को भगा देते हैं.”

“श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत की जानबूझ कर अथवा अनजाने में निंदा करने से निंदक का पूर्व पुण्यफल धर्म देवता ले लेती है, और किसी योग्य प्राणी को बांट देती है. इस प्रकार श्रद्धावान गरीब भक्त भाग्यवंत हो जाता है और अश्रद्धावान व्यक्ति गरीब हो जाता है. यह अक्षरसत्य ग्रन्थ है. यह ग्रन्थ स्वयं ही अपना प्रमाण है. जिज्ञासू व्यक्ति इसकी परिक्षा ले सकते हैं. मन में कोई इच्छा धारण करके भी ग्रन्थ का पारायण कर सकते हैं. अपना जीवन शुद्ध करने के लिए अत्यंत श्रद्धा एवँ भक्ति पूर्वक इस ग्रन्थ का पठान करना चाहिए.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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