।। श्रीपाद राजन शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – २८
श्रीपाद प्रभु श्री वेंकटेश्वर स्वामी हैं.
विष्णु-महाविष्णु, लक्ष्मी- महालक्ष्मी, सरस्वती- महासरस्वती, काली- महाकाली
इनके स्वरूप का वर्णन
वह शुक्रवार का शुभ दिन
था और वासवी कन्यका देवी के जयन्ती उत्सव का मंगलमय पर्व था. प्रातःकाल की बेला
में श्रीपाद प्रभु कृष्णा के जल पर चलकर दूसरे किनारे पर पहुंचे, हम नाव में बैठकर दूसरे किनारे पर गए. उस समय
सुबह के सात बजे थे. तिरुमला क्षेत्र में श्री वेंकटेश्वर स्वामी की श्री लक्ष्मी
स्थान पर पूजा अर्चना स्वीकार करने की मंगल बेला थी.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
उस खेत के मालिक द्वारा कल बनाई गई गौशाला में आकर ध्यानस्थ हो गए. तभी हम भी
गौशाला पहुंचे. पंचदेव पहाड़ के परिसर में श्रीपाद प्रभु के सत्संग आरंभ करने का यह
मंगल समय था. अचानक एक आश्चर्यजनक बात हुई! श्रीपाद प्रभु की देह अकस्मात्
तेजःपुंज होने लगी. वह महातेज धीरे-धीरे चारों दिशाओं में व्याप्त होने लगा. उस
समय श्रीपाद प्रभु एक अत्यंत तेजस्वी मूर्ती की भाँति प्रतीत हो रहे थे. थोड़ी देर
में प्रभु गौशाला से बाहर आये. आम तौर से साधारण मानव की भाँति उनके शरीर की छाया
भूमि पर पड़ती थी, परन्तु आज आश्चर्य की बात यह हुई कि उनकी छाया भूमि पर नहीं पड़ रही थी.
चलते समय उनके पद चिह्न मिट्टी में दिखाई देते थे, परन्तु आज एक भी पद चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था.
उन्होंने तीक्ष्ण दृष्टि से सूर्य की और देखा. उनका शरीर दिव्य तेज से भरकर
प्रतिक्षण वृद्धिंगत हो रहा था. थोड़ी ही देर में हमारी आंखों के सामने ही श्रीपाद
प्रभु का विशाल तेजोमय रूप सूर्य में विलीन हो गया. उस सूर्य बिंब में हमें एक
दिव्य शिशु के दर्शन हुए. वह शिशु तेज़ी से पृथ्वी पर आ रहा था. उस शिशु के चरण
जैसे ही भूमि पर पड़े, हमारी आंखों के सामने से सब कुछ ओझल हो गया. श्रीपाद प्रभु मंद-मंद
मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने फिर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि से सूर्य की और देखा और हमें
दुबारा सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा. उन्होंने हमें भी सूर्य की ओर देखने का आदेश
दिया. हमें उस लाल-लाल सूर्य बिंब में एक अत्यंत सुन्दर, दिव्य तेजमूर्ती बालिका
के दर्शन हुए. वह बालिका हास्य वदन से भूमि की और आ रही थी. उसके चरणों के भूमि पर
पडते ही हमारी आँखों को पुनः कुछ भी दिखाई न दिया. हम आश्चर्य चकित होकर चारों और
देखने लगे. उस प्यारी बालिका ने हमारी ओर देखा और मंद-मंद मुस्कुराई. तब हमें
दुबारा सब कुछ दिखाई देने लगा. श्रीपाद प्रभु ने उस बालिका को अत्यंत प्रेम से,
आदरपूर्वक उठा लिया. उस समय श्रीपाद प्रभु की आयु सोलह वर्ष की थी, और उनके समान दिखाई देने
वाली उस कन्या की आयु तीन वर्ष की प्रतीत हो रही थी. उसने शरीर पर जरी के वस्त्र
परिधान किये थे. वह दिव्य आभूषण भी पहने थी. श्रीपाद प्रभु उस बालिका के साथ उस
गौशाला में गए.
मैं और धर्मगुप्त इस
अद्भुत् दृष्य को अत्यंत भय, आश्चर्य एवँ संभ्रम से देखा रहे थे, मेरे मन में शंका उठी कि कहीं यह सब इंद्रजाल तो
नहीं?
मेरे ह्रदय की भावनाएँ
जानकर श्रीपाद प्रभु बोले, “अरे, शंकर भट्ट! यह कोई इंद्रजाल नहीं, यह मेरा स्वभाव ही है, यह मेरी दिव्य प्रकृति ही है. मेरे संकल्प से ही “पृथ्वी” एवँ “आकाश” बनते
हैं. मेरे संकल्पानुसार ही ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं. इस समय
भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों का निर्माण होता है, अदृष्य रूप वाली प्राकृतिक शक्ति
साकार हो जाती है. सगुण रूपी सृष्टि व्यक्ति रूप में साकार हो जाती है. मैं ब्रह्म
स्वरूप ही हूँ, अर्थात् ब्रह्म की प्रेरणा ही हूँ. इस सृष्टि में प्राणियों का पालन-पोषण
करना विष्णु स्वरूप का कार्य है. उस विष्णु को प्रेरणा देने वाला महाविष्णु मैं ही
हूँ. सरस्वती तथा महासरस्वती दोनों अलग-अलग हैं. सरस्वती इस सृष्टि की ज्ञान देवता
है. इस ज्ञान देवता स्वरूप सरस्वती को प्रेरणा देने वाली देवता है “महासरस्वती” जो
अनघा स्वरूप ही है. सृष्टि की स्थिति, कारण, वस्तुओं की समृद्धि, धन समृद्धि – यह सब लक्ष्मी माता का ही स्वरूप है.
महालक्ष्मी देवता अनघा स्वरूप ही है, जो लक्ष्मी स्वरूप को प्रेरणा एवँ शक्ति देती है. सृष्टि का शक्ति स्वरूप
कालिका देवी ही है, “महाकाली” काली स्वरूप की प्रेरणा है. यह शक्ति
स्वरूप करने वाला अनघा स्वरूप ही है.
अनघालक्ष्मी का स्वरूप
अनघा लक्ष्मी का अनघ – अर्थात् मेरा दत्त स्वरूप है. महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली इन तीनों का एक संयुक्त –
एक विशेष दिव्य मातृत्व स्वरूप ही अनघा लक्ष्मी का आविर्भाव है. इसी कारण से अनघा
लक्ष्मी महालक्ष्मी, महाकाली और
महासरस्वती, तीनों के संयुक्त रूप की तादात्म्य स्थिति का
स्वरूप है. अनघा लक्ष्मी एक अलौकिक दिव्य शक्ति है जो इन तीनों देवताओं का आधार
है. मेरे अनघ स्वरूप से तात्पर्य है ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र के एकत्र होकर तादात्म्य स्थिति को धारण करके, इन तीनों का आधार – अर्थात् त्रिशक्ति रूपिणी
अनघा देवी को मेरे वाम भाग में स्थापित किया हुआ मेरा शक्ति-स्वरूप. यह ध्यान में
रखना.
त्रेता युग में किये गए “सवित्र काठ चयन” यज्ञ के फलस्वरूप ही मेरे भव्य, दिव्य, “अर्धनारीश्वर” स्वरूप
को आधार बनाकर ही पीठिकापुरम् में मेरा श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में आविर्भाव हुआ.
इस समय जो तुम देख रहे हो, वह स्वरूप वास्तव
में महालक्ष्मी - महाविष्णु का ही स्वरूप है. महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती – इन तीनों का चैतन्य पद्मावती देवी में समाया हुआ है. मगर उसका
स्वरूप महालक्ष्मी का ही है, जबकि उसमें तीनों की शक्ति सम्मिलित है. इस प्रकार
पद्मावती देवी तीनों शक्तियों का आधार, अतीत ऐसा पराशक्ति
स्वरूप ही है. श्री वेंकटेश्वर के रूप से तात्पर्य है – बृहदाकार ब्रह्मा को, विराट रूपी विष्णु को, प्रलय काल रूद्र को
अर्थात् महाकाल को अपने दिव्य चैतन्य में धारण करके, उनका आधार एवँ उनके लिए अतीत ऐसा परब्रह्म का स्वरूप. श्रीपाद श्रीवल्लभ –
अर्थात् मायारूपी श्री पद्मावती वेंकटेश्वर ही अर्धनारी स्वरूप में हैं, यह जान लो.”
श्रीपाद प्रभु की ये बातें सुनकर मैंने कहा, “ गुरु सार्वभौम की
जय जयकार हो. आप कभी कहते हैं कि मैं पद्मावती वेंकटेश हूँ. थोड़ी देर बाद कहते हैं
कि मैं अनघालक्ष्मी सहित अनघ हूँ. मेरी मंद बुद्धि को इसका बोध नहीं हो रहा है.
कृपया मेरा उद्धार करें.”
तब दीनों के नाथ सदगुरु श्रीपाद प्रभु बोले, “महालक्ष्मी तथा
पद्मावती ये दोनों मूलतः एक ही तत्व की हैं. वह जब महालक्ष्मी तत्व को स्वीकारती
हैं, तब मेरे विष्णु तत्व का प्रादुर्भाव होता है, जब वह पद्मावती तत्व का स्वीकार करती हैं, तब
मेरे भीतर से उसके प्रभु वेंकटेश्वर तत्व का आविर्भाव होता है. जब-जब जिस सगुण साकार
तत्व का आविर्भाव होता है, तब-तब उस तत्व की
मर्यादा का, उसके आचार आदि का अचूक पालन करना होता है. मेरी
यह दिव्य भगिनी, यह महाशक्ति कृष्णावतार के समय योगमाया के रूप में अवतरित हुई थी. फिर वह अपना
कार्य समाप्त करके अंतरिक्ष में लुप्त हो गई. आज वही श्रेष्ठ, तपः संपन्न योगी, मुनि, महर्षि आदि की घोर तपस्या के परिणाम स्वरूप ही
वासवी कन्यका के रूप में प्रकट हुई है. किसी विशेष कारण से ही मुझे पीठिकापुरम् में
अवतार लेना पड़ा है. जो दृष्टी के सामने दिखाई देता है, उसे देखते रहो. तुम्हें समझ में आ ही गया होगा कि मेरा अवतार तत्व दिव्य, विनोदी लीलाएँ करने के लिए ही हुआ है.”
श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “अरे, शंकर भट्ट, इस पंचदेव पहाड़ पर घटित लीलाओं का, यहाँ देखे गए दृश्यों का वर्णन बिल्कुल वैसे ही
करना, जैसे देखा है. यह वर्णन भविष्य के भक्तजनों के
लिए स्फूर्तिदायक होगा. उनकी नाना शंका-कुशंकाओं को इससे समाधान हो जाएगा. साधकों
के लिए इस ग्रन्थ एवँ लीला प्रसंगों से भक्तिमार्ग सुलभ हो जाएगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु की दिव्य वाणी ने विश्राम किया. हम आश्चर्य चकित
देख ही रहे थे, तभी श्रीपाद प्रभु का स्वरूप दिव्य तेज से
दमकने लगा और उसमें से श्री पद्मावती देवी का तथा श्री वेंकटेश्वर स्वामी का
आविर्भाव हुआ.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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