सोमवार, 25 जुलाई 2022

अध्याय - ४०

 

 

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ४०.


भास्कर शास्त्री, शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त के अनुभव


हम अनेक प्रकार के वाहनों से यात्रा कर रहे थे. कभी पैदल, कभी दो बैलों वाली गाडी से या कभी घोड़ा-गाडी से. हमारी यात्रा जारी थी. इस तरह से यात्रा करते हुए हम त्रिपुरान्तक क्षेत्र पहुंचे. वहाँ त्रिपुरान्तकेश्वर के दर्शन किये. इस स्थान पर हमें अनेक दिव्य अनुभव प्राप्त हुए. हमारे पास श्रीपाद प्रभु की दिव्य पादुकाएं थीं. हमें ऐसा प्रतीत होता कि हमारे साथ-साथ श्रीचरण भी चल रहे हैं. मानो हमारे पैर जब आगे बढ़ते तो उनमें श्रीचरण ही प्रवेश करके उन्हें आगे बढाते. हम जब बातें भी करते, तो समझ नहीं पाते थे कि क्या कह रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता मानो श्रीपाद प्रभु ही हमारे माध्यम से बोल रहे हों. हम भोजन करते, तो मानो वे हमारे मुख के माध्यम से स्वयँ भोजन करते. ऐसा अनुभव हो रहा था मानो हमारे शरीर के मांस, रक्त, नाड़ियों में श्रीपाद प्रभु ही प्रविष्ट हो गए हैं. शास्त्रों के कथन, “जीवात्मा ही परमात्मा है”, को हमने सुना तो था, मगर आज यह अनुभव हो रहा था कि श्रीपाद प्रभु के स्पर्श के बिना ही, उनका चैतन्य हमारे समूचे शरीर में व्याप्त हो गया है. इस प्रकार की लीला हमने पहले कभी न तो देखी थी, न ही उसके बारे में कभी सुना था.

श्री त्रिपुरान्तकेश्वर के अर्चक स्वामी का नाम था भास्कर शास्त्री. उन्हें हम पर बहुत गर्व था. वे पीठिकापुरम् में वास कर चुके थे. अर्चना करने के लिए उनकी नियुक्ति हुई थी. वे षोडशी राजराजेश्वरी देवी के भक्त थे. श्री पीठिकापुर निवासिनी कुक्कुटेश्वर महाप्रभु की स्वामिनी श्री राजराजेश्वरी देवी ने उन्हें स्वप्न में मन्त्र दीक्षा दी थी. उन्होंने हमसे विनती की, कि हम उनके घर में आतिथ्य स्वीकार करें. उन्हें ज्ञात था कि हमारे पास श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाएं हैं, हमने वे चरण पादुकाएं उनके पूजा-मंदिर में रखी थीं. उन चरण पादुकाओं से प्रभु की दिव्य वाणी सुनाई दी. प्रभु ने कहा, “बच्चों, तुम कितने धन्य हो. इन चरण पादुकाओं की भास्कर शास्त्री पूजा किया करते थे. ये पादुकाएँ वर्त्तमान में ताम्र रूप में हैं. भास्कर शास्त्री की मंत्रोपासना के बल पर कुछ सालों में वे सुवर्ण रूप में परिवर्तित हो जायेंगी. हिरण्य लोक के कुछ महापुरुषों ने इन चरण पादुकाओं को हिरण्यलोक ले जाकर उनकी अर्चना एवँ अभिषेक किया था. इसके पश्चात ये पादुकाएँ कारण लोक में विद्यमान मेरे पास लाई गईं. इन पादुकाओं को पहन कर मैं कारण लोक में आकर यहाँ की दिव्य आत्माओं को आशीर्वाद देता हूँ. इसके बाद हिरण्यलोक जाकर वहाँ के महापुरुषों को आशीर्वाद देता हूँ. उस समय मेरी पादुकाओं को तेजोमय सिद्धि प्राप्त होती है. भविष्य में इन चरण पादुकाओं को अठारह हज़ार महासिद्ध पुरुष स्वर्ण विमान में ले जायेंगे और पीठिकापुरम् में मेरे जन्म स्थान पर समन्त्र पूजा-अर्चना करके ज़मीन के नीचे तीन सौ फुट की गहराई पर इनकी प्रतिष्ठापना करेंगे. वहाँ स्वर्णमय कान्तियुक्त दिव्य नाग प्रतिदिन मेरी अर्चना करेंगे. उनके साथ चौंसठ हज़ार योगिनी होंगी.  चरण पादुकाओं को स्वर्ण सिंहासन पर रखा जाएगा. वहाँ मैं ऋषि समुदाय और योगिनियों के साथ दरबार भर कर सबको सत्संग का लाभ दूँगा. इस भूमि से संलग्न, परन्तु अदृश्य एवँ अगोचर एक और स्वर्ण पीठिकापुरम् है. उसका अनुभव केवल योगदृष्टि वाले भक्तों को ही होता है. मेरी सुवर्ण पादुकाओं की प्रतिष्ठा जिस स्थान पर होगी, उसी स्थान पर पीठिकापुरम् की स्थापना होगी. अतः तुम सब लोग अत्यंत प्रसन्न चित्त होकर रहो, भविष्य में अनेक विचित्र घटनाएं होने वाली है. मेरे महासंस्थान में मेरी चरण पादुकाओं के दर्शन के लिए भक्तों की चींटियों जैसी कतार लगेगी.”

यह देव वाणी सुनकर हम अत्यंत आश्चर्यचकित हो गए. शरीर पर रोमांच उठ आये, नेत्रों से अश्रु बहने लगे. पता ही नहीं चला कि हम ऐसी स्थिति में कितनी देर तक थे. श्री भास्कर शास्त्री षोडशी राजराजेश्वरी के परम श्रेष्ठ भक्त थे. मैंने उनसे प्रार्थना की कि राज राजेश्वरी देवी के वैभव के बारे में वर्णन करें.

 

श्री राज राजेश्वरी देवी विवेक की खान है

 

श्री भास्कर शास्त्री बोले, “ बंधुओं, श्री राजराजेश्वरी देवी के चैतन्य का विचार करने वाला तुम्हारा मन विशाल सीमा पार करके जाने वाला है. राजराजेश्वरी के शुद्ध आचरण से तुम्हारे सर्व साधारण मन, मेधा व शक्ति में परिवर्तन होगा. तुम्हारी बुद्धि विवेकपूर्ण बनाने के लिए वह महामाता तुम्हारी सहायता करेगी. संकुचित वृत्ति का निर्मूलन करके तुम्हें विशाल दृष्टी प्रदान करेगी.

आम तौर से किसी व्यक्ति में शक्ति एवँ विवेक दोनों एक साथ नहीं दिखाई देते. परन्तु राजराजेश्वरी देवी के अनुग्रह से शक्ति एवँ विवेक दोनों ही एक ही व्यक्ति में स्थिर हो जाते हैं. दिव्य चैतन्य अनेक रूपों में विद्यमान है - इन रूपों को समझने की शक्ति हमें राजराजेश्वरी देवी से प्राप्त होती है. विश्व में उदात्त भावों की वृद्धि करने में श्री राजराजेश्वरी मुक्त हस्त से सहायता देती हैं. अत्यंत अद्भुत दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हेतु, शाश्वत दिव्य मातृशक्ति की प्राप्ति हेतु, विश्व के महान कार्यों की सफलता हेतु माता का अनुग्रह अत्यंत आवश्यक है. श्री राजराजेश्वरी देवी अनंत विवेक की खान हैं. यदि वे किसी बात को जानने का संकल्प करें, तो उसे जान लेती है. इस विश्व में ऐसी कोई चीज़ नहीं, जो उनके लिए अगम्य हो. सभी विषय, सभी जीव, उनके स्वभाव, उन्हें गतिमान करने की सामर्थ्य; इस विश्व का प्रत्येक धर्म, उससे संबंधित योग्य काल – ये सभी राजराजेश्वरी देवी के आधीन हैं. माता में पक्षपाती दृष्टि नहीं है. उन्हें न तो किसी के प्रति अभिमान या न ही किसी के प्रति द्वेष है. जो भक्त साधना के बल पर माता के दर्शन की अभिलाषा करते हैं, उन्हें विश्वासपात्र समझ कर वे अपने अन्तरंग में स्वीकार करती हैं. साधक राजराजेश्वरी देवी की शक्ति में वृद्धि करके, अपने विवेक बल से विरोधी शक्तियों का निर्मूलन कर सकते हैं. माता अपने भक्तों को इच्छित फल की प्राप्ति करवाती है. श्री राजराजेश्वरी देवी विश्व में किसी के भी साथ कोई अनुबंध रखे बगैर अर्थात, असंगत्व की भावना से अपना कार्य करती रहती हैं. माता अपने प्रत्येक साधक से उसके स्वभाव के, उसकी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार करती हैं. वह किसी पर भी बलपूर्वक शासन नहीं करतीं. साधना पूरी होने के पश्चात वह अपने भक्तों को उनकी योग्यतानुसार प्रगति पथ पर अग्रसर करती हैं. अज्ञानियों को उनके अज्ञान मार्ग पर जाने देती हैं. उस मार्ग से जानेवाले भक्तों का पालन-पोषण करके उनके अपराधों को क्षमा करती हैं. वे चाहे अच्छा व्यवहार करें या बुरा, वह उस पर ध्यान नहीं देतीं. माता की करुणा अनंत है. वह इस संसार रूपी सागर से तारने वाली हैं. उनकी दृष्टि में समूचे संसार के सभी मानव उनकी संतान के समान हैं. राक्षस, असुर, पिशाच सभी को वह अपनी संतति की भाँति देखती हैं. चाहे उनके मन में कितनी ही दया उत्पन्न हो, परन्तु उनका विवेक सदा जागृत रहता है. परमात्मा द्वारा निर्देशित मार्ग वह किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़तीं. उसकी शक्ति का ज्ञान केंद्र वे स्वयँ ही हैं. इसलिए उनका अनुग्रह प्राप्त करने पर हमें “सत्यज्ञान बोध” होता है. यदि राजराजेश्वरी देवी की शक्ति प्राप्त करनी हो तो हमें कर्तव्य दक्षता, सत्य शोधन आदि गुणों का पालन करना चाहिए.

मैंने पीठिकापुरम् में वास किया था, इसलिए मैं श्रीपाद प्रभु की कृपा का पात्र बन सका. इन्हीं के कृपा प्रसाद के कारण मेरी राजराजेश्वरी देवी की दीक्षा फलीभूत हुई. आज मेरा दीक्षा दिन है. अपनी प्रगति की जांच का दिन. साथ ही अधिक समय तक ध्यान करने का दिन. श्रीपाद प्रभु किस परिस्थिति में  पीठिकापुरम् से निकल कर संचार करने के लिए निकलेंगे, यह मैं आपको कल बताऊँगा.. आपके यहाँ आने से पहले मैंने श्रीपाद प्रभु को जो प्रसाद अर्पण किया था, उसमें से थोड़ा सा भी यदि ग्रहण करोगे तो आप भी धन्य हो जाओगे.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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