।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३५
उग्र तारा देवी का वर्णन
तारा देवी के उपासकों के दुष्कर्मों की श्रीपाद प्रभु
द्वारा सज़ा एवँ
करुणा कटाक्ष
शरभेश्वर शास्त्री की आज्ञा लेकर हमने आगे की यात्रा आरम्भ की. श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु का नाम स्मरण करते हुए हम चले जा रहे थे. थोड़ी दूर जाने पर हमें
एक आश्रम दिखाई दिया. उस आश्रम में एक सिद्ध महर्षि रहते थे. वे पूर्णतः वैरागी
थे. उन्होंने कौपीन धारण की थी. दो शिष्य आश्रम के द्वार पर खड़े थे. हमें देखते ही
उन्होंने पूछा, “क्या आप ही शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त हैं?” हमने उत्तर दिया, “हाँ, हम ही हैं.” वे
हमें अन्दर ले गए. वहाँ तारा देवी की मूर्ति थी. वे सिद्ध महर्षि तारा देवी के
उपासक थे, ऐसा ज्ञात हुआ. मध्याह्न समय हो चुका था. पूजा
के उपरांत भजन प्रारम्भ हुआ, तत्पश्चात भोजन दिया
गया.
सिद्ध बोले, “आपके आने की पूर्व सूचना श्रीपाद प्रभु ने पहले ही दी थी. श्रीपाद प्रभु के
आदेश से ही आपका आदरातिथ्य किया गया. मैं तारा देवी का उपासक हूँ. यह माता भक्तों
को सदैव मोक्ष प्राप्ति देकर उन्हें तारती है इसीलिये इन्हें “तारा देवी” कहते हैं
और यही नाम प्रचलित हो गया है. इस माता की कृपा से अकस्मात् वाक्शक्ति का प्रसाद
प्राप्त होता है, इसलिए इनका नाम “नील सरस्वती” भी है. माता भयंकर विपत्ति से भक्तों की रक्षा
करती है.
प्राचीन काल में हयग्रीव नामक तीन व्यक्ति थे. १. विष्णु मूर्ति का अवतार
हयग्रीव, २. हयग्रीव महर्षि और ३. हयग्रीव राक्षस. तारादेवी ने हयग्रीव राक्षस का
वध किया था, इस कारण से वह “नील विग्रह रूपिणी” नाम से
प्रसिद्ध हुईं.
इस देवी की कृपा से अति सामान्य मानव भी बृहस्पति के समान विद्वान हो जाता
है. भारतवर्ष में तारादेवी की उपासना सर्वप्रथम वशिष्ठ महर्षि ने की थी. इस कारण
इस माता का नाम “वशिष्ठ आराधिता” पड़ गया है.
मैं तारा देवी का उपासक हूँ, परन्तु मुझे कभी भी
तारा देवी के दर्शनों का लाभ नहीं हुआ. मैंने मिथिला देश के महिषी ग्राम में स्थित
उग्रतारा पीठ के दर्शन किये. यहाँ तारा, एकजटा तथा नील सरस्वती – ऐसी त्रिमूर्ति एक ही साथ है. मध्य में ऊँची
मूर्ती है और दाएं-बाएँ उससे थोड़े छोटे आकार की मूर्तियाँ हैं. यहीं पर वशिष्ठ
महर्षि ने तारोपासना करके सिद्धी प्राप्त की थी, ऐसा गाँव के वयोवृद्ध लोगों ने बताया.
मैं जैसे ही उग्रतारा देवी के दर्शन करके बाहर आया, मैंने अपने सामने एक सुन्दर एवँ आकर्षक बालिका
को देखा. उसके पैरों के पैंजन की आवाज़ अति मधुर थी. वह बालिका छम्—छम् करती चल रही थी और उसके पैंजनों की ध्वनि मेरे
ह्रदय में प्रतिध्वनित हो रही थी. उस बालिका ने मुझसे पूछा, “बाबा! कहाँ-कहाँ और कितना भटकोगे? मेरे दर्शनों के लिए ही इस संपूर्ण लोक का चक्कर लगा रहे हो, यह सच है ना?” यह सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया. क्षण भर को मेरे मन में विचार कौंध गया
कि कहीं यह बालिका ही तो तारादेवी नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण ऐसा प्रतीत हुआ कि वह कोई अन्य बालिका है. तारादेवी तो शिव के कपाल पर
प्रत्यलीढ़ मुद्रा में बैठी हुई होती हैं, वह नीलवर्णी, त्रिनेत्री हैं और
उनके हाथों में कैंची, कपाल, कमल तथा खड्ग होता है. वह व्याघ्रचर्म धारण
करती हैं और गले में मुण्डमाला धारण करती हैं. वह भोग-मोक्ष प्रदान करने वाली हैं –
ऐसा है उस मंगलमयी देवी का असली रूप. परन्तु जिसे मैंने अभी देखा वह बालिका १२-१३
वर्षों की मनमोहक स्वरूपिणी है. अतः मैं आश्चर्यचकित था. कुछ भी कह नहीं सका. तभी
उस बालिका का शरीर अत्यंत तेजस्वी होकर एक बालक के रूप में परिवर्तित हो गया. उस
बालक के नेत्र योगियों के नेत्रों जैसे अत्यंत दयार्द्र एवँ शांत थे, उसका रंग सुवर्ण कांति जैसा था, वह स्वरूप अत्यंत दिव्य एवँ तेजस्वी था. उस
बालक के दोनों पैरों में पैंजन थे. “मेरे पैरों के ये पैंजन कस गए हैं, क्या तुम उन्हें निकाल सकते हो?” बालक ने मुझसे पूछा. मैंने सहमति दर्शाई और
हौले से उसके पैरों से वे दिव्य पैंजन निकाले. तब वह बालक बोला, “ये दोनों पैंजन तुम्हारे पास ही रखो. इनमें जीवन शक्ति है. तुम्हें कहाँ
जाना चाहिए, क्या खाना चाहिए, किससे बात करना चाहिए इन सब बातों का निर्णय ये पैंजन ही करेंगे.”
इतना कहकर वह बालक अंतर्धान हो गया. मैंने काली घाट में कालिका माता के
दर्शन किये और दक्षिण की और गया. पुरी महाक्षेत्र के दर्शन किये. दक्षिण के
सिंहाचल क्षेत्र के दर्शन किये. मेरे पूर्व सुकृत के फलस्वरूप ही पादगया क्षेत्र
श्री पीठिकापुरम् पहुँचा. वहाँ श्री कुक्कुटेश्वर स्वामी के दर्शन किये. स्वयंभू
श्री दत्तात्रेय की मूर्ति के निकट नाग की एक बाँबी थी. उसमें एक देवता सर्प था.
मैंने जब श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन किये तो उस सर्प-देवता ने भी मुझे दर्शन
दिए. उस सर्प-देवता के दर्शन मात्र से मेरे भीतर की कुण्डलिनी जागृत हो गई. मेरा
शरीर मेरे बस में नहीं था. मैं पागल के समान यहाँ-वहाँ घूम-घूम कर जोर-जोर से तारा
माता का नाम घोष कर रहा था. संयोगवश मैं नरसिंह वर्मा नामक क्षत्रिय ज़मींदार के घर
के सामने पहुँचा. महिषी ग्राम में जिस बालिका को मैंने देखा था, वही रूप मुझे फिर से अपने नेत्रों के सम्मुख
दिखाई दिया. परन्तु वह बालिका कुछ ही समय में बालक के रूप में परिवर्तित हो गई.
जिस दिव्य तेजस्वी बालक ने मुझे दर्शन दिए थे वही मेरे सामने था. श्री वर्मा के घर
एक अजीब तरह का तांगा था. उस दिव्य बालक को उस तांगे में बैठकर अपनी माता के घर
जाना था. श्री वर्मा ने एक सेवक का इंतज़ाम किया. सेवक वहाँ आया. उस बालक ने सेवक
को भी तांगे में बिठा लिया और मुझे उस तांगे को खींचने की आज्ञा दी. मैंने इनकार
कर दिया. तब वह बालक बोला, “अगर तू तांगा नहीं
खींचेगा तो तेरी चमड़ी उतार कर उसके जूते बनाकर पहनूंगा. मैं तो चमार ही हूँ. चमड़ी
उतार कर चप्पलें बनाना यह मेरी कुलवृत्ति ही है. तेरे जैसे जानवर की चमड़ी गाय अथवा
भैंस की चमड़ी से श्रेष्ठ होती है.
मेरी इच्छा न होते हुए भी मैं वह तांगा खींचने को तैयार हो गया. उस बालक के
हाथ में एक छडी थी. उस तांगे को खींचने में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ रही थी. वह
दिव्य बालक अपने हाथ की छडी से लगातार मुझे मारे जा रहा था. उन दोनों का वज़न बीस
आदमियों के वज़न जितना था. बड़े कष्ट से मैं वह गाडी खींच रहा था. वह बालक जोर जोर
से मुझे अपनी छडी से मार रहा था. मेरी पीठ से खून की धाराएं बह रही थीं और अपने
दुःख का भार सहते हुए मैंने किसी तरह वह गाडी खींचकर उस बालक के मातृगृह तक पंहुचाई
.
उस बालक के साथ आए सेवक से मेरी हालत बर्दाश्त नहीं हुई, परन्तु वह बालक अपने विनोद के लिए बड़ी क्रूरता
से बर्ताव कर रहा था. बालक ने सेवक को धमकाते हुए कहा, कि यदि उसने मुझ दुरात्मा पर दया दिखाई तो उसे भी कड़ी सज़ा देगा.
मेरे शरीर पर कमर के ऊपर कोई वस्त्र नहीं था. खून की धाराएं बह ही रही थीं.
ऊपर से वह बालक घर के भीतर जाकर मिर्च लाया और मेरे बदन पर लगा दी. हाँ, मेरी कमर से महिषी ग्राम से प्राप्त हुए पैंजन
थे.
तभी उस दिव्य बालक की पुण्यमूर्ति नानी राजमांबा बाहर आई. उनका एक अन्य नाम ‘पुण्यरुपिणी’ भी था. उनके दर्शन करते ही मेरे शरीर की जलन शांत हो गई. उनके पति
बापन्नाचार्युलु नामक सुप्रसिद्ध सत्यऋषीश्वर थे, वे बोले, “बेटा! तू किस गाँव का है? थोड़ी देर आराम करके
फिर भोजन करके ही जाना.”
उन्होंने हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग किया था. उस सेवक ने श्रीपाद द्वारा
मेरे साथ किये गए व्यवहार का वर्णन प्रभु की नानी एवँ नाना से किया.
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “नानी! यह सेवक सरासर
झूठ बोल रहा है. इस आदमी के तन से खून बहा ही नहीं. वह तो पसीने की धाराएं थीं.
मैंने उसके शरीर पर मिर्च मली ही नहीं, वह तो चन्दन का उबटन
था. चाहें तो उस सेवक से कहिये कि देख ले.” उस सेवक ने देखा. जैसा श्रीपाद प्रभु
ने कहा था, बिलकुल वैसा ही हुआ था. तभी बापन्नाचार्युलु
बोले, “श्रीपाद! तू सत्यव्रती है. अगर
कहेगा कि खून की धाराएं हैं, तो वहाँ खून ही की
धाराएं दिखाई देंगी. चन्दन का उबटन कहेगा, तो वही दिखाई देगा, अतः मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तू साक्षात उग्रतारा
देवी का स्वरूप है. उग्रतारा देवी के अनुग्रह से वाक्सिद्धी प्राप्त होती है ऐसा सुना
था, परन्तु साक्षात अनुभव आज ही प्राप्त हुआ.
उग्रतारा देवी के समान तू केवल इच्छामात्र से किसी भी वस्तु के गुण धर्म बदल सकता
है. अब अपना लीला विनोद बंद करके इस अभागे पर करुणा दृष्टि डाल.”
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी! आपने कुछ
अतिशयोक्ति ही कर दी. मैं इच्छा करूंगा और वह तुरंत फलीभूत होगी, ऐसा आपने कहा. यह कहाँ तक सत्य है? या कि झूठ है? इसका निर्णय तो शास्त्रों की सहायता से करना होगा. खैर, यह आगंतुक एक सद्ब्राह्मण है, उग्रतारा देवी का उपासक है, यह सब तो ठीक है, परन्तु इसने अपने गुरु की अनुमति से संन्यास
दीक्षा नहीं ली. जैसा इसे योग्य प्रतीत हुआ, उसी प्रकार से इसने संन्यास ग्रहण कर लिया.
इसके पिता ने अनेक कष्ट उठाकर इसका लालन-पालन किया. इसकी माता को गर्भावस्था में बहुत
कष्ट उठाने पड़े. जब इसका जन्म हुआ तो इसकी माता के शरीर से बहुत रक्त स्त्राव हुआ.
गीले घाव पर मिर्ची मलने से कैसी पीड़ा होती है, वैसी पीड़ा इसकी माता ने तब सहन की थी. माता-पिता दोनों ही अब इस दुनिया में
नहीं हैं, और अपने पूर्व सुकृतों के कारण उनका पुनर्जन्म पीठिकापुरम्
में हुआ है.”
काशी वास का फल
नरसिंह वर्मा के घर में रहने वाला यह सेवक कोई और नहीं, बल्कि इस आगंतुक का पूर्व जन्म में पिता था.
इसकी पत्नी आगंतुक की पूर्व जन्म की माता है. मृत व्यक्तियों को योग्य विधि से पिण्ड
प्रदान न करना महापाप है. इस आगंतुक ने चूंकि संन्यास ग्रहण कर लिया था, अतः इसने
माता-पिता का पिण्ड प्रदान नहीं किया. इसके पाप कर्मों एवँ पुण्य कर्मों का फल ही
इसे पादगया क्षेत्र अर्थात् श्रीपीठिकापुरम् खींच लाया है. थोड़े से दुःख भोगकर
इसने अपने पापकर्मों के फल का अनुभव ले लिया. इसके सारे दुर्योगों का परिहार हो
गया. शिशु नौ महीने माता के गर्भ में रहता है, उसी प्रकार काशी क्षेत्र में नौ महीने, नौ दिन और नौ घंटे वास करने से मनुष्य पितृशाप से मुक्त हो जाता है. श्री पीठिकापुरम्
काशी क्षेत्र के समान है. यदि यह आगंतुक अपने पूर्व जन्म के माता-पिता की सेवा करे
तो पितृ देवताओं के शाप से मुक्त हो जाएगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. मैंने प्रभु के आदेशानुसार अपने पूर्व
जन्म के माता-पिता की सेवा की. उनका आशीर्वाद प्राप्त किया. प्रभु से प्राप्त
पैंजन पूजा घर में संभाल कर रखे. मुझे उग्रतारा देवी के अनुग्रह से सिद्धी प्राप्त
हुई. अपनी तंत्र शक्ति के बल पर मैं लोगों के दुःखों का, कष्टों का परिहार करने लगा.
आपके यहाँ आने से पूर्व श्रीपाद प्रभु ने मुझे दृष्टांत दिया. वे बोले, “शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त नामक दो
यात्री इस मार्ग से यहाँ आयेंगे, उनका योग्य आदर
सत्कार करके उनके यहाँ रहने की व्यवस्था करना. मेरे पैंजन उन्हें भेंट स्वरूप दे
देना.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें