।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – २७
पंचदेव पहाड़ पर
विरूपाक्ष से भेंट
श्री धर्मगुप्त और मैं कृष्णा
के दूसरे तीर पर पहुंचे. मध्याह्न का समय था. गुरूवार के दिन श्रीपाद प्रभु एक ही
समय में विविध स्थलों पर भिक्षा स्वीकार करते थे. तो, ऐसे परम पवित्र गुरूवार के मध्याह्न का समय था. पंचदेव पहाड़ नामक स्थल पर
घास की एक कुटी बनाई जाए ऐसी श्रीपाद प्रभु की आज्ञा थी. यह कुटी एक ही दिन में
बनाई जाए, ऐसा भी उन्होंने कहा था.
परन्तु पंचदेव पहाड़ का वह परिसर हमारे लिए नया था. कुटी का निर्माण करने के लिए
योग्य स्थान की आवश्यकता थी. उसे बनाने के लिए आवश्यक सामग्री – घास, बांस, डोरी, पत्ते आदि – हमारे पास नहीं थी. कुटी बनाने वाले मज़दूर भी वहाँ नहीं थे.
पंचदेव पहाड़ का महत्त्व
कहाँ जाएँ, इसके बारे में कोई निश्चय नहीं था. इस परिसर
में हम पथिकों के समान इधर-उधर घूम रहे थे. घूमते-घूमते हम एक किसान के खेत में
गए. वहाँ वह किसान अपने जानवरों के लिए गौशाला का निर्माण कर रहा था. खेत में एक
साफ-सुथरी जगह पर एक ऊँची चौकी बनाई गई थी और उस पर एक गद्दी बिछी थी – खेत के
मालिक के लिए. उस गद्दे पर बैठे हुए मालिक ने हमें बुलाकर हमारा स्वागत किया और
हमें भोजन दिया. हम भूखे ही थे, परन्तु क्षण भर के
लिए मन में यह विचार कौंध गया कि शूद्र के घर का भोजन किया जाए अथवा नहीं. तब उस
खेत का मालिक गुस्से से बोला, “हमारे जानवर चुराकर
दूसरे प्रांत में बेचने वाले तुमको शूद्र के घर का भोजन करना चाहिए अथवा नहीं ऐसा
संदेह हुआ है क्या?” उस मालिक की नज़रों
में हम चोर बन गए थे. परन्तु भूख के मारे हमने वहाँ भोजन कर लिया. खेत के मालिक का
नाम था विरूपाक्ष. भोजन के पश्चात हम दोनों को एक-एक पेड़ से बाँध दिया गया. “मैं
एक गरीब ब्राह्मण हूँ, भिक्षा मांगकर अपना
उदर निर्वाह करता हूँ ,” ऐसा मैंने अत्यंत दीनतापूर्वक कहा. मेरे पास बिलकुल भी धन
नहीं है., यह भी पुनः पुनः कहा. इसके बाद खेत के मालिक के सेवक धर्मगुप्त के निकट
धन की आशा में गए, और वे उसका सारा धन छीन लेने का विचार करने
लगे.
श्रीपाद प्रभु की कल्पनातीत दिव्य लीला
हमने वास्तविक स्थिति बार-बार उसे समझाई परन्तु खेत के मालिक पर उसका कोई प्रभाव
नहीं पडा. उसकी आज्ञानुसार हमें बंदी
बनाया गया था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. तभी वहां मुसाफिरों की एक
टोली आई. इनमें “शिव कावडी” नामक भक्त थे. ये मुसाफिर वासवी कन्यका परमेश्वरी के
लिए कावडी ले जाते हैं. ये भक्तजन त्रिपुण्ड लगाते हैं. घंटानाद करते हुए श्री
कन्यका परमेश्वरी की स्तुति में गीत गाते हुए मार्गक्रमण करते हैं. ये भक्त गण
किसी शुभ कार्य के लिए अथवा वासवी माता के जयन्ती उत्सव के लिए गंगा के पवित्र जल
की कावड ढोकर लाते हैं. इनके बीच एक अन्य प्रकार के साधक भी होते हैं, उनकी कमर में एक पट्टा बंधा होता है. इस पट्टे
में तलवार, ढाल एवँ विविध प्रकार के युद्धोपयोगी शस्त्र होते हैं. इन्हें “वीर
मुष्टि” कहते हैं. ये लोग नामघोष करते हुए घंटानाद के साथ चलते हैं.
उस खेत के मालिक ने आये हुए साधकों तथा वीरमुष्टि लोगों को भोजन देकर उनका
सत्कार किया. तत्पश्चात हमें बंधनमुक्त करके गोशाला के निर्माण में सहायता करने का
आदेश दिया. हम काम करने लगे. शाम को काम समाप्त होने के बाद विरूपाक्ष ने हमसे
पूछा, “मुष्टि में मुष्टि वीरमुष्टि – इसका क्या अर्थ है?” हमें इसका उत्तर ज्ञात नहीं था, हमने यह बात उस खेत के मालिक से कह दी. उस दिन
शाम को भी उसने हमें भोजन दिया. हमें गायों की रखवाली करते हुए उस रात वहीं सोने
का आदेश दिया. तत्पश्चात वह अपने सेवकों सहित हँसते-खेलते हुए वहाँ से चला गया. हम
आधी रात तक श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण एवँ उनकी दिव्य लीलाओं का स्मरण कर रहे थे.
फिर हमें नींद आ गई. प्रातःकाल सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ते ही हम उठ गए. चारों
और देखा – वहाँ कोई भी गाय नहीं थी. आसपास के किसान आकर पूछने लगे कि वह जगह हमने
कितने में खरीदी है. हमने कल की घटना उन्हें पूरी तरह सुना दी, परन्तु वे हमें
पागल समझने लगे. हमारे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था – क्या कल का दृश्य वास्तविक
था या आज का?
इसी संभ्रमावस्था में एक अपरिचित वहाँ आया. उसने हमसे पूछा, “श्री वासवी कन्यका देवी का जन्म वैशाख शुद्ध दशमी के दिन हुआ अथवा सप्तमी
के दिन?”
श्री धर्मगुप्त ने उत्तर दिया, “श्री वासवी कन्यका
का जन्म वैशाख शुद्ध दशमी के दिन मध्याह्न समय में हुआ. उस दिन शुक्रवार था.” यह
सुनकर अपरिचित बोला, “तुम दोनों मूर्ख हो.”
उस व्यक्ति द्वारा श्रीपाद प्रभु के बारे में कहे गए उदगार हमें अच्छे नहीं लगे. परन्तु
तुरंत कुरुगड्डी की ओर जाने का विचार करके हम चल पड़े. हम दोनों के पास नाविक को
देने के लिए पैसे नहीं थे, यह बात नाव में चढने से पहले ही हमने उसे बता दी थी.
नाविक ने दया करके हमें नाव में बैठने दिया. नाव चल पडी. तभी मल्लाह की नज़र
धर्मगुप्त की अंगूठी पर पडी, उसने उसे निकाल कर
कृष्णा के जल में फेंक दिया. हम नदी पार करके कुरुगड्डी पहुंचे तब श्रीपाद प्रभु
कृष्णा नदी में स्नानादि से निवृत्त होकर तपश्चर्या के लिए बैठ गए थे.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय जयकार हो।।
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