।। श्रीपाद
राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १६
श्रीमन्नारायण की कथा
मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के चरित्र का स्मरण करते हुए चला जा रहा था.
यह सुनकर कि प्रभु कुरुगड्डी (कुरवपुर) में हैं, मेरे हर्ष का पारावार न रहा. उनके दर्शन की आस प्रतिक्षण बढ़ती ही जा रही
थी. मार्ग में एक गन्ने का खेत दिखाई दिया. खेत में एक किसान प्रसन्न चित्त बैठा
था. बगल में ही गन्ने का रस निकाल कर गुड बनाने का काम चल रहा था. उस किसान ने बड़ी
नम्रता से मुझे बुलाकर गन्ने का रस दिया. वह रस बड़ा ही मीठा था. मैं श्रीपाद प्रभु
के दर्शनों के लिए जा रहा हूँ, यह सुनकर उस
किसान को बहुत आनंद हुआ. वह बोला, “चाचा! मेरा
नाम है श्रीमन्नारायण मल्लादी.
हमारा गाँव मल्यादिपुरम् था, परंतु कालांतर में इसका अपभ्रंश होकर मल्लादी हो गया.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के नाना जी का कुलनाम भी मल्लादी था, परन्तु वे ब्राह्मण थे और हम चौधरी हैं. जब हमारे और उनके अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे, तभी हम
मल्यादिपुरम् गाँव छोड़कर पीठिकापुरम् आ गए. उस समय हमारी परिस्थिती बड़ी दयनीय थी.
सारी चल-अचल संपत्ति बेचकर हम केवल शरीर पर पहने हुए वस्त्रों में ही पीठिकापुरम् पहुंचे. श्री बापन्नाचार्युलु ने
बड़े प्रेम से हमें भोजन करवाया. हमने उनके खेतों पर काम करने की इच्छा प्रदर्शित
की. श्रीपाद प्रभु उस समय घर पर थे. वे बोले, “बापन्नाचार्युलु के घर का भोजन ईश्वर के प्रसाद के समान होता है. ईश्वर
की कृपा के बिना यह प्रसाद किसी को मिलता नहीं है. बापन्नाचार्युलु के दर्शनों का
लाभ भी दुर्लभ है. तुम्हारे पुण्य कर्मों के कारण ही यह संभव हुआ है.”
बापन्नाचार्युलु ने हमसे कहा, “हमने हमारे
खेत औरों को काम के लिए दे दिए हैं. बिना किसी कारण के उन्हें निकालना धर्म
विरुद्ध है. अब तुम एक मुट्ठी भर उड़द एक कपडे में बांधो और उसे लेकर पश्चिम की तरफ
जाओ. तुम्हारी मनोकामना पूरी होते ही वह उड़द फेंक देना. परमेश्वर दयालु है. वह
पत्थर में फँसे मेंढक को भी भोजन देता है, क्या वह तुम्हें भोजन नहीं देगा? तुम यशस्वी
होगे.”
हमने भोजन किया और वहाँ से चलते समय धोती के कोने में मुट्ठी भर उड़द बांधकर
पश्चिम की और चल पड़े. श्रीपाद प्रभु की कृपा से मार्ग में अन्न जल सहजता से
प्राप्त होता रहा. बिना मांगे ही हमें भोजन मिलता रहा. कैसी आश्चर्य की बात थी!
चलते-चलते हम आंध्र प्रांत पार करके कर्नाटक प्रांत में आये. रास्ते में हमें अनेक
पर्णकुटियाँ दिखाई दीं, इनमें रहने
वाले सभी लोग वृद्ध थे. उनके पास कोई धन संपत्ति नहीं थी. हमने एक पर्णकुटी में
प्रवेश किया. इसमें एक वृद्ध दंपत्ति रहते थे. वे चौधरी थे. उनके इकलौते पुत्र की सर्पदंश
से मृत्यु हो गई थी. उसकी पत्नी कृष्णा नदी में स्नान करते समय जल के प्रवाह में
बह गई. उनके कोई संतान नहीं थी. अब इस वृद्ध दंपत्ति के पास कोई आधार नहीं बचा था.
उनके पड़ोसी उनके साथ अच्छा व्यवहार करते, समय-समय पर
उनकी सहायता करते. उस वृद्ध दंपत्ति ने हमारा बहुत अच्छा स्वागत किया और हमें अपने
ही घर में रख लिया. जब-जब हम वहाँ से जाने की सोचते, कोई न कोई रुकावट आ जाती और हमारा जाना स्थगित हो जाता, आखिरकार एक शुभ मुहूर्त पर हम निकल पड़े, परन्तु तभी उस वृद्ध पुरुष को उल्टियाँ और दस्त होने लगे. हमें रुक जाना
पडा. एक दो दिनों में जब उनकी तबियत सुधरी तो हम चल पड़े. हमारे चार-पाँच दिनों के
सहवास से उस वृद्ध परिवार के मन में हमारे प्रति स्नेह भाव उत्पन्न हो गया था.
हमें बिदा करते समय उनकी आंखों में आंसू भर आये.
धोती में
बंधे उड़द अब सडने लगे थे और उनमें बदबू आने लगी थी, अतः हमने उन्हें फेंक दिया. हमने उस वृद्ध दंपत्ति की सहायता करने की
इच्छा व्यक्त की, परन्तु
उन्होंने हमसे कुछ न लिया. उनकी बैरागी प्रवृत्ति देखकर हमें बहुत आश्चर्य हुआ. उस
वृद्ध दंपत्ति का परिचित एक ज्योतिषी था. उन्होंने उसको बुलाया. वह ज्योतिषी वृद्ध
दंपत्ति से बोला, “तुम्हारे
घर जो अतिथि आए हैं, वे बड़े ही
अमंगल हैं. उनके यहाँ रहने से आप दरिद्री हो जायेंगे. आप उन्हें जल्दी से जल्दी
बिदा कर दीजिये.” वृद्ध दंपत्ति ने कहा, “पंडित जी, उनके यहाँ वास्तव्य करने से जो दरिद्रता प्राप्त होगी, उसका परिहार तो शास्त्रों में होगा ना? आप वह बताएँ. उसके लिए जितना भी खर्च होगा, हम देने को तैयार हैं. अतिथियों के अमंगल को दूर करने के लिए जो पूजा विधि
हो, उसे बताने की कृपा करें. ईश्वर की इच्छा से
विश्व का कारोबार चलता है. सभी देवताओं को मन्त्र की सहायता से प्रसन्न किया जा
सकता है. आप तो प्रत्यक्ष ब्रह्मा को प्रसन्न करने की विधि भी जानते हैं – इसलिए
इस पृथ्वी पर आप ईश्वर ही हैं. आप हमारी इच्छा पूरी करें, यह प्रार्थना है.”
उस ज्योतिषी को वृद्ध दंपत्ति की विनती माननी ही पडी. वह ज्योतिषी बोला, “अनाज उत्पन्न करने के लिए जल की आवश्यकता होती है; अतः पर्जन्य यज्ञ की
तैयारी कीजिये. यज्ञ करने वाले व्यक्ति को देवता तुल्य माना जाता है. प्रत्यक्ष
ईश्वर यज्ञ करने वाले की स्तुति करते हैं. यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं:
१. देवयज्ञ २. भूतयज्ञ 3. मनुष्ययज्ञ ४. ब्रह्मयज्ञ और ५. पितृयज्ञ
श्रीपाद श्रीवल्लभ की लीलाएँ अत्यंत अद्भुत् एवँ आश्चर्यकारक थीं. उस वृद्ध
दंपत्ति द्वारा दिए गए धन की सहायता से विद्वान ब्राह्मणों ने सर्वकार्य सिद्धि
हेतु यज्ञ किया. इस यज्ञ के प्रभाव से हमारी जन्म कुण्डली के सभी दोषों का निर्मूलन
हो गया. उस वृद्ध दंपत्ति की पुण्याई से हमें परम पवित्र यज्ञ के दर्शन हुए. इस
यज्ञ का हविष्य इन्द्रादि देवताओं को अर्पण किया गया था. हर देवता की इच्छानुसार
उसे हविष्य का भाग प्रदान किया गया. प्रत्येक देवता ने संतुष्ट होकर आशीर्वाद दिए.
गौ, वेद, ब्राह्मण, पतिव्रता
स्त्री, सत्यप्रिय तथा दानशूर लोगों के कारण पृथ्वी
का सृजन कार्य सुचारू रूप से चलता है. जिस प्रकार खेती करने के लिए बैल की
आवश्यकता होती है, उसी प्रकार
इहलोक सिद्धि के लिए यज्ञ-याग की आवश्यकता होती है और उतनी ही आवश्यकता होती है गौ
माता की – परलोक सिद्धि के लिए. साथ ही गौमाता दूध, दही, मक्खन, घी आदि तो देती ही है.
भूमाता के सात गुण
सभी धर्मों के तत्व वेदों पर ही आधारित हैं, धरती माता को भी वेदों का ही आधार प्राप्त है. ब्राह्मण लोग अपने यजमानों
द्वारा यज्ञ करवाकर समाज को सत्कर्म करने के लिए प्रवृत्त करते हैं. ऐसे सत्कर्मों
से भूमाता को शक्ति-सामर्थ्य प्राप्त
होती है. पतिव्रताएं अपने पातिव्रत्य धर्म की रक्षा करती हैं. पतिव्रता
स्त्रियों के कारण धरती माँ समृद्ध होती है. सत्य वचन बोलने वालों के कारण भी
पृथ्वी आनंदित होती है. निर्लोभी व्यक्ति अपनी लोभवृत्ति त्यागकर समाज में
सौहार्द्र और प्रेम फैलाते हैं, दानशूर व्यक्ति पुण्य मार्ग से प्राप्त किया हुआ
धन दीन-दुर्बल, अभागे लोगों
में बांटकर इहलोक और परलोक दोनों सुधारते हैं. इन सात प्रकार के गुणों से युक्त
लोगों के कारण भूमाता सदैव प्रसन्न, सामर्थ्यवान
और प्रचुर अन्न-जल देने वाली बनाती है. बापन्नाचार्युलु जैसे महापुरुषों ने हमें
केवल निमित्त मात्र बनाकर यज्ञपुरुष श्री श्रीपाद श्रीवल्लभ के समक्ष हमें धन्य कर
दिया.
श्रीपाद श्रीवल्लभ
द्वारा भक्तों की रक्षा
यज्ञ निर्विघ्नता से, बड़े आनंद से संपन्न हुआ.
वे वृद्ध दंपत्ति हमें अपने बच्चों जैसा स्नेह प्रदान कर रहे थे. उनके रिश्तेदारों
को यह बात अच्छी नहीं लगी. हमारे पास मिर्ची का एक खेत था. उसके चारों और ताड़ी के
पेड़ों की बागड थी. गौड़ लोग इस ताड़ी का रस निकाल कर ले जाते. एक बार जब मैं खेत में
गया तो देखा कि वे रिश्तेदार खेत से मिरचियाँ तोड कर, उन्हें बोरों में
भरकर, बैलगाड़ी में वे बोरे रखवाकर घर जा रहे थे. मैं अकेला था और वे थे दस. तभी एक
आश्चर्य की बात हुई. एक रीछ ताड़ी के पेड़ पर चढ़कर उसका रस पी रहा था. इतने में उसका
संतुलन बिगड़ गया और वह नीचे गिर पडा. उस रीछ को निकट आते देखकर हमारे रिश्तेदार
घबरा कर भाग गए. रीछ के ज़हरीले नाखूनों से होने वाले संभावित ज़ख्मों से उन्हें भय
था. मैं श्रीपाद प्रभु का स्मरण करते हुए बैलगाड़ी में बैठा और वह गाडी चल पडी. वह
रीछ श्रीपाद प्रभु के नाम स्मरण को सुनकर शांत हो गया और हमारी गाडी के साथ
चलते-चलते हमार्र घर आ गया. उस रीछ को देखकर पड़ोसी चकित हो गए. उस रात जब हमने
श्रीपाद प्रभु का भजन किया तो वह रीछ भी हमारे साथ बैठकर तन्मयता से भजन सुन रहा
था. भजन पूरा होने के उपरांत सबको प्रसाद दिया गया. उस रीछ ने बड़े आनंद से प्रसाद
खाया. इसके पश्चात वह रीछ हमारे घर के एक सदस्य की तरह रहने लगा. हमारे साथ उसका
व्यवहार प्रेम पूर्ण था, परन्तु हमारे शत्रु उससे भयभीत रहते थे. उसके डर
के मारे खेत पर कोई नहीं आता, वह रीछ हमारे खेत का मानो रखवालदार बन गया था.
हमारे घर में श्री दत्त प्रभु की लीला कथाओं का
कीर्तन और श्री दत्त प्रभु का नामस्मरण नित्य नियमपूर्वक होता था. एक बार जब मैं
खेत में था तो वह रीछ खेत में आया. उसने मेरी और बड़े प्रेम से देखा. मैंने श्रीपाद
प्रभु का नामस्मरण आरम्भ किया और वह बड़े हर्ष से नाचने लगा.
हमारे पड़ोस के गाँव में एक मान्त्रिक आया था.
उसने उपासना के बल पर कुछ सिद्धियाँ प्राप्त की थीं. उसके प्रभाव में आने वाले
व्यक्तियों से वह धन ऐंठता और उसे इकट्ठा करता जा रहा था. हमारे रिश्तेदार उसकी
शरण में गए. उसने रीछ पर मन्त्र का प्रयोग किया, जिससे रीछ की
सारी शक्ति नष्ट हो गई और वह निश्चेष्ट होकर गिर गया. दूसरे मन्त्र से उसने रीछ की
सारी शक्ति स्वयं में आकर्षित कर ली. रामायण में वर्णित बाली के समान उसे एक विद्या
अवगत थी जिसके प्रयोग से सामने वाले शत्रु की आधी शक्ति उसे प्राप्त हो जाती थी.
इसी कारण से प्रभु रामचंद्र ने बाली को पैड के पीछे से बाण मारा था, जिससे उसका अंत हुआ.
श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु के शिष्यों को कर्म बंधन से मुक्ति
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अगम्य हैं. उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध ढूंढ पाना
अत्यंत कठिन है. कारण के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है. गोकुल के निवासियों ने
जब प्रतिवर्ष की भाँति इंद्र की पूजा नहीं की, तो इंद्र ने क्रोधित होकर गोकुल पर घनघोर वर्षा की. तब श्रीकृष्ण भगवान ने
अपनी ऊँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाया और सारे गोकुलवासी उसके नीचे सुरक्षित रहे. जिस
प्रकार श्रीकृष्ण भगवान ने गोकुलवासियों की रक्षा करके अपने गोपाल धर्म का पालन
किया, उसी प्रकार श्रीपाद प्रभु ने भी मान्त्रिक
की योग शक्ति को पहले कार्यान्वित होने दिया. रीछ उस शक्ति के वश में आ गया. उसके
भीतर के पुण्यत्व के अंश के कारण वह श्रीपाद स्वामी का भक्त हो गया था. उस
मान्त्रिक द्वारा शक्ति का प्रयोग करने पर निश्चेष्ट पडा हुआ रीछ हलके-हलके रो रहा
था. दुःखी प्राणियों का क्रंदन श्रीपाद प्रभु अवश्य सुन लेते हैं. वे हरेक व्यक्ति
के कर्म के अनुसार पाप कर्मों के फल की तीव्रता को कम करते है.
श्रीमन्नारायण के घर श्री दत्त कथा, श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का नामस्मरण, कथा, कीर्तन नित्य नियमपूर्वक होता था. यहाँ आने
वाले भक्तों में कुछ भक्त अनन्य भाव से श्रीपाद प्रभु के चरणों की शरण में जाते थे,
परन्तु कुछ भक्तों के मन में संदेह अभी भी शेष था. नाम संकीर्तन चल रहा था, तभी एक अद्भुत् घटना घटित हुई. वह मृतप्राय रीछ श्रीपाद प्रभु के नाम के
घोष से एकदम चेतनामय हो गया और आनंद विभोर होकर नाचने लगा.
श्री दत्तात्रेय प्रभु का योग सामर्थ्य औरों
की अपेक्षा भिन्न है. उनकी करुणा से ही उस रीछ का रूपांतर एक मनुष्य के रूप में हो
गया, और वह तांत्रिक रीछ के रूप में परिवर्तित हो
गया. वहाँ उपस्थित लोगों ने उस रीछ को रस्सियों से बाँधकर जंगल में छोड़ दिया. इस
जन्म में वह मानव रूपी रीछ सबको संबोधित करते हुए बोला, “भाईयों, पिछले जन्म
में मैं एक साहूकार था और सूद पर लोगों को धन दिया करता था. सूद की दर बहुत अधिक
लगा कर मैं उन्हें कष्ट देता था. यदि वे धन वापस न करते, तो मैं उनकी संपत्ति ऐंठ लेता था. उस कुकर्म के कारण मुझे रीछ का जन्म
प्राप्त हुआ. परन्तु पूर्व जन्म के पुण्य फल से मुझे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के
दर्शन हुए और उनका अनुग्रह प्राप्त हुआ. श्रीपाद श्रीवल्लभ श्री दत्तात्रेय के
अवतार हैं. उनके अनुग्रह से ही मेरी रीछ योनी से मुक्ति होकर मुझे उत्तम मानव देह
की प्राप्ति हुई है. उस मान्त्रिक ने अनेक पाप कर्म किये, उसने मुझ जैसे मूक प्राणी को, और विशेषत:
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के भक्त को अपार कष्ट दिया – वह भी बिना किसी कारण के.
इस पापकर्म के फलस्वरूप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने उसे उचित दंड दिया. “सज्जनों
का रक्षण और दुर्जनों को दंड” ऐसा जिसका नियम है, उन श्रीपाद प्रभु की जो अनन्य भाव से, श्रद्धायुक्त अंतःकरण से सेवा करते हैं, उन पर श्री स्वामी का कृपाछत्र हमेशा बना रहता है. ईश्वर तथा भक्तों की
निंदा करने वालों, तथा दूसरों
के धन पर आसक्ति रखने वालों को वे यथोचित दंड देते हैं. कुछ उदाहरण ऐसे दिखाई देते
हैं, जब पापियों को अपने पाप कर्मों का पछतावा
होता है, और उचित दंड भोगने के बाद वे स्वामी के भक्त
हो जाते हैं.”
वह मानव रूपी रीछ आगे बोला, “ मुझे श्री स्वामी के नामस्मरण से सद्गति प्राप्त हुई. मुझे मानव रूप
प्राप्त हुआ देखकर सभी भक्तों को अत्यंत आश्चर्य हुआ और प्रसन्नता भी हुई. वे सब
जोर जोर से श्रीपाद स्वामी की जय जयकार करने लगे.”
यह नामस्मरण चल रहा था, तब एक अजीब बात हुई. अचानक तीन नाग वहाँ आये और उस नामस्मरण में तन्मय
होकर डोलने लगे. इसी समय मानव रूपी रीछ के प्राण पंचतत्व में विलीन हो गए. उन
नागों ने उस मृत देह की तीन बार प्रदक्षिणा की और वहाँ से निकल गए. वे नाग कहाँ से
आये थे? कोई भी समझ नहीं पाया. उस मानव रूपी रीछ का
शास्त्रोक्त विधि से दहन संस्कार किया गया.
हम हमेशा श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम स्मरण में
रत रहते. हमारे जीवन का आधार वही थे. वे तीनों नाग उस घटना के बाद हमारे ही यहाँ
रहने लगे. हमें तथा अन्य दत्त भक्तों को उनसे डर नहीं लगता था, परन्तु अन्य लोग उनसे भयभीत रहते थे, इस कारण वे हमारे घर नहीं आते थे. श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम संकीर्तन
आरम्भ होते ही वे नाग तन्मय होकर डोलने लगते.
उस वृद्ध दंपत्ति के घर के निकट की ज़मीन उनके
रिश्तेदारों ने अन्यायपूर्वक हड़प ली थी. उस भूमि को पंचों ने विवादग्रस्त घोषित कर
दिया था, मगर उस ज़मीन पर साग-सब्जी उगाने की इजाज़त
थी. हमारे रिश्तेदारों ने गाँव के प्रतिष्ठित लोगों को धन का लालच देकर अपनी और
मिला लिया था. अतः उस विवादित भूमि के बारे में निर्णय लगातार स्थगित कर दिया जाता
था.
उस विवादास्पद भूमि पर एक नाग की बाँबी थी.
नागपंचमी के दिन उस बाँबी में दूध डालते. दूध डालने वाले भाविक लोग “नाग देवता!
नाग देवता! हमारे संकट दूर करो!” ऐसी प्रार्थना करते. दूध डालने वाले कुछ लोगों को
ज्ञात था कि उस बाँबी में एक भी नाग नहीं है. एक बार नागपंचमी के अवसर पर हमने
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी को नैवेद्य समर्पित करके नाग देवता की प्रार्थना की, तुरंत उस बाँबी में से वे ही तीन नाग बाहर निकले और हमारे लाए हुए दूध को
पीकर वापस उसी बाँबी में चले गए. यह दृश्य देखने के पश्चात कोई भी फिर उस बाँबी
में दूध डालने नहीं आया.”
नागपंचमी के दिन एक मान्त्रिक हमारे गाँव में
आया. उस मान्त्रिक का गाँव के प्रतिष्ठित लोगों ने स्वागत किया. कितना भी ज़हरीला
सर्प क्यों न हो, वह
मान्त्रिक अपने मन्त्र की सामर्थ्य से उसे वश में कर लेता था. वह सर्पदंश से पीड़ित
तथा मृत व्यक्ति को अपनी मन्त्र शक्ति से जीवित भी कर देता था. उसकी हथेली पर गरुड
का चिह्न था. शास्त्रों में लिखा गया है कि जिस व्यक्ति की हथेली पर गरुड़ रेखा
होती है उसके वश में सर्प हो जाते हैं. इस मन्त्र विद्या के कारण सभी ग्रामवासी
उसके सामने नत मस्तक रहते थे.
उस मान्त्रिक ने गाँव के प्रतिष्ठित लोगों को
साथ में लेकर हमारे घर के निकट की उस बाँबी के चारों और आग लगा दी. वह उस आग के
निकट बैठकर जोर-जोर से मंत्रोच्चारण कर रहा था, तथा विचित्र ढंग से हाथ-पैर हिला रहा था. हम दूर खड़े थे और उससे कह रहे थे, कि उन नागों को मारने से पाप लगेगा. परन्तु हम कुछ कर ही नहीं सकते थे.
हमने श्रीपाद स्वामी के चरणों में प्रार्थना की कि वे उन निरपराध नागों की रक्षा
करें. उन मन्त्रों के प्रभाव से वे नाग बाहर निकले, परन्तु हम देख रहे थे कि उस मान्त्रिक की विद्या क्षीण होती जा रही है. वह
कुछ भी नहीं कर पा रहा था. वह जोर-जोर से मंत्रोच्चारण कर रहा था, परन्तु उसका कुछ भी उपयोग नहीं हो रहा था. वे नाग जिस दिशा में जाते, वहाँ श्रीपाद प्रभु की कृपा से अग्नि शांत हो जाती. आश्चर्य की बात यह हुई
कि अग्निदेवता ने उन तीनों नागों के लिए मार्ग साफ कर दिया था, वे जिस मार्ग से आये थे, उसी से
निर्विघ्न निकल गए. थोड़ी ही देर में अग्नि पूरी तरह शांत हो गई. यह सब देखकर
मान्त्रिक के अनुचर भाग गए.
इसी समय गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के बड़े
पुत्र के शरीर पर सांप काटने के निशान दिखाई दिए. थोड़ी ही देर में उसका बदन सांप
के विष से काला-नीला पड़ गया. दूसरे पुत्र की दृष्टी पूरी तरह जाती रही. उस
मान्त्रिक ने बड़ी देर तक मंत्रोच्चारण किया, परन्तु कुछ भी लाभ न हुआ. उस मान्त्रिक की हथेली की गरुड रेखा धीरे-धीरे
छोटी होकर लुप्त हो गई. गाँव के लोग खूब भयभीत हो गए. उनका दृढ़ विशवास था कि इस
भयानक संकट से केवल श्रीपाद श्रीवल्लभ ही उन्हें बचा सकते है. उस मान्त्रिक की
मन्त्र विद्या पूरी तरह नष्ट हो गई और वह निस्तेज होकर ज़मीन पर गिर पडा. श्रीपाद
प्रभु की लीला किस समय, किसके लिए, कैसे सहायक सिद्ध होगी, यह समझ पाना
असंभव है. गाँव के लोग हमारे पास आकर फूट-फूट कर रोने लगे, परन्तु हम कुछ भी नहीं कर सके. “अनन्य भाव से श्रीपाद प्रभु की शरण में
आकर उनका नामस्मरण करो तो तुम्हारे दोनों पुत्र पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेंगे,” ऐसा हमने प्रतिष्ठित व्यक्ति से कहा.
निस्तेज पड़े मान्त्रिक का कुछ ही समय में
देहांत हो गया. उसका पार्थिव शरीर ग्राम प्रमुख के घर के सामने रखा था. हमारे
रिश्तेदार भय से थरथर काँप रहे थे. चारों और दुःख का वातावरण था. उस मान्त्रिक का
शरीर अन्त्य संस्कार के लिए श्मशान भूमि ले जाया गया. चिता पर उसे रखकर अग्नि
संस्कार आरम्भ करते ही एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. मान्त्रिक जीवित हो उठा. वह
अग्नि से उसे बचाने के लिए चीखने-चिल्लाने लगा. श्रीपाद प्रभु की कृपा से उस
मान्त्रिक के भीतर का दुष्ट भाव अग्नि का स्पर्श होते ही जल कर राख हो गया और चिता
से एक शुद्धात्मा बाहर आई. इस सबके पीछे श्रीपाद प्रभु की अगाध लीला दिखाई देती है; वे सज्जनों का उद्धार करते एवँ दुर्जनों को अनुकूल दंड देते हैं.
वह मान्त्रिक चिता से उठकर उछलते हुए ग्राम
प्रमुख के घर आया. हम सबने प्रमुख के घर श्री दत्त-महात्म्य की महिमा गाने वाला
कीर्तन किया. इसके पश्चात “दत्ता दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा” के घोष से समूचा वातावरण गुंजायमान कर दिया.
श्रीपाद प्रभु के स्थूल रूप से तथा सूक्ष्म रूप से निकलती हुई किरणें पूरे वातावरण को शांत एवँ पवित्र बना
रही थीं. समूचा ब्रह्माण्ड इन दिव्य
किरणों से पवित्र हो उठा था. स्वामी का सच्चिदानंद अद्वैत स्वरूप में उपस्थित
महाकारण देह महत् विश्रांती की स्थिति में था. उसमें से निकलने वाले दिव्य किरण
सायुज्य, सालोक्य और सामीप्य मुक्ति प्रदान करने वाले
थे. अवधूत, अंशावतार और महासिद्धि प्राप्त महायोगी भी
इन दिव्य किरणों से पवित्र हो रहे थे. यदि श्रीपाद प्रभु का अत्यंत श्रद्धा एवँ
भक्तियुक्त अन्तःकरण से नामस्मरण किया जाए तो अगोचर, अदृश्य स्वामी प्रकट होकर सबको दर्शन देते हैं. जिस प्रकार नन्हें शिशु को
अपनी माँ की गोद में आह्लाददायक, आरामदायक अनुभूति होती है, उसी प्रकार श्रीपाद प्रभु के चरणों में नतमस्तक होने वाले भक्तों को होती
थी.
अत्यंत पापी, ऐसा वह मान्त्रिक श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के नामस्मरण संकीर्तन में लीन
हो गया, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु दिगम्बरावस्था में हैं. उसे ऐसा लगा कि उसके द्वारा किये गए पापों
के फलस्वरूप ही स्वामी उसे ऐसे दिखाई दे रहे हैं. अनगिनत सर्पों की उसने अपनी
मन्त्र विद्या से आहुती दी थी. अनेक महान सन्यासियों एवँ दिगम्बर विभूतियों को
उसने कष्ट पहुँचाया था. अब उसे अपने कर्मों का पश्चात्ताप हो रहा था. वह श्रीपाद
प्रभु के दिव्य स्वरूप का अंदाज़ लगा रहा था. वह श्रीपाद प्रभु के चरणों में
नतमस्तक हो गया. जब उसके ह्रदय में परिवर्तन हुआ तब उसके मन की द्वेषाग्नि शांत हो
गई. श्रीपाद प्रभु ने अपना उत्तरीय उसे ओढ़ने के लिए दिया. उसे लेकर वह मान्त्रिक
आनंदविभोर होकर नाचने लगा. सूर्योदय से पूर्व ही ग्राम प्रमुख के छोटे पुत्र को
उत्तम दृष्टी प्राप्त हुई. श्रीपाद प्रभु को समर्पित किये गए दूध के नैवेद्य से
बड़े पुत्र को होश आ गया और कुछ ही देर में वह पूर्ववत निरोगी हो गया. वह मान्त्रिक
सर्वसंग परित्याग करके साधू बन गया और दूर देश को निकल गया. गाँव के पंचों ने यह
निर्णय दिया कि उस वृद्ध दंपत्ति की ज़मीन उन्हीं को मिलनी चाहिए.
जिस बांबी में तीनों नाग रहते थे, वहाँ से तीन औदुम्बर के पेड़ निकले. कुछ समय पश्चात दत्तानंद अवधूत सन्यासी
हमारे घर आये. वे औदुम्बर वृक्ष के नीचे ही ध्यान किया करते थे. एक बार शनिवार को
श्रीपाद प्रभु को नैवेद्य के रूप में जो हलवा उन्होंने समर्पित किया था उसका
प्रसाद हमें दिया. श्रीपाद प्रभु जब छोटे थे तब उनकी माता नाना जी के घर के
औदुम्बर वृक्ष के नीचे बैठकर चांदी के पात्र में उन्हें हलवा दिया करती थीं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्रीनृसिंह सरस्वती और श्री स्वामी सनार्थ – इन तीन नामों के प्रतीक थे ये
तीन औदुम्बर वृक्ष.
(इन संकेत रूपी वृक्षों के बीजों का प्रतीक है पीठिकापुरम्
गांव का एक औदुम्बर वृक्ष. इस पुण्यप्रद वृक्ष की घनी छाया में पेड़ के नीचे, श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठा करके उस पर एक
सुन्दर मंदिर बनाया गया. इस मंदिर के बारे में यह प्रसिद्ध है, कि जो भक्त शनिवार को प्रदोष काल में हलवे का नैवेद्य प्रभु को समर्पित
करते हैं, उन्हें सब प्रकार के सुख, संपत्ति और अपार समाधान प्राप्त होगा.)
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की यह महिमा सुनकर मेरी
उनके प्रति भक्ति और भी दृढ़ ध हो गई और मैं अपनी अगली यात्रा पर कुरुगड्डी की दिशा
में चल पडा,
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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