।। श्रीपाद राजम् शरणं
प्रपद्ये।।
अध्याय १७
श्री नामानंद के दर्शन
जब मैं कुरुगड्डी जा रहा था, तो रास्ते में एक
स्त्री बाल खोले, विचित्र प्रकार से हास्य करती हुई मेरे निकट आई. उसकी मनःस्थिति
ठीक न होने के कारण वह कुछ अस्पष्ट-सा कहते हुए चिल्ला रही थी. वह जब मेरे निकट आई तो भय के कारण मेरे
हाथ-पैर थरथर कांपने लगे. उसके पीछे-पीछे हाथों में डंडे लिए दो बलवान पुरुष आ रहे
थे. उस स्त्री ने मेरे पैरों पर सिर रखकर उन दो बलवान पुरुषों से उसकी रक्षा करने
की प्रार्थना की. वह दृश्य देखकर मैं तो डर के मारे पीला पड़ गया. मेरे जैसा
ब्राह्मण, जो अपने घर-द्वार से दूर, परदेस में है, किस प्रकार उस स्त्री की रक्षा कर सकता था? उस समय मेरे मुख
से अचानक निकला, “हे माते! डरने की कोई बात नहीं. इन दुष्ट, दुराचारी लोगों से श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु तेरी निश्चित रूप से रक्षा
करेंगे. तुम निर्भय होकर उठो.” उस स्त्री के पीछे-पीछे आये वे पुरुष आश्चर्य से
मेरी और देख रहे थे. उनकी तुलना में मेरा शरीर बहुत कमजोर था, परन्तु मेरे धैर्य एवँ
दृढतापूर्वक दिए गए आश्वासन को सुनकर वे हैरान हो गए. वे बोले, “हे ब्राह्मण! हम इस दुराचारिणी को मारने के लिए आये हैं. यदि तू बीच में
पडा, तो तुझे भी मार डालेंगे. तू सीधे-सीधे हमारे
रास्ते से दूर हो जा.”
इन दुष्टों की बात सुनकर मुझमें एक अद्भुत शक्ति
का संचार हुआ और मैं बोला, “अरे, ब्राह्मण कुल में
जन्म लेकर, निर्लज्जता से गाय का वध करके, गो-मांस भक्षण करके, मदिरापान करने वाले तुम जैसे दुर्जनों के लिए मुझ
ब्राह्मण का और इस निरपराध स्त्री का वध करना कोई कठिन कार्य नहीं है.” मैं आने
वाली हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार था. आगे मैंने कहा, “जैसे ही तुम इस स्त्री का वध करोगे, वैसे ही कुष्ट
रोग से ग्रस्त हो जाओगे. सभी रोगों में यह अत्यंत भयंकर रोग है. तुम अपने कर्मों
से स्वयं ही इस रोग को निमंत्रण दे रहे हो. मुझे तुम पर दया आती है. यह सब मैं
तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूँ.”
मेरी बातें सुनकर उनकी सारी हिम्मत टूट गई और वे
पीले पड़ गए. जो कुछ भी मैंने उनके बारे में कहा था वह सच होने के कारण मेरी
भविष्यवाणी भी निश्चय ही सच होगी, ऐसा भय उनके मन में समा गया. उन्होंने अपनी सभी
गलतियों को मान लिया. उनकी दृष्टी में मैं एक विद्वान भविष्यवक्ता था, जबकि मुझे
ज्योतिष शास्त्र का कुछ भी ज्ञान नहीं था.
निकट ही एक वृक्ष की छाया में हम बैठ गये. मैंने
उनसे उनका जीवन वृत्तांत बतलाने की प्रार्थना की. वे बोले, “महाराज, आप त्रिकालदर्शी हैं. पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी
नहीं है जो आपको अज्ञात हो. आपने पूछा है, इसलिये बतलाता
हूँ. हम दोनों सगे भाई हैं. हमारा जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ, परन्तु हम ब्राह्मणत्व को पूरी तरह भूल गए और भ्रष्ट हो गए. गाय का मांस
खाने में हमें बड़ा आनंद आता था. इन सब दुर्गुणों के साथ ही मदिरापान का भयानक
व्यसन भी लग गया. हम पूरी तरह से दुरात्मा हो गए. सामने वाली पहाडी पर पद्मासन में
बैठी इस स्त्री को देखकर हमारे मन में बुरे विचार आये, परन्तु इसने
स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया. हमारा स्वाभिमान आहत हो गया और हम क्रोध में भरकर उसके
पीछे भागे. परन्तु सुदैव से आप जैसे महापुरुष के दर्शन प्राप्त हुए.”
मैंने कहा, “भाइयों! क्या
अच्छा है और क्या बुरा है, इसका निर्णय करने वाली सद्सत विवेक बुद्धि
ईश्वर ने मानव को दी है. अच्छे मार्ग का अवलंबन करने से अच्छा फल प्राप्त होता है, बुरा मार्ग पकड़ने पर बुरे अनुभव होंगे, इसमें कोई संदेह
नहीं है. यह स्त्री सदाचारी है इसलिए इसने तुम्हारी बात नहीं मानी. तुम्हारी
दृष्टी दोषपूर्ण है, इसलिए तुम्हें यह स्त्री दुराचारिणी प्रतीत
हुई. तुम इसके निकट बुरी कामना से गए थे, परन्तु अब
तुम्हें अपने बुरे कर्मों का पश्चात्ताप हो रहा है. तुम्हारे पापों को परमेश्वर
क्षमा करेंगे अथवा नहीं, यह मैं नहीं कह सकता, मगर एक शुभ वार्ता अवश्य सुनाता हूँ. समूचे त्रैलोक्य के आराध्य देव, त्रिमूर्ति स्वरूपी श्री दत्त प्रभु वर्त्तमान में मानव रूप में श्रीपाद
श्रीवल्लभ के नाम से कुरुगड्डी नामक गाँव में निवास कर रहे हैं. उनके दिव्य चरण
तुम्हारा उद्धार करेंगे. उनकी अनेक दिव्य लीलाएँ मैंने सूनी हैं.”
वह स्त्री बोली, “आपने इन दुष्ट
पापी लोगों से मेरी रक्षा की है. आप मेरे लिए पिता समान हैं. मेरा जन्म एक उच्च
ब्राह्मण कुल में हुआ. बहुत कम आयु में ही मेरा विवाह हो गया. यह मेरा दुर्भाग्य
था कि मेरा पति मुझे बहुत दुःख पहुंचाता था, मगर मैं पूरे
मनोभाव से उसकी सेवा करती थी. वह मुझ पर निरर्थक, झूठे दोष लगाता
जिससे मुझे अत्यंत मानसिक पीड़ा पहुँचती. उसके माता-पिता, घर के बड़े लोग उसे समझाने का खूब प्रयत्न करते, परन्तु वह किसी की भी नहीं
सुनता था.” यह कहते हुए उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे. कुछ देर बाद खुद को
संयत करके वह बोली, “हमारे गाँव में एक मान्त्रिक आया था. उसे
ज्योतिषशास्त्र का अच्छा ज्ञान था. मेरे सास-ससुर ने उसे बुला भेजा. उसने मेरी
कुण्डली बनाकर विचित्र पूजा-अर्चना की और बोला, “यह नीच जाति की
स्त्री है. इसके हाथों से अनगिनत अमंगल कार्य हुए हैं, इस कारण इसके पति
को नपुंसकत्व प्राप्त हुआ है. इसे घर से बाहर निकाल दोगे तो तुम्हारे सारे गृह दोष
नष्ट हो जायेंगे और मेरी पूजा-अर्चना का फल प्राप्त होगा. इसका पति भी सशक्त हो
जाएगा, फिर आप उसका विवाह दूसरी कन्या से कर देना.
उन्हें यथावकाश संतति प्राप्त होगी.”
उस ज्योतिषी के कहने पर दृढ़ विश्वास रखते हुए
मेरे सास-ससुर ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया. उनके द्वारा सताए जाने से मैं बहुत
हैरान हो गई थी. मेरे सामने कोई भी सहारा न था, अतः मैंने मायके
जाने का निश्चय किया. परन्तु तभी वह मान्त्रिक आया, उसने मुझे रोका
और बुरी नज़र से मुझे देखने लगा. उसकी आँखों में मुझे दुष्ट वासना के जलते हुए
अंगारे दिखाई दिए. मैं बहुत क्रोधित हो गई. मेरे शरीर में भद्रकाली की शक्ति प्रकट
हो गई. मैंने निकट ही पडा हुआ एक बड़ा पत्थर उठाया और उसे मान्त्रिक के सिर पर दे
मारा. इस भयानक मार से उस मान्त्रिक का सर फूट गया और वह मर गया. मेरे शील की
रक्षा का कोई दूसरा मार्ग मेरे सामने न देखकर ही मैंने वह पत्थर मान्त्रिक को मारा
था. मगर मेरे दुर्भाग्य से मेरे हाथ से एक ब्राह्मण की ह्त्या हो गई थी. मेरा मन
बहुत अशांत हो गया. क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं
आ रहा था. मैंने मायके जाने का निश्चय किया, परन्तु इससे मेरी
समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं था. मेरे माता-पिता प्रेमपूर्वक मेरी देखभाल कर
लेते, परन्तु मेरे भाई, भाभी मुझसे अच्छा
व्यवहार करेंगे इसका कोई विश्वास नहीं था. मान्त्रिक ने जिस तरह से मुझे सताया, उसके बारे में मैं किसी से कैसे कह सकती थी? मुझे मान्त्रिक
की ह्त्या करते हुए गाँव के सभी लोगों ने देखा था. ऐसी बातें आग के समान चारों और
फैलती हैं.
उसी परिसर में औदुम्बर का एक पेड़ था. मैंने सुना
था कि यह वृक्ष श्री दत्त प्रभु को अत्यंत प्रिय है. इस पेड़ के नीचे बैठे-बैठे
मुझे गहरी नींद आ गई. कुछ देर बाद जब आँख खुली तो देखा कि मेरे दोनों तरफ दो नाग
मेरी रक्षा कर रहे हैं. मैंने उन दोनों नागों को प्रणाम किया तब वे दूसरी और निकल
गए. मैं “दत्त दिगम्बर, दत्त दिगम्बर, जय गुरुदेव दत्त” ऐसा जाप कर रही
थी. मैंने सुना था कि यदि दत्त प्रभु का केवल स्मरण भी किया जाए तो वह भक्तों की
सहायता के लिए दौड़ कर आ जाते हैं. सौभाग्य से, जब मैं औदुम्बर
वृक्ष की छाया में थी तो मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि श्रीपाद प्रभु का कृपा छत्र मेरे
सिर पर है. जब मैं नाम स्मरण कर रही थी तो एक पथिक इस पेड़ की छाया में विश्राम
हेतु आया, मैंने भयभीत होकर उससे पूछा, “तुम कौन हो? तुम यहाँ से निकल जाओ, अगर नहीं गए तो पत्थर से तुम्हें मार डालूँगी, कुछ ही देर पहले
मैंने एक मान्त्रिक को मारा है.”
वह पथिक बोला, “माई, मैं एक रजक कुल में जन्मा हूँ, मेरा नाम है रविदास. मैं श्री दत्त प्रभु का
भक्त हूँ. मैं कुरवपुर में रहता था. श्री गुरु दत्त श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में
भूतल पर अवतरित होकर वर्तंमान में कुरवपुर क्षेत्र में उनका वास है. दूर-दूर रहने
वाले दत्त भक्तों को यह समाचार मिले इस हेतु से वे नई-नई लीलाएं करते रहते हैं.
मैं अभी कुरवपुर जा रहा हूँ. तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ आओ. कुरवपुर यहाँ से
निकट ही है. पहले मैं अपने भाई के पास जाऊंगा, वहाँ से आगे
कुरवपुर जाऊंगा.” तब मैंने कहा, “तुम्हारी बात पर मैं कैसे विश्वास करूँ? आप जिनकी बात कर रहे हैं, वे श्रीपाद श्रीवल्लभ कौन हैं, यह भी मैं जानना नहीं चाहती. वे यदि वास्तव में दत्तात्रेय प्रभु होते तो
उन्होंने मेरी रक्षा की होती. यह सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की है कि वे
दत्त गुरु हैं. मैं श्रीपाद प्रभु का नामस्मरण नहीं करती, परन्तु श्री दत्तात्रेय का ही नाम स्मरण करती हूँ. इसके बाद जो होगा, मैं देख लूँगी. आप फ़ौरन यहाँ से निकल जाईये, वरना कुछ अनर्थ
हो जाएगा.”
मेरी बात सुनकर वह भक्त रविदास “दत्त दिगम्बर, श्रीपाद श्रीवल्लभ” का नामस्मरण करते हुए चला गया. उसके बाद मैं पद्मासन
में बैठकर ध्यान करने लगी. तभी ये दोनों दुष्ट वहाँ आये. उनकी नशीली नज़र मुझ पर
पडी और वे मेरे पीछे पड़ गए. आपने इन दोनों दुष्टों से मेरी रक्षा की है.” तब मैंने
कहा, “हे माता! श्रीपाद प्रभु की कृपा से ही तेरी
रक्षा हुई है. वे अन्तर्यामी हैं, कालातीत हैं. इस सृष्टि में विविध कालावधित
घटनाएं होती रहती हैं. इन सभी घटनाओं के पीछे वे स्वयँ कारण बन कर स्थित रहते हैं.
इस सृष्टि में बिना कारण के कोइ कार्य नहीं होता. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी को
निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार – किसी भी अवस्था में कोई भी जान नहीं सकता. प्रत्यक्ष वेद भी असमर्थ
हैं उनका स्वरूप जानने में और वे “नेति-नेति” हम नहीं जानते, ऐसा कहते हैं. जब वेदों की यह अवस्था है, तो सामान्य भक्त
उनके बारे में क्या जान सकता है? उनके स्वरूप का ज्ञान केवल उन्हीं को है, इसमें रत्तीमात्र भी संदेह नहीं है. मगर यदि हम उनका नामस्मरण करते रहे, तो उनका अनुग्रह अवश्य प्राप्त होगा और सभी दुखों से हमें मुक्ति मिलती है.
मैं, वे दोनों ब्राह्मण और वह ब्राह्मणी – सुशीला
कुरुगड्डी की ओर चल पड़े. मार्ग में हम श्री दत्त प्रभु और श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी का भजन करते हुए, नामस्मरण करते हुए चल रहे थे. रास्ते में लोग
यह समझ रहे थे कि हम किसी भजन मंडली के लोग हैं. हम मार्ग में स्थित नामानंद
स्वामी के आश्रम में पहुंचे.
श्रीपाद प्रभु का रूप परिवर्तन और शिष्य नामानंद पर उनका
अनुग्रह
श्री नामानंद स्वामी त्रिकालज्ञानी महात्मा
पुरुष थे. उन्होंने बड़े आदरपूर्वक हमारा स्वागत किया. उन्होंने अपना परिचय इस
प्रकार दिया, “ मेरे पिता का नाम मायन्नाचार्युलु और मेरा
नाम सायन्नाचार्युलु है. हमारा गोत्र भारद्वाज है और हम वैष्णव सम्प्रदाय के हैं.
संन्यास दीक्षा ग्रहण करने पर मेरा नाम नामानंद रखा गया. संन्यास लेने के बाद
मैंने पूरी तरह वैराग्य धारण किया और पुण्यतीर्थों तथा सिद्धतीर्थों की यात्रा की.
तत्पश्चात सदगुरु की खोज में निकल पडा. घूमते-घूमते मैं पीठिकापुरम् पहुँचा. हम
वैष्णव हैं, इसलिए श्री विष्णु की ही आराधना करते हैं.
हमारे यहाँ शुद्ध-अशुद्ध, छुआ-छूत बहुत कठिन होता है एवँ आचार-विचार उच्च
रहते हैं. पीठिकापुरम् में कुंती-माधव का दर्शन लेकर बाहर आया तो सामने एक चांडाल
खडा नज़र आया. हम चांडाल का दर्शन अशुभ मानते हैं. वह चांडाल सम्मुख आकर ऊंचे सुर
में बोला, “हमारी दक्षिणा देकर आगे जाओ.” मैं आश्चर्य से
उसकी और देखता ही रहा. गाँव के सभी लोग यह घटना देख रहे थे. सभी सोच रहे थे कि
कलियुग होने के कारण ही ऐसी अजीब बात हो रही है. वह चांडाल मदिरापान करके श्री
वैष्णवों पर अत्याचार करता था. तभी नामानंद ने उससे कहा, “अरे चांडाल, तू कौन है? मैं एक वैष्णव
ब्राह्मण हूँ. मेरा नाम नामानंद है. मुझसे तेरा दक्षिणा मांगना उचित नहीं है.”
उस चांडाल के नेत्र लाल हो गए थे, उसका चेहरा ऐसा भयंकर था कि हर कोई डर जाए. नामानंद के शांत वक्तव्य से वह और
भी क्रोधित हो गया. वह चांडाल नामानंद से बोला, “तू सद्गुरू की
खोज में मूर्ख के समान भटक रहा है. तू मुझे जानता नहीं है, मैं ही तेरा सद्गुरू हूँ. मैंने ही संन्यास दीक्षा के बाद तुझे “नामानंद”
का नाम दिया. तू अपनी सारी संपत्ति गुरुदक्षिणा के रूप में मुझे अर्पण कर दे और
सबके सामने साष्टांग दंडवत करके गुरू के रूप में मुझे स्वीकार कर. यदि तूने ऐसा
नहीं किया तो मैं तेरा सर्वनाश कर दूँगा.”
उस चांडाल ने नामानंद के साथ बड़ा कठोर व्यवहार
किया था. वह आगे बोला, “ तुझे वही करना होगा, जैसा मैं कहूंगा. तू ईश्वर की कितनी भी आराधन कर ले, फिर भी तेरी कोई मदद नहीं करेगा.” इतना कहकर वह चांडाल नामानंद पर टूट पडा.
नामानंद की इच्छा न होते हुए भी, अन्य कोई उपाय
न देखकर उन्होंने उस चांडाल के पैर पकड़ लिये. उन्होंने अपना सर्वस्व गुरूदक्षिणा
स्वरूप उस चांडाल को अर्पण कर दिया. ईश्वर की जो प्रतिमा हमारे मन में होती है, उससे वह कितना विपरीत होता है, ऐसा विचार नामानंद के मन में आया. परन्तु तभी
उन्हें यह आभास हुआ कि वह चांडाल उन्हें दिव्य मंगल स्वरूप में दर्शन दे रहा है.
उसके दिव्य नेत्रों से अनंत दया एवँ करुणा की वर्षा हो रही थी. दिव्य मंगल स्वरूप
युक्त उस परमेश्वर ने कहा, “मैं श्री दत्त
हूँ, वर्त्तमान में श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप में
पीठिकापुरम् में अवतरित हुआ हूँ. तू मेरा भक्त है और मैं तेरा सद्गुरू हूँ. तू
मेरा सर्वस्व हो गया है. मैं ही सत्, चित्, आनंद हूँ. तू कल से ही नामानंद नाम
ग्रहण कर धर्म प्रचार में लग जा. तुझे सुख एवँ शान्ति प्रदान होगी. अंत में तू
मेरे पद को आयेगा.” इतना कहकर चांडाल का रूप धारण करने वाले दत्त प्रभु अंतर्धान
हो गए.
नामानंद स्वामी
को श्रीपाद श्रीवल्लभ द्वारा भोजन का निमंत्रण
इस प्रकार नामानन्द सन्यासी पीठिकापुरम् के लिए
निकल पड़े श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शनों के लिए. मार्ग में किसी ने भी उन्हें
भिक्षा नहीं दी. भूख से उनके प्राण व्याकुल हो रहे थे. सब लोग उनको संदेह की
दृष्टि से देखा रहे थे. वे समझ रहे थे कि यह एक पागल है. एक चांडाल आकर इससे
गुरुदक्षिणा ले गया. इसने ब्राह्मण होते हुए भी एक चांडाल को अपना गुरू बनाया है, अतः यह अस्पृश्य हो चुका है. इसलिए इसे भिक्षा देना शास्त्रों के विरुद्ध
होगा. इस विचार से पीठिकापुरम् के लोगों ने नामानंद स्वामी को भिक्षा नहीं दी.
घूमते-घूमते वे अप्पल राजू शर्मा के घर पहुंचे. भूख से व्याकुल नामानंद स्वामी के
मुख से बोल नहीं फूट रहे थे. किसी तरह उन्होंने ‘ऊँ भिक्षां देहि’ कहा. तभी द्वार खोलकर श्रीपाद श्रीवल्लभ घर से भोजन से भरी हुई थाली लेकर
आये. उन्हें ड्योढी पर बिठाकर प्रभु ने अपने हाथ से नामानंद स्वामी को खाना
खिलाया.
कैसा अपूर्व है यह सौभाग्य! विश्व-नियंता अपने
हाथ से अपने भक्त को खाना खिला रहा था. धन्य हैं
वह गुरू और वह शिष्य! भोजन के पश्चात उस अनंत शक्ति स्वरूप विधाता ने अपना
हाथ नामानंद के सिर पर रखा और आशीर्वाद दिया, “तुम्हें सब
प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होंगी. किसी भी चीज़ के लिए तुझे हाथ पसारना नहीं
पडेगा. तू कहीं भी रहे, मैं हमेशा तेरे साथ अदृश्य रूप में रहूँगा.
आँखों की पुतली के समान मैं तेरी रक्षा करूंगा.”
इस आशीर्वाद एवँ अभय वचन को प्राप्त करके
नामानन्द स्वामी उसी दिन से संन्यास ग्रहण करके धर्म प्रचार हेतु भ्रमण करने लगे.
अदृश्य रूप में श्रीपाद प्रभु का दिव्य हस्त स्वामी की रक्षा करता रहा. इस प्रकार
की जानकारी स्वामी नामानंद ने अपने आश्रम में हमें दी.
चार प्रकार के जीवन मुक्त प्राणी
नामानन्द स्वामी के आश्रम में सभी शिष्य बैठे थे. एक शिष्य ने गुरू से
प्रश्न किया, “स्वामी, श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से शीघ्र मोक्ष प्राप्ति होती है, इसके लिए क्या कोई साधन, मन्त्र अथवा विधान है? कृपया मेरे इस प्रश्न का समाधान करके मुझे कृतार्थ करें.” इस पर स्वामी
प्रसन्नचित्त से बोले, “हे पुत्र, मोक्ष का अर्थ है
– वासना त्याग. यह आवश्यक नहीं है कि मोक्ष शरीर के पतन होने के उपरांत ही प्राप्त
हो. प्रारब्ध के अनुसार शरीर को विविध अनुभवों से गुज़रना पड़ता है. जिन सत्पुरुषों
की जीवात्मा मुक्त अवस्था में होती है, उन्हें “जीवन्मुक्त” कहते हैं. अपने इष्ट देवता
के सान्निध्य में सदा रहने को “सालोक्य मुक्ति” कहते हैं. इस अवस्था में साधक इष्ट
देवताओं के लोक में रहता है. इनसे अधिक पुण्यवान भक्तों को इष्ट देवता के समीप
रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है, इसे “सामीप्य मुक्ति” कहते हैं. इनसे अधिक
पुण्यवान भक्तों को इष्ट देवता का स्वरूप ही प्राप्त हो जाता है. इसे “सारूप्य
मुक्ति” कहते हैं. इससे भी अधिक उच्च स्थिति तब प्राप्त होती है जब भक्त इष्ट
देवता के चैतन्य में लीन हो जाता है. इसे “सायुज्य मुक्ति” कहते हैं. इस
आध्यात्मिक चिंतन में श्री दत्त भक्त इहलोक में रहकर भी “सालोक्य मुक्ति” का अनुभव
प्राप्त करते हैं. वे अपने शरीर से प्रारब्ध के अनुसार भोग लेते हुए भी मन से श्री
दत्त प्रभु के चरणों में सदा लीन रहते हैं. उन्हें सदैव श्री दत्त प्रभु का ही
ध्यान रहता है.
सृष्टि धर्म एवँ सूक्ष्म सृष्टि में भी कालचक्र
निरंतर घूमता ही रहता है. सृष्टि के चिद्विलास को अपनी अंतर्दृष्टि से देखकर दत्त
भक्त आनंद विभोर हो जाता है. स्वार्थ रहित योगी की दिव्य शक्ति से विश्व का कल्याण
होता रहता है. इसमें उनकी नि:स्वार्थ वृत्ति दृष्टिगोचर होती है. इस प्रकार यह
योगी इहलोक में अपना कल्याण करके “सामीप्य मुक्ति” प्राप्त कर लेता है. ऐसा भक्त
श्री दत्त प्रभु की दिव्य लीलाओं का अपनी अंतर्दृष्टि से अवलोकन कर, उनका मनन, चिंतन करके “सालोक्य मुक्ति” से भी अधिक श्रेष्ठता प्राप्त करके
सर्वोच्च आनंद प्राप्त कर लेता है. जब जीवात्मा शरीर के बंधन में होता है, उस समय उसे अनेक वासनाएं, इच्छाएँ जकडे रखती हैं. परन्तु जब उसे मुक्त
अवस्था का ज्ञान होता है, तब उसे खूब हल्का-हल्का लगता है. इस प्रकार
इच्छा तथा वासना रहित लघु जीवात्मा आनंद में मग्न रहते हैं. “सायुज्य मुक्ति” का
लाभ जिन दत्त भक्तों को होता है, उनके भीतर श्री दत्त प्रभु की लीलाएँ यथेच्छ
मात्रा में प्रकट होती हैं.इन भक्तों को कुछ और पाने की इच्छा ही शेष नहीं रहती.
श्री दत्त प्रभु का दर्शन, स्पर्श, संभाषण एवँ
अनुग्रह जिन भक्तों को प्राप्त होता है, उन्हें सदा प्रभु
का संरक्षण मिलता रहता है. इहलोक में अथवा परलोक में प्राप्त होने वाला महदैश्वर्य
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ही देते हैं. मानव विविध देवताओं की विविध स्वरूपों में
आराधना करते हैं, ये सभी देवता श्रीपाद प्रभु का ही दिव्य अंश होते हैं. उन
देवताओं के माध्यम से श्रीपाद श्रीवल्लभ उन भक्तों को अनुग्रह प्रदान करते
है.
श्री दत्त आराधना की
विशेषता
इस पर मैंने कहा, “क्या हमें विविध
रूपों में अवतरित देवताओं की आराधना करना चाहिए अथवा श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की
आराधना करना चाहिए? क्या अन्य देवता श्रीपाद श्रीवल्लभ से भिन्न
हैं? कृपया इस बात का विश्लेषण करके समझाएं.”
नामानंद स्वामी ने उत्तर दिया, “एक कन्या
विवाहोपरांत अपनी ससुराल गई. कुछ महीनों के बाद उसका बड़ा भाई उससे मिलने गया.
कन्या की सास बोली, “तुम्हारी बहिन हमारे घर में विविध प्रकार की
चोरियां करती है, दूध, दही, मक्खन, घी चुरा चुरा कर खाती है. एकाध चोरी होती, तो मैं सहन कर लेती, परन्तु इतनी चोरियाँ?” तब भाई अपनी बहिन से बोला, “बहना, तू चोरी करना बंद
कर दे. तू सिर्फ दूध लेती जा, जिससे तेरी सास तुझ पर क्रोधित नहीं होगी. दूध
में सभी कुछ तुझे मिल जाएगा.” इसी प्रकार अकेले श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से
सभी कुछ मिलता है. लोग अपनी-अपनी पसंद के अनुसार विविध देवताओं की पूजा-अर्चना
करते हैं. शिव की पूजा करने से विष्णु प्रसन्न नहीं होते, न ही विष्णु पूजन से शिव प्रसन्न होते हैं. सगुण एवँ साकार देवताओं की पूजा
करने से भक्त को उसके कर्म के अनुसार फल मिलता है. अनेक जन्मों में किये गए
पाप-पुण्य का फल यदि क्षीण स्थिति में हो, तो पुण्य
महाविशेष श्रेणी में जमा हो जाता है. इस समय श्री दत्त प्रभु की भक्ति प्राप्त
होती है. ऐसे भक्त को सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं. ब्रह्मा द्वारा
लिखित भाग्य के लेख को कोई मिटा नहीं सकता. परन्तु जहाँ तक श्री दत्त प्रभु के
भक्तों का सम्बन्ध है, श्री दत्त प्रभु ब्रह्मदेव को आदेश दे सकते हैं, किसी भी जीवात्मा की शारीरिक, मानसिक एवँ आध्यात्मिक स्थिति श्री विष्णु के
कारण होती है. यदि महायोग शक्ति अपरिपक्व अवस्था में स्थित जीवात्मा में प्रवेश
करे तो शरीर, मन एवँ बुद्धि उस शक्ति को संभाल नहीं सकते, इसके फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है, मानो जीवात्मा
अग्निज्वाला में दग्ध हो रहा है. जीवात्मा के जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए
भगवान विष्णु सहायता करते हैं, ऐसा हर जीवात्मा के कर्मानुसार होता है.
श्रीकृष्ण श्री दत्त प्रभु के अभिन्न अंग हैं. श्रीकृष्ण ने अपनी तर्जनी पर
गोवर्धन पर्वत धारण किया था, यह तो सभी को ज्ञात है. गोकुल के सारे
गोप-गोपियाँ पूर्व जन्म में महान, महान ऋषि थे उनके द्वारा रचित महान ग्रन्थ
पर्वत के रूप में अवतरित हुए थे. इन महान ग्रंथों का विभेदन होकर उसमें से जब
प्रचंड महायोग शक्ति निकलती है, तब जीवात्मा को खूब हल्कापन महसूस होता है. इस
सूक्ष्म स्थिति में जीवात्मा को महायोगानंद प्राप्त होता है. इसे प्राप्त करने के
लिए कठोर तप की आवश्यकता होती है. श्रीकृष्ण भगवान अपने भक्तों का, आश्रितों का संपूर्ण भार स्वयँ वहन करते है, उनकी ग्रंथियों
का विभेदन करके उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं, यह एक आध्यात्मिक
रहस्य है. बौद्धिक दृष्टि से देखा जाए तो श्रीकृष्ण भगवान गोवर्धन पर्वत उठाकर
सबकी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है. श्री दत्त प्रभु का यही
निश्चय था. परिस्थिति में परिवर्तन लाने का, परिणाम क्रम को
शीघ्र प्राप्त करने का आदेश वे श्री विष्णु को देते रहते थे. इस प्रक्रिया में
भक्तों के प्रारब्ध के अनुसार मार्ग में आने वाली कठिनाईयाँ, उनके अनुभव, उनके अनजाने में ही सुलभ एवँ सुसह्य होते जाते थे. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
अपनी भारी-भरकम विद्याओं पर भक्तों का भार वहन करते हैं. श्रीपाद प्रभु कितने
दयालु हैं, कितने करुणामय हैं! श्रीपाद श्रीवल्लभ के साथ
सायुज्य स्थिति का अनुभव करने वाले योगियों ने एक लाख पच्चीस हज़ार अनुयायी बनाने
का संकल्प किया था. श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार का मुख्य लक्ष्य था इस उद्देश्य की
पूर्ती करना. वे कर्मबंधन के स्पंदनों से सबको मुक्त स्थिति में लाकर, रूद्र के अंश के रूप में प्रकट होकर करोड़ों जन्मों के पश्चात होने वाले
जन्मों का विनाश करके उस जीवात्मा को मुक्ति देते हैं. उनमें निहित ब्रह्मा, विष्णु एवँ रूद्र के अंश का प्रस्फुटन होकर उनके ईश्वरीय गुणों से भक्तों
की रक्षा होती है. यह सब उस आत्मा विशेष की इच्छानुरूप होता है. अपनी इच्छा को
फलीभूत देखने के लिए यह आवश्यक है कि भक्त जन भक्ति मार्ग का अवलंबन करें
एक बार पीठिकापुरम् में श्रीपाद प्रभु के एक
भक्त को, जब वह घोड़े पर बैठ रहा था, घोड़े ने नीचे गिरा दिया और पैरों से कुचल
दिया. वह भयानक रूप से ज़ख़्मी हो गया. उस ज़ख़्मी भक्त को श्रीपाद प्रभु ने अपना अभय
हस्त दिखाया और उसी समय उसकी सभी चोटें पूरी तरह ठीक हो गईं, मानो चोट लगी ही नहीं
थी. उसी दिन श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु पर दृढ श्रद्धा एवँ उनके प्रति भक्तिभाव रखने
वाले एक भक्त को अकस्मात् सौ मुहरों से भरा हुआ घडा प्राप्त हुआ. श्री
वेंकटप्पय्या ने प्रभु से विनती की कि इस घटना का विश्लेषण करके समझाएं. इस पर
श्रीपाद स्वामी बोले, “मैंने मेरे एक अनन्य भक्त की आयु बीस वर्षों
से बढ़ा दी है. उसकी भक्ति से संतुष्ट होकर मैंने उसे यह फल दिया है. आज एक भक्त को
सौ मुहरों से भरा हुआ घडा मिला, यह उसके लिए अत्यंत भाग्यशाली दिन है. जो मेरी
मन:पूर्वक अनन्य भक्ति करता है, मैं उसका दास हो जाता हूँ. जो भक्त अपने ह्रदय
में मुझे स्थापित करते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं. त्रैलोक्यपति
परमेश्वर भी ऐसे भक्तों के आधीन होकर उनके साथ ही संचार करते हैं.
श्री नामानंद स्वामी के दिव्य सत्संग से सभी बड़े
आनंदित हुए. वे दो ब्राह्मण नामानंद से बोले, “हमें अपने पाप
कर्मों पर पश्चात्ताप हो रहा है. आप हमें कृपया उपदेश दें.”
स्वामी नामानंद बोले, “तुम एक-भुक्त
व्रत करो. श्रम पूर्वक धन सम्पादन करो, और उस धन का उपयोग सद्ब्राह्मणों को अन्नदान
करने के लिए करो. इससे तुम्हारे पापों का क्षालन होगा. इस प्रकार का आचरण करने से
श्रीपाद प्रभु प्रत्यक्ष रूप से अथवा स्वप्न में दर्शन देंगे. मन्त्र दीक्षा
प्राप्त होने के बाद भी सदाचार का आचरण करो. यदि तुम पुनः दुराचारी वर्तन करोगे, तो श्रीपाद स्वामी तुम्हें दुगुनी सज़ा देंगे. इस बात का सदैव ध्यान रखना.”
श्री दत्तात्रेय की आराधना का फल
सुशीला नामक उस ब्राह्मणी ने श्री नामानंद से पूछा, “स्वामी! संकटों से किस प्रकार मुक्ति प्राप्त की जा सकती है?” इस पर नामानंद स्वामी ने प्रसन्न चित्त से कहा, “आत्मा शाश्वत है. यह जन्म-मृत्यु से परे है. उसे अग्नि जला नहीं सकता, शस्त्र हानि नहीं पहुँचा सकता, पानी उसे
भिगो नहीं सकता, वायु उसे
सुखा नहीं सकता. मनुष्य करोड़ों बार मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः पुनः जन्म लेता
है. तुम अनघा देवी का व्रत करो, इससे तुम
संसार में सुखी होगी. साथ ही तुम देवी सहित श्री दत्तात्रेय की आराधना करके उन्हें
संतुष्ट करो. ऐसा करने से श्री दत्तात्रेय प्रभु निश्चय ही तुम पर कृपा करेंगे.
श्री बापन्नाचार्युलु को श्री दत्त प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए और उन्होंने ‘सिद्ध
मंगल स्तोत्र’ की रचना की. प्रत्यक्ष श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन की अनुभूति
से गाए जाने वाले इस स्तोत्र के अक्षर अत्यंत प्रभावशाली हैं. इन अक्षरों में
निहित चैतन्य युगों युगों तक विलसित रहेगा. इस स्तोत्र में व्याकरण की दृष्टी से
कोई भी त्रुटी नहीं है. इस स्तोत्र के पठन के लिए किसी भी विधि-विधान की आवश्यकता
नहीं. मुझे यह स्तोत्र श्री बापन्नाचार्युलु के मुख से सुनने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ. यह स्तोत्र मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो गया है:
सिद्ध मंगल स्तोत्र
१.श्री मदनंत श्री विभूषित अप्पल लक्ष्मी नरसिंह राजा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
२.श्री विद्याधरी राधा सुरेखा श्री राखीधर
श्रीपादा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्रीमदखण्ड श्री
विजयी भव।।
३.माता सुमति वात्सल्यामृत परिपोषित जय श्रीपादा ।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
४.सत्यऋषीश्वर दुहितानन्दन बापन्नाचार्यनुत
श्री चरणा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
५.सवित्र काठक चयन पुण्यफल भारद्वाज ऋषि
गोत्र संभवा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
६. दो चौपाती देव लक्ष्मी गण संख्या बोधित
श्री चरणा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
७.पुण्यरूपिणी राजमाम्बासुत गर्भ पुण्यफल
संजाता।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
८.सुमति नंदन नरहरी नंदन दत्तदेव प्रभु
श्रीपादा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
९.पीठिकापुर नित्यविहारा मधुमती दत्ता मंगल
रूपा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
इस परम पवित्र सिद्ध मंगल स्तोत्र का पठन यदि श्री अनाघाष्टमी का व्रत करने
के पश्चात किया जाए तो सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन देने का पुण्य प्राप्त होता है.
साथ ही स्वप्न में सिद्ध पुरुषों के दर्शन प्राप्त होते हैं. इसके पठन से सभी
मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं जो भक्त काया, मन तथा
कार्य से श्री दत्तात्रेय प्रभु की आराधना करके इस स्तोत्र का पठन करते हैं, वे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की कृपा के पात्र बन जाते हैं, इसके नियमित गायन से सूक्ष्म वायुमंडल में अदृश्य रूप से संचार करने के
सिद्धी प्राप्त होती है.
श्रीपाद प्रभु का सुशीला
के पति पर अनुग्रह
श्री नामानंद स्वामी की अमृत वाणी सुनकर मेरे मन
में एक विचार आया. मैंने श्री नामानंद से कहा, “हे स्वामी, इस स्तोत्र के पठन में श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं का सप्रसंग वर्णन
करें, ऐसी मेरी आपके चरणो में नम्र प्रार्थना है.” हम
तीनों पर स्वामी ने अपनी दयामयी, आनंददायी दृष्टी डाली और हमारी विनती को
स्वीकार किया. उस रात को हमने श्रीपाद प्रभु का नामस्मरण किया. स्वामी ने प्रभु की
लीलाओं का वर्णन करते हुए ‘सिद्ध मंगल स्तोत्र’ का गायन आरम्भ किया. उस दिव्य
अनुभूति में रात कब बीत गई, पता ही नहीं चला. उष:काल में हमने श्रीपाद
प्रभु की मंगल आरती की. थोड़ी ही देर में खाद्य पदार्थों से भरी हुई एक बैलगाडी
आश्रम में आई. गाडीवान नीचे उतरा. उसने सारी खाद्य सामग्री गाडी से उतार कर आश्रम
में रखी. फिर वह सुशीला से बोला, “थोड़ी ही देर में
तुम्हारा पति, सास एवँ ससुर दूसरी बैलगाड़ी से आने वाले हैं.”
उस गाडीवान की बोली में एक अनोखी मिठास थी. देखने में भी वह दूसरे गाडीवानों जैसा
नहीं था. उस गाडीवान की और निरंतर देखते रहने को मन करता था, परन्तु. वह सामान
उतारकर, संदेसा देकर फ़ौरन निकल गया. उस समय नामानंद
स्वामी ध्यानावस्था में थे. ध्यानावस्था से निकलने पर उन्होंने पूछा, “वह गाडीवान कहाँ है?” हमने उन्हें
बताया कि वह सामान रखकर चला गया है. यह सुनते ही स्वामी बोले, “तुम लोग कितने भाग्यवान हो! मैं ही अभागा हूँ.”
वे आगे बोले, “परम करुणा की
मूर्ती श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु अपने लिए गाडीवान के रूप में खाद्य सामग्री लेकर
आये. उन्होंने तुम लोगों को दर्शन दिए.” फिर वे सुशीला की और मुड़कर बोले, “हे सुशीला! तुम्हारा भाग्योदय हो गया है.
तुम्हारे पति का नपुंसकत्व समाप्त हो गया
है. तुम्हारा पति एवँ सास-ससुर दूसरी बैलगाड़ी में आ रहे हैं.”
सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा त्रिकालज्ञानी स्वामी
नामानंद ने कहा था. सुशीला अपने पति तथा सास-ससुर के साथ अपने घर चली गई. मैंने
तथा उन दोनों ब्राह्मणों ने श्री स्वामी से कुरुगड्डी जाने की आज्ञा मांगी. श्री
नामानंद स्वामी का आशीर्वाद लेकर हम कुरुगड्डी के मार्ग पर चल पड़े.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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