।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
।। अध्याय १८ ।।
।। संत रविदास एवं श्रीपाद प्रभु के दिव्य मंगल दर्शन।।
मैं उन दोनों ब्राह्मणों के साथ यथासमय कुरुगड्डी पहुंचा. अनंत कोटि
ब्रह्माण्ड नायक, जो आदि, मध्य, अंत रहित हैं, चतुर्दश
भुवनों का जिनमें समावेष है और जो इन लोकों के सार्वभौम हैं, ऐसे लीलावतारी भगवान श्रीपाद प्रभु कृष्णा नदी से स्नान करके बाहर आ रहे
थे. उनके दिव्य मंगल स्वरूप के इस अकस्मात् दर्शन से हम भाव विभोर हो गए. उनके
नेत्रों से अपार प्रेम, करुणा एवँ
वात्सल्य की वर्षा हो रही थी. वे मेरे निकट आये : मैं संभ्रमित हो गया. क्या करूँ, यह मैं समझ ही नहीं पाया. वे स्वयँ ही मुझसे प्रणाम करने को कह रहे थे.
मेरे उनके चरणस्पर्श करने पर उन्होंने अपने कमंडलु से पवित्र जल मुझ पर छिड़का. मैं
स्तब्ध रह गया. वे अपनी मधुर वाणी में बोले, “बेटा, शंकर भट्ट!
मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ.” उस मधुर वाणी का वर्णन मैं शब्दों द्वारा नहीं कर सकता.
उनकी वात्सल्यपूर्ण दृष्टी मुझ पर पड़ते ही मैं कृतार्थ हो गया. समस्त भूमंडल में
अपनी अनंत शक्ति से विराजमान प्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ ने अपना वरदहस्त मेरे मस्तक
पर रखा. मेरी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो गई और मेरे सामने की सारी सृष्टि अंतर्धान
हो गई. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सहस्त्रों सागर मेरा आलिंगन कर रहे हैं. एक अनंत
शक्ति का विद्युत् प्रवाह मेरी नसों में प्रवाहित होने लगा, शरीर में दाह उत्पन्न
हो गया. मेरे नेत्र अपने आप बंद हो गए, नाडी तथा
ह्रदय स्पंदन कुछ देर के लिए रुक गए. मेरा मन निर्विकार एवँ निश्चल होकर अनंत
शून्य में खो गया. मेरे ह्रदय का चैतन्य विश्व चैतन्य में विलीन हुआ प्रतीत हुआ.
इस अवस्था में मैं अत्यंत आनंद का अनुभव कर रहा था. उस स्थिति का शब्दों में वर्णन
करना कठिन है. उस अत्युच्च आनंद की अवस्था में मुझे ऐसा आभास हुआ, मानो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड मुझसे निकलकर सृष्टि, स्थिति एवँ विलय को प्राप्त हो रहे हैं. ऐसा दृढ़ विशवास हो रहा था कि मैं
इन से भिन्न नहीं हूँ. मेरे ‘स्व’ का विलय हो जाने
के कारण मैं एक अव्यक्त आनंद की अवस्था में था. यह सब मुझे बड़ा विचित्र प्रतीत हो
रहा था. तभी श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेमभाव से अपने कमंडलु से मुझ पर जल छिड़का.
मैं वापस सहज स्थिति में लौट आया. संपूर्ण विश्व के जो आदिगुरू हैं, वे श्रीवल्लभ सहस्त्रों माताओं की वात्सल्य पूरित दृष्टी से मेरी ओर देखते
हुए मंद स्मित कर रहे थे.
यवनों को श्रीवल्लभ
प्रभु के दर्शन
मेरे साथ आये दोनों ब्राह्मणों को श्रीपाद प्रभु
से बात करने का अथवा उनके चरण स्पर्श करने का साहस न हुआ. श्रीपाद स्वामी से मुझसे
पूछा, “तुम्हारे साथ आये ये दोनों अपरिचित कौन हैं?” मैंने कहा, “प्रभु, आपके दिव्य चरणों
के दर्शन की अभिलाषा रखने वाले ये दो ब्राह्मण हैं.” इस पर प्रभु बोले, “ ये ब्राह्मण नहीं प्रतीत होते, गौ-मांस भक्षण
करने वाले यवन प्रतीत होते हैं. सच-झूठ उन्हीं से पूछो.” तभी वे ब्राह्मण बोले, “हम ब्राह्मण नहीं हैं, निःसंदेह हम यवन हैं. हम कुरान पढ़ते है.” उनके इस
कथन से मैं स्तंभित रह गया. “श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम से माया वेश में संचार करने
वाले जगत्प्रभु श्री दत्तात्रेय स्वामी को पहचानना अनेक जन्मों का पुण्य फल है. उस
स्थिर भाव में संपूर्ण रूप से भक्तिभाव का अनुभव करना महद्भाग्यपूर्ण है.
“गौ माता में सब देवताओं का वास होता है. गाय के
बिना घर स्मशान के समान है. श्रद्धा पूर्वक गौ माता की सेवा करने वाले मुझे बहुत
प्रिय हैं. गाय का दूध तुष्टिदायक एवँ पुष्टिदायक होता है. ब्राह्मण के रूप में
जन्म लेकर गौ मांस खाने वाला दंड का पात्र होता है. यज्ञ-याग करते समय बकरी की बलि
दी जाती है. यज्ञ-पशु होने के कारण बकरी अथवा अन्य पशु भी अपनी नीच योनि से मुक्त
होकर आगे उत्तम जन्म प्राप्त करते हैं. यज्ञ-पशु को उत्तम जन्म प्राप्त हो इसके
लिए यज्ञ करने वाले को महायोगी के तपोबल एवँ योगबल से समृद्ध होना अत्यावश्यक है.
यदि वह योगी ऐसा समर्थ न हो, तो उसे प्राणी ह्त्या का पाप लगता है. देश एवँ
कालानुसार धर्म-कर्म पद्धति में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है. यवन तपस्वी यदि
गौ मांस भक्षण करे तो भी परमेश्वरार्पण बुद्धि से किया गया यह कर्म उस गाय तथा
उसकी संतति को उत्तम जन्म दे जाता है. परन्तु यदि ऐसा न हो, तो महान पाप होता है, इसलिए गोहत्या, शास्त्रानुसार, महान पाप है.”
“कौरव-पांडवों के युद्ध के लिए उचित धर्मक्षेत्र
की खोज में अर्जुन एवँ श्रीकृष्ण निकले. उन्होंने एक खेत में एक किसान को सिंचाई
करते हुए देखा. पानी के प्रवाह को रोकने के लिए वह एक बड़ा पत्थर ढूंढ रहा था. तभी
उसका पुत्र अपने पिता के लिए भोजन लेकर आया. खाना खाने के पश्चात, जब पानी के बहाव
को रोकने के लिए किसान को पत्थर नहीं मिला, तो उसने अपने
पुत्र का वध कर दिया और उसके मृत शरीर का उपयोग खेत में पानी रोकने के लिए किया.
उस समय उस किसान तथा उसके पुत्र के बीच यह वध करते समय कोई भी अन्य भावना नहीं थी.
वे दोनों निर्विकार थे, फसल पका कर सबको अनाज देना, बस इतना ही वह किसान जानता था. वही उसका धर्म था. फल की आशा किये बिना वह
किसान अत्यंत श्रद्धाभाव से अपना कर्म कर रहा था. इसी स्थान को श्रीकृष्ण ने
धर्मक्षेत्र के रूप में चुना.”
“अरे
नाममात्र के ब्राह्मण! गोमांस भक्षण करना कभी भी योग्य नहीं है. तुम्हारे पूर्व
पुण्य से तथा पूर्व पितृ देवताओं की प्रार्थना से, एवँ मेरी अपार करुणा के कारण ही
तुम्हें मेरे दर्शनों का काभ प्राप्त हुआ. इसी को अपना महान सौभाग्य समझो.
तुम्हारे द्वारा किया गया प्रणाम मैं स्वीकार नहीं करूंगा. तुम मुझे स्पर्श न
करना. मेरे कमण्डलु के जल को तुम्हारे शरीर पर छिड़कना असंभव है. तुम तुरंत यहाँ से
निकल जाओ. तुम्हारे अन्न-वस्त्र की व्यवस्था मैंने कर दी है. किसी यवन स्त्री से
विवाह करके तुम यवन की भाँती रहना. जिन गायों का तुमने वध किया है, वे अगले जन्म में तुम्हारी संतान के रूप में जन्म लेंगी और तुम्हें कष्ट
देकर तुम्हारे धन से सुख प्राप्त करेंगी. मेरे दर्शनों के कारण तुम पुनीत हो गए
हो, इस कारण कुछ जन्मों के पश्चात तुम बड़े बाबा और अब्दुल बाबा के नाम से जाने
जाओगे. महाराष्ट्र के शिरडी ग्राम में श्री साईंबाबा नामक महात्मा का अवतार होगा, वे तुम्हारा उद्धार करेंगे. मेरे ये वचन पत्थर की लकीर के समान हैं.” इतना
कहकर श्रीपाद प्रभु ने उन्हें वहाँ से जाने को कह दिया.
अब वहाँ केवल मैं और श्रीपाद प्रभु ही थे. तभी
वहाँ रविदास नामक रजक आया. रविदास निरंतर प्रभु को प्रणाम किये जा रहा था, परन्तु प्रभु उसकी और ध्यान नहीं दे रहे थे. कुछ देर पश्चात वे उसकी और
देखकर मुस्कुराए. मुझे इस बात से आश्चर्य हुआ. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने मेरे माथे
के मध्य बिंदु को जोर से दबाया. तब मुझे अपनी आंखों के सामने चित्र-विचित्र दृश्य
दिखाई दिए.
श्रीपाद स्वामी का अपने भक्तों पर अनुग्रह
रविदास की नौका कृष्णा नदी में कुरुगड्डी की और जा रही थी. उस नाव में एक
वेदशास्त्र पंडित बैठे थे. अन्य अस्पृश्य जाति के लोगों के स्पर्श से बचने के लिए
वे अकेले ही उस नौका में बैठे थे. वे पंडित जी रविदास से बोले, “मैं महापंडित हूँ और श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के पास जा रहा हूँ.
उन्होंने मुझे बुलाया है, वे ही तुझे नौका का किराया देंगे.” यह सुनकर रविदास ने
अपनी सम्मति दर्शाई. नौका चल पडी. बातों-बातों में उस पंडित को ज्ञात हुआ कि
रविदास को पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं का किंचित भी ज्ञान नहीं है. वह पंडित बोला, “अरे रविदास, तुझे
इतिहास-पुराण आदि का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है, अर्थात तूने अपना तीन चौथाई जीवन व्यर्थ गँवा दिया है. यह सुनकर रविदास
निराश हो गया. अचानक वायु की गति तीव्र हो गई. नौका में एक छेद हो गया और उसमें से
पानी भीतर आने लगा. रविदास ने पंडित जी से पूछा, “महाराज, क्या आपको
तैरना आता है?” पंडित ने
जवाब दिया, “अरे, मुझे तो तैरना नहीं आता.” रविदास बोला, “महाराज, मैं तो
तैरना जानता हूँ, परन्तु तैरना
न जानने के कारण आपका सौ प्रतिशत जीवन व्यर्थ हो गया है.”
बढ़ते हुए जलस्तर को देखकर रविदास ने श्रीपाद प्रभु का नाम लेकर पानी में
छलांग लगाने की तैयारी की. तभी उसे पानी के बीचोंबीच एक दिव्य कांति दिखाई दी.
उसने आदि-अंत रहित श्रीपाद स्वामी की महिमा के बारे में अनेक कथाएँ सुनी थीं.
रविदास ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक उस दिव्य कांति को प्रणाम किया. नौका में जलस्तर
बढ़ता ही जा रहा था, तभी एक
महदाश्चर्य की बात हुई. एक अदृश्य हाथ उस
नौका से पानी निकाल-निकालकर बाहर फेंकने लगा. नौका में पानी कम हो गया और नौका
किनारे पर पहुँच गई. वे दोनों श्रीपाद प्रभु के दर्शन करने पहुंचे. रविदास ने पहले
कभी भी स्वामी के दर्शन नहीं किये थे, परन्तु आज
जब उसने स्वामी को प्रणाम किया तो उन्होंने प्रसन्न होकर मंद स्मित किया. उस पंडित
की और ध्यान ही नहीं दिया. शास्त्रों की चर्चा करने आये उस पंडित के मुख से बोल ही
नहीं फूटा. श्रीपाद प्रभु ने पंडित से कहा, “अरे, पंडित! अपने
अहंकार के कारण तुझे योग्य तथा अयोग्य का ज्ञान ही न रहा. महापंडित होकर भी तूने
सद्गुणों के बदले पाप-संचय ही किया है. अपनी सुशील पत्नी को कष्ट देकर एक सुखी
परिवार की रानी को अपने पति से परावृत्त किया है, इस कारण वह तुझे निरंतर शाप दे रही है. तेरी भार्या एक सद्ब्राह्मणी है, परन्तु मानसिक कष्ट से वह क्षोभित हो गई है. इतने सारे पाप कर्म करने के
पश्चात तू मेरे पास क्योंकर आकर्षित हुआ है? तेरी जन्म कुण्डली के अनुसार आज तेरी मृत्यु होने वाली है. मैं तेरी आयु
तीन वर्ष बढ़ा देता हूँ. तू अपने गाँव जाकर दुर्वर्तन छोड़कर सदाचरण कर. तू एक पंडित
है – इसमें कोई संदेह नहीं. क्या तू अपनी विद्वत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण मुझे
दिखाना चाहता है या तुझे दिए गए आयु के तीन वर्ष वापस करता है? फ़ौरन उत्तर दो.”
सर्वज्ञान से संपन्न ऐसे श्रीपाद प्रभु का कथन सुनकर पंडित के मुख से एक
शब्द भी न निकला. मानो वह गूंगा हो गया था. उसकी आतंरिक इच्छा तो यही थी कि उसकी
आयु में वृद्धि हो जाए. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी बोले, “तेरी इच्छा के अनुसार मैं तेरी आयु तीन वर्षों से बढ़ा रहा हूँ. तूने एक
रजक की स्त्री को ज़बरदस्ती भगाकर उसे दासी बनाया है, अगले जन्म में वह रजक दंपत्ति राजाओं के सुख वैभव का आस्वाद लेंगे, तब तू
उस रजक पत्नी का दास होकर उनकी सेवा करेगा. इन तीन वर्षों में यदि तू सत्कर्म
करेगा तो अन्न-वस्त्र की कमी न रहेगी, परन्तु यदि
दुष्कर्म करेगा तो नाना प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ेंगी. मृत्यु से तेरी रक्षा
करके मेरे पास तुझे लाने वाले रविदास को तेरा सब पुण्य प्राप्त होगा. उस पुण्य के
फलस्वरूप वह मेरी सेवा करेगा. तू फ़ौरन इस पुण्य भूमि से निकल जा.”
स्वामी के आदेशानुसार वह पंडित वहाँ से चला गया. रविदास आश्रम में ही रहकर
स्वामी की सेवा करने लगा. वह प्रतिदिन स्वामी के वस्त्र धोता, आश्रम के आँगन को झाड़-पोंछ कर साफ करता. पूजा के लिए फूल लाने का काम उसे
बहुत प्रिय था. जब श्रीपाद प्रभु स्नान हेतु कृष्णा नदी पर जाते, तब वह उन्हें साष्टांग दंडवत करता और स्वामी उसके प्रणाम को सानंद स्वीकार
करते. एक बार रविदास के पिता ने उससे कहा था, कि “श्रीपाद प्रभु अन्तर्यामी हैं. यदि वे किसी का एक प्रणाम स्वीकार करते
हैं, तो वह सौ लोगों को किये गए प्रणाम का फल
प्रदान करता है.”
एक बार रविदास कृष्णा नदी के किनारे पर खडा था.
उस समय उस गाँव का राजा एक बड़ी नौका में अपने ताम-झाम के साथ नौका विहार कर रहा
था. रविदास एकाग्र दृष्टी से उस राजा की और देख रहा था. तभी श्रीपाद स्वामी स्नान
करके कृष्णा नदी से बाहर आये. रविदास का उनकी और ध्यान ही नहीं गया. स्वामी ने
उसके कंधे पर प्रेम से हाथ रखकर पूछा, “क्या देखता है रे, रजक?” उनकी मधुर वाणी सुनकर रविदास एकदम बौखला गया और स्वयँ को संभालते हुए उसने
स्वामी को साष्टांग दंडवत किया. स्वामी ने पूछा, “तू उस राजा के
वैभव को निहार रहा था, न?” रविदास ने सहमति दिखाते हुए गर्दन हिला दी.
स्वामी आगे बोले, “तेरे मन में राजा होने की इच्छा है ना? तू अगले जनम में विदुरा (वर्त्तमान में बीदर) नगरी का राजा होगा. उस समय
मैं नरसिंह सरस्वति के रूप में तुझे दर्शन दूँगा.” वह रजक बोला, “प्रभु, मेरी राजा होने की इच्छा तो है, परन्तु आपके चरणों की सेवा करने का सौभाग्य मुझे सदैव प्रदान करें.” स्वामी
ने रविदास की यह इच्छा पूरी की. उसने मृत्यु के उपरांत यवन कुल में जन्म लिया और
यथासमय विदुरा नगरी का राजा बना. राज वैभव भोग कर ढलती आयु में उसे श्री नरसिंह
सरस्वति स्वामी के दर्शन प्राप्य हुए. उन्हीं की कृपा से उसे अपने पूर्व जन्म का
स्मरण हुआ और वह श्री नरसिंह सरस्वति के चरणों पर नत मस्तक हुआ. उसने स्वामी को
अपने नगर में लाकर उनका बड़ा सम्मान किया.
खीर से भरा हुआ अक्षय पात्र
हम सब बैठे थे, तभी वहाँ एक
युवा ब्राह्मण आया. वह दूर से आया था. उसके पैर धूल से भरे थे. उसका नाम वल्लभेश्वर शर्मा था. उसका गोत्र काश्यप था एवँ
वह आपस्तम्भ शाखा से था. श्रीपाद प्रभु पीठिकापुर से आने वाले भक्तों से अपने
आत्मीय जनों के कुशल मंगल के बारे में विस्तार से पूछते थे. सर्वज्ञानी श्रीपाद
प्रभु को यह बहुत अच्छा लगता था. वल्लभेश्वर पीठिकापुर से आया था. स्वामी ने उससे
अपने रिश्तेदारों के, स्नेही जनों
के कुशल क्षेम के बारे में पूछा. दोपहर का समय था, स्वामी के शिष्य भिक्षा लेकर आ चुके थे. तभी स्वामी ने अपना दिव्य हस्त
ऊपर उठाया और उनके हाथ में एक चांदी का पात्र आ गया. उस पात्र में खीर थी.
उन्होंने वह खीर अपने शिष्यों में बांट दी. परन्तु वह पात्र भरा ही रहा. श्रीपाद
प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि वे लाई हुई पूरी भिक्षा जलचरों को दे दें. स्वामी
की आज्ञानुसार रविदास भिक्षान्न लेकर कृष्णा नदी के किनारे गया. नदी के जीव जंतुओं
को भी स्वामी का प्रसाद प्राप्त हो ऐसा उनका निश्चय था.
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने मुझसे कहा कि मैं
वल्लभेश्वर के निकट बैठूं. परन्तु उसके पास रविदास बैठा था. मेरे पास सुब्बन्ना
शास्त्री नामक ब्राह्मण बैठा थ. एक गरीब ब्राह्मण अपनी पुत्री के विवाह के बारे
में स्वामी से पूछ रहा था. प्रभु बोले, “मेरे होते हुए तुझे चिंता किस बात की है? जो लोग पापी होते हैं, उन्हीं को भय प्रतीत होता है.” प्रभु ने आगे
कहा, “यह वल्लभेश्वर शर्मा तेरा दामाद होने के लिए
पूरी तरह योग्य है. सुब्बन्ना शास्त्री उसे पौरोहित्य सिखा रहे हैं.” वल्लभेश्वर
की और देखकर स्वामी बोला, “तेरे पितरों की ऐसी इच्छा है कि उनका पिंडदान
किया जाए. श्रद्धापूर्वक एवँ मंत्रोच्चारण सहित किया गया पिंडदान पितरों तक
पहुंचता है. पितृ देवता का शाप पाना अच्छा नहीं है. गरुड-पुराण में दिए गए मन्त्रों का उच्चारण करने के बाद ही
विवाह के मन्त्रों का उच्चारण किया जाए ऐसा शास्त्रों का वचन है. इसी प्रकार
विवाह-मांगल्य हेतु हल्दी स्वीकार करें. आज तुझे जो प्रसाद प्राप्त हुआ वह अति
दुर्लभ है. पीठिकापुरम् में मल्लादी लोग, वेंकटप्पा श्रेष्ठी महाराज और वत्सवाई
महाराज नैवेद्य के लिए खीर लेकर आए. वही नैवेद्य मैंने तुम लोगों को प्रसाद के रूप
में दिया है. जो लोग ब्रह्मराक्षस, महापिशाच्च आदि बाधाओं से पीड़ित हैं, उनकी बाधा इस प्रसाद से तुरंत दूर हो जाती है. जो दुःख एवँ दारिद्र्य से
पीड़ित हैं, उन्हें इस प्रसाद
को स्वीकार करने से संपदा एवँ अभिवृद्धि प्राप्त होती है.”
ये दिव्य वचन सुनकर मेरे नेत्रों में अश्रु भर
आये. सद्गदित कंठ से श्रीपाद प्रभु बोले, “इन तीन वंशों से
मेरा ऋणानुबंध कालातीत है. उनके वात्सल्य तथा भक्ति से मैं उनका अंकित हो जाता
हूँ. मुझे यदि कहीं भी भोजन न मिले तो मैं सूक्ष्म रूप से वहाँ जाकर यथेच्छ भोजन
करता हूँ. जो भी वात्सल्यपूर्ण भाव से मेरी सेवा करते हैं, उनके घर के सामने मैं बाल स्वरूप में खेलता रहता हूँ. मेरे पैरों की सुमधुर
आवाज़ मेरे भक्तों के ह्रदय में प्रतिध्वनित होती रहती है. रात के समय मेरी इच्छा
तथा सम्मति के बिना कोई भी कुरुगड्डी गाँव में रुक नहीं समता. महाआरती के समय
यक्षिणी, ब्रह्मराक्षस, महापिशाच्च आक्रोश
करते हैं. मैं उनको पिशाच्च योनि से मुक्ति देकर नई देह प्रदान करता हूँ. देवता, गन्धर्व, यक्ष, अदृश्य शक्ति आदि
उच्च पद को प्राप्त जीव मेरे दर्शनों के लिए आते हैं. महासिद्ध, महायोगी, तपस्वी महापुरुष मेरे दर्शन का, स्पर्श का, संभाषण का सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से
अनेक कष्ट उठाकर मेरे पास आते हैं. तुम आनंद से नाम रूप को पार करके आगे बढोगे.”
यह श्रीपाद प्रभु की अनुल्लंघनीय आज्ञा थी.
हम पड़ोस के गाँव में पहुंचे. उस कन्या का पिता
अपने घर के सामने वधु-वर को बिठाकर सुब्रह्मण्यम शास्त्री से मन्त्र पढ़वा रहा था.
शास्त्री को विवाह संस्कार के मन्त्रों का तो ज्ञान था, परन्तु अंतिम
संस्कार के मन्त्र उन्हें ज्ञात नहीं थे. श्रीपाद प्रभु का ध्यान करके सुब्बन्ना
ब्राह्मण के स्थान पर बैठे. उनके मुख से अपने आप मंत्रोच्चारण होने लगा. उन्हें
स्वयँ को भी इस बात का आश्चर्य हुआ. इस प्रकार सभी मन्त्रों का पठन होने के पश्चात
वधू-वर का विवाह संपन्न हुआ. कन्या का पिता निर्धन था एवँ उसका भावी पति निर्धन
था. अतः मंगल सूत्र के स्थान पर हल्दी की गांठ को धागे से बांधकर वधू के गले में
पहनाया गया. जो ब्राह्मण विवाह समारोह में आये थे, वे सम्प्रदाय के
अनुसार विवाह न होने के कारण निंदा करते हुए विवाह मंडप से चले गए. वल्लभेश्वर के
माता-पिता नहीं थे, कन्या के माता-पिता, पुरोहित तथा मैं – बस हम
पाँचों ही विवाह पर उपस्थित थे. विवाह के पश्चात हम नव दंपत्ति के साथ श्रीपाद
प्रभु के दर्शन के लिए गए. श्रीपाद स्वामी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हमें
आशीर्वाद दिया और हमें आज्ञा दी कि हम कुछ देर ध्यान धारणा करें.
जैसे ही मैं ध्यान मग्न हुआ, मेरे सामने वल्लभेश्वर के भविष्य में घटित होने वाली एक एक घटना का चित्र
दिखाई देने लगा. वल्ल्भेश्वर एक व्यापारी हो गया था. उसने व्यापार में हुए लाभ से
कुछ धनराशि अलग निकाल कर रखी थी और यह मन्नत मानी थी कि उस धनराशि का उपयोग वह
कुरवपुर में सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए करेगा. परन्तु अपनी मन्नत
पूरी करने में वह विलम्ब कर रहा था.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु कुरवपुर में अंतर्धान
हो चुके थे. वे गुप्त रूप से संचार कर रहे थे. मगर कुरवपुर में प्रभु की चरण
पादुकाएं थीं. वल्ल्भेश्वर धन सम्पादन करने के पश्चात उसे लेकर अपनी मन्नत पूरी
करने के लिए कुरवपुर की और निकल पडा. मार्ग में उसे मांत्रिकों के वेश में चार चोर
मिले. थोड़ी देर उसके साथ चलने पर उनमें से एक चोर ने वल्ल्भेश्वर का वध कर दिया और
उसके पास का धन लेने का प्रयत्न करने लगा. तभी श्रीपाद प्रभु वहाँ त्रिशूलधारी यति
के रूप में प्रकट हो गए. वध किये जाने से पूर्व वल्ल्भेश्वर श्रीपाद प्रभु के
ध्यान में मग्न था. अपने भक्त की रक्षा करने प्रभु तुरंत आ गए थे. उन्होंने तीन
चोरों को अपने त्रिशूल से मार डाला. चौथा चोर गिडगिडाकर बोला, “महाराज, मैं चोर नहीं हूँ.” दयालु प्रभु ने उस चौथे चोर
को अभयदान देकर विभूति दी और उससे बोले, “वल्ल्भेश्वर का
सिर लाकर उसके धड से जोड़ो.” इस प्रकार धड से सिर को जोड़ते ही प्रभु ने अपनी अमृत
दृष्टी से उस मृत शरीर की और देखा. अगले ही क्षण वल्ल्भेश्वर जीवित होकर ऐसे उठ
खडा हुआ, मानो नींद से जागा हो. उस चौथे चोर ने
वल्ल्भेश्वर को पूरी घटना सुनाई. उसके आनंद की सीमा न रही , मगर उसे इस बात का
दुःख भी हुआ कि उसे श्रीपाद प्रभु के दर्शनों का लाभ प्राप्त न हो सका. श्रीपाद
प्रभु के दर्शन पाकर चौथा चोर अति प्रसन्न था. वल्ल्भेश्वर कुरवपुर पहुँचा. उसने
एक सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन करवाया.
श्रीपाद स्वामी का विराट रूप
हम सब आंखें मूंदे ध्यान मग्न बैठे थे. मुझे अपनी आंखों के सामने
वल्ल्भेश्वर के भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के चित्र दिखाई दे रहे थे. तभी
श्रीपाद प्रभु ने हमें आंखें खोलने की आज्ञा दी. वे बोले, “कोई भी कार्य अकारण नहीं होता. प्रत्येक कर्म के पीछे कोई न कोई कारण
अवश्य होता है. सृष्टि का विधान बड़ा विचित्र है. मैं, जो निर्गुण एवँ निराकार हूँ, तुम्हारे
लिए साकार रूप में अवतरित हुआ हूँ. यह देखकर तुम्हें आश्चर्य होगा. मैं, जो अपरिमित हूँ, अवधूत नहीं
हूँ, तुम्हें ऐसा आभास होता है, कि मैं परिमित हूँ एवँ अवधूत हूँ. यह बड़ा क्लिष्ट विषय है. सब शक्तियाँ
मेरे आधीन हैं. इस अनंत कोटि ब्रह्मांड के प्रत्येक अणु में मैं ही विद्यमान हूँ.
अणु-अणु को एकत्र रखने वाला संकल्प स्वरूप मैं ही हूँ. इस अणु-अणु को विघटित करके
नूतन सृष्टि का निर्माण करने के लिए जिस स्थिति की आवश्यकता होती है, उसके लिए प्रलय काल का आयोजन करने वाला रूद्र रूप मैं ही हूँ. इस ज्ञान एवँ
इस अज्ञान का तुम्हें बोध करवाकर समस्त जीवों को अनेक प्रकार की माया उत्पन्न करके
उसमें बंदी मैं ही बनाता हूँ. जब जब भक्त आर्त स्वर में मेरी प्रार्थना करते हैं
एवँ मुझे सहायता के लिए बुलाते हैं, तब तब मैं
सहस्त्र बाहुओं से उनकी रक्षा करता हूँ. मेरा यह अनादी तत्व मैं ही हूँ. प्रत्येक
जीव में व्याप्त “मैं”, वही “मैं”, ऐसे “मैं” में निहित शक्ति, सर्वज्ञता,
सर्वान्तर्यामित्व तुम्हारी दृष्टी को दिखाई नहीं देता, इसलिए तुम भ्रमित होते हो. इसका अनुभव करके यदि तुम मुझे व्यक्त रूप में
देखोगे, तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है?” परब्रह्म स्वरूप श्रीपाद प्रभु इस प्रकार समझा कर बता रहे थे. तभी
घंटानाद सुनाई दिया. सभी आश्चर्यचकित हो गए. तभी वह घंटानाद शांत हो गया.
श्रीपाद प्रभु की मातृ भावना
हम सब बैठे थे. श्रीपाद प्रभु बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ का यह अवतार फल देने वाला महान अवतार है. मेरे नामस्मरण
के बिना कोई भी अवधूत पूर्ण सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता. उसी प्रकार महान योगी भी
सिद्धि प्राप्त करने के लिए मेरा नामस्मरण करते हैं. अरे, वल्लभेश, तेरे
माता-पिता का बचपन में ही निधन हो गया और तेरे रिश्तेदारों ने तुझे कुमार्ग पर डालकर
तेरी सारी संपत्ति हथिया ली और तुझे भिखारी बना दिया. हमें यह ज्ञात है. उन
रिश्तेदारों के पुत्र भी तुझसे वैर भाव रखते हैं, यह हमें ज्ञात है. तेरे वे दुष्ट
रिश्तेदार अगले जन्म में चोर बन गए. जब तू धन लेकर कुरुगड्डी जा रहा था, तो उन्होंने तेरा धन लूट कर तुझे मार डाला. जैसे ही तूने हमारा नामस्मरण
किया, हमने वहाँ प्रकट होकर हमारे त्रिशूल से तीन
चोरों का वध कर दिया. चौथा चोर हमारी शरण में आया. उसका दोष भी बहुत कम था अतः
हमने उसे जीवन दान दिया.”
श्रीपाद प्रभु की बातें सुनकर वल्लभ की पत्नी की आंखें भर आईं. यह देखकर
श्रीपाद प्रभु बोले, “हे माता!
हमें प्रत्येक स्त्री में हमें जन्म देने वाली अखंड सौभाग्यवती सुमति महाराणी ही
दिखाई देती है. उस महान माता की गोद में हम सदैव बालक ही रहते हैं. तू दु:खी न हो.
मैंने जो हल्दी की गाँठ तुझे दी है, उसे संभाल
कर रखना. इस हल्दी की गाँठ के कारण तुझे सदैव सौख्य प्राप्त होगा. तू अखंड सौभाग्यवती
रहेगी. हमारा यह वचन काले पत्थर की लकीर के समान अमिट है. इसे सृष्टि की कोई भी शक्ति नहीं बदल सकती. मुझे गायत्री मंत्र का
उपदेश देने वाले प्रथम गुरू मेरे पिता ही हैं एवँ उनका नाम चिरकाल तक अमर रहेगा.
मेरे अगले अवतार में मेरे नाम ‘नरसिंह’ के साथ
सरस्वती नाम जोड़कर मुझे ‘नृसिंह सरस्वती’ यह नाम प्राप्त होने वाला है. मेरे नानाजी
बापन्नाचार्युलु का नाम भी अजरामर करने का मेरा निश्चय है. नृसिंह सरस्वती के
अवतार में मेरा रूप मेरे नानाजी के रूप जैसा ही रहेगा. मेरे नानाजी मेरे दूसरे
गुरू थे. उनके पास मैंने वेद शास्त्रों का अध्ययन किया. यह घंटी, जो तुम देख रहे
हो, कभी हमारे नानाजी के घर में थी. मेरी इच्छा
से वह अनेक प्रदेशों में घूम कर आई है. वह भूमिगत सुरंग मार्ग द्वारा भी चलती रही
है. हे शंकर भट्ट, तू जिस “श्रीपाद
श्रीवल्लभ चरित्रामृत” की रचना कर रहा है, उसका अठारहवां अध्याय समाप्त हो रहा है. वह घंटा पीठिकापुरम् पहुँच चुकी
है. यह घंटा अनेकों आकार धारण कर, अनेकों आकार बदल कर मेरी इच्छा से फिर यहाँ आई
है. हमारे नानाजी के अपने घर में मेरे महासंस्थान की स्थापना होगी. हमारे प्रेम की
निशानी के रूप में जय-जय निनाद करने वाली घंटा हमने पीठिकापुरम् भेज दी है.”
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