।। श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २०
श्रीपाद
प्रभु का दिव्य मंगल स्वरूप
मैं
सुबह-सुबह ही श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी पहुँचा. श्रीपाद प्रभु के दिव्य शरीर से
मुझे तेजोमय किरण बाहर निकलते हुए दिखाई दिए. उनके तेजस्वी नेत्रों में शान्ति, करुणा,
प्रेम, ज्ञान ज्योति स्वरूप में उमड़ रहे थे. उनके सहवास में जो भक्त थे उन्हें
बिना किसी प्रयास के शान्ति, करुणा, प्रेम एवँ ज्ञान की प्राप्ति होती रहती थी.
इहलोक में वे एकमेव प्रभु के स्वरूप थे. निराकार तत्व के साकार होकर, सगुण रूप
में मानवाकार धारण कर सामने दिखाई देने से मैं आनंद विभोर हो उठा.
श्रीपाद
प्रभु के अनुग्रह के कारण मुझे उनके निकट आकर नमस्कार करने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ. उनके मुख कमल की ओर देखते ही मेरे अन्तरंग में एक अलौकिक शान्ति, वात्सल्य, प्रेम
व्याप्त होकर मेरे मन तथा शरीर को एक अवर्णनीय आनंद की अनुभूति हुई. मैंने श्रीपाद
प्रभु के चरणों को अत्यंत श्रद्धा भाव से स्पर्श किया. उस स्पर्श से मेरा शरीर
हल्का-हल्का प्रतीत होने लगा. ऐसा प्रतीत हुआ, मानो मेरे नेत्रों से तेज निकल रहा
हो. मेरे शरीर के प्रत्येक अंग से काले रंग का तेज निकल रहा था. उस तेज ने
मानवाकार धारण किया. वह आकृति मेरे ही सदृश्य थी. श्रीपाद प्रभु ने मंद स्मित करते
हुए मुझसे पूछा, “तेरे सदृश्य जो आकृति है, वह कौन है, यह समझे क्या?” मैंने कहा, “स्वामी, वह आकृति मैंने देखी. वह मेरे जैसी ही थी. परन्तु वह
मेरे शरीर से बाहर कैसे आई, वह मैं समझ नहीं पाया. वह आकृति किसकी थी, यह भी
मैं समझा नहीं.”
इस पर
श्रीपाद प्रभु बोले, “वह तेरा पाप शरीर था. तेरे भीतर का पापी पुरुष था.
अब तेरे शरीर में बचा है, वह केवल पुण्य पुरुष ही है. प्रत्येक मानव के शरीर
में एक पाप पुरुष तथा एक पुण्य पुरुष होता है. इस युग्म का विभाजन होकर जब पापी
पुरुष बाहर निकल जाता है वही होती है मुक्ति की अवस्था. ब्राह्मण कुल में जन्म
लेने के पश्चात निष्ठावान होकर, अपने पाप शरीर का दहन करने के पश्चात, बचे हुए
पुण्य शरीर का अपने उत्तम कर्मों से उद्धार करना चाहिए. ब्राह्मण जब अपने यजमानों
द्वारा वेदशास्त्रों में निहित कर्म करवाते हैं, तब उन्हें अपनी उपजीविका के अनुसार ही धन दक्षिणा में
लेना चाहिए. यदि ऐसा न किया गया तो ब्राह्मण यजमान के पापों का भागी हो जाता है.
उन पापों को ब्राह्मण अपनी तमोगुण रूपी अग्नि में दहन करे. इस प्रकार से जीवन
बिताने वाला ब्राह्मण ही ब्रह्मत्व को प्राप्त होता है अन्यथा वह केवल जाति से ही
ब्राह्मण होगा, वह ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण नहीं होगा.
मेरे
नानाजी बापन्नाचार्युलु, पिता अप्पल राजू शर्मा – दोनों सद्ब्राह्मण थे. मेरी
नानी और मेरी माता सुमति महाराणी परम पवित्र महिलाएं थीं, उनका
केवल स्मरण मात्र करने से लक्ष-लक्ष पाप नष्ट हो जाते हैं.” इतना कहकर श्रीपाद
प्रभु क्षण भर के लिए मौन हो गए. फिर उन्होंने अपने सीधे हाथ की उंगली से भूमि को
स्पर्श किया, उस समय उनके बाईं ओर से एक प्रकाश पुंज निकला और यज्ञ
के लिए आवश्यक सामग्री प्रकट हुई. कुछ मधुर फल, सुवासिक फूल, थोड़ा सा सोना, चांदी और नवरत्नों का हार प्रकट हुआ. दिव्य अग्नि भी
प्रकट हुई. मेरे शरीर से निकला हुआ पाप पुरुष भयभीत होकर कांपने लगा और आक्रोश
करने लगा. श्रीपाद प्रभु ने उस पाप पुरुष को अपने नेत्र संकेत से अग्नि में भस्म
होने की आज्ञा दी. तदनुसार वह अग्नि में गिरकर भस्म हो गया. मेरे शरीर में बड़ा दाह
उठा. “स्वामी, मुझे बचाइये,” ऐसी विनती मैंने की. प्रभु के नेत्रों से एक दिव्य
तरंग निकल कर मुझे स्पर्श करती हुई निकल गई. उस तरंग से मेरा शरीर शीतल हो गया.
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मेरी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो उठी है. मेरी नाडी का
स्पंदन रुक गया, ह्रदय की धड़कन बंद हो गई प्रतीत हुई और मैं समाधि
अवस्था में पहुँच गया.
दोपहर हो
चुकी थी. उस दिन गुरूवार था. श्रीपाद प्रभु स्नान करके भक्त समूह में बैठे थे.
भक्त जनों द्वारा समर्पित भिक्षान्न को श्रीपाद प्रभु ने अपने दिव्य हस्त से
स्पर्श किया. कमंडलु के जल से भक्त समुदाय का प्रोक्षण किया. भिक्षान्न का कुछ अंश
काक-बलि हेतु अलग निकाल कर रखा. अत्यंत मधुर स्वर में मुझे अपने पास बुलाया. पल भर
को नेत्र बंद किये, फिर नेत्र खोलकर मेरी ओर स्नेहार्द्र दृष्टी से देखा.
उसी समय उनके हाथ में एक चांदी का पात्र प्रकट हुआ. उसमें हलवा भरा हुआ था.
श्रीपाद प्रभु बोले, “अरे शंकर भट्ट! मेरे भक्त मुझे अपनी भक्ति के पाश
में बाँध कर रखते हैं. मैं निरपेक्ष भक्तिभाव के वश हो जाता हूँ. श्रेष्ठी के घर
उनकी धर्मपत्नी मेरे लिए अवश्य हलवा बनाया करती थीं. मेरे भोजन करने के पश्चात् ही
उन्हें समाधान प्राप्त होता था. उनकी पोती लक्ष्मी वासवी ने मेरे हाथ में राखी
बांधी थी. उसके पति की जन्म कुण्डली में अनिष्ट कारक योग है ऐसा एक ज्योतिषी ने
बताया था. उसने मुझसे विनती की, कि मैं उसकी राखी को स्वीकार करके उसे अखंड सौभाग्य
का आशीर्वाद दूं. मैंने उसे अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद देकर फूल, चूड़ियाँ
और कुंकुम प्रसाद के रूप में दिए. उसकी दादी, वेंकटसुब्बम्मा ने प्रेम से बनाया हुआ हलवा मुझे
दिया. इस मधुर प्रसाद के सेवन से अनेक जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं. मेरे
श्रद्धालु भक्त जो भी नैवेद्य मुझे अर्पित करते हैं, उसका सेवन मैं सूक्ष्म रूप से उनके घर जाकर करता हूँ,
परन्तु श्रेष्ठी के घर के महाप्रसाद को स्वीकार करने के लिए मैं स्वयँ प्रत्यक्ष
रूप से जाता हूँ.”
श्रीपाद
प्रभु ने कहा कि सभी भक्त इस प्रसाद को ग्रहण करें. उस प्रसाद के मधुर स्वाद का
वर्णन कौन कर सकता है? इस प्रसाद का कुछ भाग उन्होंने आकाश की और उछाला. वह
नभ मंडल में जाकर विलीन हो गया. थोड़ा सा प्रसाद उन्होंने भूमि को अर्पण किया. उसे
भूमाता ने स्वीकार किया.
उस प्रसाद
को सब भक्तों ने आपस में बांट लिया. श्रीपाद प्रभु किसी को भी निराश नहीं करते थे.
चाहे जितना भी प्रसाद बांटा जाता, वह कम ही नहीं हो रहा था. उसी समय पद्मशाली
कुलोत्पन्न गुरुचरण नामक एक भक्त वहाँ आया. उसे श्रीपाद स्वामी ने चांदी के पात्र
से प्रसाद दिया. उसने बड़े श्रद्धाभाव से प्रसाद खाया. फिर स्वामी के आदेशानुसार
उसने वह पात्र कृष्णा नदी में प्रवाहित कर दिया.
इसके बाद
श्रीपाद प्रभु बोले, “पद्मशाली कुल के मार्कंडेय गोत्र वाले लोग कालान्तर
में मांस भक्षण करने लगे. मेरे सान्निध्य में बिना कारण के कोई भी कार्य कभी होता
ही नहीं है. गुरुचरण! तू कितने दिनों से मुझे नैवेद्य अर्पण करते समय ‘श्री गुरु
शरणम्’ , ‘स्वामी शरणम्’ ऐसा नामोच्चारण करते हुए पवित्र जीवन व्यतीत कर रहा है.
आज तुझे श्री गुरु के करकमलों से महाप्रसाद प्राप्त हुआ है. जिस गुरुतत्व को तू
समझा है, उसे इस
शंकर भट्ट को बता. हम मध्याह्न समय में योग निद्रा की स्थिति में रहते हुए मानस
संचार करते हैं. उस समय हम किसी को दर्शन नहीं देते. हमारी विश्रान्ति भंग न होने
पाए.”
श्री
गुरुचरण कलियुग का एक महान भक्त था. उसे योग मार्ग में अत्युच्च स्थिति प्राप्त हो
गई थी. शंकर भट्ट ने उससे विनती की, “हे महापुरुष, गुरुतत्व का ज्ञान देकर मुझे कृतार्थ करें.” इस पर
गुरुचरण बोले, “अनंत कोटि ब्रह्मांड में उत्पत्ति, स्थिति, एवँ लय
जिसकी केवल इच्छा मात्र से ही घटित होते हैं, वे श्री दत्तात्रेय प्रभु निर्गुण, निराकार
स्वरूप से श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप में साकार रूप में अवतरित हुए हैं. उन्हें
साकार समझना महादोषास्पद है, क्योंकि वे साकार रूप में होते हुए भी निराकार ही
हैं. सगुण दिखाई देते हुए भी निर्गुण हैं. वे एक देवता के रूप में दिखाई देने पर
भी उनमें सभी देवताओं का समावेश है. वे सभी योगमार्गों के श्रेष्ठ गुरु हैं.
सृष्टि के अनेक महाऋषियों ने अपने अपने विशिष्ठ साधनों से जिन देवताओं का
साक्षात्कार कर लिया है, उन्हीं देवताओं का स्वरूप है श्रीपाद प्रभु का दिव्य
रूप. प्राचीन काल से ही महर्षियों को अनेक दिव्य शक्तियां प्राप्त थीं. वशिष्ठ ऋषि
हव्य युक्त यज्ञ किया करते थे. विश्वामित्र ऋषि हव्य सामग्री के बगैर ही यज्ञ करते
थे. जमदग्नि ऋषि विश्वामित्र ऋषि का अनुकरण करते थे. अपने श्रीपाद प्रभु सभी
प्रकार के यज्ञों का समर्थन करते हैं. किसी भी कर्म को करने की अथवा न करने की, अथवा
किसी अन्य पद्धति से करने के लिए उस कर्म के एवँ मन्त्रों के रहस्य उन्हें ज्ञात
हैं. श्रीपाद प्रभु सब कुछ करने में समर्थ हैं, एवँ उन्हें सभी कर्मों के रहस्य ज्ञात होने के कारण
उन्हें उस व्यक्ति विशेष के आचरण का सूक्ष्म ज्ञान था. बापन्नाचार्युलु, नरसिंह
वर्मा. वेंकटप्प्य्या श्रेष्ठी को अनेक प्रकार की योग विद्या अवगत थी. सभी
शक्तियों में प्रेम शक्ति सर्व श्रेष्ठ है. इन तीनों को श्रीपाद प्रभु की वात्सल्य
भक्ति प्राप्त थी. उनकी प्रेम शक्ति के कारण वे स्वामी को अपना इच्छित कार्य
सुसंपन्न करने की विनती करके करवा लेते थे. श्रीपाद स्वामी भी बड़े आनंद से उनका
कार्य सुसंपन्न करते.
श्रीपाद
प्रभु प्रत्येक स्त्री में अपनी माता का स्वरूप देखकर सहज स्वभाव, सहज
वात्सल्य से शिशु समान व्यवहार करते. वे महिलाएं भी स्वामी की शिशु रूप में ही
प्रेमभाव से आराधना किया करती थीं.
योगियों
एवँ वेदज्ञों द्वारा पुनः पुनः वर्णित निर्गुण, निराकार, परब्रह्मरूप, दिव्य शिशु पीठिकापुरम् क्षेत्र में
अपनी दिव्य लीलाओं से सबका चित्त आकर्षित करता था. इस शिशु की लीलाओं का वर्णन
करना असंभव है. दैव मार्ग से, योग मार्ग से, ज्ञान मार्ग से, वेद-शास्त्रों के अध्ययन से साधना करने वाले साधकों
को उनके अपने-अपने मार्ग से श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की ही कृपा का लाभ प्राप्त
होता है.”
इसके बाद
शंकर भट्ट ने उस महान भक्त श्री गुरुचरण से विनती की, “ महाराज, आपको श्रीपाद स्वामी के दर्शन पहली बार किस प्रकार
हुए? कृपया वह
कथा प्रसंग सुनाकर मेरा उद्धार करें.”
गुरुचरण
बोले, “हे ब्राह्मणोत्तम!
आप अत्यंत धन्य-धन्य हैं. आपको श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं के समक्ष दर्शन
पूर्व जन्म के सुकृतों के फलस्वरूप ही हुए हैं. आपको प्रतिदिन स्वामी के करुणा
कटाक्ष का लाभ प्राप्त होता है. मेरा जन्म देवभक्त कुटुंब में हुआ था. बचपन से ही
हमारे कुल देवता श्री दत्त प्रभु की भक्ति करता रहा हूँ. हमारे परिवार के सम्मुख
अनेक आर्थिक समस्याएँ थीं. मैं अत्यंत श्रद्धा से दत्तात्रेय प्रभु की आराधना करता
परन्तु समस्याएँ कम ही नहीं होती थीं. हमारे गाँव के कुछ लोगों ने सलाह दी कि तुझ
पर दत्तात्रेय प्रभु की कृपा दृष्टी नहीं है, अतः तू दूसरे कुल देवता को चुनकर उनकी आराधना कर. ऐसा
करने से तेरे संकट दूर हो जायेंगे. मैंने उनकी सलाह मानने का निश्चय किया और मैं
रात को सो गया. सपने में मुझे एक भयानक कसाई दिखाई दिया. वह बड़े प्रेम से बकरियां
पालता था, मगर
प्रतिदिन कुछ बकरियों की बलि दिया करता. उसके हाथ का हंसिया देखकर मैं भयभीत हो
गया. वह घन-गंभीर स्वर में बोला, “मैं दत्त हूँ. तू चाहे किसी भी देवी-देवता की आराधना
कर, परन्तु
उसके स्वरूप में मैं ही रहता हूँ. तू अपने आराध्य देवता का नाम-रूप चाहे तो बदल ले, मगर फिर
भी मैं बदलने वाला नहीं. मैं तुझे कभी भी छोडूंगा नहीं. तू मेरी छाया है. मेरी
छाया मुझे छोड़कर कैसे रह सकती है? समस्त देवी-देवताओं की इच्छाओं को, और समस्त कोटि
मानवीय इच्छाओं को चालित करने वाली महाशक्ति मैं ही हूँ. भगवत् अवतार के भगवत् स्वरूप को तेजोकान्ति देने वाला
ब्रह्म मैं ही हूँ. शेर के मुँह से शायद एकाध प्राणी छूट भी जाए, परन्तु मेरे हाथों में आया हुआ तू मुझे छोड़कर कभी भी
जा नहीं सकता. दत्त भक्तों को सिंह के शावकों के समान शूर होना चाहिए और भय को
त्याग देना चाहिए. मैं सिंह के समान हूँ. सिंह के शावकों को सिंह के निकट कोई भय
नहीं होता. वे उसके साथ स्वच्छंदता से खेलते हैं. मैं इस हंसिये से तेरा वध
करूंगा. समूचे त्रैलोक्य में तेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है.”
मैं
अत्यंत भयभीत होकर चिल्लाया और तभी मेरा सपना टूट गया. परिवार के लोग पूछने लगे कि
मुझे क्या हुआ था. मैंने स्वप्न का वृत्तांत उन्हें सुनाया. हमारी आर्थिक समस्याएँ
दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि किस जन्म में किये गए
कर्म के फलस्वरूप यह दारिद्र्य-अवस्था भोगनी पड़ रही थी.
सुबह
होते ही एक हरिदास हमारे घर के सामने आया. उसके हाथों में करताल थे और वह हरिनाम
का गायन कर रहा था. उसके सिर पर चावल का एक टोकरा था. यह एक विचित्र हरिदास था.
उसकी टोकरी में औदुम्बर वृक्ष का पौधा था. वह हमारे घर के सामने खड़ा होकर पूछा रहा
था, “क्या चावल दोगे?” मैं घर
में चावल ढूंढ रहा था तो मुझे मुट्ठी भर चावल के दाने मिले. उन कणों को स्वीकार
करते हुए वह बोला, “ महाराज, कल रात को एक कसाई ने गुरुचरण नामक एक दत्त भक्त की
ह्त्या कर दी. आश्चर्य की बात यह हुई कि इस दत्त भक्त के प्राण उसके शरीर से निकल
कर इस औदुम्बर के पौधे में प्रविष्ठ हो गए. औदुम्बर वृक्ष के नीचे श्री दत्त प्रभु
निवास करते हैं, यह बात प्रमाणित है. यह पौधा असामान्य है. गोदावरी मंडल में
पीठिकापुरम् नामक एक महान क्षेत्र है. वहाँ श्री दत्तात्रेय प्रभु का श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में वास्तव्य है. श्रीपाद प्रभु की नानी के औदुम्बर वृक्ष का ही
यह पौधा है. यह पौधा तुम्हारे घर में लगाने से तुम्हारी सब कामनाएँ पूरी हो
जायेंगी.” उस हरिदास की बातें सुनकर मैं तो पगला गया. मैंने कहा, “गुरुचरण तो मैं ही हूँ. मेरी ह्त्या नहीं हुई है. मैं
दत्त भक्त हूँ. मैंने सपने में एक कसाई देखा था. वह कह रहा था कि मुझे मार
डालेगा.”
औदुम्बर वृक्ष की महिमा
इस
पर हरिदास जोर से हंसा और बोला, “क्या तू जो कह रहा है, वह सच
है? कहो कि नहीं है. इस सृष्टि में व्याप्त अनेक मार्गों
के आदिगुरू श्री दत्तात्रेय ही है. वे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे
में जानते हैं. उनके सामने हम सब क्षुद्र हैं. यदि जन्म कुण्डली में अनिष्ट फल
दर्शाया गया हो, तो भी गुरुदेव अपने शिष्यों को भयानक मानसिक कष्ट, घोर अपमान सहन करने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं. घोर
कष्ट से उसे बाहर निकाल कर उसका कर्म क्षय करके उसे पुनर्जीवन देते हैं. उसी
प्रकार अवतारी पुरुष भी अपने आश्रितों के दुःख दूर करके, उसकी व्याधि कम करके
उन्हें पुनर्जन्म प्रदान करते हैं. श्री दत्तात्रेय प्रभु अपने भक्तों को
प्राणशक्ति देकर अपने नियमित आवास स्थल, औदुम्बर
वृक्ष, से निकलने वाली प्राण शक्ति द्वारा उनकी रक्षा करते हैं. मगर अल्पबुद्धि
वाले साधक ऐसा समझते हैं, कि वे अपने शरीर की प्राणशक्ति के कारण जीवित हैं.
वास्तव में वह प्राणशक्ति औदुम्बर वृक्ष से निकलकर भक्तों का शरीर-व्यवहार भली
प्रकार निभा सकती है. यदि भक्त मरणासन्न अवस्था में हो, तो उस
क्षण औदुम्बर वृक्ष से निकलती हुई प्राणशक्ति भक्त के शरीर में स्थित होकर भक्त की
आयु को थोड़ा सा बढाती है. यह प्राणशक्ति परिपूर्ण होती है, क्योंकि प्रत्येक औदुम्बर के वृक्ष में सूक्ष्म रूप
में श्री दत्तात्रेय प्रतिष्ठित रहते हैं.” हरिदास द्वारा कथन किया गया वृत्तांत
विस्मित करने वाला था. कृष्णदास नामक एक व्यापारी उस मार्ग से जा रहा था. मैं उस
औदुम्बर वृक्ष की देखभाल बड़े प्रेम और भक्तिभाव से कर रहा था. कुछ दिन इसी प्रकार
बीते. हमारे दूर के एक रिश्तेदार रेशमी कपड़ों का व्यापार किया करते थे. वे वृद्ध
हो चुके थे. उनके कोई संतान नहीं थी. मुझ पर उनका विशेष स्नेह था. वे हमारे ही घर
में रहते थे. उन्होंने मुझे थोड़ा सा धन देकर रेशमी कपड़ों का व्यापार करने के लिए
कहा. वे भी हमारे घर के औदुम्बर वृक्ष की भक्तिपूर्वक परिक्रमा करते और श्री दत्त
प्रभु की आराधना किया करते. हमारे घर में किसी भी आपत्ति अथवा संकट के आने पर हम
औदुम्बर वृक्ष की परिक्रमा करके हमारे दुःख निवारण करने की प्रार्थना करते. हमारी
याचना दत्त प्रभु तक पहुँचती थी. हमारे ऊपर आए हुए संकट श्री दत्त प्रभु की कृपा
से दूर हो जाते थे. श्री दत्त प्रभु को यदि हम कोई मन्नत मानते तो वह औदुम्बर
वृक्ष के माध्यम से पूरी होती थी. औदुम्बर वृक्ष की सेवा करना दत्त भक्तों के लिए
अति महत्त्वपूर्ण विधि है. घर में औदुम्बर वृक्ष के होने का तात्पर्य है साक्षात्
श्री दत्त प्रभु का घर में निवास. औदुम्बर वृक्ष की महिमा का जितना भी वर्णन किया
जाए, कम ही है.”
पाप कर्मों
के फलस्वरूप कंटीले वृक्ष का जन्म.
मैं
व्यापार के सिलसिले में जब आँध्रप्रदेश में था तो सौभाग्य से पीठिकापुरम् आ
पहुँचा. मैंने श्री बापन्नाचार्युलु का घर ढूंढ निकाला. उस समय श्रीपाद प्रभु
बापन्नाचार्युलु के साथ आँगन में बैठे थे. उनके आँगन में एक कंटीला वृक्ष था. उस
वृक्ष को श्रीपाद प्रभु बड़े श्रद्धाभाव से प्रतिदिन पानी दिया करते थे.
बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “यह कंटीला वृक्ष तुम्हें इतना प्रिय क्यों है? यदि यह संजीवनी वृक्ष होता तो उस पर प्रीती करना उचित
होता. इस वृक्ष को तुम श्रद्धापूर्वक पानी दो, या न भी
दो, तो भी वह बढ़ने वाला ही है.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी, यह कंटीला वृक्ष पूर्व जन्म में हमारे कुल के
“विश्वावाधानी” थे. स्वयंभू श्री दत्तात्रेय बापन्नाचार्युलु के पोते के रूप में
अवतरित हुए हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है! परन्तु विश्वावधानी नाना
उपहासपूर्वक कहते: “यह कितना बड़ा देवद्रोह है!” वे ही इस जन्म में कंटीले वृक्ष के
रूप में हमारे आँगन में स्थित हैं. मैं, माँ, बड़े भाई, श्री विद्याधरी, राधा, सुरेखा, वेंकट सुब्बय्या श्रेष्ठी के एवँ नरसिंह वर्मा के घर
में बड़े प्रेम से भोजन किया करते. यह बात विश्वावधानी नाना जी को बिल्कुल अच्छी
नहीं लगती थी. वे क्रोधित होकर कहते, “मल्लादी एवँ घंडीकोटा इन दो कुलों को धर्मभ्रष्ठ
करने वालों को ब्राह्मण समाज से बहिष्कृत करो. आज वे ही नानाजी कंटीले वृक्ष के
रूप में दिखाई दे रहे हैं.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ साक्षात् दत्तात्रेय हैं, इसका
क्या प्रमाण है? इस प्रकार के तर्क-कुतर्क करने वाले विश्वावाधानी
नाना ने इस कंटीले वृक्ष के रूप में जन्म लिया है.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु आगे
बोले, “मेरी
माता, सर्व
सौन्दर्य स्वरूपिणी, सुमति महाराणी को श्रेष्ठी अपने घर की बेटी मानते थे.
एक बार उन्होंने सम्मानपूर्वक सुमति महाराणी को भोजन के लिए निमंत्रित किया और
नूतन वस्त्रों से उनकी गोद भरी. इससे उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनका जन्म धन्य
हो गया हो. नरसिंह वर्मा दादाजी का विश्वावधानी नाना बहुत अपमान करते थे. उन्होंने
अपने दादा की मृत्यु पश्चात उत्तर क्रिया भी विधिपूर्वक नहीं की. उनके पाप कर्मों
का भार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण ही उन्हें कंटीले वृक्ष का जन्म प्राप्त हुआ. उस
कंटीले वृक्ष को देखते ही श्रीपाद प्रभु उसका पूर्व वृत्तांत जान गए और उन्हें
उसकी दया आ गई. उन्होंने उस वृक्ष पर थोड़ा जल छिड़का. और वे आँगन से बाहर आए.
श्रीपाद प्रभु का मनोहर रूप देखकर मैं आनंद विभोर हो गया, मेरे नेत्रों से
आनंदाश्रु बहाने लगे. मैंने विनम्र भाव से श्रीपाद प्रभु के दिव्य चरणों पर शीश
नवाया. श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से मुझे छूकर कहा, “हे गुरुचरण, उठ. क्या पागलपन कर रहे हो? तू
पुनर्जन्म लेकर मेरे पास आया है.”
बापन्नाचार्युलु ने यह जानकर कि मैं कपड़ों का व्यापारी
हूँ, मुझसे
कहा, “हमारे
नन्हे के लिए तुम्हारे पास कपडे हैं?” मैंने श्रीपाद प्रभु के लिए सुन्दर वस्त्र निकाल कर
दिए. श्रीपाद प्रभु गुरुचरण को अन्दर लेकर आये और बोले, “अब तुम्हें एक मजेदार बात दिखाता हूँ. देखो.” उनके
साथ बापन्नाचार्युलु भी थे. श्रीपाद प्रभु सबको लेकर उस कंटीले वृक्ष के निकट आये
और बोले,
“विश्वन्ना नाना जी! आपके पुत्र के श्रद्धारहित श्राद्ध कर्म करने से तथा
बापन्नाचार्युलू जैसे महापुरुष की अकारण निंदा करने के कारण आपको इस कंटीले वृक्ष
के रूप में जन्म लेना पडा है. यह गुरुचरण आपका पूर्व जन्म का पुत्र है. इसके
द्वारा मैं श्रद्धापूर्वक आपका उत्तर कर्म करवा रहा हूँ. आप सहमत हैं ना?” प्रभु
का यह कथन सुनकर हम आश्चर्यचकित हो गए. उस कंटीले वृक्ष से लिपटी हुई विश्वावधानी
की प्रेतात्मा बोली, “इससे अधिक सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है?” श्रीपाद
प्रभु ने गुरुचरण से उस कंटीले वृक्ष को
उखाड़कर उसे अग्नि देने को कहा. गुरुचरण ने श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार उस कंटीले
वृक्ष को उखाड़ कर उसका दहन कर दिया एवँ तत्पश्चात स्नान कर लिया. प्रभु ने उसे
स्नानोपरांत विभूति लगाने को कहा. श्रीपाद प्रभु बोले, “भगवान शिव जो भस्म धारण करते हैं, वह
महायोगी,
महातपस्वी, महान
भक्त, महान
सिद्ध पुरुषों की मृत्यु के पश्चात उनके शरीर के दहनोपरांत की पवित्र विभूति होती
है. शिव प्रभु के तेजोवलय में ये महात्मा ऐक्य स्थिति में विश्राम करते हैं. वानर, सर्प, गाय – इन
पशुओं की यदि अनजाने में अपने हाथ से ह्त्या हो जाए तो उनकी बिना भूले उत्तर
क्रिया करना चाहिए. श्रद्धापूर्वक उनका दहन करके अन्नदान करना चाहिए. यहाँ मन्त्र
पूर्वक किसी भी विधि के करने की आवश्यकता नहीं है. मनुष्य के पूर्व ऋणानुबंध के
अनुसार यदि उसके हाथ से किसी भी प्राणी की अनजाने में ह्त्या हो जाए तो उनका
श्रद्धापूर्वक दहन करें. ऐसा करने से पाप कर्म नष्ट हो जाता है और उन प्राणियों को
सद्गति प्राप्त होती है.”
“प्राचीन काल में गौतम नामक महर्षि थे. उनकी पत्नी
अहिल्या एक महान पतिव्रता स्त्री थीं. उन्होंने विश्व शान्ति के लिए कोटि कमलों से
यज्ञ किया था. गौतम महर्षि अपने तपोबल से घर के सामने अनाज उगाया करते थे. मानव
जीवन के लिए अन्न अत्यंत आवश्यक है. महर्षि गोधन की वृद्धि भी करते थे. गो अमृत
जैसे पदार्थों का भी उत्पादन करते थे.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले,
“यज्ञ-याग न करने से विश्वनियन्ता, देवता एवँ मानव के परस्पर सहयोग से चलने वाला जीवन
निरर्थक होकर धर्म की ग्लानी होती है. माया के निवारण के लिए,
गोहत्या-पातक के निवारण के लिए गोदावरी नदी गौतम ऋषि की सहायता से अवतरित हुई.
उनके इस महान कार्य के लिए सारा जन समुदाय उनका अत्यंत ऋणी है.
विश्वावधानी ने गौतम गोत्र में ही जन्म लिया था, परन्तु
गौतम गोत्र से उनका सम्बन्ध केवल जन्म लेने तक ही सीमित था. त्रेता युग में
पीठिकापुरम् क्षेत्र में “सावित्री काटक” यज्ञ के आयोजन में गौतम ऋषि का बड़ा
योगदान था. विश्वावाधानी के भाग्य से ही उसे पीठिकापुरम् में जन्म लेने का अवसर
प्राप्त हुआ और जो अत्यंत दुर्लभ है – ऐसे मेरे दर्शन उसे उसे प्राप्त हुए. उसके अयोग्य
होते हुए भी मेरे स्वार्थ रहित प्रेम एवँ करुणा के फलस्वरूप उसे सद्गति प्राप्त
हुई. यह सद्गति उसे श्री दत्तात्रेय प्रभु की कृपा के फलस्वरूप ही प्राप्त हुई.
यदि पूर्व ऋणानुबंध न हो तो कुत्ता भी निकट नहीं आता. यदि कोई सहायता माँगने अपने
पास आए तो उसकी यथासंभव सहायता करनी चाहिए. यदि सहायता करना संभव न हो तो अपनी
मधुर वाणी से अपनी असमर्थता प्रकट करनी चाहिए. परन्तु निष्ठुरता न दिखाएं. यदि तुम
कठोरतापूर्वक व्यवहार करोगे, तो सभी वस्तुओं में चैतन्य रूप से वास करने वाला मैं
भी तुम्हारे साथ वैसा ही व्यवहार करूंगा. जिस प्रकार का व्यवहार तुम अन्य लोगों के
साथ करोगे, वैसा ही
व्यवहार वे भी तुम्हारे साथ करेंगे. इस समूची सृष्टि में सत्य का एकमेव मूल कारण
मैं हूँ. मैं समूचे सत्य का ‘सर्वमय परम सत्य’ हूँ. वेदों में भी कहा गया है कि
ज्ञान का अंतिम सत्य ब्रह्म है.”
श्रीपाद प्रभु की बातें सुनकर बापन्नाचार्युलु की
आंखों से आनंदाश्रु बहाने लगे. बड़े प्रेम भाव से श्रीपाद प्रभु ने अपने
नन्हें-नन्हें हाथों से उनके अश्रु पोंछे और बोले, “नानाजी आप हमेशा मेरे ध्यान में ही रहते हो. आपका
जन्म धन्य है. मैं नृसिंह सरस्वति के अवतार में बिलकुल आप जैसा रूप ही धारण करने
वाला हूँ. यह त्रिवार सत्य है.”
बातें करते समय श्रीपाद प्रभु ने नानाजी का हाथ अपने
हाथ में थाम रखा था. बापन्नाचार्युलु ने कहा, “अरे, श्रीपाद! मेरे मन में कई दिनों से एक संदेह है. पूछूं
क्या?” उसी क्षण श्रीपाद मुस्कुराते हुए बोले, “मेरे
निकट क्या संदेह हो सकता है? मैं, दस वर्ष का बालक, आपके संदेह का निवारण किस प्रकार कर सकता हूँ? प्रयत्न
करूंगा.”
इस पर बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “सृष्टि, स्थिति
एवँ लय – इनके कर्ता ब्रह्मा, विष्णु एवँ महेश हैं ना?” श्रीपाद प्रभु बोले, “हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं.” बापन्नाचार्युलु ने आगे पूछा
, “उनकी स्त्री शक्ति की स्वरूप सरस्वति, लक्ष्मी एवँ पार्वती हैं ना?” श्रीपाद
प्रभु ने सहमति से सर हिलाया. “इन त्रिमूर्तियों को एवँ उनकी तीनों शक्तियों को
निर्माण करने वाली एक आदि पराशक्ति है ना?” श्रीपाद प्रभु बोले, “हाँ है.” इस पर बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “तो उनके
सम्मुख तू कौन है? तू हमेशा मेरे बंधू-बांधवों को जिस वासवी कन्या के
बारे में बताता है वह कौन है? तुम दोनों भाई-बहन हो क्या इस बात का कोई शास्त्राधार
है?”
श्रीपाद प्रभु सर्व देवस्वरूप – सभी का मूल रूप हैं
श्रीपाद प्रभु.
एक के बाद एक प्रश्नों की बौछार सुनकर श्रीपाद प्रभु
अपनी मनमोहक मुस्कान बिखेरते हुए बोले, “नाना जी, अभी अभी आपकी आँखों के सामने ही तो मैंने कंटीले
वृक्ष को सद्गति दी है. मैंने जो कार्य किया उसके लिए शास्त्रों में कोई प्रमाण है
क्या? अतः इस
प्रकार की बातों की विवेचना करने की कोई आवश्यकता नहीं. मैं योगी हूँ और सभी
योगक्रियाओं में उपस्थित रहता हूँ, इसलिए मैं किसी भी प्रकार की भूमिका के साथ
समरस हो जाता हूँ. सृष्टि मेरी माया ही तो है. उसी को हम सृष्टि मानते हैं. समूची
सृष्टि में एक ही भगवत् चैतन्य व्याप्त है. यह चैतन्य विविध स्थितियों में एवँ विविध
अवस्थाओं में परिणाम के वश में है. इस परिणाम क्रम का आधार है काल. काल का ज्ञान
प्राप्त करने की प्रक्रिया में परिणाम चक्र का अनुभव होता है. इस काल की गणना होती
है आकाश में स्थित सूर्य, चन्द्र, तारों एवँ ग्रहों की गति से.
अत्रि महर्षि को त्रिकाल का एवँ तीनों अवस्थाओं का
ज्ञान था. अनुसूया माता को इस सृष्टि में एक महान पतिव्रता के रूप में प्रसिद्धि
प्राप्त हुई.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मुझे एक ही काल में सृष्टि, स्थिति
तथा लय का, एवँ एक
साथ ही स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण – देह की इन तीनों अवस्थाओं का, और
भूत, भविष्य
एवँ वर्त्तमान काल का अनुभव होता है इसलिए मेरे लिए नित्य वर्तमान काल ही है. जो घटित हो चुका है, घटित हो रहा है एवँ भविष्य में घटित होने वाला है –
इन सब का अनुभव मुझे एक ही काल में होता है, अतः त्रिमूर्ति, त्रिशक्ति मुझमें विद्यमान हैं – यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं त्रिमूर्ति एवँ त्रिशक्ति सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व आदि-पराशक्ति के
रूप में थीं. यह बात सत्य है. मैं तथा आदि-पराशक्ति अभिन्न हैं. इसमें से एक
सूक्ष्म अंश होने के कारण समस्त सृष्टि के मातृगर्भ में एक महासंकल्प आदिपराशक्ति
के रूप में विलास करता है. यही ब्रह्मयोनि स्वरूप है. यहीं से त्रिमूर्ति,
त्रिशक्तियों का आविर्भाव हुआ. उस आदिपराशक्ति को निर्माण करने का संकल्प हो अथवा
सृष्टि रचना का संकल्प हो – यह कैसे संभव होगा – इसकी प्रबोधन शक्ति मैं ही हूँ. अतः
मैं ही महासंकल्प स्वरूप हूँ. उस महासंकल्प की सिद्धि के लिए ही आदिपराशक्ति का
आविर्भाव हुआ. साथ ही त्रिशक्ति का भी आविर्भाव जिस महासंकल्प के कारण हुआ वह
महासंकल्प रूप परम गुरुस्वरूप है. यह अत्यंत रहस्यमय विषय है. इस महासंकल्प स्वरूप
में संकल्प के मिलते ही वह तत्काल सिद्ध हो जाता है. संकल्प का होना एवँ उसका
सिद्धि को प्राप्त होना – ये दोनों क्रियाएँ एक ही समय में घटित होती है. सभी
शक्तियों को एकत्रित रखने वाली मूल शक्ति मैं ही हूँ. सृष्टि में माता-शिशु संबंध, पिता-पुत्र
संबंध,
पति-पत्नी संबंध, भाई-बहिन संबंध – ये अनिवार्य संबंध हैं. इन पवित्र
संबंधों के लिए आदर्श के स्वरूप में देवी-देवता पृथ्वी पर अवतरित होते हैं. जीव
अर्थात माया की शक्ति है. मैं ऐसी महाशक्ति हूँ, जो माया से परे है. मायाशक्ति अथवा महाशक्ति योगशक्ति
द्वारा ही फलीभूत होती है. जो महाशक्ति स्त्री-स्वरूप में वासवी कन्यका के नाम से
जानी जाती है, वही महाशक्ति पुरुष-स्वरूप में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
रूप में अवतरित हुई है. इन दोनों शक्तियों का आविर्भाव भी महासंकल्प के अनुरूप ही
है. आदिपराशक्ति की अथवा मूल दत्त स्वरूप की आराधना करने से त्रिमूर्ति एवँ त्रिशक्ति
अंतर्लीन हो जाती हैं. इन देवी संबंधों और उनके उनके तत्वों के, उनकी स्थिति-विशेष
के अनुरूप, अनुभव का ज्ञान केवल साधना संपन्न जीवों को ही अवगत होता है.”
श्रीपाद
प्रभु की आराधना करने वाले साधकों के पापों का निवारण
“मृग
के पास जाकर उसे संस्कृत व्याकरण का ज्ञान देना निरर्थक है. यदि संस्कृत का अध्ययन
करके नीच योनि से मुक्ति प्राप्त करना हो, तो व्याकरण का ज्ञान ऐसे ही व्यक्ति
से प्राप्त करना चाहिए जो इसके लिए समर्थ हो. मेरा प्रत्येक जीव के साथ आतंरिक
संबंध होने के कारण मैं जीव के संस्कार एवँ मलिनता दोनों को स्वीकार करता हूँ.
वास्तव में देखा जाए तो मेरी पूजा करने की आवश्यकता नहीं है. मेरी आराधना करने
वाले भक्तों के पाप-संस्कार मैं अपने भीतर आकर्षित कर लेता हूँ. यदि मेरे भक्त
अपने कुल देवता की पूजा करें, तो वह मेरे स्वरूप की स्थूल पूजा
होगी. उस पूजा के करने से प्राप्त होने वाला महाफल मेरी आराधना करने वाले अपने
भक्तों को मैं अर्पण करता हूँ. यदि तुम कर्म न करोगे तो तुम्हें फल कदापि प्राप्त
नहीं होगा. इसीलिये मैं तपश्चर्या तथा महापूण्यकर्मों का आचरण करता हूँ. मैं अनंत
चैतन्य हूँ इसलिए उत्तम कर्म करने वाले साधकों को उनकी योग्यतानुसार कर्म का फल
तत्काल प्रदान कर देता हूँ. मेरा स्वरूप आदिगुरूस्वरूप है. जिस प्रकार माता-पिता की
धन-दौलत की हकदार संतान होती है, उसी प्रकार गुरू की तपोशक्ति के
वारिस होते हैं उसके शिष्य. भगवान श्रीकृष्ण ने भी भगवद्गीता में कहा है कि मानव
के लिए कर्म करना अनिवार्य है.”
मेरी तपाराधना अंतहीन है.
“श्री दत्तात्रेय के समान ही मैं भी सुलभता से प्राप्त
होने वाला देवता हूँ. अन्य देवी-देवता भक्तों की तपश्चर्या से संतुष्ट होकर उन्हें
वर प्रदान करते हैं. गुरूस्वरूप श्री दत्तात्रेय अपने शिष्यों की वरप्राप्ति के
मार्ग की रुकावटों को दूर करते हैं. वे सदा अनुग्रह करने वाले, परम
करुणामूर्ति-स्वरूप हैं. नाना जी, मुझे स्मरण करते ही प्रसन्न होने वाला देवता कहा जाता
है. जो सबका मूल है – वह गुरुरूप मैं ही हूँ. यह परम गुरुतत्व-स्वरूप महान करुणा
के फलस्वरूप अवतरित हुआ है, अतः यह अवतार अंतहीन है. मेरे भक्तों की पुकार पर मैं
तुरंत प्रतिसाद देता हूँ. मैं यह ही देखता हूँ, कि मेरे भक्त मुझे कब बुलाते हैं. यदि साधक मेरी और
एक कदम आगे बढाता है, तो मैं उसकी ओर सौ कदम बढाता हूँ. जिस प्रकार पलकें
आंखों की रक्षा करती हैं, उसी प्रकार मैं अपने भक्तों की सुरक्षा करता हूँ.
उन्हें संकटों से, विपत्तियों से छुड़ाता हूँ. यह मेरी सहज प्रवृत्ति
है.”
श्रीपाद प्रभु के इस कथन के बाद मैंने उनसे पूछा, “हे
महागुरू! मैंने सोमलता एवँ सोम-याग के बारे में अनेक लोगों से सूना है. कृपया इसके
बारे में विस्तार से बताएँ.”
श्रीपाद प्रभु बोले, “सोमलता को संजीवनी वनस्पति कहते हैं. क्या तुम उसे
देखोगे?” मैंने
‘हाँ’ कहते हुए
गर्दन हिला दी. तत्काल श्रीपाद प्रभु के हाथों में संजीवनी बेल प्रकट हो गई.
उन्होने सम्मानपूर्वक वह बेल मेरे हाथों में दी. मैंने उस दिव्य प्रसाद को अपने
पूजा मंदिर में संभाल कर रखा है. श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “ यह
संजीवनी वनस्पति हिमालय की पर्वत श्रेणी में, काश्मीर के निकट, मानसरोवर
के पास, सिन्धु नदी के उद्गम स्थल के निकट, मल्लिकार्जुन प्रभु का जहाँ नित्य
निवास रहता है, उस श्री शैल्यम पर्वत पर, सह्याद्री, महेंद्र, देवगिरी, विन्ध्य
पर्वत श्रेणी एवँ बदरी के अरण्य प्रांत में पाई जाती है. इस बूटी के प्रभाव से ही
लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई थी. इस बूटी के सेवन से अनेकों असाध्य रोग दूर हो जाते
हैं. इसका लेप करने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो ‘आकाशगमन’ सिद्धि प्राप्त हो गई हो. इसके सेवन से हड्डियां
मज़बूत होती हैं, नेत्र कांति बढ़ती है, श्रवण शक्ति में सुधार होता है. इस बूटी के प्रभाव से
अग्नि से, विष से
एवँ जल से भय नहीं होता. इसके कारण अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं. इस
संजीवनी बेल में शुक्ल पक्ष के आरंभ से प्रतिदिन एक-एक पत्ता लगता है, पूर्णिमा
तक पंद्रह पत्ते आ जाते हैं. कृष्ण पक्ष के आरम्भ होते ही प्रतिदिन एक-एक पत्ता
गिरने लगता है और अमावस्या को बेल सूख जाती है. इस सूखी हुई बेल की एक टहनी रात को
पानी में भिगोकर रखने से इसमें से प्रकाश निकलता है. सह्याद्री पर्वत श्रुंखला पर
भीमाशंकर पर्वत के निकट ‘क्रूर मृग’ इस संजीवनी बूटी की रक्षा करते हैं. अमावस की रात को
भी दिव्य कांति से चमकने वाली संजीवनी बूटी ढूँढना आसान होता है.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “हे गुरुचरण, इस प्रकार चौबीस प्रकार की दिव्य औषधी-बूटियाँ हैं.
वे सभी अत्यंत पवित्र हैं. देवता-शक्तियां इनका आश्रय लेती हैं. पवित्र वेद
मन्त्रों का उच्चारण करते हुए इन बूटियों को तोड़ना चाहिए. ये चौबीस बूटियाँ इस
प्रकार हैं:
1.
सोम
2.
महासोम
3.
चन्द्र
4.
अंशुमान
5.
मंजुवान
6.
रजीत
प्रभु
7.
दूर्वा
8.
कनियान
9.
श्वेतान
10.
कनक प्रभा
11.
प्रतान
वान
12.
लाले
वृत्त
13.
करदीर
14.
अन्शवान
15.
स्वयंप्रभा
16.
रुद्राक्ष
17.
गायत्रि
18.
एष्टम
19.
पावत
20.
जगत
21.
शाकर
22.
अनिष्टम
23.
रैकत
24.
त्रिपाद
गायत्रि “
मैंने श्रीपाद प्रभु से बिदा ली और पीठिकापुरम् से
निकला.
मैंने शंकर भट्ट को यह वृत्तांत विस्तारपूर्वक बताया.
महागुरू का मानस संचार पूर्ण हो गया एवँ उनके दर्शनों के लिए आने की आज्ञा प्राप्त
हुई. मैं श्रीपाद प्रभु के दर्शन पाकर धन्य हो गया. मुझे उनके दिव्य हस्त से फलों
का प्रसाद प्राप्त हुआ. श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा, “कृष्णा नदी पार करके मान्चाल ग्राम को जाओ. इस ग्राम
की ग्राम देवता तुम्हें आशीष देगी. उसका आशीर्वाद लेकर वापस कुरुगड्डी आओ. यह बात हमेशा ध्यान में रहे कि चाहे तुम मेरे पास
रहो या मुझसे दूर रहो, मेरा ध्यान हमेशा तुम पर रहता है. भविष्य में यह
मान्चाल ग्राम विश्व में प्रसिद्ध होगा. एक महापुरुष की समाधि के कारण इस गाँव को
प्रसिद्धी प्राप्त होगी. इस महापुरुष की लीलाएँ अद्भुत होंगी. स्थूल दृष्टी से
देखने से पीठिकापुरम् एक प्रकार का दिखाई देता है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टी से देखने पर अलग ही प्रतीत
होता है. यही सुवर्ण पीठिकापुरम् है जो मेरे शरीर को वलायांकित करता हुआ अतिशय
तेजोमय है. व्यक्ति किसी भी योग का, किसी भी देशा का, किसी भी युग का क्यों न हो, मेरे
केवल नेत्र कटाक्ष से उसका चैतन्य सुवर्ण पीठिकापुरम् में प्रतिष्ठित हो जाता है.
यह विशेष योगदृष्टि वाले भक्तों को ही समझ में आ सकता है. सुवर्ण पीठिकापुरम् में
अपने जीवन चैतन्य को प्रतिष्ठित करने वाले सभी भक्त धन्य हैं. उनका मैं
जन्म-जन्मान्तर तक ध्यान रखूंगा. पिता समान शंकर भट्ट! अनेक शतकों के बाद मेरे आँगन
में महासंस्थान का निर्माण होगा. मेरे नाना जी के घर, जहाँ मेरा जन्म हुआ, उस स्थान पर औदुम्बर वृक्ष की छाया में वह बनेगा.
मेरा अगला अवतार श्री नृसिंह सरस्वति के नाम से होगा. इस अवतार की मूर्ती भी इस
महासंस्थान में स्थापित होगी.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “देखो, मैं तुम्हें दिव्य दृष्टी दे रहा हूँ,” इतना
कहकर उन्होंने गुरुचरण के और मेरे भ्रूमध्य पर अपनी दृष्टी जमाई. वह सुन्दर दृश्य
देखकर हम धन्य-धन्य हो गए. उनका संकल्प अमोघ है. उनकी लीलाएँ अद्भुत हैं. हम आगे
की यात्रा पर निकले तब श्रीपाद प्रभु बोले, वशिष्ठ ऋषि के अंश वाला एक भक्त मेरे संस्थान में
पुजारी के रूप में आयेगा.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
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