।। श्रीपाद राजम शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २४
अर्ध नारी नटेश्वर – वर्णन
मैंने
(शंकर भट्ट ने) श्री धर्मगुप्त से पूछा, “ महाराज, भगवान
शिव विविध प्रकार के शस्त्र एवँ आभूषण धारण करते हैं. इन्हें धारण करने के पीछे
क्या निहितार्थ है, कृपया स्पष्ट करें.”
धर्मगुप्त
ने उत्तर दिया, “अरे
शंकर भट्ट! गणपति भगवान का मुख्य आयुध है पाशांकुश. उसी प्रकार श्री विष्णु का
मुख्य आयुध है सुदर्शन चक्र. त्रिशूल भगवान शंकर का मुख्य आयुध है. त्रिशूल के
ऊपरी भाग में तीन नुकीले सिरे होते हैं, ये अग्नि ज्वाला के रूप में होते
हैं. ये तीनों सिरे मिलकर एक शूलहस्त के सामान होते हैं. ये तीनों नुकीले सिरे
सत्व, रज
तथा तम इन त्रिगुणों को प्रदर्शित करते है. पिंगला नाडी द्वारा श्वास का चलन-वलन
होता है,
तत्पश्चात भ्रूमध्य के भाग से होकर वह शिरोस्थान तक पहुँचती है. इडा,
पिंगला और सुषुम्ना – ये तीन नाड़ियाँ ब्रह्मज्ञान की केंद्र हैं, इन्हीं को
नाड़ियों का त्रिवेणी संगम कहते हैं. यह त्रिशूल का निहितार्थ है. शिव का दूसरा
आभूषण नाग है. मानव शरीर में कुण्डलिनी शक्ति सर्पाकार में सुप्त अवस्था में पडी
रहती है. उसके जागृत होने पर अष्टसिद्धि प्राप्त हो जाती है. इन महासिद्धियों को
वश में करके उनका उपयोग लोक कल्याण के लिए करने वाले शिव का एक अन्य दिव्य नाम
‘ईश्वर’ भी
है. शिव के त्रिशूल से बंधा होता है डमरू. यह शब्द गुण का प्रतीक है. नाद, झंकार
– यह आकाश गुण है. आकाश में शब्द कम्पनों द्वारा विचलित होता है. जब हम किसी
मन्त्र का जाप करते हैं, अथवा उसका श्रवण करते हैं तो वह डमरू की आवाज़ के
समान हमारे कानों में गूंजता रहता है. मन्त्र पुरश्चरण करने से योगी जनों को आनंद
होता है, इस
आनंद की धुन में वह नृत्य करता है. इसके प्रतीक स्वरूप परमेश्वर डमरू धारण करते
हैं.
दोनों भौंहों (भ्रूमध्य) के मध्य बिंदु पर होता
है आज्ञा चक्र. यही सब ज्ञानों का केंद्र होता है. ज्ञानी पुरुष को अतीन्द्रिय दृष्टी
होती है, अतः
उसका ज्ञान केंद्र विकसित होता है. इसी चक्र के द्वारा योगीजन भूत एवँ भविष्य को
यथार्थता से समझ सकते हैं. इसीको परमेश्वर का तीसरा नेत्र कहते हैं. जब यह ज्ञान
नेत्र विकसित हो जाता है, तब कामस्वरूप मदन का दहन करना संभव
है.
शिवप्रभु
का वास श्मशान में होता है, ऐसा कहते हैं. योगाग्नि के कारण सभी वासनाएं भस्म हो
जाती हैं और योगी को परम शान्ति प्रदायक निर्वाण स्थिति का अनुभव होता है. ज्ञान
स्थिति का रंग होता है – सफ़ेद. वही विभूति है. आलोचना (निंदा), वासना इत्यादि पर
नियंत्रण करने की शक्ति जब प्राप्त हो जाती है, तब शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती
है. इससे आनंद की प्राप्ति होती है. ज्ञान की शुद्धि चार प्रकार से होती है: १.
आधिभौतिक, २.
आधिदैविक, ३,
आध्यात्मिक एवँ ४,
मानसिक. इनके प्रतीक स्वरूप शिव भक्त माथे पर विभूति की चार रेखाएं लगाते हैं.
शिलाजीत नामक एक दिव्य औषधि होती है. इस औषधि के सेवन से नित्य यौवन प्राप्त होता
है. प्राचीन काल में शिलादुड नामक एक महर्षि हो गए हैं, जो कंकड़ खाकर जीवन गुजारते
थे. वे ही नन्दीश्वर के रूप में अवतरित हुए, श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र
पर वृषभ राशि में हुआ. शिव जी का जन्म नक्षत्र है आर्द्रा. उमामहेश्वर के अर्धनारी
नटेश्वर की राशि थी मिथुन. इस राशि से पूर्व आती है वृषभ राशि. यह वृषभ ही
नन्दीश्वर है. नंदी धर्म का प्रतीक है. निम्न जाति के कामरूपी मदन को शिव जी ने
दग्ध कर दिया था. परन्तु शिव जी की कृपा से ही वह निराकार रूप धारण कर उच्च
प्रकृति वाले दिव्य दाम्पत्य धर्म का पालन करने वाले दंपत्ति के पुत्र के रूप में
अवतरित हुआ. श्रीकृष्ण ने उपमन्यु ऋषि का शिष्यत्व स्वीकार कर अत्यंत निष्ठापूर्वक
शिव की उपासना की थी. शिव जी के अनुग्रह से रुक्मिणी के गर्भ से मन्मथ ने प्रद्युम्न
के नाम से जन्म लिया. यह मन्मथ वृषभ राशि का काम स्थान है. कर्मबद्ध कामनाएँ, चाहे
वे किसी भी प्रकार की क्यों न हों, उन्नत प्रकृति की होती हैं. उनको
पूर्ण करना धर्म विहित है.
भयंकर
तांत्रिक शक्तियाँ शेर के समान प्रमादकारी होती हैं. उन्हें केवल शिव भगवान ही
अपने वश में करके अपने आधीन कर सकते हैं. शेर देवी स्वरूपी शक्ति का वाहन है.
शक्ति को पूर्ण रूप से अपने आधीन रखने के प्रतीक स्वरूप परमेश्वर अपने शरीर पर
चर्म धारण करते हैं. इसीलिये उन्हें व्याघ्रचर्माम्बरधारी कहते हैं. शिव प्रभु की,
जिन्हें अमृतत्व सिद्ध है, जटा से बहने वाली लोक पावनी गंगा
शुद्ध ब्रह्मज्ञान निरंतर प्रवाहित करने वाली प्रज्ञा का प्रतीक है. इसी प्रकार
नित्य प्रसन्न तत्व के द्वारा प्राप्त होने वाली महाप्रशांत आनंद आल्हाददायक स्थिति
की प्रतीक है चंद्रकोर.
दाईं
और प्रवाहित होने वाली श्वासरूपी शक्ति की नाडी कहलाती है पिंगला. बाईं और
प्रवाहित होने वाली श्वास रूपी शक्ति कहलाती है इडा. अरे, शंकर
भट्ट! प्राणायाम करते समय दाईं और की नाक की नली से साँस लेने से ऊष्मा बढ़ती है,
इसलिए उसे सूर्यनाडी कहते हैं. बाईं और से साँस लेने से शीतलता प्राप्त होती है, अतः
उसे चंद्रनाडी कहते हैं. कालपुरुष के शरीर में स्थित राशिचक्र में मेष राशि से
तुला राशि तक ऊष्मा देने वाले छः महीने यदि सूर्य नाडी समझें तो अश्विन से फागुन
मास तक के छः महीने शीत अर्थात कम उष्णता वाले होने से उन्हें चन्द्रनाडी समझा
जाता है. चन्द्र सूर्य की इस गति के कारण ही पूर्णिमा एवँ अमावस्या की निर्मिती
होती है.
योगी
पुरुष अपनी विशिष्ठ प्रकार की साधना से काल चक्र की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त कर
लेता है. योग शक्ति के कारण उसे भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान – तीनों कालों
का ज्ञान प्राप्त हो जाता है. इस कालचक्र को ही अर्धनारीश्वर, अर्थात ऐसी जोड़ी
जिसे कभी भी,
किन्हीं भी परिस्थितियों में अलग नहीं किया जा सकता, समझना चाहिए. रात-दिन,
पूर्णिमा-अमावस्या एक विशिष्ट कालावधि के पश्चात ही क्रमानुसार दृष्टिगोचर होते
हैं. यदि रात न हो, तो दिन नहीं हो सकता और दिन न हो, तो
रात नहीं हो सकती. माता-पिता के रूप में संबोधित अर्धनारीश्वर ही इस अनंत सृष्टि
के चलन-वलन के लिए कारणीभूत हैं. जब हम कहते हैं कि शिव का कार्य संहारक है तो
इसका गर्भित अर्थ यह हुआ कि पुरानी सृष्टि का अंत होकर नई सृष्टि का निर्माण हो
रहा है. सृष्टि में परिवर्तन बड़ी सहजता से होते हैं और इनके परिणाम स्वरूप नूतन
सृष्टि का अविर्भाव होकर वह कुछ समय तक इसी स्थिति में रहती है. इसके पश्चात इसका
संहार अनिवार्य ही है. अथर्व वेद में वर्णित सभी अस्त्र-शस्त्रों को,
मन्त्र-विद्याओं को सिद्ध करने के लिए इस विद्या के अधिपति ईशान रूद्र का अनुग्रह
होना आवश्यक है.”
इस वार्तालाप के बीच मैंने पूछा, “
आपने शिव-पार्वती एवँ आर्द्रा नक्षत्र का घनिष्ठ संबंध होने की बात कही थी, इस
बारे में कृपया विस्तार से बताने का कष्ट करें.”
तब
धर्मगुप्त ने कहा,
“रूद्र भागते हुए हिरण का शिकार करने वाले रूप में ‘मृगव्याध रूद्र’ के
रूप में दर्शन देंगे, यह दिव्य रूप आकाश में आर्द्रा नक्षत्र में
दिखाई देगा,”
ग्रह संचार का प्रभाव
धर्मगुप्त
ने आगे कहा, “ इस
मृगव्याध रूद्र का रूप नक्षत्र मंडल के मिथुन एवँ कर्क राशियों के बीच आडा दिखाई
देगा. तब इस नक्षत्र मंडल के निकट राहू, केतु, शनि आदि ग्रहों का संचार होता है.
तब विश्व व्यापी युद्ध, प्रलय, देवों-दानवों का युद्ध,
महाभारत का युद्ध जैसे संकट इन्हीं ग्रहों की गति के कारण ही होते हैं. काल-संहार
मूर्ती का अर्थात धनुष्य बाण धारण किये हुए, उग्रमूर्ती स्वरूप वाले रूद्र देवता
का ही मन्यु देवता के रूप में वेदों ने वर्णन किया है.” धर्मगुप्त अपनी बात आगे
बढाते हुए बोले, “माघ
मास की अमावस्या से पहले की चतुर्दशी को ‘महा शिवरात्री’ कहते हैं. प्रत्येक मास
में अमावस्या से पहले आने वाली चतुर्दशी को ‘मास शिवरात्री’ कहते
हैं.”
शनि प्रदोष के समय ईश्वर आराधना का
फल है शनिग्रह का दोष-निवारण
जो महाशिवरात्रि मंगलवार के दिन होती है उसे अत्यंत
पुण्यकारक मानते हैं. शनिवार को जब त्रयोदशी पड़ती है तो उसे शनिप्रदोष कहते हैं.
इस शुभ दिन शिवार्चन करके शनिदेव को प्रिय तिल-दान करना चाहिए. शिव प्रभु शनि के
आदि देवता होने के कारण यदि तिल के तेल से परमेश्वर की आराधना की जाए तो शनिदेव की
बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है. शनिवार को प्रदोष समय में शिवाराधना करने से
समस्त कर्म दोषों से मुक्ति मिलती है और साधक को सुख शान्ति प्राप्त होती है. शनि
कर्मकारक देवता है. शिव संहारक देवता है. शनि प्रदोष काल में शिव की आराधना सब
प्रकार के अशुभ कर्मों से उत्पन्न महापापों को भस्म करके शुद्ध, नूतन, दिव्य
तेजोमय शुभ स्पंदनों से मानव के मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त की शुद्धि करके नया जन्म प्रदान करती है.
इस प्रकार की अर्चना से शनिदेव शांत होते हैं. शनिवार
को रात्रि के समय उस साधक के सारे दुष्कर्म, दोषों की अधिष्ठित देवता महाकाली में
विलीन हो जाते हैं. दूसरे दिन, अर्थात रविवार को, सूर्योदय के समय सवित्र मंडल के मध्य में स्थित उस
महाशक्ति का अनुग्रह साधक को प्राप्त होता है. इसी समय उसके नूतन जीवन का आरम्भ
होता है. उसके अशुभ कर्मों से उत्पन्न पापों की गठरी परमेश्वर की योगाग्नि में जल
जाती है.
पंचभूतात्मक
शिवस्वरूप
शिवशंकर
पंचभूतात्मक देवाधिदेव हैं. मानव शरीर के ‘मूलाधार चक्र’ में पृथ्वी तत्व होता है.
इसीके प्रतीक स्वरूप साधक द्वारा पार्थिव शिवलिंग की पूजा की जाती है. ‘स्वाधिष्ठान
चक्र’ में
जल तत्व होता है. इसका प्रतीक होता है – जल लिंग. ‘मणिपुर चक्र’ में अग्नितत्व
होता है. इसका प्रतीक है – ज्वाला लिंग. इसे ‘हिरण्य स्तंभ’ भी कहते हैं. कंठस्थान में अर्थात ‘विशुद्ध चक्र’ में
वायुतत्व होता है. इसका प्रतीक वायु लिंग है. ह्रदय के आकाश स्थान में स्थित लिंग
को ‘चिदम्बर लिंग’ कहते
हैं. इन पंचभूतात्मक लिंगों की आराधना, दर्शना, अर्चना विशेष फलदायी होती है.
चिदम्बर लिंग को आकाश लिंग भी कहते हैं. इसका कोई आकार नहीं होता.
चिदम्बर
क्षेत्र में परदे के पीछे छिपे हुए चिदम्बर-रहस्य का तात्पर्य है कि परदा उठाने पर
बीच में कुछ भी नहीं होता, शुद्ध आकाश से तात्पर्य शिव के आत्म
लिंग से है. ह्रदय ही चित् स्थान होने के कारण आत्मा का निवास स्थान आकाश ही होता
है. वास्तव में यदि देखा जाए, तो आकाश का कोई आकार ही नहीं होता.
एकाग्र चित्त से निज तत्व का ध्यान करने वाले योगियों को अपने ह्रदय में समस्त
सृष्टि,
संपूर्ण ब्रह्मांडों, नक्षत्रों एवँ तारों आदि के दर्शन होते हैं. परमेश्वर
सर्वव्यापी है. वही अरुणाचलेश्वर के रूप में, अरुणाचल पर्वत के रूप में, एक
महासिद्ध के रूप में ही है. उनके दर्शन मात्र से ही पापों का क्षय हो जाता है. वही
अरुणाचलेश्वर आज मानवाकृति में पीठिकापुरम् में श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम रूप से
अवतार लेकर, समूची मानव जाति का कल्याण करने के उद्देश्य से वर्तमान में कुरुगड्डी
में विलसित हो रहे हैं.
कुरुगड्डी
अरुणाचल पर्वत के समान है. अर्धनारीश्वर
रूप वाले अरुणाचलेश्वर श्रीपाद श्रीवल्लभ ही हैं. जिस प्रकार अरुणाचल का पर्वत
साक्षात शिव स्वरूप है, उसी प्रकार कुरुगड्डी भी साक्षात श्रीपाद
श्रीवल्लभ का रूप है. अरुणाचल के शिवलिंग में शिवशक्ति है, उसी
प्रकार श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में भी शिव एवँ शक्ति सम्मिलित हैं. अरुणाचल के
महासिद्ध रूप में परमेश्वर के दर्शन साधकों के लिए अति दुर्लभ होते हैं,
परन्तु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में महासिद्ध के दर्शन साधकों को अत्यंत सुलभता
से हो जाते हैं.”
धर्मगुप्त
की बात सुनकर मैंने कहा, “महाराज, अब तक तो मैंने सुना था कि श्रीपाद
प्रभु श्री पद्मावती देवी सहित श्री वेंकटेश का संयुक्त रूप हैं,
परन्तु आपने यह बताया कि वे शिव-शक्ति स्वरूप हैं. मुझे यह सब कुछ समझ में नहीं आ
रहा है. मैं दुविधा में पड़ गया लगता हूँ. आप कृपया यह बात स्पष्ट करें.” मेरी बात
सुनकर धर्मगुप्त हँस कर बोले, “अरे बाबा,
श्रीपाद प्रभु का दिव्य तत्व सप्त ऋषियों को भी अवगत न हो सका, तो
मुझ जैसे पामर की बिसात कहाँ! फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैं तुझे समझाने का
यत्न करूंगा.”
“श्री
वेंकटेश प्रभु कृतयुग से अस्तित्व में हैं. उन्होंने राजा दशरथ को दर्शन देकर कहा
था कि मैं श्री रामचंद्र के नाम से तुम्हारे घर जन्म लूँगा. “कौशल्या-तनय” श्री
राम के नाम से भी कुछ लोग स्वामी की पूजा करेंगे. कुछ समय तक भक्तों ने श्रीपाद
प्रभु की शक्ति स्वरूप, अर्थात बाल त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप में भी
आराधना की. कुछ साधकों ने उनकी ‘सुब्रह्मण्यम्’ स्वरूप में भी अर्चना की. इसके
पश्चात श्री रामानुजाचार्य ने “श्री महाविष्णु” रूप में वैष्णवों द्वारा उनकी
आराधना संपन्न की. इन सारे रूपों को धारण करने वाले साक्षात दत्त प्रभु ही हैं.
साधकों द्वारा श्रद्धा भाव से उन्हें किसी भी रूप में पुकारने पर वे भक्तों की
रक्षा करने के लिए दौड़े चले आते हैं और उनकी रक्षा करते हैं. साधकों को अपनी
लीलाएँ दिखाने वाले माया नाटक के सूत्रधार श्रीपाद प्रभु ही हैं. वे ही आज श्रीपाद
श्रीवल्लभ – इस नाम रूप में भक्तों का कल्याण कर रहे हैं.
श्रीपाद
प्रभु के वाम भाग में शक्ति का संचार होता है एवँ बाएँ भाग में शिव संचार होता है,
इस कारण से वे शिव-शक्ति स्वरूप हैं. उनके ह्रदय में पद्मावती देवी का वास होता
है. ह्रदय दया एवँ अनाहत चक्र का स्थान है. यहाँ से शक्ति ऊर्ध्व चक्र की ओर तथा
इसी प्रकार अधो चक्र की और, अर्थात मूलाधार चक्र की और प्रवाहित
होती है. इस कारण से ही वे एक दिव्य चैतन्यमय शरीर से ही श्रीपद्मावती तथा श्री
वेंकटेश स्वामी के रूप में हैं. श्रीपाद प्रभु वाणी हिरण्यगर्भ के भी स्वरूप हैं.
परा, पश्यन्ती,
मध्यमा तथा वैखरी स्वरूपी वाणी देवी का वास उनकी जिह्वा पर होता है. वाणी माता का
दिव्य मानस एवँ हिरण्यगर्भ का दिव्य मानस – ये अद्वैत स्थिति में होते हैं.”
वास्तव
में देखा जाए तो चिदम्बर रहस्य का तात्पर्य यह है कि वे तीन प्रकार का चैतन्य
स्वरूप एक ही समय में धारण करते हैं. चाहे किसी भी दृष्टी से देखें, उनके एक
शरीर को दूसरा शरीर कभी भी स्पर्श नहीं करता. वे वाणी- हिरण्यगर्भ का चैतन्य शरीर,
शिव-पार्वती का चैतन्य शरीर, पद्मावती-वेंकटेश का चैतन्य शरीर एक
ही समय में धारण करते हुए इन सब से परे – श्रीपाद श्रीवल्लभ रूपी एक अन्य दिव्य
चैतन्य शरीर धारण करते हैं. इसकी विशेषता यह है कि एक शरीर को दूसरे शरीर का
स्पर्श नहीं होता – यही प्रभु की योगमाया है, यही उनकी वैष्णवी माया है, और यही
उनका चिदम्बर रहस्य है. श्रीपाद प्रभु को द्वैत, विशिष्ठ द्वैत,
अद्वैत और इन सब से परे समझा जाए तो भी वह योग्य ही होगा. क्योंकि उनकी योगमाया
अगाध है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो ।।
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