।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २३
मैं कृष्ण-युवल बड्डू से कुरवपुर की ओर यात्रा कर रहा
था कि रास्ते में धर्मगुप्त नामक एक सद्वेषधारी सज्जन से मुलाक़ात हुई. वे श्रीपाद
प्रभु के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी की ओर जा रहे थे. वे भी, संयोगवश
पीठिकापुरवासी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के निकट के रिश्तेदार थे. मुझे इस बात का
आश्चर्य हो रहा था कि मुझसे मिलने वाले सभी व्यक्ति श्रीपाद प्रभु के भक्त थे. वे
प्रभु के दिव्य चरित्र के बारे में और अधिक जानकारी देने वाले थे. निश्चय ही इसके
पीछे कोई विशेष कारण था. श्रीपाद प्रभु के चरित्र का एक एक वर्ष जैसे जैसे पूरा
होता, उसमें
घटित घटनाओं की थोड़ी पृष्ठभूमि मुझे ज्ञात
होती जाती. इनमें एक घटना का दूसरी घटना से सम्बन्ध बहुत अल्प होता था. अब तक
श्रीपाद प्रभु की दस वर्षों की लीलाएँ ही मुझे ज्ञात हुई थीं. वे एक क्रमबद्ध
पद्धति से मुझे इन लोगों के माध्यम से ज्ञात हुई थीं. मैं मन में विचार कर रहा था
कि क्या मुझे प्रभु की ग्यारहवें वर्ष की लीलाओं का ज्ञान होगा? श्रीपाद
प्रभु क्षण-क्षण में लीला विहार करते हैं. श्री धर्मगुप्त ने कहा, “अरे
शंकर भट्ट! मैं शिवभक्त हूँ. जब श्रीपाद प्रभु ग्यारह वर्ष के थे तो उनके घर एक
दिन एक शिवयोगी आया. वह अत्यंत विद्वान था. वह केवल करतल भिक्षा ही ग्रहण करता था.
उसके पास न कोई झोली थी, न ही कोई बर्तन अथवा थाली थी. देखने में वह पागल जैसा
प्रतीत होता था. वह एक दिन कुक्कुटेश्वर मंदिर के निकट आया. उसके धुल से भरे हुए
वस्त्र और असम्बद्ध बातें सुनकर मंदिर के पुजारियों ने उसे भीतर नहीं आने दिया. वह
अवधूत था जिसे अपनी देह की भी सुध नहीं थी. वह निरंतर शिव पंचाक्षरी मन्त्र “ऊँ
नमः शिवाय” का जाप कर रहा था. मैं अपने जीजा वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर घोड़े पर
जा रहा था. राह में कुक्कुटेश्वर मंदिर में जाकर श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन
करने की मेरी आदत थी. चूंकि मैं वैश्य पुरुष था अतः मंदिर के अर्चकों ने मेरे नाम से
बड़ी पूजा की. मैं उन्हें हमेशा भारी दक्षिणा दिया करता था. मैंने उन अर्चकों को
पाँच वराह दिए जो उन्होंने आपस में बाँट लिए. मंदिर के अर्चकों ने अपनी आर्थिक
परिस्थिति के बारे में, अपने अनेक कष्टों के बारे में मुझे बताया और बोले कि
सनातन धर्म की रक्षा के लिए आप जैसे सदाचारी शिष्यों की अत्यंत आवश्यकता है. तभी
बाहर ठहरा हुआ शिवयोगी अन्दर आया. उसके साथ दो नाग भी भीतर आये. यह देखकर अर्चक
भयभीत हो गए. शिवयोगी बोला, “ अरे, अर्चक स्वामी! आप भयभीत न हों. ये तो शिव के आभूषण
हैं. जिस प्रकार पुत्र अपने पिता को प्रेमपूर्वक आलिंगन देता है उसी प्रकार ये नाग
भी अपने पितासम कुक्कुटेश्वर का आलिंगन करने के लिए आतुर हैं. वे अपने स्नेही जैसे
हैं. अपने स्नेही को देखकर भयभीत होना अथवा उनसे दूर भाग जाना महापाप है. अर्चक
स्वामी ने विशेष पूजा की है इसीलिये ये नाग यहाँ आकर्षित हुए हैं. नागभूषण
कुक्कुटेश्वर प्रभु की हमें अधिक मन:पूर्वक एवँ श्रद्धा से पूजा करनी चाहिए. रुद्राध्याय
में वर्णित नमक एवँ चमक सुस्वर में गाकर शिव शंकर प्रभु के रागयुक्त भजनों का गायन
करना चाहिए. अर्चक स्वामी वहीं बैठे थे. मंदिर में आनेवाले भक्तजनों में कुछ भक्त
गरीब तथा कुछ धनवान थे. अधिक धन दान देने वाले भक्तों से अर्चक स्वामी अधिक
आत्मीयता पूर्वक बातें करते. इन अर्चकों के बीच पीठिकापुरम् का सूर्यचन्द्र
शास्त्री नामक पंडित था जो बहुत अच्छी तरह से अनुष्ठान किया करता था. उसके ह्रदय
में श्रीपाद प्रभु के प्रति भक्ति एवँ प्रेम था. वह श्रीपाद प्रभु का स्मरण करके
सुस्वर में नमक एवँ चमक का पाठ करते हुए रागयुक्त आलाप भी ले रहा था. वहाँ आये हुए
नागों को उसका गायन अच्छा लग रहा था, वे ही अपने फनों को डोलाते हुए अपना आनंद प्रकट कर
रहे थे. सूर्यचंद्र शास्त्री शिवयोगी को लेकर बापन्नाचार्युलु के घर आये. वहाँ
उन्हें भरपेट भोजन करवाया. शिवयोगी के तृप्त होने के पश्चात उसे श्रीपाद प्रभु के
दर्शन करवाए. श्रीपाद प्रभु ने उसे शिवशक्ति स्वरूप में दर्शन दिए. उस दिव्य दर्शन
से वह शिवयोगी इतना आनंदित हो गया कि उसकी समाधि लग गई. उस अवस्था में वह तीन
दिनों तक रहा. उसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने अपने दिव्य हस्त से उसे भोजन करवाया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “ हे पुत्र! सनातन धर्म में जो बताया गया है उस
प्रकार अपना जीवन व्यतीत करके संसार सागर तर जा. पुराण के विषयों के बारे में
कल्पनाएँ अथवा असत्य कुछ भी नहीं होता. वहाँ वर्णित विषयों का सामान्य अर्थ कुछ और
होता है तथा गूढ़ रहस्यात्मक अर्थ कुछ और ही होता है. अनुष्ठान करने वाले साधकों को
उनके अंतर्गत अर्थ एवँ गूढ़ रहस्य का ज्ञान अपने आप हो जाता है. भूतकारकों को
चन्द्र सूर्य में सूर्य परमात्मा का प्रतीक तथा चन्द्र मन का प्रतीक प्रतीत होता
है.
चित्स्वरूप तेजस मनोरूप वाले सोचते हैं कि चन्द्रमा के
बिना सृष्टि कार्य चल ही नहीं सकता. अमावस्या – माया का प्रतीक है. प्राचीन काल
में यह माया वसुगुल नामक कला से उद्भव को प्राप्त होती थी. चंद्रबिंब में कला का
प्रवेश होकर वह उसी में लीन हो जाती है. जिस प्रकार माया परमेश्वरीय तेज लेकर
मनोरूपी चन्द्रमा में फ़ैल जाती है उसी प्रकार सूर्य के किरण चन्द्रमा में प्रविष्ट
होते है. माया अथवा अमावस्या के जड़ स्वरूप के कारण उनसे निर्मित सृष्टि उनके चिर
सान्निध्य के फलस्वरूप चित्तजडात्मक होती है. जिस प्रकार वसन्त ऋतु सृष्टि में
फल-फूल की उत्पत्ति के लिए कारणीभूत है उसी प्रकार स्त्री भी शिशु के जन्म के लिए
कारणीभूत होती है.
मृत्युलोक में प्राणियों के साथ जन्म-मरण जुडा रहता
है. पाताल लोक में सूर्य कांति के कारण कांतिवान प्रतीत होने वाले लोगों को वृष्ण
कहते हैं. सप्त पाताल में वेदों के अधिष्ठात्र देवताओं का वास होता है. जिस स्थान
पर मन का वास होता है, उस भूमि को सप्त पाताल कहते हैं. इसकी आदि देवता
अग्नि है. इन अष्ट देवताओं को अष्ट वसु कहते हैं. सूर्य कांति के कारण शोभायमान
होने वाले देवताओं को वसु कहते हैं. ब्रह्मशिला नगरी की श्रीपाद प्रभु की बहन
‘वासवी’ के नाम
का यही गूढ़ रहस्य है. इन अष्ट गोलकों के मध्य स्थित वायु स्कन्द को सप्त समुद्र
कहते हैं. सामान्य जन इस सप्त समुद्र को जल स्वरूप समझते हैं, परन्तु
यह सत्य नहीं है.
शिव महिमा – आंध्र प्रदेश के ग्यारह शिव क्षेत्र
एवँ उनका स्वरूप
शिव एकादश रूद्र स्वरूप हैं. आंध्र प्रदेश में ग्यारह
शिवक्षेत्र हैं. उनके दर्शन करने से महापुण्य की प्राप्ति होती है. ये क्षेत्र इस
प्रकार हैं:
१ बृहत्शिलानगर में नगरेश्वर
२. श्री
शैल्यम् में मल्लिकार्जुन
३. द्राक्षारामम्
में भीमेश्वर
४. क्षीरारामम्
में रामलिंगेश्वर
५. अमरावती
में अमरेश्वर
६. कोटीफली
में कोटीफलेश्वर
७. पीठिकापुरम्
में कुक्कुटेश्वर
८. महानंदी
में महानंदीश्वर
९. कालेश्वर
में कालेश्वर
१०. कालहस्ती
में कालाहस्तेश्वर
११. त्रिपुरान्तक
में त्रिपुरान्तकेश्वर.
पूजा के लिए शिव की मूर्ती कहीं भी नहीं पाई
जाती. शिवलिंग आत्मा में प्रज्वलित ज्योति का रूप है. सिद्धि प्राप्त होने के बाद
निर्मल मन में वास करने वाली निर्मलता ही ‘स्फटिक लिंग’ है.
हमारे शरीर का मस्तिष्क (मेंदू) ज्ञान प्राप्ति हेतु सहायता करने वाला रूद्र है.
गर्दन से नीचे की और नाडी रूप में व्याप्त नाड़ियों को रूद्र जटा कहते हैं. शिव के
हठयोगी रूप में लकुलीश्वर हैं. शिव प्रभु भिक्षाटन करके प्राणियों के पापकर्म हर
लेते हैं. इस सृष्टि में तालबद्ध रूप से स्थित सृजन, स्थिति तथा लय के महास्पंदन शिव के
आनंद तांडव से सुव्यवस्थित होते हैं, इसलिए शिव को नटराज कहते हैं. शिव परमानन्द
कारक है और अपने अनन्य भक्तों को वे मोक्ष सिद्धि प्रदान करते हैं. चित् का
तात्पर्य है मन से और अंबर का अर्थ है आकाश. आकाश रूप में वह चिदम्बर ( चित् +
अंबर) है. जो तुम देख रहे हो, उस विशाल विश्व में रोदसी स्वरूप
में रूद्र स्वरूप ही है. द्वादश ज्योतिर्लिंगों में राशीचक्र की बारह राशियों का
प्रतीक होने के कारण शिव कालस्वरूप है. आठ दिशाओं में जो अष्टमूर्ति हैं, वे
चिदाकाश स्वरूप ही हैं. पंचभूत शिव के पंचमुख हैं. पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च
कर्मेन्द्रिय एवँ मन – इन सबको मिलाकर कुल ग्यारह रूद्र हैं, इसीको
एकादश रूद्र कहते हैं. शिव का उमा महेश्वर रूप नित्य प्रसन्न रूप है. त्रिगुणों का
भस्मित किया हुआ रूप ही त्रिपुरान्तक रूप है. ज्ञान नेत्र ही शिव का तीसरा नेत्र
है. शिव की जटाओं से निरंतर प्रवाहित होने वाली गंगा माता का उद्गम होता है, वह
धरती पर प्रवाहित होकर सारे प्रदेश को सुजलाम् , सुफलाम् बनाती है. जब आकाश में
आर्द्रा नक्षत्र चमकता है, उस समय शिव प्रभु दर्शन देते हैं.
मिथुन राशि के निकट जाने के लिए वृषभ राशि को पार करना पड़ता है. यह वृषभ राशि
नन्दीश्वर का प्रतीक है. वह धर्मस्वरूप है. दोनों भ्रूमध्य के बीच प्रज्वलित
ज्योति ही चन्द्रकला है. योगस्थिति के फलस्वरूप उत्पन्न काम वासना के कारण स्त्री-पुरुष
भेद समाप्त होने पर एकत्व की स्थिति को प्राप्त होने का स्वरूप है
अर्धनारीनटेश्वर. लिंग से तात्पर्य है
स्थूल शरीर के भीतर छुपा हुआ लिंग शरीर, जो ज्योतिस्वरूप में विलास करता है, ऐसा
वर्णन वेदों में किया गया है.
शिवपूजा-रहस्य
अनुष्ठान करने से अथवा गुरुकटाक्ष प्राप्त होने पर ही समझ में आता है. भौतिक रूप
में जिस प्रकार का पीठिकापुरम् है, वैसा ही ज्योतिर्मय स्वरूप स्वर्णपीठिकापुरम्
भी है. जो उसका तथा श्रीपाद प्रभु का निरंतर पूजन अथवा स्मरण करता है, वह ज्ञानी
भक्त श्रीपाद प्रभु को जान सकता है. वह चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका
स्वर्णपीठिकापुरम् में ही वास होता है. ऐसे भक्त को श्रीपाद प्रभु अत्यंत सुलभ
प्राप्य होते हैं.
भौतिक
पीठिकापुरम् के कुक्कुटेश्वर मंदिर के अर्चक स्वामी ने प्रमदगणों के अंश के रूप
में जन्म लिया था. भूत-प्रेत, पिशाच्चादी अनेक महागण होते हैं, जो
भक्तजन योगाभ्यास करते हैं तथा श्रीपाद प्रभु की आराधना करते हैं, वे उन
भूत-प्रेतों को रोक कर रखते हैं. इन सब बाधाओं को दूर करके जो भक्त श्रीपाद प्रभु
के दर्शन पाते हैं, वे धन्य हैं.
श्रीपाद
प्रभु बोले, “मेरे
ननिहाल के घर के आँगन में एक महासंस्थान बनने वाला है, ऐसा
मैं अनेक बार कहता आया हूँ. मेरा संकल्प अमोघ है. जिस प्रकार चींटियों की संख्या
अगणित होती है उसी प्रकार मेरे भक्तों की संख्या भी लक्षानुलक्ष है. योगी जन मेरे
संस्थान का धर्म पालन योग्य रीति से करेंगे. कौन, कितने व्यक्ति, कहाँ
से, कब, किस
प्रकार आएगा इसका निर्णय मैं ही करता हूँ. पीठिकापुरम् में वास्तव्य करने पर
श्रीपाद प्रभु के संस्थान का दर्शन करना ही चाहिए. मेरा अनुग्रह केवल योग्य
शिष्यों को ही प्राप्त होगा. उन पर मैं अमृत वृष्टि करूंगा,
अयोग्य व्यक्ति को मेरे दर्शन मृगजल के समान प्रतीत होंगे.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार
हो।।
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