।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय 21
श्री दन्डी स्वामी का कुककुटेश्वर
में आगमन
साधकों
की स्थान शुद्धि, भाव शुद्धि आवश्यक है
मैं
महागुरू की आज्ञानुसार गुरुचरण के साथ मान्चाल ग्राम के दर्शनों के लिए निकल पडा.
रास्ते में मुझे बार-बार श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का स्मरण हो रहा था. अध्यात्म से
संबंधित अनेक विषय मैं श्री गुरुचरण से समझ रहा था. मैंने गुरुचरण से पूछा, “वशिष्ठ ऋषि का अंश – एक व्यक्ति मेरे संस्थान
में पुजारी बनकर आयेगा, ऐसा श्रीपाद प्रभु ने कहा था. यह व्यक्ति महाभाग्यवान
है. वह व्यक्ति है कौन? वह किस समय आयेगा?” इस पर गुरुचरण बोले, “अरे, शंकर भट्ट! अनेक शताब्दियों के उपरांत उनके जन्म स्थल
पर महासंस्थान का निर्माण होने वाला है, ऐसा श्रीपाद प्रभु ने कहा था. उस महासंस्थान में कोई
एक महातपस्वी आने वाला है, ऐसा प्रभु का संकल्प था. उस महासंकल्प की पूर्ति के
लिए वह महातपस्वी निश्चय ही यहाँ आयेगा. दीर्घ काल तक किये गए ध्यान के कारण, आराधना
के कारण, पवित्र
मंत्रोच्चारणों के कारण एवँ श्रद्धा पूर्वक किये गए पूजा विधानों के कारण यहाँ की
भूमि एवँ वायुमंडल अत्यंत शुद्ध हो गया है. विश्व-अंतराल (अंतरिक्ष) की दसों
दिशाओं के भाव तरंग यहाँ सदा के लिए प्रस्फुटित हो गए हैं. जिन भक्तों के मन के
भाव पवित्र होते हैं, वे यहाँ के पवित्र स्पंदनों को आत्मसात्त् करते हैं.
अपवित्र ह्रदय के भक्तों को अपवित्र स्पंदनों का अनुभव होता है. किसी स्थान के
वायुमंडल के भाव तरंग प्रबल शक्ति-संपन्न होकर बिना कोई प्रयत्न किये महापुरुषों
के मानसिक चैतन्य को स्पर्श करके अनेक विचित्र पद्धतियों द्वारा उस विशिष्ठ स्थान
की ओर आकर्षित होते हैं. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. इसके परिणाम स्वरूप
स्थल-शुद्धि होने के कारण साधक वहाँ निवास कर सकते हैं. ऐसा उन साधकों के लिए संभव
है जिनकी भाव शुद्धि हो गई हो. हमें ऐसे ही साधकों की संगत करनी चाहिए. ऐसे ही
साधकों से हमें अन्न अथवा धन स्वीकार करना चाहिए जिनका द्रव्य एवँ अन्न शुद्ध हो.
वेदों एवँ वेदान्तों के महापंडित कहे जाने वाले जन्मजात ब्राह्मणों को भी श्रीपाद
प्रभु के कृपा कटाक्ष का लाभ नहीं प्राप्त हो सका, परन्तु दोष रहित, अल्पज्ञानी भक्त को सहजता से प्राप्त हो जाता है.
मैं पौण्ड्र देश (ओड़िसा) के जगन्नाथ पुरी क्षेत्र में
व्यापार हेतु गया था. वहाँ मुझे श्री जगन्नाथ की मूर्ती में श्रीपाद प्रभु के
दर्शन हुए. मेरे साथ आये हुए तीन-चार भक्तों को श्रीपाद प्रभु ने उनके इष्ट
देवताओं के रूप में दर्शन देकर तुरंत अपने निज स्वरूप में दर्शन दिए. उन्होंने ऐसा
मौन-बोध हमें करवाया कि सभी देवी-देवताओं के रूप में मैं ही हूँ.”
दंडी स्वामी का गर्व हरण
जिस
दिन हम जगन्नाथ पुरी पहंचे, उसी दंडी स्वामी अपने एक सौ आठ
शिष्यों सहित वहाँ आये थे. किसी भी महात्मा को देखते ही उनके चरणों पर नतमस्तक हो
जाना – यह हमारी रीत ही थी. हमने दंडी स्वामी के चरणों पर माथा टेका और कैसी अचरज
की बात हुई कि तत्काल दंडी स्वामी की वाचा खो गई. वह कुछ भी बोलने में असमर्थ थे.
हम सबने श्रीपाद प्रभु के चरणों में नम्र प्रार्थना की कि दंडी स्वामी की वाचा लौट
आये. इस प्रार्थना के फलस्वरूप उन स्वामी जी की वाचा लौट आई. दंडी स्वामी के शिष्य
श्रीपाद प्रभु के शिष्यों को देखकर कुत्सित भाव से बोले,
“श्रीपाद तो एक क्षुद्र मान्त्रिक है. उनके शिष्य भी क्षुद्र मान्त्रिक हैं.
उन्होंने अपनी क्षुद्र विद्या का प्रयोग करके दंडी स्वामी की वाचा हर ली. परन्तु
हमारे स्वामी जी समर्थ हैं, इसीलिये उनकी वाचा वापस लौट आई और
वे स्वस्थ्य हो गए. हमारे गुरू श्री दंडी स्वामी श्रीपाद का सच्चा स्वरूप जनता के
सामने लाएंगे. वे पीठिकापुरम् जाकर श्रीपाद वल्लभ के साथ शास्त्रार्थ चर्चा करके
उन्हें पराभूत करेंगे और विजय-पात्र लेकर लौटेंगे इसमें कोई संदेह नहीं.”
पीठिकापुरम् के निवासियों ने दंडी स्वामी के स्वागत के लिए एक महान रथ की व्यवस्था
की थी. हम यह सुनकर निरुत्तर हो गए.
जब कोई
भक्त अनन्य भाव से श्रीपाद प्रभु की शरण में जाता है तब वे अपने लीला-विधान से
भक्तों की संकट से रक्षा करते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि समस्याओं का
निर्माण भी श्रीपाद प्रभु ही करते हैं, और उनका निराकरण भी श्रीपाद प्रभु
ही करते हैं. ऐसी अनेक अंतरमय लीलाएँ करके श्रीपाद प्रभु सब दत्त भक्तों को अपने
होने का अनुभव देते हैं.
कुछ
दिनों के बाद दंडी स्वामी ने पीठिकापुरम् क्षेत्र में प्रवेश किया. सौभाग्य से मैं
(शंकर भट्ट) भी पीठिकापुरम् में था. श्री बापन्नाचार्युलु, श्री
अप्पल राजू एवँ श्रीपाद प्रभु के विरोधियों की पीठिकापुरम् गाँव में कमी नहीं थी.
श्री दंडी स्वामी ने कुक्कुटेश्वर के मंदिर में जाकर सभी देवी-देवताओं के दर्शन
किये. स्वयंभू दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन के बाद उन्होंने कहा, “यहाँ
विराजित स्वयंभू दत्तात्रेय प्रभु की महिमा अपरंपार है.” आगे बोले कि उनका अवतार
श्रीपाद प्रभु का गर्व दूर करने के लिए है. उसी दिन से उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति
से कुंकुम,
विभूति आदि जैसे पदार्थों का निर्माण करके अपने भक्तों को बांटना आरम्भ कर दिया.
पीठिकापुरम् के ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों सहित दंडी स्वामी का स्वागत किया और
उन्हें कुक्कुटेश्वर के मंदिर में ले गए. गाँव में मुनादी करवा दी कि दंडी स्वामी
आये हैं. स्वयँ दत्तप्रभू के अवतार – श्रीपाद प्रभु ने दंडी स्वामी की तपस्या
पहचानकर उन्हें साष्टांग दंडवत किया. श्री बापन्नाचार्युलु ने दंडी स्वामी के
दर्शन करके उनकी शरणागति स्वीकार की. श्री अप्पल राजू शर्मा ने भी दंडी स्वामी के
दर्शन करके परंपरानुसार पूजित काले पाषाण की एक मूर्ती उन्हें अर्पण की.
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी की अध्यक्षता में आर्य वैश्य समिति का सम्मलेन हुआ. इस सम्मलेन
में यह प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित किया गया कि किसी भी परिस्थिति में श्री दंडी
स्वामी के कुकृत्यों में श्रीपाद प्रभु, अप्पल राजू शर्मा और
बापन्नाचार्युलु सहकार्य नहीं करेंगे. नरसिंह वर्मा की अध्यक्षता में आयोजित की गई
क्षत्रिय सभा में भी यही प्रस्ताव पारित किया गया.
श्रीपाद
प्रभु अपने ननिहाल के आँगन में स्थित औदुम्बर वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे
थे. दिव्य कांति बिखेरने वाले श्रीपाद प्रभु की ओर देखकर श्रेष्ठी का ह्रदय गद्गद्
हो गया और उनके नेत्रों से अश्रु बह निकले. बापन्नाचार्युलु, श्री अप्पल राजू
शर्मा एवँ श्रेष्ठी – ये तीनों श्रीपाद प्रभु के मुखारविंद की और देखते हुए उनके
एकदम निकट बैठे. श्रीकृष्ण के समान दिखाई देने वाले श्रीपाद प्रभु को भूख लगी थी.
उनकी नानी राजमाम्बा श्रीपाद प्रभु को खिलाने के लिए एक चांदी की कटोरी में दही-भात
लाई. श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से उसे खाया. दहीभात खाने के पश्चात उन्होंने
अपने नानाजी से वेदघोष आरम्भ करने के लिए कहा. बापन्नाचार्युलु ने वेदघोष आरम्भ
किया. उनके साथ अप्पल राजू शर्मा एवँ स्वयँ श्रीपाद प्रभु भी वेदघोष कर रहे थे.
नरसिंह वर्मा तथा श्रेष्ठी ने भी अत्यंत आनंदित होकर सुस्वर में वेदपठन आरम्भ
किया. उस वेदघोष के कारण वहाँ का वातावरण किसी ऋषि के आश्रम जैसा पवित्र हो गया
था. इसी समय कुक्कुटेश्वर के मंदिर में एक आश्चर्यजनक घटना हुई. स्वयंभू
दत्तात्रेय के मुँह के पास दहीभात के कण दिखाई देने लगे. पुजारी ने दो-तीन बार
उन्हें पोंछा फिर भी वे कण आते ही रहे. इस प्रकार श्रीपाद प्रभु अद्भुत लीला दिखा
रहे थे. दंडी स्वामी अपने शिष्यों समेत वेदघोष करते हुए पीठिकापुरम् से बाहर जाने
के लिए निकले. वे सब एक के पीछे एक कदम बढ़ाते हुए चल रहे थे, परन्तु जहाँ से चले
थे, वहाँ
से आगे ही नहीं बढ़ पा रहे थे. इस विचित्र अवस्था में काफी समय बीत गया. सबको यह
देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा था, तभी दंडी स्वामी के हाथ का दंड टूट
गया. उसके दो टुकड़े हो गए. दंडी स्वामी को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनके शरीर के ही दो
टुकड़े हो गए हों. पीठिकापुरम् के ब्राह्मणों को यह घटना भयभीत कर गई. आज तक के
अपने अनुभव से दंडी स्वामी को विश्वास हो गया था कि श्रीपाद प्रभु उनसे कई गुना
अधिक शक्ति संपन्न हैं. उनका विरोध करने से अनर्थ होगा – ऐसा उनके मन ने ठान लिया.
प्रस्तुत परिस्थिति में अपने गाँव कैसे जाएँ, यह चिंता उन्हें सताने लगी.
मोहनाश ही
मोक्ष है
पीठिकापुरम् में अब्बन्ना नामक एक व्यक्ति रहता था. वह
साँपों को पकड़कर उनका खेल दिखाता और अपना जीविकोपार्जन करता था. वह
बापन्नाचार्युलु के घर आया. उस समय श्रीपाद प्रभु ने कुछ देर के लिए वेदघोष रोकने
के लिए कहा. अब्बन्ना को भरपेट भोजन दिया. फिर उससे कहा कि “यहाँ से एक बर्तन में
पानी लेकर कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आओ. श्री दत्त प्रभु के एक अवतार को
करचरणद्वय संचार करते हुए भी जिन्होंने उसकी अकारण निंदा की है, ऐसे
महापापी लोग कुक्कुटेश्वर के मंदिर में हैं. उन्हें मृत्यु के पश्चात पिशाच्च योनि
प्राप्त होगी ऐसा चित्रगुप्त ने घोषित किया है, मैंने चित्रगुप्त से संवाद करके उनके
पापों के परिहार के लिए एक उपाय सोचा है. भूमाता ने मुझसे ऐसी ही विनती की है. तू
वहाँ जाकर भूमाता को मेरा सन्देश दे कि वह शांत रहे. श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के
लिए उत्सुक भक्तों को तेरी सम्मति लेनी पड़ेगी. उन पर तू यह जल छिड़कना. मेरे
पूर्वआदेशानुसार तू मादिगा सुब्बय्या के घर जाकर सबको दही-भात का महाप्रसाद दे.
अब्बय्या,
सुब्बन्ना आदि वहीं गए हैं; वे सबको बापन्नाचार्युलु के घर लेकर आयेंगे.” श्रीपाद
प्रभू उग्र स्वर में आगे बोले, “अरे
दंडी स्वामी! एक महान तपस्वी होकर भी कितना गर्व करते हो? तुम
जिसकी दत्त स्वरूप में आराधना करते हो, वही श्रीपाद श्रीवल्लभ का रूप धारण करके भक्तों के
उद्धार के लिए अवतरित हुए हैं. उन्हें न पहचानने वाले तुम, महामूर्ख
हो. तुम्हारे शिष्य भी तुम्हारे ही जैसे मूर्ख हैं. पीठापुरम के तुम्हारे नए शिष्य
अज्ञानी हैं. तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो? समूची सृष्टि पर शासन करने वाली एकमेव सत्ता के सामने
तुम्हारा अस्तित्व है ही कितना! तुम्हारी सामर्थ्य ही कितनी है! दैव दूषण जैसा
महापाप करने के कारण तुम्हें अनेक शतकों तक पिशाच्च योनि में रहना पडेगा. मैं वह
निर्णय रद्द करता हूँ. मानव जीवन प्राप्त करके तुम सब लोग नीच जाति में जीवन
बिताने वाले हो, ऐसा आदेश दिया है. तुम्हारे पापों का परिहार मैं
तुम्हें बहुत कम सज़ा देकर कर रहा हूँ. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वरूप महा अग्नि के समान
है. अग्नि से खेलोगे तो बड़े प्रमाद की संभावना है. जब मेरी माया को, अथवा
मुझे ही अभिन्न स्वरूप में जान लिया हो तो मोक्ष का अर्थ क्या है, ऐसा तुम
विचार करते हो. वास्तव में देखा जाए तो मोह का क्षय ही मोक्ष है. किसी भी जीवात्मा
को, जो
सच्चिदानंद स्वरूप के आनंद का अनुभव करता है, उसकी योग्यतानुसार मैं अनुगृहीत करता हूँ. जो
जीवात्मा मेरे आदिस्वरूप ‘दिव्यानंद परवश” में अनंत सुख स्वरूप में रहने की इच्छा
करता है, उसे मैं
तुरंत वह स्थिति प्राप्त करा देता हूँ. मेरी दृष्टी में निर्गुण-निराकार,
सगुण-साकार,
मोक्ष-बंधन ऐसा भेद ही नहीं है. मैं प्रत्येक क्षण असंख्य नूतन लोकों की सृष्टि, स्थिति, एवँ लय
में व्यस्त रहता हूँ. जीवात्मा की उन्नत स्थिति अथवा उन्नत आनंद अवस्था के लिए कोई
सीमा नियत नहीं है. जो साधक मृत्योपरांत मेरे स्वरूप में लीन होने की अच्छा करते
हैं, वे मेरे
स्थान पर अवश्य आयें मैं उस स्थिति में कितने शतकों तक रहें, किस लोक
में पुनर्जन्म को प्राप्त हों, इस सबका निर्णय मैं अपनी इच्छा से करूंगा.
समूचे विश्व रूपी नाटक का सूत्रधार, मैं, इस समय
साकार रूप में तुम्हारे सामने हूँ. तुम मुझे अभी मेरे साकार रूप में देख रहे हो.
निर्गुण-निराकार अवस्था में होते हुए भी मैं हमेशा तुम्हारी और देखता रहूँगा, यही
कहने के लिए मैंने साकार रूप धारण किया है. उस महान उन्नत स्थिति से मैं तुम्हारे
लिए नीचे उतर कर आया हूँ. महायोगी की योग शक्ति का उपयोग लोक कल्याण के एवँ लोक
रक्षण के लिए करना चाहिए. लोक से तात्पर्य केवल भूलोक से नहीं है. अपने से कम, अर्थात नीच
अवस्था में, निःसहाय
स्थिति में पड़े हुए जीवों की सहायता करना मानव धर्म है. मैं धर्ममार्ग,
कर्ममार्ग, योगमार्ग, भक्तिमार्ग एवँ ज्ञानमार्ग का बोध कराने के लिए अवतरित हुआ
हूँ. मैं सभी धर्मों के मूल में जो स्थित है ऐसा एकमेव धर्म, सभी सत्य
का मूल – एकमेव सत्य एवँ सभी कारणों का कारण
- एकमेव कारण हूँ. मेरी इच्छा के बिना इस सृष्टि में कुछ भी घटित नहीं हो
सकता. ऐसा कुछ भी इस सृष्टि में नहीं है, जिसमें मैं नहीं हूँ. मैं हूँ – इसलिए तू है, यह
सृष्टि है, इससे
भिन्न कोई और सत्य मैं तुम्हें क्या समझाऊँ? तू हिमालय पर्वत पर जाकर निःसंग होकर तपाचरण कर. तुझे
शिष्यों की कोई आवश्यकता नहीं. तू मोक्ष को प्राप्त हो अथवा तेरा उद्धार हो, इससे इस
सृष्टि की अथवा मेरी कोई हानि नहीं होने वाली. सृष्टि के सारे व्यवहार उचित ढंग से
चलते रहेंगे. यह समझ लेना तेरे लिए आवश्यक है. यदि तू अपने साथ पीठापुरम् के शिष्य
ले जाएगा तो ऐसा प्रतीत होगा मानो ऊँट की
शादी में गधों का संगीत हो रहा है. ऊँट के सौन्दर्य की स्तुति गधा करे और गधे के
गान-माधुर्य की प्रशंसा ऊँट करे – ऐसा प्रतीत होगा. एक दूसरे की प्रशंसा करने से
यथार्थ स्थिति कभी बदलती नहीं, वह अलग ही होती है.”
अरुंधती – वशिष्ठ संबंध
इस पर मैंने
पूछा, “अरे,
गुरुचरण,
अरुंधती माता का जन्म चांडाल वंश में हुआ, ऐसा मैंने सुना है. तो फिर उनका विवाह
वशिष्ठ ऋषि के साथ किस प्रकार हुआ?” इस पर गुरुचरण बोले,
“प्राचीन काल में वशिष्ठ ऋषि ने एक हज़ार वर्षों तक तप किया था. उस समय अक्षमाला
नामक चांडाल कन्या ने उनकी उत्तम प्रकार से सेवा की थी. उसकी सेवा से प्रसन्न होकर
ऋषि ने उसे वर माँगने के लिए कहा. इस पर वह कन्या बोली, “मेरी
ऐसी इच्छा है कि वशिष्ठ ऋषि मेरे पति हों.” तब वशिष्ठ ऋषि ने कहा,
“अक्षमाला! तू एक चांडाल कन्या है. मैं एक सत्शील ब्राह्मण हूँ. मैं तुझे पत्नी के
रूप में कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?” यह सुनकर अक्षमाला ने कहा, “पहले
तो आपने मुझे वर माँगने के लिए प्रेरित किया. और अब, जब मैंने अपना इच्छित वर
माँगा, तो आप
अपने वचन से पीछे क्यों हट रहे हैं?” वाक् दोष के भय से वशिष्ठ मुनि बोले, “क्या
तुम अपना देह मेरी इच्छानुसार परिवर्तित करने की सम्मति देती हो?” अक्षमाला
इस बात के लिए राजी हो गई. वशिष्ठ ऋषि ने उसे भस्म करके फिर जीवित कर दिया. इस
प्रकार उन्होंने अक्षमाला को सात बार भस्म करके सात बार पुनर्जीवित किया. सातवें
जन्म में अक्षमाला के चांडाल वंश के सारे दोष नष्ट होकर वह अत्यंत पवित्र हो गई.
तब वशिष्ठ ऋषि ने उसके साथ विवाह किया. वशिष्ठ ऋषि द्वारा किये गए शुद्धिकरण का
विरोध न करने के कारण उसका नाम अरुंधती पडा, और वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुई. यह
वृत्तांत वशिष्ठ गोत्रोत्पन्न श्री नरसिंह वर्मा को श्रीपाद प्रभु ने बताया था.
शूद्र जाति में जन्म होने पर भी
ब्राह्मणोचित कर्म करने वाला सातवें जन्म में उपनयन के उपरांत ब्राह्मण पद को
प्राप्त हो जाता है. उस समय समाज के चतुर्वर्ण का विभाजन कर्मों के अनुसार होता
था. समाज की दृष्टी से यह योजना हितकर थी, परन्तु कुछ कालावधि के पश्चात यह
विभाजन कर्म पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित होने लगा. प्राचीन काल में यदि
ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति ब्राह्मणोचित कर्म न करके वाणिज्य में
लीन रहता था, तो वह
वैश्य वर्ण के लिए अनुकूल समझा जाता था. इसी प्रकार यदि कोई क्षत्रिय अत्यंत सात्विक वृत्ति का होता और उसे ब्राह्मणोचित
कार्यों में अधिक रूचि होती, तो वह ब्राह्मण पद के लिए योग्य समझा
जाता था. श्री दत्त प्रभु पर विश्वास करने वाले साधकों को वे उन्नत स्थिति में
रखकर उनकी योग्यतानुसार उन्हें शिष्यत्व प्रदान करते. उनके भक्तों का जन्म चाहे
किसी भी कुल में हुआ हो, अथवा वे किसी भी परिस्थिति में हों, श्री दत्त प्रभु अपने भक्तों को सुखी
जीवन के लिए आवश्यक आयु, आरोग्य एवँ ऐश्वर्य प्रदान किया करते. भक्तों को जन्म-जन्मान्तरों
के कर्मबंधन तोड़कर उन्हें उन्नत स्थिति में रखना – यह श्रीपाद प्रभु की सहज लीला
थी.
दत्त भक्तों को स्वामी का अभय वरदान
हम श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की महिमा को भली भाँति समझने के उद्देश्य से मान्चाल ग्राम आये. मान्चाल
की ग्रामदेवता ने दर्शन देकर हमें धन्य किया. उसने अपने दिव्य हस्त से हमें प्रसाद
दिया. ग्राम देवता ने कहा, “ प्राचीन काल में प्रहलाद को
गुरूबोध देने वाले श्री दत्तात्रेय प्रभु ही श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित
हुए हैं. श्रीपाद प्रभु की इच्छा (संकल्प) अनाकलनीय होती है. आगामी शताब्दी में
प्रहलाद के सार्वभौम गुरू अवतरित होंगे. यह प्रदेश मंत्रालय के नाम से प्रसिद्ध
होगा. ऐसा श्रीपाद प्रभु ने स्वयँ मुझसे कहा था. तुम्हारा सब शुभ मंगल हो,” ऐसा
कहते हुए वह अपने पूर्व रूप में लौट गईं. हम वहाँ से निकल ही रहे थे कि वहाँ
कृष्णदास नामक व्यापारी आया. मान्चाल ग्राम देवता ने उसे भी प्रसाद दिया और फूलों
की एक माला भी दी.
हम
तीनों (मैं, गुरुचरण और कृष्णदास) कुरुगड्डी के लिए निकल पड़े. सभी दत्त भक्तों का
कुल एक ही होता है. उन्हें श्री दत्तात्रेय का प्रसाद किसी भी कुल का भक्त दे, तो भी
वे बड़े प्रेम से उसे स्वीकार करते हैं. हमारे साथ कृष्णदास के आ जाने से हम बड़े
उत्साहित हो गए थे: बातें करते-करते कृष्णदास प्रसंगवश बोले,
“यज्ञादि कर्म के लिए दी जाने वाली दक्षिणा सोलह, एक सौ सोलह अथवा एक हज़ार सोलह होनी
चाहिए. यह संख्या श्रीपाद प्रभु द्वारा उल्लेखित २४९८ इस संख्या के ही सामान है.
जिस प्रकार परमात्मा से संसार का निर्माण होता है, उसी प्रकार पिता द्वारा पुत्रों का
निर्माण होता है. विवाह के समय दूल्हा होमकुण्ड के अग्नि देवता से प्रार्थना करता
है कि, “हे
अग्निदेव, मुझे इस वधु से दस पुत्रों की प्राप्ति हो.” दस कन्या-पुत्रों की
प्राप्ति होने के पश्चात वह पत्नी को माता के स्वरूप में देखे ऐसा शास्त्रों का
वचन है.”
कृष्णदास
आगे बोले, “
‘पूर्ण’ इस शब्द
का अर्थ – ‘निर्गुण’ यह समझना चाहिए. इसलिए उसे रूद्र रूप समझा जाता है. समस्त
विश्व का लय होने के पश्चात जो शेष बचता है, वह ‘शून्य’ ही
है. इस महाशून्य में ही सबका लय होता है. विष्णुस्वरूप का तात्पर्य है ‘अनंत
धर्मतत्व’ से.
सृष्टि के ‘स्थिति’ स्वभाव के लिए अनंत तत्व अत्यंत आवश्यक है.”
श्रीपाद प्रभु
का षोडश कला पूर्णत्व
गुरुचरण बोले, “अरे, शंकर भट्ट, किसी भी वस्तु के यदि अनगिनत टुकड़े किये जाएँ, तो उनमें से प्रत्येक
टुकड़ा शून्य के समान ही होता है. इस प्रकार के अनेक शून्य जब एकत्रित हो जाते हैं, तो उन्हें एक विशेष,
मर्यादित आकार प्राप्त हो जाता है. इसी कारण से शिव एवँ केशव अभिन्न हैं.
पंचभूतात्मक सृष्टि विष्णुस्वरूप ही है. दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करने वाले
वीरभद्र से श्री विष्णु ने कहा, “मूल प्रकृति तथा ईश्वर के निमित्त से देखा जाए तो
पार्वती माता, राक्षसों से युद्ध करने वाली दुर्गामाता तथा कोपावस्था में स्थित
कालिका माता – ये सभी मेरे ही रूप हैं. श्रीपाद प्रभु को षोडश कला सम्पन्न कहने का आशय यही है। सोलह वर्ष की
आयु में ही श्रीपाद प्रभ पीठिकापुर छोड़कर चले गए। वे स्वयँ ब्रह्मा, विष्णु एवँ रुद्र
स्वरूप होने के कारण उन्हें षोडश कला परिपूर्ण माना जाता है।
श्रीपाद प्रभु का अवतार सावित्री काठक यज्ञ का फल है.
सभी प्राणियों की बुद्धि को
प्रेरित करने वाली और सभी मंडलों के केंद्र में स्थित दिव्य तेज ही गायत्री माता
है. गायत्री माता के चौबीस प्रतीक हैं : नौ (९) यह संख्या ब्रह्मा के स्वरूप का
प्रतीक है. आठ (८) महास्वरूप की द्योतक है. त्रेतायुग में भारद्वाज ऋषि ने पीठिकापुरम्
क्षेत्र में सावित्री काठक यज्ञ का आयोजन किया था. उस समय ऋषियों द्वारा की गई
भविष्यवाणी के अनुसार आज पीठिकापुरम्
में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का अवतार हुआ है.
वे शक्तिस्वरूप हैं, अर्धनारी नटेश्वर हैं, अपने इस
स्वरूप में वे साधकों की बुद्धि तथा सत्प्रवृत्ति की उन्नति करते हैं, उन्हें
धर्ममार्ग से जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करते हैं. यह उनके इस महाअवतार की
विशेषता है. उनके क्रोधपूर्ण वाक्यों का तथा लीलाओं का व्याकरण अनाकलनीय है. इस नए
व्याकरण के रचयिता वे स्वयँ ही होने के कारण केवल वे ही इसे समझ सकते हैं. मुझे
(शंकर भट्ट को) कृष्णदास से अनेक नई-नई बातों का ज्ञान प्राप्त हुआ. पांडित्यपूर्ण, परन्तु
अहंकारी साधकों को श्रीपाद प्रभु का कृपा कटाक्ष प्राप्त नहीं होता था.
कृष्णदास आगे बोले, “श्रीपाद प्रभु पिपीलिका से ब्रह्मा तक सर्वत्र व्याप्त
हैं. एक बार नरसिंह वर्मा के खेत में श्रीपाद श्रीवल्लभ एवँ वर्मा विश्राम कर रहे
थे. तभी वहाँ दो नाग आये. श्रीपाद प्रभु ने बड़ी कुशलता से उन्हें मार कर दूर फेंक
दिया. नरसिंह वर्मा गहरी नींद में थे. उनके निकट अत्यंत बड़े आकार की लाल-लाल
चीटियाँ आ गईं. इतनी बड़ी चींटियों को पहले कभी किसीने नहीं देखा था. उनके काटने से
वर्मा की नींद न टूटे इसलिए श्रीपाद प्रभु ने उन सभी चीटियों को मार डाला. मारी
हुई चीटियों का एक छोटा-सा ढेर बन गया था. थोड़ी देर में वर्मा जाग गए. उन्हें मरी
हुई चीटियों पर दया आई. उस समय श्रीपाद प्रभु ने मंद मुस्कान से कहा, “राजा को अपने सेवकों
की रक्षा करनी ही पड़ती है. यह प्रकृति का नियम ही है. इन अद्भुत चीटियों को बनाने
वाला एक अद्भुत जादूगर है.” तभी वहाँ एक सफ़ेद रंग की चींटी आई. वह आकार में अन्य
चीटियों से बड़ी थी एवँ कांतिवान थी. वह रानी चींटी थी. उसने मरी हुई चीटियों के
चारों और एक प्रदक्षिणा की और आश्चर्य की बात यह हुई कि सभी मरी हुई चींटियाँ
जीवित हो उठीं और वहाँ से चली गईं. श्रीपाद प्रभु मंद मंद मुस्कान से बोले, “इन चीटियों की रानी को
संजीवनी शक्ति प्राप्त है, इसलिए उसने सब चीटियों की रक्षा की. इस प्रकार की अनेक
विस्मयकारी बातें इस सृष्टि में हैं.” वे आगे बोले, “यदि आपकी इच्छा हो तो मैं हर पल आपको अनेक लीलाएँ दिखा
सकता हूँ.” तभी नरसिंह वर्मा का ध्यान उन मरे हुए नागों की और गया. उन्हें देखकर
वे चकित हो गए. वे जान गए कि यह भी श्रीपाद प्रभु की ही लीला है. श्रीपाद प्रभु ने
एक नाग को सहलाया और दूसरे को अपने दिव्य चरण से स्पर्श किया. वे दोनों नाग जीवित
होकर श्रीपाद प्रभु की एक प्रदक्षिणा करके निकल गए.
वे नाग क्यों आये थे? श्रीपाद प्रभु ने उनके साथ ऐसा क्यों किया? इस बारे में पूछने पर
उन्होंने उत्तर दिया, “राहु ग्रह का बल प्राप्त न होने से प्राणियों को अनेक
संकटों से जूझना पड़ता है, और उन्हें बंधनों में जकडे होने का अनुभव होता है.
इसीको कुछ लोग काल-सर्प योग कहते हैं. राहू सभी देवताओं की आदि देवता है, इस प्रकार से आये हुए
संकटों का निवारण किस प्रकार किया जाए यह कोई भी नहीं जानता. परन्तु मैं उन सबके
दोष दूर करके उन्हें सुख संतोष प्राप्त हो ऐसी योजना बनाता हूँ.”
हम कुशलता पूर्वक कुरुगड्डी पहुँच गए. श्रीपाद प्रभु के
मंगलमय दर्शन किये. उन्होंने हँस कर हमें आशीर्वाद दिए.
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