गुरुवार, 30 जून 2022

अध्याय - २५

 

 

अध्याय – २५


रुद्राक्ष महिमा


शिवाराधना की विविध पद्धतियाँ एवँ इनका फल

मैंने धर्मगुप्त से प्रश्न किया, “महाराज, शिवाराधना किस प्रकार करनी चाहिए? उसकी विविध पद्धतियों की जानकारी देकर कृपया अनुग्रहित करें.” श्री धर्मगुप्त बोले, “शिव पंचाक्षरी मन्त्र “ऊँ नमः शिवाय” का जपानुष्ठान करके शिव की आराधना करना – यह हुई पहली पद्धति, महान्यास का विधान – शिवपूजा का दूसरा प्रकार है और रुद्राभिषेक से शिवार्चना करना – यह है शिवाराधना का तीसरा प्रकार. पंचाक्षरी मन्त्र के पाँच अक्षर पञ्च महाभूतों के प्रतीक हैं. प्राणी पशुओं के समान ममता, मोह आदि बंधनों में फंसा हुआ होने के कारण उसे पशु कहा जाता है. पशुबंध का विमोचन करने वाला ही पशुपतिनाथ है. शास्त्रों में शिव पंचाक्षरी मन्त्र का वर्णन पंचकोणीय नक्षत्र के समान किया गया है. इस पंचाक्षरी मंत्र में मोक्ष प्रदान करने वाले मंत्र प्रथम वर्ग में तथा भोग, भाग्यादि प्रदान करने वाले मन्त्र दूसरे वर्ग में सम्मिलित हैं. पंचोपचारों में शामिल हैं – भूतत्व वाला चन्दन, जलतत्व वाला नारियल का पानी, अग्नितत्व वाला दीपाराधन, वायुतत्व वाला सुगन्धित धूप और आकाशतत्व वाला घंटानाद.”

“पंचाक्षरी के पाँच अक्षर अपने-अपने तत्व के अनुरूप साधना करने वाले साधकों को पाँच रंगों में अपने तत्वों के दर्शन करवाते हैं. १. सफ़ेद मोती जैसा पादरस अथवा चांदी जैसा जगमगाता प्रकाश २. प्रवाल जैसी अरुण कांति  ३. पीली हल्दी जैसी सुनहरी कांति ४. नीले वर्ण में नीले आकाश जैसी विश्व व्यापी कांति ५. शुद्ध धवल कांति. भ्रूमध्य में पाँच रंगों की ज्योत प्रकाशित होने को ही ऋषिश्वरों ने संध्योपासना का नाम दिया है. यंत्र, पंचतत्व साधना, योग साधन, आत्म समर्पण ये सब प्रधान साधनांश हैं. इन रीतियों से देहात्म बुद्धि का नाश होता है. प्राणी की देह ही देवालय है और उसमें विराजमान आत्मा ही शिवात्मा है –  इस प्रकार के तादात्म्य की स्थापना होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है. पंचाक्षरी मन्त्र का जाप, महान्यास पूर्वक शिवाराधना, रुद्राभिषेक सहकारी एवँ कल्याणप्रद सिद्ध होते हैं. विष्णु सहस्त्रनाम श्री विष्णु को अत्यंत प्रिय है. गणेश जी को मोदक अति प्रिय हैं. सूर्य को सूर्यनमस्कार, चन्द्र को अर्ध्य प्रिय है, अग्नि को हवन प्रिय है, उसी प्रकार शिव जी को अभिषेक प्रिय है. अभिषेक द्वारा शिव प्रभु संतुष्ट होते है. ब्रह्म कल्प में प्रलय के समय, भविष्य में निर्माण होने वाली सृष्टि के लिए सकल जातियों के बीज को अर्थात समस्त जीव राशि, वृक्ष, औषधी, वनस्पतियों के बीज को एक पूर्ण कुम्भ में भर दिया गया. उसमें अमृत, सभी नदियों का जल, समुद्र का जल डालकर गायत्री मन्त्र द्वारा अपनी प्राण शक्ति का उसमें आवाहन किया. इस कुम्भ को ही पूर्ण कुम्भ कहते हैं. इस कुम्भ के अमृत का ही सिंचन महर्षियों ने पृथ्वी पर किया. इस कलश के जल का, अमृत का अभिषेक कैलाश पर्वत पर प्रमुखता से हुआ, इसलिए वह अमृत स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ. श्रावण पौर्णिमा के दिन अमरनाथ की गुफा में बर्फ का शिवलिंग तैयार होता है. इस दैवी शिवलिंग के दर्शन से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है.

 

वशिष्ठ  तथा अगस्त्य मुनि का जन्म

जब पूर्ण कुंभ को उलटा गया तो उसमें से दो महामुनि अवतरित हुए. इनमें से पहले वाले – वशिष्ठ मुनि अपने शुभ्र तेज से दमक रहे थे, तथा दूसरे – अगस्त्य मुनि नीलवर्ण के थे एवँ उनकी कांति अपूर्व तेजोमय थी. वे मित्र वरुण के अंश रूप में जन्मे.

पूर्ण कुम्भ के अमृतीकरण किये गए जल से ग्यारह बार रुद्राभिषेक करने से शिव भगवान से एकादशी का पुण्यफल “एकादश रुद्ररूप” प्राप्त होता है. इस प्रकार एकादश रूद्र का तथा वैष्णव सम्प्रदाय की एकादशी के व्रत का निकट का सम्बन्ध है. इससे यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि शिव एवँ केशव अभिन्न रूप ही हैं. “नमक” से रुद्राभिषेक करने से अकाल मृत्यु दोष दूर होता है. सोम ग्रह की अधिष्ठान देवता चन्द्र है. चन्द्र प्राणियों के पुनर्जीवन के लिए मूल साधन शक्ति की वर्षा करता है. इस चन्द्रकला का स्थान योगी पुरुषों के भ्रूमध्य में भंवों से कुछ ऊपर सहस्त्रार चक्र के सामने चमकता रहता है.

 

ईश्वर के विविध रूपों का वर्णन

इसीलिये ऐसा कहा जाता है कि शिव प्रभु के शिर पर चन्द्रकला स्थित है. गुर्जर देश (गुजरात) में स्थित सोमनाथ के मंदिर में चंद्रकांत शिला से ही शिवलिंग के मस्तक पर सफ़ेद चंद्रकोर बनाई गई है. यहाँ ज्योति के समान दमकने वाले स्फटिक के ज्योतिर्लिंग की पूजा की जाती है. शास्त्रों में कहा गया है कि जब तक साधक में रूद्र तत्व न आ जाए, तब तक वह रुद्राभिषेक न करे. महान्यास में ‘काल‘ से तात्पर्य है स्व-रूप का संहार करने वाला, इसीलिये अभिषेक करने वाले को कालात्मक होकर यज्ञ स्वरूप शरीर में न्यास करके रुद्राभिषेक करना चाहिए. बोधायन महर्षि के महान्यास रुद्राभिषेक विधान में शिव का वर्णन तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव, ईशान – इस प्रकार किया गया है.

तत्पुरुष मूर्ति प्रलायाग्नि के समान विद्युत् रंग की होती है. अघोर मूर्ति मेघ वर्णीय, सद्योजात मूर्ति चन्द्र की कांति के समान धवल होती है. वामदेव मूर्ति गौरवर्ण की होती है. ईशान मूर्ती आकाश के रंग की और अत्यंत तेजोमय होती है.

रूद्र सहस्त्रादि संख्या में होते हैं. रूद्र के गण, इस नाम से जिन देवताओं को संबोधित किया जाता है उनकी संख्या एक गण में तीस हज़ार के हिसाब से होती है. एकादश सहस्त्र गणों में तेहतीस करोड़ रूद्र के गण होते हैं. ये ही गण भूमि, आकाश, अंतरिक्ष, जल, वायु, शरीर, प्राण तथा मन को व्याप्त करते हैं. ऐसा वेदों में प्रतिपादित किया गया है.

 

श्रीपाद प्रभु की अर्चना एवँ उनका स्मरण करने वाले भक्तों को तैंतीस करोड़ रुद्रों का अनुग्रह – रुद्राक्ष का वर्णन

 

इन तैंतीस करोड़ रूद्र-गणों के अधिपति श्री गणपति हैं. इसी कारण स्वयँ के गणपति तत्व को योग मार्ग द्वारा प्रदर्शित करने के उद्देश्य से श्रीपाद प्रभु ने अपना अवतार गणेश चतुर्थी के शुभ दिन धारण किया. इसलिए श्रीपाद प्रभु की अर्चना, उनका स्मरण करने वाले साधकों को तैंतीस करोड़ रूद्र-गणों का अनुग्रह प्राप्त होता है.

धर्मगुप्त आगे बोले, “अरे बेटा, शंकर भट्ट, शिवभक्तों को रुद्राक्ष धारण करना चाहिए. वह अत्यंत लाभकारी होता है. रुद्राक्ष की चार जातियां होती हैं. वे इस प्रकार हैं :

१.     ब्रह्म जात  २. क्षत्रिय जात  ३. वैश्य जात  ४. शूद्र जात.

ब्रह्म जाति के रुद्राक्ष सफ़ेद रंग के होते हैं. यह रुद्राक्ष बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं. क्षत्रिय जाति के रुद्राक्ष लाल शहद के रंग के होते हैं. इमली के बीज के रंग वाले वैश्य जाति के होते हैं. काले रंग के रुद्राक्ष शूद्र जाति के होते हैं. आम तौर से पाँच मुख से सोलह मुख वाले रुद्राक्ष पाए जाते हैं. एक मुखी रुद्राक्ष अत्यंत दुर्लभ होता है. इसे यदि दूध अथवा पानी में डाला जाए तो वह डूब जाता है. हलके रुद्राक्ष, कोमल रुद्राक्ष को धारण करना निषिद्ध होता है. रुद्राक्ष को यदि ताँबे के उलटे ग्लास एवँ चम्मच के बीच दबाया जाए तो, यदि वह असली रुद्राक्ष है तो प्रदक्षिणा करने की दिशा में घूमता है. कुछ रुद्राक्ष अप्रदक्षिण अर्थात उल्टी दिशा में घूमते हैं. इन रुद्राक्षों को द्रविड़ रुद्राक्ष कहते हैं. गृहस्थों को ऐसे रुद्राक्षों का उपयोग नहीं करना चाहिए. इससे अनेक अनिष्ट घटनाएं हो सकती हैं एवँ संन्यास का योग भी संभव हो सकता है. अतः ऐसे रुद्राक्षों को केवल सन्यासियों को ही धारण करना चाहिए. कालाग्नि रूद्र ने ऐसा कहा है कि सफ़ेद रुद्राक्ष केवल ब्राह्मण ही धारण करें, क्षत्रिय लाल रंग के, वैश्य हलके पीले रंग के तथा शूद्र काले रंग के रुद्राक्ष धारण करें. ये ही रुद्राक्ष इनके लिए अनुकूल होते हैं एवँ उनके पापों का नाश करके उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं.

एकमुखी रुद्राक्ष प्रत्यक्ष शिव स्वरूप होता है. दो मुखी रुद्राक्ष अर्धनारी स्वरूप होता है. त्रिमुखी – अग्नि स्वरूप, चौमुखी रुद्राक्ष – ब्रह्म स्वरूप, पञ्च मुखी – कालाग्नि स्वरूप, छह मुखी – कार्तिकेय स्वरूप होता है. सप्त मुखी रुद्राक्ष – मन्मथ स्वरूप, अष्टमुखी – रूद्र भैरव स्वरूप, नौ मुखी – कपिल मुनि स्वरूप होता है. यह रुद्राक्ष अत्यंत दुर्लभ होता है. इस रुद्राक्ष में विद्या शक्ति, ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति, शांत शक्ति, वाम शक्ति, ज्येष्ठा शक्ति, रौद्र शक्ति, अंग शक्ति, पश्यंती – ये नौ प्रकार की शक्तियां होती हैं. इसी कारण से यह रुद्राक्ष धर्म देवता स्वरूप है. दशमुखी रुद्राक्ष विष्णु स्वरूप, एकादश मुखी रुद्राक्ष साक्षात शिवस्वरूप, द्वादश मुखी – द्वादशादित्य रूप . इस प्रकार रुद्राक्षों का विविध देवताओं से संबंध बताया जाता है.

श्रीपाद प्रभु ने प्राकृतिक प्रवृत्ति एवँ निवृत्ति के अधिपति, श्री गणपति, के तत्व को अपने चैतन्यमय स्वरूप में धारण किया हुआ है. इसी कारण से वे तैंतीस करोड़ देवताओं के दिव्य स्वरूप हैं. इतना ही नहीं, इस सृष्टि में होने वाली प्रत्येक हलचल, प्रत्येक घटना श्रीपाद प्रभु के संकल्प से ही होती रहती है. सभी गतिविधियों का मूल कारण श्रीपाद प्रभु हैं, सभी कारणों के वे ही कारण स्वरूप हैं. वे शिव स्वरूप हैं, ऐसा मन में भाव रखकर यदि उनका पूजन किया जाए तो वे विष्णु रूप में दिखाई देते हैं और विष्णु रूप में उनकी आराधना करने से वे शिव रूप में दिखाई देते हैं. परन्तु यदि मन में उठ रहे अनेक तर्क-वितर्कों की मेल को दूर करके अनन्य भाव से उनकी शरण में जाएँ तो वे यथार्थ रूप में दिखाई देते हैं.”

श्री धर्मगुप्त आगे बोले, “अरे शंकर भट्ट! मैं भी तुम्हारे साथ कुरुगड्डी आकर श्रीपाद प्रभु के दर्शन लेकर अपना जन्म कृतार्थ कर लूँगा.”

मैं धर्मगुप्त के साथ कुरुगड्डी आया और हमने श्रीपाद प्रभु के दर्शन किये. उन्होंने अपने नेत्र खोलकर हमारी ओर देखा और मज़ाक में बोले, “वाह! क्या उत्तम चर्चा हो रही थी. श्रीपाद – शिवरूप हैं. क्या मैं ही श्रीपाद हूँ? यदि ऐसा न हो तो क्या श्रीपाद ही “मैं” बनकर आया हूँ? मैं कौन हूँ? धर्मगुप्त, थोड़े विस्तार से बताओ ना!” इस पर धर्मगुप्त ने उत्तर दिया, “जब मैं पीठिकापुरम् से आ रहा था तो श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने मुझसे कहा था कि श्रीपाद प्रभु के साथ कोइ भी तर्क–वितर्क न करना. बस, पूरी तरह से उनकी शरण में जाना. अतः मैं अनन्य भाव से आपकी शरण में आया हूँ. आपके प्रत्येक प्रश्न पर मैं मौन ही रहूँगा. जहाँ वेद भी श्रीपाद प्रभु का यथार्थ वर्णन करने में असमर्थ रहे, वहाँ धर्मगुप्त जैसे सामान्य साधक की क्या बिसात?”

धर्मगुप्त की बात सुनकर श्रीपाद प्रभु अत्यंत प्रसन्न हो गए. उन्होंने हम दोनों को अपने चरण स्पर्श करने की अनुमति दी. हमने आनंद विभोर होकर प्रभु के चरण स्पर्श किये, और क्या आश्चर्य! हम दोनों तत्क्षण ध्यानावस्थित हो गए. इस अवस्था में कितना समय बीता, इसका ज्ञान ही न रहा. जब ध्यानावस्था से बाहर आये तो सायंसंध्या की बेला हो रही थी.

श्रीपाद प्रभु ने हमें कृष्णा नदी पार करके दूसरे किनारे पर जाने के लिए कहा. उनकी आज्ञानुसार हम दोनों श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं का स्मरण करते हुए कृष्णा के दूसरे तीर पर पहुंचे, वहाँ नदी की नर्म बालू-रेत में हम लेट गए और पता ही नहीं चला कि कब निद्रा देवी ने हमें अपनी गोद में ले लिया. प्रातः काल योगी जनों के “श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा” मधुर नाम स्मरण से हमारी आंखें खुलीं.

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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