मंगलवार, 21 जून 2022

अध्याय - २२

 

 

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।  


अध्याय २२

गुरुदत्त भट्ट की कथा – ज्योतिष शास्त्र के अनुसार

भक्त की कुण्डली में शुभफल देने वाले एकमेव श्रीपाद प्रभु

 

गुरुचरण, कृष्णदास और मैं (शंकर भट्ट) श्रीपाद प्रभु के सम्मुख आनंद के सागर में विहार कर रहे थे. गुरुदत्त नामक एक ज्योतिषी श्री गुरुदेव के दर्शन हेतु आया था. श्रीपाद प्रभु ने उसका यथोचित सम्मान किया. उन्होंने आदेश दिया कि एकांत स्थल में बैठकर हम सत्संग करें. हमारा वार्तालाप ज्योतिष शास्त्र की ओर मुड़ा. मैंने दत्त महाशय से पूछा, “महाराज, क्या ज्योतिष शास्त्र में वर्णित फल सत्य होता है? क्या उस फल में परिवर्तन किया जा सकता है? क्या मानव जन्म में पूर्व कर्म निर्देशित होते हैं?” इस पर गुरुदत्त भट्ट बोले, “ ‘भ चक्र – नक्षत्र कक्षा है. इसका आरम्भ अश्विनी नक्षत्र से होता है. नक्षत्र स्थल का निर्देश करने के लिए चैत्र पक्ष होता है. रैवत पक्ष नामक एक दूसरी पद्धति भी है. रेवती नक्षत्र जहाँ विद्यमान है उस स्थान से आठ कलाएँ कम होने के कारण वह ग्राह्य नहीं है. अश्विनी नक्षत्र गोल पहचानने में कठिन है, परन्तु उससे १८०अंशों पर स्थित चित्रा नक्षत्र का केवल एक ही गोल प्रकाशमान होकर स्फुट होने के कारण उसमें ६ (छः) यह अंक मिलाने से वह अश्विनी होकर चैत्र पक्ष के रूप में ग्राह्य समझी जाती है. अश्विनी नक्षत्र को ‘तुरग मुखाश्विनी श्रेणी – तीन गोलों के रूप में स्पष्ट किया गया है. श्रीपाद श्रीवल्लभ के चित्रा नक्षत्र में जन्म लेने के पीछे एक विशेष कारण है. तीन एकत्रित गोलों वाला अश्विनी नक्षत्र – अर्थात उनका स्वरूप है. यही ‘भ चक्र का आरम्भ है. वही उनका दत्तात्रेय स्वरूप है. कलियुग में उनका प्रथम अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ है. इस अश्विनी नक्षत्र की सीध में १८०अंशों पर स्थित चित्रा नक्षत्र उनका जन्म नक्षत्र है. १८०अंश की दूरी पर स्थित कोई भी नक्षत्र अथवा कोई भी ग्रह शक्ति को केन्द्रित करने का कार्य करता है. मनुष्य का जन्म उसके पूर्व जन्म के प्रारब्ध के गणितानुसार यथायोग्य ग्रह संपुट में होता है. ग्रह मानव के प्रति कोई भी द्वेष भावना अथवा प्रेम भावना नहीं रखते. ग्रह विशेष से निर्मित विविध किरणों के द्वारा, विविध स्पंदनों के कारण उस काल विशेष में, उस प्रदेश विशेष में उन जीवों को इष्टानिष्ट फल की प्राप्ति होती है. अनिष्ट फल के परिणामों से दूर जाने के लिए उन किरणों एवँ स्पंदनों को दूर हटाना पड़ता है. यह १. मन्त्र-तंत्र द्वारा २. ध्यान द्वारा ३. प्रार्थना द्वारा अथवा ४. योगशक्ति की सहायता से साध्य किया जा सकता है. यदि पूर्व जन्म का कर्म अत्यंत प्रबल हो तो उपरोक्त विधि-विधान कोई सहायता नहीं कर सकते. ऐसी परिस्थिति में श्रीपाद प्रभु ही हमारी भाग्य रेखा बदल सकते हैं. इसके अनुसार हमारी भाग्य रेखा बदलने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे द्वारा दूसरों के हित में कोई अच्छा काम किया जाए. साधारण परिस्थितियों में ऐसा होना कठिन है. श्रीपाद प्रभु सृष्टि के अथवा कर्म देवता के कार्य कलापों में अनावश्यक दखल नहीं देते. मगर भक्तों की आर्तता श्रीपाद प्रभु को झकझोर देती है और उन्हें योग्य उपाय बतलाने के लिए प्रेरित करती है. श्रीपाद प्रभु के ह्रदय से उमड़ते हुए प्रेम एवँ करुणा के सामने कर्म देवता की शक्ति निस्तेज हो जाती है. कर्म का स्वरूप जड़ होता है. श्रीपाद प्रभु चैतन्य स्वरूप हैं. योग्य समय पर प्रकट होकर वे अपनी चैतन्य शक्ति की सामर्थ्य प्रदर्शित करते है. यह उनका अत्यंत सहज स्वभाव है.

मैं (गुरुदत्त भट्ट) अज्ञानवश स्वयँ को ज्योतिष का महापंडित समझता था. मैं कर्नाटक प्रदेश से आया था इसलिए मैं तेलुगु भाषा भली भाँति बोल नहीं सकता था, मगर संस्कृत का मुझे अच्छा ज्ञान था. मुझे पीठिकापुरम् आने की संधि सौभाग्यवश ही प्राप्त हुई थी. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के बारे में मैंने अनेक बातें सुनी थीं. मेरे कुलदेवता श्री दत्तात्रेय प्रभु ही हैं. मैं पादगया क्षेत्र वाले  पीठिकापुरम् के कुक्कुटेश्वर मंदिर में दर्शनों के लिए आया था. भक्तिपूर्वक अन्तःकरण से, श्रद्धापूर्वक  मैंने देवता के दर्शन किये. जब मैं ध्यान करने बैठा तो मेरी अन्तःवाणी ने मुझसे स्पष्ट रूप से कहा, “अरे मूर्ख! तुझे मरे हुए कितने दिन हो गए? तू ऐसा कहता है कि मेरा भक्त है और मेरी आरती करके मेरे पैरों पर शीशा नवाता है. क्या तू पादगया आकर मेरे चरणों पर शीश नवा कर मन्नत पूरी करने वाला है? या फिर मेरे पैरों पर सिर पटक-पटक कर मेरा खून सुखाने वाला है?” मुझे यही शब्द बार-बार सुनाई दे रहे थे. मैंने ज्योतिष पंडित होने के कारण अपनी कुण्डली बनाई थी. उस कुण्डली के अनुसार मैं जिस दिन इस शरीर का त्याग करूंगा, उस दिन पादगया क्षेत्र में स्थित श्री दत्तात्रेय प्रभु के सम्मुख होऊँगा. मैंने अपनी नाडी की धक्-धक् को जांचा, नाडी चल ही नहीं रही थी. मैंने अपने ह्रदय पर हाथ रखकर देखा, वह भी बंद था. मैंने आईने में अपना चेहरा देखा. मेरे मुख पर से जीवन के लक्षण लुप्त होकर वह प्रेतवत दिखाई दे रहा था. मैंने हँसते हुए स्वयँ को आईने में देखा, तो मेरा मुख और भी भयानक प्रतीत हुआ. अब मेरे पास गर्व करने के लिए बचा ही क्या था? मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो कोई मृत व्यक्ति पिशाच्च युक्त होकर विकृत प्रेत के समान हँस रहा हो. स्वयंभू दत्तात्रेय के मंदिर के पुजारी का सूक्ष्म शरीर मुझे दिखाई दे रहा था. उसके अत्यंत सूक्ष्म विकार भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे. मेरे मन के कोने में छुप कर बैठा हुआ विवेक जागृत हो उठा. मुझे विश्वास हो गया कि श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शनों के बिना मेरा दुर्भाग्य समाप्त नहीं होने वाला. देवता आनंद स्वरूप होते हैं. वे आनंद की सर्वोच्च स्थिति में होते है. मेरी स्थिति बड़ी दुखदायक थी. मेरा मन बहुत दुखी था. जब आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है, तो देह की सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं. मेरी आत्मा ने अभी तक शरीर को छोड़ा नहीं था. मानो मैं जीवित होते हुए भी बंधन मुक्त स्थिति में था. मुझ निर्बंध के शरीर के भीतर ह्रदय स्पंदनों को भरकर श्री गुरुदेव ने मुझे एक अनामिक अवस्था प्रदान कर दी थी. अत्यंत निकृष्ट तथा पापी लोगों की बातों में आकर मैं कैसे फंस गया था, इसका ज्ञान मुझे हुआ. “पाषाण रूप की स्वयंभू श्री दत्तात्रेय की मूर्ती ने घंडीकोटा वंश में जन्म लिया था. पाषाण की मूर्ति के भीतर कहीं नाडी का एवँ ह्रदय का स्पन्दन होता है? परन्तु श्रीपाद प्रभु के ह्रदय एवँ नाडी तो स्पंदन करते हैं ना? महालय  अमावस्या का दिन पितृ देवताओं का परम पवित्र दिन होता है. उस दिन कोई  अवधूत आकर भिक्षा स्वीकार करके चला जाता है. वही अवधूत दत्तात्रेय प्रभु हैं, ऐसा स्थानीय लोग मानते हैं. श्रीपाद महाप्रभु ने ही मल्लादी वंश के शालक (दामाद) के रूप में जन्म लिया है, यह कैसी आश्चर्य की बात है! कैसी ये वंचना है!”  ऐसे निकृष्ट बोल सुनकर मैं स्तब्ध रह गया. उस नीच व्यक्ति की बातें सुनकर उन्हें मैं सत्य समझ बैठा और मैं रत्नतुल्य श्रीपाद प्रभु से दूर हो गया. मुझे मनःपूर्वक पश्चात्ताप हुआ.

मैं फ़ौरन भागते हुए श्रीपाद प्रभु के घर गया. दस वर्ष की आयु के श्रीपाद प्रभु आँगन में आए. वे गुरुदत्त भट्ट को देखकर बोले, “आ रे आ, मूरख! जीवित होने का नाटक कर रहा है. तेरे जैसे मृतवत, मानव पिशाच्च को सद्गति मेरी कृपा से ही प्राप्त हो सकती है. तेरे द्वारा किये गए दुष्कृत्यों के फलस्वरूप रौरवादी नरक की यातनाएँ भोग रहे तेरे पितरों को सद्गति प्रदान करने के लिए अवधूत का वेष धारण कर महालय  अमावस्या के पवित्र दिन जो भिक्षा माँगने आया था, वह कौन था, क्या यह तू जानता है? वे दत्तात्रेय कौन हैं, क्या यह तुझे मालूम है? वह दत्तात्रेय मैं ही हूँ. उनका केवल नाम लेने से राक्षस- पिशाच्च थरथर कांपते हैं, वे दत्तात्रेय – अर्थात मैं ही हूँ. मैं तुझे पत्थर की शिला में परिवर्तित कर सकता हूँ, तुझे भूखा रख सकता हूँ और तेरे प्राण भी ले सकता हूँ. तू भले ही जीवित मनुष्य जैसा दिखाई दे रहा है, परन्तु तू मृतवत ही है. तू जीवित होने का नाटक कर सकता है. मैं दत्तात्रेय हूँ, अथवा नहीं, इस पर विचार हम बाद में करेंगे. पहले तू अपने बारे में बता.”

यह सुनकर मैं अत्यंत भयभीत हो गया और थरथर कांपने लगा. तभी सुमति महाराणी आँगन में आईं. वे बोली, “कृष्णा, कन्हैया, यह प्रेतवत, अघोरी आदमी कौन है? तू अन्दर आ, तेरी नज़र उतारती हूँ.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माँ, यह अभी तक अघोरी बना नहीं है, परन्तु इसका अगला जन्म शवों को ले जाने वाले का होने वाला है. उस जन्म से पूर्व यह मेरे दर्शन के लिए आया है. अपने घर का बचा हुआ भात इसे खाने के लिए दो. श्रीपाद प्रभु की माता जी ने बचा हुआ भात लाकर दिया. श्रीपाद प्रभु ने वह गुरुदत्त भट्ट को दिया और उसे लेकर निकल जाने को कहा. गुरुदत्त भट्ट ने वह भात कुक्कुटेश्वर के मंदिर के सामने खाली जगह में बैठकर खाया. उसे खाते ही उसकी दुरावस्था दूर हो गई. वह दुबारा श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए आया. उस समय श्रेष्ठी श्रीपाद प्रभु को दूकान में लेकर गए थे. श्रीपाद प्रभु पैसे गिनकर तिजोरी में रख रहे थे. स्वयं श्रेष्ठी चावल, जवारी आदि तौल-तौल कर ग्राहकों को दे रहे थे. तभी श्रीपाद प्रभु ने श्रेष्ठी से पूछा, “दादा जी, आज दशमी है. बाबा को कितनी दक्षिणा देने वाले हैं?” तब श्रेष्ठी ने उत्तर दिया, “हम दोनों में कोई परदा नहीं है. तुझे जो चाहिए वह तू ले सकता है, और जो मुझे चाहिए वह मुझे दे दे.: वह दृश्य कितना मनोहारी था! उसका वर्णन करना असंभव है. श्रीपाद प्रभु ने गुड का एक टुकड़ा लेकर मुँह में डाला और एक गुड का टुकड़ा प्रसाद के रूप में श्रेष्ठी को दिया. श्रीपाद प्रभु बोले, “आज मुझे गणेश पूजा करनी थी. वह हो गई. गणेश ने गुड का टुकड़ा मुँह में डालकर नैवेद्य स्वीकार कर लिया. यदि विश्वास न हो तो मेरा मुँह देखिये.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने अपना मुँह खोलकर श्रेष्ठी को दिखाया. इस मुँह में कौनसा महारूप उन्हें दिखाई दिया, यह तो श्रेष्ठी ही जानें. उसके बारे में उन्होंने किसी को भी नहीं बताया. वे श्रीपाद प्रभु से बोले, “सोनू! श्रीपाद! जब जब भी गणेश को भूख लगे, तब मुझसे पूछे बिना जितना चाहो, उतना गुड नैवेद्य के लिए लेते रहो.” तभी अखंड सौभाग्यवती वेंकट सुब्बमम्बा वहां आई.

“अरे, शंकर भट्ट! नीच लोगों की बातों में आकर मैं, गुरुदत्त भट्ट, अधोगति को प्राप्त होकर अघोरी जन्म के दुर्भाग्य में फंसने वाला था. परन्तु श्रीपाद प्रभु ने उस दुर्भाग्य से मेरी रक्षा की. यदि उन्होंने मुझे यूँ ही छोड़ा दिया होता, मुझ पर अपनी कृपा दृष्टी न डाली होती, तो मेरा पतन हो गया होता. सद्गुरू को अपने भक्तों पर नि:स्वार्थ प्रेम होता है, इसी कारण वे पूर्व जन्म के कर्मफल से उनको पूर्ण रूप से मुक्त करते है. इसके लिए वे अपना अमूल्य समय एवँ शक्ति खर्च करते हैं.

श्रीपाद प्रभु की जन्म पत्रिका सान्ध्र-सिन्धु वेद की दृष्टी से देखी जा सकती है. श्रीपाद प्रभु के घर में तेलुगु भाषा के साथ-साथ संस्कृत भी बोली जाती थी. हिमालय की पवित्र भूमि पर जो भाषा बोली जाती थी, उसी में श्रीपाद प्रभु, अप्पलराजू शर्मा, बापन्नाचार्युलु वार्तालाप करते थे. संबल प्रांत में बोली जाने वाली भाषा संस्कृत से भिन्न थी. उस भाषा का माधुर्य एवँ उसकी सरलता वर्णनातीत थी. इस भाषा में पीठिकापुरम् में केवल श्रीपाद प्रभु, बापन्नाचार्युलु एवँ अप्पलराजू शर्मा ही बातें कर सकते थे. एक बार सत्यऋषिश्वर नामक एक विद्वान व्यक्ति बापन्नाचार्युलु के साथ थे, तब श्रीपाद प्रभु ने कहा, “नाना जी श्रीकृष्ण सत्य अथवा असत्य वचन नहीं कहते थे. वे केवल कर्तव्य बोधक थे.” इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “कन्हैया, हमेशा सत्य ही बोलना चाहिए, दवा के रूप में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए.” यह सुनकर श्रीपाद प्रभु मंद-मंद मुस्काए. उस दिन बापन्नाचार्युलु के घर वेंकट सुब्बय्या श्रेष्ठी आए थे. उनकी एक आतंरिक इच्छा थी कि बापन्नाचार्युलु उनके घर भोजन करके दक्षिणा स्वीकार करें. यह दिन परम पवित्र महालय पक्ष का ही कोई दिन हो, जिससे उनके पितृ देवता संतुष्ट हो जाएँ. बापन्नाचार्युलु उनकी इच्छा पूरी करेंगे अथवा नहीं, इस बात के बारे में उन्हें संदेह था. इस कारण श्रेष्ठी ने श्रीपाद प्रभु के सम्मुख नतमस्तक होकर बापन्नाचार्युलु के सामने अपनी इच्छा प्रकट की. बापन्नाचार्युलु ने महालय पक्ष के दिनों में श्रेष्ठी के घर जाकर भोजन करने और उनसे दक्षिणा स्वीकार करने की अनुमति दी, यह सुनकर श्रेष्ठी के आनंद की सीमा न रही.

श्रीपाद प्रभु बहु चमत्कारी थे.

महालय पक्ष में भोजन का निमंत्रण तो बापन्नाचार्युलु ने स्वीकार कर लिया, परन्तु वे इस बारे में भूल गए. श्रेष्ठी को भी इस बारे में कुछ याद न रहा. महालय अमावस्या की दोपहर हो गई. श्रेष्ठी बापन्नाचार्युलु के घर आये. श्रीपाद प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए बोले, “नाना जी, पहले तो वाग्दान करना नहीं चाहिए, यदि करें तो उसके अनुसार व्यवहार करना चाहिए. वाग्दान करके उसे भूल जाना महापाप है. आप दोनों को मैं इस बारे में याद दिला रहा हूँ.” तब श्रेष्ठी और बापन्नाचार्युलु को अपनी गलती का अहसास हुआ. प्राणियों को समझाना कैसे चाहिए और उनकी विस्मृति कैसे दूर करनी चाहिए, ये दोनों कलाएँ श्रीपाद प्रभु को उत्तम प्रकार से अवगत थीं. वे सभी बातों में समर्थ थे. वे उन दोनों को सावधान करते हुए बोले, “आपके  मस्तिष्क में विस्मृति उत्पन्न करने के पीछे मेरा एक उद्देश्य है. प्रत्येक मानव के भीतर ‘मैं मैं करने वाला एक चैतन्य रूप है. प्राणी अपने माता-पिता से न केवल शरीर, अपितु यह चैतन्य रूप भी ग्रहण करता है. इस ‘मैं नामक चैतन्य रूप के सामने इस विश्व प्रणाली में कोई न कोई ज़िम्मेदारी का कर्म होता ही है जिसे उसे निभाना पड़ता है. पिता से पुत्र को, पुत्र से उसके पुत्र को ...इस प्रकार यह परम्परागत बंधन हर प्राणी पर होता ही है. गृहस्थाश्रम त्याग कर जब सन्यासाश्रम स्वीकार किया जाता है तभी इस कर्मबंधन से मुक्ति मिलती है. आज किया हुआ वाग्दान सीमित होकर नाम स्वरूपात्मक इस जन्म के पश्चात आप दोनों के बीच समाप्त हो जाएगा, ऐसा नहीं है. यह बृहदाकार स्वरूप वाले ‘मैं के चैतन्य में परिवर्तित होने के कारण किसी एक देश में, किसी एक काल में बापन्नाचार्युलु के वंश का कोई एक व्यक्ति श्रेष्ठी के वंश के किसी एक व्यक्ति के घर महालय पक्ष का भोजन करके दक्षिणा स्वीकार करेगा. यह कब, कैसे कहाँ होगा, यह मुझसे न पूछें, क्योंकि कर्मस्वरूप बहुत ही संदिग्धमय होता है, सूक्ष्ममय होता है. किन्हीं किन्हीं कर्मों में भौतिक काल एवँ योग काल भिन्न-भिन्न होते हैं. भौतिक काल की दृष्टि से महालय पक्ष का यह कर्म करके ही उसे समाप्त करना होता है. योग्य काल न हो तो वह कर्म विलंबित हो जाता है.”             

इस पर मैंने (शंकर भट्ट ने) पूछा, “अरे, गुरुदत्त भट्ट! भौतिक काल तथा योग काल से क्या तात्पर्य है? मुझे समझाइये.” श्री गुरुदत्त भट्ट ने कहा, “भौतिक काल-भौतिक देश, मानसिक काल- मानसिक देश, एवँ योग काल – योग देश – इनकी आयु छः से दस वर्ष तक की होती है. यह हमेशा सोलह वर्ष के किशोर की भाँति निरंतर विद्याश्रम में रहता है. उसका भौतिक काल साठ वर्षों का निर्धारित किया गया है, जो शरीर से संबंधित है. उसका मानसिक काल बीस वर्षों का निर्धारित किया गया है. बीस वर्षों के युवक का साठ वर्षों के वृद्ध जितना वज़न होता है. यदि जिम्मेदारियां हों तो उसका काल बीस वर्षों का होता है. यह शरीर से संबंधित है. उसका मानसिक काल साठ वर्षों का है. इस प्रकार भौतिक काल और मानसिक काल एक ही समय खण्ड में मिल जाएँ, ऐसा नियम नहीं है. वह अलग-अलग भी हो सकते हैं.”

 

काशी अथवा पीठिकापुरम् में निवास करने से विविध तापों से मुक्ति. काशीवास का फल – पीठिकापुरम् निवास का फल.

 

 श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं कालातीत हूँ. जिस भक्त के मन में काशी में निवास करने की इच्छा है और जो इसके लिए तड़प रहा है, उसे काशी निवास की प्राप्ति होती है. भौतिक दृष्टी से वह किसी भी प्रदेश में हो, परन्तु मानसिक दृष्टि से  उसका निवास काशी में ही होता है. भौतिक दृष्टी से काशी में रहते हुए भी जो गोहत्या करता है उसे काशी निवास का फल प्राप्त नहीं होता. जिस प्रकार गंगाजल में मछलियाँ ढूँढने वाले बगुले को गंगास्नान का लाभ नहीं होता. यदि कोई साधक भौतिक रूप से पीठिकापुरम् में रहता हो और श्रीपाद प्रभु के दर्शन भी करता हो, परन्तु उसका मानसिक काल एवँ मानसिक देश के पीठिकापुरम् में न हो तो वह श्रीपाद प्रभु का भक्त नहीं हो सकता. योग काल एवँ योग देश अध्यात्मिक शक्ति से संपन्न व्यक्ति को ही अवगत होता है. श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह किसे और कब मिलेगा यह समझ में न आने वाला गूढ़ रहस्य है. मानव का केवल कर्म करने का अधिकार है.

देह एक क्षेत्र है, यदि उसमें मन न हो तो उसे क्षेत्र निवास का फल नहीं मिलेगा.

सत्कर्म करने से सुख और दुष्कर्म करने से दुःख ही प्राप्त होना अनिवार्य है. पूर्व जन्म के बंधन हमारा पीछा करते रहते हैं. सदगुरु की कृपा से ही इनसे मुक्ति मिलती है. यदि समय (काल) ठीक न हो तो हम किसी भी देश में हों, फिर भी इस कर्म के फल से भाग नहीं सकते. यह एक अत्यंत अनाकलनीय विषय है. पीठिकापुरम् में नरसिंह वर्मा के घर में एक सेवक था. उसका नाम था शिवय्या. एक दिन उसने श्रीपाद प्रभु को देखा. तत्काल उसकी मनोदशा परिवर्तित हो गई. उसने निद्रा एवँ आहार त्याग दिए और असंबद्ध बडबडाने लगा, “मैं सृष्टि, स्थिति एवँ लय का कारण हूँ. मैं ही समूची सृष्टि का आदिमूल हूँ. यह सृष्टि मुझसे ही उत्पन्न हुई है. मेरे कारण ही वृद्धिंगत होकर मुझमें ही लय होने वाली है.” नरसिंह वर्मा को शिवय्या पर बड़ी दया आई. उन्होंने श्रीपाद प्रभु से शिवय्या की रक्षा करने की प्रार्थना की. श्रीपाद प्रभु शिवय्या को लेकर श्मशान गए. साथ में नरसिंह वर्मा भी थे. औदुम्बर वृक्ष की सूखी टहनी रखकर शिवय्या के हाथों उसका दहन करवाया. इसके फलस्वरूप शिवय्या की उस विचित्र मनोदशा से मुक्ति हो गई. नरसिंह वर्मा को यह सब बहुत आश्चर्यजनक प्रतीत हुआ. श्रीपाद प्रभु बोले, :दादा जी, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. वायसपुर ग्राम नें एक पंडित मुझ पर अत्याचार कर रहा था. वह बार-बार कहता कि वेदस्वरूप परमेश्वर कहाँ और यह कम आयु का श्रीपाद कहाँ? इनकी कैसी तुलना? कहता है कि वह सृष्टि, स्थिति एवँ लय का कारण है, कहता है कि वह आदिमूल है, यह सब मिथ्या है. कुछ ही दिनों में उस पंडित की मृत्यु हो गई और अपने कर्मों के कारण वह ब्रह्मराक्षस हो गया. किसी जन्म में यह शिवय्या उस पंडित का अल्प ऋणी था. मैंने योगकाल की कल्पना करके श्मशान में योगदेश का निर्माण किया और अपने कर्म के फलस्वरूप सूख चुकी इस टहनी का दहन करके उस ब्रह्मराक्षस तत्व से पंडित को मुक्त किया. हमारे शिवय्या को उस ब्रह्मराक्षस के चंगुल से मुक्त कर दिया.”

“अरे, शंकर भट्ट! पीठिकापुरम्  क्षेत्र में अवतरित महातेजस्वी एवँ धर्म ज्योति श्रीपाद प्रभु ने कुरुगड्डी आकर इस क्षेत्र को पवित्र कर दिया. श्रीपाद प्रभु के महासंकल्प से ग्रहों के फलित का निर्णय होता है. किसी भी प्रकार के ज्योतिष फल द्वारा निर्धारित भौतिक काल एवँ भौतिक नियमों का अस्तित्व नहीं होता. उसका निर्णय योगकाल एवँ योगदेश देखकर किया जाता है.”

श्रीपाद प्रभु द्वारा अनुगृहीत प्रारब्ध कर्म मृत्यु को दूर भगा सकता है.

 

श्रीपाद प्रभु द्वारा कल्पित ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक हज़ार वर्षों के उपरांत होने वाली घटनाओं को वे वर्तंमान में ही घटित करवा सकते हैं, इसलिए योग-काल का निर्णय वे ही करते हैं. दूर प्रदेश में घटित होने वाली घटना भी वे अपने निकट ही घटित करवा सकते हैं. अतः योग-देश का निर्णय भी वे ही कर सकते हैं. सभी देश-कालों का संघटन वे ही कर सकते हैं.श्रीपाद प्रभु अपनी इच्छानुसार देश काल परिवर्तित कर सकते हैं. एक बार श्रेष्ठी के घर में उनके देवता के सम्मुख नारियल फोड़ते समय स्वयँ श्रीपाद प्रभु ने वह नारियल फोड़ा. उस नारियल के उन्होंने टुकड़े-टुकड़े कर दिए. श्रीपाद प्रभु ने कहा, “दादा जी, आज आपका मृत्यु योग था, परंतु मैंने नारियल के टुकड़े-टुकड़े करके उसे टाल दिया.”

शाम का सायं संध्या का समय हो गया. श्रीपाद प्रभु से आज्ञा लेकर हम कुरुगड्डी से कृष्णकथवल्ली झरने की और चल पड़े.

.   ।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

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