दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ
दिगंबरा
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत
लेखक
शंकर भट्ट
हिन्दी अनुवाद
सौ. चारुमति रामदास
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्तोत्रम्
श्रीपाद वल्लभ गुरोः वदनारविन्दं
वैराग्यदीप्ति परमोज्वलमद्वितीयं।
मंद स्मितं सुमधुरं करुणार्द्र नेत्रं
संसार ताप हरणं सततं स्मरामि॥
श्रीपाद वल्लभ गुरो: करकल्पवृक्षं
भक्तेष्ट दान निरतं रिपुसंक्षयं वै।
संस्मरण मात्र चिति जागरणं सुभद्रं
संसार भीति शमनं सततं भजामि।।
श्रीपाद वल्लभ गुरोः परमेश्वरस्य
योगीश्वरस्य शिवशक्ति समन्वितस्य।
श्री
पर्वतस्य शिखरं खलु सन्निविष्टम् य
त्रैलोक्य पावन पदाब्जमहं नमामि।।
श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत की पारायण विधि
प्रथम दिन
--- अध्याय – ०१ से ०६
द्वितीय दिन----अध्याय - ०७ से १२
तृतीय दिन ----- अध्याय १३ से १८
चतुर्थ दिन ----अध्याय १८ से २२
पंचम दिन ---- अध्याय २३ से ३४
षष्ठम दिन ----अध्याय ३५ से ४२
सप्तम दिन ----४३ से ५३
श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये
“श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत” - प्रत्येक अध्याय के पठन का
फल
अध्याय पठन का फल
- .......घर
में सुख शान्ति का वास
- ----मन:
कलेशा निवारण
- नाग
दोष निवारण,
संतान-प्रतिबंधक दोष निवारण
- लड़कियों
को योग्य वर की प्राप्ति, गुरुनिंदा-दोष निवारण
- विघ्न
बाधा निवारण
- पितृ
शाप से मुक्ति
- अज्ञान-हरण,
विवेक की प्राप्ति
- संतान
प्राप्ति,
लक्ष्मी कृपा कटाक्ष प्राप्ति
- प्रारब्ध
कर्म नाश
- दुर्भाग्य
का नाश
- दुर्गुणों
से मुक्ति
- शरीर
आरोग्य की प्राप्ति
- व्यवसाय
वृद्धि,
पशुधन वृद्धि
- आपदा
निवारण , उत्साह वृद्धि
- अकारण
कलह का निवारण, पूर्व जन्म कृत दोष निवारण
- अनाकर्षण शक्ति वृद्धि
- सिद्ध
पुरुषों के आशीर्वाद
- पाप
कर्मों का नाश, भाग्य वृद्धि
- मानसिक
क्लेश निवारण
- कष्ट-नष्ट
निवारण
- अध्यात्मिक
लाभ,
पुण्य वृद्धि
- कर्म-दोष
निवारण
- ऐश्वर्य
प्राप्ति
- दांपत्य
सुख
- आर्थिक
समस्या का निराकरण
- दुर्दैव
नाश,
सत्संतान प्राप्ति
- ऐश्वर्य
लक्ष्मी प्राप्ति
- अनुकूल
एवं शीघ्र विवाह
- पितृ
देवताओं का आशीर्वाद
- उज्वल
भविष्य की प्राप्ति
- विद्या
एवम् ऐश्वर्य की प्राप्ति
- सद्गुरु
कृपा कटाक्ष की प्राप्ति
- अनुकूल
विवाह हेतु
- ऋणमोचन
हेतु
- वाक्सिद्धि
हेतु
- अनुकूल
दाम्पत्य जीवन की प्राप्ति
- जीवन
में स्थैर्य की प्राप्ति
- आत्म
स्थैर्य की प्राप्ति
- सर्प
दोष निवारण
- असाध्य
कार्य में यश की प्राप्ति
- लोक
निंदा परिहार के लिए
- खो
गया बच्चा प्राप्त होने के लिए
- अष्टैश्वर्य
प्राप्ति हेतु
- उज्वल
भविष्य की प्राप्ति हेतु
- सभी
क्षेत्रों में उन्नति हेतु
- त्वरित
विवाह हेतु
- सर्व
शुभफल प्राप्ति हेतु
- आर्त, अर्थार्थी,
मुमुक्षु जनों को चारों पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए
- समस्त कर्म दोषों से मुक्ति
- गुरुनिंदा से प्राप्त दारिद्र्य निराकरण
- जलागंड आदि से निराकरण
- सब समस्याओं के बिना प्रयत्न निवारण के लिए
- महापाप नाश हेतु
श्री
गणेशाय नमः
श्री
गुरवे नमः
श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये
अथ
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत
अध्याय
१
श्री
व्याघ्रेश्वर शर्मा का वृत्तांत
श्री महागणपति, श्री महासरस्वती, श्री कृष्ण भगवान, सर्व चराचरवासी देवी-देवताओं एवं समस्त गुरुपरंपरा के चरणों में नतमस्तक
होकर मैंने अनंतकोटी ब्रह्मांड नायक श्री दत्तप्रभू के कलियुगी अवतार श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की अवतार लीलाओं का वर्णन करने का संकल्प लिया है.
अनुसूया-अत्रिनंदन भगवान
श्री दत्तात्रेय ने आंध्रप्रदेश के पीठिकापुरम गाँव में श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से
अवतार लिया. जिनके दिव्य चरित्र का समुचित वर्णन अनेक पंडित एवम् विद्वान भी न कर
सके, वही करने का दुस्साहस मैं केवल आप जैसे थोर, विद्वान श्रोताओं के आशीर्वाद के फलस्वरूप ही कर रहा हूँ.
मैं, शंकर भट्ट, देशस्थ कर्नाटकी स्मार्त ब्राह्मण हूँ.
मेरा जन्म भारद्वाज गोत्र में हुआ. जब मैं श्रीकृष्ण दर्शन के लिए ‘उड़पी’ तीर्थक्षेत्र गया था तो वहाँ नयन मनोहर,
मोरमुकुटधारी श्रीकृष्ण ने मुझे मंत्रमुग्ध कर दिया. उन्होंने मुझे कन्याकुमारी
जाकर कन्यका कुमारी के दर्शन करने की आज्ञा दी. तदनुसार मैंने कन्याकुमारी जाकर,
त्रिवेणी सागर में स्नान करने के उपरांत श्री कन्यका देवी के दर्शन किये. मंदिर के
पुजारी बड़े श्रद्धाभाव से देवी की पूजा कर रहे थे. मेरे द्वारा प्रस्तुत लाल पुष्प
उन्होंने श्रद्धापूर्वक देवी को समर्पित किया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो देवी अम्बा मेरी और स्नेहसिक्त दृष्टि से देख रही हैं. वह कह रही
थीं, “शंकर, तेरे अंतर्मन की भक्ति से
मैं प्रसन्न हूँ. तू कुरवपुर क्षेत्र जाकर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन से
अपने जीवन को सार्थक बना. उनके दर्शनों से मन को, अंतरात्मा
को होने वाले आनंद की अनुभूति अवर्णनीय है.”
अम्बा माँ का आशीर्वाद लेकर
मैंने अपनी यात्रा आरंभ की और थोड़ी दूर पर स्थित ‘मरुत्वमलै’ गाँव पहुंचा. लंका
में राम-रावण संग्राम में लक्ष्मण पर इन्द्रजीत ने शक्ति से वार किया, जिसके फलस्वरूप लक्ष्मण अचेत हो गए. तब श्री हनुमान जी संजीवनी बूटी समेत
द्रोणाचल पर्वत उठा लाये थे. संजीवनी बूटी के प्रयोग से जब लक्ष्मण सचेत हो गए, तो हनुमान जी उस पर्वत को वापस अपने स्थान पर ले चले. मार्ग में उस पर्वत
का एक बड़ा टुकड़ा यहाँ गिर पडा. इसी को ‘मरुत्वमलै’ कहते हैं. यह स्थान बड़ा रमणीय है. यहाँ अनेक गुफाएं हैं, जिनमें अनेक सिद्ध पुरुष गुप्त रूप से तपस्या करते हैं.
मैंने सारी गुफाओं के दर्शन
करने आरंभ किये. एक गुफा में मैंने एक व्याघ्र को शांत मुद्रा में बैठे देखा. उसे
देखते ही मैं भय से कांपने लगा और घबराकर जोर से चिल्लाया, “श्रीपाद!
श्रीवल्लभ!” उस निर्जन वन में
मेरी पुकार की प्रतिध्वनि भी उतनी ही जोर से सुनाई दी. उस आवाज़ को सुनकर उस गुफा
से एक वृद्ध तपस्वी बाहर निकले और बोले, “हे बालक, तू धन्य है! इस निर्जन वन में श्रीपाद श्रीवल्लभ
के नाम की प्रतिध्वनि गूँजी है. श्री दत्त प्रभु ने कलियुग में श्रीपाद श्रीवल्लभ
इस नाम से अवतार लिया है. यह बात केवल योगी, ज्ञानी, परमहंस जनों को ही ज्ञात है. तू भाग्यवान है
इसीलिये इस पुण्य क्षेत्र में आया. तेरी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी. तुझे श्रीपाद
श्रीवल्लभ के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होगा. इस गुफा के प्रवेशद्वार पर बैठा हुआ
व्याघ्र एक ज्ञानी महात्मा है. उन्हें प्रणाम कर.” मैंने बड़ी नम्रता से उस व्याघ्र
को नमस्कार किया. व्याघ्र ने तत्काल ऊं शब्द का उच्चार किया, उस आवाज़ से पूरा ‘मरुत्वमलै’
गूँज उठा. फिर उस व्याघ्र ने बड़े मीठे
स्वर में “श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये” का जाप किया. तभी एक चमत्कार हुआ.
उस व्याघ्र के स्थान पर एक दिव्य कांति वाला पुरुष प्रकट हुआ. उसने वृद्ध तपस्वी
को साष्टांग दंडवत किया और निमिषमात्र में आकाश में लुप्त हो गया. वे वृद्ध तपस्वी मुझे आग्रहपूर्वक अपनी गुफा में ले गए.
गुफा में पहुंचकर उन्होंने केवल संकल्प मात्र से अग्नि प्रज्वलित किया. उसमें
आहुति देने के लिए आवश्यक पवित्र सामग्री, मधुर फलों का निर्माण किया. वैदिक मंत्रोच्चार
सहित इस सामग्री की अग्नि को आहुति दी.
वे वृद्ध तपस्वी बोले, “इस कलियुग में
यज्ञ-याग, सत्कर्म, सभी
लुप्त हो चुके हैं. मानव इस पंचभूतात्मक सृष्टि से केवल सभी प्रकार के लाभ पाना चाहता है, मगर उन देवताओं का उसे विस्मरण हो जाता है. ऐसा ही हो
गया है मानव स्वभाव. देवताओं का प्रेम प्राप्त करने के लिए यज्ञ करके उन्हें संतुष्ट
करना चाहिए. उनके कृपाप्रसाद से ही प्रकृति मानव के लिए अनुकूल बनती है. प्रकृति
की किसी भी शक्ति का प्रकोप मानव सहन नहीं कर सकता. मानव को प्राकृतिक शक्तियों की
यथोचित मार्ग से शान्ति करना चाहिए, अन्यथा अनेक संकट उत्पन्न होते हैं. यदि मानव
धर्माचरण नहीं करता, तो प्रकृति समय आने पर उसे दण्ड देती है. लोकहित के लिए ही
मैंने यह यज्ञ किया है. इस यज्ञ की फलप्राप्ति के रूप में तुझे श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी के दर्शन होंगे. जन्मजन्मान्तर के पुण्यों के फलस्वरूप ही इस अनुग्रह की
प्राप्ति होती है.”
उन
वृद्ध तपस्वी के मुख से निकले इस पवित्र वाक्प्रवाह से मैं मंत्रमुग्ध हो उठा और
मैंने अत्यंत नम्रतापूर्वक उन्हें साष्टांग दंडवत किया. मैंने उन तपस्वी के चरणों
में प्रार्थना की, “हे ऋषिवर, मैं न तो
पंडित हूँ, न योगी और न ही साधक. मैं अल्पमति हूँ. मेरे मन में उठ रहे संदेहों का
निवारण करके कृपया मुझ पर अपना वरदहस्त रखें.” उस महापुरुष ने मेरी शंकाओं का
समाधान करने की सहमति दर्शाई.
मैंने
पूछा, “हे सिद्ध मुनीश्वर! जब मैं कन्यका देवी के दर्शन कर
रहा था, तो देवी माँ ने कहा कि मैं कुरवपुर जाकर श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन करूँ. जब मैं कुरवपुर की यात्रा पर निकला तो मार्ग में
आपके तथा व्याघ्ररूपी महात्मा के दर्शन प्राप्त हुए. वे कौन थे? साथ ही, दत्त प्रभु अर्थात् कौन? कृपया
इस विषय में विस्तार से बताने का कष्ट करें.” तब वे वृद्ध तपस्वी बोले:
“इस
आन्ध्र प्रान्त के गोदावरी मंडल में, अत्रि ऋषि की तपोभूमि में, जो
आत्रेयपुर के नाम से प्रसिद्ध है, एक काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण परिवार रहता था. परमेश्वर
की कृपा से उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ. ब्राह्मण अत्यंत विद्वान तथा आचारसंपन्न
था, परन्तु पुत्र मूर्ख था. माता-पिता ने उसका नाम रखा
व्याघ्रेश्वर. व्याघ्रेश्वर की उम्र बढ़ रही थी, परन्तु
बुद्धि जहाँ की तहाँ थी. पिता ने उसे शिक्षा देने में कोइ कसर न छोड़ी, परन्तु वह
पूरी तरह से संध्यावंदन करने में भी असमर्थ था. गाँव वाले उसे ताने देते कि इतने
विद्वान ब्राह्मण का पुत्र और ऐसा मूर्ख! उसे यह सब अच्छा नहीं लगता. एक दिन
प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उसे एक दिव्य बालक के दर्शन हुए. वह बालक आकाश से
नीचे आ रहा था. उसके चरण कमल के स्पर्श से उस स्थान की भूमि भी दैदीप्यमान हो गई.
वह बालक धीरे धीरे व्याघ्रेश्वर के निकट आकर बोला, “मेरे
होते हुए तुझे किस बात का डर है? मेरे इस गाँव से ऋणानुबंध है. तू हिमालय पर्वत स्थित बदरिकारण्य जा, वहाँ तेरा कुशल-मंगल होगा.” इतना कहकर वह बालक अंतर्धान हो
गया.
उस दिव्य बालक के आदेशानुसार व्याघ्रेश्वर शर्मा ने
हिमालय स्थित बदरिकारण्य की
ओर प्रस्थान किया. मार्ग में उसे अन्न-जल की कठिनाई नहीं हुई. श्री दत्त प्रभु की
कृपा से उसे समय पर जल-पान मिल जाता. मार्ग में उसे एक कुत्ता मिला, जो बदरिकारण्य तक उसके साथ रहा. मार्ग में
उन्होंने उर्वशी-कुंड में स्नान किया. इसी समय एक महात्मा अपने शिष्य समुदाय समेत
उर्वशी-कुंड में स्नान करने के लिए पधारे व्याघ्रेश्वर ने उन्हें प्रणाम किया और
विनती की कि वे उसे अपना शिष्य बना लें. महात्मा ने व्याघ्रेश्वर
को शिष्य के रूप में स्वीकार किया और एक आश्चर्य की बात यह हुई कि तत्काल वह
कुत्ता अंतर्धान हो गया. तब वे महात्मा बोले,
“व्याघ्रेश्वर, तुम्हारे साथ आया हुआ वह श्वान तुम्हारे
पूर्व जन्म के पुण्य का प्रतीक था, उसने तुम्हें हमारे हवाले
कर दिया और वह अंतर्धान हो गया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा से ही तुम यहाँ
पहुँच कर इस पुण्यप्रद कुण्ड में स्नान कर सके. यह तपोभूमि नर-नारायण के वास्तव्य
से पुनीत हुई है,” इस पर व्याघ्रेश्वर ने पूछा, “गुरुदेव, श्रीपाद श्रीवल्लभ कौन हैं? उन्होंने मुझ पर इतनी कृपा क्यों की?”
गुरुदेव ने उत्तर दिया, “वे साक्षात दत्त प्रभु ही हैं. त्रेतायुग में महर्षि भारद्वाज ने श्री
क्षेत्र पीठिकापुरम् में ‘सावित्र काठक चयन’ नामक महायज्ञ सम्पन्न किया था. इस
यज्ञ के अवसर पर शिव-पार्वती को निमंत्रित किया गया था. उस अवसर पर शिवजी ने
महर्षि को आशीर्वाद दिया कि “आपके कुल में अनेक महात्मा,
सिद्ध पुरुष, योगी पुरुष अवतार लेंगे. अनेक जन्मों के पुण्यकर्मों के फलस्वरूप
श्री दत्त भक्ति का अंकुर प्रस्फुटित होता है, और यदि वह
निरंतर बढ़ता रहे, तब कहीं जाकर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन होते हैं. उनके
चरणस्पर्ष का, उनसे संभाषण का सौभाग्य प्राप्त होता है. हे व्याघ्रेश्वर, तुम पर स्वामी की कृपा हुई है. मैं अब मेरे गुरुदेव के दर्शन हेतु जा रहा
हूँ , एक वर्ष बाद वापस लौटूंगा. तुम लोग अपनी-अपनी गुफा में आत्मज्ञान की
प्राप्ति के लिए तपश्चर्या करो.” इतना कहकर गुरुदेव द्रोणागिरी पर्वत की और चल पड़े.
व्याघ्रेश्वर गुफा में बैठकर ध्यान करने लगा, परन्तु उसका
सारा ध्यान व्याघ्र रूप की ओर ही केन्द्रित था. इसका परिणाम यह हुआ कि उसे अपना
इच्छित व्याघ्र रूप ही प्राप्त हो गया. एक वर्ष बीत गया,
गुरुदेव यात्रा से वापस लौटे. उन्होंने सारी गुफ़ाएँ देखीं. वे हर शिष्य की साल भर
में हुई प्रगति का मूल्यांकन कर रहे थे. एक गुफ़ा में उन्हें एक व्याघ्र ध्यान
मुद्रा में बैठा दिखाई दिया. उन्हें बहुत अचरज हुआ. उन्हें अपने अंतर्ज्ञान से
ज्ञात हुआ कि वह व्याघ्र कोई और नहीं, अपितु व्याघ्रेश्वर ही
है. हमेशा व्याघ्ररूप का चिंतन करने से उसे व्याघ्र का ही रूप प्राप्त हुआ है.
उन्होंने उसे आशीर्वाद देकर ‘ऊंकार’ मन्त्र की शिक्षा दी , तथा “श्रीपाद राजं शरणं
प्रपद्ये” इस मन्त्र का जाप करने को कहा. गुरु की आज्ञानुसार व्याघ्रेश्वर ने उसी
रूप में मन्त्र का जाप प्रारम्भ किया. व्याघ्र के ही रूप में उसने कुरवपुर की ओर
प्रस्थान किया. यथावकाश वह कुरवपुर ग्राम के निकट पहुंचा, बीच में कृष्णा नदी
प्रवाहित हो रही थी. वह किनारे पर बैठकर “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” मन्त्र का
जाप करने लगा. श्रीपाद श्रीवल्लभ कुरवपुर ग्राम में अपने शिष्यों समेत बैठे थे. वे
अचानक उठे, और यह कहकर कि, “मेरा परम भक्त मुझे बुला रहा
है”, नदी के परले किनारे की और चल पड़े; पानी पर चलते हुए उनके चरण कमलों के निशान
पानी की सतह पर प्रकट हो रहे थे एवं अत्यंत सुन्दर प्रतीत हो रहे थे. स्वामी के
दूसरे किनारे पर पहुंचते ही व्याघ्रेश्वर ने उनके दिव्य चरणों पर अपना शीश रखकर
अत्यंत भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया. स्वामीने बड़े आनंद से उस व्याघ्र के मस्तक
को सहलाया और उस पर आरूढ़ होकर जल मार्ग से वे कुरवपुर पहुंचे. उन्हें व्याघ्र पर
बैठा देखकर सबको आश्चर्य हुआ. जैसे ही वे व्याघ्र की पीठ से उतरे,
उसके शरीर से एक दिव्य पुरुष बाहर आया. उसने प्रार्थना की कि स्वामी उसके
व्याघ्राजिन को आसन के रूप में स्वीकार करें. उसने बड़े भक्तिभाव से स्वामी के
चरणों में शीश झुकाया. उसके ह्रदय के अष्टभाव जागृत होकर प्रेमपूर्ण अश्रुधारा से
उसने स्वामी के चरणों पर अभिषेक किया. बड़े प्रेम से स्वामी ने उसे उठाया और बोले, “हे व्याघ्रेश्वर! किसी जन्म में तू एक अत्यंत शक्तिशाली मल्लयोद्धा था.
उस समय तू व्याघ्रों से युद्ध करके उनसे अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता था. तू
उन्हें समय पर अन्न-जल भी नहीं देता था. उन्हें जंजीरों से बांधकर लोगों के सामने
उनका प्रदर्शन करता था. इस दुष्कर्म के फलस्वरूप तुझे अनेक नीच जीव-जंतुओं की योनी
में जन्म लेना पड़ता, मगर मेरी कृपा से उन सभी दुष्कर्मों का नाश हो गया है. दीर्घ
समय तक व्याघ्र के रूप में रहने के कारण तू इच्छानुसार व्याघ्र का रूप धारण कर
सकेगा व उसे त्याग भी सकेगा. हिमालय में वास कर रहे, अनेक
वर्षों से मेरी तपस्या में लीन सिद्ध योगियों के दर्शन तुझे होंगे तथा उनके
आशीर्वाद भी प्राप्त होंगे. योगमार्ग पर चलकर तू अत्यंत प्रज्ञावान होगा.” स्वामी
ने उसे आशीर्वाद दिया.
स्वामी आगे बोले, “ तुमने हिमालय में एक अत्यंत शांत प्रकृति के व्याघ्र को देखा था न! वह
एक महात्मा है. तपश्चर्या में लीन संत पुरुषों को सामान्य जन एवं अन्य प्राणी कष्ट
न पहूँचाएँ इसीलिये उसने व्याघ्र रूप धारण किया था और वह उनकी रक्षा कर रहा था.
गुफाओं में तपश्चर्या कर रहे संतों की वार्ता एक दूसरे तक पहुंचाने का काम भी वह
व्याघ्र बड़े प्रेम से कर रहा था. यह सारी दत्त प्रभु की लीला ही है.
।।
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जय जयकार हो।। .
श्रीपाद
राजं शरणम् प्रपद्ये
अध्याय
२
सिद्ध योगी के दर्शन – विचित्रपुरी की कथा.
मैंने मरुत्वमलै
पुण्यक्षेत्र में घटित रोमांचकारी अनुभव को याद करते हुए, श्रीपाद श्री वल्लभ स्वामी का स्मरण करते हुए आगे की यात्रा आरम्भ की.
मार्ग में अनेक पुण्यात्माओं के, थोर जनों के दर्शन लेते हुए
मैं आगे चला जा रहा था. अचरज की बात यह थी कि इस यात्रा में न माँगने पर भी भोजन
मिल जाता था. पांड्य देश स्थित कदंब-वन में पहुँचने तक मेरे शरीर का वज़न शनैः-शनैः
कम होता जा रहा था. इस प्रान्त में एक अति-जागृत शिवलिंग का वास था. मैंने उसके
दर्शन किये तथा विश्रान्ति हेतु कुछ देर शिवालय में ठहरा. फिर आगे की यात्रा आरम्भ
की. मार्ग में मैंने सिद्ध योगीन्द्र नामक महान तपस्वी का आश्रम देखा. मैंने आश्रम
में जाकर उस महापुरुष के चरणों में शीश नवाया. उन्होंने बड़े वात्सल्यपूर्ण भाव से
मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखा और “श्रीपाद श्रीवल्लभ दर्शन प्राप्तिरस्तु” यह
आशीर्वाद दिया. उनके चरण स्पर्श से मेरा शरीर रुई के समान हल्का लगने लगा. वे
महायोगी बोले, “जिस शिवलिंग के तुमने दर्शन किये वह अत्यंत
जागृत है. उसकी कथा भी बड़ी मनोरंजक है. देवेन्द्र ने अपने सामर्थ्य से अनेक
राक्षसों का वध किया, परन्तु उनमें से एक राक्षस भाग गया और
उसने महादेव की तपस्या करना प्रारम्भ किया. ध्यानावस्था में बैठे उस राक्षस का
इंद्र ने बड़ी निर्दयता से वध किया. उसकी ह्त्या के कारण इंद्रा क सारा तेज लुप्त
हो गया और वह कान्तिहीन दिखाई देने लगा. इस पाप का क्षालन करने के लिए उसने अनेक
तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की. पांड्य देश स्थित कदम्ब-वन पहुँचते ही एक आश्चर्य
की बात हुई. वहाँ स्थित शिवलिंग के प्रभाव से वह पहले जैसा कान्तिमान, तेजस्वी हो गया. उसे बड़ा आनंद हुआ एवं उसके मन में उस क्षेत्र के
महात्म्य को जानने की उत्कंठा उत्पन्न हुई.
इंद्र ने बड़ी उत्सुकता से वह वन देखा. तब उसे उस दिव्य शिवलिंग के दर्शन हुए. बड़े
भक्तिभाव से उसने शिवलिंग की पूजा-अर्चना की. तत्पश्चात उस स्वयंभू लिंग के चारों
ओर इस सुन्दर देवालय का निर्माण किया. इंद्र द्वारा प्रतिष्ठापित यह शिवलिंग समस्त
पापों का हरण करने वाला, अत्यंत मंगलदायक है. पुण्यवान
व्यक्तियों को, श्री दत्त प्रभु के भक्तों को अनायास ही इसके
दर्शन हो जाते हैं.”
उन
महायोगी का यह वक्तव्य सुनकर मैं बहुत रोमांचित हो गया. बड़े श्रद्धाभाव से मैंने
उनके चरण कमलों में प्रणाम किया. तब उन्होंने मुझे दुबारा उस शिवलिंग के दर्शन
करने की आज्ञा दी. उनके आदेशानुसार मैं फिर से उस वन में पहुँचा. मुझे वहाँ एक अति
सुन्दर शिवालय के दर्शन हुए, परन्तु यह पहले वाला शिव मंदिर था ही नहीं. मुझे यह
मंदिर श्री मीनाक्षी सुन्दरेश्वर के मंदिर जैसा अप्रतिम प्रतीत हुआ. बड़ी श्रद्धा
से मैंने शिवलिंग के दर्शन किये और वापस श्री सिद्ध योगीन्द्र के पास चला. वहाँ का
परिसर मुझे जन समुदाय से भरे हुए किसी शहर जैसा प्रतीत हुआ. श्री सिद्ध योगीन्द्र
का आश्रम मुझे मिला ही नहीं. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का मन ही मन चिंतन करते हुए
मैंने जब आगे की यात्रा आरम्भ की तो सूर्यास्त हो चुका था, चारों और
अन्धेरा था. मैं आगे बढ़ा जा रहा था. मेरे पीछे-पीछे प्रकाश पुंज आता हुआ प्रतीत
हुआ; अतः मैंने पीछे मुड़कर देखा. मेरे पीछे-पीछे तीन फनों वाला एक सर्प आता दिखाई
दिया. उसके मस्तक पर तीन दिव्य मणि थे, उन्हीं का प्रकाश मुझे मार्ग दिखा रहा था. मैं अत्यंत
भयभीता हो गया. मेरे दिल की धड़कन बढ़ती जा रही थी. मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ के दिव्य
नाम का जाप करते हुए आगे बढ़ा जा रहा था. उस सर्प से आता हुआ प्रकाश मेरा मार्ग
दर्शन कर रहा था. अंत में मैं किसी तरह श्री सिद्ध योगीन्द्र के आश्रम पहुंचा. तब
वह दिव्य सर्प और उसका प्रकाश फ़ौरन अदृश्य हो गए. श्री सिद्ध योगीन्द्र ने बड़े
प्रेम से मेरा स्वागत किया और केले के पत्ते पर गरम-गरम भुने हुए चने प्रसाद
स्वरूप दिए. मैंने पेटभर चने खाए परन्तु मेरे ह्रदय की धड़धड़ कम न हुई. तब उन
दयामूर्ति योगीश्वर ने बड़े प्रेम भाव से मेरे तेज़ी से धड़कते सीने पर हाथ फेरा, फिर वह
दिव्य हस्त मेरे मस्तक पर फेरा और मेरी आँखों को भी प्रेम से स्पर्श किया. उस
करुणामय स्पर्श से मेरे ह्रदय की तेज धड़कन मानो भाग गई. साथ ही मस्तिष्क से बुरे
विचार, दुष्ट संकल्प बाहर निकल रहे हैं, ऐसा अनुभव
हुआ. मेरा ह्रदय एक अनजान
प्रसन्नता से परिपूर्ण हो गया.
श्री दत्त महिमा,
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए योग्यता.
अब सिद्ध योगीन्द्र बोले, “तुमने
पहले जिस शिवलिंग के दर्शन किये वह शिवलिंग और बाद में जिसके दर्शन किये वह श्री
सुन्दरेश्वर का मंदिर, ये दोनों अलग-अलग मंदिर नहीं हैं. तुम्हें इस प्रकार का
अनुभव प्राप्त हो ऐसी प्रभु श्री दत्तात्रेय की आज्ञा थी. इसलिए तुम्हें अलग-अलग
मंदिर दिखाई दिए. श्री दत्त प्रभु के कृपा प्रसाद से काल को पीछे ले
जाकर देवेन्द्र द्वारा
प्रतिष्ठापित शिवलिंग, उस काल का परिसर तुम्हें दिखाया. तुमने जो देखी वह सारी सृष्टि (उसे सृष्टि समझना माया का खेल ही
है. सब कुछ चैतन्य स्वरूप है.) श्री दत्त प्रभू की केवल इच्छा मात्र से भविष्य से
वर्त्तमान में बदल सकती है, वर्त्तमान काल
भूतकाल में तथा भूतकाल वर्त्तमान में परिवर्तित हो सकता है. भूतकाल में घटित सारी
घटनाएँ, वर्त्तमान में घटित हो रही घटनाएँ तथा भविष्य में घटने वाली घटनाएँ श्री
दत्त प्रभु की इच्छानुसार घटित होती हैं. किसी घटना के घटित होने या न होने, या
किसी अन्य प्रकार से घटित होने का कारण
श्री दत्त प्रभु की इच्छा है. जिस इच्छा से सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व विनाश होता है उस महान इच्छा शक्ति के प्रणेता प्रत्यक्ष श्री
दत्तप्रभु ही हैं. वे ही सगुण रूप में पीठिकापुरम् क्षेत्र में श्रीपाद श्रीवल्लभ
नाम से अवतरित हुए हैं. वहाँ के लोगों ने उनके सत्य स्वरूप को नहीं जाना, परन्तु
कुरवपुर के मछेरों ने उन पर संपूर्ण श्रद्धा रखी और अल्पज्ञ होते हुए भी वे स्वामी
की कृपा से प्रसन्नता पूर्वक भवसागर पार कर गए. श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा प्राप्त
करने के लिए यह आवश्यक है कि अपने भीतर का अहंकार पूरी तरह से समाप्त हो जाए. जब
आपका ह्रदय काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन षडरिपुओं
से मुक्त होकर शुद्ध हो जाए तो स्वामी की कृपा होने में ज़रा भी विलम्ब न होगा.
“देवेन्द्र द्वारा
प्रस्थापित उस शिवलिंग को धनञ्जय नामक व्यापारी ने देखा. उसने इस शिवलिंग की महिमा
का वर्णन अपने देश के राजा कुलशेखर पांड्य के सम्मुख किया. इसे शिव की आज्ञा समझकर
राजा ने मंदिर का जीर्णोद्धार किया और वहाँ एक नगर की स्थापना की. यह नगर मधुरा
नगर कहलाया. कुलशेखर का पुत्र मलयध्वज अपने पिता के ही समान ईश्वरभक्त था. उसने
संतान प्राप्ति हेतु “पुत्र कामेष्टी” यज्ञ किया था. उस यज्ञकुण्ड से तीन वर्ष की
एक अति सुन्दर कन्या प्रकट हुई, यह देखकर राजा तथा
यज्ञ कर रहे सभी विप्र एवम् ऋषिगण अति आनंदित हुए. यह कन्या थी मीनाक्षी देवी.
उनका विवाह आगे चलकर सुन्दरेश्वर के साथ हुआ. इस विवाह में स्वयम् विष्णु भगवान ने
कन्यादान किया था. विवाह समारंभ बड़े शानदार ढंग से आयोजित किया गया. शिवजी की जटा
से निकली वेगवती नदी, मधुरानगरी से होकर बहती थी, और उसके निकट का प्रदेश अति उपजाऊ तथा नैसर्गिक रूप से अति सुन्दर हो गया था.”
श्री सिद्ध योगीन्द्र आगे
बोले, “हे वत्स! सृष्टि में उपस्थित हर वस्तु में
स्पंदन होता रहता है. भिन्न-भिन्न प्रकार के स्पंदनों के कारण दो व्यक्तियों के
बीच आकर्षण या विकर्षण होता है. पुण्य कर्मों, उत्तम
आचार-विचारों के कारण स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह में
पुण्य-स्पंदन होते हैं. पाप कर्मों से पाप-स्पंदन होते हैं. व्यक्ति के पुण्य
कर्मों के फलस्वरूप उसे पुण्यवान व्यक्ति की अर्थात् सत्संग की प्राप्ति होती है, पुण्य क्षेत्रों के दर्शन का लाभ होता है, पुण्य
कर्मों में आसक्ति होकर पुण्य कर्म बढ़ता जाता है और पापों का नाश होता है. इस सबके
फलस्वरूप श्री दत्त प्रभु की भक्ति प्राप्त होती है. वत्स! शंकर भट्ट, तुम पर श्रीपाद श्रीवल्लभ की अपार कृपा हुई है तभी तुम यहाँ आ सके.”
मुझे रात में अपने सौभाग्य पर अचरज हो रहा था. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शनों की छटपटाहट प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी. कब कुरवपुर
जाकर स्वामी के चरणों में माथा टेकूंगा, ऐसी बेचैनी
बढ़ती जा रही थी. ऐसी अवस्था में मैं सो गया. दूसरे दिन सुबह जागा तो मुझे आश्चर्य
का धक्का लगा. मैं एक ऊँची पहाड़ी पर पीपल के पेड़ के नीचे था. आसपास कोई न था. रात
में मैं श्री सिद्ध योगीन्द्र के आश्रम में रुका था, वह
आश्रम कहीं दिखाई नहीं दे रहा था. मुझे संदेह हुआ कि रातभर जिस आश्रम में रुका, जहाँ मैंने श्री सिद्ध योगीन्द्र के वचनामृत का पान किया था, क्या वह भ्रम था? मन में अनेक प्रकार के संदेह उठने
लगे, तब मैंने अपना सामान समेटा और आगे चल पड़ा.
मैं सुबह से निकला था, मगर दोपहर हो गई थी फिर भी चल ही रहा था. थोड़ी देर में एक छोटा सा गाँव
दिखाई दिया. मुझे बहुत भूख लगी थी. मैं ब्राह्मणों के सिवा किसी और घर में अन्न
ग्रहण नहीं करता था. उस गाँव में एक भी ब्राह्मण नहीं था. वह गाँव गिरिजनों का था.
उस गाँव का मुखिया मेरे निकट आकर बोला कि इसा गाँव में एक भी ब्राह्मण नहीं है. हम
आपको फल तथा शहद अर्पित करते है. उस वृद्ध मुखिया ने मुझे फल और शहद दिया. मैं फल
खाने ही वाला था कि एक कौआ उड़कर आया और मेरे सिर पर चोंच मारने लगा. मेरे सिर में
घाव हो रहे थे. मैंने उसे भगाने की बहुत कोशिश की मगर वह व्यर्थ हुई. तभी निकट के
ही वृक्ष से अचानक चार-पाँच कौए आये और वे मेरे हाथों पर,
कन्धों पर बैठकर अपनी चोंचों से मेरे हाथों-पैरों पर घाव करने लगे. मैं फल और शहद
वहीं छोड़कर भागा. वह वृद्ध मुखिया कह रहा था कि शायद मैंने किसी सिद्ध पुरुष की
निंदा की है इसीलिए कौए मुझे सता रहे हैं. मुझे याद आया कि मेरे मन में श्री सिद्ध
योगीन्द्र के संबंध में संदेह उत्पन्न हुआ था, उसी अपराध का
यह दंड था. मेरा शरीर लहुलुहान हो रहा था. मैं भागे जा रहा था, कौए मेरा पीछा किये जा रहे थे. मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
की प्रार्थना की और विनती की, कि मुझे इस संकट से मुक्ति
दें. तभी मुझे अपने सामने औदुम्बर (गूलर) का वृक्ष नज़र आया. मैं उस वृक्ष के नीचे
विश्राम करने लगा. तब मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे शरीर से एक प्रकार की दुर्गन्ध
आ रही है. इस दुर्गन्ध के कारण निकट की बांबी से अनेक सर्प बाहर आकर मुझे दंश करने
लगे. उनके विष से मैं मृतप्राय हो गया. मुख से फेन निकल रहा था. ह्रदय गति धीमी
होती जा रही थी. किसी भी समय मेरी मृत्यु हो सकती थी. शाम हो गई थी. धोबी कपड़े
धोकर, सुखाकर उनकी गठरियाँ गधों पर लादकर घरों को जा रहे थे.
मेरी अवस्था देखकर उनके मन में दया जागी. उन्होंने मुझे एक गधे पर बिठाया और अपने
गाँव के चर्म वैद्य के पास लाये. वैद्य जी ने जंगल की कुछ जडी-बूटियों का रस निकाल
कर मुझे पीने को दिया. जिन स्थानों पर सर्पों ने दंश किया था वहाँ कुछ पत्ते
बांधे. पीपल के कोमल पत्तों का रस निकालकर उसे घावों पर लगाया. मेरे दोनों कानों
में पीपल के पत्तों के डंठल रखे थे. जैसे-जैसे विष पीपल के पत्तों में उतरने लगा, वैसे-वैसे वेदना असह्य होकर मैं चिल्लाने लगा. विष पूरी तरह से उतर जाने पर
मुझे कुछ आराम मिला. वह रात मैंने वैद्यराज के घर पर ही गुजारी. वैद्य जी श्री
दत्त प्रभु के भक्त थे. रात के समय वे अपने परिवारजनों समेत दत्त प्रभु के भजन गा
रहे थे. मैं पलंग पर लेटा था. उनके मधुर कीर्तन-गायन से मेरा ह्रदय श्री दत्त
प्रभु की कृपा का अनुभव कर विह्वल हो रहा था. वैद्य राज द्वारा किये गए उपचारों से
मैं पूरी तरह ठीक हो गया था . उनका ऋण कैसे चुकाऊँ यह मैं समझ नहीं पा रहा था. भजन
समाप्त करके वैद्यराज मेरे पास
आए. उनके नेत्रों से करुणा छलक रही थी. वे बोले,
“मेरा नाम वल्लभदास है. मैं चर्मकारों का वैद्य हूँ. मैं नीच जाति का होते हुए भी
यह जानता हूँ कि आप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शनों के लिए निकले हैं, आपको कौओं ने क्यों सताया और साँपों ने क्यों दंश किया यह भी मुझे ज्ञात
है. आपका नाम शंकर भट्ट है, यह मुझे मालूम है.”
उनके इस अचूक कथन से मैं
अवाक रह गया. मैंने सोचा कि शायद वैद्यराज को ज्योतिष का ज्ञान है. जैसे ही मेरे
मन में यह विचार उठा, वल्लभदास बोले, “मैं कोई ज्योतिषी नहीं. श्री पीठिकापुर मानो पंडितों का मातुल गृह है.
“सांगवेदार्थ” की उपाधि से विभूषित श्री मल्लादी बापन्ना अवधानुलू ने भी इसी
पुण्यभूमि में वास किया था. परन्तु वेदों के प्रकांड पंडित अहंकारवश श्रीपाद
श्रीवल्लभ के वास्तविक स्वरूप को न पहचान सके. शुष्क वेदान्त करने वाले, अर्थहीन
तर्क-वितर्क करने वाले पंडित श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा के पात्र न बन सके.
तुम्हें चोंच मारने वाले कौए पूर्वजन्म में पीठिकापुरम में वास कर रहे महा अहंकारी
पंडित ही थे. उन्होंने अपना जीवन श्रीपाद श्रीवल्लभ की महिमा को न जानते हुए, अपने ज्ञान के अहंकार में व्यर्थ गंवाया. मृत्यु के पश्चात् वे स्वर्गलोक
गए. वहाँ इंद्र ने वेदपंडित घनपाठी के रूप में उनका सत्कार किया. परन्तु जब उन्हें
भूख लगी और प्राण व्याकुल होने लगे, तो उन्हें खाने के लिए
किसी ने कुछ नहीं दिया. इंद्र ने कहा, “यदि पृथ्वी पर रहते
हुए आप लोगों ने दान धर्म किया होता, तो एक-एक दाने के बदले
हज़ार-हज़ार दाने हमसे प्राप्त होते. परन्तु क्योंकि आपने किसी को भी कोई दान नहीं
दिया, अतः हम आपको कुछ भी नहीं दे सकते. आप इस लोक में
स्वेच्छा से चाहे जितने काल तक रह सकते हैं.” मगर अन्न-जल के बिना सारे स्वर्गसुख
दंडस्वरूप ही थे. इंद्र आगे बोले, “हे पंडितों, पादगया जैसे पवित्र स्थल में रहकर भी आपने कभी अपने पितरों को श्रद्धा, भक्ति एवँ निष्ठा से पिंडदान नहीं किया. माता-पिता का यथोचित सम्मान न
करते हुए बारबार यही कहते रहे कि उनकी दवादारू में इतना-इतना खर्च हुआ. यह
कृतघ्नता ही थी. अपने मद में आप इतने अंधे हो गए कि श्रीपाद श्रीवल्लभ को दत्त
प्रभु का अवतार नहीं माना. श्रीपाद श्रीवल्लभ के नामस्मरण से पवित्र हुए भक्त का
रक्त प्राशन करने से ही तुम्हें उत्तम गति प्राप्त होगी.”
वल्लभदास सारी कथा सुना रहा
था, वह बोला, “शंकर भट्ट, ये
कौए, वे सब पूर्वजन्म के अहंकारी पंडित थे. उन्होंने
तुम्हारा रक्त प्राशन किया और वे उत्तम गति को प्राप्त हुए.” वल्लभदास आगे बोला.
“ब्राह्मण को सत्यनिष्ठ होना चाहिए, क्षत्रिय को धर्मबद्ध होना चाहिए, वैश्य व्यवसाय, व्यापार, गायों की रक्षा, क्रय-विक्रय आदि करे.
शूद्र प्रेम से सेवा करे. मगर जहाँ तक ईश्वर भक्ति का प्रश्न है, उसके सम्मुख वर्ण, जाति, कुल,
अमीरी-गरीबी, स्त्री, पुरुष यह भेदभाव
नहीं है. ईश्वर अपने भक्त के प्रेमभाव को, उसकी श्रद्धा और
दृढ विश्वास को ही देखता है. मानव चाहे किसी भी वर्ण में जन्म ले, कर्म उसे अपने धर्म के अनुसार ही करना चाहिए.”
वल्लभदास आगे बोले, “जब तुम छोटे थे तो विष्णुमूर्ति के ध्यान-श्लोक का पठन कर रहे थे, उस समय तुमने विनोद बुद्धि से एक श्लोक का गलत अर्थ अपने मित्र को बताया.
वह श्लोक था, “शुक्लांबरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् .
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशान्तये.”
इस श्लोक का विनोद्बुद्धि से
अर्थ बतलाना श्री दत्त प्रभु को अच्छा नहीं लगा. उसीके दंडस्वरूप धोबी गधे पर
बैठाकर तुम्हें यहाँ लाये. अंत में चर्मकारों के गाँव में तुम्हें पहुँचाया.
तुम्हारी ऐसी दुर्गति करने के पीछे श्रीपाद श्रीवल्लभ की यह मंशा थी, कि विनोद करते हुए तुम्हें कोई पाठ पढ़ाकर तुम्हारे मन के अहंकार को दूर
करें. यह बात सदैव ध्यान में रखना कि उस दयाघन श्रीपाद श्रीवल्लभ की हर पल हम पर
दयादृष्टि रहती है.”
श्री वल्लभदास के हितोपदेश
से मैं धन्य हो गया. मेरे भीतर ब्राह्मण होने का जो अहंकार था, वह नष्ट हो गया. मैंने वल्लभदास के आतिथ्य को स्वीकार किया. दो-तीन दिन
वहाँ रहकर मैं चिदम्बर की और चला. चिदम्बर
पहुँचनें से पहले मैं विचित्रपुर गया. वहाँ का राजा भी विचित्रता से
व्यवहार कर रहा था. उसका एक पुत्र था परन्तु वह मूक था, अतः
राजा सदैव उदास रहता था. उसे संदेह था कि ब्राह्मणों के ‘लोपभूइष्ट’ (यज्ञ कर्म लोप) यज्ञ करने के कारण ही उसका पुत्र मूक हो गया है. वह
ब्राह्मणों का अपमान करके उन्हें गधे पर बिठाकर घुमाता. वह ब्राह्मणों को दान के
रूप में राजगिरे की भाजी दिया करता. उस राज्य में ब्राह्मण अपने अहंकार को भूल कर
अत्यंत दयनीय स्थिति को प्राप्त हो गए थे. एक विद्वान ब्राह्मण को राजा ने मूक
भाषा पर ग्रन्थ लिखने की आज्ञा दी. उस राजाज्ञा के अनुसार वे राजगुरू मूकभाषा पर
संशोधन कर रहे थे.
शंकर
भट्ट और राजा का संवाद
राजा के सैनिकों ने मुझसे
पूछा कि क्या मैं ब्राह्मण हूँ . मैंने स्वीकारोक्ति स्वरूप गर्दन हिलाई तो वे
बोले, “आपको महाराज सादर निमंत्रित करते हैं” और मुझे राजमहल चलने की प्रार्थना
की. मैं उनके साथ जाकर राजा के सामने खड़ा हो गया. डर के मारे मुझे पसीना आ रहा था.
तब मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ की प्रार्थना की और उनके नाम का जाप करने
लगा.
राजा ने मुझसे पहला प्रश्न
पूछा, “उतने का इतना, तो इतने का
कितना होगा?”
मैंने गंभीरता से कहा, “इतने का इतना ही होगा.” मेरे उत्तर से राजा को आश्चर्य हुआ और वह बोला, “महात्मन् आप बड़े पंडित हैं, आपके दर्शन से मैं
धन्य हुआ.”
राजा ने अपने पूर्व जन्म की
स्मृतियों का वर्णन करना आरम्भ किया. पिछले जन्म में वह ब्राह्मण था. उसके घर
राजगिरे की भाजी लगा करती थी. यह भाजी वह सबको दिल खोल कर दिया करता था. उसके
सहपाठी इस ब्राह्मण द्वारा अपने यजमानों के घर पूजा, अर्चा, अभिषेक आदि करवा लेते. मगर यजमानों द्वारा दी गई दक्षिणा में से अधिकाँश
स्वयं रखकर इसे बहुत थोड़ी दक्षिणा देते. उसके घर के राजगिरे की भाजी भी मुफ्त में
ले लेते. अगले जन्म में उस गरीब ब्राह्मण ने राजा के यहाँ जन्म लिया और उसे सताने
वाले, उसे लूटने वाले ब्राह्मण भी इसी राज्य में ब्राह्मण के
रूप में जन्मे. वह राजा पिछले जन्म में दी गई राजगिरे की भाजी के दान का अनेक गुना
दान इस जन्म में भी दे रहा था. इस अपरिमित दान का उसे क्या फल मिलेगा इस प्रश्न का
उत्तर वह चाहता था. मैंने राजा से कहा, “महाराज, राजगिरे की भाजी चाहे जितनी भी दान करें, इसीका सौ
गुना आपको प्राप्त होगा. वर्त्तमान परिस्थिति में रत्न, मोती, सोना इत्यादी का दान करना आपके लिए हितकर होगा.” मेरे उत्तर से राजा को
प्रसन्नता हुई. अब अगला प्रश्न था मूक भाषा से संबंधित.
राजगुरू ने मेरी परिक्षा
लेने के लिए अपनी दो उंगलियाँ दिखाकर “एक अथवा दो” ऐसा इशारे से ही पूछा. मैंने
समझा कि वह मुझसे पूछ रहे हैं, कि क्या मैं अकेला
हूँ अथवा मेरे साथ कोई और भी है. “मैं अकेला ही हूँ” यह उत्तर देने के लिए मैंने
एक ही उंगली दिखाकर इशारे से ही जवाब दिया. उसके बाद उन्होंने तीन उंगलियाँ
दिखाईं. तीन संख्या देखते ही मुझे श्री दत्तात्रेय की त्रिमूर्ति का स्मरण हो आया.
मैंने समझा, वह मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या मैं दत्त भक्त हूँ?” मैंने कहना चाहा कि भक्ति गुप्त रखना चाहिए, इस
आशय से हाथ की मुट्ठी बांधकर उन्हें दिखाई और यह कहना चाहा कि भक्ति का तात्पर्य
अंतर्मन से है. फिर राजगुरू ने इशारों में मुझसे कहा कि वे मिष्ठान्नों का भण्डार
ही मुझे देना चाहते हैं, परन्तु मैंने हाथ से इनकार कर दिया
और मेरे पास पुडिया में जो पोहे थे, उसमें से कुछ उन्हें
दिए. मुझे मिष्ठान्नों की अपेक्षा पोहे अधिक पसंद हैं, ऐसा
मेरा तात्पर्य था, आप भी इनका स्वाद ले सकते हैं.
मेरे उत्तरों से राजगुरू
बहुत प्रसन्न हुए और राजा से बोले. “राजा, ये बहुत बड़े
पंडित हैं, मूक भाषा के भी ये महान पंडित हैं.”
दो परीक्षाओं में तो मैं सफल
हो गया था, अब तीसरी परिक्षा मुझे चुनौती दे रही
थी. राजगुरू ने कहा, “ ‘चमक’ के श्लोक
पढ़कर उसका अर्थ बताएं!” मैंने मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ का स्मरण करते हुए श्लोक
पढ़े और उनका अर्थ सभा के सम्मुख स्पष्ट किया. मेरे द्वारा बताया गया भावार्थ इस
प्रकार था:
“एकंचमे” का अर्थ है एक.
“तिस्त्रश्चमे” अर्थात् एक में यदि तीन मिलाए जायें तो योग होगा चार और उसका
वर्गमूल होगा दो. “पंचचमे” अर्थात् चार में पाँच जोड़ें तो योग होगा नौ, इसका वर्गमूल होगा तीन. “सप्तचमे” – इस नौ में सात जोड़ने से प्राप्त
होंगे सोलह, जिसका वर्गमूल है चार. “नवंचमे” – अर्थात् सोलह
में नौ जोड़ने से प्राप्त होंगे पच्चीस और इसका वर्गमूल होगा पाँच. “एकादशचमें”
अर्थात् ऊपर प्राप्त पच्चीस में ग्यारह जोड़ने से योग होगा छत्तीस, जिसका वर्गमूल होगा छह. “त्रयोदशचमे” से तात्पर्य है, इस छत्तीस में यदि तेरह मिलाये जाएँ, तो प्राप्त
होंगे उनचास, जिसका वर्गमूल है सात. “ पंचदशचमे” – अर्थात्
ऊपर प्राप्त उनचास में यदि पंद्रह जोड़ें तो प्राप्त होंगे चौंसठ, जिसका वर्गमूल होगा आठ . “सप्तदशचमे” का
अर्थ है, इस चौंसठ में यदि सत्रह मिलाए जाएँ, तो योग होगा इक्यासी और इसका वर्गमूल होगा नौ. “नवदशचमे” अर्थात् इस
इक्यासी में उन्नीस जोड़ने से प्राप्त होंगे सौ, जिसका
वर्गमूल है दस. “एकविन्शतिश्चमे” अर्थात ऊपर प्राप्त सौ में इक्कीस मिलाने से योग
होगा एक सौ इक्कीस, जिसका वर्गमूल है ग्यारह. “त्रयोविन्शतिश्चमे” से तात्पर्य है
इस एक सौ इक्कीस में तेवीस का अंक जोड़ने से प्राप्त होंगे एक सौ चवालीस, जिसका वर्गमूल होगा बारह. “पंचविन्शतिश्चमे” अर्थात् ऊपर प्राप्त एक सौ
चवालीस में पच्चीस मिलाएँ जाये तो योग होगा एक सौ उनहत्तर,
इसका वर्गमूल होगा तेरह. “सप्तविन्शतिश्चमे” का अर्थ है,
उपरोक्त उनहत्तर में सत्ताईस जोड़ने से प्राप्त होंगे एक सौ छियानवे, और इसका वर्गमूल होगा चौदह. “नवविंशतिश्चमे” अर्थात् उपरोक्त एक सौ
छियानवे में उनतीस जोड़ने से योग होगा दो सौ पच्चीस. और इसका वर्गमूल आयेगा पंद्रह.
“एकत्रिन्शश्चमे” का तात्पर्य है उपरोक्त दो सौ पच्चीस में यदि इकतीस जोड़े जाएँ, तो योग होगा दो सौ छप्पन और इसका वर्गमूल होगा सोलह.
“त्रयस्त्रिन्शश्चमे” अर्थात् उपरोक्त दो सौ छप्पन में तेहतीस जोड़ने पर प्राप्त
होंगे दो सौ नवासी, जिसका वर्गमूल होगा सत्रह.
मेरे इस प्रवचन पर मुझे
स्वयँ को भी आश्चर्य हो रहा था. जो कुछ भी मैं कहा रहा था वहा सब सृष्टि के
परमाणुओं का रहस्य था. इसका ज्ञान कणाद ऋषि को था. परमाणु के सूक्ष्म कणों की
भिन्नता के फलस्वरूप ही विविध धातुओं का निर्माण होता है. मेरा प्रवचन दरबार में
सभी को बहुत पसंद आया.
राजा के सभी प्रश्नों का
समुचित उत्तर देने के कारण तथा श्री श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा के फलस्वरूप मैं उस
विचित्रपुर नगरी से सही सलामत बाहर निकल आया.
“श्रीपाद
श्रीवल्लभ की जय जयकार हो.” “
“
श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये “
अध्याय ३
पळनीस्वामी के दर्शन – कुरवपुर के श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी के स्मरण की महिमा.
विचित्रपुर से निकल कर मैं
तीन दिन तक चलता रहा. मार्ग में अन्न-जल की व्यवस्था ईश्वर की कृपा से होती रही.
चौथे दिन मैं अग्रहारपुर पहुँचा. वहाँ एक ब्राह्मण के घर के सम्मुख खड़े होकर “ऊँ
भिक्षां देही” कहकर भिक्षा मांगी. उस घर से एक अति क्रोधित स्त्री बाहर आकर बोली, “भात नहीं, लात नहीं”. मैं थोड़ी देर उसी प्रकार
द्वार के सामने खडा रहा. थोड़ी देर में गृह स्वामी बाहर आकर बोले, “मेरी पत्नी ने गुस्से में आकर मेरे सर पर मिट्टी का घडा फोड़ दिया और अब
यह कहकर कि ‘इसकी कीमत जितने पैसे लाकर दो’, मुझे घर से बाहर
निकाल दिया. मैं आपके साथ आता हूँ. दोनों मिलकर भिक्षा मांगेंगे.” मैंने कहा, “समस्त जीवों को अन्न-जल देने वाले सर्वव्यापी श्री दत्त प्रभु ही हैं.
चलो, हम सामने वाले पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर उनका
नाम-स्मरण करें.” हम दोनों पीपल के उस विशाल वृक्ष के नीचे बैठकर श्री दत्त प्रभु
का भजन करने लगे. भूख के कारण मुख से आवाज़ भी मुश्किल से निकल रही थी. तभी वहाँ
विचित्रपुर के राजदूत आये. वे बोले, “हमारे युवराज का
गूंगापन दूर हो गया है. अब वे बोल सकते हैं. राजासाहेब ने हमें आज्ञा दी है कि
आपको उनके पास लाया जाए. आप हमारे साथ घोड़े पर चलिए.”
मैंने कहा, “मैं अकेला नहीं आऊँगा, यदि मेरे मित्र को भी साथ आने देंगे, तो मैं आऊँगा.” राजदूतों ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली. हम दोनों को
घोड़े पर बिठाकर वे राजप्रासाद की और चले. उस गाँव के लोग आश्चर्य से देख रहे थे.
राजमहल में पंहुचने पर राजा ने हमारा स्वागत किया, और कहा,
“आपके जाने के बाद युवराज अचानक बेहोश हो गया. हम घबरा गए. राजवैद्य को बुलावा
भेजा, परन्तु उनके आने से पूर्व ही युवराज को होश आ गया.
आँखें खोलकर वह “दिगंबरा, दिगंबरा,
श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा” इस मन्त्र का जाप करने लगा. कुछ देर बाद युवराज ने बताया
कि जब वह बेहोश था तो उसके पास सोलह-सत्रह वर्ष का अत्यंत तेजस्वी, दैदीप्यमान, कान्तियुक्त यति आया. उसने युवराज की
जिह्वा पर विभूति लगाई और उसी क्षण युवराज को वाचा प्राप्त हुई.” राजा ने पूछा, “वे यति कौन थे? श्री दत्त प्रभु से उनका क्या
सम्बन्ध है? कृपया विस्तारपूर्वक बताएँ .”
मैंने कहा कि युवराज ने जिस
सोलह-सत्रह वर्ष के दिव्यस्वरूप यति को देखा, वे श्री
श्रीपाद श्रीवल्लभ थे. उन्होंने ही युवराज को वाचा प्रदान की है. वे श्री दत्त
प्रभु के कलियुगीन अवतार हैं. उनके दर्शनों के लिए ही मैं कुरवपुर क्षेत्र जा रहा
हूँ. मार्ग में अनेक पुण्य पुरुषों के, संत-महात्माओं के
दर्शनों का लाभ हो रहा है. दरबार में बैठे सभी लोगों ने श्रीपाद श्रीवल्लभ का
जयजयकार किया. राजा ने मुझे तथा मेरे साथ आए उस व्यक्ति को सुवर्ण मुद्राएँ दान
में दीं. उन्हें लेकर हम चल पड़े. राजा के राजगुरु ने कहा,
“आपके कारण हमारा ज्ञानोदय हुआ और हमें श्री दत्त महिमा का ज्ञान हुआ.”
हमारे साथ माधव नम्बूद्री
नामक एक ब्राह्मण भी श्री स्वामी के दर्शनों के लिए कुरवपुर के लिए चल पडा. हम
तीनों विचित्रपुर से अग्रहारपुर पंहुचे. मेरे साथ अग्रहारपुर से आये हुए उस
व्यक्ति ने राजा द्वारा दी गईं सुवर्ण मुद्राएँ अपनी पत्नी को दी. वह बड़ी प्रसन्न
हुई. उसने सबको यथेच्छ भोजन दिया. उसके पश्चात् वह श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की
भक्त बन गई.
मैं और माधव नम्बूद्री
चिदंबरम् की और निकल पड़े. वर्त्तमान गुंटूर (गर्तपुरी) मंडल के नम्बुरू गाँव में
अनेक विद्वान ब्राह्मण रहा करते थे. मलियाल देश के राजा ने नम्बुरू के अनेक
विद्वान पंडितों को अपने देश में बुलाकर उन्हें राजाश्रय प्रदान किया. यही
ब्राह्मण नम्बूद्री ब्राह्मण कहलाये. ये ब्राह्मण आचार सम्पन्न एवं वेद पारंगत थे. ईश्वर में उनकी दृढ़ श्रद्धा
थी. परन्तु मेरे साथ चल रहा माधव नम्बूद्री बचपन में ही अपने माता-पिता को खो चुका
था और निरक्षर था. मगर श्री दत्त प्रभु पर उसे प्रगाढ़ विशवास था. उनके प्रति उसके
मन में गहरी श्रद्धा थी.
जब हम चिदम्बर पँहुचे तो
ज्ञात हुआ कि वहाँ पळनीस्वामी नामक महात्मा का वास है. उनके दर्शनों के लिए पर्वत
पर एकांत में स्थित उनकी गुफा की ओर चले. गुफा के द्वार पर ही पळनीस्वामी हमें
देखकर बोले, “माधवा! शंकरा! दोनो मिलकर आये हो!
हमारे अहोभाग्य!” प्रथम दर्शन में ही हमारे नाम न जानते हुए भी, हमें अपने नाम से पुकारने वाले यह महात्मा अत्यंत सिद्ध हैं, इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं था. स्वामी बोले,
“बालकों, श्रीपाद श्रीवल्लभ की आज्ञानुसार मैं इस शरीर का
त्याग करके दूसरे युवा शरीर में प्रवेश करने वाला हूँ . वह समय अब निकट आ गया है.
इस शरीर में मैं तीन सौ वर्षों से वास कर रहा हूँ. इस देह को त्याग कर नूतन शरीर
में और तीन सौ वर्ष रहूँ, ऐसी श्रीपाद स्वामी ने मुझे आज्ञा दी है. जो जीवन्मुक्त
हो गए हैं, जो जन्म-मरण रूपी स्रष्टि से परे हैं और समस्त
स्रष्टि का चालन करने वाले हैं, वही महासंकल्प हैं श्री
श्रीपाद श्रीवल्लभ!” पळनीस्वामी आगे बोले, “बालक, शंकर!
तुमने विचित्रपुरी में कणाद महर्षि के कणाद सिद्धांत के विषय में कहा था, उसका वर्णन करो.”
कणाद महर्षि का कण-सिद्धांत
स्वामी के प्रश्न के उत्तर
में मैंने कहा, “स्वामी, मुझे
क्षमा करे. कणाद महर्षि और उनके सिद्धांत के बारे में मैं बहुत कम जानता हूँ. जो
कुछ मैंने वर्णन किया था वह श्री दत्त प्रभु के आदेशानुसार ही मेरे मुख से फूट रहा
था, आपको तो यह ज्ञात ही है,”
करुणास्वरूप पळनीस्वामी ने कण-सिद्धांत का वर्णन करना आरम्भ किया. वे बोले:
“समस्त सृष्टि का निर्माण
परम-मूल अणुओ (परमाणुओं से) से हुआ है. इन परमाणुओं से भी सूक्ष्म कणों के
अस्तित्व से विद्युत् शक्ति उत्पन्न होती है. ये सूक्ष्म कण अत्यंत वेगवान गति से
अपनी-अपनी कक्षा में परिभ्रमण करते रहते हैं. जिस प्रकार स्थूल सूर्य के चारों और
ग्रह अपनी-अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं, उसी प्रकार
ये सूक्ष्म कण भी अपने केंद्र के चारों और भ्रमण करते हैं. इन सूक्ष्म कणों से भी
सूक्ष्म स्थिति में प्राणिमात्र के समस्त भावावेगों का स्पंदन होता रहता है.
स्पन्दनशील जगत में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है. चंचलता उसका स्वभाव है. प्रतिक्षण
परिवर्तित होना उसकी प्रवृत्ति है. इन स्पंदनों से भी सूक्ष्म स्थिति में स्थित है
श्री दत्त प्रभु का चैतन्य. अतः सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी सूक्ष्म रूपों
से भी सूक्ष्मतम, ऐसे श्री दत्त प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करना. यह जितना सरल है, उतना ही कठिन भी है. यदि प्रत्येक कण के अनंत भाग किये जाएँ, तो एक-एक कण
शून्य के समान होगा. अनंत शून्यों के संयोग से बनी है यह सृष्टि. जिस प्रकार
पदार्थ की सृष्टि होती है, वैसे ही व्यतिरेकी (विपरीत)
पदार्थ की भी होती है. इन दोनों का संयोग होने पर व्यतिरेकी पदार्थों का नाश होता
है, स्वयँ पदार्थों के गुणों में भी परिवर्तन होता है.
अर्चावतार में प्राणप्रतिष्ठा करने पर वह मूर्ती चैतन्यमय होकर भक्तों की मनोकामना
पूर्ण करती है. कुण्डलिनि शक्ति में सभी मन्त्र होते हैं. गायत्री मन्त्र भी इस
शक्ति में समाया हुआ है. साधारण रूप से यह माना जाता है कि गायत्री मन्त्र के तीन चरण
हैं, परन्तु इस मन्त्र में चौथा चरण भी है, वह है “परोरजाती
सावदोम”.
कुण्डलिनी शक्ति चौबीस
तत्वों से इस विश्व का निर्माण करती है. गायत्री मन्त्र में चौबीस अक्षर हैं.
चौबीस – इस संख्या को ‘गोकुल’ भी कहते हैं. “गो” अर्थात् दो, “कुल” अर्थात् चार. ब्रह्मस्वरूप में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं
होता. “परिवर्तनातीत” है इसीलिये इसे “नौ” इस अंक से प्रदर्शित किया जाता है. “आठ”
का अंक महामाया के स्वरूप को प्रकट करता है. श्रीपाद श्रीवल्लभ के भक्तजन “उन्हें
दो चौपाती देवलक्ष्मी” कहा करते थे. परब्रह्म ही सभी जीवों के “लिए पतिस्वरूप है.
पतिदेव का तात्पर्य है “नौ” के अंक से, लक्ष्मी का तात्पर्य है “आठ” के अंक से, दो का तात्पर्य “दो” के अंक से है, “चौ” अर्थात्
चार का अंक. अत “दो चौ पति लक्ष्मी” का अपभ्रंश होकर वह “ दो चौपाती देवलक्ष्मी”
हो गया. यह सभी जीवों को २४९८ इस संख्या का स्मरण कराता है. गोकुल में परब्रह्म
पराशक्ति का वास श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में ही है. श्रीकृष्ण परमात्मा श्रीपाद
श्रीवल्लभ ही हैं. गायत्री मन्त्र का स्वरूप उनकी निर्गुण पादुकाओं के समान है.”
स्वामी बोले, “वत्स, शंकर! स्थूल मानव शरीर में बारह प्रकार के
भेद है. जिस स्थूल शरीर का सबको अनुभव होता है, वह सूर्य के
प्रभाव के अंतर्गत है”. श्रीपाद श्रीवल्लभ पीठिकापुरम में मानव रूप में अवतरित
होने से लगभग १०८ वर्ष पूर्व इस प्रदेश में आये थे. उन्होंने मुझ पर अनुग्रह किया
था. अभी जिस रूप में वे कुरवपुर में वास कर रहे हैं, उसी रूप
में वे उस समय यहाँ आये थे. उस समय एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. हिमालय के कुछ
महायोगी बद्रीकेदार तीर्थक्षेत्र स्थित बद्रीनारायण की ब्रह्मकमलों से अर्चना कर
रहे थे. बद्रीनारायण के चरणों में अर्पित ब्रह्मकमल श्रीपाद श्रीवल्लभ के चरणों पर
आकर गिर रहे थे. यह दृश्य हमने स्वयं अपनी आंखों से देखा था.”
पळनीस्वामी के इस दिव्य
वक्तव्य से मैं भाव विभोर हो गया. शरीर में रोमांच उठने लगे. मैंने उनसे पूछा, “ ब्रह्मकमल क्या है? वे कहाँ मिलते हैं? आपके वक्तव्य से ज्ञात हुआ है
कि ब्रह्मकमलों से पूजा करने पर श्री दत्त प्रभु संतुष्ट होते हैं. कृपया मेरे इस
संदेह का निवारण करें.”
ब्रह्मकमल का स्वरूप
मेरी
प्रार्थना स्वीकार करते हुए श्री पळनीस्वामी स्नेह पूरित दृष्टी से मेरी ओर देखते
हुए बोले, “श्री महाविष्णु ने श्री सदाशिव की पूजा ब्रह्मकमल से
की थी. श्री विष्णु की नाभि से जो कमल निकला है, उसे भी
ब्रह्मकमल ही कहते हैं. दिव्य लोक में पाए जाने वाले ब्रह्मकमल के सादृश्य यह कमल
हिमालय पर पाया जाता है. लगभग बारह हज़ार फुट की ऊंचाई पर हिमालय पर यह ब्रह्मकमल
वर्ष में एक ही बार खिलता है. और इसके खिलते समय चारों और का परिसर अद्भुत सुगंध
से परिपूर्ण हो जाता है. हिमालय में साधना करने वाले साधक, महात्मा ऐसे ब्रह्मकमल की खोज में रहते है. शरदऋतु से
लेकर बसंतऋतु तक
यह बर्फ के नीचे दबा रहता है. चैत्र मास के आरम्भ में यह बर्फ से बाहर निकलता है.
ग्रीष्म ऋतु में इसके विकास की प्रक्रिया पूर्ण होती है. अमरनाथ स्थित अमरेश्वर
हिमलिंग के दर्शन श्रावण शुक्ल पौर्णिमा को होते हैं और इसी समय अर्धरात्रि के समय
पूरी तरह विकसित होकर यह फूल खिलता है. हिमालय पर तपस्यारत सिद्ध तपस्वी पुरुषों
तथा साधकों के लिए परमेश्वर की यह अद्भुत लीला होती रहती है. ब्रह्मकमल के दर्शनों
से समस्त पातकों का नाश हो जाता है. योगसिद्धि के मार्ग में उत्पन्न विघ्नों का
नाश होता है. इस ब्रह्मकमल के दर्शन से योगी, तपस्वी, सिद्ध पुरुष अपने-अपने मार्ग में उच्च स्थिति को
प्राप्त करते हैं. जिन भक्तों के प्रारब्ध में ब्रह्मकमल के दर्शन हैं, उन सबके दर्शन कर लेने के पश्चात् यह कमल अंतर्धान हो
जाता है.”
श्री
पळनीस्वामी आगे बोले, “वत्स शंकर! मैंने दस दिनों तक समाधी में लीन होने का
निश्चय किया है. यदि कोई भक्त मेरे दर्शन की आर्त इच्छा लेकर आये तो मेरी समाधी
भंग किये बिना उन्हें शांतिपूर्ण तरीके से दर्शन करने दो. यदि सांप के काटने से
मृत हुए किसी व्यक्ति को लाया जाए, तो कहना कि मैं समाधिरत हूँ , और तब उस मृत शरीर को
नदी के जल के प्रवाह में अथवा भूमि के भीतर गाड़ कर रखना. कहना कि मेरी ऐसी आज्ञा
है.”
श्री
पळनीस्वामी जहाँ बैठे थे, उसी आसन पर समाधिस्त हो गए. मैं और माधव, दोनों मिलकर आने वाले भक्तों को दूर से ही अत्यंत
शांतिपूर्ण ढंग से उनके दर्शन करवा रहे थे. दर्शनार्थ आये हुए कुछ भक्त स्वामी को
अर्पण करने के लिए चावल, दाल, आटा आदि सामग्री लाये थे. यह देखकर माधव ने रसोई
बनाने का निश्चय किया. उसे निकट ही पड़ा हुआ नारियल के पेड़ का एक बड़ा सूखा हुआ
पत्ता दिखाई दिया. उस पत्ते का ईंधन के रूप में प्रयोग करने की इच्छा से वह उसे
उठाने के लिए उसके निकट गया. उसके साथ एक अन्य भक्त भी था. माधव ने उस पत्ते को
उठाकर अपने कंधे पर रखा, तभी उस पत्ते के नीचे बैठे एक सर्प ने क्रोधित होकर
उसे दंश कर लिया. उस सर्प का विष इतना दाहक था कि माधव तत्काल काला-नीला पड़ गया और
मृत होकर भूमि पर गिर पडा. दो-तीन व्यक्ति उसे उठाकर गुफा तक लाये. यह दृश्य देखकर
मैं घबरा गया. कुछ सूझ न रहा था कि क्या किया जाए. तब स्वामी के आदेशानुसार उसे
ज़मीन में गाड़ कर रखने का निश्चय करके मैंने एक गढ़ा खोदना प्रारम्भ किया. अन्य
भक्तों ने मेरी सहायता की. उस गढ़े में मृत देह को रखकर जैसे ही मैं वापस आया, गाँव के कुछ लोग सत्रह-अठारह बरस के सर्पदंश से मृत
हुए एक बालक का शव लेकर आये. पहले माधव की दुर्घटना और अब यह दूसरी दुर्घटना देखकर
मैं अपने अश्रु न रोक सका. मैंने जैसे तैसे उन्हें स्वामी का आदेश सुनाया. गाँव के
लोगों ने गुफा के निकट ही एक गढ़ा खोदकर उस बालक को उसमें लिटा दिया. स्वामी के
दर्शनों के लिए रोज़ तीन-चार भक्त आते. उन्हें मैं दर्शन करवा देता. इस प्रकार दस
दिन बीत गए, ग्यारहवें दिन ब्रह्म मुहूर्त पर श्री पळनीस्वामी
समाधि से बाहर आये और “माधव! माधव!” कहकर पुकारने लगे. मैंने रोते-रोते उन्हें
सारी घटना सुनाई. स्वामी ने मुझे समझाया. उन्होंने योग दृष्टी से मेरी और देखा, तब मुझे अपनी रीढ़ की हड्डी में थोड़ी हलचल महसूस हुई
और उसमें दर्द होने लगा. तब उन्होंने दुबारा अपनी प्रसन्न दृष्टी से मेरी और देखा, और मेरी सारी वेदना दूर हो गई. स्वामी ने कहा, “ वत्स, शंकर! माधव के प्रारब्ध में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
दर्शन स्थूल शरीर से प्राप्त होना नहीं लिखा था. अतः उसका सूक्ष्म शरीर पिछले दस
दिनों से कुरवपुर में विद्यमान श्री चरणों के सान्निध्य में है. चाहे जो भी हुआ हो, उसकी इच्छा पूर्ण हुई. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की
लीला अपरंपार है. उसे कोई नहीं जान सकता, यही
सत्य है. उसे केवल स्वामी ही जान सकते हैं. माधव को स्थूल शरीर में वापस लाने का
कार्य स्वामी ने मुझे सौंपा है.”
पळनीस्वामी
के ऐसा कहने के पश्चात् उनके आदेशानुसार मैं माधव का मृत शरीर गढ़े से बाहर निकाल
कर लाया, और दक्षिण की और स्थित ताड़ के घने वृक्ष के निकट जाकर जोर से बोला, “माधव को दंश करने वाले नागराज! श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी की आज्ञानुसार तुम पळनीस्वामी के निकट आओ.”
श्री
पळनीस्वामी ने अपने वस्त्रों से चार कौड़ियाँ निकाल कर उन्हें मृत शरीर के चारों और
रखा. थोड़ी ही देर में वे कौडियाँ ऊपर को उछलकर आकाश में चारों दिशाओं में चली गईं.
पांच-दस मिनटों के अन्दर ही उत्तर की और से एक सर्प आया. स्वामी की चारों कौडियाँ
उसके फेन में फंस गई थीं. इस कारण वह त्रस्त होकर फुफकार कर रहा था. स्वामी ने उसे
माधव के शरीर का विष खींच लेने की आज्ञा दी. जिस स्थान पर उसने दंश किया था, वहीं से उसने पूरा विष बाहर खींच लिया. श्री
पळनीस्वामी ने मन ही मन श्रीपाद स्वामी को प्रणाम किया और उस सर्प पर मंत्रोदक
छिडका. वह सर्प स्वामी के चरण कमलों का स्पर्श करके और तीन बार उनकी प्रदक्षिणा
करके चला गया.
श्री
दत्त भक्तों को अन्नदान देने से मिलने वाला फल
श्री
पळनीस्वामी बोले, “ हे शंकर, यह सर्प
पिछले जन्म में एक स्त्री था. उसने अपने जीवन में थोड़ा पाप, थोड़ा पुण्य किया था. उसने एक दत्त भक्त को भोजन कराया
था. यह था उसके पुण्य का अंश. यथासमय देह त्यागने के पश्चात् उसे यमदूत यमराज के
पास ले गए. यमराज ने उससे कहा, “तूने एक बार एक दत्त भक्त को अन्नदान दिया था, उसका विशेष पुण्य तुझे प्राप्त हुआ है. तुझे पहले पाप
का फल भोगना है, अथवा पुण्य का?” इस पर
वह स्त्री बोली, “जो थोड़ा है वह प्रथम भोग लूँगी.” तदनुसार उसे पाप
योनी में – सर्प योनी में जन्म प्राप्त हुआ. उसका स्वभाव सबको हानि पहुँचाने का था, अतः उसके मार्ग में जो भी कोई आता उसे वह डस लेती थी.
वह स्त्री मानव जन्म में रजोगुणी होने के कारण उसके केवल समीप पहुंचे माधव को उसने
दंश कर लिया था, परन्तु माधव अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण
मरणासन्न अवस्था को प्राप्त हो गया. समयानुसार श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा
से उस स्त्री को सर्प योनी से मुक्ति मिल गई.”
योग्य
व्यक्ति को दिए गए अन्नदान का फल
श्री दत्त प्रभु अल्प से ही
संतुष्ट हो जाते हैं (वे अल्प संतोषी हैं). थोड़ी सी सेवा से प्रसन्न होकर अपने
भक्तों को अपरिमित फल देते हैं. श्री दत्त प्रभु के नाम से यदि किसी भी व्यक्ति को
अन्नदान दिया जाए, और यदि वह व्यक्ति योग्य हो, तो उस अन्नदान का विशेष फल प्राप्त होता है. अन्न के छोटे से अंश से मन का निर्माण होता है. अन्नदाता का मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, शरीर मंगल स्पंदनों से व्याप्त हो जाता है. अतः उसमें लोगों को अपनी ओर
आकृष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है. श्री पळनीस्वामी आगे बोले, “इच्छित वस्तु की समृद्धि से तात्पर्य है श्री लक्ष्मी का कृपा कटाक्ष
प्राप्त होना. यह समूची सृष्टि सूक्ष्म स्पंदनों से, सूक्ष्म
नियमों से चालित होती है.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ के नामस्मरण की महिमा
श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी का नामस्मरण करने से लक्ष्मी, धन, ऐश्वर्य, समाधान प्राप्त होता है. जिन पर वे अनुग्रह
करते हैं, उनके भाग्य का वर्णन क्या करूँ! श्री चरणों की कृपा
से दस दिन तक ज़मीन में गड़े माधव के शरीर को कुछ भी नहीं हुआ था. उसे प्राणदान करने
वाले प्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ की करुणा, दया, भक्त-प्रेम को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है.”
माधव
के शरीर में चैतन्य लौटने लगा. प्यास लगने के कारण उसने पानी माँगा. श्री
पळनीस्वामी ने उसे समझा बुझा कर पहले घी पीने के लिए दिया. उसके पश्चात् फलों का
रस और फिर कुछ देर बाद पानी दिया.
नागलोक
का वर्णन
माधव के पुनर्जीवित होने से
हमारे आनंद का पारावार न रहा. माधव ने अपने अनुभव का वर्णन इस प्रकार किया, “मैं सूक्ष्म शरीर से कुरवपुर पहुँचा और श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
दर्शन किये. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी आजानुबाहु हैं. उनके नेत्र विशाल हैं, उन नेत्रों में सभी प्राणियों के प्रति करुणा, दया
और प्रेम निरंतर प्रवाहित होता रहता है. मैं स्थूल देहधारी नहीं था, अतः वहाँ उपस्थित स्थूल देहधारी भक्तों को दिखाई नहीं देता था. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी ने मुझे आज्ञा दी, “कुरवपुर स्थित उस द्वीप
के मध्य भाग में जाओ.” श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम स्मरण करते हुए मैं उस द्वीप के
मध्य भाग से गहराई में गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि पृथ्वी के भीतर गहराई में
भूकेंद्र के निकट अनेक प्रासाद, दालान हैं. वहा पाताल लोक ही था, ऐसा मुझे विश्वास हो गया. जो स्थूलता को देखते हैं,
उन्हें स्थूलरूपी पदार्थ ही दिखाई देते हैं. सूक्ष्म रूप में होने के कारण मुझे
सूक्ष्म रूप धारण किये अनेक लोक दिखाई दिए. वहाँ उपस्थित लोग नाग जाति के थे और
उन्होंने काम रूप धारण किया था. उनमें इच्छित रूप धारण करने की शक्ति थी. मगर
साधारणत: नागरूप में ही विचरण करना उन्हें अच्छा लगता. वहाँ मैंने अनेक महासर्पों
को देखा. कोई-कोई सर्प तो हज़ार फन वाले थे. फनों पर मणि थी जिसमें से दिव्य तेज
निकल रहा था. अन्य नाग मानों योगमुद्रा में बैठे अपने फेन निकालकर मौन मुद्रा में
थे. आश्चर्य की बात यह थी कि उन्हीं में एक महासर्प था. उसके हज़ार फेन थे. उस
महासर्प के ऊपर श्रीपाद श्रीवल्लभ श्री महाविष्णु के समान शयन कर रहे थे. वहाँ
उपस्थित सर्प वेदगान कर रहे थे. स्वामी उस गान का चिदानंद स्वरूप में श्रवण कर रहे
थे. मेरे निकट बैठे एक सर्प ने श्री दत्त प्रभु की महिमा का गुण-गान करना आरंभ
किया.
श्री दत्तात्रेय की महामहिमा
उसने
कहा, “श्री दत्त प्रभु नेपाल देश में स्थित चित्रकूट के
“अनुसूया” पर्वत पर अत्रि-अनुसूया के पुत्र के रूप में पूर्वयुग में अवतरित हुए.
अवतार समाप्त किये बिना वे सूक्ष्म रूप में नीलगिरी के शिखर पर, श्री शैल के शिखर पर, शबरगिरी
के शिखर पर, सह्याद्री पर्वत पर संचार करते रहते हैं. उन्होंने
नाथ सम्प्रदाय के गोरक्षनाथ को योगमार्ग का उपदेश दिया. ज्ञानेश्वर नामक योगी को
खेचरी मुद्रा में बैठे निराकार योगी स्वरूप में दर्शन दिए. श्री दत्त-प्रभु
देश-काल से परे हैं. श्री दत्त प्रभु के सान्निध्य में हमें भूत, भविष्य और वर्त्तमान पृथक-पृथक नहीं दिखाई देते. बस, सदा वर्त्तमान ही रहता है.”
अनघा
सहित श्री दत्तात्रेय के दर्शन
वह महासर्प आगे बोला, “वत्स माधव! हमें कालनाग ऋषीश्वर
कहते हैं. श्री दत्तात्रेय ने हज़ारों वर्षों तक राज्य परिपालन करने के पश्चात्
अपने रूप को गुप्त रखने का निश्चय किया. कुछ वर्षों तक वे नदी में अदृश्य रहे. फिर
वे पानी के ऊपर आये. हम सेवक, इस आशा में कि वे हमारे साथ वापस
आयेंगे, वहीं पर उनकी राह देख रहे थे. परन्तु वे हमसे
छुपने का प्रयत्न कर रहे थे. हम भी यह बात जानते थे. वे पुनः जलसमाधि में जाकर कुछ
कालांतर के पश्चात् ऊपर आये. इस समय उनके एक हाथ में मधु-पात्र था. दूसरे हाथ में
सोलह वर्ष की सुन्दर कन्या थी. मधुपान करते हुए, हमेशा उसके नशे
में चूर और स्त्री की दासता में लीन व्यक्ति को हम अज्ञानवश आज तक अपना गुरू मानते
रहे, ऐसा सोचकर हम वहाँ से वापस चले गए. तभी वे
दोनो भी अदृश्य हो गए. उनके अदृश्य होने के पश्चात् ही हमारा ज्ञानोदय हुआ. उनके
हाथ में जो मधुपात्र था, वह योगानंद स्वरूप अमृत का कलश था और
वह सुन्दरी त्रिशक्तिरूपिणी अनघालक्ष्मी देवी है, इस बात का हमें
स्मरण हुआ. वे फिर से इस भूमि पर अवतार लें इस हेतु से हमने घोर तपस्या की. हमारी
तपस्या के फलस्वरूप श्री दत्तात्रेय ने पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से अवतार
लिया.
श्री
कुरवपुर का वर्णन
श्री दत्तात्रेय प्रभु उस
दिन स्नान करने के लिए जल में उतरे थे, वही क्षेत्र
आजकल परम पवित्र कुरवपुर है. जब वे जल-समाधि में थे तब हम भी अपने सूक्ष्म
स्पंदनों से इस लोक में योग समाधि में लीन थे. कौरवों तथा पांडवों के मूल पुरुष
कुरु महाराज को जहाँ ज्ञानोपदेश हुआ वह कुरवपुर ही यह पवित्र स्थल है. वत्स, माधव!
इस कुरवपुर का वर्णन करने की सामर्थ्य आदि शेष (शेष नाग) के पास भी नहीं है.
सदाशिव ब्रह्मेन्द्र की पूर्व गाथा
श्रीपाद
श्रीवल्लभ के चरणों में मैंने अत्यंत नम्र भाव से शीश नवाया. तब प्रभु अत्यंत
करुणापूर्ण अंतःकरण से बोले, “वत्स! यह दिव्य भव्य दर्शन प्राप्त करना एक अलभ्य
संयोग है. तुमसे जो महासर्प बातें कर रहा था, वह
आगामी शताब्दी में ज्योति रामलिंगेश्वर स्वामी नाम से अवतीर्ण होकर ज्योति रूप में
ही अंतर्धान होगा. तुमसे बातें कर रहा दूसरा महासर्प सदाशिव ब्रह्मेन्द्र नाम से
आगामी शताब्दी में अवतार लेकर अनेक लीलाएँ दिखाएगा. श्री पीठिकापुर भी मेरा अत्यंत
प्रिय स्थान है. पीठिकापुर में मेरी माता के घर में, जहाँ मैंने जन्म लिया है, वहीं मेरी चरण पादुकाओं की प्रतिष्ठापना होगी. मेरा जन्म
तथा कर्म अत्यंत दिव्य है, वह एक गोपनीय रहस्य है. तुम श्री पीठिकापुर स्थित
मेरी चरण-पादुका प्रतिष्ठा स्थल से पाताल लोक जाकर वहाँ तपस्या कर रहे काल नागों
से मिलकर आओ.”
श्री
पळनीस्वामी मंद हास्य करते हुए आगे बोले, “वत्स
माधव! पीठिकापुर के काल नागों के बारे में चर्चा बाद में करेंगे. हमें तुरंत स्नान
करके ध्यान धारणा में बैठना है. यह श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की आज्ञा है.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जयजयकार हो ”
“श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये”
अध्याय ४
कुरवपुर में वासवाम्बिका के दर्शन
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के जन्म स्थान में होने
वाली लीलाएँ
श्री पळनीस्वामी की
आज्ञानुसार हमने ध्यान धारणा का संकल्प किया. श्री पळनीस्वामी बोले, “वत्स, माधव! वत्स शंकर! हम तीनों श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की आज्ञानुसार ध्यानमग्न हो जाएँ और तत्पश्चात अपने-अपने अनुभवों
की चर्चा करें. इस अवस्था में हमें किसी उत्कृष्ट आध्यात्मिक परिणाम का अनुभव
होगा. भविष्य में हूण शक (ईस्वी सन्) का प्रचलन होगा. हूण शकानुसार आज दिनांक
२५-५-१३३६ है. शुक्रवार है. आज का दिन हमारे जीवन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण दिन है.
मैं अपने स्थूल शरीर को यहीं छोड़ कर सूक्ष्म शरीर से कुरवपुर जाऊँगा. एक ही समय
में चार-पाँच स्थानों पर सूक्ष्म शरीर से विहार करना मेरे लिए बाल्य-क्रीडा के
सामान है. हम सभी जब श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के ध्यान में मग्न होंगे, तब उनकी आज्ञा होने पर मैं सूक्ष्म शरीर से कुरवपुर में उनके सान्निध्य
में जाऊँगा.
स्वामी की कृपा प्राप्त करने का विधान (विधि)
श्री पळनीस्वामी का कथन
सुनकर मुझे अचम्भा हुआ, अतः मैंने पूछा, “माधव ने श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दिव्य मंगल स्वरूप के दर्शन किये
हैं. आप सदा श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के साथ सूक्ष्म रूप में विचरण करते हैं, मगर मुझे तो केवल उनका नाम मात्र ही ज्ञात है. तब मैं ध्यान मग्न किस
प्रकार होऊँ?” इस पर श्री पळनीस्वामी मंद हास्य करते हुए
बोले, “वत्स! श्रीपाद स्वामी की भक्ति यदि ह्रदय में हो तो
सब कुछ सिद्ध होगा. श्रीपाद प्रभु सबसे पहले अपने भक्त का कछुए के पिल्ले के समान
पालन करते हैं. कछुआ अपने पिल्ले से चाहे कितना ही दूर रहे फिर भी उसकी विचार
तरंगों से ही पिल्लों की रक्षा होती है. थोड़ी उन्नति होने के पश्चात् वे बिल्ली के
पिल्ले के समान अपने भक्त का पालन करते हैं. जिस प्रकार बिल्ली अपने पिल्लों को
मुख में पकड़कर एक घर से दूसरे घर ले जाती है, जो स्थान
नन्हें पिल्लों के लिए सुरक्षित प्रतीत हो, वही उन्हें रखती
है. उसके पश्चात् बन्दर के पिल्लों के समान भक्तों का पालन होता है. इस प्रकार के
पालन में पिल्ला अति प्रयत्न से अपनी माँ से चिपक कर बैठा रहता है. और अधिक उन्नति
होने पर मछली के पिल्लों के समान पालन होता है, जहाँ माँ के साथ स्वेच्छा एवँ आनंद
पूर्वक विहार करने वाले मछली के पिल्लों के समान ही भक्त गण भी श्री गुरू के
साथ-साथ रहते हैं. जब तुम ध्यानावस्था में जाओगे, तब वे ही
दर्शन देंगे. आज दिनांक २५-५-१३३६, शुक्रवार सभी शुभ योगों का संगम हो रहा है. आज
का संपूर्ण दिन उत्तम दिन है.
श्रीपाद स्वामी ने अत्यंत
महत्वपूर्ण भविष्य निर्णय करने का निश्चय करके मुझे कुरवपुर आने की आज्ञा दी है. ध्यानमग्न
अवस्था में जैसे ही उनकी आज्ञा होगी, उसी क्षण मैं
कुरवपुर चला जाऊँगा. वहाँ कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटने वाली है. श्री दत्त प्रभु की
कृपा से उसे अपने नेत्रों से देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होने वाला है,” ऐसा
कहते हुए श्री पळनीस्वामी ध्यानस्थ हो गए. मैं और माधव भी ध्यान मग्न हो गए.
इस प्रकार ध्यानावस्था में
दस घंटे बीत गए. ध्यान के पश्चात् श्री पळनीस्वामी अत्यंत उल्हासित प्रतीत हो रहे
थे. मैंने और माधव ने उनसे प्रार्थना की कि वे अपनी ध्यानानुभूति के बारे में
बताएँ. इस पर स्वामी ने मुस्कुराते हुए कहना आरम्भ किया.
शिव शर्मा की कथा – श्रीपाद श्रीवल्लभ के चिंतन का फल
उन्होंने
कहा, “इस कलियुग के लोगों का कितना महत् भाग्य है! कुरवपुर
गाँव बहुत छोटा था, फिर भी स्वामी की महिमा को जानकर वेद पंडित
सद्ब्राह्मण शिवशर्मा अपनी भार्या अंबिका के साथ कुरवपुर में ही रहते थे. कुरवपुर
में केवल यही एक ब्राह्मण कुटुंब था. वे प्रतिदिन द्वीप पार करके ब्राह्मणोचित
कार्यों से धनार्जन करके कुरवपुर वापस लौटते. वे बड़े भारी विद्वान पंडित थे. वे
अनुष्ठानी, काश्यप गोत्र में उत्पन्न यजुर्वेदीय ब्राह्मण थे. शिव शर्मा की सन्तान
अल्पकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी. जैसे-तैसे एक बालक जीवित रहा, परन्तु दुर्भाग्य से वह मंदबुद्धि था. इस प्रकार की
निष्प्रयोजक संतान प्राप्ति से शिव शर्मा दुखी रहते थे.
एक
दिन श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के सामने वेदपठन करने के पश्चात् वे मौन खड़े रहे.
श्री स्वामी ने उनका मनोगत पहचान कर मंद हास्य करते हुए कहा, “शिव शर्मा! अन्य सभी चिंताएँ छोड़कर निरंतर मेरा ही
मनन. -चिंतन करने वालों का मैं दास हूँ . तुम्हारी इच्छा क्या है, कहो.”
इस
पर शिव शर्मा बोले, “स्वामी, मेरा पुत्र मुझसे भी बड़ा पंडित वक्ता हो, ऐसी मेरी इच्छा थी. परन्तु वह पूरी तरह मिट्टी में
मिल गई. मेरा पुत्र अत्यंत मतिमंद है. सभी चराचरों में, घर-घर
में व्याप्त, अत्यंत सामर्थ्यवान आपके लिए उसे पंडित बनाना, निष्ठावान बनाना
किंचित भी कठिन नहीं है. मुझ पर इतनी कृपा करें.”
इस
पर श्रीपाद श्रीवल्लभ बोले, “वत्स! कोई चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, पूर्वजन्म के कर्मफल को भोगना उसके लिए अनिवार्य है.
समूची सृष्टि भी शासन का उल्लंघन न करते हुए चलती रहती है. स्त्रियों को पूजन के
फलस्वरूप पति की प्राप्ति होती है. दान के फलस्वरूप संतान प्राप्ति होती है. दान
सदा सत्पात्र को देना चाहिए. यदि दान ग्रहण करने वाला सत्पात्र न हो तो अनिष्ट की
आशंका ही संभव है. सद्बुद्धियुक्त व्यक्ति को अन्नदान देने से उसके द्वारा किये गए
पूण्य कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले पुण्य का कुछ अंश अन्नदाता को मिलता
है. दुर्बुद्ध व्यक्ति को अन्नदान देने से उसके द्वारा किये गए पाप कर्मों के
फलस्वरूप प्राप्त पापों का कुछ अंश अन्नदाता को प्राप्त होता है. दान देते समय
अहंकार रहित होकर दान करें, तभी उसका उत्तम फल प्राप्त होगा. पूर्व जन्म के
कर्मफलानुसार ही तुम्हें मंदबुद्धि पुत्र की प्राप्ति हुई. तुम दंपत्ति ने
अल्पायुषी नहीं, अपितु पूर्णायुषी संतान ही दें, ऐसी विनती की थी. पूर्णायुषी पुत्र तुम्हें दिया गया.
उसे पूर्वजन्म के पाप का निवारण करके योग्य पंडित बनाने के लिए, कर्मसूत्र का अनुसरण करते हुए, यदि तुम देह त्याग करने को तैयार हो, तो मैं उसे योग्य पंडित बनाऊँगा.” इस पर शिवशर्मा
बोले, “स्वामी, वैसे भी मैं वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुका हूँ. मैं
अपना जीवन त्यागने के लिए तैयार हूँ. मेरा बालक यदि बृहस्पति के समान पंडित, वक्ता हो जाए, तो मुझे
और क्या चाहिए?” संपूर्ण चराचर में, घटघट
में व्याप्त सामर्थ्यवान श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी बोले, “ठीक है, तुम शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगे. मृत्योपरांत
सूक्ष्म देह में धीशिला नगरी (वर्त्तमान शिरडी) में नीम के वृक्ष के नीचे स्थित
भूगृह में कुछ काल तक तपश्चर्यारत रहोगे. तत्पश्चात पुण्य भूमि महाराष्ट्र देश में
जन्म लोगे. इस विषय की अपनी पत्नी से ज़रा भी चर्चा न करना.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के भावी जन्म का निर्धारण
शीघ्र
ही शिव शर्मा की मृत्यु हो गई. अंबिका अपने पुत्र के साथ भिक्षाटन करके काल क्रमण
कर रही थी. आसपास के लोग उन पर हँसते, उनका मज़ाक उड़ाते, इस सबका कोई अंत ही नहीं
था. जब यह अपमान असह्य हो गया तो वह मतिमंद बालक आत्महत्या करने के लिए नदी की और
भागा. उसकी माँ भी असहाय होकर आत्महत्या करने के लिए पुत्र के पीछे भागी. उसके
पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से मार्ग में श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन
हुए. उन्होंने इन दोनों को आत्महत्या के प्रयत्न से परावृत्त किया. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी ने अपने अपार करुणामय कटाक्ष से उस मूर्ख बालक को महापंडित बना
दिया. अंबिका को आदेश दिया कि वह अपना शेष जीवन शिव पूजन में व्यतीत करे.
शनिप्रदोष व्रत की महिमा बताकर, प्रदोष काल में किये गए शिवपूजन करने से किस
प्रकार की फल प्राप्ति होती है, इसकी विस्तृत
जानकारी उसे दी. अंबिका को आशीर्वाद दिया कि अगले जन्म में उसे “मेरे जैसा पुत्र
प्राप्त होगा.” परन्तु उनके जैसा इन तीनों लोकों में कोई अन्य न होने के कारण
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने अगले जन्म में उसके पुत्र के रूप में जन्म लेने का
निश्चय किया.
नृसिंह सरस्वति एवं स्वामी
समर्थ के जन्म का संकल्प
समस्त कल्याणकारी गुणों से युक्त वासवाम्बिका से
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तुम्हारा संकल्प पूर्ण होगा. मैं और चौदह वर्षा तक, अर्थात् जब तक यह शरीर ३० वर्ष की आयु प्राप्त करता
है, तब तक श्रीपाद श्रीवल्लभ के ही रूप में रहकर फिर
गुप्त हो जाऊंगा. तत्पश्चात् सन्यास धर्म के उद्धार हेतु नृसिंह सरस्वति नाम से
अवतार लूंगा. इस अवतार की समाप्ति के पश्चात् कर्दली-वन में ३०० वर्षों तक
तपश्चर्यारत रहकर प्रज्ञापुर (अक्कल कोट) में स्वामी समर्थ के नाम से अवतार धारण
करूंगा. अवधूत अवस्था में, सिद्ध पुरुषों के रूप में, अपरिमित
दिव्य कांति से युक्त होकर, अगाध लीलाएँ दिखाऊँगा. सभी लोगों की धर्मं-कर्म के
प्रति आसक्ति बढ़ाऊँगा.
श्री पळनीस्वामी आगे बोले,
“जैसे-जैसे युग परिवर्तन होगा, वैसे-वैसे मानव की शक्ति कम होती जायेगी. अतः
ऋषीश्वरों की इच्छानुसार मानव कल्याण के लिए परतत्व निचले स्तर पर आयेगा. शरीरधारी
प्रभु का अवतार संपूर्ण अनुग्रह का संकेत है, इस प्रकार प्रभु-तत्व निचले स्तर पर
आने के फलस्वरूप अल्प श्रम से ही मानव को उत्तम फल प्राप्त होगा. इसीलिये कलियुगीन
मानव धन्य है. उसे केवल स्मरण मात्र से ही श्री दत्तप्रभू का अनुग्रह प्राप्त
होगा. मानवीय पतन के जितने मार्ग हैं, श्री चरणों का अनुग्रह प्राप्त करने के उससे भी कहीं
अधिक, असंख्य मार्ग हैं. यही परम सत्य है. स्मरण, पूजन करने से श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु से संपर्क
स्थापित होता है. इसके परिणाम स्वरूप साधक के पापकर्म, दोष, विषय वासना, संस्कार
श्रीपाद श्रीवल्लभ के चैतन्य रूप में प्रवेश करते हैं. भक्तों को उनसे
शुभस्पन्दनों की प्राप्ति होती है. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी साधकों के चैतन्य में
उपस्थित पापों का विनाश पवित्र नदी में स्नान करके करते हैं, अथवा अपनी योगाग्नि
से ही उन पापों को भस्म कर देते हैं. वे कर्मसूत्र का अतिक्रमण न करते हुए भक्तों
की रक्षा करते हैं. यदि आवश्यकता हो, तो अत्यंत जडस्वरूप कर्मफलों का शोषण करके अपने
भक्तों को मुक्ति प्रदान करते हैं. प्रतिक्षण उनके कर्मों का नाश करते हैं.
इसीलिये उनके भक्तों की अनजाने में ही कर्म बंधनों से मुक्ति हो जाती है. उन्हें
मुक्ति प्राप्त होती है. श्री पळनीस्वामी के इस कथन के बाद भी मेरी शंका का समाधान
नहीं हुआ था. मैंने उनसे एक और प्रश्न पूछने का साहस किया, “स्वामी! सुना है कि शनिदेव की साढ़ेसाती के कष्ट से
भगवान शंकर भी छूट न पाए. सार्वभौम श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ग्रहों से सम्बंधित
कष्टों से किस प्रकार मुक्ति देते हैं, कृपया यह समझाने का कष्ट करें,”
इस पर श्री पळनीस्वामी ने कहा, “वत्स! शंकर! खगोल स्थित ग्रहों की जीवमात्र से
मित्रता अथवा शत्रुता होती ही नहीं है. अपने जन्म के समय मानव अपने प्रारब्ध कर्म
के अनुसार किसी ग्रह की महादशा में जन्म लेता है, उन
ग्रहों से संबंधित शुभाशुभ फल की उसे प्राप्ति होती है. यदि ग्रहों से आनेवाले
सूक्ष्म किरण अशुभ फल देने वाले हों, और उनके दोष निवारण हेतु मंत्र, तंत्र, यंत्र यदि कोई फल न दें, तो जप, तप, होम का आश्रय लें. इस उपाय से भी यदि शान्ति न हो तो
श्री दत्त गुरू की चरण पादुकाओं की शरण में जाए, श्री
चरण सर्वशक्ति संपन्न हैं. शक्ति शुभ तथा अशुभ – दोनों प्रकार की होती है. शक्ति
के प्रकार के अनुसार, उसमें से विकिरित स्पंदनों के फलस्वरूप शुभ तथा अशुभ
घटनाएँ घटित होती है. प्रत्येक ग्रह का मानव शरीर के किसी विशेष अंग पर ही आधिपत्य
होता है. ग्रहबाधा होने की स्थिति में, उस ग्रह द्वारा शासित अंग ही पीड़ित होते हैं. विश्व-चैतन्य
से प्रवाहित सूक्ष्म स्पंदनों के कारण ही इष्ट अथवा अनिष्ट फल की प्राप्ति होती
है. स्पंदनों के बीच आकर्षण अथवा विकर्षण होता है. सज्जनों का सहवास प्राप्त हुआ
व्यक्ति यदि दुर्जनों के सहवास में आए, तो अकारण ही कलह, बंधु-वियोग, परिवार के सदस्यों से वाद विवाद होते हैं. यह अनिष्ट
आकर्षण शक्ति के कम होने के कारण होता है. विश्व-शक्ति निरंतर स्पंदनों की
उत्पत्ति करती रहती है. ये स्पंदन अल्प काल तक मनुष्य पर प्रभाव डालते हैं. काल –
शक्ति स्वरूप है. थोड़े समय पश्चात् ये स्पंदन उस मनुष्य को छोड़कर विधि के
विधानानुसार प्रभावित होने वाले किसी अन्य मानव के शरीर में प्रवेश करते हैं.
काल-चक्र के अनुसार उनका फल प्राप्त होता रहता है. मानव मन में ईश्वर भक्ति जागृत
होने पर जब वह जप, तप आदि करता है, तो
ग्रहों की तीव्रता कुछ अंशों में कम हो जाती है. महात्माजन लोक एवं विश्व कल्याण
की इच्छा से विविध प्रकार के यज्ञ किया करते हैं. अपनी तपस्या का फल भी दान किया
करते हैं. इस प्रक्रिया के कारण विश्व में उत्पन्न हुए अनिष्टकारक स्पंदन एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को कष्ट न देकर वापस अपने उद्गम स्थान की और चले जाते
हैं, इस प्रक्रिया को तिरोधान कहते हैं, थोड़ा-सा ही पुण्य कार्य करने से विशेष शुभ फल की
प्राप्ति को अनुग्रह कहते हैं.”
स्वामी आगे बोले, “वत्स! क्रियायोग के सिद्धांत के अनुसार सृष्टि, स्थिति, लय इन तिरोधान अनुग्रहों को मैंने स्पष्ट किया. तुमने
ध्यानस्थ अवस्था में यवन प्रतीत हो रहे जिस साधू को देखा, उस साधू के भीतर भविष्य काल में श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की
शक्ति विशेष रूप से प्रवाहित होगी. नीम के वृक्ष के पास स्थित भूगृह में
प्रज्ज्वलित हो रहे चार नंदादीपों के दर्शन तुम कर सके, यह असाधारण चमत्कार है. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने किसी
महान उद्देश्य को दृष्टिगत रखकर ही तुम्हें यह अनुभव प्रदान किया है. उनकी आतंरिक
इच्छा को केवल वे ही जानते हैं. उनकी लीलाएं अगम्य हैं, गूढार्थ से परिपूर्ण हैं. उनका अर्थ स्वामी के अतिरिक्त कोई
और नहीं जान सकता. इसमें भी कोई दैवी रहस्य छुपा होगा. उनकी अनुमति से ही मैं उसका
वर्णन कर सका. समस्त सृष्टि उनकी नज़रों के घेरे में ही रहती है. उनका प्रमाण वे ही
हैं. उनमें वे ही श्रेष्ठ हैं. विश्वनियन्ता भी वे ही हैं, योगसिद्ध हैं, अजेय हैं. किन्हीं भी
परिमाणों, परिमितियों से परे हैं.”
श्री पळनीस्वामी के इस वर्णन से मेरा ह्रदय आनंद से
परिपूर्ण हो गया. मैं उडुपी क्षेत्र से निकला. कुरवपुर की यात्रा करते हुए मार्ग
में कितनी चित्र-विचित्र घटनाएं घटती जा रही थीं. इन सब अनुभवों को ग्रन्थ रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति सर्व
व्यापी श्री गुरु से लेने के विचार से मैंने श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के दर्शन
करने के पश्चात् उनसे इस विषय में विचार विनिमय करने का निश्चय किया.
श्री पळनीस्वामी मेरे
ह्रदय के भावों को समझ गये और बोले,
“तुम्हारे मन के विचार को मैं समझ गया हूँ. भविष्य में भक्तों के कल्याण के लिए
तुमने श्री प्रभु के चरित्र को लेखनीबद्ध करने का निश्चय किया है. श्री स्वामी
तुम्हारे प्रयत्नों को अवश्य आशीर्वाद देंगे.”
श्री पळनीस्वामी ने माधव से कहा कि वह अपने ध्यानानुभव
के बारे में बताए. माधव ने अपने अनुभव सुनाना आरम्भ किया.
श्रीपाद
श्रीवल्लभ की जन्म भूमि में श्री की चरण पादुकाओं, श्रीपाद श्री वल्लभ, श्री दत्तात्रेय एवँ श्री नृसिंह सरस्वति की मूर्तियों की स्थापना.
श्री पळनीस्वामी बोले, “वत्स!
माधव, तुमने श्रीपाद श्रीवल्लभ के मातागृह के दर्शन किये, वही श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का जन्म स्थान है,
जिसने तुम्हारे भीतर की सभी शक्तियों को आकर्षित किया है. वहाँ स्थापित चरण
पादुकाओं के नीचे पाताल लोक में सहस्त्रों वर्षों से तपस्या-रत ऋषि हैं. तुमने
श्रीपाद श्रीवल्लभ के जन्म स्थान के दर्शन किये, केवल
वहीं श्री की चरण पादुकाओं की स्थापना की जायेगी. चरण पादुकाओं की स्थापना के कुछ
वर्षों बाद अति प्रयत्न से श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्र प्रकाशित किया जाएगा. जिस
स्थान पर बैठकर तुमने ध्यान किया वहाँ श्रीपाद श्रीवल्लभ उनके पूर्वावतार श्री
दत्तात्रेय और उनके भावी अवतार श्री नृसिंह सरस्वति की मूर्तियों की स्थापना की
जायेगी. उसके पश्चात् उस क्षेत्र में अनेक लीलाएँ होंगी.”
इसके पश्चात् श्री पळनीस्वामी कुछ देर मौन रहे, फिर उन्होंने हमारी गुफा के निकट से उस नवयुवक का मृत
शरीर बाहर निकालने की आज्ञा दी. मृत शरीर को बाहर निकालने के पश्चात् उन्होंने
प्रणवोच्चार आरम्भ किया. व्याघ्रेश्वर शर्मा “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” का
जयघोष कर रहा था. श्री पळनीस्वामी ने नवयुवक के शरीर में प्रवेश किया. शिथिल हो
चुके उनके वृद्ध शरीर को व्याघ्रेश्वर शर्मा नदी में प्रवाहित करने के लिए ले गया.
नूतन शरीर में प्रवेश कर चुके श्री पळनीस्वामी ने
आज्ञा दी, “तुम दोनों इसी क्षण यहाँ से प्रस्थान करो. वत्स, माधव! तुम अपने विचित्रपुर को जाओ. वत्स, शंकर, तुम तिरुपति महाक्षेत्र की और जाओ. माधव, तुमने अपने सूक्ष्म शरीर से पीठीकापुर के पुण्यवान
व्यक्तियों के दर्शन कर लिए हैं, वही तुम्हारे इस जन्म के लिए पर्याप्त है.
श्रीपाद श्रीवल्लभ अनुग्रह प्राप्तिरस्तु.”
तभी माधव विचित्रपुर की और चला पड़ा, मैंने तिरुपति की
और प्रस्थान किया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की लीलाओं का कोई अंता नहीं, यही सत्य है.
।।
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय जयकार हो।। .”
“श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये”.
अध्याय
५
शंकर
भट्ट का तिरुपति में आगमन, काणिपाक में
तिरुमलदास से भेंट
श्रीपाद
श्रीवल्लभ के अनुग्रह से शंकर भट्ट की शानिपीडा का निवारण
अपनी यात्रा करते-करते मैं परम पवित्र तिरुपति
महाक्षेत्र पहुँचा . मुझे ऐसी शान्ति का अनुभव हुआ, जैसा पहले कभी नहीं हुआ था.
तिरुपति महाक्षेत्र में पुष्करिणी में स्नान करके श्री वेंकटेश्वर स्वामी के दर्शन
किये. मंदिर के प्रांगण में ही ध्यानस्थ हो गया. ध्यानावस्था में श्री वेंकटेश्वर
स्वामी को स्त्री रूप में देखा.
बालात्रिपुर्सुन्दरी के रूप में दिखने वाली वह मूर्ती कुछ ही क्षणों में परमेश्वर
के रूप में परिवर्तित हो गई और थोड़ी देर में महाविष्णु के रूप में परिवर्तित हुई.
ध्यानावस्था में ही कुछ ही देर में वह मूर्ति चौदह वर्षीय अति सुन्दर बालयति के
रूप में प्रकट हुई. उस बालयति की दृष्टि अमृतमय प्रतीत हुई. दोनों नेत्रों से
सहस्त्रों माताओं के वात्सल्य और अनुराग की मानो वर्षा हो रही थी. इसी समय उस
बालयति के निकट कृष्ण वर्णीय कुरूप मनुष्य आया. उसने बालयति से कहा, “श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभू! आप समूचे जगत का नियंत्रण
करने वाले हैं. आपके भक्त शंकर भट्ट को आज से साढेसाती का काल आरम्भ हो रहा है. इस
विश्व में अनेक प्रकार के कष्ट हैं, उनका उसे अनुभव करवाऊंगा. प्रभु की आज्ञा हेतु मैं
यहाँ खडा हूँ.” करुणासागर प्रभु ने कहा, “हे
शनैश्चर! तुम कर्म कारक हो. जीवों को कर्मफल का अनुभव करवाकर उन्हें कर्म विमुक्त
करने वाले हो. तुम अपने धर्म के अनुसार कार्य करो. आश्रितों की रक्षा करना मेरी
प्रतिज्ञा है. अतः शंकर भट्ट की मैं तुमसे प्राप्त होने वाले कष्ट की अवधि में
सहायता करके उसे कष्ट से कैसे मुक्ति प्रदान करता हूँ, यह तुम
देखो.” श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी और श्री शनैश्चर के बीच हुए इस वार्तालाप के
पश्चात् वे दोनों ही मेरे ध्यान से लुप्त हो गए. परन्तु उसके पश्चात् भगवान की
मूर्ती का ध्यान करना असंभव हो गया. मेरे आपत्तिकाल का आरम्भ हो चुका था. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी कष्टों से मुझे मुक्ति अवश्य देंगे, यह दृढ़
विश्वास मन में था. मैं तिरुमला से तिरुपति आया.
तिरुपति के रास्ते पर मनमौजी ढंग से चला जा रहा था. मन
चंचल था. एक नाई ने जबर्दस्ती रोक कर कहा, “तुम बीस साल पहले घर से भागे हुए सुब्बय्या हो न? तुम्हारे माँ-बाप चिंताग्रस्त हैं. तुम्हारी पत्नी
रजस्वला हो चुकी है. उसके साथ गृहस्थी करो,
बाल-बच्चों के साथ सुख से रहो.”
तभी मैं बोला, “अरे, मैं कन्नड़ देश में रहने वाला शंकर भट्ट नामक ब्राह्मण
हूँ, पथिक हूँ, और पूण्य क्षेत्रों के दर्शन करता हुआ घूम रहा हूँ.
मैं श्री दत्त भक्त हूँ . श्री दत्त प्रभु
श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम से अवतरित हुए हैं, यह
सुनकर मैं कुरगड्डी की और जा रहा हूँ. परम पवित्र गायत्री की शपथ लेकर कहता हूँ, कि मैं ब्रह्मचारी हूँ. तुम सोच रहे हो, वह सुब्बय्या मैं नहीं.”
परन्तु मेरी आवाज़ सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था. वहाँ
बहुत से लोग जमा हो गए थे; हर कोई किसी न किसी कारण से मेरी निंदा ही किये जा
रहा था. मुझे सुब्बय्या नामक व्यक्ति के घर ले जाया गया. सुब्बय्या के माता-पिता
मुझे अपना बेटा समझकर अनेक प्रकार से मुझे समझा रहे थे. वे बोले, “अब हमें छोड़कर मत जाना. रजस्वला पत्नी को छोड़ कर
जाना घोर अपराध है.” उनमें से एक आदमी बोला,
“सुब्बय्या दाढ़ी-मूँछों से ढँक गया है. इसका क्षौरकर्म करने से पहला रूप सामने
आयेगा.” मैंने अनेक बार कहा कि मैं सुब्बय्या नहीं हूँ, मगर
मेरी बात सुनने वाला वहाँ कोई न था. ज़बरदस्ती मेरा क्षौरकर्म किया गया. मेरा सिर
पूरी तरह गंजा कर दिया गया. दाढ़ी-मूँछें भी निकाल दी गईं. मेरे गले में पड़ा पवित्र
जनेऊ भी निकाल फेंका. मेरे इलाज के लिए एक भूत-वैद्य को बुलवाया गया. वह रंग
बिरंगी, विचित्र वेश-भूषा में था. उसकी भयानक दृष्टी देखकर मेरा ह्रदय काँप गया.
उसने मुझे बांधकर मेरे सिर पर चाकू से वार किया. उस पर नींबू का रस और अन्य भी कई
प्रकार के रस डाले. वह पीड़ा मुझसे सही नहीं जा रही थी. इतना सब करने के पश्चात् यह
निष्कर्ष निकाला गया कि ‘सुब्बया को ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है, इसीलिये यह जनेऊ पहनकर घूमता है.’
तिरुपति में रहने वाले ब्राह्मण भी भयचकित हो गए थे.
वे यही समझे कि इस शहर में आया हुआ यात्री सुब्बया ही है, जिसे एक ब्रह्मराक्षस ने पकड़ रखा है. मुझे उस शहर के
श्रेष्ठ ब्राह्मणों के पास ले जाया गया. मैंने उनसे कहा कि मैं कन्नड़ देशीय स्मार्त
ब्राह्मण हूँ, भारद्वाज गोत्र का हूँ, संध्यावंदन करता हूँ, नमक-चमक
का भी मुझे ज्ञान है, परन्तु वे विश्वास करने को तैयार न थे. उन श्रेष्ठ
ब्राह्मणों ने भी यही फैसला सुनाया कि सुब्बय्या को एक कन्नड़ ब्राह्मण भूत ने
पछाड़ा है, अतः उसे योग्य उपायों से पूर्व स्थिति में लाया जाए.
सिर के घाव के कारण हो रही पीड़ा असहनीय थी. उसके कारण
मैं हैरान हो रहा था. मेरा विलाप अरण्यरुदन के समान ही था. जब मैं होश में आया तो
मुझे प्रतीत हुआ कि मेरे सामने बिलकुल मेरे ही जैसा, काले
तेज वाला. विकृत स्वरूप का आदमी बैठा है. मुझसे एक भी शब्द कहे बिना वह मुझमें समा
गया. साढ़ेसाती के प्रभाव के कारण आगामी साढे सात वर्षों तक मेरा कष्टदायक काल है, यह मैं समझ गया. मगर केवल श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
ही इस कठिन समय में मेरी रक्षा करेंगे ऐसा दृढ विश्वास मन में था. तपते ज्वर में
भी मै मन ही मन श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम-स्मरण कर रहा था. श्री चरणों का
नाम-स्मरण करते ही मेरी पीड़ा कम होनी आरम्भ हुई.
भूता वैद्य मुर्गियों की, बकरों
की बलि देते हुए अजीबा-अजीब सी पूजा किये जा रहा था. मुझे पथ्य का भोजन दिया जा
रहा था.
‘सुब्बया को ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है, अतः उसे शाकाहार ही दिया जाना चाहिए’ ऐसा मान्त्रिक ने कहा था. मेरे मन को सांत्वना मिली
कि श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की कृपा से ही मुझे शाकाहार दिया गया है. तीन दिनों
तक मैंने तीव्र नरक-यातनाओं को सहा. उस संकट के बीच भी श्री चरणों का स्मरण मैं
किये जा रहा था, अतः चौथे दिन से संकटों का आना बंद हो गया. वे लोग
मेरे शरीर पर विचित्र-विचित्र प्रयोग कर रहे थे. मान्त्रिक बीच-बीच में मुझे चाबुक
से मारता, मैं रोते-रोते आर्त स्वर में पुकारता, “श्री वल्लभा शरणं शरणं.” श्री दत्त प्रभु की अनन्य
भाव से सेवा करने वालों को नरक यातनाएँ क्यों मिलती हैं, इसका मुझे अचरज हो रहा था. तभी एक अजीब बात हुई. मेरे
शरीर पर चाबुक का वार हुआ, मगर मुझे तनिक भी पीड़ा नहीं हुई, बल्कि मान्त्रिक ही रोने लगा. वह मार तो मुझे रहा था, मगर उस मार की पीड़ा स्वयँ उसे ही हो रही थी. ऐसा
क्यों हो रहा है, यह वह समझ नहीं पा रहा था. वह मेरी ओर पागल के समान
देख रहा था. मगर मैं, यह सोचकर कि यह सब श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की ही
लीला है, मुस्कुरा रहा था. मैं पथ्य का ही भोजन कर रहा था, मगर वह भोजन भी मुझे अत्यंत मधुर प्रतीत हो रहा था.
मैं भरपेट खाना खा रहा था. भोजन को श्रीपाद स्वामी के अनुग्रह का प्रसाद समझ कर ही
ग्रहण कर रहा था. मगर उस मान्त्रिक को अपनी पसंद का माँसाहार भी विष के समान
प्रतीत हो रहा था. उसका शरीर भी क्षीण हो रहा था. अब वह मुझे पीड़ा पहुँचाने के
बजाय केवल मन्त्र, पूजा इत्यादि में अपना समय बिता रहा था. मेरा इलाज शुरू करने के
पांचवे दिन उसका घर जल गया, उस घर में कहीं भी अग्नि था ही नहीं, परन्तु फिर भी सबके समक्ष अचानक आग लग गई और क्षणमात्र
में ही सब कुछ भस्म हो गया. छठे दिन वह खिन्नातापूर्वक सुब्बय्या के घर आकर बोला, “सुब्बय्या को जिस ब्राह्मण भूत ने पछाड़ा है, वह मान्त्रिक है, उसने
मन्त्र प्रयोग से मेरे घर को दग्ध कर दिया.”
उसने कहा कि बेताल आदि क्षुद्र शक्तियों को प्रसन्न
करने के लिए अनेक प्रकार की पूजाएँ करनी पड़ेंगी, इसके
लिए काफी धन राशि की आवश्यकता होगी. मन्त्र-तंत्रों का कुछ भी लाभ नहीं हो रहा था.
मुझे मालूम था कि वह मान्त्रिक धन-लोभ के कारण इस प्रकार का व्यवहार कर रहा था.
यदि विधि का विधान सिर झुका कर मान लूं, और
सुब्बय्या की स्त्री को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करूँ, तो इससे अधिक लज्जाजनक स्थिति और क्या होगी? इससे बढ़कर विश्वासघात और क्या हो सकता है, इसका मुझे बड़ा खेद हो रहा था. मैं समझ नहीं पा रहा था
कि विधाता मुझसे इतना क्रूर व्यवहार क्यों कर रहा है. ऐसा प्रतीत हो रहा था, जैसे कोई मेरा कलेजा चीर रहा है. मैंने सुब्बय्या के
माँ-बाप से कहा, “मेरे माँ-बाप! अपनी पूरी समाप्ति (घर-बार) बेचकर इस
मान्त्रिक के मायाजाल में मत फंसो. मेरा स्वास्थ्य ठीक है. मैं तुम्हें अपने
माँ-बाप ही मानता हूँ.” उतने ही से मुझे मान्त्रिक से मुक्ति मिल गई. सुब्बय्या के
माँ-बाप बहुत प्रसन्न हो गए. उनकी आँखों में प्रसन्नता देखकर मेरी आँखें भी भर
आईं. “परस्त्री माता समान होती है, आने वाले संकट से मेरी रक्षा करें! मेरा धर्म भ्रष्ठ
न होने दें”, ऐसी प्रार्थना मैं अत्यंत दीन भाव से श्रीपाद स्वामी से मन ही मन कर
रहा था.
मेरा इलाज शुरू होने के आठ दिन बाद मैंने मेरी सेवा कर
रही सुब्बय्या की पत्नी से कहा, “मेरे बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं? क्या तुम्हें विश्वास है कि मैं सचमुच में सुब्बय्या
हूँ?” इस पर वह बोली, “जब मैं
दो बरस की थी, तब मेरा ब्याह हुआ था, अब मेरी
आयु बाईस बरस की है. आप मेरे पति हैं या नहीं, यह केवल ईश्वर ही जानते हैं और कोई
भी नहीं जानता. नवयौवना पत्नी को देखकर पुरुष धैर्य नहीं रख सकता. आपने इतनी पीड़ा
सहते हुए भी मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं किया. मुझे स्पर्श भी नहीं किया,
यह केवल उत्तम संस्कारों वाले व्यक्ति के लिए ही संभव है. आपके प्रति मेरे मन में
कोई भी भावना नहीं है. मैंने कुल की रीति का अनुसरण करते हुए धर्मपूर्वक जीवन
व्यतीत करने का निश्चय किया है. यदि आप मेरे पति हैं, तो इस
चरणदासी को छोड़कर न जाएँ, मेरा पति बीस साल पहले भाग गया था. मेरा विवाह बचपन
में ही, अनजाने में ही हो गया था. अतः आप अपनी पत्नी के रूप
में मुझे स्वीकार कर सकते हैं. मैं आपके मार्गदर्शन में ही रहूँगी. आप जो हमेशा
करते हैं, वह, श्रीपाद स्वामी का नामस्मरण करूंगी. सद्गुरू के चरणों
में मैं विनती करूंगी कि इस जटिल समस्या का धर्म सम्मत ढंग से निर्णय करे.”
उसका कथन मुझे युक्ति संगत प्रतीत हुआ. मैंने कहा, “श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी साक्षात् श्री दत्त प्रभु
हैं. इस कलियुग में उन्होंने अवतार धारण किया है. वर्त्तमान में वे कुरवपुर में ही
हैं. हमारे ह्रदय के भक्ति भाव के अनुसार वे आचरण करते हैं. यदि श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी को सद्गुरू के रूप में स्मरण किया जाए तो सद्गुरू जैसे अनुभव होते हैं. यदि
उन्हें परमात्मा के रूप में स्मरण करें, तो वे
सिद्ध कर देते हैं कि वे ही परमात्मा हैं. तुम भी श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का
स्मरण करो. तुम्हें उचित कर्त्तव्य का बोध होगा.”
उस दिन हवेली में भविष्य कथन करने वाला एक माला जंगम
आया. जंगम का वेष धारण किये उस व्यक्ति के हाथ में ताडपत्री ग्रन्थ था. हमारी
हवेली के सभी व्यक्तियों के लिए वह शीघ्र ही आदरणीय हो गया. वह सभी को उनके भूतकाल
की तथा भविष्यकाल की जानकारी बड़े अद्भुत प्रकार से देता था. उसके पास जो ताडपत्री
ग्रन्थ था, उसे रमल शास्त्र कहते थे. वह कहता था कि उस ग्रन्थ
में वर्णित घटनाएँ अचूक ढंग से घटित होती हैं. सुब्बय्या के माता-पिता के समाधान
के लिए वह हमारे घर भी आया. उसने मेरे हाथ में कुछ कौडियाँ देकर उन्हें ज़मीन पर
फेंकने के लिए कहा. इसके बाद कुछ हिसाब लगाकर अपने ताडपत्री ग्रन्थ से एक ताड़पत्र
निकाल कर पढ़ना आरम्भ किया, “प्रश्नकर्ता शंकर भट्ट नामक कन्नड़ ब्राह्मण है.
दत्तावतारी श्रीपाद श्रीवल्लभ के चरित्र का लेखन यही करेगा. पिछले जन्म में इसका
और इसके मित्र कन्दुकुर का जन्म इस शहर से
कुछ ही दूर स्थित मोगलीचर्ला नामक ग्राम में हुआ. उन्हें जुआ खेलने की आदत थी. उस
गाँव में श्री दत्त-प्रभु का एक स्वयंभू मंदिर था. इसका जन्म श्री दत्त मंदिर के
पुजारी के भाई के रूप में हुआ. बड़े भाई की अनुपस्थिति में यही पूजा-अर्चा किया
करता. श्री दत्त मंदिर के आँगन में यह और इसका मित्र जुआ खेलने में मगन रहते. यह
महान पाप है, इसका उन्हें कोई ज्ञान नहीं था. एक दिन मित्र के साथ
जुआ खेलते हुए इसने एक अजीब शर्त रखी. यदि इसका मित्र जीत गया तो जुए में हारी हुई
रकम देगा, और यदि यह जीता तो इसका मित्र अपनी पत्नी इसे देगा.
श्री दत्त प्रभु को इस शर्त का साक्षी मानकर उन्होंने जुआ खेलना आरम्भ किया.
श्री दत्त प्रभु देख रहे थे कि उनके सामने अत्यंत घृणित खेल खेला जा रहा है. जुए के उस खेल में
शंकर भट्ट जीत गया. शंकर के मित्र ने उसे अपनी पत्नी देने से इनकार कर दिया. झगड़ा
बड़े आदमियों तक पहुँचा. बिरादरी के ज्ञानी लोग एकत्रित हुए. महान पवित्र श्री दत्त
प्रभु के सम्मुख इतना बड़ा दुष्कृत्य किया गया. यह अत्यंत खेदजनक घटना थी. पराई
स्त्री का मोह रखते हुए उसे वक्र मार्ग से प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त करने के
कारण शंकर के सिर पर गर्म तेल डाला जाए, यह
निर्णय लिया गया. और जुए के खेल में अपनी पत्नी को दाँव पर लगाने वाले इसके मित्र
का इस प्रकार अंगभंग किया जाए कि वह नपुंसक हो जाए. तत्पश्चात इन दोनों का गाँव से
बहिष्कार कर दिया जाए, ऐसा न्याय विद्वानों ने दिया. उनके निर्णय का पालन
किया गया. शंकर भट्ट ने अपने पूर्व जन्म में अल्प समय के लिए श्री दत्त प्रभु की
सेवा की थी, इसलिए इस जन्म में इसके ह्रदय में ईश्वर भक्ति है.
इसका मित्र सुब्बय्या परम पवित्र तिरुपति क्षेत्र में क्षौर-कर्म करने वालों के घर
पैदा हुआ. उसका मन चंचल हो गया और वह विवाह के पश्चात् पागल होकर घर से भाग गया.
सुब्बय्या की भोलीभाली पत्नी निर्दोष है. उसके पातिव्रत्य के प्रभाव से इस रमल
शास्त्र के श्रवण करने के दूसरे दिन सुब्बय्या के मन की चंचलता कम होकर वह वापस
लौट आयेगा. उस दिन शंकर भट्ट की मुक्ति होगी. शंकर भट्ट शनि की साढ़ेसाती की दशा के
प्रभाव में है, जो श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के अनुग्रह से साढे सात
दिनों में ही निकल जायेगी. ईश्वर को साक्षी मानकर अनुचित कर्म अथवा अधर्म करने पर
श्री दत्त प्रभु कठोर से कठोर दंड देते हैं. सुब्बय्या के मन की चंचलता को दूर
करने में शंकर भट्ट के पुण्य कर्म का कुछ अंश खर्च होगा, ऐसा चित्रगुप्त ने लिखा है. कर्म का प्रभाव अत्यंत
सूक्ष्म रीति से काम करता है, इस सत्य को पहचान कर मनुष्य सदैव सत्कर्म ही करे.
दुष्कर्म कभी भी न करे. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जन्म कुण्डली के अनुसार उनके
अवतार की समाप्ति के कुछ शतकों के बाद त्रिपुर देश के जैन मतवादी अक्षय कुमार नामक
व्यक्ति द्वारा श्री पीठीकापुरम में श्री प्रभु की जानकारी पंहुचेगी. इससे पूर्व
उनकी लीलाओं का वर्णन करने वाला “श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत” प्रकाशित होगा.
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की करुणा का वर्णन मैं कैसे
करूँ? दूसरे ही दिन सुब्बय्या अपने घर वापस लौट आया. उसके
मन की चंचलता पूरी तरह नष्ट होकर वह स्वस्थ चित्त हो गया था. सुब्बय्या की पत्नी
को मैंने अपनी बहिन के रूप में स्वीकार किया. सुब्बय्या के माता-पिता से आज्ञा
लेकर मैं चित्तूर जिले के काणिपाकम गाँव पहुँचा.
काणिपाक चित्तूर से कुछ ही अंतर पर स्थित है. इस गाँव
में वरदराज स्वामी का, मणिकंठेश्वर स्वामी का और वरसिद्धि विनायक का मंदिर
है. मैं ईश्वर के दर्शन करके मंदिर से बाहर आया. वहाँ एक बड़ा कुत्ता खडा था. मुझे
बहुत डर लगा और मैं वापस वरसिद्धि विनायक के मंदिर में चला गया. कुछ देर प्रभु का
स्मरण करने के पश्चात् बाहर आया तो देखा कि उस कुत्ते जितना ही बड़ा एक और कुत्ता
वहाँ खडा है. मुझे डर हुआ कि आज ये कालभैरव मुझे काट कर ही दम लेंगे. मैं फिर से
वरसिद्धि विनायक के मंदिर के भीतर चला गया. मंदिर के पुजारी को मेरा आचरण बड़ा
विचित्र प्रतीत हुआ.
उसने पूछा, “बेटा, तू पल-पल बाहर जाकर फिर अन्दर वापस आ जाता है, इसका क्या कारण है?” मैंने
अपने भय का कारण उसे बताया. पुजारी बोला, “वे
अकारण किसी को नुक्सान नहीं पंहुचाते. वे एक धोबी के पालतू कुत्ते हैं. वह धोबी
श्री दत्तात्रेय का भक्त है. वह कहता है कि श्री दत्त प्रभु ने श्रीपाद श्रीवल्लभ
के नाम से इस भूमि पर अवतार लिया है. धोबियों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति है, फिर भी वह इस मंदिर में नहीं आता. अपने कुत्तों को
भेजता है. मैं श्री स्वामी के प्रसाद की गठरी बांधकर उसे देता हूँ, कुत्ते वह गठरी ले जाकर उसे देते हैं. तुम कह रहे हो, तुमने दो ही कुत्ते देखे है, जब उसके चारों कुत्ते आ जाते हैं, तभी मैं प्रसाद भेजता हूँ. चलो, देखते है, कि बाकी के दोनों कुत्ते आ गए अथवा नहीं.”
हम बाहर आये, तब तक
चारो कुत्ते वहाँ आ गए थे. पुजारी ने प्रसाद की गठरी बनाकर दी. वे चारों कुत्ते
मुझे चारों और से घेरकर खड़े हो गए. पुजारी बोला,
“कुत्तों की इच्छानुसार तुम उस धोबी के घर जाओ. तुम्हें लाभ ही होगा.”
मेरे जीवन की हर घटना श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
निर्देशानुसार ही घटित होती है, ऐसा मेरा विश्वास था. सुब्बय्या के घर में घटित घटना
के आधार पर मुझे ज्ञान हुआ कि जाती, कुल, आदि का भेद नहीं होता. एक चांडाल ब्राह्मण कुल में
जन्म ले सकता है. इस जन्म में जो ब्राह्मण है वह दूसरे जन्म में चांडाल के रूप में जन्म ले सकता है.
मानव अपने द्वारा किये गए पाप-पुण्य की गठरी उठाये जन्म जन्मान्तर कर्म के प्रवाह
में प्रवाहित होता रहता है.
शंकर
भट्ट और तिरुमलदास के बीच संवाद
मैं
धोबी के घर वाली गली में पहुँचा. तिरुमल्दास नामक वह धोबी ७० वर्ष का था. वह अपनी
झोंपड़ी से बाहर आया. जब मैं अन्दर गया तो उसने मुझे एक पलंग पर बिठाया. मेरे मन से
ब्राह्मण जन्म का अहंकार पूरी तरह नष्ट हो चुका था. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का
हर भक्त मुझे अपने आत्मीय जैसा प्रतीत हो रहा था. तिरुमलदास ने मुझे वरसिदधि
विनायक के मंदिर का प्रसाद खाने को दिया. मैंने प्रसाद ग्रहण किया. तत्पश्चात
तिरुमलदास ने कहना आरम्भ किया.
आइनविल्ली के गणपति ने ही
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लिया है.
वे बोले,
“बेटा, आज का दिन मेरे लिए अत्यंत भाग्यशाली है! आपके दर्शनों का लाभ हुआ. आप मेरे
घर कब आएँगे, माल्याद्रिपुर की और श्री पीठिकापुर की वार्ता कब सुनाएँगे, इसकी मैं उत्सुकता से राह देख रहा हूँ. बेटा, शंकर
भट्ट! वरसिद्धि विनायक का प्रसाद तुमने ग्रहण किया. तुम आज ही “श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत” का श्रीगणेश करो. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का आशीर्वाद तुम्हें
कुरवपुर में प्राप्त होगा.”
तिरुमलदास
ने अपना पूर्व वृत्तांत सुनाना आरम्भ किया. वे बोले, “मैं पिछले जन्म में एक
प्रतिष्ठित वेद पंडित था. परन्तु मैं परम लोभी था. मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े मैंने
गाय के नवजात बछड़े को एक पुरानी चिंधी चूसते हुए देखा. मैंने अपने लड़कों को आदेश
दिया कि उसे संभाल कर रखें. मृत्यु के समय मैंने मलिन वस्त्र का मोह रखते हुए
प्राण त्यागे, इसलिए मैंने रजक के रूप में जन्म लिया. मृत्यु
के समय जो इच्छा मन में रहती है, उसीके अनुसार अगला जन्म
प्राप्त होता है. पूर्व पुण्य के कारण ही मेरा जन्म गर्तपुरी (गुंटूर) मंडल के
पल्यनाडू प्रांत के माल्याद्रिपुर में हुआ. यही माल्याद्रिपुर कालान्तर में
मल्लादी के नाम से जाना जाने लगा. उस गाँव में मल्लादी नामक दो परिवार थे. महापंडित
मल्लादी बापन्नावधानी, जो हरितस गोत्र के थे, जबकि महापंडित
मल्लादी श्रीधर अवधानी कौशिक गोत्र के थे. श्रीधर अवधानी की बहन राजमांबा का विवाह
बापन्ना अवधानी के साथ हुआ. गोदावरी मंडल के अंतर्गत स्थित “आइनविल्ली” ग्राम में
आयोजित किये गए गणपति महायज्ञ के लिए ये दोनों भी गए थे. शास्त्रों के अनुसार यज्ञ
की अंतिम आहुति श्री गणपति अपनी सूंड में स्वीकार करेंगे और अपने स्वर्णकान्तिमय
स्वरूप का दर्शन देंगे, पंडितों की यही मान्यता थी. यज्ञ के
अंत में श्री गणपति ने स्वर्ण कांतिमय दर्शन दिए. अंतिम आहुति उन्होंने अपनी सूंड
में स्वीकार की और यह वचन भी दिया कि “मैं स्वयं अपनी संपूर्ण कला से गणेश चतुर्थी
के दिन श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लूँगा.” यज्ञ के लिए आये सभी लोग
आश्चर्यचकित हो गए. उस सभा में तीन व्यक्ति नास्तिक थे. वे बोले, “जो दिखाई दे रहा है, वह सब या तो इंद्रजाल है या
महेंद्रजाल है, मगर गणेश तो है ही नहीं. यदि यह गणेशा है, तो
एक बार फिर उनके दर्शन करवाएं.”
काणिपुर
विनायक की महिमा
होमकुण्ड की विभूति ने मानावाकृति ग्रहण कर ली, फिर वह महागणपति के रूप में
परिवर्तित हो गई. वह स्वरूप बोलने लगा, “मूर्खों! त्रिपुरासुर के वध के समय शिव ने; चक्रवर्ती राजा बलि का निग्रहण तथा शिव के आत्मलिंग को ले जाने वाले रावण
का विरोध करते समय विष्णु ने; महिषासुर का वध करते समय पार्वती ने; भूमि का भार
ग्रहण करने से पूर्व शेषनाग ने; सभी सिद्धियों की सिद्धि करने से पूर्व सिद्ध
मुनियों ने; संसार पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से मन्मथ ने; और इसी प्रकार
समस्त देवताओं ने मेरी आराधना करके ही अभीष्ट की प्राप्ति की. समस्त शक्तियों का
भण्डार मैं ही हूँ. मैं सर्व शक्तिमान हूँ, राक्षसी शक्ति भी मुझमें ही है. समस्त विघ्नहर्ता मैं ही हूँ. दत्तात्रेय
को क्या समझ बैठे? हरिहर पुत्र के रूप में धर्मं के शास्ता (प्रवर्तक) वे ही हैं. जब विष्णु
रूप में ब्रह्मा, रूद्र रूप विलीन हुआ, वही दत्तात्रेय रूप है. धर्मं शास्ता रूप में गणपति एवं षण्मुख रूप विलीन
होने पर उत्पन्न यह रूप भी दत्तरूप ही है. दत्तात्रेय सदैव त्रिमूर्ति स्वरूप ही
हैं. श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में महागणपति होने के कारण उनका अवतार गणेश चतुर्थी
के दिन ही होगा. उनके भीतर सुब्रह्मण्यम अंश होने के कारण वे केवल ज्ञान अवतार के
रूप में ही जाने जायेंगे. धर्म प्रवर्तक तत्व के कारण वे समस्त कर्मों का आदि मूल
समझे जायेंगे. यह अवतार माता-पिता के संयोग का फल नहीं होगा. ज्योति स्वरूप ही
मानवाकृति का रूप धारण करेगा.”
श्री गणपति आगे बोले, “मैं तुम्हें शाप
देता हूँ, सत्य स्वरूप देखकर
भी उसे असत्य कहा, अतः तुममें से एक अंधे के रूप में जन्म लेगा. सत्यस्वरूप की प्रशंसा करने
के स्थान पर उसका मखौल उड़ाया, अतः तुममें से एक गूंगे के रूप में जन्म लेगा. इतना विशाल भक्तजनों का
समुदाय उस सत्य का वर्णन कर रहा था, तब उसकी और दुर्लक्ष करते हुए उसे अनसुना करा दिया, अतः तुममें से एक
बहरे के रूप में जन्म लेगा. तुम तीनों बंधू रूप में जन्म लोगे. मेरी स्वयंभू
मूर्ती के दर्शन करने के पश्चात्त ही तुम दोष मुक्त होगे.”
“वत्स! वे तीनों इस काणिपूर में भाइयों के रूप में जन्मे. त्रिमूर्ति को दोष
देने से घोर अनर्थ होता है. ये तीनों भाई इसी गाँव में एक एकड़ ज़मीन में खेती किया
करते. उनके खेत के कोने में एक कुआँ था. मशक की सहायता से फसलों को पानी दिया जाता
था. एक बार सूखा पडा. भूमि का जल सूख गया. एक दिन उनके कुएं का सारा पानी समाप्त
हो गया. तीनों भाई फावड़े लेकर बालू-रेत बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहे थे. पानी
के नीचे वाले उस भाग में एक पत्थर पर जैसे ही फावडे का प्रहार हुआ, वहाँ से रक्त का
फव्वारा फूटा. उस रक्त के स्पर्श से गूंगा बोलने लगा. कुएँ में पानी भी धीरे-धीरे
भरने लगा. पानी के स्पर्श से बहरा सुनने लगा. तीसरे, अंधे भाई ने पानी के भीतर के पत्थर को जैसे ही स्पर्ष किया, उसे दृष्टी
प्राप्त हो गई. स्वयंभू विनायक की पत्थर की मूर्ती के शिरोभाग पर फावड़े का वार
लगने से रक्तस्त्राव आरम्भ हुआ था. उस स्वयंभू मूर्ती को बाहर निकाला गया.
उस वरसिद्धि विनायक की स्थापना करने हेतु बापन्नावधानी, जिन्हें सत्य
ऋषीश्वर कहा जाता था, आए. उनके साले (शालक) श्रीधरावधानी भी इस ग्राम में उनके साथ आए. वरसिद्धि
विनायक ने उनसे कहा, “मैं महाभूमि से इस लोक में आया हूँ. मैंने प्रथ्वी तत्व पर अवतार लिया है.
यहाँ तत्व कालान्तर में अनेक रूपों में परिवर्तित होगा. जलतत्व में, अग्नितत्व में, आकाशतत्व में मैं
अवतरित हो ही चुका हूँ.
तुमने “आइनविल्ली” में जो महायज्ञ किया था, उसीके भस्म ने यह रूप धारण किया है. आगामी कर्तव्य के बारे में मैं आदेश
देता हूँ. श्री शैल्य में कला (तेज) कम है. सूर्यमंडल के तेज का वहाँ शक्तिपात
करना होगा. जिस दिन तुम श्री शैल्य में शक्तिपात करोगे, उसी दिन गोकर्ण में, काशी में, बदरी में, केदार में मेरे विशेष अनुग्रह से एक ही समय में शक्तिपात होगा. श्रीपाद
श्रीवल्लभ के अवतरण का समय निकट आ रहा है. श्रीधर! तुम्हारा कुलनाम बदल कर श्रीपाद
रख रहा हूँ. तुम्हारे कौशिक गोत्रज वंशज आज से श्रीपाद कुलनाम से जाने जायेंगे.”
“वत्स! शंकर! मल्याद्रिपुर से सत्यऋषीश्वर और श्रीधर पंडित पीठीकापुर में
निवास करने के लिए गए. मैंने श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की अनेक बाल लीलाएँ देखी
हैं. कल मैं विस्तारपूर्वक उनके बारे में बताऊँगा. मेरी पहली पत्नी से मुझे एक
पुत्र प्राप्त हुआ. उसका नाम रविदास है. वह कुरवपुर में ही रहता है. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी की यथाशक्ति सेवा करता है. मैं श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार
काणीपुर में ही अपनी दूसरी पत्नी एवं पुत्र के साथ अपनी कुलावृत्ति का पालन करते
हुए रह रहा हूँ.”
“तुम श्री पीठीकापुरम में अनेक महानुभावों के दर्शन करोगे. जब वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी नामक व्यक्ति से मिलोगे, तो अनेक महत्त्वपूर्ण बातों के बारे में जानकारी मिलेगी. श्रीपाद प्रभु
श्री श्रेष्ठी को वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी उपनाम से पुकारते थे. श्री श्रेष्ठी के
वंश पर श्रीपाद प्रभु का अभय हस्त है. वत्सवाई उपनाम वाले नरसिंह वर्मा से भी
मिलना. श्रीपाद प्रभु से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध है, तुम्हारे द्वारा रचित होने वाले श्रीपाद प्रभु के चरित्रामृत को श्रीचरणों
का आशीर्वाद प्राप्त होगा. जिस ग्रन्थ की रचना तुम करोगे उसके अतिरिक्त अन्य कोई
भी ग्रन्थ श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की महिमा का
संपूर्ण रूप से वर्णन नहीं कर पायेगा, यह श्री चरणों की आज्ञा है.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय
जयकार हो.”
“श्रीपाद राजं शरणं
प्रपद्ये.”
अध्याय ६
नरसावधानी
का वृत्तांत
दूसरे दिन सबेरे, जप, ध्यान आदि करने के पश्चात तिरुमलदास बोले, “बेटा! श्रीपाद श्रीवल्लभ इस चराचर सृष्टि के मूल हैं. वे वटवृक्ष के समान
हैं. उनके सभी अंशावतार वटवृक्ष की विविध जटाओं के समान हैं. ये ही जटाएँ वापस
भूमि में जाकर स्वतन्त्र तत्व के रूप में प्रकट होती हैं, परन्तु उनका आधार
वटवृक्ष ही रहता है. देवों से, दानवों से लेकर समस्त प्राणियों को उन्हीं का आधार प्राप्त है. समस्त
शक्तियों को आश्रय उन्हीं से प्राप्त होता है. ये शक्तियाँ वापस उन्हीं में विलीन
हो जाती हैं. पर्वत के शिखर पर पहुँचे व्यक्ति को सभी रास्ते एक जैसे ही प्रतीत
होते हैं. उसी प्रकार सभी सम्प्रदायों के लोग दत्त-तत्व में ही समन्वय को प्राप्त
होते हैं.
हर प्राणी के चारों और कांति का एक वलय होता है. जब मैं पीठिकापुर में रहता
था, तो वहाँ एक योगी
आया. वह मूर्तियों के कांति-वलय के बारे में बताया करता था. वह यह बता सकता था कि
किसी व्यक्ति की कांति किस रंग की है और कितनी दूरी तक व्याप्त है. उसने श्री
कुक्कुटेश्वरालय आकर स्वयंभू दत्तात्रेय की कांति कितनी दूरी तक व्याप्त है और वह
किस रंग की है. इस बात की परीक्षा करने का निश्चय किया. उस योगी को स्वयंभू
दत्तात्रेय के स्थान पर श्रीपाद श्रीवल्लभ के दर्शन हुए. उनके मस्तक के चारों ओर
विद्युल्लता के समान अप्रतिम धवल कांति व्याप्त थी. उस धवल कांति के भीतर की ओर
व्याप्त नील वर्ण की कांति के उसे दर्शन हुए. वह मूर्ती उस योगी की ओर देखकर बोली, “वत्स! दूसरे
व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर कितनी दूर तक व्याप्त है, इसे जानने के प्रयत्न में अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ न गँवाओ. पहले अपने हित
के बारे में सोचो. कुछ ही दिनों में तुम्हारी मृत्यु होने वाली है. सद्गति प्राप्त
करने के बारे में विचार करो. सभी सत्यों का, सभी तत्व मूलों का मूल जो है, वह दत्तात्रेय मैं ही हूँ. इस कलियुग में पादगया क्षेत्र में महान सिद्ध
पुरुषों के, महान योगियों के
महान भक्तों के प्रेमपूर्ण आह्वान के कारण ही मैंने यहाँ अवतार धारण किया है.”
श्री स्वामी के इस उपदेश के फलस्वरूप उसके भीतर की पूर्व वासनाओं का विनाश
हो गया. सूक्ष्म शरीर की कांति संबंधी जानकारी प्राप्त करने की उसकी शक्ति
श्रीवल्लभ स्वामी में ही विलीन हो गई. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के उन्हीं के घर
में दर्शन पाकर वह धन्य हो गया. स्वच्छ, धवल कांति युक्त श्रीवल्लभ स्वामी अत्यंत निर्मल है, संपूर्ण योगावतार
हैं. नीले रंग की कांति वाले प्रभु अनंत प्रेम से, अनंत करूणा से परिपूरित है. ये रंग इन गुणों को प्रदर्शित करते हैं.
उस योगी के कुछ देर विश्राम कर लेने के पश्चात श्रद्धापूर्ण चर्चा आरंभ हुई.
क्या चतुर्वर्णों में विभाजित सूक्ष्म शरीर की कांति का भेद की दृष्टि से निर्णय
किया जाए? अथवा कुल-गोत्र की
दृष्टि से विचार किया जाये? किस वर्ण में जन्मे प्राणी का वेदोक्त विधि से उपनयन किया जाए? किस वर्ण में
जन्मे प्राणी का शास्त्रोक्त उपनयन करना चाहिए? उपनयन विधि में भृकुटी के मध्य में स्थित तीसरे नेत्र का क्या कोई संबंध है? यदि ऐसा न हो, तो
क्या कोई अन्य विशेष बात है? मेधावी व्यक्ति से क्या तात्पर्य है? इस प्रकार की चर्चा बड़ी देर तक गरमा-गरमी के साथ चल रही थी, परन्तु पंडितों का
एकमत नहीं हो रहा था.
सत्य ऋषीश्वर के नाम से जाने जाने वाले मल्लादी बापन्नावधानी ‘पीठिकापुर
ब्राह्मण परिषद्’ के अध्यक्ष थे. उन्हें लोग श्रद्धापूर्वक बापन्ना आर्य भी कहते
थे. वे मुख्यतः सूर्य और अग्नि की उपासना किया करते. पीठिकापुर में एक यज्ञ का
आधिपत्य करने की उनसे प्रार्थना की गई. यज्ञ के अंत में कुम्भ वृष्टि हुई. पूरा जन
समुदाय प्रसन्न हो गया. श्री वत्सवाई नरसिंह वर्मा नामक क्षत्रिय व्यक्ति ने विनती
की, कि श्री सत्य
ऋषीश्वर इसी गाँव में रह जाएँ, परन्तु श्री बापन्नाचार्य केवल यज्ञ-याग में मिला हुआ सीधा-धन ही ग्रहण
करते थे. यदि वह द्रव्य शुद्ध न हो तो वे उसे स्वीकार न करते. उन्होंने श्री वर्मा
की विनती से इनकार कर दिया.
श्री वर्मा के पास उनकी अत्यंत प्रिय कपिला गाय थी. उसका नाम था गायत्री. वह
खूब दूध देती. वह अत्यंत सुशील एवं साधु स्वभाव की थी. एक दिन गायत्री कहीं दिखाई
नहीं दी. कहीं खो गई. रास्ता भूल गई. श्री वर्मा को जब इस बात की जानकारी प्राप्त
हुई, तो उन्होंने श्री
बापन्ना आर्य से. जो ज्योतिष शास्त्र के पंडित थे, गायत्री के कुशल-क्षेम संबंधी प्रश्न किया. तब बापन्ना आर्य ने बताया कि
“श्यामलाम्बापुर (सामर्ला कोटा) में खान साहब नामक एक कसाई है. गायत्री उसीके पास
है. यदि जल्दी न पहुंचे तो उसका वध होने का भय है.” वर्मा ने श्यामलाम्बापुर की और
एक आदमी को भेजने के प्रयत्न में बापन्ना आर्य के सम्मुख एक शर्त रखी: बापन्ना
आर्य के कथनानुसार यदि गायत्री मिल जाती है, तो वर्मा बापन्ना आर्य के पांडित्य के सम्मान के रूप में उन्हें तीन एकड
भूमि और निवास के लिए घर देंगे. बापन्ना आर्य यदि इसे ग्रहण नहीं करते तो उन्हें
गोहत्या का पातक लगेगा. बापन्ना आर्य बड़ी दुविधा में पड़ गए. यदि वे यह दान स्वीकार
नहीं करते, तो वर्मा गाय की
ह्त्या होने देंगे. फलस्वरूप उन्हें गो ह्त्या का पातक लगेगा. बापन्ना आर्य ने
निर्णय किया कि गो ह्त्या के पातक की अपेक्षा पांडित्य-सम्मान को स्वीकार करना
श्रेयस्कर होगा. इस प्रकार गायत्री की रक्षा हो गई. पीठिकापुर वासियों का भाग्योदय
हो गया. श्री बापन्नावाधानी तीन एकड़ उपजाऊ भूमि के स्वामी हो गए. उनके निवास के
लिए घर की व्यवस्था भी हो गई. श्री बापन्ना आर्य के यहाँ वेंकटावधानी नामक एक
पुत्र तथा सुमति नामक पुत्री का जन्म हुआ. सुमति की जन्म कुण्डली में सभी शुभ
लक्षण उपस्थित थे. उसकी चाल एवं लचक महारानी को भी लज्जित करे इस प्रकार की थी.
उसका नामकरण किया गया – सुमति महारानी.
श्री बापन्ना आर्य की कीर्ति थोड़े ही समय में दसों दिशाओं में फ़ैल गई.
घंडिकोटा उपनाम का भारद्वाज गोत्रोत्पन्न, आपस्तन्भ सूत्र की वैदिक शाखा का एक
बालक, जिसका नाम अप्पल
लक्ष्मी नरसिंह राज शर्मा था, पीठिकापुर आया. उनके घर में कालाग्निशमन नाम से प्रख्यात दत्तात्रेय की
मूर्ती थी. वह दत्त मूर्ति पूजा के समय स्पष्ट रूप से बात करती थी. आदेश भी देती
थी.
अप्पल राज शर्मा के माता-पिता का उसकी बाल्यावस्था में ही देहांत हो जाने के
कारण वह अनाथ था. पूजा के समय कालाग्निशमन दत्तात्रेय ने आदेश दिया, “तुम पीठिकापुर
जाकर हरितस गोत्रीय, आपस्तम्भ सूत्र की वैदिक शाखा के मल्लादी बापन्नावधानी
के यहाँ विद्याध्ययन करो.” श्री बापन्ना आर्य ने दत्तात्रेय के आदेशानुसार अपने घर
विद्यार्थी के रूप में राज शर्मा को मधुकरी (तैयार भोजन जो ब्राह्मण को दिया
जाता है) न माँगने दी, अपितु अपने ही घर में उनके भोजन की
व्यवस्था कर दी. श्री बापन्ना आर्य शनि-प्रदोष काल में शिवाराधना किया करते. घर की
महिलायें भी शनि-प्रदोष के दिन शिव का व्रत करती थीं. प्राचीन काल में नन्द-यशोदा
ने शनि-प्रदोष शिवाराधना की थी, इसीके फलस्वरूप श्री कृष्ण
के लालन-पालन करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ. बापन्ना आर्य के साथ सुदैव से
श्री नरसिंह वर्मा, श्री वेंकटप्पैया श्रेष्ठी तथा कुछ
प्रमुख वैश्य लोग भी आराधना में सम्मिलित होते.
श्री
कुक्कुटेश्वर स्वामी के मुख से निकली वाणी.
सुमति एवं
अप्पल्रराजू का विवाह
एक बार शनि-प्रदोष शिवाराधना के बाद श्री कुक्कुटेश्वर के शिवलिंग से
विद्युत् कांति प्रकाशित हो रही थी. उस समय उसमें से वाणी निकली, “वत्स!
बापन्नार्या, अपनी बेटी सुमति महारानी का, निःसंदेह, अप्पल्रराजू से विवाह कर दो, इससे लोक कल्याण होगा. यह श्री दत्त प्रभु का निर्णय है. इस महानिर्णय का
उल्लंघन करने का अधिकार इस समूची चराचर सुष्टि में किसी भी व्यक्ति को नहीं है.”
यह देववाणी वहाँ उपस्थित वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा, और पूरे जन समुदाय ने सूनी. सभी आश्चर्यचकित हो गए.
गोदावरी मंडल के अंतर्गत आइनविल्ली ग्राम के राज शर्मा के बंधू मित्रों को, परिवार जनों को
संदेसा भेजा गया. विवाह का निर्णय किया गया. राज शर्मा के पास कोई घर-बार नहीं था.
अतः थोड़ा विचार-विमर्श किया गया.
श्री वेंकटप्पा श्रेष्ठी बोले, “मेरे पास कई घर हैं, उनमें से एक मैं राज शर्मा को दूंगा,” परन्तु राज शर्मा दान लेने के लिए तैयार नहीं थे. श्री श्रेष्ठी ने राज
शर्मा के सगे-सम्बन्धियों के साथ मिलकर राज शर्मा को पैतृक संपत्ति से प्राप्त
होने वाले गृह भाग का मूल्य निश्चित किया. वह एक वराह (प्राचीन काल में प्रचलित
सिक्का) निश्चित किया गया. श्री श्रेष्ठी के घर का मूल्य बारह वराह निश्चित
किया गया. राज शर्मा ने कहा कि शेष ग्यारह वराह देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं
है. वेंकटप्पा श्रेष्ठी ने उत्तर दिया कि उस परिस्थिति में वे अपने घर का मूल्य एक
वराह ही निश्चित करके उसे बेचने को तैयार है, “यदि आपको दान स्वीकार करने में संकोच है तो मुझे एक वराह देकर यह घर खरीद
लो.” सभी ने श्रेष्ठी के कथन को धर्म सम्मत मना. श्री अप्पल लक्ष्मी नरसिंह राज
शर्मा और सुमति महारानी का विवाह महापंडितों के वेद घोष के बीच, मंगल वाद्यों की
ध्वनी के बीच बड़े ठाठ से सम्पन्न हुआ.
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार अज्ञान के अन्धकार को दूर करने के लिए ही
हुआ है. इस हेतु से श्री प्रभु ने काल देवता को और कर्म देवता को शाप दिया. उस शाप
के कारण अज्ञान और अन्धकार के प्रतीक स्वरूप एक जन्मांध शिशु तथा अप्राकृतिक
प्रगति के स्वरूप को दर्शाने वाले एक लंगड़े बालक की राजा शर्मा को प्राप्ति हुई.
अपनी दोनों संतानों के इसा प्रकार से अपांग होने के कारण सुमति और राज शर्मा
अत्यंत दुखी थे.
आइनविल्ली ग्राम में विघ्नेश्वर का प्रसिद्ध मंदिर है. श्री राज शर्मा के
सगे संबंधी उनके दुख का परिहार करने के उद्देश्य से इस मंदिर का महाप्रसाद लेकर
पीठिकापुरम आए. सुमति और राज शर्मा ने अत्यंत आदर पूर्वक वह प्रसाद ग्रहण किया.
उसी रात को सुमति महारानी को ऐरावत ने स्वप्न में दर्शन दिए. उसके उपरांत भी कुछ
दिनों तक उसे स्वप्न में शंख, चक्र, गदा, पद्म, त्रिशूल, विविध
देवता, ऋषि, सिद्ध पुरुष,
योगी दिखाई देते. कुछ दिनों के पश्चात उसे जागृत अवस्था में भी दिव्य दर्शन होने
लगे. आंखें बंद करते ही दिव्य कांति युक्त, तप-समाधि में मग्न योगी, मुनि अद्भुत दर्शन देते.
देवताओं के जन्म नक्षत्र और सुमति के प्रसव
समय के नक्षत्र के बीच संबंध.
सुमति
महारानी ने अपने पिता को अपने दिव्य अनुभवों के बारे में बताया. वे बोले,
“ये सब लक्षण महापुरुष के जन्म के सूचक हैं.” सुमति महारानी के मामा श्रीधर पंडित
बोले, “बेटी! सुमति! रवि (सूर्य) के जन्म-नक्षत्र विशाखा और
श्री रामचंद्र के अवतार का संबंध है. कृत्तिका चन्द्रमा का जन्म नक्षत्र है. इसका
श्री कृष्णावतार से संबंध है. पूर्वाषाढा नक्षत्र पर जन्मे अंगारक का श्री लक्ष्मी
नरसिंह अवतार से संबंध है. श्रवण नक्षत्र पर जन्मे बुध का बुद्धावतार से संबंध है.
पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र पर जन्मे गुरू का संबंध विष्णु अंश से है. पुष्य नक्षत्र
पर जन्मे शुक्र का भार्गव राम से संबंध है, रेवती नक्षत्र पर
जन्मे शनि का कूर्मावतार से संबंध है. भरणी नक्षत्र पर जन्मे राहू का वराह अवतार
से संबंध है. आश्लेषा नक्षत्र पर जन्मे केतु का मत्स्यावतार से संबंध है. तुमने जो
प्रश्न किया उसका संबंध देवी रहस्य से है. कोटी-कोटी ग्रहों को, नक्षत्रों को, ब्रह्मांड की स्थिति एवं गति को
निर्देश देने वाले श्री दत्त प्रभु ही जन्म लेने वाले हैं, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास
है.”
दत्त प्रभु
नित्य वैभव विभूति हैं
अपने दिव्य अनुभवों और श्रीधर पंडित के विचार के बारे में सुमति महारानी ने
राज शर्मा को बताया. तब राज शर्मा बोले, “मैं पूजा के समय कालाग्निशमन दत्त प्रभु से पूछता हूँ. कालाग्नि शमन दत्त
प्रभु की पूजा को देखने का किसी भी व्यक्ति को अधिकार नहीं है. यह नियम है. पूजा
के उपरांत दत्त प्रभु मानव रूप में सम्मुख बैठकर बोलते हैं. पश्चात उसी मूर्ती में
विलीन हो जाते हैं. यह हमारा प्रतिदिन का नियम है. सामान्य विषय अथवा स्वार्थपूर्ण
समस्या का निवेदन हम दत्त प्रभु से नहीं करते.”
उस दिन पूजा के समय श्री दत्त प्रभु प्रसन्न थे. पूजा के पश्चात वे मानव रूप
में सम्मुख बैठे और बोले, “श्रीधर! आओ!” श्री दत्त मूर्ती में से एक रूप बाहर निकल कर उनके सामने
ध्यान मुद्रा में बैठा. फिर अंगुली निर्देश करके, “श्रीधर! आओ!” ऐसा कहा. तत्काल वह रूप उन्हीं में विलीन हो गया. राज शर्मा
आश्चर्यचकित हो गए. श्री दत्त प्रभु बोले, “अभी जो रूप तुमने देखा वह आगामी शताब्दी में होने वाला एकमेव अंशावतार ही
है. मुझमें लीन हो चुके जीवन मुक्त प्राणियों को भी मेरे बुलाने पर आना पड़ता है,
और मेरी वापस जाने की आज्ञा होने पर पर्दे के पीछे लुप्त होना पड़ता है. मेरी आज्ञा
का पालन उन्हें करना ही पड़ता है. मेरी लीला-विभूति केवल पृथ्वी तक ही सीमित नहीं
है. यह समूचा ब्रह्मांड मेरे हाथ में एक गेंद के समान खिलौना है. मेरे एक लत्ता
प्रहार से वह करोड़ों योजन दूर जाता है. मैं जन्म मृत्यु से परे हूँ.” ऐसा कहते हुए
श्री दत्त प्रभु ने राज शर्मा के भ्रूमध्य को स्पर्श किया. तत्काल राज शर्मा की
पूर्व स्मृति जागृत हो गई. उसने किसी युग में विष्णु दत्त नाम से जन्म लिया था और
उसकी पत्नी सुमति का जन्म सोमदेवम्मा के नाम से हुआ था, ऐसा उसे ज्ञान हुआ. श्री दत्त प्रभु आगे बोले, “मैंने दत्त स्वरूप में दर्शन देकर यह पूछा था कि तुम्हारी क्या इच्छा है.
तब तुम लोगों ने विनती की थी कि पितृ श्राद्ध के दिन तुम्हारे यहाँ भोजन गृहण
करूँ. सूर्य एवं अग्नि के साथ मैंने श्राद्ध का भोजन किया. तुम्हारे पितृ देवों को
शाश्वत ब्रह्म लोक प्रदान किया. मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ नाम से अवतरित होकर पिछले
९०० वर्षों से इस भूमि पर योगियों, महापुरुषो को दर्शन दे ही रहा हूँ. पीठिकापुर में भारद्वाज महर्षि ने
त्रेतायुग में सवित्र काठक यज्ञ किया था। तभी से उस यज्ञ का भस्म पर्वत के समान
जमकर स्थिर हो गया है. कालान्तर में वह भस्म द्रोणागिरी पर्वत पर छिड़का गया. जब
हनुमान द्रोणागिरी पर्वत ले जा रहे थे तो उसका एक छोटा अंश गंधर्वपुर (गाणगापुर)
में गिरा. गंधर्वपुर भीमा और अमरजा नामक दो पवित्र नदियों का संगम प्रदेशा है.
श्रीपाद श्रीवल्लभ अवतार की समाप्ति के पश्चात मैं, मीन अंश, मीन लग्न पर करंज नगरी में शुक्ल यजुर्वेदीय वाजसनेय माध्यन्दिन शाखा में
नृसिंह सरस्वति के नाम से जन्म लेकर गंधर्वपुर में अनेक लीलाएँ करूंगा. श्री शैलम
के कर्दलीवन में ३०० वर्षों तक तपस्या करने के पश्चात स्वामी समर्थ के नाम से
प्रज्ञापुर में निवास करूंगा. जब शनि मीन राशि में प्रवेष करेगा, तब इस शरीर का
त्याग करूंगा.”
दत्त प्रभु का उपरोक्त वक्तव्य राजशर्मा ने अपनी धर्मपत्नी को बताया, तब
सत्य्रऋषिश्वर बापन्ना आर्य बोले, “ बेटा!
राजशर्मा! अपने पूर्व युग के जन्म में श्री दत्तप्रभू को, सूर्य को, अग्नि को श्राद्ध
का भोजन देने वाले तुम पुण्यात्मा हो. इस जन्म में भी श्री दत्त प्रभु किसी भी रूप
में आकर भोजन मांगेंगे. यदि वह दिन पितृश्राद्ध का हो, तो भी बिना किसी संकोच के ब्राह्मणों के भोजन करने से पूर्व ही यदि श्री
दत्तात्रेय ने भोजन माँगा, तो अवश्य देना. पुत्री! सुमति! इस बात को ध्यान में रखना.”
“वत्स! शंकर भट्ट! श्री दत्त प्रभु की लीलाएँ अलौकिक हैं. अब तक कभी न सुनीं, ऐसी अपूर्व हैं .
वह महालय अमावस्या का दिन था. राज शर्मा पितृ श्राद्ध की तैयारी कर रहे थे. द्वार
के सामने “भवति भिक्षां देही!” ऐसी पुकार सुनकर सुमति महारानी ने उस अवधूत को
भिक्षा दी. “कुछ वरदान मांग!” ऐसा कहने वाले उस अवधूत से सुमति महारानी बोली, “बाबा! आप अवधूत
हैं. आपका वचन सिद्ध वचन ही है. विद्वान लोग कहते हैं कि श्रीपाद श्रीवल्लभ का
अवतार शीघ्र ही इस भूमि पर होने वाला है. श्री दत्त प्रभु वर्त्तमान में किस रूप
में संचार कर रहे हैं ? ऐसा ज्ञात होता है कि पिछले सौ वर्षों से श्री दत्त प्रभु
पृथ्वी पर श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में विचरण कर रहे हैं. आपने मुझसे कहा कि “कुछ
वरदान मांग!” श्रीपाद श्रीवल्लभ का रूप देखने की मेरी तीव्र इच्छा है.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ
का आविर्भाव
यह सुनकर उस अवधूत ने त्रिभुवन को दहलाने वाला, भूकंप के समान गडगडाहट वाला, विकट हास्य किया.
सुमति महारानी को प्रतीत हुआ कि उसके चारों ओर का विश्व पल भर में अदृश्य हो गया
है. उसके सम्मुख १६ वर्ष का एक सुन्दर बालक यति के रूप में प्रकट हुआ और बोला, “माँ! मैं ही
श्रीपाद श्रीवल्लभ हूँ , मैं ही दत्त हूँ. मेरे अवधूत रूप में तुमने मुझे श्रीवल्लभ
के रूप में देखने की इच्छा प्रकट की. वह इच्छा पूर्ण करने के लिए मैंने तुम्हें
श्रीवल्लभ के रूप में दर्शन दिए. मेरे इस श्रीवल्लभ रूप में तुम मुझसे कुछ भी माँग
सकती हो. तुमने भोजन देकर मुझे तृप्त कर दिया है. जो मांगोगी वह वरदान दूं, ऐसी मेरी इच्छा है.
इस जगत के लोग यदि संकल्प रूप में पाप कर्म करें, तो उन पापों का फल ही प्राप्त होगा. संकल्प से पुण्य कर्म करने पर पुण्य
कर्मों का फल प्राप्त होगा. निष्काम कर्म का आचरण करें तो उसे अकर्म कहते हैं. वह
न तो सुकर्म होता है और न ही दुष्कर्म. अकर्म का पाप अथवा पुण्य, किसी भी प्रकार
का फल नहीं होने से कोई अन्य फल ही देना पड़ता है. वह ईश्वराधीन है. अर्जुन ने
अकर्म किया, इसी कारण
श्रीकृष्ण ने उसे कौरवों को मारने की आज्ञा दी. इस प्रकार, उन्हें मारने से पाप
नहीं पड़ेगा, ऐसा श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था. कौरवों का संहार करना ईश्वरीय
निर्णय था. तुम दंपत्ति ने भी विशेष अकर्म किया है. इसलिए लोकहितार्थ कुछ प्रतिफल
देना होगा. अपनी इच्छा निःसंकोच होकर कहो, उसे अवश्य पूर्ण करूंगा.”
श्री दत्तात्रेय के
दर्शन के उपरांत सुमति महारानी का संकल्प
उस दिव्य मंगल मूर्ती को देखकर सुमति महारानी ने उनका चरण स्पर्श किया. श्री वल्लभ स्वामी ने सुमति महारानी को
ऊपर उठाकर कहा, “माँ ! पुत्र का चरण स्पर्श करना अयोग्य है. इससे पुत्र की आयु क्षीण होती
है.” तब सुमति बोली, “श्रीवल्लभ प्रभु! माँ कहा है, तो यह आपका सिद्ध वचन है. इसी वचन को सत्य करें. मेरे पुत्र के रूप में
जन्म लें.” इस पर श्री दत्ता प्रभु ने “तथास्तु!” कहा और बोले, “मैं श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में तुम्हारे गर्भ में आऊँगा. माँ यदि पुत्र के चरण स्पर्श करे, तो पुत्र की आयु
निश्चय ही क्षीण होती है. अतः मैं धर्मं-कर्मों के सूत्रों के विरुद्ध नहीं
जाऊंगा. पुत्र के रूप में १६ वर्षों तक जीवन व्यतीत करूंगा.” इस पर सुमति बोली, “यह कितना अविचार
है! सिर्फ १६ वर्षों की आयु!” यह कहकर वह विलाप करने लगी. तब श्री प्रभु बोले, “माँ! १६ वर्षों
तक तुम्हारी आज्ञा का पालन करते हुए रहूँगा. ‘प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं
मित्रवदाचरेत्’ ऐसा शास्त्रों में कहा है. १६ वर्ष के पुत्र से मित्र समान व्यवहार
ही करना चाहिए. अपनी इच्छाएँ उस पर थोपना नहीं चाहिए. मुझ पर विवाह करने हेतु दबाव
न डाला जाए. यति होकर स्वेच्छा से भ्रमण करने की अनुमति दी जाए. यदि मेरे इस
संकल्प के विरुद्ध दबाव डाला जाएगा, तो मैं घर में नहीं रहूँगा.” ऐसा कहकर श्री
दत्त प्रभु तत्काल अदृश्य हो गए.
सुमति महारानी अवाक् रह गई. उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था. पूरे वृत्तांत का
उसने अपने पति के सामने वर्णन किया. तब अप्पल राजू बोले, “सुमति, चिंता न करो. श्री
दत्त प्रभु इस प्रकार हमारे घर भिक्षा हेतु आयेंगे, इसके बारे में तुम्हारे पिता ने पहले ही कहा था. श्री दत्त प्रभु करुणा के
महासागर हैं. श्री वल्लभ का जन्म होने दो, बाद में विचार करेंगे.”
अप्पल राजू के घर अवधूत आये थे, यह समाचार पूरे गाँव में फ़ैल गया. पितृदेवों के लिए अत्यंत प्रमुख महालय
अमावस्या के दिन ब्राह्मणों के भोजन करने से पहले अवधूत को भिक्षा दी गई, इस विषय पर चर्चा
की गई. श्री बापन्नावधानी ने कहा, “श्रीपाद श्रीवल्लभ का जन्म होने वाला है, ऐसा सभी कहते हैं! अवधूतों को साष्टांग प्रणाम करना उचित ही है! इसमें
सुमति का कोई दोष नहीं है. पुत्र रूप में जन्म लेने के बाद साष्टांग प्रणाम करने
से उसकी आयु क्षीण होती है, परन्तु अवधूत वेष में होने पर साष्टांग प्रणाम करने में कोई गलती नहीं है.”
इस घटना से पीठिकापुरम के सभी ब्राह्मणो की ईर्ष्या बढ़ गई. विशेषतः नरसावधानी
नामक पंडित की. अमावस्या के दिन सभी पितृ कार्य में मग्न थे. भोक्ताओं की कमी थी, यह बड़ी समस्या थी.
मगर श्री बापन्ना आर्य ने कहा कि अप्पल राजू के घर में कार्य निर्विघ्न संपन्न
होगा. श्री राज शर्मा कालाग्निशमन दत्त का ध्यान कर रहे थे. तभी तीन अतिथि भोक्ता
के रूप में आये, और पितृ कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हुआ.
“वत्स! शंकर भट्ट! उस दिन की चर्चा का मुख्य विषय यह था कि वैश्य वर्ण के
लोगों को वेदोक्त उपनयन करने का अधिकार है अथवा नहीं? ब्राह्मणों की परिषद् बैठी. बंगाल देश से नवद्वीप के आशुतोष नामक पंडित
पादगया क्षेत्र में आये हुए थे. उनके पास अत्यंत प्राचीन नाडी ग्रन्थ था. उन्हें
भी परिषद् में आने का निमंत्रण भेजा गया. बापन्नाचार्य ने कहा कि जहाँ तक
नियम-निष्ठा का प्रश्न है, तो ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य एक समान ही होते हैं.”
श्रीपाद स्वामी के जन्म के समय पर दृष्टिगोचर
हुआ अद्भुत दृश्य
तभी मैंने
कहा, “महाराज, श्रीपाद प्रभु की लीला विस्तार पूर्वक
वर्णन करके मुझे धन्य करें.”
“अरे,
शंकर भट्ट! नरसावधानी बापन्ना आर्य पर क्रोधित हो गए और उन्होंने येन-केन प्रकारेण
उनका अपमान करने का निश्चय किया. उनकी (नरसावधानी की) बगुलामुखी साधना विफल होने
का एकमेव कारण बापन्नार्य ही हैं, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था.
उन्होंने यह कुप्रचार करना आरम्भ किया कि बापन्नार्य ने तांत्रिक प्रयोग से उनकी
मंत्रसिद्धि को निष्प्रभ कर दिया है. नाडी-ग्रन्थ में श्रीपाद प्रभु के अवतार के
विषय में जो विवरण था, वह उन्हें विचलित कर रहा था.
नाडी-ग्रन्थ मूलतः अविश्वसनीय है; बापन्नार्य ने मत्स्याहारी
ब्राह्मण को भोजन कराया, यह अनाचार था,
ऐसा वाद नरसावधानी ने प्रस्तुत किया. मनुष्य पूर्णब्रह्म का अवतार कदापि नहीं हो
सकता, तो नन्हा बालक श्रीपाद श्रीवल्लभ सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान श्री दत्त प्रभु का अवतार किस प्रकार हो सकता है? श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने अत्यंत शैशव अवस्था में किया हुआ
प्रणवोच्चार, झूले में किया हुआ शास्त्र-प्रसंग और अपनी आयु
को शोभा न देने वाला प्रज्ञा (बुद्धि) का प्रदर्शन – नरसावधानी यह सब मानने को तैयार नहीं थे. उन्होंने ऐसा
प्रचार किया कि कोई विद्वान ब्राह्मण श्रीपाद के शरीर में प्रवेश करके यह सब कहता
है. श्री कुक्कुटेश्वर के मंदिर में स्थित स्वयंभू दत्त ही वास्तविक दत्तात्रेय
हैं. वे ही वरदान प्रदान करने वाले हैं. इस बालक को दत्त स्वरूप समझना गलत है.
नरसावधानी सबको यही बात समझाने का प्रयत्न कर रहे थे.
श्रीपाद
स्वामी के जन्म के बाद (जिस स्थान पर उन्हें सुलाया जाता था,
वहाँ) लगातार नौ दिनों तक तीन फनों वाला नाग अपने फन उभार कर बालक पर छाया करता
था. श्रीपाद स्वामी माता के गर्भ से साधारण बालक की भाँति नहीं जन्मे, बल्कि ज्योति स्वरूप से अवतरित हुए थे. उनके जन्म के समय महारानी सुमति
मूर्छित हो गईं. प्रसूति गृह से मंगल वाद्यों की ध्वनि सुनाई देने लगी. थोड़ी ही
देर में आकाशवाणी हुई और सभी को बाहर जाने का आदेश हुआ. श्रीपाद स्वामी के
सान्निध्य में चार वेद, अठारह पुराण और महापुरुष ज्योति रूप
में प्रकट हुए और पवित्र वेद मन्त्रों का घोष बाहर सबको सुनाई दिया. थोड़ी देर के
बाद सब कुछ शांत हो गया. ये अद्भुत घटनाएँ बापन्नार्य को भी अगम्य और आश्चर्यकारक
प्रतीत हुई.
श्रीपाद
स्वामी की बाल लीलाएँ
श्रीपाद अब एक वर्ष के हो गए थे. आठ-दस माह की आयु से ही वे अपने नाना
बापन्नार्य के साथ पंडित-परिषद् में जाया करते. नाना जी अपने पोते को साथ लेकर
जाते.
नरसावधानी अपने घर राजगिरे का साग उगाया करते थे. राजगिरे की भाजी अत्यंत
स्वादिष्ट होती है. गाँव के लोग नरसावधानी से उस साग के लिए विनती करते, परन्तु वे यह साग
किसी को भी नहीं देते. यदि उन्हें किसी से कोई काम करवाना होता, तो उसे साग देकर
इच्छित कार्य करवा लेते. श्रीपाद ने
एक बार अपनी माँ से राजगिरे का साग बनाने को कहा. वह साग भी उन्हें नरसावधानी के
घर का ही चाहिए था. परन्तु यह काम कठिन था. श्रीपाद शैशवावस्था में ही स्वेच्छा से
चलकर नरसावधानी के घर जाया करते. उनके घर में शास्त्रों से संबंधित चर्चा करते,
साथ में चित्र-विचित्र लीलाएँ करते. पीठिकापुर में एक महापंडित की मृत्यु हो गई
थी. नरसावधानी सबसे कहते कि उस पंडित की प्रेतात्मा श्रीपाद से विचित्र कार्य करवा
रही है. बापन्नाचार्य और राज शर्मा उस बालक का योग्य उपचार करवाने के स्थान पर उसे
दत्तात्रेय का अवतार समझ रहे हैं.
पीठिकापुर पादगया क्षेत्र होने के कारण पितृ देवताओं का प्रमुख स्थान है..
यहाँ मृत आत्माओं से संपर्क स्थापित कर उनसे संभाषण करने की सामर्थ्य रखने वाले
तत्ववेत्ता रहते है, श्रीपाद के शरीर में किसी महापंडित की आत्मा ही वास कर रही है और वही उनसे
अगम्य लीलाएँ करवा रही है, पीठिकापुर में यही धारणा धीरे-धीरे दृढ़ होती जा रही थी.
तिरुमलदास पर श्रीपाद स्वामी का दिव्य अनुग्रह
तिरुमलदास
आगे बोले, “जब मैं मल्याद्रिपुरम से पीठिकापुर आया तब श्री बापन्नार्य और राजमाम्बा
के घर में रजक था. नरसावधानी के घर का रजक वृद्धावस्था के कारण मृत्यु को प्राप्त
हो चुका था. उस रजक का पुत्र वायसपुर अग्रहार (वर्त्तमान काकीनाडा) चला गया था, इसलिए उनके घर में भी रजक का काम मैं ही करता. बचपन से ही
बापन्नाचार्युलु के सहवास में होने के कारण मेरी सत्प्रवृत्ति जागृत हो गई थी और
ह्रदय में अध्यात्म की ज्योति प्रज्ज्वलित हो गई थी. जिस दिन मैं नरसावधानी को
देखता उस दिन मेरे पेट में विकार उत्पन्न होकर मेरी अवस्था अत्यंत दीन हो जाती, मैं अन्न भी ग्रहण न कर पाता. नरसावधानी के वस्त्र मैं स्वयं न धोता.
मेरा पुत्र रविदास उन्हें धोया करता. मैं सिर्फ सात्विक प्रवृत्ति के लोगों के
वस्त्र ही धोता था.
नरसावधानी
तक यह वार्ता पहुँची कि उनके वस्त्र मैं नहीं, बल्कि मेरा बड़ा पुत्र रविदास धोता
है. उन्होंने आज्ञा दी कि उनके वस्त्र मैं स्वयं धोऊँ. उनकी आज्ञा मानकर मैं
नरसावधानी के वस्त्र स्वयँ धोने लगा. कपडे धोते-धोते मैं श्रीपाद स्वामी का
नाम-स्मरण किया करता. मेरे धोये हुए वस्त्र लेकर रविदास नरसावधानी के घर गया. जब
मेरे धोये हुए वस्त्र और लोगों ने पहने तो किसी को भी कुछ न हुआ,
परन्तु जब नरसावधानी ने वस्त्र पहने तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो बदन पर बिच्छू
और कनखजूरे चल रहे हैं. उन वस्त्रों में उनका शरीर यूँ जलने लगा, मानो अग्नि पर
रखा हो. नरसावधानी ने मुझे बुलाया और क्रोधित होकर बोले कि मैंने किसी क्षुद्र विद्या का, मन्त्र का प्रयोग
उनके वस्त्रों पर किया है. इस बात की शिकायत उन्होंनें न्यायाधीश से कर दी. परन्तु
चतुर न्यायाधीश ने मुझे निर्दोष घोषित करते हुए छोड़ दिया. मैं प्रसन्नता से घर
लौटा. कुछ ही देर में श्रीपाद प्रभु एक सोलह वर्षीय युवक के रूप में हमारे घर आये.
श्रीपाद प्रभु चाहे जिस रूप में भक्तों को दर्शन देते. मैं आश्चर्य से बोला, “महाराज, आपने अति उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लिया है, अतः हम रजकों की बस्ती में आपका आना उचित नहीं.” तब प्रभु बोले, “नरसावधानी जैसे ब्राह्मण जो अपने सर पर पापों की गठरी उठाए फिरते हैं, वास्तव में वे रजकों से निम्न श्रेणी के होते हैं. परन्तु तुम्हारे जैसे
रजक, जिनमें ब्राह्मणों के प्रति आकर्षण है, उनसे कहीं श्रेष्ठ होते हैं.”
श्रीपाद स्वामी के ये शब्द सुनकर मैं उनके चरणों में नतमस्तक हो गया और
फूट-फूट कर रोने लगा. श्री प्रभु ने मेरी और अमृतमयी द्रष्टि से देखा और अपने
दिव्य हाथों का स्पर्श करके मुझे उठाया. फिर उन्होंने अपना दाहिना हाथ मेरे मस्तक
पर रखा और तत्क्षण मुझे अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान हुआ. मेरे भीतर की योग
शक्तियों को चालना मिली. मानो कुण्डलिनी शक्ति भी जागृत हो गई, ऐसा अनुभव होने
लगा. श्रीपाद प्रभु धीरे-धीरे चलकर अंतर्धान हो गए.
श्रीपाद प्रभु ने माँ से ज़िद की कि उनके लिए राजगिरे का साग बनाएँ. उन्हें
नरसावधानी के घर का साग चाहिए था, मगर यह बात असंभव प्रतीत हो रही थी. तब बापन्नार्य बोले, “वत्स, श्रीपाद! कल सुबह मैं
तुम्हें नरसावधानी के घर ले चलूँगा, तुम स्वयँ उनसे राजगिरे का साग देने की विनती करना, परन्तु यदि
उन्होंने देने से इनकार कर दिया तो फिर कभी उस साग के लिए जिद न करना.”
दूसरे दिन बापन्नार्य बालक श्रीपाद को लेकर नरसावधानी के घर गए. उनके घर
पहुँचते ही बापनार्य श्रीपाद से बोले, “श्रीपाद! बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लेना चाहिए.” नरसावधानी बाहर
ओसारे में बैठे थे. उनकी लम्बी शिखा पीठ पर लहरा रही थी. अपनी शिखा नरसावधानी को
अत्यंत प्रिय थी. श्रीपाद स्वामी ने नरसावधानी की ओर देखा और दोनों हाथ जोड़कर
प्रणाम किया. जैसे ही बालक श्रीपाद की तीक्ष्ण दृष्टि नरसावधानी की पीठ पर लहराती
शिखा पर पडी, एक महदाश्चर्य की बात हुई. वह शिखा अपने आप झड कर नीचे गिर पडी. यह देखकर
नरसावधानी बड़े परेशान हो गए. अब बालक श्रीपाद ने कहा, “नानाजी! नरसावधानी की अत्यंत प्रिय शिखा झड गई है, अब क्या उनसे
राजगिरे का साग मांगना उचित होगा? चलिए, हम घर चलते है.” श्रीपाद स्वामी ने फिर कभी भी राजगिरे की भाजी नहीं मांगी.
श्रीपाद स्वामी के प्रणाम करने से हुई हानि नरसावधानी की समझ में आ गई. जब
वे ध्यानस्थ बैठे तो उनके शरीर से उनके ही जैसा दिखने वाला एक तेजोवलय बाहर निकला.
नरसावधानी ने उस तेजोवलय से पूछा, :तू कौन है?” नरसावधानी के सादृश दिखने वाली उस तेजःपुंज आकृति ने उत्तर दिया, “मैं तुम्हारा
पुण्य शरीर हूँ. अब तक तुमने कितना वेद पठन किया, स्वयंभू दत्तात्रेय की आराधना की, परन्तु श्री दत्तात्रेय के साक्षात् अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का
अपमान किया है. अपनी शिखा से, राजगिरे के साग से तुम्हे जितना प्रेम था, जितनी आसक्ति थी उसका एक लक्षांश भी यदि श्रीपाद स्वामी से होता तो
तुम्हारे जन्म का सार्थक हो गया होता. परन्तु मोहपाशों से स्वयँ को जकड़ कर मोक्ष
प्राप्त करने की एक दिव्य संधि तुमने गँवा दी. तुम जल्दी ही दरिद्री होने वाले हो, उस दारिद्र्य का
हरण करने के उद्देश्य से ही श्रीपाद प्रभु ने तुमसे “शाकदान” माँगा था, यदि तुम उन्हें वह
दान दे देते तो तुम्हें अभी आने वाले दारिद्र्य के स्थान पर उत्तम ऐश्वर्य की
प्राप्ति होती. तुमने अपने ही हाथों से इस संधि को खो दिया. श्रीपाद प्रभु करुणा
के सागर हें. इस अवतार की समाप्ति के बाद वे नृसिंह सरस्वति के नाम से अवतार धारण
करेंगे. उस समय तुम एक दरिद्री ब्राह्मण के रूप में जन्म लोगे. उस जन्म में भी तुम
अपने घर में राजगिरे का साग उगाओगे. उस समय उचित अवसर देखकर मैं पुनः तुम्हारे
शरीर में प्रवेश करूंगा. उस समय श्रीपाद प्रभु तुम्हारे घर भिक्षा माँगने आयेंगे.
तुम्हारे द्वारा दी गई भिक्षा प्रेम से स्वीकार कर वे तुम्हें ऐश्वर्य प्रदान
करेंगे. मगर अभी तो मैं तुम्हारा शरीर छोड़कर जा रहा हूँ. श्रीपाद प्रभु द्वारा
किया गया प्रणाम तुम्हारे लिए नहीं, अपितु तुम्हारे भीतर पुण्य स्वरूप में वास करने वाले मेरे लिए था. उन्होंने
मुझे आज्ञा दी थी, कि मैं तुम्हें छोड़कर उनमें लीन हो जाऊँ. तदनुसार मैं श्रीपाद स्वामी के स्वरूप
में लीन होने के लिए जा रहा हूँ. अब तुम्हारे शरीर में केवल पाप पुरुष ही शेष बचा
है.” इतना कहकर वह पुण्यात्मा श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप में लीन हो गया.
कालान्तर से नरसावधानी की प्रकृति क्षीण होने लगी. लोग उनके शब्द का निरादर
करने लगे. उनके चेहरे पर विलास करता विद्वत्ता का तेज लुप्त हो गया.
इसी समय पीठिकापुर में हैजे का प्रकोप हुआ. अनेक ग्रामवासी मृत्यु के मुख
में चले गए. गाँव के वैद्यों ने निष्कर्ष निकाला कि यह रोग दूषित जल के कारण फ़ैल
रहा है. भयभीत ग्रामवासियों ने श्री बापन्नार्य से प्रार्थना की, कि वे इस महामारी
के निर्मूलन का कोई शास्त्रीय उपाय खोजें. श्री बापन्नार्य ने अपनी अन्तर्दृष्टि
से जान लिया कि महामारी का कारण दूषित जल नहीं, अपितु कलुषित वायुमंडल है. गाँव के वैद्य बापन्नार्य से सहमत नहीं हुए.
ग्रामवासियों ने ग्राम देवता को पशुबलि चढ़ाई, तांत्रिकों से विविध प्रकार की
पूजाएँ करवाईं जिससे महामारी का निर्मूलन हो जाए. पशु की बलि देने से उसके भीतर की
प्राण शक्ति को बलपूर्वक बाहर निकाला जाता है और उसे मंत्रोच्चार से वश में किया
जाता है. श्री बापन्नार्य का मत था, कि प्राणशक्ति को वृद्धिंगत करने के लिए योग-प्रक्रिया अथवा सात्विक आराधना
का अवलंबन करना अधिक योग्य है. उन्होंने ग्रामवासियों को यह सुझाव भी दिया, परन्तु अंधश्रद्धा
के वश, ग्रामवासी पशुओं की बलि चढाते ही रहे.
गाँव के कुछा व्यक्तियों ने श्रीपाद प्रभु के सम्मुख पशु-बलि के विषय पर
चर्चा की. इस पर श्रीपाद स्वामी बोले, “ग्राम देवता से विनती की है कि वह पशुबलि को स्वीकार न करें.”
“श्रीपाद स्वामी की आज्ञा के अनुसार ग्राम देवता समुद्र स्नान करने गई है.
अब दूध उबाल कर देवता को नैवेद्य अर्पण किया जाए तो इस महामारी से तुम्हें मुक्ति
मिलेगी. कालिका का रूप धारण की हुई ग्राम देवता शांत हो जाएगी.”
यह समाचार पूरे गाँव को सुनाने के लिए एक चर्मकार को बुलाकर चर्मवाद्य पर
डोंडी पीटने के लिए कहा गया.
“डोंडी कौन पीटेगा?” जब श्रीपाद स्वामी से यह पूछा गया तो वे बोले, “हैजे से पीड़ित वेंकय्या डोंडी पीटे. ऐसा मेरा संदेश उसे दीजिये. वे सब
ग्रामवासी वेंकय्या के पास गए. वह मरणासन्न था, उसे स्वामी का संदेश देते ही वह मूर्छित हो गया. एक घड़ी के उपरांत जब उसे
होश आया तो वह पूरी तरह स्वस्थ्य हो गया था. यह वार्ता दावानल के समान पूरे
पीठिकापुर में फ़ैल गई. वेंकय्या ने गाँव में चारों और घूमकर डोंडी पीटी.
बापन्नार्य ने अपने सेवक से कहा कि उनके सामने जल से भरा हुआ एक बड़ा पात्र लाकर
रखे. वायुमंडल में फैले ज़हरीले कीटाणुओं का नाश करने के लिए उन्होंने उचित मन्त्र
का संधान किया, और तत्काल वायुमंडल में उपस्थित विषैले कीटाणु टप-टप पानी में गिरने लगे.
इस प्रकार वायुमंडल शुद्ध हो गया और
महामारी का निर्मूलन हो गया.
श्रीपाद स्वामी के जन्म दिन पर राज शर्मा पत्नी सहित बालक श्रीपाद को
लेकर उसके नाना श्री बापन्नार्य के घर
आये. जब-जब भी बापन्नार्य ने श्रीपाद के चरणों पर शुभ चिह्नों को देखने का प्रयत्न
किया, तब-तब उन्हें कोटि
सूर्यों की तेजस्विता आ अनुभव होता और उस प्रखर प्रकाश में वे शुभ चिह्न दिखाई
नहीं देते. इस बात का उन्हें बड़ा आश्चर्य होता. परन्तु उस दिन उषःकाल में धान के
भूसे पर उन्हे दिव्य पद चिह्न दिखाई दिए. उन्होंने अपनी कन्या सुमति से पूछा, “बेटा, इस भूसे पर से कौन
गया था?” सुमति ने उत्तर
दिया, “आपका लाडला नाती
यहाँ से गया, और कौन, बाबा!” वे पद चिह्न सोलह वर्षीय कुमार के पद चिह्नों के समान थे. नाना जी
ने बालक श्रीपाद को अपनी गोद में बिठा लिया और उसके चरण कमलों का निरीक्षण करने लगे.
इस समय उन्हें दिव्य प्रकाश के स्थान पर ‘मैं ही दत्तात्रेय हूँ,’ यह सूचित करने
वाले सुस्पष्ट चिह्नों के दर्शन हुए. उन दिव्य चरणों का बापन्नार्य ने स्नेहपूर्वक
चुम्बन लिया. उनका विश्वास दृढ़ हो गया कि यह बालक श्री दत्तात्रेय का अवतार है.
इसी समय उनके मुख से अपने आप श्री दत्तात्रेय की स्तुति में पद निकले. उन दिव्य
चरणों के दर्शन से बापन्नार्य के शरीर में अष्ट भाव जागृत हो गए. उनके नेत्रों से
आनंदाश्रु बहाने लगे. वे अश्रु श्रीपाद के गालों पर गिरे और मोतियों के समान चमकने
लगे. नानाजी ने अपने अंगवस्त्र से हौले से बालक श्रीपाद के गालों से अश्रुओं की
बूंदे पोंछी. तब श्रीपाद बोले, “नाना, तुमने सौर मंडल से शक्तिपात करके वह शक्ति श्री शैल्य स्थित श्री
मल्लिकार्जुन स्वामी के शिवलिंग में केन्द्रित की थी. उसी समय सौर मंडल की वह
शक्ति गोकर्ण महाबलेश्वर और पादगया क्षेत्र में विराजमान श्री दत्तात्रेय की
मूर्तियों में भी केन्द्रित हुई. गोकर्ण महाबलेश्वर क्षेत्र को अधिक शक्तिसम्पन्न
बनाने का संकल्प है. प्राणीमात्र के शरीर से जो अशुभ स्पंदन बाहर निकलते हैं, उन स्पंदनों को
मुझ में समाविष्ट करके, जो मेरे साधक हैं, मेरे आश्रित हैं, उनके लिए शुभ स्पंदनों का प्रसारण हो, ऐसा मेरा संकल्प है. गोकर्ण महाबलेश्वर श्री परमेश्वर का ‘आत्म लिंग’ है.
उसके केवल दर्शन मात्र से ही मुक्ति साध्य होती है. यहाँ के श्री मल्लिकार्जुन
स्वामी को शक्ति सम्पन्न करने का संकल्प है. आप सत्यऋषि हैं. जब मैं यति के रूप
में था, तब मेरी माता ने
मुझे प्रणाम किया था, इस कारण मैं अल्पायुषी हूँ, ऐसा मेरा मत था, परन्तु माँ न मुझे श्रीपाद के रूप में प्रणाम किया, अतः मैं अल्पायुषी
नहीं होऊंगा, ऐसा आपने कहा था. हम दोनों की बात झूठ सिद्ध न हो, इसलिए मैंने केवल
सोलह वर्षों तक आपके घर में रहने का निश्चय किया है. सांसारिक बंधनों से मुक्ति की
इच्छा रखने वाले मुमुक्षु जनों को अनुग्रह देने का कार्य होना है. मैं चिरंजीवी
बनूँ, ऐसी आपकी मान्यता
है, वह मैं पूरी
करूँगा. श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप को गुप्त कर दूँगा. नृसिंह सरस्वती के रूप
में अवतार ग्रहण करने पर भी श्रीपाद श्रीवल्लभ का रूप ही शाश्वत सत्य रूप में सदा
रहेगा. नृसिंह सरस्वती का अवतार कार्य पूर्ण करने के बाद श्री शैल्य स्थित कर्दली
वन में तीन सौ वर्षों तक तपस्या करने के बाद प्रज्ञापुर (अक्कलकोट) में स्वामी
समर्थ के रूप में प्रकट होऊंगा. वहाँ स्थित वट वृक्ष में मेरी प्राण शक्ति
सम्मिलित करके श्री मल्लिकार्जुन शिवलिंग में विलीन हो जाऊंगा.”
बापन्नार्य को यह सब आश्चर्यजनक एवँ अद्भुत् प्रतीत हुआ. नानाजी के घर बालक
श्रीपाद का पहला जन्म दिन बड़े आनन्द से और ठाठ से मनाया गया. पीठिकापुर में उस दिन
एक और आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. नरसावधानी, मंदिर के पुजारी तथा कुछ अन्य लोग
कुक्कुटेश्वर के मंदिर में दर्शनों के लिए गए थे, तब उन्हे वहाँ स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती दृष्टिगोचर नहीं हुई. मंदिर से
मूर्ती लुप्त होने की बात गाँव में दावानल की भाँति फ़ैल गई. नरसावधानी का विरोधी
एक मान्त्रिक बड़े ताव में आकर कहने लगा कि मूर्ती के अदृश्य होने के लिए नरसावधानी
ही उत्तरदायी हैं. नरसावधानी क्षुद्र विद्या के उपासक हैं. उन्होंने मूर्ती अदृश्य
कर दी है, इस प्रकार का
प्रचार उसने पूरे गाँव में करना शुरू कर दिया. पीठिकापुर के ब्राह्मणों ने
नरसावधानी के घर की तलाशी लेने का निर्णय लिया. वे ब्राह्मण श्री बापन्नार्य से मिले और उन्हें इस घटना से अवगत कराया. तब
बापन्नार्य उन ब्राह्मणों से बोले कि जब तक सत्य सामने नहीं आ जाता, तब तक मौन रहना
उचित है. योग्य समय पर इसा प्रश्न का समाधान हो जाएगा. नरसावधानी के घर की तलाशी
लेते समय संशयित स्थान की खुदाई करने पर मानव-कपाल और क्षुद्र-विद्या के काम में
लाई जाने वाली कुछ वस्तुएं मिलीं, परन्तु श्री दत्तात्रेय की मूर्ती नहीं मिली.
श्री नरसावधानी मूर्ती की चोरी के आरोप से तो मुक्त हो गए, परन्तु यह सिद्ध
हो गया कि वे क्षुद्र-विद्या के उपासक हैं. दिन पर दिन उनका शरीर क्षीण हो रहा था.
उनके यहाँ एक बाँझ गाय थी. उसे वे बैल के समान खेती-बाडी के काम में जोतते और समय
पर दाना-पानी भी न देते. एक दिन नरसावधानी के विरोधी उस तांत्रिक ने उस गाय के
शरीर में क्षुद्र-शक्ति का आवाहन किया. इसके फलस्वरूप वह गाय खूँटे का बंधन तुड़ाकर
घर में घुस गई और घर के लोगों को अपने सींगों से मारने लगी. नरसावधानी की बड़े
प्रेम से लगाई गई राजगिरे की बगिया उसने तहस-नहस कर दी. कोई भी गाय के निकट जाकर
उसे रस्सी से बाँध न सका. उसी दिन नरसावधानी के घर उनकी माता का श्राद्ध था.
श्राद्ध का पूरा भोजन तैयार हो चुका था. श्राद्ध के लिए आए हुए ब्राह्मणों का भोजन
हो चुका था. घर के लोगों ने अभी भोजन किया नहीं था. वह गाय सारा भोजन और वडे खा
गई. इसी समय बालक श्रीपाद प्रभु अपने पिता से हठ करने लगे कि उन्हें नरसावधानी के
घर ले जायें. श्री राज शर्मा उन्हें लेकर नरसावधानी के घर के सामने जाकर खड़े हो
गए. तभी वह गाय नरसावधानी के घर से बाहर आई, उसने आँगन में खड़े श्रीपाद स्वामी के चारों और तीन बार परिक्रमा की और उनके
चरणों में माथा टेककर उसने प्राण त्याग दिए.
इस प्रसंग के उपरांत गाँव के लोग कई तरह की बातें करने लगे. अनेक प्रकार के
लोकापवाद उठने लगे, जैसे कि गाय ने जो वडे खाए, उनमें ज़हर था और उन्हें खाने से गाय की मृत्यु हो गई. अब नरसावधानी को
गोहत्या का पातक लगेगा. इन सब प्रमादों से नरसावधानी त्रस्त हो गये थे. उस गाय ने
बालक श्रीपाद के चारों और तीन बार प्रदक्षिणा की और फिर उनके चरणों पर नतमस्तक
होकर प्राण त्याग दिए. अतः श्रीपाद दैवी अवतार हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं रहा.
राज शर्मा को आयुर्वेद का ज्ञान था, वे नरसावधानी की विनती के अनुसार उनका इलाज कर रहे थे, परन्तु उनके दुर्धर
रोग पर दवा का कोई प्रभाव नज़र नहीं आ रहा था. नरसावधानी का स्वास्थ्य गिरता ही जा
रहा था और इसी में एक दिन उनका देहांत हो गया.
नरसावधानी की मृत्यु के बारे में गाँव के लोग कहने लगे कि राज शर्मा ने
उन्हें उत्तम दवा नहीं दी, इसी कारण उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा. कुछ लोग कहने लगे कि
श्रीपाद श्रीवल्लभ तो नरसावधानी के घर प्रतिदिन जाया करते थे. यदि वे दत्तावतार
होते तो नरसावधानी की मृत्यु क्यों हुई? अनेक लोगों ने यह भी कहा कि नरसावधानी की मृत्यु का कारण गोहत्या के कारण
लगा पातक ही है.
जब श्री राज शर्मा और बालक श्रीपाद नरसावधानी के परिवार जनों का सांत्वन
करने गए तो नरसावधानी की पत्नी ने उनका हाथ पकड़ कर कहा, “अरे बेटा, श्रीपाद! चुटकी भर सौभाग्य का दान लेने के लिए मैं दूर-दूर तक हल्दी-कुंकुम
में जाती थी. अगर तुम दत्तात्रेय ही हो, तो क्या नरसावधानी नाना को जीवित करना
तुम्हारे लिए असंभव है?” ऐसा कहकर वह जननी रोने लगी. नवनीत के समान मृदु ह्रदय वाले श्रीपाद प्रभु
ने उस माता के आँसू पोंछे. शवयात्रा आरम्भ हुई. राज शर्मा एवं श्रीपाद उस यात्रा
में सहभागी हुए.
नरसावधानी के ज्येष्ठ पुत्र ने पिता की चिता को अग्नि देने के लिए हाथ में
जलती हुई लकड़ी ली. उसी क्षण बालक श्रीपाद के नेत्रों से अश्रु की दो बूँदें निकलीं
और मेघगर्जना के समान स्वर में श्रीपाद बोले, “अहा हा! मृत पिता के शरीर को अग्नि देने वाले पुत्र तो देखे हैं, मगर जीवित पिता को
अग्नि देने वाला पुत्र नहीं देखा!” यह सुनकर स्मशान में आये हुए सभी लोग निस्तब्ध
होकर श्रीपाद की और देखने लगे. श्रीपाद ने चिता पर लेटे हुए नरसावधानी के भ्रूमध्य
को अंगूठे से स्पर्श किया. उस दिव्य स्पर्श से नरसावधानी के शरीर में चैतन्य का
संचार होने लगा और आश्चर्यजनक बात यह हुई कि वे कुछ ही क्षणों में चिता से नीचे
उतर आये. उन्होंने श्रीपाद प्रभु को साष्टांग दंडवत किया और वे सब लोगों के साथ घर
लौट आये.
उन्हें सप्राण वापस आया देखकर उनकी पत्नी अत्यंत हर्षभरित हो गई. श्रीपाद
प्रभु के अँगूठे के स्पर्श से नरसावधानी को कर्म सूत्र का सूक्ष्म ज्ञान हो गया.
उनके घर में मृत हुई बाँझ गाय पूर्व जन्म में नरसावधानी की माँ थी. उनके घर में जो
बैल था, वह पूर्व जन्म में
उनके पिता थे. नरसावधानी को इस बात का ज्ञान हुआ, कि मरते समय उस गाय ने श्रीपाद प्रभु के चरणों में विनती की थी, कि प्रभु उसके दूध
का सेवन करें. अगले जन्म में जब वह बाँझ भैंस के रूप में जन्म लेगी, तब श्रीपाद
प्रभु नृसिंह सरस्वति के अवतार में उसके दूध का सेवन करेंगे. नरसावधानी को ज्ञात
हुआ कि श्रीपाद प्रभु ने गाय को ऐसा वचन दिया है. जिस मान्त्रिक ने नरसावधानी पर
अपनी तंत्र-विद्या का प्रयोग किया था, उसकी मृत्यु शीघ्र ही होकर अगले जन्म में वह ब्रह्म राक्षस की योनी को
प्राप्त होगा और उस पर यति वेश में श्रीपाद स्वामी कृपा करेंगे. सूक्ष्म-लोक के ये
विषय श्रीपाद प्रभु के अनुग्रह से नरसावधानी को ज्ञात हुए थे. उन्हें अपने आगामी
जन्म के वृत्तांत का भी ज्ञान हुआ. अगले जन्म में उनके घर श्रीपाद प्रभु यति के
रूप में आयेंगे, उनके हाथ से राजगिरे के साग की भिक्षा स्वीकार करके उसकी जड़ों से सोने की
मुहरों से भरा हुआ घड़ा निकाल कर उन्हें देंगे. यह भविष्य वार्ता नरसावधानी को
श्रीपाद प्रभु के अंगूठे के स्पर्श से ज्ञात हुई थी.
श्रीपाद प्रभु का मुख अत्यंत सात्विक, सुन्दर और दैदीप्यमान था. उसकी किसी से तुलना ही नहीं हो सकती. श्रीपाद
प्रभु ने नरसावधानी को जो उपदेश दिया और उनके अनुग्रहों के उदाहरणों के बारे में
तुम्हें मैं कल बताऊँगा. चलो, अब हम उनका नाम स्मरण करते हुए
उनके भजन-कीर्तन में खो जाएँ. जिस स्थान पर उनका नाम स्मरण, भजन-कीर्तन होता
है, उस स्थान पर
श्रीपाद प्रभु सूक्ष्म रूप से संचार करते है, यह अक्षर सत्य है.
तिरुमलदास जैसे भक्त की सत्संगत से हम हर्षभरित, पुलकित हो गए.
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय जयकार हो.”
“श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये.”
अध्याय ७
खगोल वर्णन
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत की महिमा
प्रातः काल
नित्य कर्म से निवृत्त होकर श्री तिरुमलदास ने कहना आरम्भ किया. वे बोले,
“अरे, शंकर भट्ट! श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का दिव्य चरित्र
अद्भुत्, अतर्क्य और अपूर्व है. तुझ पर उनका अपार स्नेह होने के कारण उनके दिव्य
चरित्र को लिखने का महद्भाग्य तुझे प्राप्त हुआ है. ऐसा यह दिव्य अवसर प्रभु की
इच्छा से तुझे मिला है.”
श्रीपाद
प्रभु का एक ही समय में अनेक स्थानों पर प्रकट होना.
“नरसावधानी मृत्यु के मुख से बाहर
लौटकर आये, तत्पश्चात उनके भीतर की आकर्षण शक्ति क्षीण होती गई. पहले साधना करते
समय वे जिस मनुष्य का ध्यान किया करते, वह कितनी ही दूर क्यों न हो, फिर भी आकर्षित
होकर उनके निकट आ जाया करता. वह शक्ति भी अब मंद हो गई थी. जो लोग पहले उनसे डरते
थे, उन्हें अब बिल्कुल भी नरसावधानी का डर न लगता. समय-असमय उनका उपहास करके
उन्हें दुख पहुँचाते. उनकी आर्थिक स्थिति भी कमजोर हो गई थी. कभी-कभी तो दो वक्त
का भोजन भी नसीब न होता. ऐसी कष्टप्रद अवस्था में वे आक्रोश करते हुए घर से बाहर
आए. उस समय महाचार्य बापन्नाचार्युलु अपने पोते को गोद में लेकर अपने घर की और जा
रहे थे. राज शर्मा के घर से मुड़ने पर जो मार्ग आता था, वह सीधा बापन्नाचार्युलु के घर की ओर जाता था. श्रीपाद प्रभु बचपन में अपने
घर की अपेक्षा अपने नाना के घर ही अधिक रहा करते. श्री नरसिंह वर्मा और श्री
वेंकटप्पा श्रेष्ठी के घर भी स्वेच्छा से जाते. नरसावधानी के मन में विचार आया कि
श्रीपाद स्वामी से बातें करें. उस स्वस्थ्य एवँ मोहक तथा लाडले दिव्य बालक को कम
से कम एक बार तो गोद में लेकर उसका लाड़ करें, ऐसी इच्छा मन में जागी. नरसावधानी की दृष्टी प्रभु पर पड़ी. श्रीपाद प्रभु
ने नरसावधानी की और देखकर मंद स्मित किया. वह स्मित हास्य अत्यंत मोहक था.
नरसावधानी भिक्षा माँगने श्रेष्ठी के घर गए. वहाँ उन्हें श्रेष्ठी की गोद में खेल रहे श्रीपाद स्वामी दिखाई दिए.
नरसावधानी की और देखकर श्रीपाद प्रभु शरारत से हँसे. नरसावधानी भिक्षा लेकर नरसिंह
वर्मा के घर गए, वहाँ उन्हें
श्रीपाद प्रभु नरसिंह वर्मा के कंधे पर खेलते दिखाई दिए. नरसावधानी की और देखकर
श्रीपाद प्रभु फिर से शरारत से हँसे. एक ही समय में बालक श्रीपाद श्रेष्ठी के घर, वर्मा के घर और नाना जी बापन्नाचार्युलू के घर
उपस्थित थे. नरसावधानी को समझ में नहीं आ रहा था कि यह क्या है. क्या यह स्वप्न है? अथवा विष्णुमाया है?”
गाँव के लोग नरसावधानी को सताने लगे. पादगया
क्षेत्र की स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती गायब होने के पीछे नरसावधानी का ही हाथ
है, ऐसी निन्दा
करने लगे. इस लोकनिन्दा से पीड़ित होकर नरसावधानी पागल के समान घर लौटे. उन्हें इस
अवस्था में देखकर उनकी पत्नी अत्यंत दुःखी हो गई. अपने मन की व्यथा प्रकट करने के
लिए वह पूजाघर में गई. तब उसने जो दृश्य देखा, वह अद्भुत था. उनके पूजागृह में श्रीपाद स्वामी बैठे हुए थे. उन्हें देखकर
उन पति-पत्नी को अत्यंत प्रसन्नता हुई. उन दोनों ने श्रीपाद स्वामी से राजगिरे के
साग का भोजन करने की प्रार्थना की, परन्तु श्रीपाद स्वामी ने इनकार कर दिया. काल, कर्म और कारण इन तीनों का एक ही समय में संयोग
होने से ऐसी अलभ्य संधि प्राप्त होती है. विवेकवंत ऐसी संधि का लाभ उठाते हैं, जबकि अविवेकी उस लाभ से वंचित रह जाते हैं.
श्रीपाद प्रभु ने पति-पत्नी की विनती को स्वीकार किया, परन्तु वह स्वीकारोक्ति इस जन्म के लिए न होकर अगले जन्म के लिए थी. अगले
जन्म में वे महाराष्ट्र की पुण्य भूमि में श्री नृसिंह सरस्वती के अवतार में उनके
घर भोजन के लिए अवश्य आयेंगे, ऐसा उन्होंने वचन दिया. एक बार सूर्य अथवा चन्द्रमा की गति बदलना चाहे संभव
हो सके, परन्तु प्रभु
के वचनों के विरुद्ध आचरण करना पंचभूतों सहित किसी भी प्राणी के लिए संभव नहीं है.
दुनिया चाहे उलट-पुलट हो जाए, युग चाहे बदल जाएँ, फिर भी श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ नित्य, सत्य एवँ नूतन हैं. पूजाघर में बैठकर श्रीपाद प्रभु ने नरसावधानी और उनकी
पत्नी को हितोपदेषा दिया. यह हितोपदेश दत्त-भक्तों के लिए अत्यंत उपयोगी है .
नरसावधानी तथा श्रीपाद
श्रीवल्लभ के बीच हुआ संवाद एवं श्रीपाद प्रभु का उपदेश
प्रश्न: - तू कौन है? देवता? यक्ष? मान्त्रिक?
उत्तर:- मैं. मैं ही हूँ. पंचभूतात्मक सुष्टि के अणु-अणु में विद्यमान जो
अदृश्य शक्ति है, वह मैं ही हूँ. पशु-पक्षियों समेत समस्त प्राणिमात्र में मातृ तथा पितृ
स्वरूप में जो स्थित है, वह मैं ही हूँ. समूची सृष्टि का गुरुस्वरूप भी मैं ही हूँ.
प्रश्न: - क्या तुम दत्त प्रभु के अवतार हो?
उत्तर:- निःसंशय मैं ही दत्तात्रेय
हूँ. तुम शरीरधारी मुझे पहचान सको, इसीलिये मैंने शरीर धारण किया है. वास्तव में मैं निराकार एवँ निर्गुण हूँ.
प्रश्न – इसका मतलब यही ना, कि तुम्हारा कोई आकार तथा गुण नहीं है?
उत्तर – निराकारिता भी एक आकार ही है. इसी प्रकार निर्गुण होना भी एक गुण
है. साकार तथा निराकार, सगुण एवँ निर्गुण - इनका आधार मैं ही हूँ और यह जान लो, कि उससे भी परे
हूँ.
प्रश्न – जब तुम सर्वस्व हो तो प्राणिमात्र को सुख-दुख क्यों प्राप्त होते
हैं?
उत्तर – तुम्हारे भीतर स्थित “तू” जीव है और तुम्हारे भीतर का “मैं”
परमात्मा है. जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना है, ताबा तक “तू” “मैं” नहीं हो सकता, जब तक तुझमें कर्तृत्व की भावना रहेगी, तब तक सुख-दुख, पाप-पुण्य जैसे द्वंद्वों से तुझे मुक्ति नहीं मिल सकती. जब तेरे भीतर का
“तू” नष्ट होकर तेरे भीतर का “मैं” उच्च दशा में होगा, तब तू मेरे निकट होगा. जैसे-जैसे तू मेरे निकट आयेगा, वैसे-वैसे तू
सुख-दुख, पापा-पुण्य के द्वंद्व से मुक्त हो जाएगा. मेरे आश्रय में आने पर सुखी और
सम्पन्न होगा.
प्रश्न – कुछ लोग कहते हैं कि जीवात्मा एवं परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं, कुछ कहते हैं कि
जीवात्मा तथा परमात्मा में घनिष्ठ सम्बन्ध है, तो कुछ लोग यह भी कहते हैं कि जीव
ही परमात्मा है. सत्य क्या है?
उत्तर – तू और मैं अलग-अलग हैं, ऐसी भिन्नता की भावना में कोई हानि नहीं. तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होने पर
हम दोनों के द्वैत स्थिति में होने पर भी आनंद की प्राप्ति होगी. मेरे अनुग्रह के
कारण ही सब कुछ घटित होता है, तू केवल निमित्त मात्र है, इस सिद्धांत का अनुसरण करने पर भी आनंद की
स्थिति प्राप्त कर लोगे. मोह का नाश होने पर द्वैत स्थिति में होते हुए भी तुम
मोक्ष सिद्धि प्राप्त कर लोगे. जब तुझमें और मुझमें अत्यंत सामीप्य की स्थिति होती
है, तब तुम्हारे
द्वारा मैं स्वयं को व्यक्त करता हूँ. मेरी सारी शक्ति तेरे माध्यम से अभिव्यक्त
होने की स्थिति में, तेरे भीतर का अहंकार नष्ट होकर, मोहक्षय होने के फलस्वरूप इस विशिष्ठ अद्वैत स्थिति में भी आनंद की
प्राप्ति होगी. मोह न होने के कारण यह भी मोक्ष की ही स्थिति है. तेरे भीतर का
अहंकार पूरी तरह नष्ट होने पर, कर्तृत्व की भावना समाप्त हो जायेगी. तेरे भीतर का “तू” न रहकर केवल “मैं”
होने की उस स्थिति में मन की कल्पना से आकलन न होने वाले ब्रह्मानंद का अनुभव करता
रहता है. इसलिए, अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष को प्राप्त कर सकता है. द्वैत स्थिति
में होने पर भी विशिष्ठ द्वैत अथवा अद्वैत स्थिति में होने पर भी मोक्ष स्थिति /
ब्रह्मानंद स्थिति वही रहती है. वह मन एवं वाचा के लिए अगोचर है. उसे केवल अनुभव
से जाना जा सकता है.
प्रश्न – अवधूत स्थिति में रहने वाले कुछ व्यक्ति स्वयं को ब्रह्म कहते हैं,
तो क्या तुम अवधूत हो?
उत्तर – नहीं, मैं अवधूता नहीं, मैं ब्रह्म हूँ. और अवधूतों का यह अनुभव है कि ब्रह्म सर्वस्व है, तो मैं ब्रह्म हूँ
और सर्वान्तरयामी हूँ.
प्रश्न – फिर भी इस अल्प से भेद का रहस्य समझ में नहीं आया.
उत्तर – संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो चुके अवधूत मुझमें लीन होकर
ब्रह्मानंद सुख का अनुभव प्राप्त करते हैं. उनका व्यक्तित्व नहीं होता. व्यक्तित्व
न होने के कारण वे संकल्प रहित होते हैं. इस सृष्टि के महासंकल्प में, महाशक्ति में मैं
हूँ. जीव कहलाने वाली मायाशक्ति में भी मैं हूँ. मुझमें लीन हो चुके अवधूता भी “तुम दुबारा जन्म लो”, ऐसी
मेरी आज्ञा होने पर जन्म लेने को बाध्य हैं.
मेरा स्वसंकल्पयुक्त सत्य – ज्ञानानंद है, तो उनका स्वरूप है संकल्प रहित सत्य – ज्ञानानन्द का.
प्रश्न – बीज को यदि भूना जाए तो वह अंकुरित नहीं होता, उसी प्रकार
ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर ब्रह्ममय हो चुके प्राणियों का दुबारा जन्म लेना कैसे संभव
है?
उत्तर – भुने हुए बीजों का पुनः अंकुरण न होना सृष्टि का धर्म है. भुने हुए
बीजों को पुनः अंकुरित करना सृष्टिकर्ता की शक्ति सामर्थ्य है. वास्तव में देखा
जाए तो मेरा अवतार इस सिद्धांत के द्वारा सत्यधर्म का निरुपण करने से पहले हुआ है.
प्रश्न – दत्त प्रभु! श्रीपाद स्वामी! कृपया विवरण दें.
उत्तर – भूत, भविष्य, वर्त्तमान – इस त्रिकाल का, उसी प्रकार सृष्टि, स्थिति, लय – त्रि अवस्थाओं का अतिक्रमण करके (उनके पार जाकर) पिता अत्रि महर्षि
प्रसिद्ध हुए. सृष्टि के किसी भी जीव के प्रति अथवा किसी भी वस्तु के प्रति असूया, द्वेश का लेशमात्र
ह्रदय में न होने से माता अनुसूया विख्यात हुईं. ब्रह्मा, विष्णु एवं रूद्र, इनका जो आधार तथा
अतीत है, उस परम ज्योति
स्वरूप के दर्शन प्राप्त करने के उद्देश्य से अत्रि महर्षी ने घोर तपस्या की. परम
ज्योति स्वरूप परमात्मा अपनी अमृतमय दृष्टी से सृष्टि के प्रत्येक प्राणिमात्र एवं
वस्तु को देखकर उन पर अनुग्रह करें, इस हेतु से अनुसूया माँ ने तपाचरण किया था. कर्मसूत्रों के अनुसार
पाप-पुण्य के अनुसार दुःख-सुख प्राप्त होता है. माता अनुसूया इस संकल्प से
प्रार्थना करती थीं, कि महापाप का फल स्वल्प हो, तथा स्वल्प पुण्य का फल अधिक हो. माता अनुसूया ने अपने तपोबल से कठोर लौह
खण्डों का सजीव एवं खाने योग्य चनों में रूपांतर किया. खनिज पदार्थों में चैतन्य
निद्रित अवस्था में रहता है, तरु-गुल्मादी में वह अर्ध निद्रित अवस्था में रहता है, पशुओं में वह
पूर्ण चैतन्य की स्थिति में होता है. खनिज के रूप में जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त
होने के पश्चात वृक्ष आदि का जन्म लेकर, तदनंतर पशु का जन्म प्राप्त करके, अंत में मनुष्य योनी में जन्म लेने वाले मानव को विवेक पूर्ण, ज्ञानवान और
वैराग्यवंत होकर उसके भीतर सुप्त अवस्था में पड़ी परमात्म शक्ति को जागृत करके
मोक्ष प्राप्त करना चाहिए. माता अनुसूया ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रकृति के परिणाम
क्रम का धर्म परमात्मा के अनुग्रह से बदल सकता है. उन्होंने त्रिमूर्ति के रूप में होने के कारण जो चैतन्य
जागृत अवस्था में था, उसे निद्रावस्था में परिवर्तित करके उन्हें नन्हें बालकों का रूप दिया.
त्रिमूर्ति की शक्तियों ने एकत्रित होकर अनघा देवी का रूप धारण किया. दत्तात्रेय
का अवतार लेकर उन्होंने अनघा देवी को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया. श्रीपाद
श्रीवल्लभावतारी, वामांग में अनघा देवी तथा दक्षिणांग में दत्तात्रेय, ऐसे अर्धनारीश्वर
रूप में प्रभु का जन्म हुआ. ऐसे, महोत्तर सृष्टि का केवल संकल्प मात्र से सृजन करने की शक्ति सामर्थ्य रखने
वाले प्रभु के लिए आवश्यकतानुसार सृष्टि धर्म में परिवर्तन लाना सहज संभव है, यह तू जान ले.
प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! सृष्टि-धर्म में परिवर्तन लाने की सामर्थ्य रखने
वाले तुम क्या मेरे दारिद्र्य का हरण नहीं कर सकते?
उत्तर – तेरे दारिद्र्य का हरण अवश्य करूँगा , परन्तु तेरे अगले जन्म में जब
तुम थोड़े से दारिद्र्य-दुःख का अनुभव कर चुके होगे. राजगिरे का विषय बहुत क्षुद्र
था, फिर भी तुझे राजगिरे
का इतना मोह था. मैंने माता, पिता अथवा नानाजी से नहीं माँगा था. मेरे जितने बालक
का आहार था ही कितना! राजगिरे की इच्छा होते ही यदि तूने मुझे वह दे दिया होता, तो आज की
परिस्थिति उत्पन्न न हुई होती. मगर अब वह समय बीत चुका है. तेरे मनो-मालिन्य को
दूर करने के लिए यह जन्म पर्याप्त नहीं है. प्रत्येक मनुष्य को अपने पुण्य का फल
आयुष्य, ऐश्वर्य, कीर्ति, धन, सौन्दर्य आदि
रूपों में प्राप्त होता है. पापों का फल प्राप्त होता है दारिद्र्य, अल्पायुष्य,
कुरूपता, कुख्याति आदि के
रूप में. तेरे पुण्य का अधिकांश निकाल कर तुझे जीवन प्रदान किया, जिससे तेरा पुण्य
खर्च हो गया. अब तेरे पास पाप अधिक होने के कारण दारिद्र्य तो भोगना ही होगा. फिर
भी, स्वयंभू
दत्तात्रेय की आराधना के फलस्वरूप, दारिद्र्य रहने पर भी दो जून की रोटी तुझे
मिलती रहेगी, ऐसा मेरा तुझे आशीर्वाद है.
प्रश्न – हे श्रीपाद प्रभु! शास्त्रों का मत है कि वर्णाश्रम धर्म के अनुसार
आचरण किया जाए. आपके नाना जी ने यह निर्णय दिया, कि वैश्यों का भी वेदोक्त पद्धति
से उपनयन करना संभव होगा. क्या वह निर्णय
गलत नहीं है?
उत्तर – सत्यऋषीश्वर के निर्णय में खोट ढूँढने का प्रयत्न करने के कारण तेरी
जिह्वा ही काट देनी चाहिए. नाना जी को तू क्या समझता है? वे साक्षात
भास्कराचार्य हैं! विष्णुदत्त एवं सुशीला, जो स्वार्थ की परिभाषा भी न जानने वाले परम पवित्र दंपत्ति थे, उन्हें ‘मेरे माता-पिता
के रूप में जन्म दो’ ऐसा आदेश मैंने काल देवता एवँ कर्म देवता को दिया. नरसिंह
वर्मा के पूर्वज श्री लक्ष्मीनृसिंह स्वामी के
अनन्य भक्त थे, सिंहाचल क्षेत्र में आयोजित होने वाले याग-यज्ञ में विशिष्ट
अन्न-दान करने वाले पवित्र कुल के हैं. पीठिकापुर में मेरे जन्म लेने से पूर्व एक
क्रम पद्धति से इस घटना को घटित करवाया. इन तीनों परिवारों से मेरे ऋणानुबंध है,
उन्हें एक जन्म में नहीं चुकाया जा सकता या एक अवतार की कालावधि में उन्हें समाप्त
भी नहीं किया जा सकता। मेरा वरदहस्त उन पर वंशानुवंश रहेगा। मेरी छात्र-छाया में
वे निश्चित रूप से रहेंगे।
भक्तों को श्रीपाद प्रभु का अभय वचन
अब यदि मेरे विषय में कहा जाए, तो कोई भी मूल्य न रखने वाला राजगिरा तू मुझे न दे सका. मेरे भोजन करने से
लाख ब्राह्मणों को भोजन करवाने का फल तुझे प्राप्त होता. तू वास्तव में बड़ा
दुर्दैवी है. धर्म क्या है, अधर्म क्या है, यदि इस विषय पर मतभेद हो तो शास्त्रों का आधार लेना चाहिए. शास्त्रों के
अनुसार आचरण करना चाहिए, अथवा नहीं, इस प्रश्न पर यदि मीमांसा हो रही हो तो निर्मल अंतःकरण युक्त सत्पुरुष का
वचन ही शास्त्र सिद्ध होगा. वे जो कह देंगे, वह वेदवाक्य समान, धर्म सम्मत कथन होगा. वे यदि अधर्मपूर्ण निर्णय देने का
प्रयत्न करेंगे, तो धर्म देवता उन्हें अधर्म के मार्ग से परावृत्त करके धर्म सम्मत निर्णय
लेने पर बाध्य करती है. हिंसाचार पाप है, ऐसा शास्त्रों का मत है, परन्तु श्रीकृष्ण परमात्मा के सम्मुख हुआ युद्ध धर्मयुद्ध था. कौरव-पांडवों
का युद्ध धर्मयुद्ध और युद्ध स्थल धर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हुआ. यज्ञ
पुण्यफल दायक है। परंतु, परमात्मा के स्वरूप शिव का आवाहन किए बिना आयोजित दक्ष का
यज्ञ अंत में युद्ध में परिवर्तित हो गया, अतः उसे अज का सिर लगाना पड़ा. यदि रोगी
को पित्त का प्रकोप हो तो वैद्य उसका उपचार नींबू, आँवला आदि से करता है. शरीर का कोई अवयव यदि सड़ जाए तो उसे शस्त्र से छेदकर
रोग का निदान करता है. मैं भी वैसा ही हूँ. मुझमें जिस प्रकार देवताओं के अंश हैं, उसी प्रकार दानवों
के अंश भी हैं. मैं उन्मत्त के समान, राक्षस के समान, पिशाच्च के समान भी व्यवहार करता हूँ. मेरे भीतर जीवों के प्रति अत्यंत
करुणा होने के कारण, मैं तुम्हारे स्वभाव, तुम्हारे शुभाशुभ कर्मों के अनुसार वर्तन करता हूँ. अनन्य भाव से मेरी शरण
में आये भक्तों का हाथ मैं छोड़ता नहीं. दूर देश में स्थित मेरे भक्त को मैं मेरे
क्षेत्र में लाता हूँ. ऋषियों का कुल और नदियों का मूल पूछा नहीं जाता. क्या आदि
पराशक्ति कन्यका परमेश्वरी वैश्य कुल में अवतरित नहीं हुई? सिद्ध मुनियों में क्या
वैश्य मुनि नहीं हैं?
न केवल ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य, अपितु यदि शूद्र भी निष्ठा पूर्वक नियम धर्मों का पालन करता है तो वह
वेदोक्त पद्धति से उपनयन का अधिकारी है. उपनयन संस्कार में तीसरा नेत्र (ज्ञान
नेत्र) खोलना चाहिए. अन्तःकरण शुद्ध होकर मन ब्रह्मज्ञान में मग्न हो जाना चाहिए.
तेरा मन तो साग के ज्ञान में पूरी तरह मगन है. ब्रह्म क्या बाज़ार में बिकने वाली
वस्तु है? इस जन्म में जिसने
ब्राह्मण के रूप में जन्म लिया है, वह अगले जन्म में चांडाल के रूप में जन्म ले सकता है. उसी प्रकार इस जन्म
में चांडाल के रूप में जन्मा व्यक्ति अगले जन्म में ब्राह्मण के रूप में जन्म ले
सकता है.
ब्रह्म वह रहस्य है, जो कुल, मत, देश, काल से परे है, ऐसा तू जान ले.
देवता भावप्रिय है, बाह्य प्रिय नहीं है. तेरे ह्रदय के भावों के अनुसार दैव कार्य करता है.
ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते समय मैं ब्राह्मण हूँ. भक्तों के योग क्षेम एवँ उन पर
अनुग्रह करने के लिए जब मैं दरबार में रहता हूँ, तब क्षत्रिय हूँ. प्रत्येक जीव अपने-अपने पाप-पुण्य कर्मों के अनुसार फल
पाता है. हरेक जीव का लेखा-जोखा मेरे पास है. नाप-तौल करके पाप-पुण्य के फल को
बाँटते समय मैं वैश्य हूँ. भक्तों के कष्ट अपने शरीर पर सहन करके उन्हें
सुख-शान्ति प्रदान करने का सेवा-धर्म जब मैं ग्रहण करता हूँ, तब मैं शूद्र होता
हूँ. जीव मृत्यु को प्राप्त होने के पश्चात, चिताग्नि देकर उसके शरीर को भस्म करके
जब उसे उत्तम गति देता हूँ, तब मैं डोम होता हूँ. अब तू मुझे बता, मैं किस कुल का हूँ?
प्रश्न – श्रीपाद प्रभु! क्षमा करें, मैं अज्ञानी हूँ, आप साक्षात दत्त
प्रभु हैं. समस्त जीवों का आधार आप ही हैं. वास्तव में इस सृष्टि की रचना किस
प्रकार हुई इसका वर्णन करके मुझे कृतार्थ करें.
लोकालोक वर्णन
उत्तर –
नाना जी, स्वर्ग में ८८ हज़ार गृहस्थ मुनियों का वास है. पुनरावृत्ति होना उनका
धर्म है, और वे धर्म प्रचार हेतु बीज रूप में विद्यमान रहते हैं. परमात्मा की
अनिर्वचनीय शक्ति के एक अत्यंत अल्प अंश से जगत-सृष्टि करने के उद्देश्य से
ब्रह्मदेव की उत्पत्ति हुई. परमात्मा से फिर क्रमानुसार सर्वव्यापी जल का निर्माण
हुआ. परमात्मा के तेज से उस जल में करोड़ों सुवर्ण कांति युक्त अंड उत्पन्न हुए. उन
अण्डों में, एक अंड है – ब्रह्मांड, जिस पर हम रहते हैं. इसका भीतरी भाग अंधकारमय
है, वहाँ परमात्मा का तेज मूर्तिमंत होने से अनिरुद्ध नाम प्रख्यात
हुआ. उस अंड के भीतर का अन्धकार परमात्मा ने अपने तेज से नष्ट किया. वेदों ने उनका
वर्णन हिरण्यगर्भ, सूर्य, सविता, परंज्योति जैसे अनेक नामों से किया है. त्रेता युग में पीठिकापुर में
भारद्वाज महर्षि ने, एक करोड़ ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाले दत्तात्रेय के तेज
को संबोधित करते हुए सवितृ-काठक यज्ञ का आयोजन किया था. सत्य लोक में निरामय स्थान
नामक एक स्थान है. यहाँ त्रिखंडीय सोपानों में वासु,
रुद्रादित्य नाम से पितृगणों का वास है. वे निरामय स्थान के संरक्षक के रूप में
कार्यरत रहते है. कारण-ब्रह्मलोक कहलाने वाले इस स्थान में चतुर्मुख ब्रह्मा का
निवास स्थान है. उसे विद्यास्थान अथवा मूल प्रकृति स्थान के रूप में जाना जाता है.
उस पर प्रख्यात ऐसा श्रीनगर है. उसके ऊपर महाकैलाश, उसके ऊपर
कारण-वैकुंठ है. सत्यलोक में पुराणपुर नामक विद्याधर स्थान है. तपोलोक में अंजनापतिपुर
में साध्यों का वास है. जनलोक में अंबावतिपुर में सनक सनंदनादि ऋषियों का वास है.
महर्लोक में ज्योतिष्मतिपुर में सिद्धादी गणों का वास है. स्वर्गलोक में
अमरावतिपुर में देवेंद्रादी देवता गणों का वास है. खगोल से संबंधित गृह-नक्षत्रों
वाले भुवर्लोक में रथन्तरपुर में विश्वकर्मा नामक देव-शिल्पी का वास है. नाना जी!
भूलोक के दो भाग हैं. एक भाग में मानव निवास करते हैं, इसे
भूगोल कहते हैं. इसके अतिरिक्त जो दूसरा भाग है, उसे महाभूमि
कहते हैं. यह महाभूमि भूगोलक के दक्षिण में पाँच करोड़ ब्रह्मांड योजन दूर स्थित
है. मर्त्यलोक से तात्पर्य है – भूलोक एवँ भुवर्लोक से. इसमें महाभूमि का भी
समावेश है. पाताल में अतल, वितल, सुतल,
रसातल, तलातल, महातल और पाताल. यह सात
प्रकार के लोक हैं. संक्षेप में इन्हें स्वर्ग, मर्त्य,
पाताल कहते हैं.
हम जहाँ
रहते हैं, उस भूगोल के नीचे की और महाभूमि है, जिसका
मध्यवर्ती भाग ऊपर उठा हुआ है और चक्राकार है. इसलिए उसके ऊपरी तल पर सूर्य-चन्द्र
सदैव प्रकाशित होते रहते हैं. सदा प्रकाशित होने के कारण यहाँ कालमान संबंधी
निर्णय नहीं है. इस महाभूमि पर सप्त समुद्र एवँ सप्त द्वीप हैं. जम्बुद्वीप इसी
महाभूमि पर है. भूलोक तथा भुवर्लोक दोनों को संयुक्त रूप से मर्त्यलोक कहा जाता
है. भूलोक में महाभूमि तथा भूगोल - ये दो प्रकार हैं.
सृष्टि के
आरंभ में समस्त लोक जलमय थे. प्रजापति ने सृष्टि-रचना करने के उद्देश्य से तपाचरण
किया, तब जल पर तैरते हुए पुष्कर पर्ण के दर्शन हुए. प्रजापति ने वराह रूप धारण
करके पुष्कर पर्ण के निकट जल में दुबकी लगाई. वहाँ नीचे उसे महाभूमि दिखाई दी.
वहाँ से थोड़ी गीली मिट्टी निकालकर अपने तीक्ष्ण नुकीले दाँतो से उसने उस मृत्तिका
के दो भाग किये. एक भाग तल के ऊपर लाकर पुष्कर पर्ण पर रखा, जो
“पृथ्वी” बना.
नानाजी!
इसे भूगोल कहते हैं. महाभूमि से भूगोल तक की दूरी ५ करोड़ ब्रह्मांड-योजन है.
महाभूमि का विस्तार ५० कोटि योजन है. जम्बुद्वीप इसी महाभूमि पर है. इसमें नौ खंड
हैं. देवखण्ड देवताओं का तथा गभस्त्य खण्ड भूतों का निवास है. पुरुष खण्ड में
किन्नर, भरत खण्ड में मानव, शरभ खण्ड में सिद्ध, गन्धर्व खण्ड में गन्धर्व, ताम्र खण्ड में राक्षस, शेरू खण्ड में यक्ष तथा इंदु खण्ड में पन्नगों का निवास है. महाभूमि पर
स्थित जम्बुद्वीप के दक्षिण में भरत खंडी, भरतपुरी, वैवस्वत मनू भूऋषियों और मानवों समेत राज्य कर रहे हैं. महाभूमि पर जिस
प्रकार जम्बुद्वीप है, उसी प्रकार भूगोल पर भी जम्बुद्वीप
है. पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतार लेने से १०० वर्ष पूर्व इस
महाभूमि पर मेरा आगमन हुआ. महाभूमि पर स्थित जम्बुद्वीप का विस्तार लक्ष योजन है.
जम्बुद्वीप पर केवल भरतखंडी, वैवस्वत मनु हैं. अन्य खण्डों पर देवयोनियों का वास
है. नर्म, कोमल धूप के समान प्रकाश होने के कारण वहाँ दिन और
रात में भेद नहीं है. इनका विस्तार इस प्रकार से है : लवण समुद्र का एक लक्ष योजन, प्लक्ष द्वीप का दो लक्ष योजन, इक्षु-रस समुद्र का
दो लक्ष योजन, कुश-द्वीप का चार लक्ष योजन, सुरा-समुद्र का
चार लक्ष योजन, क्रौंच द्वीप का आठ लक्ष योजन, सर्पी समुद्र
का आठ लक्ष योजन, शाक द्वीप का सोलह लक्ष योजन, दधि-समुद्र का सोलह लक्ष योजन, शाल्मली द्वीप का
बत्तीस लक्ष योजन, क्षीर-समुद्र का बत्तीस लक्ष योजन, पुष्कर
द्वीप का ६४ लक्ष योजन, शुद्ध जल समुद्र का ६४ लक्ष योजन, चलाचल पर्वत का १२८ लक्ष योजन, चक्रावली पर्वत का
२५६ लक्ष योजन, लोकालोक पर्वत का ५१२ लक्ष योजन, तपोभूमि का १२५० लक्ष योजन. लोकालोक पर्वत के पार सूर्य की किरणें नहीं
जा सकतीं, अतः लोकालोक पर्वत तथा अण्डों के मध्य अन्धकार
फैला रहता है. अंडान्तों का विस्तार करोड़ों योजन है. वराहावतार अथवा नृसिंहावतार
भूमि को व्याप्त करने वाले अवतार नहीं हैं. वराह से तात्पर्य सूकर से नहीं, अपितु नुकीले दांत वाले खड्गमृग से है.
द्वीप, द्वीपाधिपति, द्वीपाधि देवताओं के दर्शन
महाभूमि में स्थित जम्बुद्वीप का स्वयम्भू मनु ने चक्रवर्ती के रूप में
सर्वप्रथम परिपालन किया. उसके सात पुत्र सात द्वीपों के अधिपति बने. प्लक्ष द्वीप के
मेधातिथि, शाल्मल द्वीप के
वपुष्मन्त, कुश द्वीप के ज्योतिष्मंत, क्रौंच द्वीप के द्युतिमंत, शाक द्वीप के हव्य, पुष्कर द्वीप के
सवन – पहले चक्रवर्ती थे. प्लक्ष द्वीप के चातुर्वर्ण – आर्यक, कुरर, विन्दक, भाविन इन नामों से
प्रसिद्ध हैं. चन्द्राकृति में स्थित विष्णु उनके आराध्य देवता हैं. शाल्मल द्वीप
में कपिल, चारणक, पीत व कृष्ण – ये
चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव विष्णु हैं. कुश द्वीप में दभी, शुश्मीना, स्नेह और संदेह –
ये चार वर्ण हैं. इनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. क्रौंच द्वीप में पुष्कर, पुष्कल, धन्य एवँ
पिष्य नामक चार वर्ण हैं. उनके आराध्य देव हैं – रूद्र. शाक द्वीप के चार वर्ण हैं
– मंग, मागध, मानस तथा
मंद. ये सूर्य भगवान की उपासना करते हैं. मगर पुष्कर द्वीप में चतुर्वर्ण नहीं है.
वहाँ सभी देवताओं के समान रोग एवँ शोक से मुक्त, आनंदपूर्वक काल क्रमण करते हैं. उनके आराध्य देव ब्रह्मा हैं. अपने भूगोल
में, जम्बुद्वीप में, भरत वर्ष, किंपुरुष वर्ष, हरी वर्ष, केतुमान्य वर्ष, इलावृत्त वर्ष, भद्राश्व वर्ष, रम्यक वर्ष, हिरण्यक वर्ष, कुरू वर्ष नामक
भाग है. महाभूमि गोलाकार है. मध्यवर्ती भाग में कछुए की पीठ के समान ऊपर उभरी हुई
है. इस उभरे हुए भाग को भूमंडल कहते हैं. मगर भूगोल नींबू के समान है. महाभूमि
मेरू रेखा की प्रदक्षिणा करती हुई ब्रह्मांड के अंत तक व्याप्त है. मगर भूगोल, ज्योतिष्चक्र के
समानांतर – मध्यभाग में स्थित है. महाभूमि के मध्यभाग में स्थित मेरू रेखा के
चारों और जम्बुद्वीप है. उसके चारों और सप्त समुद्र, द्वीपादी हैं. भूगोल के उत्तरार्ध को देव भाग तथा दक्षिणार्ध को असुर भाग
कहते हैं. महाभूमि के मध्यभाग में मेरू दैदीप्यमान है और जीवों का पालन करने वाले
मनु का निवास स्थान है. भूगोल जीवों का निवास स्थान है. महाभूमि के चारों और स्थित
चक्रावली पर्वत के शिखर पर ज्योतिश्चक्र स्थित है. मगर भूगोल इससे भिन्न है. सप्त
कक्षाओं से आवृत्त ज्योतिश्चक्र भूगोल की रोज़ एक प्रदक्षिणा करता है. महाभूमि में
शीतोष्ण, वात आदि कम हैं, वहाँ सदैव प्रकाश
रहता है. वहाँ हमेशा दिन रहने से काल का व्यतिक्रम नहीं है. भूगोल में स्थिति इसके
विपरीत है. महाभूमि केवल पुण्य फल का अनुभव प्राप्त करने के लिए योग्य है. स्थूल
शरीर के लिए वह अप्राप्य है. भूगोल पुण्य प्राप्त करने हेतु कर्मभूमि है और वह स्थूल
शरीरधारियों के वास करने की भूमि है. महाभूमि पर मनु प्रलय के अतिरिक्त कोई अन्य
प्रलय नहीं होता. भूगोल में युग प्रलय, महायुग प्रलय, मनु प्रलय आदि घटित होते हैं.
महाभूमि के अन्य नाम हैं – धात्री एवँ विधात्री. भूगोल को मही, उर्वी, क्षिति, पृथ्वी, भूमि आदि नामों से
भी जाना जाता है. नानाजी! पाताल लोक के बारे में बताता हूँ, सुनिए! अतल लोक
में पिशाच्च गण, वितल लोक में गुह्यक, सुतल लोक में राक्षस, रसातल में भूत, तलातल में यक्ष, महातल में पितर व पाताल में पन्नगों का वास है.
लोकों के निवासी,
लोकाधिपति एवं खंडों का विवरण
वितल लोक
का नवनिधियों का अधिपति कुबेर है. यह ब्रह्मांड का कोषाधिपति है और उत्तर दिशा में अलकापुरी में इसका वास है.
वितल लोक
में मेरू के पश्चिम में योगिनीपुर में मय का वास है. मय राक्षसों का शिल्पी है,
इसने त्रिपुरासुर के लिए आकाश में ऊंचे, विहार करने योग्य त्रिपुर का निर्माण
किया.
सुतल के
वैवस्वतपुर में यम का आधिपत्य है. यह दक्षिण दिशा का अधिपति है. इस नगर में प्रवेष
करने से पहले अग्निहोत्रा नदी पड़ती है. इस नदी को वैतरणी कहते हैं. पुण्यवान
व्यक्ति इसे सहजता से पार कर जाते हैं. पापात्माओं के लिए इसे पार करना अति
कष्टदायक है.
रसातल में
पुण्यनगर में नैऋति नामक दैत्य राज्य करता है. यह नैऋत्य दिशा का अधिपति है.
तलातल लोक
में धनिष्ठापुर में पिशाच्चगणों समेत, वेताल का राज्य है.
महातल में
कैलासपुरी में सर्वभूतगणों सहित कात्यायनीपति ईशान है. वह ईशान्य दिशा का अधिपति
है.
पाताल में
वैकुंठनगर है. इसमें श्रीमन्नारायण, पाताल में स्थित असुरों समेत,
वासुकी इत्यादि सर्पश्रेष्ठों के साथ शेषशायी होकर विराजमान हैं. इसे श्वेतद्वीप
स्थित कार्यवैकुंठ कहते हैं.
पाताल लोक
में त्रिखण्ड सोपान हैं. प्रथम खण्ड में अनंग जीवों का निवास है. द्वितीय खण्ड में
प्रेतगणों का वास है. तृतीय खण्ड में यातनामय शरीर प्राप्त हुए जीव दुःख से आक्रोश
करते रहते हैं.
महाभूमि
में सप्त समुद्र, सप्त द्वीप हैं. इनके मध्य में जम्बुद्वीप है. जम्बुद्वीप नौ खण्डों में
विभाजित है. दक्षिण की और स्थित खण्ड को भरतखण्ड कहते हैं. भरतखण्ड के भरतपुर में
स्वयंभू मनु रहते थे. अनेक पुण्यात्मा, ऋषि इत्यादि स्वयंभू
मनु के राज्य में वास करते. वे लोगों का तथा धर्म का पालन करते थे. महाभूमि पर
सप्तद्वीपों के चारों और चराचर, चक्रवाल, लोकालोक पर्वत
स्वर्ग लोक तक व्याप्त हैं. ये पर्वत कांति किरणों को कभी भी अपने भीतर से
प्रसारित नहीँ होने देते.
महाभूमि के
नीचे सात अधोलोक हैं. इन्हें सप्त पाताल कहते हैं. अतल लोक में पिशाच्चों का निवास
है. वितल लोक में अलकापुरी में कुबेर का वास है और योगिनीपुर में राक्षसों सहित मय
का वास है. सुतल लोक में राजा बलि अपने परिवार सहित वास करते है. वैवस्वतपुर यम का
निवास स्थान है, यहाँ के नरक में पापी जीव यातनाएँ भोगते है. रसातल लोक के
पुण्यपुर में नैऋति भूत अपने गणों सहित निवास करता है. तलातल लोक में धनिष्ठापुर
में वेताल का निवास है और कैलासपुरी में रूद्र का. महातल में पितृ देवों का वास
है.
पाताल में
श्वेत द्वीप वैकुण्ठ है. यहाँ नारायण का निवास है. मेरू से लगे हुए अधोभाग में
अनंग जीव, प्रेत गण तथा यातना देह वास करते हैं. निरालम्ब सूच्यग्रस्थान में
महापातकी वास करते हैं. भोजन के अंत में “रौरवे अपुण्य निलये पद्मार्बुद
निवासिनाम्। अर्थिनाम् उदकम् दत्तमक्षय्यमुपतिष्ठति।।“ कहकर उत्तरापोषण के समय इन्हें उदक प्रदान किया
जाता है.
लोकों के नाम, उनका विस्तृत वर्णन
भूलोक में
स्थित भूगोल एवँ महाभूमि भिन्न-भिन्न हैं, यह अच्छी तरह समझ लो. भूगोल
बिंदु के ऊपर ऊर्ध्व ध्रुव स्थान तक के प्रदेश मे मेरू रेखा को प्रकाशित करने वाला
सूर्य लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है. यह सूर्य देवता का लोक है, सूर्य मंडल नहीं. इसी प्रकार चन्द्र लोक, अंगारक
लोक, बुध लोक, गुरू लोक, शुक्र लोक, शनैश्चर लोक,
राश्यादी देवता लोक, नक्षत्र देवता लोक, सप्त ऋषि लोक, ऊर्ध्व ध्रुव लोक हैं. इनके अतिरिक्त अन्य अवांतर लोक भी
हैं.
भूमध्य लोक
से सूर्य लोक एक लक्ष ब्रह्माण्ड योजन के अंतर पर है. भूमध्य लोक से चन्द्र लोक दो
लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, अंगारक लोक तीन लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, बुध लोक पाँच लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, गुरू लोक सात लक्ष ब्रह्माण्ड योजन,
शुक्र लोक नौ लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, शनैश्चर लोक ग्यारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन,
राश्यादि देवता लोक बारह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, नक्षत्रादि देवता लोक तेरह लक्ष
ब्रह्माण्ड योजन, सप्तर्षि लोक चौदह लक्ष ब्रह्माण्ड योजन, ध्रुव लोक पंद्रह लक्ष
ब्रह्माण्ड योजन दूर है.
इसी
प्रकार, भूमध्य बिंदु से विविध अंतर पर स्वर्गलोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक
हैं.
भूमध्य
बिंदु से ब्रह्माण्ड के चारों और दीवार के समान, अर्थात्, अंडान्त तक २४ करोड़ ५०
लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूमध्य बिंदु से अंडान्त के बाहरी भाग तक २६
करोड़ा पचास लक्ष ब्रह्माण्ड योजन की दूरी है. भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक प्रलय
काल में नष्ट हो जाते हैं. स्वर्लोक के ऊपर स्थित महर्लोक कुछ अंशों में नष्ट होकर
उसके कुछ अंश स्थिर रहते हैं. उसके ऊपर स्थित जन, तप व सत्य
लोक ब्रह्मा के आयुष्य के अंत में नष्ट होते हैं. स्वर्ग से तात्पर्य है स्वर्लोक, महर्लोक, जन लोक, तपो लोक, सत्य लोक और अंडान्त तक का प्रदेश.
दत्त अर्थात् कौन?
नाना जी! यदि तुम दत्त
तत्व का अनुभव करना चाहते हो, तो लक्ष बार जन्म लेना होगा. कोटि-कोटि ब्रह्मांडों को व्याप्त करने वाली, उनका अतिक्रमण करने
वाली जो एकमेव तेजोमहाराशी है, वही दत्त है, ऐसा समझो. वे दत्त प्रभु ही तेरे सामने उपस्थित श्रीपाद
श्रीवल्लभ हैं, यह जान लो.
श्री चरणों (श्री
प्रभु) द्वारा किया गया हितोपदेश सुनकर नरसावधानी और उनकी पत्नी चकित हो गए. एक
वर्ष के बालक द्वारा अधिकार पूर्ण स्वर में इतने महत्त्वपूर्ण एवँ गहन विषय का
वर्णन और स्वयँ दत्त होने का निरूपण सुनकर नरसावधानी एवँ उनकी पत्नी से रहा नहीं
गया. वे फूट-फूट कर रोने लगे. उस दिव्य बालक के श्रीचरणों को स्पर्श करने की इच्छा
उन्होंने व्यक्त की. श्रीपाद प्रभु ने इनकार कर दिया. नरसावधानी और उनकी पत्नी
जडवत् रह गए.
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मैं दत्त हूँ,
कोटि-कोटि ब्रह्मांडो में व्याप्त एकमेव तत्व मैं ही हूँ. दिग् – यही मेरा वस्त्र
है, इसलिए मैं दिगम्बर
हूँ. जो कोई त्रिकरण शुद्धि से दत्त दिगंबरा! श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा! नृसिंह सरस्वति दिगंबरा! कहकर भजन कीर्तन करते हैं, वहाँ मैं सूक्ष्म रूप से सदैव उपस्थित रहता हूँ. मेरे
मातामह श्री बापन्नार्य, पर-प्रांत से पादगया क्षेत्र में श्राद्धादि कर्म करने
हेतु आये हुए लोगों की सेवाभाव से भोजन व आवास की व्यवस्था कर रहे थे, तो कुछ लोगों ने आक्षेप उठाया, “कहाँ हैं,
तुम्हारे स्वयंभू दत्त? अदृश्य हो गए ना?” तब
श्रीपाद प्रभु बोले, “वह दत्त मैं ही हूँ. जिस घर में मैंने जन्म लिया, वहाँ रहने के लिए जो लोग आयेंगे, वे निश्चय ही पवित्र
हो जायेंगे. पितृ देवों को अवश्य ही पुण्यलोक की प्राप्ति होगी. जीवित प्राणियों
का, उसी प्रकार मृत जीवों का योग-क्षेम वहन करने वाला
प्रभु मैं ही हूँ . मेरे लिए जन्म, मरण दोनों एक समान हैं, फिर भी तुम्हारे मन में यह व्यथा है कि “मेरे द्वारा
की गई स्वयंभू दत्तात्रेय की आराधना का क्या यही फल है?” तुझ पर
आया हुआ वृथा आरोप नष्ट करने के उद्देश्य से स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन शीघ्र ही
होंगे, और मूर्ती की प्रतिष्ठापना होगी. मैंने तुम्हें जीवन
दिया है. दत्त का हमेशा स्मरण रहे. अगले जन्म में तुझ पर अनुग्रह होगा, यह आश्वासन
देता हूँ. इस जन्म में मेरे चरणों को स्पर्श करने का महत्पुण्य तेरे भाग्य में
नहीं. कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन, रक्षण एवँ विनाश करने वाला एकमेव प्रभु, जो
मैं हूँ, अपने वरद हस्त से तुझे आशीर्वाद देता हूँ!” महाभयंकर ध्वनि के मध्य
श्रीचरणों (श्री प्रभु) के शरीर के अणु-परमाणु विघटित होकर श्रीपाद प्रभु अदृश्य
हो गए.
बेटा!
शंकर भट्ट! श्रीपाद स्वामी ने उनके नाम के साथ ‘दिगंबरा’ नाम जोड़कर जप करने का मर्म इस प्रकार से निरूपित किया
: उनका सर्वव्यापी तत्व, जो निराकार है, वह तत्व
साकार रूप में किस प्रकार अवतरित हुआ, यह हमारी कल्पना से परे है. नन्हें बालक के रूप में,
लुभावना, मोहक रूप धारण करके आए उस जगत्प्रभु की बाल्यावस्था
से होती आ रही लीलाओं का अंत कहाँ?”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय-जयकार हो”
“श्रीपाद
राजं शरणं प्रपद्ये”
अध्याय
८
दत्तावतार
का वर्णन
कैसे होता है आत्म
साक्षात्कार ? ब्रह्म ज्ञान हेतु तप करने वाले ही हैं सच्चे ब्राह्मण
अगले दिन अपना नित्य
नैमित्यिक अनुष्ठान पूरा करने के पश्चात तिरुमलदास बोले: “अरे, शंकर भट्ट! जब आत्म
साक्षात्कार होता है, उस समय षोडश कलाएँ अपने-अपने भूतों में लीन हो जाती हैं.
इनसे संबंधित देवता शक्तियाँ अपने-अपने मूलभूत चैतन्य में लीन हो जाती हैं.
आत्मज्ञान, कर्म इत्यादि ब्रह्म
स्वरूप में लीन होते रहते हैं. ऐसे ब्रह्म-ज्ञान के लिए जो परिश्रम करता है, वही सच्चे अर्थों में
ब्राह्मण है. प्राण, विश्वास, आकाश, वायु, अग्नि, जल, भूमि, इंद्रियें, मन, अन्न, बल, विचार, मन्त्र, धर्म, लोक, लोकों के विविध नाम –
इन्हें सोलह कलाएँ कहते हैं. श्रीपाद प्रभु सोलह कलाओं से परिपूर्ण परब्रह्मावतार
हैं.”
अन्न ही मन है – सात्विक अन्न के सेवन से मन का निर्मलत्व प्राप्त होता है.
विधाता ने प्रथम
प्राणों की रचना की, प्राण से तात्पर्य है संपूर्ण विश्व में विद्यमान प्राण-शक्ति. इस
प्राण-शक्ति का एक सूक्ष्मात्मा होता है, इसे हिरण्यगर्भ नाम से भी संबोधित किया जाता है. प्राणमय कोष में स्थित
जीव-धातु शक्ति को शक्ति-शरीर कहते हैं. प्राणमय चैतन्य को संतुलित रीति से
प्रवाहित करने से मनुष्यों के भौतिक दुःखों का निवारण होता है. मनुष्य का स्थूल
देह रोग ग्रस्त होने से पूर्व उसका प्राणमय शरीर रोगग्रस्त होता है. इसके पश्चात्
स्थूल शरीर रोगग्रस्त होता है. सृष्टि के प्रारम्भ का निश्चय होने के बाद
पंचमहाभूतों का अविर्भाव हुआ. इन पंचमहाभूतों का अनुभव करने के उद्देश्य से
पंचेन्द्रियों की रचना हुई. इनका संधान करके सुव्यवस्थित ढंग से काम करने के लिये
पंचेन्द्रियो की योजना हुई. इन दसों इन्द्रियों पर मन का अधिकार रहता है. मन आहार
से बनता है, अतः मनुष्य को अपने आहार के विषय में अत्यंत सावधान रहना चाहिए,
क्योंकि आहार के सूक्ष्म अंश से ही मनोभावनाएँ प्रकट होती हैं. आहार के जैसे गुण
होंगे, मनुष्य के विचार भी
उसी के अनुरूप बनाते हैं. मन के विचारों की धारा को क्रमबद्ध करके नियंत्रित करने
को ही “मन्त्र” कहते हैं यज्ञ-यागादी का विधिपूर्वक आचरण करते हुए कर्मकाण्ड में
वर्णित तत्संबंधी मन्त्रोच्चारण को विधिपूर्वक संपन्न करने को “कर्म” कहते हैं.
विश्व निर्माण का आधार कर्म ही है. नाम रूप विहीन जग हो ही नहीं सकता. हमारे भीतर
प्रत्येक इन्द्रिय का संबंध एक-एक देवता से होता है. इस देवता के प्रभाव से
संबंधित इन्द्रिय कार्य करते हैं. समाधिस्थ अवस्था में बैठे योगी को जब
आत्म-साक्षात्कार होता है, उस समय सोलह कलाएँ मूलतत्व में विलीन हो जाती हैं. योगी की भौतिक इन्द्रियों
की चैतन्य शक्ति विश्व की चैतन्य शक्ति में लीन हो जाती है. कर्मेन्द्रियों तथा
ज्ञानेन्द्रियों से युक्त मानव कर्म किये बिना नहीं रह सकता.
अहंकार नष्ट हुए
बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती.
मनुष्य के अहंकार के कारण ही कर्माचरण होता रहता
है. मन एवँ बुद्धि के अज्ञान के आवरणों से आच्छादित होने पर जो अशुद्ध चैतन्य
उत्पन्न होता है, वही अहम् है.
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर चुके योगी के लिए जन्मान्तरों का कर्मफल शेष नहीं
बचता. अहंकार पूरी तरह नष्ट हुए बिना आत्मसाक्षात्कार संभव नहीं है. योगी को जब
आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति होती है, तब श्रौत (वैदिक) कर्म और उसका प्रतिफल – महद
अहंकार, माया जाल समेत शाश्वत परमात्मा में लीन होकर, वह
व्यक्तित्व-रहित हो जाता है. परमात्मा व्यक्तित्व-सहित शक्ति स्वरूप है. कर्म तथा
उसके फल का नाश होने पर योगी सिद्धावस्था को प्राप्त होता है. योगी चाहे अपने
स्थूल शरीर से कर्मफल का भोग भोगता है, फिर भी उसमें देहाभिमान न होने के कारण वह हमेशा मुक्तावस्था में रहता
है. परमात्मा योगियों के माध्यम से अपनी लीलाएँ प्रकट करता रहता है. यदि किसी योगी
को अपनी यौगिक शक्ति का अहंकार हो जाता है, तो उसकी सभी शक्तियों का हरण करके उसके गर्व का
नाश करने की सामर्थ्य परमात्मा के पास होती है. श्री बापन्नार्य ने श्रीशैल्यम्
क्षेत्र में स्थित श्री मल्लिकार्जुन तथा गोकर्ण क्षेत्र में स्थित महाबलेश्वर एवँ
कुछ अन्य स्थानों पर सौर मंडल से शक्तिपात किया था. स्वयंभू दत्तात्रेय की उत्सव
मूर्ती तथा अर्चना मूर्ती में भी शक्तिपात किया था. अग्नि से संबंधित इस शक्ति का
शान्ति-विधान करना आवश्यक है. यदि वैसा न किया गया, तो अर्चक समेत अर्चना करवाने वाले व्यक्ति भी
अर्चना मूर्ती के प्रखर तेज से दण्ड के भागी होकर उन्हें अनिष्ठ फल प्राप्त होता
है. स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती में हुए शक्तिपात का रहस्य केवल वही योगी जान
सकते हैं, जो अंतर्ज्ञानी
हो. श्रीशैल्य-मल्लिकार्जुन स्थान पर शक्तिपात सहस्त्र लोगों की उपस्थिति में श्री
बापन्नार्य के यजमानत्व में हुआ था. सूर्य-मंडल से तेज निकल कर सब के समक्ष
मल्लिकार्जुन के लिंग में लीन हो गया. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार एवँ यह
शक्तिपात – ये दो अत्यंत गोपनीय दैवी रहस्य हैं. उनका वर्णन केवल महायोगियों के
सम्मुख ही किया जाना चाहिए तथा वे ही इसे जानने के लिए योग्य हैं. श्रीशैल्यम में
हुए शक्तिपात का शान्ति विधान किया गया. इस विधान के अंतर्गत हज़ारों की संख्या में
अन्नदान किया गया. इसके फलस्वरूप जठराग्नि शांत हुआ. उग्रत्व की शक्ति शिथिल होकर
शान्ति-तत्व में लीन होने के कारण सब कार्य शांत एवं शुभप्रद हो गया. पीठिकापुर के
स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ति पर हुए शक्तिपात का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण एवँ साक्षी
न होने से वहाँ शान्ति-विधान अथवा अन्नदान नहीं किया गया. श्री बापन्नार्य ने
अन्नदान करने का सुझाव दिया था, परन्तु पीठिकापुर के ब्राह्मण पंडितों ने तर्क, वितर्क करके श्री
बापन्नार्य के प्रस्ताव को ठुकरा दिया.
श्रीपाद स्वामी षोडश कला परिपूर्ण है.
काल अपनी गति से चला जा
रहा था. श्रीपाद प्रभु की आयु अब दो वर्ष की हो गई. इन दो वर्षों की कालावधि में
उन्होंने अनेक बाललीलाओं द्वारा प्रमाणित कर दिया था कि वे षोडश कलाओं से परिपूर्ण
इस युग के महा अवतार हैं. सोलहवे वर्ष में श्रीपाद प्रभु ने पीठिकापुर छोड़ दिया.
तत्पश्चात चौदह वर्षों तक वे कुरवपुर एवँ कुछ अन्य क्षेत्रों में रहे. परन्तु उनकी
शरीरयष्टि सोलह वर्ष के किशोर के समान ही थी.
श्री दत्तात्रेय के
सोलह अवतार
सोलह – इस संख्या को एक वैशिष्ट्य प्राप्त है. श्री
दत्तात्रेय ने पूर्व युग में सोलह अवतार धारण किये थे. वे इस प्रकार है:
१.
योगिराज
२.
अत्रिवरद
३.
दिगम्बरावधूत
४.
कालाग्निशमन
५.
योगीजन वल्लभ
६.
लीला विश्वंभर
७.
सिद्धराज
८.
ज्ञान सागर
९.
विश्वंभरावधूत
१०. मायामुक्तावधूत
११. आदिगुरू
१२. संस्कारहीन
शिवस्वरूप
१३. देव देव
१४. दिगम्बर
१५. दत्तावधूत
१६. श्यामकमल लोचन .
श्री दत्तात्रेय
प्रभु भोग तथा मोक्ष के दाता हैं. उनकी आराधना करने के लिए केवल उनकी चरण पादुकाओं
की आराधना करना पर्याप्त है. चारों वेद समूची अपवित्रता को पवित्र करते हुए श्वान
रूप में उनके चरण कमलों में पड़े रहते हैं. श्री दत्तात्रेय की पवित्रता की कल्पना
करने में मानव तो क्या, देवता तथा सप्त ऋषि भी असमर्थ हैं. युगांतर में जब वामनावतार हुआ, तब उनके समकालीन
रह चुके श्री वामदेव महर्षि का भी जन्म हुआ. उनके जन्म के समय माता के गर्भ से
केवल सिर बाहर आया और चारों दिशाओं का अवलोकन करके वापस गर्भ में समा गया. तब
देवताओं तथा ऋषिगणों के प्रार्थना करने पर श्री वामदेव ने पुनः जन्म लिया. वे
जन्मतः शुद्ध ब्रह्मज्ञानी थे.
ऐसी ही घटना
श्रीपाद प्रभु के जन्म के समय घटित हुई. वे केवल ज्योति-स्वरूप थे. इस प्रकार दो
बार जन्म लेने के कारण वे आजन्म द्विज थे. वे संपूर्ण, अखण्ड, अद्वैत, सच्चिदानंदघन होने
के कारण इस अवतार में उनके कोई गुरू नहीं थे. वास्तव में वे त्रिमूर्ति के संयुक्त
स्वरूप न होकर त्रिमूर्ति से भी जो परे है, ऐसे एक विशिष्ठ तत्व थे. इसलिए वे उस त्रिमूर्ति
से परे स्थित चतुर्थतत्व हैं, यह संकेत देने के लिए उन्होंने चतुर्थी के दिन अवतार
लिया. माता के गर्भ से बाहर आकर पुनः गर्भस्थ हो जाने पर, महायोगियों, सिद्ध पुरुषों एवँ
देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुबारा जन्म लेने के कारण वे आजन्म
ब्रह्मज्ञान संपन्न थे. चित्रा नक्षत्र का अधिपति मंगल ग्रह है. यह ग्रह नीच स्थान
में रहते हुए समूचे जीवों के लिए अमंगलकारी होता है. समूचे अमंगल का हरण करके शुभ
मंगल प्रदान करने के लिए प्रभु ने चित्रा नक्षत्र में जन्म लिया. चित्रा नक्षत्र
के दौरान यदि श्रीपाद प्रभु का पूजन किया जाए तो वह विशेष फलदायी होता है. श्रीपाद
प्रभु स्वयं धर्मं शास्ता (धर्म प्रवर्तक) हैं. वे हरिहरात्मज श्री अय्यप्पा
स्वामी हैं, यह दर्शाने के लिए उन्होंने तुला राशि में जन्म लिया. ऐसा कोई धर्मं
शास्त्र नहीं, जिसका उन्हें
ज्ञान न हो. धर्मं संकट में फँसे हुए मनुष्य को उनकी प्रार्थना करने से
धर्म-पथप्रदर्शन की प्राप्ति होती है. सूर्य ग्रहों का अधिपति है. सिंह लग्न में
जन्म लेने के कारण वे मानो यह सूचित करते हैं, कि वे सकल विश्व के नाथ एवँ चक्रवर्ती शासक हैं.
श्री दत्त प्रभु से
त्रिमूर्ति तथा त्रिमूर्ति से तीन कोटि देवों की, जिनसे तेहतीस कोटि देवताओं की उत्पत्ति हुई. अतः
केवल श्री दत्त प्रभु के नामस्मरण से समस्त देवताओं के स्मरण का फल प्राप्त होता
है.
श्री दत्त प्रभु के
ब्रह्म मुख का ऋषि पूजन करना चाहिए. विष्णुमुख की अर्चना श्री सत्यनारायण व्रत तथा
विष्णु सहस्त्र नाम से करना चाहिए. उनके रूद्र मुख का रुद्राभिषेक से सिंचन करना
चाहिए. श्री दत्त प्रभु के ब्रह्म मुख की जिह्वा पर सरस्वति का वास है. विष्णुमुख
के वक्षस्थल पर लक्ष्मी का वास है. रूद्र मुख के वाम भाग में गौरी का वास है.
सृष्टि की समूची स्त्री-देवता शक्ति श्रीपाद प्रभु के वामभाग में तथा पुरुष-देवता
शक्ति दक्षिण भाग में विराजमान है. तिरुपति में सप्त गिरी पर अवतरित हुए श्री
वेंकटेश्वर स्वामी साक्षात श्री दत्त प्रभु ही हैं. “वें”कार – अमृत बीज तथा “कट” –
ऐश्वर्य बीज है. इसलिए श्री वेंकटेश्वर अमृत एवँ ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं.
“वें” से तात्पर्य है पाप से, तथा “कट” का अर्थ है – खंडन करने वाला या हरण
करने वाला. श्री वेंकटेश्वर तथा श्रीपाद श्रीवल्लभ वास्तविक रूप से एक ही हैं. वे
अभिन्न हैं.”
तब मैंने कहा, “हे तिरुमलदास !
प्राचीन काल में विद्वज्जनों का ऐसा मत था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन कठोरता से
किया जाए. परन्तु श्रीपाद प्रभु का मत इसके विपरीत था, ऐसा मैं समझा हूँ, कृपया
मेरी इस शंका का समाधान करें.”
ब्राह्मणों के लक्षण
इस पर तिरुमलदास बोले, “अरे, यदि ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना जीवन बिताये, तभी वह सद्ब्राह्मण
कहलाता है. निर्धारित धर्मं, कर्म का त्याग कर दुराचारी होने से वह दुष्ट ब्राह्मण बन जाएगा. उसके
दुराचारों के बढ़ने पर यदि वह गोहत्या करने तथा गौ-माँस भक्षण करने पर प्रवृत्त हो जाए
तो उसके भीतर का ब्राह्मणत्व विलुप्त होकर उसका ब्रह्म तेज पूरी तरह से क्षीण हो
जाता है. उसके शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होकर वह चांडालत्व को प्राप्त होता
है. उस अवस्था में वह ब्राह्मण नहीं हो सकता. क्षत्रिय यदि ब्रह्मज्ञान की
आकांक्षा से निरंतर तपाचरण करे तो वह ब्राह्मणत्व प्राप्त कर सकता है. क्षत्रियों
के शरीर में जन्मतः विद्यमान जीवन कणों में तपाचरण के परिणाम स्वरूप परिवर्तन होने
पर, उसे ब्राह्मणत्व
प्राप्त होता है. विश्वामित्र को इसी प्रकार ब्राह्मणत्व प्राप्त हुआ था. शनि ग्रह
का तीन राशियों में, अर्थात् साढ़े सात वर्षों तक भ्रमण होता है. उस अवधि में प्रत्येक मनुष्य के
शरीर के जीवन कणों में परिवर्तन होता है. पुराने जीवन कणों का नाश होकर
नूतन जीवन कणों का सृजन होता रहता है. मनुष्य इस बारे में कल्पना भी नहीं कर सकता.
क्षत्रियों के लक्षण
क्षत्रिय यदि क्षात्र धर्म का त्याग करके शान्तिरस प्रधान धर्मों, जैसे कृषि, गो-सेवा, वाणिज्य, आदि का पालन करे और
स्वकर्म छोड़ दे तो उसके भीतर का क्षात्र तेज बना नहीं रहता. उसके मन, बुद्धि एवँ शरीर में
अनेक परिवर्तन घटित हो जाते हैं और वह वैश्यत्व को प्राप्त होता है. ब्राह्मण यदि
क्षात्र धर्म का अवलंबन करे तो वह परशुराम के समान हो जाता है. प्राचीन काल में
द्रोणाचार्य एवँ कृपाचार्य ने जन्म से ब्राह्मण होने पर भी क्या क्षात्र-धर्म का
पालन नहीं किया था? कुसुम श्रेष्ठी ने वैश्य होते हुए भी क्या क्षत्रिय वृत्ति का अवलंबन नहीं
किया था? जन्मतः शूद्र होते हुए भी क्या मुझे श्रीपाद प्रभु की कृपा
से ब्रह्मज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है? निरंतर तपाचरण से शूद्र भी वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण हो सकता है. केवल किसी एक
वर्ण में जन्म लेने का यह अर्थ कदापि नहीं कि व्यक्ति यम-नियम, धर्म, शिक्षा का आचरण करे या न करे. बल्कि प्रत्येक व्यक्ति
का वर्ण उसके शुभ कर्मों के फल के अनुसार निर्धारित होता है. जन्मतः शूद्र होते
हुए भी मुझे अगला जन्म ब्राह्मण का प्राप्त हो सकता है. उसी प्रकार जो जन्म से
ब्राह्मण है, उसे भी अगला जन्म शूद्र का प्राप्त हो सकता है. वर्ण-भेद की व्यवस्था
सामाजिक कारणों से की गई. श्रीपाद प्रभु ने एक पर्याय दिया है कि परमात्मा का मुख
ब्राह्मणत्व का, बाहू क्षत्रियत्व के, उरू
(जंघा) वैश्यत्व का एवँ पाद शूद्रत्व के सूचक हैं. तुमने मेरे आतिथ्य का स्वीकार
किया. मेरे घर का भोजन ब्राह्मण के घर का भोजन ही है.
कर्म
– रहस्य
निरंतर
श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण तथा ध्यान करने से इस परिसर का वातावरण शुभप्रद एवँ
पवित्र स्पंदनों से परिपूरित है. नरसावधानी जन्मतः ब्राह्मण थे, फिर भी उनके घर में भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक
स्पंदन विषपूरित होने के कारण वहां का वायुमंडल कलुषित हो गया था. इसी कारण
श्रीपाद प्रभु ने उनके आदरातिथ्य को स्वीकार नहीं किया. इसके पीछे यही रहस्य था!
किसी भी जीव को अपने परिणाम-क्रम से या विपरिणाम-क्रम से कर्मसूत्र के अनुसार जन्म
लेने के लिए किसी न किसी वर्ण की आवश्यकता होती है. है ना?
इसलिए वर्णाश्रम की योजना की गई. जॉन, जर्मनी देश का निवासी था, फिर भी उसके मन में ब्रह्मज्ञान की तीव्र जिज्ञासा थी. परिणाम-क्रम की
अंतिम अवस्था में उसे कुरवपुर में श्रीपाद प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए और परम
अनुग्रह की प्राप्ति हुई. नरसावधानी पीठिकापुर में होते हुए भी उन्हें यह जानने
में अनेक वर्ष लग गए कि श्रीपाद प्रभु श्री दत्तात्रेय के अवतार हैं. यह जानने के
पश्चात भी साधना-क्रम के बिना श्री दत्त प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होना असंभव है.
इस
पर मैंने कहा, “स्वामी, आपके
कथनानुसार प्रत्येक जीव-कण में परिवर्तन होता रहता है. तो क्या प्रत्येक जाति का
एक विशिष्ट आत्मा होता है? पार्वती देवी हिम पर्वत की कन्या
हैं ऐसा कहा जाता है, इसके पीछे क्या कारण है?”
इस
पर तिरुमलदास बोले, “प्रत्येक जाति का एक आत्मा
होता है. वह शक्ति-स्वरूप में विद्यमान रहता है. वह शक्ति श्री दत्त प्रभु से, जो दिव्यात्मा हैं, निकली है. इस शक्ति का परमात्मा
के साथ निरंतर संबंध होने के कारण वह महाशक्ति है. ‘जाति’ इस शब्द का वह अर्थ नहीं
है जो तुम समझ रहे हो. उसका तात्पर्य जीवित व्यक्ति में उपस्थित चैतन्यमय जीव-कणों
से है. उसी प्रकार सामूहिक / सांघिक रूप में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति के शक्ति –
सामर्थ्य गुण-कण उसमें अंतर्लीन रहते हैं. इसी प्रकार प्रत्येक गाँव की, प्रत्येक शहर की, प्रत्येक राष्ट्र की एक आत्मा
होती है. हम जहाँ रहते हैं, उस भूमि की भी आत्मा है. भूमि की
जो अधिष्ठित देवता है, उसे हम भू-माता कहते हैं. उसकी आत्मा में परमात्मा का अंश
होने के कारण वह मानसिक संबंध स्थापित करने वाली महाशक्ति है. उसी प्रकार हिम
पर्वत की अधिष्ठित देवता शक्ति को ‘हिमवंत’ नाम से संबोधित
किया जाता है. उस हिमवंत की पुत्री है, हेमवती. यदि यह माना
जाए कि सर्वसाक्षी सूर्य भगवान के पुत्र हैं यमराज, तो इसका
अर्थ यह हुआ कि वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार उन्हें न्याय प्रदान करके, पापियों को शिक्षा देने वाली देवता-शक्ति हैं.
संसार
के समस्त प्राणी अपना-अपना कार्य करने के लिए सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं.
आकाश में विराजमान सूर्य-बिंब से उसमें अधिष्ठित देवता-स्वरूप, देवतात्मा भिन्न
है. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी तीस वर्ष की आयु में लुप्त हो जायेंगे, ऐसा मैंने तुमसे कहा था. वे ब्रह्माण्ड में उपस्थित अनंत कोटि अणु-रेणुओं
में विलीन हो जायेंगे. वे सर्वान्तर्यामी हैं ना? फिर, ये ‘विलीन’ होने का क्या अर्थ है, तुम यह प्रश्न
पूछ सकते हो. वे सर्वान्तर्यामी होने पर भी उनकी शक्ति के प्रभाव से थोड़ी दूर पर
कोटि-कोटि ब्रह्मांड हैं. इन ब्रह्मांडों के परिभ्रमण को सुव्यवस्थित करने के
उद्देश्य से अपने शक्ति प्रभाव से उन ब्रह्मांडों को वे अपनी और आकर्षित करते हैं.
संपूर्ण सृष्टि में परिणामी दशा में यदि कोई विपथ-गामी स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो
श्री दत्तात्रेय का अवतार होता है. यह ज्ञात है कि चुम्बक लोहे को आकर्षित करता है, परन्तु यदि लोहे पर मलिनता का आवरण हो तो चुम्बक की आकर्षण शक्ति कम हो
जाती है. मलिनता को हटाकर, सृष्टि के प्रत्येक अणु को
आकर्षित करके, विश्व-परिणाम को नूतन दिशा प्रदान करने का
संकल्प जब होता है, तब इस प्रकार के अवतार होते हैं.”
पंच कन्याओं का विवरण
तब मैंने कहा, “स्वामी!
“अहिल्या, द्रौपदी,
सीता, तारा, मंदोदरस्तथा।
पंचकन्याम्
पठेन्नित्यम् महापातक नाशनम् ।।“ ऐसा कहते हैं.
यह विषय मेरी समझ से परे है, अतः कृपया इसका विवरण करे, “
इस पर तिरुमलदास बोले, “अहिल्या पर इंद्र मोहित हुआ था और उसे प्राप्त करने के लिए उसने माया का
उपयोग किया. कुक्कुट का रूप धारण करके उसने बांग दी. गौतम ऋषि ने समझा कि सुबह हो
गई है, अतः वे अपने अनुष्ठान हेतु बाहर गए. अहिल्या पतिव्रता थीं, अतः इंद्र उसे स्पर्श नहीं कर सकता था. देवशक्ति से सम्पन्न होने के कारण
इंद्र देवता ने मायावी अहिल्या उत्पन्न करके उन्होंने समागम किया. मायावी अहिल्या
के शरीर के जीवाणु इंद्र की तीव्र इच्छा के कारण उत्पन्न हुए थे. मायावी अहिल्या
और इंद्र को उस अवस्था में देखकर गौतम ऋषि ने क्रोधित होकर उन दोनों को शाप दिया.
अहिल्या बोली, “हे मुनिवर. आपने यह क्या कर दिया!”
आध्यात्मिक दृष्टी से अहिल्या गौतम से उच्च स्तर पर थी,
अहिल्या के शाप के कारण गौतम ऋषि बारह वर्षों तक भ्रमित अवस्था में रहे, तदनंतर शिवजी की उपासना करके स्वस्थ्य हुए. अहिल्या की मनोशक्ति जड़ हो
जाने के कारण उसका शरीर भी जड़ होकर शिला के रूप में परिवर्तित हो गया. श्री
रामचंद्र की चरण धूल से अहिल्या का शाप-विमोचन हुआ. इसलिए अहिल्या परम पवित्र है,
यह जान लो.”
शाप
ग्रस्त होकर इंद्र ने पञ्च पांडवों के रूप में जन्म लिया. पांच शरीर, पांच मन होने पर भी उनका जो आकार-आत्मा था वह एक ही था. यह एक विस्मयचकित
करने वाला विषय है. शची देवी यज्ञकुंड से द्रौपदी के रूप में अवतरित हुईं. वे
अयोनिजा हैं.
वास्तविक
सीता को अग्निदेव ने अपने भीतर छिपा लिया और मायावी सीता को रावण लंका ले गया.
सीता के अग्नि प्रवेश करने पर उनका मायावी रूप लुप्त हो गया और वास्तविक सीता बाहर
आईं. इसलिए सीता महा पतिव्रता है, यह सत्य है.
भूचक्र
की बारह राशियों में सत्ताईस नक्षत्र हैं. इन सत्ताईस नक्षत्रों की जो अधिष्ठित
देवता है, उनका जन्म तारा देवी के रूप में हुआ.
यौवनावस्था में तारा पर गुरू ग्रह के अधिष्ठित देवता, बृहस्पति मोहित हो गए और
उन्होंने उससे विवाह कर लिया. वृद्ध पति युवा पत्नी को संतुष्ट नहीं कर सकता. यह
विषय धर्मं के विरुद्ध है, इसलिए विवाह के समय ली गई शपथ का यदि उल्लंघन हो जाए तो
कोई हानि नहीं है. तारा देवी के मन ने बृहस्पति को कभी भी पति के रूप में स्वीकार
नहीं किया. तारा देवी के मन में अपने पति के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का
उत्तरदायित्व बृहस्पति का था. वैसा न करने से सकल धर्मों के ज्ञाता बृहस्पति ने
धर्म विरुद्ध आचरण किया. तारा देवी के शरीर के जीवाणुओं में उनकी मनोवृत्ति के
अनुरूप परिवर्तन हुए. उनके मन में चन्द्रमा का रूप स्थिर हुआ, उनका ह्रदय चन्द्रमा के आधीन हो गया. इस प्रकार परिवर्तित हुई तारा देवी
उस तारा देवी से भिन्न हैं, जिनका बृहस्पति से विवाह हुआ था.
अतः तारा-चन्द्र का मिलन धर्म विरुद्ध नहीं है. सृष्टि के नियम के अनुसार सत्ताईस
नक्षत्रों से होकर भ्रमण करना चन्द्र का धर्म है, गुरू ग्रह
का नहीं. यदि गुरू ग्रह ऐसा करे, तो यह धर्म के विरुद्ध होगा. कोई भी कार्य धर्म
के विरुद्ध करने से अधोगति प्राप्त होती है. अतः सत्ताईस नक्षत्रों की अधिष्ठित
देवता तारा देवी, चन्द्र मंडल के अधिष्ठित देवता चन्द्र को
प्राप्त हुई – यही धर्म है. बेटा! इस सूक्ष्म धर्म का अनुसरण करने वाली तारा देवी
महा पतिव्रता है.
भीष्म
जब शर-शैया पर थे, तब उन्होंने युधिष्ठिर को हितोपदेश
दिया था. भीष्म ने कहा था, “कुकर्म होते देखकर उसका यथासंभव
विरोध करना चाहिए, अथवा जिस स्थान पर अधर्म हो रहा हो उस
स्थान को त्याग देना चाहिए.” इस पर द्रौपदी हँस पडी. तब भीष्म बोले, “जिस समय द्रौपदी का मान भंग हुआ, उस समय का मेरा व्यवहार अनुचित था, क्योंकि उस समय मैं दुर्योधन के आश्रय में था. उसके अन्न के सेवन से मेरा
रक्त कलुषित हो गया था तथा बुद्धि भ्रष्ठ हो गई थी. अब वह कलुषित रक्त मुझमें नहीं
है. मेरी बुद्धि कल्मष रहित होकर मेरा ज्ञानोदय हो गया है.”
परिणाम
दशा में जीव अनेक जन्म लेता है, किसी जन्म में
स्त्री के, तो किसी जन्म में पुरुष के रूप में अवतरित होता
है. मानव रूप के अतिरिक्त वह पशु-पक्षियों आदि का भी जन्म लेता है. किसी जन्म में
मंदोदरी पुरुष रूप में जन्मी थी. उस जन्म में उसकी तीन पत्नियां थीं – एक चंचल
स्वभाव की, दूसरी दुष्ट स्वभाव की और तीसरी मृदु स्वभाव की.
उस जन्म की चंचल स्वभाव वाली पत्नी ने वानर होकर बाली के रूप में जन्म लिया. दुष्ट
स्वभाव की पत्नी ने राक्षस होकर रावण के रूप में जन्म लिया और मृदु स्वभाव की
पत्नी का जन्म विभीषण के रूप में हुआ. उस जन्म में ये तीनों उसकी पत्नियाँ थे, तो इस जन्म में वह चंचल वृत्ति वाले बाली की पत्नी बनी, उससे उसने अंगद को जन्म दिया. तत्पश्चात दुष्ट प्रवृत्ति वाले रावण की
भार्या बनी. रावण संहार के पश्चात मृदु स्वभाव वाले विभीषण की पटरानी बनी. अर्थात
बाली की, रावण की तथा विभीषण की पत्नी होते हुए भी उसके शरीर
के जीवाणु भिन्न-भिन्न थे. अतः मंदोदरी भी महापतिव्रता हुई!”
तब
मैंने कहा, “स्वामी! स्त्री को एक ही पति, अथवा पुरुष को एक ही पत्नी होना चाहिए, ऐसा कहा
जाता है. तो बहुभार्या अथवा बहुभर्तृत्व निंदनीय है ना?”
कर्मचक्र परिणाम
श्री
तिरुमलदास बोले, “तुम ठीक कहते हो. कोई पुरुष यदि
अकारण ही अपनी पत्नी को कष्ट पहुंचाता है तो वह सात जन्मों तक बाल-विधुर होता है.
कोई पुरुष यदि चार–पाँच स्त्रियों से विवाह करता है, तो अगले
जन्म में यह पुरुष स्त्री के रूप में जन्म लेता है और वे चार-पांच स्त्रियाँ, उनकी
कामवासना एवँ संस्कार क्षीण न होने के कारण, पुरुष जन्म लेकर उस स्त्री का उपभोग
करते हैं. एक जन्म में यदि ऐसा घटित हो, तो व्यभिचार का दोष होता है. परन्तु विविध
जन्म लेकर, प्रत्येक जन्म में एक ही से विवाह करने पर यह दोष
नहीं लगता. यह कालचक्र का प्रभाव है. ऐसी कितनी ही आश्चर्यजनक घटनाएँ इस महाचक्र
में घटित होती रहती हैं. स्त्री जन्म प्राप्त होने पर उस जन्म के अनुकूल कर्माचरण
करना चाहिए.”
“जो
व्यक्ति पति-पत्नी के बीचा कलह उत्पन्न करता है, वह अगले
जन्म में स्त्री अथवा पुरुष न होकर नपुंसक होता है एवँ संसार सुख से वंचित होकर
दुखी होता है.
माँसाहार
निषिद्ध है. कल्पना करो कि कोई व्यक्ति किसी बकरे को मारकर चार-पांच लोगों के साथ
माँसाहार करता है. उस बकरे को प्राणोत्क्रमण के समय अत्यंत पीड़ा होती है, उसके
पीड़ित स्पंदन वायुमण्डल में विचरण करते रहते हैं. बेटा! वायुमंडल में पीडामय तथा
आनंदमय, दोनों प्रकार के स्पंदन विद्यमान रहते हैं. सत्कर्मों के परिणामस्वरूप
आनंदमय स्पंदन एवँ दुष्कर्मों के कारण पीडामय स्पंदन उत्पन्न होते हैं. मृत बकरा
उसे मारकर खाने वाले उन चार-पांच मानवों का प्रतिशोध लेने की भावना से प्राण
त्यागता है, इस कारण वह मानव का जन्म ग्रहण करता
है तथा उसका माँस भक्षण करने वाले मानवों का बकरे के रूप में जन्म होता है. अतः
मानवों को क्षमा-गुणों को अपनाना चाहिए, सात्विक व्यक्ति के
मन में बकरे को देखकर भी उसका माँस भक्षण करने की इच्छा उत्पन्न नहीं होती. यदि वह
बकरा पूर्व जन्म में उसे मारने वाले मनुष्यों को क्षमा करे तो उसे प्राणदान देने
का पुण्य प्राप्त होकर उसका कर्मचक्र रुक जाता है.
पीठिकापुर
के निवासियों का सामूहिक पुण्य तथा सामूहिक पाप एक ही समय में फलीभूत होने से वह
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के जन्म हेतु कारणीभूत हुआ. पुण्यवान लोग यह जानकर कि
श्रीपाद प्रभु श्री दत्त प्रभु हैं और अधिक पुण्यफल प्राप्त करते रहे, जबकि पापी जन श्रीपाद स्वामी के श्री दत्त प्रभु होने को नकार कर अधिक
पाप के भागीदार बने. श्री दत्तात्रेय की आराधना करते हुए श्रीपाद स्वामी की निंदा
करने वालों को रौरवादी नरक की प्राप्ति होती है. यदि किसी विषय को समझाने में कोई
व्यक्ति असमर्थ हो, तो उसके लिए मौन धारण करना ही उचित है.
परन्तु उस दिव्य, भव्य, मंगल स्वरूप की
निंदा करना उचित नहीं. उनके मुख की मंगलारती करके पैरों में कीलें ठोंकने वाले,
ऐसे लोग व्याधिग्रस्त होंगे. इतना ही नहीं, श्री दत्तात्रेय
प्रभु ने अपने अनुग्रह से एक विचित्र योग शक्ति का समावेष किया. पुण्यवान जनों के
केवल नामस्मरण करने से सकल मनोरथ पूरे हो जाते, जबकि श्रीपाद
प्रभु की निंदा करने के कारण पापीजनों पर नाना प्रकार के विघ्नों एवँ अनिष्टों का
पहाड़ टूट पड़ता.
श्रीपाद
स्वामी का स्वरूप अग्नि स्वरूप है. उन्होंने जो वस्त्र धारण किया है, वह अग्नि वस्त्र है. वे पवित्र योगाग्नि स्वरूप हैं. उनकी चरण पादुकाओं
की महिमा का वर्णन करने में अनेकानेक युग भी कम ही हैं. वेद-उपनिषद् भी उनकी चरण पादुकाओं की महिमा का वर्णन करने में
असमर्थ हैं. कितने युग बीत गए! कितने कल्प बीत गए! कितनी बार सृष्टि, स्थिति, लय के क्रम पूर्ण हुए! परन्तु श्री दत्तात्रेय, श्री दत्तात्रेय ही हैं.
वे अद्वितीय हैं, वे साक्षात श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं! सृष्टि
का प्रत्येक अणु इस परम सत्य का साक्षी है.
स्वयंभू
दत्तात्रेय की पुनः प्रतिष्ठा.
श्री पीठिकापुर में एक अवधूत का आगमन हुआ. वे उन्मत्त
अवस्था को प्राप्त हुए सिद्ध पुरुष थे. उनका व्यवहार बड़ा विचित्र था. यदि किसी को
आशीर्वाद देते, तो उस पर गालियों की बौछार करते. ऐसा विचित्र था उनका
स्वभाव! यदि किसी की स्तुति करते, तो उस व्यक्ति का पुण्य क्षीण हो जाता.
पीठिकापुरवासियों ने उस सिद्ध से पूछा कि स्वयंभू
दत्तात्रेय की मूर्ती कहां है, तब वे बोले कि श्री दत्तात्रेय सकल पुण्य क्षेत्रों
में स्नान करने के पश्चात इस समय एक नदी में हैं. भक्तों ने ढूँढने का खूब प्रयत्न
किया, तब एक नदी में स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ती मिली. एक शुभ मुहूर्त पर उस
मूर्ती की पुनः प्रतिष्ठा सर्व मंगलप्रद सुमति महारानी एवँ ब्रह्मतेज से युक्त
श्री अप्पलराज शर्मा ने की. उस महोत्सव की यजमानी कर रहे थे श्री बापन्नार्य.
विद्यायरण्यों का प्रकटन
मंदिर
में मूर्ति की पुनःप्रतिष्ठा जिस दिन हुई, उस दिन श्री
बापन्नार्य ने उस सिद्ध पुरुष को अपने घर भिक्षा हेतु आने की प्रार्थना की. नानाजी
के घर उस सिद्ध योगी को श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. केवल दो वर्ष के उस बालक को
देखकर उस सिद्ध पुरुष के मन में पुत्र-वात्सल्य की भावना हुई. श्रीपाद प्रभु अपने
मामा के कंधे पर बैठकर उनकी शिखा से खेलते हुए, सिद्ध की और देखकर हँसे. वह हास्य
देखकर सिद्ध योगी तत्क्षण समाधिस्त हो गए. समाधि से निकलने पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माधवा! तेरी इच्छा के अनुसार हिन्दू राज्य की स्थापना, मेरी आयु १६ वर्ष की होने पर, करेंगे. तुझे हरिहर-बुक्कराय
के साथ हमेशा रहना होगा. तुम विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होगे. तुम्हारे
भाई सायणाचार्य के वंश में आगामी शताब्दी में गोविन्द दीक्षित का जन्म होगा. वह
गोविन्द दीक्षित कोई और नहीं, अपितु तू ही होगा! राजर्षि होकर तंजावूर संस्थान में
महामंत्री पद का भार संभाल कर कृतकृत्य हो जाओगे.”
यह
सुनकर सिद्ध योगी के नेत्रों से आनंदाश्रू बहने लगे, उन्होंने
श्रीपाद प्रभु को अपने पास लिया. इतने में श्रीपाद प्रभु ने उस सिद्ध योगी के
चरणों में प्रणाम किया. सिद्ध योगी के आश्चर्य प्रकट करते ही श्रीपाद प्रभु बोले, “तुम विद्यारण्य के नाम से श्रुंगेरी के पीठाधिपति बनोगे. तुम्हारी शिष्य
परंपरा में तीसरे शिष्य कृष्ण सरस्वति भी तुम ही होगे. तुम्हारे मन में मेरे प्रति
पुत्र भाव उत्पन्न हुआ, अतः नृसिंह सरस्वति के नाम से होने
वाले मेरे अगले अवतार में, काशी क्षेत्र में कृष्ण सरस्वति के रूप में तुम मुझे
संन्यास दीक्षा दोगे. तुम संन्यास धर्म का उद्धार करोगे. इसके साक्षी होंगे श्री
काशी विश्वेश्वर एवँ माता अन्नपूर्णा.
वशिष्ठ
शक्ति पराशर त्र्यार्षेय (प्रवरान्वित) पाराशर गोत्रोद्भव् ऋग्वेदान्तर्गत,
वाजपेययाजी माधवाचार्य विद्यारण्य महर्षि के नाम से प्रसिद्ध होंगे. बेटा! कल तुझे
कुछ और चरित्र-महिमा सुनाऊंगा,”
इतना
कहकर तिरुमलदास ने उस दिन का निरूपण वहीं समाप्त किया.
।।
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जयजयकार हो।।
।।
श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय
– 9
कर्मफल
मीमांसा
आज
गुरूवार है. प्रातः सूर्योदय के समय, गुरू का होरा चल
रहा है. मैं और तिरुमलदास एक कमरे में ध्यानस्थ बैठे थे. सूर्य की कोमल किरणें
कमरे में झाँक रही थीं. क्या आश्चर्य हुआ! सूर्य की उन कोमल किरणों में हम दोनों
को श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शन हुए. सूर्य किरणों के प्रवेश से हम अपनी
सुध-बुध में वापस लौटे. परम पूजनीय, अत्यंत मंगलप्रद ऐसे १६
वर्षीय श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शन प्राप्त होना केवल उन परम प्रभु की
निस्सीम करुणा का ही फल है. हमें पल मात्र को दर्शन देकर वे अदृश्य हो गए.
श्रीपाद
प्रभु को नैवेद्यार्थ चने रखे थे. सूर्य किरणों के स्पर्श से वे चने लौह खण्डों
में परिवर्तित हो गए. इससे मुझे आश्चर्य हुआ, और मेरा मन दुखी भी हो गया. प्रभु के
दर्शन होना और चनों का लौह खण्डों में परिवर्तित होना – क्या यह किसी विशेष बात की
सूचना है?
श्री
तिरुमलदास ने आगे कहना शुरू किया, “ बेटा! शंकर भट्ट!
आज दोपहर को मेरा आतिथ्य स्वीकार करने के बाद तुम कुरवपुर जाओ, ऐसी दत्त प्रभु की
आज्ञा हुई है. भरी दोपहर में प्रभु दत्त क्षेत्र में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हैं.
यह काल अतिशय शुभ है.”
मैंने
कहा, “ स्वामी! रोज़ मैं श्री दत्त प्रभु के स्मरण में, दत्त-कथा प्रसंग के श्रवण में काल व्यतीत कर रहा था. आज नैवेद्य के लिए
रखे हुए चने लौह खण्डों में परिवर्तित हो गए, इससे मुझे दुख
हो रहा है. मेरे इस संशय का निवारण करके कृपया मुझे कृतार्थ करें.”
श्री
तिरुमलदास बोले, “बेटा! कुछ शताब्दियों के उपरांत कली
प्रबल होने से, नास्तिकत्व बढ़ेगा. नास्तिकत्व का निर्मूलन
करके आस्तिकत्व की स्थापना करने के लिए प्रभु चित्र-विचित्र लीलाएँ दिखाकर
अनुग्रहीत करेंगे. भविष्य में धर्मं-संस्थापना हेतु सभी कार्यक्रमों में बीज रूप
में श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार में अनुग्रह प्रदान करेंगे.”
खनिज
पदार्थों में चैतन्य निद्रित अवस्था में रहता है. खनिज स्थिति में प्राण अंतर्लीन
होकर रहता है. खनिजों में अनेक रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण प्राणों की उत्पत्ति
होती है. प्राण में मन अंतर्लीन होता है. प्राण रूप में चैतन्य अर्धनिद्रित अवस्था
में रहता है. यह तुम वृक्षों में स्पष्ट रूप से देख सकते हो. मादक द्रव्यों के
सेवन से, मनुष्य अपने देह में इस स्थिति का
अमुभव करता है.
प्राण
शक्ति के रूप में व्यक्त चैतन्य तत्व, परिणाम क्रम से
विकसित होकर मन के माध्यम से कर्म करने के प्रति अभ्यस्त होता है. यह स्थिति पशुओं
में देखी जाती है. पशु का पूर्ण विकास ही मनुष्य कहलाता है. मनुष्य में मनः शक्ति
पूरी तरह कार्यरत रहती है. मन से भी परे है, एक अतिमानस.
अतिमानस अंतर्लीन स्थिति में रहता है. मानव योग साधना से परिपूर्ण हो जाता है, वह मूलाधार चक्र में सुप्त चैतन्य को सहस्त्रार चक्र में ले जाकर सविकल्प, निर्विकल्प समाधि स्थिति को प्राप्त कर लेता है. परम ज्योति स्वरूप श्री
गुरु के साथ तादात्म्य की स्थिति स्थापित कर लेता है. इस स्थिति में अनिर्वचनीय
आनंद का अनुभव प्राप्त करता है. मगर उसका व्यवहार महासंकल्प के अनुसार होता है.
इसलिए वह कर्म बंधन से अलिप्त रहता है. उस महासंकल्प का स्वरूप अचिन्त्य, अगम्य एवँ कल्पनातीत है और महाप्रचंड रूप से वेगवान है. अतिमानस केवल
श्री प्रभु का होता है. हर क्षण प्रभु करोड़ों-करोड़ों प्रार्थनाएँ स्वीकार करते हैं.
धर्मं सम्मत प्रार्थनाओं को तत्काल प्रचीति देकर दुःख निवारण करते हैं. धर्मबद्ध
व्यक्तियों की इच्छाएँ पूरी करते हैं. मानव के मन का वेग कूर्म गति के समान है,
मगर श्री प्रभु के अतिमानस का वेग महाप्रचंड एवँ कल्पनातीत है. महाप्रचंड वेग वाले
प्रकाश की गति भी उनके अतिमानस की गति के सामने कम है. मानव या कोई प्राणी यदि
छोटी सी प्रार्थना भी करे, तो वह प्रभु के दिव्य तेज-पुंज के
माध्यम से प्रभु तक पहुँचती है. समस्त दृश्यादृश्य शक्तियों का आधार प्रभु ही हैं.
सभी लोकों के प्रकाशित होने का कारण है केवल उनके शरीर से निकलने वाला ज्योतिपुंज –
अन्य कोई कारण नहीं. ब्रह्मांड में प्रकाशित होने वाले अनेक करोड़ सूर्यों तथा
नक्षत्रादि पिण्डो का संयुक्त प्रकाश भी उनके तेज के सम्मुख यूँ प्रतीत होता है, जैसे सूर्य के सामने छोटा-सा दीपक. बेटा! यही श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
का वास्तविक तत्व है. अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान, अनंत व्यापकत्व वाले उस निर्गुण, निराकार स्वरूप ने केवल सृष्टि के प्रति
असीम, निःस्वार्थ करुणा के कारण ही सगुण, साकार, मनुष्य देह धारण किया है, और वे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के रूप में दर्शन दे रहे हैं. इसे समझने
के लिये मानव का परिपूर्णता को प्राप्त करना आवश्यक है.”
श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी का दिव्य स्वरूप
मानव
का देवताओं के प्रति आकर्षण अनिवार्य है. उसी प्रकार देवता भी अनंत सीमाओं को
लांघकर निम्न स्तर में जन्म लेते हैं. इसे ‘अवतरण’ कहते हैं.
यह एक निरंतर चलने वाली योग क्रिया है. सृष्टि में यदि एक बार सत्य की स्थापना हो
जाए तो वह स्वयंसिद्धता से, बिना किसी प्रयत्न के कार्यशील
रहती है. सत्य, ज्ञान एवँ अनंत स्वरूप वाले श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी अनेक ‘सत्यों’ को सृष्टि में स्थापित करने
के संकल्प से दिव्य. भव्य अवतार ग्रहण करते हैं. वे साक्षात दत्त प्रभु हैं.”
मैंने
कहा, “स्वामी! आपसे चर्चा करते हुए मुझे कितने ही नवीन
विषयों का ज्ञान हुआ. फिर भी श्री गुरू के स्वरूप का सार समझ में नहीं आता, उनका
यह दिव्य तथा भव्य चरित्र किस प्रकार लिखूं, और उनकी
व्याख्या कैसे करूँ, यह समझ नहीं पा रहा हूँ. मैंने मूर्ती प्रतिष्ठा के बारे में
सुना है, आप सत्य की प्रतिष्ठा के बारे में कह रहे हैं. मुझ
पर कृपा करके सत्य के बारे में विस्तार पूर्वक बताएँ, यह विनती करता हूँ”.
श्री
तिरुमलदास बोले, “बेटा! तेरे द्वारा श्री प्रभु का
चरित्र लिखा जाएगा, यह निर्णय पहले ही हो चुका है. तेरे
संपर्क में आने वाले श्रीपाद प्रभु के भक्त शिरोमणि वे अनुभव तुझे बताएँगे, उन्हें
लेखनीबद्ध करना. तेरी व्याख्याओं की कोई आवश्यकता नहीं. श्री प्रभु का चरित्र
प्रभु स्वयं ही तेरी लेखनी के माध्यम से लिखवा लेंगे. इसके आगे किसी भी बात का
विचार करना व्यर्थ है.
मनुष्य
नाना प्रकार के अन्न का सेवन करता है. सेवन किये हुए अन्न का अपने आप पाचन होकर वह
शरीर को शक्ति प्रदान करता है. यह पाचन क्रिया शरीर का कार्य है, मनुष्य को इस क्रिया में कोइ प्रयत्न नहीं करना पड़ता. मनुष्य का कर्तव्य
केवल इतना है कि वह अन्न का संग्रह करके उसका सेवन करे. भोजन करने के बाद अन्न का
पाचन करना शरीर का कर्तव्य है. अर्थात्, विधि का यह निर्णय है कि तुम अन्न प्राप्त
करो, जबकि पाचन का कर्तव्य शरीर का है. मनुष्य के पास मन
होने के कारण वह स्वेच्छा का अनुभव करता है. इसलिए सच-झूठ,
अच्छा-बुरा कुछ भी होने की संभावना है. शरीर को स्वेच्छा का गुण प्राप्त नहीं है.
सेवन किया हुआ भोजन पचाकर शरीर को शक्ति-संपन्न करना, यही
शरीर का कर्तव्य है, यह विधि का निर्णय है. मनुष्य की इच्छा हो अथवा न हो, उसके प्रयत्नों के बिना ही शरीर अपने कर्तव्य का पालन करता रहता है. शरीर
से संबंधित इस सत्य की स्थापना होने के कारण, अप्रयत्न से,
मनुष्य का संकल्प न होते हुए भी, वह कार्य निरंतर चलता रहता
है. प्रकृति से तात्पर्य है, सृष्टि के अंतर्गत सारी
क्रियाएँ एवँ प्रतिक्रियाएँ, जो इस सत्य के आधार पर घटित होती हैं. सूर्योदय –
सूर्यास्त, ऋतुचक्र, ग्रहों–नक्षत्रों आदि की गति को इस सत्य
के आधार पर घटित होना ही पड़ता है. यह एक अनुल्लंघनीय नियम है. इसके विपरीत जाने का
स्वातंत्र्य उनके पास नहीं. सर्वव्यापक, ऐसे प्रभु, सृष्टि के प्राणिमात्र के प्रति करुणा के कारण सृष्टि विधान सुचारू बनाते
हैं. कृत युग में केवल संकल्प मात्र से सकल सिद्धियाँ प्राप्त होती थीं, त्रेतायुग में यज्ञ-याग से, द्वापर युग में मन्त्र
एवँ शास्त्रास्त्रों से सकल सिद्धियाँ प्राप्त होती थीं. अब कलियुग में प्रमुखता
से तंत्र प्रयोग से, कलियुगी यंत्र से सकल सिद्धी प्राप्त
होती है. युगधर्म का अनुसरण करते हुए, तथा मानव के शक्ति-युक्ति के स्तर को
दृष्टिगत रखते हुए सृष्टि विधान को सरलीकृत बनाने का निर्णय लिया जाता है.
तीन
दिन अहोरात्र श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का स्मरण करने से, उनका ध्यान करने वाले को
श्रीपाद प्रभु सशरीर दर्शन देकर धन्य करते हैं. मानव के पतन के यदि एक लाख मार्ग
हैं, तो ईश्वर उसके उद्धार के लिए दस लाख मार्गों से
उस पर अनुग्रह करते हैं. श्री दत्त प्रभु अपने अंशावतार,
सिद्ध, योगी, महासिद्ध आदि के माध्यम
से इस सृष्टि का पालन करते हैं.
पूर्व
युग के श्री दत्त प्रभु ही क्या श्रीपाद स्वामी हैं? यह शंका बीज
रूप में तुम्हारे मन में उत्पन्न होने के कारण तुम्हारी शंका का निवारण करने के
लिए श्रीपाद प्रभु ने नैवेद्य हेतु रखे गए चनों का लौह खण्डों में रूपांतर किया.
माता अनुसूया ने लौह खण्डों को खाने योग्य चनों में परिवर्तित किया था. मैं ही
प्रत्यक्ष श्री दत्त प्रभु हूँ, यह दिखाने के लिए ही
उन्होंने ऐसा किया.
तुम्हारी
कुण्डली में गुरू व्याधि-स्थान में है. गुरू ग्रह का चनों से सम्बन्ध है. गुरू
ग्रह के कारण तुम पर आने वाली विपदाएँ, बीज रूप में होने के कारण, अंकुरित न हो
पाएँ इसलिए चनों को लौह-खण्डों में परिवर्तित करके तुम्हें दिखाया. इस सृष्टि में
कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, जिसका श्रीपाद
प्रभु के दिव्य मानस चक्षुओं ने अवलोकन न किया हो. उसी प्रकार उनकी दिव्य दृष्टि
में पड़े बिना कोई भी प्राणी इस सृष्टि में जन्म नहीं ले सकता. यह परम सत्य है.
सत्य
वस्तु से संबंधित ज्ञान सुप्रतिष्ठित होने के कारण उस ज्ञान को प्राप्त कर चुके
लोग, इस लोक में लुप्त होने पर भी उसका नाश नहीं होता.
उस ज्ञान को प्राप्त करने की योग्यता के पात्र मानव के इस सृष्टि में जन्म लेने के
पश्चात, वह ज्ञान अपने आप उसे प्राप्त होता है.
दैवशक्ति, चिरंजीव मुनि, अवतारी पुरुष – ये सभी अविनाशी तत्व
के ही अंश हैं, जबकि मानव विनाशी तत्व के अंश हैं. अविनाशी तत्व के ज्ञान, उसकी स्थिति, गति तथा शक्ति का कोई विशिष्ठ रूप नहीं है. वह स्वेच्छा-तत्व है. वह
परिपूर्ण है. वह अत्यंत प्राचीन होते हुए भी नित्य नूतन है. ऐसा कोई कार्य संभव
नहीं, जिसके पीछे कोई कारण न हो. सभी कारणों तथा सब कार्यों
का आधार वही एकमेव तत्व है. वह अतीत है, अगम्य है. उसी को
दत्त-तत्व कहते हैं. उन्हीं श्री दत्त प्रभु ने इस कलियुग में अपनी समस्त कलाओं से
परिपूर्ण, श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में प्रथम अवतार इस पीठिकापुर में लिया. उन
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का वर्णन करने में सहस्त्र फन वाले आदिशेष भी असमर्थ
हैं.
बेटा!
श्रीपाद श्रीवल्लभ श्री नृसिंह सरस्वति का अवतार ग्रहण करने वाले हैं, ऐसी सूचना
अनेकों बार दी जा चुकी है. हिरण्यकश्यप ने एक विचित्र-सा वरदान जब प्राप्त कर लिया
तो ऐसा प्रतीत होता था कि उसकी मृत्यु असंभव है. दिए हुए वरदान का खंडन न करते हुए, कल्पनातीत विधि से श्री नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यप का वध करके
अपने परम भक्त प्रहलाद की रक्षा की.
प्रहलाद ने यह निर्धार किया कि प्रभु स्तम्भ में विराजमान हैं, प्रभु स्तम्भ में
से प्रकट हुए. ईश्वर है, अथवा नहीं?
कलियुग में अनेक व्यक्तियों के मन में यह संशय उत्पन्न होता है. कलियुग के
हिरण्यकश्यप के मद का नाशा करके प्रहलाद जैसे भक्तों की रक्षा करने के लिए श्री
दत्त प्रभु श्री नृसिंह सरस्वति के रूप में अवतार लेने वाले हैं. ईश्वर का
अस्तित्व है, यह सिद्ध करने के लिए – यह नरसिंह अवतार की
विशेषता है. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु एवँ श्री नृसिंह सरस्वति के अवतार ईश्वर को
दूषण देने वालों के मद का नाश करने के लिए तथा ईश्वर की भक्ति करने वालों की आंख
की पुतली की भांति रक्षा करने के लिए होने वाले हैं. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के
लिए कुछ भी असाध्य नहीं है.
तिरुमलदास
कहते रहे, मैं सुनता रहा. मेरे मन में एक संदेह
उठा. मैं भूर्जपत्र पर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का चरित्र लिख रहा था. भविष्य में
लोग किस प्रकार के पत्र पर स्वामी का चरित्र लिखेंगे? अभी
शालिवाहन शक चल रहा है. स्वामी के अनुसार हूण शक का आगमन होने वाला है. वास्तव में
देखा जाए तो श्रीकृष्ण का निर्वाण कब हुआ? इस कलियुग का किस
घड़ी में आरम्भ हुआ? यदि भविष्य काल के लोगों की कालगणना के
अनुरूप, भविष्य में प्रयुक्त होने वाले पत्र पर यदि श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी मुझे
लिखकर दिखाएँगे, तो मुझे पूरा विश्वास हो जाएगा कि वे वास्तव
में श्री दत्तात्रेय के अवतार हैं.
अपने
मन के संदेह को तिरुमलदास के सामने प्रकट न करते हुए मैं उनकी बातें सुनने का नाटक
करता रहा और लौह-खण्डों में परिवर्तित हुए चनों की और देखता रहा. तभी तिरुमलदास का
कंठस्वर क्षीण होकर उनकी वाचा बंद हो गई. कानों के परदे फाड़ने वाली भयंकर ध्वनी
हुई. उस ध्वनी के प्रभाव से मैं बहरा हो गया.
एक
ही क्षण में मैं बहरा और तिरुमलदास गूंगे हो गए. तिरुमलदास बोलने का प्रयत्न कर
रहे थे, मगर उनके
मुख से शब्द नहीं निकल रहे थे. मैं सुनने का प्रयत्न कर रहा था, मगर मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. मन को एक ही विचार परेशान कर रहा था –
बेकार में ही मैंने संदेह किया, जिसके परिणाम स्वरूप मैं
बहरा हो गया. अब क्या जीवन भर बहरा ही रहना होगा? मेरा भी
क्या भाग्य है! अब मैं क्या करूँ? तभी नैवेद्य के लिए रखे
हुए चने, अर्थात् वे लौह-खण्ड, तेलुगु भाषा में “श्रीपाद राजं शरणम् प्रपद्ये” अक्षरों
में परिवर्तित हो गए. उस पर सफ़ेद पत्र दिखाई दिया. हमारे देखते ही देखते उस पात्र
का आकार बढ़ते-बढ़ते चौकोर हो गया. भूर्जपत्र की अपेक्षा बहुत अधिक पतला, स्पर्श
करने से बहुत मृदु प्रतीत हुआ. उस पर काले रंग के सुन्दर अक्षर प्रकट हो गए.
तेलुगु लिपि में उस पत्र पर यह लिखा था : “श्रीकृष्ण का निर्वाण, ईसा पूर्व सन्
३१०२ में, फरवरी की १८ तारीख को रात में २ बजकर २७ मिनट तथा ३० सेकंद पर हुआ.
प्रमादी नाम संवत्सर, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा. शुक्रवार,
अश्विनी नक्षत्र, श्रीकृष्ण के निधन के उपरांत कलियुग का
प्रवेश हुआ.”
यह
चमत्कार देखकर मुझे पसीना छूटने लगा. शरीर निर्बल हो गया, काँपने लगा. मन में यह विचार आया कि श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी अदृश्य रूप
से यहीं पर विद्यमान हैं. मैंने यह भी सोचा, ‘कितना अभागा हूँ मैं! कुरवपुर जाना
तो अब स्वप्न ही रह जाएगा. श्रीपाद स्वामी नृसिंह अवतार धारण करके मेरा वध भी करें, तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं. यदि तिरुमलदास को यह आदेश प्राप्त हो जाए
कि “शंकर भट्ट को वस्त्र के समान धोकर, निचोड़कर, सुखा दो”, तो मैं क्या करूँगा? तिरुमलदास निश्चय ही वस्त्र की भाँति
पीट-पीटकर, निचोड़कर सुखा देंगे.
कभी-कभी
कोई गुरू ब्रह्मज्ञान संबंधी ज्ञान होने का, अपने
आत्मज्ञानी होने का ढोंग करते हुए अपने शिष्यों को संबोधित करते हैं. द्रव्य की
लालसा से किसी शिष्य विशेष की प्रशंसा भी कर देते हैं. वह शिष्य गुरू द्वारा की गई
प्रशंसा के मद में लीन रहता है. तब गुरू एवँ शिष्य दोनों ही दोषी हो जाते हैं. रजक
कुल में जन्मे तिरुमलदास द्वारा, ब्राह्मणकुलोत्पन्न मुझे
ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो, यह श्रीपाद स्वामी का चमत्कार ही
है. इस परिसर के अन्य रजक अपने व्यवसाय में मगन थे. उनके मन में इस गहन चरित्र को
जानने की अथवा उससे संबंधित चर्चा करने की इच्छा भी नहीं थी. अब तो मुझे श्रीपाद
स्वामी की शरण में जाना ही होगा.”
मैंने
तिरुमलदास की और देखा, उनका मुख ब्रह्मतेज से
दैदीप्यमान हो रहा था. मेरे मन में विचार उठा कि तिरुमलदास ब्राह्मण हैं और मैं
रजक हूँ. उनका चेहरा प्रसन्न प्रतीत हो रहा था. नैवेद्य के रूप में अर्पित किये गए
चने अपने लौह रूप को त्यागकर पूर्ववत् हो गए थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि श्रीपाद
स्वामी ने मुझे क्षमा कर दिया है. कुछ समय पश्चात्त वह श्वेत रंग का पत्र अदृश्य
हो गया. तिरुमलदास बोले, “वत्स! शंकर भट्ट! कलियुग लौह युग
है.
कल्मष
से पूर्ण – ऐसा यह युग है. मेरे देहावसान के पश्चात कुछ काल तक मैं हिरण्यलोक में
वास करने के पश्चात श्रीपाद स्वामी की आज्ञानुसार पुनः महाराष्ट्र देश में जन्म
लूँगा.”
“स्वामी!
श्रीपाद स्वामी ने आपको भी मृत्यु के पश्चात जन्म लेने की आज्ञा दी है? कृपया यह वृत्तांत विस्तार पूर्वक कथन करें, ऐसी
प्रार्थना है.”
तिरुमलदास
बोले, “एक बार मैं श्रीपाद स्वामी के नानाजी के घर उनके
धुले हुए वस्त्र लेकर गया. सुमति महारानी के मामा श्रीधरावधानी बालक श्रीपाद को
कमर पर लेकर खेल रहे थे, और “दत्त दिगम्बर! दत्त दिगम्बर!
दत्त दिगम्बर! अवधूता!” ऐसा घोष कर रहे थे. श्रीपाद स्वामी की आयु केवल दो वर्ष की
थी. वे किलकारियाँ मारते हुए खेल रहे थे. बड़ा ही मनोहारी था यह दृश्य. अनायास ही
मेरे मुख से निकला, “श्रीपाद वल्लभ! दत्त दिगम्बर!”
श्रीधरावधानी ने मुड़कर मेरी ओर देखा. तभी श्रीपाद स्वामी “नृसिंह सरस्वति! दत्त
दिगम्बर!” ऐसा बोले. वे साक्षात दत्त प्रभु हैं , वर्त्तमान में श्रीपाद वल्लभ के
रूप में हैं, एवँ भविष्य में नृसिंह सरस्वति के रूप में
अवतरित होने वाले हैं, ऐसी सूचना उन्होने अपनी विशिष्ट शैली
में दी थी.”
समर्थ
सदगुरु शिर्डी साईं बाबा के रूप में अवतार लेंगे
श्रीपाद स्वामी बोले, “ नानाजी, नृसिंह सरस्वति के रूप में महाराष्ट्र देश में अवतरित होने का
मेरा संकल्प है. तिरुमलदास को भी महाराष्ट्र देश आने को कह रहा हूँ.” श्रीधरावधानी
अवाक् रह गए. मैंने कहा, “मैं किसी भी जन्म में, किसी भी रूप में रहूँ, मेरी रक्षा का भार आप पर है. आपके बालकृष्ण के रूप पर मेरी बहुत ही आस्था
एवँ प्रीत है.”
श्रीपाद स्वामी बोले, “तिरुमलदास! तू महाराष्ट्र देश में गाडगे-महाराज के रूप में रजत कुल में
जन्म लेगा. दीन-दलितों की तथा दुःखी जनों की सेवा करके पुनीत हो जाएगा. धीशिला नगर
में “साईं- बाबा” के नाम से यवन-वेष में मेरा समर्थ सद्गुरू रूप में अवतार होगा.
यवन वेष में समर्थ सद्गुरू के रूप में अवतरित मुझसे तुझे अनुग्रह की प्राप्ति
होगी. क्योंकि बालकृष्ण के रूप पर तेरी विशेष प्रीती है, इसलिए तू “गोपाला! गोपाला!
देवकीनंदन गोपाला!” इस मन्त्र का जाप करता रहेगा. इस शरीर का अवसान होने के बाद
कुछ काल हिरण्यलोक में वास करने के पश्चात गाडगे महाराज के रूप में जन्म लेकर तू
लोकहित का कार्य करेगा. यह मेरा वरदान एवँ अभयदान है.”
इस पूरे प्रकार के दौरान
श्रीधरावधानी माया के आवरण में खो गए थे. वे कुछ भी समझ न पाए. जब सुमति महारानी
ने आवाज़ दी तो उन पर पडा हुआ माया का आवरण हट गया. श्रीपाद सामान्य बालक ही है, ऐसी उनकी धारणा बन गई.
मैंने कहा, “स्वामी! श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कहा था कि कर्म का फल अनिवार्य है.
फिर श्रीपाद स्वामी इस नियम का उल्लंघन न करते हुए कर्म का नाश किस प्रकार करेंगे?”
सद्गुरू, सत्पुरुष तथा योगियों को दिए गए दान का फल
तिरुमलदास आगे बोले, “
श्रीकृष्ण ने सच ही कहा है कि कर्म का फल भोगना ही पड़ता है. परन्तु यह कर्मफल
जागृतावस्था में ही भोगा जाए, ऐसा नहीं कहा है. वह स्वप्नावस्था में भी भोगा जा
सकता है. स्थूल शरीर जो कर्मफल दस वर्षों में भोगता है, उसे
मानसिक कष्ट द्वारा, स्वप्न में उत्पन्न मानसिक व्यथा द्वारा कुछ ही
क्षणों में भोगा जाकर कर्म से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है. यदि सत्पुरुषों को,
योगियों को दान दिया जाए तो ईश्वरीय कृपा के कारण पाप कर्मो का क्षय होता है.
देवता मूर्ती पुण्य स्वरूप होते हैं, उनके ह्रदय में अपार करुणा का वास होने के कारण वे
तुम्हारा पाप कर्म खुद पर ले लेते हैं एवँ अपना पुण्य तुम्हें देते हैं.”
पुण्य पुरुषों को दिए गए दान-धर्म से अथवा उनकी सेवा
करने से भी पाप-पुण्य की इस प्रकार की अदला-बदली होती है. समर्थ सद्गुरू का ध्यान
करने से ध्यान के माध्यम से यह अदला-बदली होती है. सद्गुरू अपने शिष्यों की सेवा ग्रहण
करके, सेवा के माध्यम से शिष्यों के पाप कर्म अपने सिर पर
ले लेते हैं एवँ अपना तपः फल शिष्यों को प्रदान करते हैं, परन्तु पाप कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है. ईश्वर,
सत्पुरुष, सद्गुरू, अवतारी पुरुष महातेजोमय होने के कारण अग्नि-स्वरूप
होते हैं. उनके भीतर स्वीकार किये गए पाप कर्मों को दग्ध करने की शक्ति होती है.
उन्हें अर्पण किये गए पान, फल, फूल, आदि के माध्यम से भी पाप-पुण्य की अदला-बदली होती है.
भक्त की आर्तता, भक्ति, शरणागति जितनी तीव्र होगी, उतनी ही
तीव्र गति से यह अदला-बदली होती रहती है.”
कभी-कभी श्रीपाद स्वामी अपने आश्रितों के पाप कर्मों
का फल निर्जीव पत्थरो को दे देते. उन पत्थरों को फोड़कर, या अनेक
विचित्र मार्गों से पाप कर्म का निर्मूलन करते. इस सन्दर्भ में एक वृत्तांत सुनाता
हूँ, ध्यान से सुनो:
जन्म से ही श्रीपाद स्वामी को पर्याप्त मात्रा में दूध
प्राप्त नहीं होता था. सुमति महारानी अपने पुत्र को को पर्याप्त मात्रा में
स्तनपान नहीं करवा सकती थीं. उनके घर एक गाय थी. वह गाय उनके घर में प्रतिष्ठापित
कालाग्निशमन दत्तात्रेय के नैवेद्य के लिए आवश्यक दूध ही देती थी एवँ बाकी दूध
अपने बछड़े को पिला देती. इस गाय का यह एक विचित्र गुण था.
कभी-कभी बालक श्रीपाद कालाग्निशमन दत्तात्रेय के
नैवेद्य के हेतु रखा हुआ दूध, भोग लगाने पहले ही पूजा-मंदिर में जाकर पी लेते. जिस
दिन ऐसा होता, उस दिन अप्पलराजू गुड का भोग लगाकर उपवास करते. पति
के निराहार उपवास करने पर सुमति महारानी भी निराहार रहतीं. यदि किसी दिन भोग लगाने
के समय तक श्रीपाद स्वामी रुके रहते, तो उस दिन उस दूध का प्राशन बालक श्रीपाद करते. अपने
वंश में जन्मे इस अपूर्व तथा दिव्य शिशु को पर्याप्त दूध देने में असमर्थ
माता-पिता चिंतित रहते. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ नरसिंह राय वर्मा ने खूब दूध
देने वाली एक गाय अप्पलराजू को दान में देने का प्रयत्न किया. परन्तु उनके सारे प्रयत्न
व्यर्थ हो गए. क्योंकि अप्पलराजू दान नहीं स्वीकार करते थे. उनकी ऐसी धारणा थी कि
दान ग्रहण करने से पाप संग्रहित होता है. वे वेद शास्त्र सम्पन्न थे. केवल वेद-सभा
का आयोजन होने पर, उससे जितनी दान-दक्षिणा मिलती, उतनी ही
वह स्वीकार किया करते. पुरोहित कर्म से उन्हें काफी कम आय होती थी. वे सिर्फ
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ नरसिंह राय वर्मा के घर ही पौरोहित्य करते. यदि ये
दोनों अधिक दक्षिणा देने का प्रयत्न करते तो अप्पलराज क्रोधित हो जाते. अपने
श्वसुर, सत्यऋषिश्वर श्री बापन्नार्य से भी वह कभी कुछ न
लेते. कार्तिक पौर्णिमा के दिन सुमति महारानी का जन्म दिन हुआ करता, उस दिन वे
श्वसुर के घर भोजन करते. वैशाख शुद्ध तृतीया को अपने जन्म दिन पर भी अप्पलराजू
श्री बापन्नार्य के घर भोजन करते. कालान्तर में श्रीपाद जयन्ती अर्थात् गणेशा
चतुर्थी के दिन भी उनके घर भोजन के लिए जाते.
अपने परिवार की निर्धनावस्था से चिंतित सुमति महारानी
ने एक दिन अपने पति से पूछा, “नाथ! मेरे मायके के लोग संपन्न हैं, तथा नैष्ठिक
श्रौत्रीय संस्कार युक्त हैं. मल्लादी वंश, जो मेरा
पीहर है, सम्पन्न है. उनके पास से एक गाय स्वीकार करने में
मुझे कोई दोष प्रतीत नहीं होता. बालक श्रीपाद को पेटभर दूध देने में भी हम असमर्थ
हैं. मेरी प्रार्थना है कि आप इस विषय पर शांतिपूर्वक विचार करें.” अप्पलराजू बोले, “ सौभाग्यवती! तुम्हारा कथन उचित है. सत्यऋषिश्वर पाप
रहित हैं और उनसे गोदान ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है. मगर इस विषय पर शास्त्रों
की सम्मति होना आवश्यक है. बालक श्रीपाद के जन्म से लेकर आज तक अनेक आश्चर्यजनक
घटनाएं होती आई है. यदि श्रीपाद दत्तप्रभू के नए अवतार हैं, तो क्या हमारी गाय पर्याप्त दूध नहीं देती! या
तुम्हारे आंचल से निकलता क्षीर बढ़ नहीं जाता! अच्छा! ज्येष्ठ पुत्र श्रीधर राज
शर्मा अंधा है और उससे छोटा राम राज शर्मा पंगु है. श्रीपाद स्वामी उनकी विकलांगता
तो दूर कर सकते हैं, ना! इस विषय में तुम अपने पिताजी से विचार-विमर्श कर
लो, बार-बार मुझे अपने नियमों के उल्लंघन के लिए बाध्य
करना उचित नहीं है.”
सुमति महारानी ने इस बात की चर्चा अपने पिता से की.
बापन्नार्य मंद मुस्कान से बोले, “बेटी! ये सब श्रीपाद स्वामी की लीलाएं हैं. श्रीपाद
स्वामी केवल समस्याओं का समाधान ही नहीं करते, वे
स्वयं नई-नई समस्याएं भी उत्पन्न करते हैं. बालक श्रीपाद दत्तप्रभू ही हैं, इस बात को मैं योग-दृष्टी से जान गया हूँ. हमारे घर
में गौ-समृद्धि है. गाय प्रदान करने में मुझे बड़ा आनंद प्रदान होगा. श्री दत्त
प्रभु को गौ-क्षीर अत्यंत प्रिय है. तुम्हारे पति के अनुसार शास्त्रों की सम्मति
आवश्यक है. आह! क्या विडम्बना है! अपने श्वसुर से संपत्ति ऐंठने के लिए नाना
प्रकार के प्रयत्न करने वाले जामातों (दामादों) की कमी नहीं, परन्तु मेरा दामाद अग्निहोत्र के समान है. उनके नियम
भंग करने का प्रयत्न करने वाले हम लोग मूढ़ हैं. सृष्टि के पंच-महाभूतों की
स्पष्टतः सम्मति के बगैर तेरा पति गोदान स्वीकार नहीं करेगा. जब श्रीपाद स्वामी
अपने ज्येष्ठ बंधुओं की विकलांगता दूर कर देंगे, तब
तुम्हारे परिवार से उनके ऋणानुबंध समाप्त हो जाएंगे. ऋणमुक्त हो चुके दत्त प्रभु
तुम्हारे घर में पुत्र के रूप में वास नहीं कर सकते. वे जगद्गुरू होकर लोकोद्धार
हेतु गृह त्याग कर चले जायेंगे. इसलिए भूल कर भी उनकी विकलांगता दूर करने इच्छा
बालक श्रीपाद के सामने व्यक्त न करना. सब कुछ कालाधीन है, काल श्रीपाद के आधीन है. यदि श्रीपाद संकल्प करें तो
तुम्हारे क्षीर में वृद्धि हो जायेगी. परन्तु श्रीपाद के तुझसे जो ऋणानुबंध हैं, वे समाप्त हो जायेंगे. तब सभी प्रकार के ऋणानुबंधों
से मुक्त श्रीपाद हमारे परिवार में सीमित न रहकर विश्वगुरू का कर्तव्य पूरा करने
के लिए अपना घर छोड़ कर चले जायेंगे. श्रीपाद की इच्छा होते ही तुम्हारी गाय अपनी
विचित्र वृत्ति छोड़कर खूब दूध देने लगेगी. फिर यह समस्या नहीं रहेगी. अतः तुम थोड़ा
धीरज रखो. दत्त प्रभु द्वारा उत्पन्न समस्या का समाधान वे ही करेंगे.”
मैंने पूछा,
“स्वामी! श्रीपाद स्वामी के बंधुओं को विकलांगता क्यों प्राप्त हुई?”
तिरुमलदास बोले, “श्री
दत्त प्रभु का अवतार संध्या समय हुआ था. श्रीपाद स्वामी का प्रातःकाल में हुआ. आगे
होने वाले नृसिंह सरस्वति का अवतार भरी दोपहर में, अभिजित
लग्न पर होने वाला है. श्री दत्त प्रभु की लीला अगाध है. सायंकाल के पश्चात
अन्धेरा छाने लगता है, जीवन निद्रावस्था में चला जाता है. अतः दत्त अवतार
में योग-साधना के परिणाम क्रमानुसार समस्त जीवों का भार वहन करके, उन्हें सुख-निद्रा दी गई. प्राणिमात्र इस दुविधा में
रहता है कि वह कहाँ जाए, क्या करे, किस दिशा में जाए. यही दुविधा गहन अन्धकार है.
प्राणिमात्र को, उसे मालूम हुए बिना, परिणाम-सिद्धी प्राप्त करवाना, यही दत्तावतार की विशेषता है. प्राणिमात्र किसी भी
प्रकार के प्रयत्न के बिना अथवा अल्प प्रयत्न से ही, अनजाने
ही, अन्तः चैतन्य से, अगाध
परिणामों को प्राप्त करता है. यह घटना केवल भूमंडल तक ही सीमित नहीं है. श्रीपाद
स्वामी का आगमन उषःकाल में हुआ. उषःकाल के समय सूर्य भगवान अपनी समूची शक्ति एक
साथ प्रयोग करके प्राणियों को पुनीत करते हैं. सूर्य श्रीपाद स्वामी का प्रतीक है.
प्राणियों की विविध शक्तियों के जागृत होकर, नाट्य करते हुए, विविध प्रकारों से
परिणामस्थिति को प्राप्त होने का यह प्रतीक है. मध्याह्न समय मार्तंड का प्रचंड
स्वरूप है. आत्मा रूपी सूर्य अपनी समूची शक्ति का दसों दिशाओं में प्रसार करता है, उसी प्रकार प्राणियों को जागृत करने के लिए नृसिंह
सरस्वति का अवतार होगा. यह उसके विश्व व्यापी चैतन्य का उद्देश्य है. दत्तावतार
एवँ श्रीपाद अवतार के मध्य रात थी. उसका स्वरूप था अन्धकार. इस अन्धकार के प्रतीक
के रूप में ज्येष्ठ बंधू श्रीधर राज शर्मा का जन्म हुआ. उस रात्रि की समाप्ति के
पश्चात जो स्थिति उत्पन्न हुई वह थी संशय,
नास्तिकवाद, कुतर्क, वक्रभाष्य की स्थिति. इसके प्रतीक स्वरूप कनिष्ठ बंधू
श्री रामराज शर्मा का जन्म हुआ. कोई भी प्राणी अन्धकार सदृश्य तामसी वृत्ति का
त्याग करके, संशय, कुतर्क, वक्रभाष्य आदि का त्याग करके ही श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
का अनुग्रह प्राप्त कर सकता है. इसके पीछे यही रहस्य है. यह विषय संसार के
प्राणियों की परिणाम-दशा से संबंधित विषय है.”
वंश परम्परा से प्राप्त कर्म दोष भी होते हैं. श्री
अप्पलराज शर्मा वेलनाडू मंडल के वैदिक ब्राह्मण थे. फिर भी उनके परिवार के पास
ग्राम का आधिपत्य था. श्रीपाद स्वामी के पितामह आईनविल्ली नामक ग्राम के अधिकारी
थे. उनके परिवार में यह प्रथा थी कि सभी अधिकार ज्येष्ठ पुत्र को प्राप्त हों.
श्रीपाद स्वामी के पितामह का नाम था श्रीधर रामराज शर्मा. जिन ब्राह्मणों के पास
ग्रामाधिकार होते थे, वे अपने नाम के आगे “राज” शब्द लगाया करते थे. साथ ही
अपने ब्राह्मणत्व को दर्शाने के लिए “शर्मा” भी लगाया करते. ज़मींदार का कर्तव्य था
उस गाँव के प्रत्येक किसान से कर वसूल करना – चाहे उस वर्ष फसल हुई हो अथवा नहीं.
ग्रामाधिकारी पर यह दायित्व था कि कर की उचित प्रकार से वसूली करे. श्रीधर रामराज
शर्मा को अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को दूर रखते हुए ज़मींदार की आज्ञानुसार,
कभी-कभार हिंसा का प्रयोग भी करते हुए कर वसूलना पड़ता था. ग्रामाधिकारी होने के
कारण उन्हें यह करना ही पड़ता था.
परन्तु ईश्वर की दृष्टी में यह पाप कर्म ही था. अप्पल
राजू के ज्येष्ठ भ्राता को ग्रामाधिपत्य प्राप्त हुआ. पितामह द्वारा किये गए पाप
कर्मों के फलस्वरूप अप्पलराजू के ज्येष्ठ पुत्र श्रीधर राज शर्मा तथा उससे छोटे
पुत्र श्री रामराज शर्मा को विकलांगता प्राप्त हुई. यद्यपि श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी साक्षात दत्तावतार थे, परन्तु पितामह के स्वल्प पापकर्मों के परिणाम को
उन्हें भी भोगना पडा, इसीलिये उन्हें पर्याप्त मात्रा में दूध की प्राप्ति नहीं
होती थी. विश्व-प्रभु द्वारा रचा गया नियम सभी पर समान रूप से लागू होता है. स्वयं
अवतार लेकर कर्म फल को भोगते हुए उन्होंने हमारा मार्ग दर्शन किया है.
श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ श्री वत्सवाई नरसिंह
वर्मा बालक श्रीपाद को अपना पौत्र मानते थे, इसलिए उन्होंने दुग्ध संबंधी इस
समस्या को हल करने के बारे में काफी विचार विमर्श किया. श्री वर्मा ने श्री
श्रेष्ठी को बुलाकर कहा कि वे इस समस्या का समाधान करें.
श्री वर्मा के घर में ‘गायत्री’ नामक सुप्रसिद्ध गाय की संतान थी. उनमें से सभी शुभ
लक्षणों वाली एक गाय को श्रेष्ठी ने वर्मा से खरीद लिया. विक्रय करने से प्राप्त
धन को वर्मा ने अपने पास संभाल कर रखा. जब श्री अप्पल राजू पौरोहित्य हेतु वर्मा
के घर आए, तो गो-विक्रय से प्राप्त धन को वर्मा ने अप्पल राजू
को दक्षिणा स्वरूप प्रदान किया. यह धन उस राशि से अधिक था, जो साधारणतः उन्हें पुरोहित के रूप में प्राप्त होता
था. अतः अप्पलराजू शर्मा ने दक्षिणा के रूप में जितना उचित था, उतना धन रखकर शेष धन को अस्वीकार कर दिया. वर्मा ने
भी दी हुई दक्षिणा को वापस लेने से इनकार कर दिया. वे बोले, “एक भले क्षत्रिय कुल में मेरा जन्म हुआ है, अतः मैं दान में दी गई धन राशि वापस नहीं ले सकता. यह
विवाद श्री बापन्नार्य तक पहुंचा. ब्राह्मण परिषद् बुलाई गई. परिषद् में श्री बापन्नार्य
ने कहा, “अप्पल राजू शर्मा द्वारा अस्वीकार की गई धनराशी जिसे
लेना हो, वह ले ले.” अनेक ब्राह्मण इस धन को लेने के लिए आपस
में स्पर्धा करने लगे. यह सब देखने में बड़ा ही विचित्र प्रतीत हो रहा था.
तभी पापय्या शास्त्री नामक एक युवा ब्राह्मण ने कहा, “श्रीपाद देवी-अंश युक्त अवतारी पुरुष नहीं हैं. यदि
वे ईश्वर होते तो ऐसी परिस्थिति का निर्माण क्यों होता? यदि वे
श्री दत्त प्रभु होते तो उन्होंने तो उन्होंने अपने दोनों बंधुओं की विकलांगता से
रक्षा क्यों नहीं की? जो भी घटनाएँ घटित हुईं, वे सब
कल्पना मात्र हैं. तिल का ताड़ बनाकर वर्णन करना महापाप है. मैं दत्त भक्त हूँ,
मैंने अपने गुरु से श्वेतार्क रक्षा भी प्राप्त की है. प्रतिदिन मैं कितना सारा जप
करता हूँ. किसी भी प्रकार के दान को स्वीकार करने पर मुझे दोष नहीं लगेगा. मैं इस
दान के लिए सर्वथा योग्य हूँ, अतः यह दान मुझे ही मिलना चाहिए.” ब्राह्मण परिषद्
ने पापय्या शास्त्री को वह दान देने का निर्णय लिया. वह धन एक अच्छी गाय खरीदने के
लिए पर्याप्त था. सभा समाप्त होने पर विजय के मद में पापय्या शास्त्री अपने घर पहुँचा.
उसने अपने मामा को देखा. कुशल मंगल पूछने के पश्चात पापय्या शास्त्री ने मामा को
भोजन करके जाने की विनती की. “मैं साल भर में एक ही बार भोजन करता हूँ. इस समय
भांजे के घर भोजन करना संभव नहीं है,” इतना कहकर मामाजी
शीघ्रता से वहां से चले गए.
मामा
के जाने के पश्चात पापय्या शास्त्री विचार मग्न बैठे थे. उनकी पत्नी निकट आकर बोली, “स्वामी! अभी-अभी जो आपके मामा आये थे, वे बिलकुल
पिछले वर्ष दिवंगत हुए मामा जैसे ही ही दिखाते हैं, है ना?”
पापय्या
शास्त्री भय से थर्रा उठे. उनके केवल एक ही मामा थे, उनका भी
पिछले वर्ष निधन हो गया था. तो अभी जो आए थे, वे कौन से मामा
थे? मेरी बुद्धि ये कैसे भ्रम में पड़ गई? मामा जैसे कई अन्य रिश्तेदार तो थे, मगर हूबहू इन मामा जैसा दिखने वाला
कोई भी रिश्तेदार न था. कहीं मैंने मृत मामा की आत्मा को तो नहीं देखा? उनके ह्रदय की धड़कन बढ़ती जा रही थी. भूत-प्रेतों,
पिशाच्चों से संबंधित मन्त्र-तंत्रों का उन्हें कोई ज्ञान न था. कहीं उनके इष्ट
देवता श्री दत्तप्रभू की कृपा तो समाप्त नहीं हो रही है, कहीं निकट भविष्य में मुझ
पर कोई कष्ट तो नहीं आने वाला है? मामा जी ने जाते-जाते कहा
था, “आशा करता हूँ, कि शीघ्र ही पुनः
भेंट होगी.” यह वाक्य बार-बार उनके ह्रदय को डराता रहा. क्या मैं शीघ्र ही मृत्यु
को प्राप्त होकर मामा जी से मिलने वाला हूँ? इस विचार से
उनका मन भारी हो गया. “ॐ द्रां दत्तात्रेयाय नमः” इस मन्त्र का जाप उन्होंने
आरम्भा किया. उस दिन मन्त्र का जाप भी एकाग्रता से नहीं हो पा रहा था. वह श्री
कुक्कुटेश्वर के मंदिर में स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन हेतु गए. वहां जब
दत्तात्रेय की मूर्ती का ध्यान करने बैठे तो ध्यान में शिर-विहीन दत्त मूर्ती
उन्हें दिखाई दी. वहां भी जब जाप करने बैठे तो मन एकाग्र न हो पाया. अर्चक ने जब
उन्हें प्रसाद दिया तो उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह विष पूरित कलश से निकाल कर
दिया हो. पुजारी हँसते-हँसते कुछ कह रहे थे, परन्तु पापय्या
शास्त्री को ऐसा सुनाई दे रहा था कि ‘यह प्रसाद ग्रहण करके तुम शीघ्र मृत्यु को
प्राप्त हो जाओ.’ वे घर वापस आये तो उन्हें अपनी पत्नी के माथे पर कुंकुम का टीका
नहीं दिखाई दिया.
“मेरे
जीवित होते हुए कुंकुम का टीका क्यों मिटा दिया?” ऐसा कहते
हुए वे पत्नी पर क्रोधित हुए. पत्नी ने सोचा, ‘मेरे माथे पर
तो रुपये के सिक्के जितना बड़ा टीका है, फिर ये क्यों कुपित
हो रहे हैं!’ उसे पापय्या शास्त्री का व्यवहार विचित्र-सा प्रतीत हुआ. पीठापुरम
में अफवाह फ़ैल गई कि पापय्या शास्त्री पागल हो गए हैं. पीठापुरम में अफवाहें ज़रा
ज़्यादा ही फैला करती थीं. पापय्या पर मानसिक तथा भूत-प्रेत चिकित्सा की जाने लगी, पापय्या कहे जा रहे थे कि वे पागल नहीं हैं, फिर भी
लोग मानने के लिए तैयार नहीं थे. वे समझते कि कभी-कभी पागल व्यक्ति भी तर्कयुक्त
बात कर सकता है. तब पापय्या की पत्नी को एक उपाय सूझा. उसे दृढ विश्वास हो गया कि
उसके पति ने अज्ञानवश श्रीपाद स्वामी की निंदा की थी, उसी
कर्म का फल वे भोग रहे हैं. पाषाण मूर्ती में स्थित ईश्वर की शरण में जाने की
अपेक्षा सशरीर श्रीपाद स्वामी की शरण में जाना उसने उचित समझा.
वह
श्रीपाद स्वामी के घर गई. उसने बालक श्रीपाद को गोद में उठाकर उन पर वात्सल्य की
वर्षा की. आस-पास कोई नहीं है, यह देखकर उसने बालक
श्रीपाद को अपनी परिस्थिति बताई. बालक श्रीपाद ने कहा,
“मामी! इस सबके लिए एक छोटा-सा उपाय है. तुम मेरी माता के समान हो, इसलिए मैं तुम्हें यह रहस्य बतलाता हूँ. तुम बिलकुल भी समय नष्ट न करते
हुए नए घर का निर्माण करो. तुम और मामा वास्तु-पूजा करने के उपरांत नए घर में
प्रवेश करो. फ़ौरन सब कुछ ठीक हो जाएगा.”
श्रीपाद
स्वामी की इस प्रकार की आज्ञा होने के पश्चात्त उसने यह कहना आरम्भ कर दिया कि उस
पर यह विपदा किराए के घर में रहने के कारण आई है. अतः उसने अपने रिश्तेदारों को
विश्वास दिलाया कि उसके लिए शीघ्रातिशीघ्र नए घर का निर्माण किया जाना चाहिए. फिर
क्या कहना था! किसी एक रिश्तेदार ने पापय्या को एक जीर्णशीर्ण घर भूदान स्वरूप
दिया. तुरंत ही घर की पूरी संपत्ति आदि का विक्रय करके उस जीर्ण घर को गिराकर उसके
स्थान पर नए घर का निर्माण आरम्भ हो गया. गृह निर्माण के लिए कुछ ऋण भी लेना पडा.
पर्वत शिलाएँ लाई गईं, उसके टुकड़ों का उपयोग घर बनाने
में किया गया. नए घर में प्रवेश करने के पश्चात पापय्या शास्त्री भले चंगे हो गए.”
“बेटा!
शंकर भट्ट! पापय्या की मृत्यु दशा चल रही थी. श्रीपाद स्वामी ने अपमृत्यु के संकट
से उसकी रक्षा की. उसे मानसिक कष्ट, अपमान, धन का व्यय आदि कष्ट देकर उसके कर्म का नाश किया. इतना ही नहीं, पापय्या के पाप कर्मों को पाषाण शिलाओं में आकर्षित करके, उन शिलाओं के
तुकडे करवाकर पाप कर्मों का नाश किया. कर्म ध्वंस करने के लिए सिद्ध योगी, अवधूत अनेक विविध एवँ विचित्र मार्गों का अवलंबन करते हैं. स्वस्थ्य होने
पर पापय्या शास्त्री से बालक श्रीपाद बोले, “ तू कितना मूढ़
है! जिसकी मनःपूर्वक आराधना करता है, वह श्री दत्तात्रेय
सशरीर तेरे सामने खड़ा है, फिर भी तू उसे पहचान नहीं पाया.
कितना दुर्दैवी है तू. तूने सोचा कि कुक्कुटेश्वर के मंदिर में स्थित पाषाण मूर्ती
तेरी रक्षा करेगी. इसलिए तेरे संचित पाप को पाषाण शिलाओं पर केन्द्रित करके, उनके
टुकड़े-टुकड़े करवा कर तेरे कर्म फल का मैंने नाश किया. तुझे नया घर बनवा कर दिया.
यदि तू इस सशरीर दत्तात्रेय की शरण में आता तो तेरे संचित पाप कर्म इस शरीर पर
झेलकर तेरा कर्म क्षय करा देता. भक्तों की जैसी भावना होती है, उसी के अनुसार ईश्वर अनुग्रह करते हैं.”
इस
लीला के पश्चात पापय्या को विश्वास हो गया कि श्रीपाद श्रीवल्लभ ही दत्तात्रेय के
अवतार हैं.
बालक
श्रीपाद की दूध की समस्या को लेकर श्री श्रेष्ठी तथा श्री वर्मा चिंतित थे. इस
विषय पर उन्होंने श्रीसत्यऋषीश्वर बापन्नार्य से चर्चा की. उन्होंने कहा, “हे राजर्षि! आप राजा जनक के समान संसार में रहते हुए भी ब्रह्मज्ञानी
हैं, ब्रह्मा में लीन हैं. हमारी एक छोटी सी इच्छा है, आप
उसे पूर्ण करें.” श्री बापन्नार्य बोले, “जब तक आप लोग अपनी
इच्छा व्यक्त नहीं करेंगे, मैं वचन कैसे दे सकता हूँ!
निःसंकोच होकर अपनी इच्छा बताएँ. यदि वह धर्मबद्ध हुई तो उसे अवश्य पूरी करूंगा.”
श्री श्रेष्ठी बोले, “मैंने श्री वर्मा की गायत्री नामक गौ
की संततियों में से एक अत्यंत शुभ लक्षणों से युक्त गाय खरीदी है. हमारे कुल
पुरोहित श्री अप्पल राजू शर्मा को वह गाय देने का विचार था. उस गाय का दूध बालक
श्रीपाद की सेवा हेतु प्रयुक्त हो, इसके सिवा अन्य कोई इच्छा
नहीं है.”
श्री
श्रेष्ठी की बात सुनकर श्री बापन्नार्य बोले, “अच्छा! आप
ऐसा करें कि वह गाय मेरी गौशाला में बांध दें. मैं वह गाय अप्पल राजू को देने का
प्रयत्न करूंगा. शुभलक्षणों वाली गाय का अप्पल राजू के घर में होना दाता एवँ
ग्रहीता दोनों के लिए कल्याणकारी है.”
गौमाता
को बापन्नार्य के घर लाया गया परन्तु अप्पल राजू ने गोदान ग्रहण करने से इनकार कर
दिया.
हिमालय
में सतोपथ नामक एक प्रांत है, वहाँ से युधिष्ठिर
आदि पांडवों ने स्वर्गारोहण किया था. वहाँ श्री सच्चिदानन्दावधूत नामक महात्मा का
वास था. उनकी आयु कई शताब्दियों से अधिक थी. वे कैवल्यश्रुंगी के विश्वेश्वर प्रभु
के शिष्य थे. “श्री विश्वेश्वर प्रभु स्वयं पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
रूप में हैं और उनके बाल्य रूप का दर्शन लेकर कृतार्थ होना है,” इस प्रकार का आदेश
श्री सच्चिदानंद को प्राप्त हुआ. श्री सच्चिदानन्दावधूत पीठिकापुर आये. श्री
बापन्नार्य ने आदर पूर्वक उनका स्वागत किया. जब उनके सम्मुख बालक श्रीपाद की दूध
की समस्या की चर्चा की गई, तब उन्होंने दृढ़ता से कहा कि अप्पल राज शर्मा को गोदान
स्वीकार करना चाहिए. श्रीपाद श्रीवल्लभ साक्षात दत्त प्रभु हैं, और व्यर्थ नियमों
के जंजाल में पड़कर उन्हें गोक्षीर अर्पण करने का महद्भाग्य खोना नहीं चाहिए, ऐसा जोर
देकर कहा. ब्राह्मण परिषद् ने श्रीपाद श्रीवल्लभ दत्त प्रभु हैं, इस बात का
प्रमाण माँगा. अवधूत बोले कि तुम्हें पंचमहाभूतों की साक्षी देता हूँ .
श्रीपाद के श्री दत्त होने के बारे में पञ्चमहाभूतों की
साक्षी
यज्ञारंभ होते ही भूमाता ने
साक्षी दी. श्रीपाद श्री दत्त हैं, अतः अप्पल राजू शर्मा को गोदान का स्वीकार करना चाहिए. श्वसुर द्वारा दामाद को
प्रेमपूर्वक दी गई वस्तु “दान” नहीं होती, इसलिए सत्यऋषीश्वर
श्री श्रेष्ठी से दान ग्रहण करें एवँ इसे भेंट स्वरूप दामाद को दें. यह भूमाता का
कथन था.
यज्ञारंभ
होने पर, यज्ञस्थल को छोड़कर अन्य सभी स्थानों पर बारिश हो रही थी – यह थी दूसरी
साक्षी. यज्ञ के हविर्भाग को स्वीकार करने के लिए स्वयं अग्निदेव आये और गोदान
स्वीकार करने में कोई दोष नहीं, ऐसा उन्होंने कहा –
यह थी तीसरी साक्षी. यज्ञ मंडप को छोड़कर, अन्य सभी स्थानों पर वायुदेव ने अपना
प्रताप दिखाया - यह थी चौथी साक्षी. आकाश से दिव्य वाणी सुनाई दी कि श्रीपाद
साक्षात श्री दत्त हैं – यह थी पांचवीं साक्षी.
इस
प्रकार पञ्च महाभूतों की साक्षी होने के पश्चात अप्पल राजू ने गोदान स्वीकार किया.
गोदान का फल श्री श्रेष्ठी को प्राप्त हुआ. इस कारण, गाय के विक्रय से प्राप्त
धनराशि नरसिंह वर्मा ने अप्पल राजू को देने का निर्णय लिया. इस प्रकार पञ्च
महाभूतों की उपस्थिति में श्रेष्ठी तथा वर्मा को अपूर्व पुण्य की प्राप्ति हुई.
भविष्य
में वायसपुर अग्रहार कोकनद (काकीनाडा) नाम से प्रसिद्ध होगा. श्यामलाम्बापुर
(समर्लाकोटा) तथा श्री पीठिकापुर एकत्र होकर महानगर का स्वरूप लेंगे. संसार के सभी
देशों के, सभी धर्मों के,
सभी पंथों के लोग किसी जन्म में, एक दिन पीठिकापुर आकर
श्रीपाद स्वामी के दर्शन करेंगे. श्रीपाद स्वामी का चरित्र संस्कृत भाषा में लिखा
जाएगा. “श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत” ग्रन्थ श्रीपाद स्वामी के आशीर्वाद से
प्रसिद्ध होगा. भूर्ज पत्र पर लिखे गए ग्रन्थ श्रीपाद स्वामी की आज्ञा से, श्रीपाद स्वामी के जन्म स्थान पर सात आदमियों की गहराई में सुरक्षित
रहेंगे. उनके जन्म स्थान पर श्री पादुकाओं की स्थापना तथा मंदिर का निर्माण होगा.
श्रीपाद स्वामी को गौदान करने वाले महापुण्यवान वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी वास्तव में
धन्य हैं. उनका परिवार सदा धन-धान्य से समृद्ध रहेगा. वे कुछ काल हिरण्य लोक में
बिताकर फिर महाराष्ट्र देश में एक ऐश्वर्यशाली वैश्य कुल में जन्म लेंगे. उन्हें
नृसिंह सरस्वति अवतार के दर्शन भी होंगे.
बेटा!
शंकर भट्ट! गौदान बड़ा शुभप्रद एवँ विशेष होता है. तू अब कुरवपुर को प्रस्थान करने
की तैयारी कर. श्रीपाद श्रीवल्लभ सदैव तेरी रक्षा करेंगे.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जय हो।।
।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय
– 10
नरसिंह
मूर्ति का वर्णन
तिरुमलदास की आज्ञा लेकर मैंने कुरवपुर की दिशा में
प्रस्थान किया. श्रीपाद स्वामी की लीलाओं के स्मरण से मन रोमांचित हो उठता था. कुछ
दूर जाने के बाद मुझे एक अश्वत्थ वृक्ष दिखाई दिया. दोपहर हो चुकी थी. मैं भूख से
व्याकुल हो रहा था. यदि आसपास ब्राह्मणों के घर हों. तो वहाँ भिक्षान्न सेवन करके
विश्राम करने के लिए इस पवित्र अश्वत्थ वृक्ष की छाया में आ जाऊँगा, ऐसा विचार मन
में लिए मैं चल पड़ा. मैंने देखा कि उस वृक्ष की छाया में कोई विश्राम कर रहा है.
निकट जाकर देखा कि उस व्यक्ति ने यज्ञोपवीत धारण किया है.
जब मैं अश्वत्थ वृक्ष के निकट पहुँचा तो उस व्यक्ति ने
आदरपूर्वक मुझे बैठने के लिए कहा. उनके नेत्रों में अथाह करुणा थी. उनके सामने एक
झोली थी, उसमें कोई भी खाद्य पदार्थ न था, बस एक
ताम्र पात्र था. वे निरंतर श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का नाम स्मरण कर रहे थे.
मैंने उनसे पूछा, “महाशय! आप क्या श्रीपाद स्वामी के दिव्य चरणों के
आश्रित हैं? क्या आपने उनके दर्शन किये हैं?”
वे बोले, “मेरा जन्म एक भले वैश्य कुल में हुआ है और मेरा नाम
सुब्बय्या श्रेष्ठी है. हमारा वंश “ग्रंथी” कहलाता है. पूर्वजों
के समय से ही हमारे यहाँ सद्ग्रंथों का पठन-पाठन होता आ रहा है. इसलिए हमारे वंश
का नाम “ग्रंथी” पड़ गया. बचपन में ही मेरे माता-पिता का निधन हो गया. मेरा घर
धन-धान्य से समृद्ध है. मैं दूर-दूर के देशों में जाकर व्यापार करता हूँ. इस
सन्दर्भ में कई बार कांचीपुरम जा चुका हूँ. वहाँ चिंतामणी नामक वैश्या से परिचय
हुआ. उस पर मैंने बहुत धन लुटाया. मल्याल (केरल) देश के पालक्काड नामक प्रांत से
बिल्वमंगल नामक ब्राह्मण भी व्यापार के लिए कांचीपुरम आया करता था. वह अरबी
नागरिकों को सुगंधी द्रव्य बेचकर उनसे रत्न एवँ घोड़े खरीदता था. कभी-कभी हम दोनों
मिलकर व्यापार करते. दुर्भाग्यवश हम दोनों वैश्या की संगत में भ्रष्ठ हो गए थे.
कुछ समय तक तो अरबों के साथ हमारा व्यापार अच्छा चला, उसके बाद अरबों ने हमें धोखा
दिया. ऊँची जाति के घोड़ों की कीमत लेकर निम्न जाति के घोड़े हमें बेचे, जिससे हमें
बहुत हानि हुई. कई राजा-महाराज हमसे ऊँची जाति के घोड़े खरीदा करते थे. व्यापार में
नुक्सान होने के कारण हमारी संपत्ति नष्ट हो गई. मेरी पत्नी इस दुख में परलोक
सिधार गई. मेरा एक पुत्र था जो मंदबुद्धि था. उसका भी अल्पायु में निधन हो गया.
भाई! समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ एवँ विख्यात पाद-गया क्षेत्र में स्थित पीठिकापुर
मेरा जन्म स्थान है. हम वहीं के हैं. जब मैं अज्ञानी था, तो देवताओं एवँ ब्राह्मणों का अनिष्ट किया करता था.
क़र्ज़ की वसूली निर्दयता से किया करता था. श्रीपाद स्वामी के पिता श्री अप्पलराजू
के घर आईनविल्ली से उनके रिश्तेदार मिलने के लिए आये. उन सबके भोजनादि की व्यवस्था
करने के लिए अप्पल राजू के पास पर्याप्त धन नहीं था. वे दान नहीं स्वीकारते थे.
श्री वेंकटप्पय्या के घर से प्राप्त भिक्षा से उदार निर्वाह एवँ अन्य व्यवहार किया
करते थे. श्रेष्ठी के कुल-पुरोहित होने के कारण वे भिक्षा के रूप में धन स्वीकार
नहीं करते थे.
एक दिन मजबूरी में उन्होंने एक वराह मूल्य की सामग्री
हमारी दुकान से उधार ली. मैंने अप्पल राजू को ताकीद दी थी कि रिश्तेदारों के जाते
ही मेरी रकम लौटा दें. ‘मेरे पास एक कौड़ी भी नहीं है, मगर जब
मुझे धन प्राप्त होगा तब मैं अवश्य लौटा दूँगा.’ ऐसा अप्पल राजू बोले. मैं
चक्रब्याज वसूलने में उस्ताद था. समय बीत रहा था. ब्याज पर ब्याज लगाकर, झूठा हिसाब दिखाकर, मैंने अप्पल राजू को सूचना भेजी
कि उन्हें मुझे दस वराह लौटाने हैं. इतना धन लौटाने में अप्पल राजू को अपना घर
बेचना पड़ता. उस समय के मूल्य के हिसाब से यदि मैं वह घर खरीदता तो अप्पल राजू और
१-२ वराह देकर ऋणमुक्त हो जाते, ऐसा मैंने कई लोगों से कहा था. अप्पल राजू को बेघर
करना ही मेरा उद्देश्य था. मेरे इस दुष्ट विचार को भांप कर वेंकटप्पय्या ने मेरी
भर्त्सना की, “अरे दुरात्मा! धन के मद में तू मनमानी कर रहा है.
हमारे कुल-पुरोहित का अपमान हमारा ही अपमान हुआ. तू अपना बर्ताव सुधार, वरना तुझ पर घोर विपदा आएगी. अग्निहोत्र से भी अधिक
पवित्र अप्पल राजू शर्मा को तू जो कष्ट पहुंचा रहा है, उसके
बदले में रौरवादि नरक को प्राप्त होगा.”
एक बार, जब बालक श्रीपाद श्रेष्ठी के घर में थे, तब मैंने श्रेष्ठी से व्यंग्यपूर्वक कहा, “यदि अप्पल राजू शर्मा मेरा ऋण चुकाने में असमर्थ हैं, तो वे अपने पुत्रों में से किसी एक पुत्र को मेरी
दुकान पर नौकरी करने के लिए भेजें, अथवा वे स्वयं मेरे यहाँ नौकरी करें. एक पुत्र तो
अंधा है, दूसरा है पंगु और तीसरा, यह
श्रीपाद, यह तो केवल तीन वर्ष का है. मेरा ऋण कैसे उतारेंगे
भला?” यह सुनकर श्रेष्ठी के मन को बड़ी ठेस पहूँची. उनके
नेत्रों से अश्रुधारा बह चली. बालक श्रीपाद ने अपने दिव्य हस्त से उनके आँसू
पोंछते हुए कहा, “दादा जी! मेरे होते हुए भय किस बात का? हिरण्याक्ष एवँ हिरण्यकश्यप का वध मैंने ही किया, तो सुब्बय्या के ऋण को चुकाने में मुझे कठिनाई कैसी?” इतना कहकर मेरी और मुड़कर बोले, “ अरे! तेरा ऋण मैं चुकाऊंगा. चल तेरी दुकान में.
तेरी दुकान में चाकरी कर के ऋण चुकाऊंगा. मगर तेरा ऋण उतर जाने पर तेरे घर में
लक्ष्मी नहीं रहेगी. सोच ले.”
बालक श्रीपाद को लेकर वेंकटप्पय्या सुब्बय्या की दुकान
में आये. वे सुब्बय्या से बोले, “बालक श्रीपाद के बदले मैं तुम्हारी दुकान में चाकरी
करूंगा. कोई आपत्त्ति तो नहीं है? सुब्बय्या ने इनकार करते हुए गर्दन हिला दी. तभी
दूकान में एक जटाधारी आया. वह सुब्बय्या श्रेष्ठी की दूकान ढूंढ रहा था. उसे एक
ताँबे का बर्तन खरीदना था. वह श्रेष्ठी से बोला, “मुझे
एक ताँबे के बर्तन की बड़ी आवश्यकता है. मूल्य यदि अधिक हो तो भी कोई बात नहीं, सुब्बय्या की दूकान में ताँबे के बत्तीस पात्र थे, परन्तु उसने जटाधारी से झूठ कहा, “मेरे पास ताँबे का केवल एक ही पात्र है. यदि उसके
लिए दस वराह दे सकते हो तो वह तुम्हें मिल जाएगा.” वह सन्यासी तुरंत तैयार हो गया.
उसकी बस एक ही शर्त थी कि वह पात्र वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी की गोद में बैठे बालक
श्रीपाद अपने हाथों से उसे दें. शर्त के अनुसार बालक श्रीपाद ने अपने हाथ से वह
पात्र सन्यासी को दिया. पात्र देते हुए श्रीपाद प्रभु हँस रहे थे. वे बोले, “अरे, अब तेरी इच्छा पूरी हो गई है ना? तेरे घर में लक्ष्मी सदा बनी रहेगी. अब अपनी संन्यास
दीक्षा छोड़कर घर जाओ! तेरी पत्नी एवँ बच्चे तेरी राह देख रहे हैं.” वह जटाधारी
सन्यासी खुशी-खुशी चला गया.
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ अप्पल राजू शर्मा का अपमान
करने की सुब्बय्या की इच्छा थी. वह पूरी होने से उसके मन में थोड़ा अहंकार निर्माण हो
गया था. उसी मद में उसने कहा, “आज की बिक्री से मुझे विशेष धन लाभ हुआ है. मुझे ऐसा
लगा मानो अप्पलराजू शर्मा के दस वराहों का ऋण उतर गया है. इसी क्षण श्रीपाद राय
ऋणमुक्त हो गए.” वेंकटप्पय्या बोले, “यह जो कुछ भी तुम कह रहे हो, वह गायत्री को साक्षी मानकर कहो.” सुब्बय्या ने ऐसा
ही किया.
श्रीपाद प्रभु तथा वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी जब चले गए तो
सुब्बय्या ने अन्दर जाकर देखा कि इकतीस पात्रों में से केवल एक ही ताँबे का पात्र
बचा था. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अनाकलनीय, अद्भुत्
है. उनके सम्मुख जो भी वचन बोले जाते हैं, वे सत्य
होते थे.
साक्षात दत्त प्रभु के हाथों से ताँबे का पात्र ग्रहण
करने वाला वह सन्यासी कितना भाग्यवान था और सुब्बय्या कितना अभागा था! उसका दस
वराहों का ऋण तो श्रीपाद प्रभु ने अपनी लीला से चुका दिया, परन्तु उसी क्षण से उसके घर की धन संपत्ति क्षीण होने
लगी. इकतीस पात्रों के स्थान पर केवल एक ही पात्र शेष बचा था. सुब्बय्या ने अप्पल
राजू से दस वराह प्राप्त करना है, ऐसा झूठा हिसाब दिखाया था. उस पाप का फल उसे इस
प्रकार से प्राप्त हुआ था.
शंकर भट्ट ने कहा, “अरे
सुब्बय्या! सूर्योदय के पूर्व एवँ सूर्यास्त के पूर्व का समय अत्यंत पवित्र होता
है. प्रातः-संध्या एवँ सायं-संध्या के समय
अग्निहोत्र करना विशेष फलदायी होता है. प्रातः काल के समय सूर्य भगवान सभी
शक्तियों के स्त्रोतों से सिद्ध होते हैं. सायंकाल के समय वे ही शक्तियां पुनः सूर्य
में विलीन हो जाती हैं.
इस पर सुब्बय्या बोला,
“महाराज! दान स्वीकारने से पुण्य कम होता है, ऐसा
मैंने सुना है. परन्तु उसे न स्वीकारने से भी पाप लगता है, ऐसा आप से सुना था. इन
दोनों कथनों का अर्थ समझ नहीं पा रहा हूँ. उसी प्रकार यह भी समझ नहीं पाता हूँ कि
श्रीपाद स्वामी को श्री दत्तात्रेय का अवतार कहा जाता है, वहीं नरसिंह स्वामी को
शिव का अवतार कहते हैं. शिव में अनुसूया का तत्व किस प्रकार अनुभूत है? कृपया यह बातें मुझे विस्तार से समझाएं.”
परन्तु इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले सबको भूख
लगाने के कारण पहले भोजन करने की सोची. आश्चर्य की बात यह थी कि उस छोटे से स्थान
पर एक ताँबे के पात्र के सिवा कुछ भी नहीं था. सुब्बय्या दो केले के पत्ते लाया.
शंकर भट्ट नदी पर जाकर शुचिर्भूत होकर आये.
खाने में चावल और तुरई की दाल थी. केले के पत्तों पर पलाश के पत्तों के दोने
रखे. उस जटाधारी सन्यासी ने आंखें मूँद कर क्षणभर ईश्वर का ध्यान किया और निकट ही
पड़े ताँबे के पात्र से दोनों में पानी डाला. फिर उसी पात्र से स्वादिष्ट तुरई की
दाल परोसी, तत्पश्चात चावल परोसा. उस अमृतमय भोजन के सेवन से हम तृप्त हो गए. खाली
पात्र से पहले पानी, फिर भोजन का निकलना एक दैवी चमत्कार ही था. भोजन के
पश्चात वह पात्र खाली ही रहा.
शनिवार प्रदोष काल में की गई
शिवार्चना का फल
श्रीपाद
स्वामी सकल देवताओं के स्वरूप हैं. श्री शनिदेव कर्मकारक हैं. नवग्रहों में जो
छायाग्रह – राहू एवँ केतु – हैं, उनमें से राहू शनि
के कारण फल देता है. केतु मंगल के कारण फल देता है. कर्मकारक शनि कर्म-साक्षी
सूर्य का पुत्र होने के कारण शनिवार की शाम शक्तिमान होती है. चतुर्थी एवँ
त्रयोदशी को राहू बलवान होता है. शनि त्रयोदशी के महापर्व काल में शाम को शिव की
आराधना करने से मानव द्वारा पूर्वजन्म में किये गए पाप नष्ट होते हैं. श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार मंगल ग्रह के चित्रा नक्षत्र पर हुआ है, अतः इस नक्षत्र पर श्रीपाद प्रभु की पूजा-अर्चना करने से सभी ग्रहों के
दोषों का शमन होता है. युद्ध, आपदा,
अस्त्र-शस्त्रों के कारण अकाल मृत्यु, ऋणग्रस्त होने पर आने वाले संकटों का कारण
मंगल ग्रह होता है. चित्रा नक्षत्र पर अथवा मंगलवार को श्रीपाद स्वामी अरुण वर्ण
के समान प्रकाशमान होते हैं. ऋण अर्थात् पाप, अऋण से तात्पर्य है पाप रहित होना.
उस दिन श्रीपाद प्रभु साक्षात अरुणाचलेश्वर के रूप में विद्यमान होते है.
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा तथा बापन्नार्य शनिप्रदोष की शाम को
शिवाराधना किया करते थे. उस दिन अप्पल राजू शर्मा ने भी बड़े श्रद्धा भाव से आराधना
में भाग लिया था. अखंड सौभाग्यवती सुमति महारानी शिव स्वरूप में विद्यमान अनुसूया
महातत्व का ध्यान किया करती थीं. उस महा तपस्या के फलस्वरूप ही श्रीपाद स्वामी का
अवतार हुआ था. इसी कारण वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह वर्मा अथवा बापन्नार्युलू
से धन का स्वीकार करने पर वह दान नहीं होगा. परन्तु यदि उनसे धन न स्वीकारा जाए तो
वह महापाप होगा ऐसा श्रीपाद स्वामी अपने पिता को मौन रहकर बताना चाहते थे. श्रीपाद
प्रभु सकल देवताओं के स्वरूप हैं. सभी देवताओं से परे – ऐसा महान तत्व हैं. उनके
दर्शन, स्पर्श तथा उनसे संभाषण का लाभ जिन भाग्यवन्तों को
हुआ वे धन्य है.”
श्रीपाद
स्वामी ने अपनी असाधारण लीला से अपने पिता को ऋणमुक्त कर दिया – यह समाचार
पीठिकापुर में दावानल की भाँति फ़ैल गया. तीन वर्ष के बालक श्रीपाद के अप्पल राजू
को ऋणमुक्त करने पर उनके नेत्रों से पुत्र के प्रति स्नेहवश अश्रु धारा बह निकली.
महारानी सुमति अपने पुत्र को ह्रदय से लगाए कितनी ही देर तक तन्मय अवस्था में थी.
उस समय उनके घर वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी, नरसिंह
वर्मा, बापन्नार्य एवँ सुब्बय्या आये हुए थे. सुब्बय्या ने
सभी ज्येष्ठ व्यक्तियों के सम्मुख कहा कि श्री अप्पल राजू का उधार चुक गया है. इस
पर श्रीपाद प्रभु बोले, “ पिता को ऋणमुक्त करना पुत्र का
धर्म ही है.”
अप्पल
राजू ने पूछा, “कोई जटाधारी दस वराह देकर ताँबे का
पात्र ले गया, इससे मेरा ऋण कैसे उतर गया?” इस प्रकार की अनेक प्रतिक्रियाएँ व्यक्त की गईं. बापन्नार्युलु ने
श्रीपाद स्वामी से पूछा, “क्या तुम जानते हो कि वे जटाधारी
सन्यासी कौन थे?” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं न केवल उस जटाधारी के, अपितु सभी जटाधारी
सन्यासियों के बारे में जानता हूँ.”
श्रीपाद
स्वामी कौन हैं? और उनका स्वरूप क्या है?
बापन्नार्युलु बालक श्रीपाद से बोले, “तू तीन वर्ष का बालक है, परन्तु
बातें बड़े आदमियों जैसी कर रहा है. सब बातें जानने के लिए क्या तू सर्वज्ञ है?” इस पर बालक श्रीपाद बोले, “आपको
ऐसा प्रतीत होता है कि मैं तीन वर्ष का हूँ, परन्तु
मुझे ऐसा नहीं लगता. मेरी आयु लाखों वर्षों की है. मैं इस सृष्टि से पहले था, प्रलय के पश्चात भी रहूँगा. सृष्टि की निर्मिती के
समय मैं था. मेरे बिना सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति
एवँ विलय हो ही नहीं सकता. मैं साक्षीभूत होकर सभी क्रियाकलापों का अवलोकन करता
हूँ.” इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “श्रीपाद! कोई छोटा बालक यदि केवल कल्पना करे कि वह
चंद्रमंडल में है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह यथार्थ में
चंद्रमंडल में है. प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता होती है. सर्वज्ञता, सर्वव्यापकता,
सर्वशक्तिमानता – ये केवल जगन्नियंता के लक्षण हैं.”
इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं वह
आदितत्व हूँ, जो सर्वत्र स्थित है. आवश्यकतानुसार मैं उचित प्रसंग
पर उचित स्थान पर प्रकट होता हूँ. सभी प्राणियों में मैं अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवँ आनंदमय कोष में विद्यमान रहता हूँ.
मेरी उपस्थिति के कारण ही इन पंचकोषों के सभी क्रिया कलाप चलते रहते हैं. यदि किसी
विशिष्ट कोष में अपने होने की अनुभूति तुम्हें दूं तो उस कोष में मेरी उपस्थिति का
आभास होगा. मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि यदि मैं ऐसी अनुभूति न दूं, तो मैं वहाँ हूँ ही नहीं. मैं सर्वव्यापी हूँ. समस्त
ज्ञान-विज्ञान मेरे चरणों में लीन हैं. मेरी केवल इच्छा मात्र से इस समूची सृष्टि
का निर्माण हुआ है. मैं सर्वत्र विद्यमान हूँ. इसमें क्या आश्चर्य है?”
इस पर अप्पल राजू शर्मा ने कहा, “ बेटा, बचपन से ही तू हमारे लिए तू एक पहेली है. तू बार-बार
‘मैं दत्त प्रभु हूँ, मैं दत्त प्रभु हूँ’ ऐसा कहता है. ‘नृसिंह सरस्वति के
रूप में अवतार लूँगा’ ऐसा कहता है. लोग तो कौओं जैसे हैं. पीठिकापुर के ब्राह्मण
तो नरक के लौह-कागों से भी भयानक हैं. इन सब बातों को वे मन की चंचलता एवँ
बुद्धिभ्रष्ठता कहते हैं. हम ब्राह्मण हैं. विधियुक्त धर्म-कर्म का आचरण करना
हमारे लिए श्रेष्ठ है. इससे बढ़कर यदि यह कहें, कि तू
ईश्वरी अंशयुक्त अवतारी पुरुष है, तो वे समझते हैं कि ये हम केवल अहंकारवश कह रहे
हैं.”
इस पर बालक श्रीपाद ने उत्तर दिया, “तात, आपकी बात मैं अमान्य नहीं करता, परन्तु जो सच है वह तो कहना ही चाहिए ना? पञ्चभूतों से साक्षी प्राप्त करते समय, मैं दत्त
प्रभु नहीं हूँ, ऐसा कहने से क्या असत्य भाषण का दोष नहीं लगेगा? यदि आकाश के सूर्य से यह कहा जाए कि तू सूर्य नहीं है, तो क्या वह सूर्य न रहेगा? सत्य
देश काल की सीमाओं से परे है. जिस प्रकार हमारे पीठिकापुर के ब्राह्मण स्वयँ को
देहधारी समझकर मनुष्यत्व का अनुभव ले रहे हैं, उसी
प्रकार मैं भी सर्वज्ञता, सर्वशक्तित्व,
सर्वान्तर्यामित्व युक्त दत्त हूँ. इस बात का मैं पग पग पर सबको अनुभव करवा रहा
हूँ. युग बीतते रहेंगे. अनेक बार सृष्टि का लय हो सकता है, परन्तु मैं, जो
साक्षात दत्त हूँ. वह दत्त नहीं हो, ऐसा कैसे हो सकता है?”
इसके बाद बापन्नार्युलु ने कहा, “श्रीपाद! जटाधारी के जाने के पश्चात सुब्बय्या के
पास इकतीस पात्रों के स्थान पर केवल एक ही पात्र बचा. क्या तुमने किसी चमत्कार से
उनको अदृश्य कर दिया?” इस पर दत्त प्रभु बोले, “सभी
घटनाएं काल एवँ कर्म के अनुसार किसी न किसी कारण वश घटित होती हैं. कारण के बिना
कार्य संभव नहीं है. यह प्रकृति का नियम है. यह सुब्बय्या पिछले जन्म में वन्य
प्रांत में दत्त पुजारी थे, परन्तु वन में दत्त का दर्शन वे कभी-कभार ही किया
करते थे. उनके भीतर स्त्री कामना बड़ी प्रबल थी. यह स्त्री लोलुप पुजारी प्राचीन
काल की परंपरानुसार पूजित ताँबे की विशाल दत्त मूर्ती को बेचना चाहता था. अतः एक
दिन इसने उस मूर्ती को बेच दिया और उससे प्राप्त धन को गलत ढंग से खर्च कर दिया.
मगर, लोगों में इसने यह समाचार फैला दिया कि दत्त मूर्ती
की चोरी हो गई है. जटाधारी के रूप में जो सन्यासी आया था, वह पूर्व जन्म में सुनार था. उसने धन के लालच में उस
दत्त मूर्ती को पिघलाया था. इस जन्म में वह जन्मतः दरिद्री रहा. दत्त मूर्ति की
अनेक वर्षों तक पूजा करने के फलस्वरूप उस पुजारी का धनवान श्रेष्ठी कुल में जन्म
हुआ. इन दोनों ने उस मूर्ती को पिघला कर उसके बत्तीस पात्र बना कर बेचे थे. उस
सुनार के घर में नृसिंह देव की पूजा-आराधना होती थी. नृसिंह भगवान की मूर्ती के
सम्मुख ही ये ताँबे के बर्तन बनाए गए थे.
ईश्वर की इच्छा से नृसिंह भगवान के बत्तीस अवतारों के अंशों ने उन ताँबे के
बर्तनों में प्रवेश किया था. इस जन्म में अपने पूर्व जन्म का ज्ञान होकर उस सुनार
ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से मेरी सेवा की. मैंने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिए और
पीठिकापुर आकर मेरे हाथ से ताँबे के पात्र को स्वीकार करने की आज्ञा दी. साथ ही
श्रेष्ठी को दस वराह देकर मुझे बंधन मुक्त करने की भी आज्ञा दी. ऐसा करके वह धन्य
हो गया. उसकी आर्थिक समस्या दूर होने का आशीर्वाद मैंने उसे दिया था. लेनदारों के
तकाजों से बचने के लिए उसने जटाधारी सन्यासी का वेष धारण किया था. मुझे तो जटाधारी
के बारे में सभी कुछ मालूम है ना? यह सुब्बय्या श्रेष्ठी वाम मार्ग से हमारे परिवार से
दस वराह वसूल करना चाहता था. उसे दस वराह प्राप्त हों, ऐसी
व्यवस्था मैंने कर दी. परन्तु इसके बदले में सुब्बय्या का सभी पूण्य फल नष्ट हो
गया. अरे, सुब्बय्या! चिंतामणि के साथ तूने जो
श्रुंगार-व्यभिचार किया, वह सब मुझे ज्ञात है. तेरी कथा मेरे कथामृत में
हास्यास्पद होगी. तू झोली लेकर छोटे बच्चों के लिए आवश्यक खाद्य पदार्थ बेचकर अपना
उदार निर्वाह करेगा. तुझ से जो धन उधार लिया था, उससे
मेरे माता-पिता ने भोजनादि की व्यवस्था की थी. तुझ से ज़्यादा तो बनिए का हिसाब मैं
जानता हूँ. भोजन में बनाए चावल तथा तुरई की सब्जी बनाने में ही तेरे पास से लिया
धन समाप्त हो गया था. अन्य खर्चों के लिए मेरे पिता द्वारा कष्ट से अर्जित किया
गया धन ही खर्च हुआ था. जब तू खाने को मोहताज हो जाए तो तेरे पास के इस ताम्र
पात्र से तुझे केवल जल, चावल तथा तुरई की बनी दाल ही प्राप्त होगी. वह भी
सिर्फ उतनी जितनी कि तू खाकर औरों को खिला सके.”
बालक श्रीपाद ने इतनी बातें अत्यंत तीव्रता पूर्वक
कहीं. उनका मुखमंडल दिव्य, प्रखर तेजस्वी प्रतीत हो रहा था. उनके नेत्र
अग्नि-गोल के समान लाल हो रहे थे. वे आगे बोले, “अरे, सुब्बय्या श्रेष्ठी! आज रात को तेरे घर के दक्षिण
द्वार के निकट एक भैंस आयेगी. तेरा अंतःकाल निकट आ गया है, ऐसे यमराज के संदेश वाहक के रूप में वह आएगी. मैं तुझ
पर एक अनुग्रह करने जा रहा हूँ. तू अपने हाथ से भोजन बनाकर तुरई की दाल तथा चावल
उस भैंस को खिला. उस भैंस की केवल एक ही यह इच्छा तू पूरी कर. उस अन्न को खाकर वह
भैंस मर जायेगी, परन्तु उसी क्षण से तू उत्तरोत्तर निर्धन होता जाएगा.
तू झोली लेकर मैंने जो कहा है वह कर. इसके पश्चात जब तू दाने-दाने के लिए तरसेगा, तब ताँबे के पात्र का लाभ तुझे मिलेगा.”
श्रीपाद स्वामी ने यह बात अत्यंत कठोर शब्दों में कही.
उस समय वेंकटप्पा श्रेष्ठी क्रोधित श्रीपाद प्रभु को देखकर अत्यंत भयभीत हो गए.
उन्होंने बालक श्रीपाद को इतने क्रोध में कभी नहीं देखा था. तब बालक श्रीपाद ने
कहा, “नाना जी! डर गए क्या? मैं
नरसिंह मूर्ती ही हूँ. आपको वरदान देकर आप पर कृपा कर रहा हूँ. क्या आपने ऐसा सोचा
कि मैं वैश्य कुल के सभी लोगों को शाप दूँगा? मेरी
बहन वासवी ने अपने कुल के लोगों के सौन्दर्य में कुछ त्रुटी रहने का शाप दिया था.
मैं श्रीपाद उसी प्रकृति का हूँ! कहीं आपके मन में ऐसी आशंका तो नहीं उठी कि मैं
सभी वैश्यों को निर्धन होने शाप दूँगा? आप घबराएं नहीं. ईश्वर के लिए जाति-कुल का भेदभाव
नहीं होता, उसी प्रकार भक्तों की भी न कोई जाति होती है, न कोई कुल, आर्य वैश्यों के तथा मेरे अनुबंध बहुत
पुराने हैं. बापन्नार्य अर्थात प्राचीन काल के लाभाद महर्षि ही तो हैं. वैश्यों
में लाभाद महर्षि गोत्र लुप्त हो गया है. बापन्नार्य के सभी वंशजों को (कलियुग के
अंत तक के) मेरा आशीर्वाद है. उन पर मेरा वरद हस्त सदा बना रहेगा. आपको जो दी है, वह झोली बिलकुल भिन्न है. उसमें दत्त-मिठाई भरी है.
कितनी भी दीजिये, कम न होगी. परन्तु वह किसी के नेत्रों को दिखाई नहीं
देती. नृसिंह के बत्तीस अवतारों के सभी लक्षण मुझमें विद्यमान हैं. बापन्नार्युलु
की तेहतीसवीं पीढी में मेरे इस जन्म स्थान पर एक महासंस्थान का निर्माण होकर उसमें
मेरी चरण-पादुकाओं की स्थापना की जायेगी. आपके वंश का कोई भी पुरुष यदि श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी के दिव्य एवँ भव्य रूप की नवविध भक्ति के किसी भी मार्ग से
आराधना करेगा, तो श्री दत्तात्रेय के श्वान अदृश्य रूप से उसकी
देखभाल करेंगे. वेद, पुराण, उपनिषद् ये सब श्वान रूप में अदृश्य रहकर सदैव
रक्षा करेंगे. तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने श्रीपाद प्रभु को प्रेम से गोद में
लिया. उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बह निकले. बापन्नार्युलु के मुख से बोल नहीं फूट
रहे थे. सुमति माता इस संदेह में थी कि यह सब स्वप्न है अथवा वैष्णवी माया. अप्पल
राजू शर्मा विस्मय चकित रह गए. बालक श्रीपाद के दोनों भाई भयभीत दृष्टि से उनकी और
देखते हुए सोच रहे थे कि यह हमारा अनुज है अथवा दत्त प्रभु?
नरसिंह वर्मा ने बालक श्रीपाद को अपनी गोद में ले
लिया. श्रीपाद प्रभु वर्मा से बोले, “दादा जी, कल हम दोनों घोडागाडी में अपनी ज़मीन देखने जायेंगे.
वहाँ भूमाता मुझसे कई दिनों से आर्त स्वर में प्रार्थना करते हुए कह रही है कि
अपने पद स्पर्श से मुझे कब पावन करोगे? मेरा तो वचन है कि मैं “आर्तत्राण परायण” हूँ. तब वर्मा बोले, “अरे
श्रीपाद! मेरी एक छोटी-सी विनती है. अपने पीठिकापुर के निकट मेरी ज़मीन है न? वहीं
एक छोटा-सा गाँव बसाकर वहाँ के निवासियों से खेती-बाडी करवाई जाए. ग्राम वासियों
को कम पैसों में खेती करने के लिए देकर ज़मींदारी का दायित्व निभाने के लिए
कुलकर्णी पद तुम्हारे पिता को दिया जाए. परन्तु अभी यह कुलकर्णी पद अपने पास नहीं
है ना?” इस पर बालक श्रीपाद हँस कर बोले, “दादा जी, आपने अपनी ज़मींदारी पर तो विचार कर लिया, मगर मेरी
ज़मींदारी के विषय में कुछ नहीं सोचा. मुझे यह स्वीकार नहीं. पहले पिता जी से कहिये
कि कुलकर्णी पद का निर्माण करें.”
“इसके पश्चात वह कुलकर्णी पद तुम्हें ही संभालना है,” ऐसा वर्मा बोले.
“घंडीकोटा श्रीपाद श्रीवल्लभ राज शर्मा किसी एक गाँव
का कुलकर्णी था, केवल इतना ही इतिहास में शेष रहेगा. परन्तु जो
कुलकर्णी पद मैं निभाने वाला हूँ, वह विश्वात्मक है. मेरे हिसाब-किताब मुझे ही करने
हैं. प्रतिदिन करोड़ों-करोड़ों पुण्य राशि का हिसाब-किताब होता रहता है. मेरे अवतार
का प्रयोजन है – विश्व कुण्डलिनी को झकझोरना. मानव के ही समान प्रत्येक गाँव की, शहर की, पुण्य क्षेत्रों की भी कुण्डलिनी होती है. सान्ध्र
सिन्धुवेद का ज्ञान जिन्हें है, वे ही इस योग-रहस्य को जान सकेंगे. पीठिकापुरम् की
कुण्डलिनी बापन्नार्युलु, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी तथा वत्सवाई की तैतीसवीं पीढ़ी
में जागृत हो सकती है. अभी उसकी जल्दी क्या है? दैवयोग
से आपको प्राप्त हुए इस महापुण्य काल के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना उचित
होगा.”
श्रीपाद प्रभु के इस कथन के पश्चात वे सदा पीठिकापुरम्
में ही रहें, ऐसा प्रयत्न नरसिंह वर्मा ने किया था.
श्रीपाद प्रभु का
वैभव
मैं अज्ञान से भरा हुआ हूँ. श्रीपाद
श्रीवल्लभ जब कहते थे कि “मैं स्वयँ श्रीकृष्ण हूँ,” तो सामान्य
लोगों को यह हास्यास्पद प्रतीत होता. उस अज्ञानता के वश ही मैंने प्रश्न किया, “श्रीपाद, तू स्वयँ को
श्रीकृष्ण कहता है तो तेरी अष्ट भार्याएं एवँ सोलह सहस्त्र गोपिकाएं भी क्या इस
अवतार में हैं?” इस पर श्रीपाद
प्रभु मंद हास्य करने हुए बोले, “मेरी अष्टविध
प्रकृति ही अष्ट भार्याएं हैं. मेरे इस शरीर से दसों दिशाओं में प्रतिक्षण शक्ति
स्वरूप स्पंदन प्रवर्तित होते रहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक क्षण में एक-एक कला
से, शरीर, मन एवँ आत्म तत्व से (10 × 10 ×10 = 1000) अर्थात् एक हज़ार स्पंदन प्रवर्तित होते हैं. इसा प्रकार सोलह कलाओं में से
कुल सोलह हज़ार स्पंदन प्रवर्तित होते हैं. ये ही मेरी सोलह हज़ार गोपिकाएं हैं.
पूर्वावतार में ये सभी कलाएँ मानव रूपों में प्रकट हुई थीं. इस अवतार में वे सब
निराकार रूप में स्पन्दनशील हैं.
विविध देवताओं के माध्यम से मेरी पूजा-आराधना करने में कोई भूल नहीं है. वह
मेरी ही आराधना है. मुझमें उपस्थित शिव स्वरूप, विष्णु रूप और ब्रह्मस्वरूप की
आराधना की जा सकती है. विभिन्न प्रकार की साधन पद्धतियाँ, साधक की
विभिन्न साधना अवस्थाएं, काल, कर्म एवँ कारण
जैसी प्राणियों की अवस्था पर प्रभाव डालती रहती हैं.”
नरसिंह प्रभु के ३२ रूप
उस रात को नरसिंह प्रभु ने नरसिंह राज वर्मा को बत्तीस
रूपों में दर्शन दिए थे. ये रूप इस प्रकार हैं:
1. कुंदपाद नरसिंह मूर्ती
2. कोप नरसिंह मूर्ती
3. दिव्य नरसिंह मूर्ती
4. ब्रह्माण्ड नरसिंह मूर्ती
5. समुद्र नरसिंह मूर्ती
6. विश्वरूप नरसिंह मूर्ती
7. वीर नरसिंह मूर्ती
8. रौद्र नरसिंह मूर्ती
9. क्रूर नरसिंह मूर्ती
10. विभत्स नरसिंह मूर्ती
11. धूम्र नरसिंह मूर्ती
12. वह्नि नरसिंह मूर्ती
13. व्याघ्र नरसिंह मूर्ती
14. बिडाल नरसिंह मूर्ती
15. भीम नरसिंह मूर्ती
16. पाताल नरसिंह मूर्ती
17. आकाश नरसिंह मूर्ती
18. वक्र नरसिंह मूर्ती
19. चक्र नरसिंह मूर्ती
20. शंख नरसिंह मूर्ती
21. सत्व नरसिंह मूर्ती
22. अद्भुत नरसिंह मूर्ती
23. वेग नरसिंह मूर्ती
24. विदारण नरसिंह मूर्ती
25. योगानंद नरसिंह मूर्ती
26. लक्ष्मी नरसिंह मूर्ती
27. भद्र नरसिंह मूर्ती
28. राज नरसिंह मूर्ती
29. वल्लभ नरसिंह मूर्ती
इसके पश्चात तीसवीं नरसिंह मूर्ती के रूप में उन्होंने
श्रीपाद श्रीवल्लभ को देखा. इकतीसवीं नरसिंह मूर्ती को श्री नृसिंह सरस्वति अवतार
में और बत्तीसवीं नरसिंह मूर्ती के रूप में प्रज्ञापुर (अक्कल कोट) के स्वामी
समर्थ को देखा.
श्रीनिवास का वृत्तांत
कन्या
मास के श्रवण नक्षत्र पर द्वादशी, सोमवार को सिद्ध योग पर श्री वेंकटेश अर्च्य रूप
में प्रकट हुए. वैशाख शुद्ध सप्तमी को विलम्बी नाम संवत्सर में उन्होंने कुबेर से
ऋण लेकर ऋण पत्र लिख कर दिया. श्री पद्मावती देवी ने मृग नक्षत्र पर जन्म लिया.
वैशाख शुद्ध दशमी को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र पर श्रीनिवास प्रभु का पद्मावती देवी
के साथ विवाह संपन्न हुआ. श्रीनिवास प्रभु भी भारद्वाज गोत्र में अवतरित हुए थे.
पांडवों के वंश में सुधन्वा नागकन्या द्वारा प्रसूत पुत्र आकाश महाराज था. उसका
भाई था तोंडमान. वसुधानु था आकाश महाराज का पुत्र. श्रीनिवास प्रभु ने अगस्ती
महर्षि की सलाह के अनुसार आधा राज्य तोंडमान को तथा आधा राज्य वसुधानु को दे दिया.
उस
रात को उन सबने श्रीपाद प्रभु के दिव्य नाम का कीर्तन किया. दूसरे दिन श्रीपाद
प्रभु की आश्चर्यकारक लीलाओं का वर्णन करने का आश्वासन देकर सुब्बय्या श्रेष्ठी
निकट ही स्थित एक कुटी में शंकर भट्ट को ले गए. उस कुटिया में ताड़पत्री की दो
चटाइयां थीं. चार श्वान उस कुटी की रक्षा कर रहे थे.
श्रीपाद
प्रभु के स्मरण से प्राप्त फल
श्रीपाद प्रभु की ह्रदयंगम लीलाओं के केवल स्मरण मात्र
से अनेक जन्मों की संचित पाप राशियाँ भस्म हो जाती हैं.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ११
सुब्बय्या श्रेष्ठी, चिंतामणि, बिल्वमंगल
का वृत्तांत
दत्त प्रभु की आराधना से सभी देवताओं की
आराधना का फल
श्रीपाद प्रभु का जन्म – अत्यद्भुत
ज्योतिर्मय
दूसरे दिन प्रातः सुबबय्या श्रेष्ठी ने अपनी कथा आरंभ की। वे बोले, “ श्री
दत्त प्रभु सभी देवताओं के स्वरूप हैं. श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से सभी
देवताओं की आराधना का फल प्राप्त होता है. सभी देवताओं में दत्त प्रभु अंतर्भूत
हैं.
श्री सुमति माता शनि प्रदोष काल में अनुसूया तत्व में उपस्थित परम शिव की
आराधना किया करती थीं. इसके परिणाम स्वरूप श्री दत्त प्रभु में विद्यमान शिवतत्व
अनुसूया तत्व में प्रतिबिंबित होकर, अनुसूया माता के सदृश्य सुमति माता के उदर से
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुआ. यह एक अद्भुत योग-प्रक्रिया ही थी.
माता-पिता के संयोग के बिना योगनिष्ठा में लीन अप्पल राजू शर्मा एवँ सुमति माता के
नेत्रों से योग-ज्योति प्रकट होकर, उनका संयोग होकर, सुमति माता के गर्भ में
प्रवेश करके नौ मास के उपरांत केवल ज्योति
रूप में वे बाहर आये. वास्तव में देखा जाए तो श्रीपाद ज्योतिस्वरूप ही थे.
उन्होंने अपनी आयु के तीसरे वर्ष में ही आश्चर्यकारक लीलाएँ करना आरम्भ किया.
कालांतर में श्रीपाद प्रभु को एक बहन की प्राप्ति हुई. उसका नाम रखा गया
विद्याधरी.
विद्याधरी के जन्म के दिन बापन्नाचार्युलु के एक दूर के भाई, जिनका नाम मल्लादी रामकृष्णावधानुलू था, उनके घर आये. वे एक महान पंडित थे. उनका चन्द्रशेखर नामक एक पुत्र था.
घंडीकोटा के घर महालक्ष्मी ने ही जन्म लिया, वे रिश्तेदार कहने लगे कि वह मल्लादी
वंश की पुत्र वधू बनने के लिए सर्वदा उपयुक्त है. श्रीपाद प्रभु को भी यह संबंध
पसंद था. उनकी इच्छा के अनुरूप यथा समय विद्याधरी एवँ चंद्रशेखर का विवाह
पीठिकापुरम् में बड़े ठाठ-बाट से सम्पन्न हुआ.”
“सुश्री विद्याधरी के पश्चात श्रीपाद स्वामी को राधा नामक बहन की प्राप्ति
हुई. उसका विवाह विजयवाटिका क्षेत्र के
विश्वनाथ कृष्णावधानुलू नामक ब्राह्मण से सम्पन्न हुआ. राधा के पश्चात् और एक बहन
का श्रीपाद प्रभु के घर जन्म हुआ. उसका नाम था सुरेखा. उसका विवाह मंगलगिरी के
ताड़पल्ली दत्तात्रेय अवधानुलू नामक एक विद्वान सच्चरित्र युवक के साथ हुआ.
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अकल्पनीय हैं. उनके स्मरण मात्र से ही पाप नष्ट हो
जाते हैं. गोदावरी मंडल में ताटंकपुर (तणुकु) नामक गाँव है. वहाँ अनेक वाजपेयी
हैं, जिनमें पौण्डरीक महायज्ञ करने वाला एक परम पवित्र वंश है. ये वाजपेयी
यज्ञकर्ता हैं. पीठिकापुर के मल्लादी वंश का एवँ वाजपेयी याजी (याज्ञिक) का बहुत
निकट का संबंध होने से वाजपेयी याजी “इदं ब्रह्म्य मिदं क्षात्रं” इस सिद्धांत पर
विश्वास करते थे. वे वशिष्ठ, शक्ति, पराशर ऋषियों के प्रवरान्वित पाराशर गोत्रोत्पन्न ऋग्वेदी थे, जबकि
मल्लादी यजुर्वेदी थे. कन्नड़ देश में ऋग्वेद पाठ करने वाले बालकों को शिक्षा
प्रदान करने के लिए उत्तम गुरु नहीं था. इसलिए ताटंकपुर से वाजपेयी याजी
मायणाचार्युलू को निमंत्रित करके उन्हें हमेशा के वास्तव्य के लिए होयशाला ले जाया
गया. तबसे उन्हें होयशाला ब्राह्मण कहने लगे. इन्होंने ब्राह्मण वृत्ती तथा
क्षात्र वृत्ती का समान भाव से स्वीकार किया. सनातन धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने
अनेक कठिनाइयों का सामना किया. मायणाचार्युलू के दो पुत्र थे. माधवाचार्य एवँ सायणाचार्य.
ये दोनों महान पंडित थे. सायणाचार्य ने वेदों पर भाष्य की रचना की थी. माधवाचार्य
ने श्री महालक्ष्मी का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की. “विशेष कृपा
कटाक्ष” की याचना की. तब लक्ष्मी देवी बोलीं, “यह इस जन्म में साध्य नहीं है.” तब माधवाचार्य बोले, “माता! मैं संन्यास ले रहा हूँ और संन्यास का तात्पर्य मानव के दूसरे जन्म
से ही तो है.” तब देवी ने उन्हें इच्छित वर प्रदान किया. इस वर के प्रभाव से लोहे
को स्पर्श करते ही वह सोना बन जाता था. सन्यासाश्रम में माधवाचार्य का नाम था
विद्यारण्य स्वामी. उन्हें श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त था. उनकी तीसरी पीढ़ी
में संन्यास आश्रम की परम्परा के श्रीकृष्ण सरस्वती का जन्म होगा, जो श्रीपाद प्रभु के अगले अवतार, अर्थात् श्री नृसिंह सरस्वती अवतार में, उन्हें संन्यास दीक्षा देने वाले गुरु होंगे, ऐसी भविष्यवाणी की थी.
माधवाचार्य की भोग-लालसा की इच्छा नष्ट न होने के कारण वे अगली शताब्दी में
सायणाचार्य के वंश में गोविन्द दीक्षित नाम से जन्म लेंगे. तंजावुर प्रांत के
नहाराज के महामंत्री होंगे. उनकी कर्तव्यनिष्ठा की चारों और प्रशंसा होगी.
यह भविष्यवाणी श्रीपाद प्रभु का सत्य संकल्प ही तो थी. वे साधकों के अभीष्ट
पूर्ण करते. जो दत्तप्रभू के आश्रय में है, वह जिस देवता का अंश है, उससे कौन सा
कार्य किस प्रमाण में करवाना है, यह श्री
दत्त प्रभु ही निश्चित करते हैं. बालक ध्रुव ने कठोर तप करके श्री महाविष्णु को
प्रसन्न किया था. उन्होंने ध्रुव को पितृ वात्सल्य प्रदान किया.
श्री दत्त प्रभु सगुणतत्व के, निर्गुणतत्व
के, अतीत के आधार के परम तत्व हैं, चरम तत्व भी
वही हैं, आदितत्व भी वे ही हैं, आदि-अंत रहित तत्व वे ही हैं, यह सब अनुभव
से ही जानना होता है. शब्दों में यह विषय समझाया नही जा सकता. कोई कार्य पूर्ण
होगा अथवा नहीं, क्या किसी
और पद्धति से होगा – यह सब सामर्थ्य श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार का रहस्य है.”
श्रीपाद तत्व
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वयँ अपने घर में प्रतिष्ठापित कालाग्निशमन दत्तात्रेय
की आराधना किया करते थे. एक बार बापन्नाचार्युलु ने उनसे पूछा, “बेटा,
श्रीपाद! तू दत्तात्रेय है या दत्तात्रेय
का उपासक है?” श्रीपाद प्रभु फ़ौरन बोले, “जब मैं कहता हूँ कि मैं दत्तात्रेय हूँ, तब मैं दत्तात्रेय ही होता हूँ. जब मैं कहता हूँ कि दत्त-उपासक हूँ, तब मैं दत्तात्रेय का उपासक ही रहता हूँ. जब मैं कहता हूँ कि मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ
हूँ, तब मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ होता हूँ. जैसा
निश्चय मैं करता हूँ, वैसा ही
होता है. जिस बात की मैं कल्पना करता हूँ, वैसा ही घटित होता है. यही है मेरा तत्व.” नाना जी को यह सब बड़ा
आश्चर्यजनक प्रतीत हो रहा था. श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “आप और मैं एक ही है, अगले जन्म
में बिलकुल आप जैसे रूप में ही मैं अवतार लेने वाला हूँ. आपके ह्रदय में संन्यास
ग्रहण करने की तीव्र इच्छा है, परन्तु आप
इस जन्म में अथवा अगले जन्म में संन्यास ग्रहण करें, ऐसी मेरी इच्छा नहीं है. बिलकुल आप जैसे रूप में अवतार लेकर आपके कर्म
बंधन, वासना आदि का नाश करने का मेरा निश्चय है.” बालक श्रीपाद ने नानाजी के
भ्रूमध्य को स्पर्श किया. भ्रूमध्य कूटस्थ चैतन्य का स्थान है. उन्हें कुछ ही
क्षणों में हिमालय में निश्चल, तपस्यामग्न बाबाजी के दर्शन हुए. कुछ ही देर में वे
प्रयाग क्षेत्र में त्रिवेणी संगम में स्नान करते हुए दिखाई दिए, इसके उपरांत श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप के दर्शन हुए. वह स्वरूप
कुक्कुटेश्वर देवालय में प्रतिष्ठापित स्वयंभू दत्तात्रेय में विलीन हो गया. उनके
भीतर का अवधूत स्वरूप बाहर निकला. उन्हें बापन्नाचार्युलु की कन्या सौभाग्यवती
सुमति महारानी भिक्षा प्रदान करती हुई दिखाई दी. उस अवधूत ने श्रीपाद श्रीवल्लभ का
बाल्य रूप धारण किया और बापन्नाचार्य को वह नन्हें शिशु के रूप में सुमति महारानी
की गोद में सोये हुए दिखाई दिए. माता की गोद में सोया बालक देखते-देखते सोलह वर्ष
के युवक के रूप में परिवर्तित हो गया. उस युवक ने उनकी और देखते हुए बिल्कुल
बापन्नाचार्युलू के समान रूप धारण किया – यह मूर्ति सन्यासी की थी. दो नदियों के
संगम पर स्नान करके वे अपने शिष्यों सहित गर्दन ताने चल रहे थे. वह सन्यासी
बापन्नाचार्युलु की और देखकर बोला, “आप सोच रहे
हैं, कि मैं कौन हूँ. मुझे नृसिंह सरस्वति कहते
हैं. यह गन्धर्वपुर है.” इतना कहकर उन्होंने कुछ ही क्षणों में अपना वस्त्र नदी के
जल पर फैलाया और उस पर बैठकर श्री शैल्यम गए. वहाँ कर्दलीवन में उपस्थित
महापुरुषों, महायोगियों ने उन्हें साक्षात दंडवत किया. महाप्रभु इस वन में आयें, इस उद्देश्य से वे सब अनेक शतकों से तपस्या कर रहे थे. प्रभु के दर्शन से
वे धन्य हो गए थे. अनेक वर्षों की तपस्या के बाद वे कौपीनधारी वृद्ध के रूप में
दिखाई दिए. अपनी वही तेजस्वी दुष्टि उन्होंने बापन्नाचार्युलु पर टिका दी. आगे
बोले, “मेरे इस रूप को स्वामी समर्थ कहते हैं. कुछ
ही देर में उन्होंने प्राण त्याग दिए. उनकी प्राण-शक्ति वट वृक्ष में समा गई. उनकी
दिव्यात्मा श्री शैल्यम के मल्लिकार्जुन शिवलिंग में विलीन हो गई. उस महापवित्र
एवँ अत्यंत शक्तिमान शिवलिंग से घन गंभीर आवाज़ सुनाई दी, “हे बापन्नार्य! तू धन्य है. अनंत, कैवल्य ज्ञानस्वरूप, अविनाशी ऐसा मैं, तेरे एक क्रियाशक्ति योग के कारण सूर्य मंडल से शक्तिपात करके इस
ज्योतिर्लिंग में आकर्षित हो गया हूँ. इस ज्योतिर्लिंग में विलीन हुए सोलह हज़ार
दिव्य पुरुष सदा मेरी सेवा करते हैं. इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन हेतु आये हुए
भक्तों की ये दिव्य पुरुष भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति में सहायता करते हैं.
त्रिमूर्ति स्वरूप – मैं – श्रीपाद श्रीवल्लभ, नृसिंह सरस्वति तथा स्वामी समर्थ के रूपों में तुझ पर अनुग्रह करता हूँ.”
ऐसे शब्द बापन्नाचार्युलु को सुनाई दिए.
इस प्रसंग से बापन्नाचार्युलु स्तब्ध रह गए. उन्होंने अपने सामने तीन वर्ष
के बालक श्रीपाद को मुस्कुराते हुए देखा. जो अनुभव उन्हें हुए थे, वे दिव्य एवँ मधुर थे. उन्होंने बड़े प्रेम से बालक श्रीपाद को ह्रदय से लगा
लिया. वे दिव्य, तन्मय अवस्था में चले गए. न जाने इसी अवस्था में कितना समय बीत
गया. जब उन्होंने आंखें खोलीं तो अग्निहोत्र का समय हो गया था. वे अग्निहोत्र करने
के लिए उठे.
बापन्नाचार्युलु की अग्निहोत्र क्रिया भी अभिनव थी. आम तौर से शमी अथवा
पीपल की लकड़ी से अग्नि उत्पन्न करते हैं, परन्तु बापन्नाचार्युलु समिधा अग्निकुण्ड
में डालकर मंत्रोच्चारण से अग्नि उत्पन्न करते थे. अप्पल राजू शर्मा भी इसी प्रकार
अग्निहोत्र किया करते थे. उनके वंश में अग्नि पूजा होती थी. प्रज्वलित हुए
अग्निकुण्ड में उतर कर वे आहुति दिया करते. ऐसा विशेष उत्सवों के अवसर पर किया
करते थे. इस प्रकार अग्नि पूजा करते समय उनके शरीर को एवँ वस्त्रों को किसी भी
प्रकार की हानि नहीं पहुँचती थी. यह महद आश्चर्य की बात थी.
श्रीपाद
प्रभु की अघटित सामर्थ्य
बापन्नाचार्युलु ने उस दिन अग्निहोत्र के लिए
अनेक बार वेद मन्त्रों का पठन किया, परन्तु अग्नि प्रज्वलित ही नहीं हो रही थी. वे
पसीने से तर-बतर हो गए, मगर अग्नि प्रज्वलित नहीं हुई. बालक श्रीपाद ने
अपने नाना जी की यह दशा दूर से देखी. वे अग्निकुण्ड की और देखकर बोले, “हे अग्निदेव! मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ, नाना जी के देव
कार्य में विघ्न मत डालो.” अग्नि तत्काल प्रकट हो गई. बापन्नाचार्युलु ने कलश से पानी अग्निकुण्ड में डाला, परन्तु बुझने के स्थान पर ज्वालाएं और अधिक भड़क गईं. यह चमत्कार देखकर नाना जी भौंचक्के रह गए. श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी, मेरे अवतार लेने के पीछे कारण हैं आप, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और नरसिंह वर्मा. इसलिए आप और मेरे पिता वेंकटप्पय्या से अथवा नरसिंह वर्मा से धन की
अथवा किसी अन्य प्रकार की सहायता स्वीकार करेंगे तो वह दान नहीं कहलायेगी. उसी
प्रकार वह सहायता ग्रहण न करने पर दैव-द्रोह भी हो सकता है. इस सहायता को परमेश्वर
की कृपा समझें. मुझे जन्म देने वाली मातृमूर्ति सुमति महारानी केवल मल्लादी वंश की
ही नहीं, अपितु वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और वत्सवाई कुटुंब
की भी बेटी है, ऐसा समझें. यह मेरा आदेश है.”
जब श्रीपाद प्रभु यह सब कह रहे थे तब सुमति
महारानी और अप्पल राजू शर्मा वहाँ उपस्थित थे, साथ ही वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी और
नरसिंह वर्मा भी वहीं थे. इस समय श्रीपाद प्रभु ने कहा, “मेरी इच्छा के
बिना बापन्नाचार्युलु जैसे महान तपस्वी भी अग्नि का निर्माण नहीं कर सकते. जब मेरे
पिता अग्निकुण्ड में आते हैं, तब अग्नि अपना प्रताप दिखाती है. यदि मेरी
आज्ञा हो तो वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी भी निष्कांचन हो जायेंगे. अपार भूमि के स्वामी
नरसिंह वर्मा को खड़े होने लायक स्थान न मिलेगा, ऐसी उनकी अवस्था हो जायेगी. आप सब
मेरी इच्छा से ही इस अवस्था में हैं. मैं भिखारी को महाराजा तथा महाराजा को भिखारी
बना सकता हूँ. मेरी भक्ति करने वाले की हर इच्छा मैं पूरी कर सकता हूँ. परन्तु
इससे पूर्व मैं यह भी देखता हूँ कि वह मेरे दान को संभालने योग्य है भी अथवा नहीं,
अपने शक्ति सामर्थ्य का वह लोकहित के लिए ही उपयोग करता है अथवा नहीं, इस बात की
मैं परीक्षा लेता हूँ. जब मेरी इच्छा हो तो मैं आकाश का पृथ्वी में और पृथ्वी का
आकाश में रूपांतर कर सकता हूँ. जब बापन्नाचार्युलु कृतयुग में लाभाद महर्षि के रूप
में थे, तब उनका मंगल महर्षि नामक एक शिष्य था. वह जब दर्भ काट रहा था तब गलती से उसका हाथ
ज़ख़्मी हो गया और उसमें से खून बहने लगा. उस रक्त की एक गाँठ बनकर वह सुगन्धित
विभूति में परिवर्तित हो गया. उसके मन में गर्व उत्पन्न हुआ कि “अहा! मैंने कितनी
बड़ी सिद्धि प्राप्त कर ली है.” तभी वहाँ परम शिव प्रकट हुए. उन्होंने अपना हाथ
हिलाया. हिमालय में जैसे बर्फ गिरती है, उस प्रकार शिव के
हाथ से विभूति गिर रही थी. परम शिव बोले, “त्रेतायुग में
भारद्वाज ऋषि पीठिकापुर में सवितृकाठकायन् यज्ञ करने वाले हैं, उस महाचयन में जमा
होने वाली विभूति का केवल अंश मात्र ही तुम्हें दिखाया है.” इतनी बात सुनकर मंगल
महर्षि का गर्व दूर हो गया.”
सभी अवाक् होकर श्रीपाद प्रभु की बातें सुन रहे
थे. श्रीपाद प्रभु बोले, “इस पीठिकापुर में पैर रखना अनंत जन्मों के
पुण्य से संभव होता है. मेरे इस अवतार के समय आप सब का मेरे साथ होना, यह एक अवर्णनीय घटना है. मेरी शक्ति का अनुभव हो इसके लिए सर्वप्रथम आपको
उत्तम साधक बनना होगा, तभी मेरी शक्ति का, कारुण्य का, वात्सल्य का, रक्षण का, पाप विमोचन का
अनुभव प्राप्त कर सकेंगे. मेरी जन्मभूमि, बापन्नाचार्युलु
के इस घर में, मेरी चरण-पादुकाओं की स्थापना होगी. मैं
पीठिकापुरम् में प्रातःकाल के समय माता सुमति की गोद में दुग्ध प्राशन करूंगा,
दोपहर को माता मुझे दूध-चावल के साथ मधुर ग्रास खिलायेगी. रात्रि के समय माता
सुमति मुझे गोद में लेकर गेहूं के रवे का हलवा खिलायेगी. जब मैं पीठिकापुरम् में
रहूंगा, उसी समय नृसिंह सरस्वति के रूप में भी रहूँगा.
दोपहर को नियमित रूप से गंधर्वपुर में भिक्षा ग्रहण करूंगा. अंतर्दृष्टि रखने वाले
भक्तों को यह स्पष्ट रूप से नज़र आयेगा. मेरी जन्मभूमि में मेरी श्रीपादुकाओं की
स्थापना होने वाली है. महापुरुष, महायोगी एवँ सभी देशों से लोग हज़ारों की संख्या
में मेरे दरबार में दर्शन हेतु आयेंगे. वे “दत्त दिगंबरा, दत्त दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा, नृसिंह सरस्वति दत्त दिगंबरा” ऐसा घोष करते हुए तन्मय होकर नृत्य करेंगे.
काल पुरुष को जब मैं अनुमति दूँगा, उसी क्षण फ़ौरन न होने वाले कार्य हो जायेंगे.
मेरे नाम से एक महासंस्थान का निर्माण होगा. जैसे-जैसे मेरा प्रभाव बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे पीठिकापुरम् की महत्ता बढ़ेगी, बिक्री लायक कोई भी स्थान शेष नहीं
बचेगा, जिसे मुझे वहाँ बुलाना होगा, उन्हें मैं ज़बरदस्ती वहाँ ले आऊँगा. कितना भी बड़ा धनी अथवा योगी क्यों न हो, मेरी इच्छा के बिना वह पीठिकापुरम् में प्रवेष नहीं कर सकेगा, यह सत्य
जानिये. मेरे निजतत्व को समझ कर, जान कर प्रसन्न रहिये. यह क्षण फिर से लौटकर
नहीं आने वाला. सभी देवता शक्तियाँ मेरे ही स्वरूप में लीन हैं. यदि कोई मुझे
दक्षिणा समर्पित करे तो मैं उसे तुरंत उसका सौ गुना लौटाता हूँ. जो धर्म के विपरीत
जाकर धनार्जन नहीं करते, उनकी मनोकामना मैं पूर्ण करता हूँ. सत्कर्म
करने से मोह माया का नाश होता है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है.” श्रीपाद प्रभु
के इन अमृत वचनों को सुनकर सभी धन्य हो गए.
दूसरे दिन नरसिंह वर्मा अपनी घोड़ागाड़ी में
श्रीपाद प्रभु को अपना खेत एवँ ज़मीन दिखाने ले गए. वर्मा के पास काफी ज़मीन थी. उस
जमीन में अनेक प्रकार की फसलें होती थीं. परन्तु तुरई की बेल में फूल नहीं लगता
था. यदि आता भी, तो सूख जाता था. उसके स्थान पर फूल नहीं लगता था. यदि किसी बेल
में कभी फल आ भी जाए, तो वह इतना कड़वा होता कि खाया नहीं जाता था.
नरसिंह वर्मा ने यह बात श्रीपाद प्रभु को बताई. वे प्रसन्नता से बोले, “हमारे घर में सबको तुरई की दाल पसंद है. मुझे भी वह अच्छी लगती है.
प्राचीन काल में एक दत्तोपासक इस भूमि पर तप किया करता था. यह पवित्र भूमि मेरे, जो साक्षात दत्त का स्वरूप है, चरण स्पर्श के लिए तड़प रही थी. अपनी तड़प वह आप
तक इस प्रकार से पहुँचा रही थी. मैं इस भूमाता की इच्छा पूरी करूंगा. इस भूमि के
मेरा चरण स्पर्ष करते ही इसके भूमितत्व में परिवर्तन होगा. तब आपको यह भूमाता
स्वादिष्ट तुरई का फल देगी. नाना जी, आप निःसंकोच हमारे घर यहाँ की पकी हुई तुरई
भेजिए. घर के अन्य लोगों के साथ मैं भी उन्हें खाऊंगा.”
उस दिन से वहाँ प्रचुर मात्रा में तुरई होने लगी
– स्वादिष्ट एवँ उत्तम प्रकार की. श्रीपाद प्रभु घोड़ागाड़ी से उतर कर कुछ देर उस
भूमि पर घूमे. तभी वहाँ कुछ चंचु (वहाँ के आदिवासी) युवक एवँ युवतियां आये.
उन्होंने श्रीपाद प्रभु को बड़े श्रद्धा भाव से प्रणाम किया. उन्हें बालक श्रीपाद
के दिव्य मुखकमल के चारों और दिव्य कांति का तेजोवलय दिखाई दिया. तब श्रीपाद प्रभु
बोले, “नाना जी, ये सभी चंचु लोग
नरसिंह अवतार से संबंधित हैं. वे श्री महालक्ष्मी को बहन मानकर उसकी आराधना करते
हैं. आप नरसिंह स्वामी के भक्त हैं, यदि आप इनकी शरण में जायेंगे तो आपको नरसिंह
स्वामी के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होगा. नरसिंह वर्मा ने सोचा कि श्रीपाद मज़ाक
में यह सब कह रहे हैं. वे बोले, “अरे, चंचु युवकों.
क्या तुमने नरसिंह भगवान को देखा है, क्या उनका पता-ठिकाना मुझे बताओगे?” इस पर एक चंचु युवक बोला, “यह कौनसा कठिन काम है? जिसका सिंह का चेहरा, एवँ मनुष्य का शरीर है, ऐसा एक युवक इस
जंगल में घूमता रहता है. वह हमारी बहन चंचुलक्ष्मी से प्रेम करता है. हमारी छोटी
को भी वह अच्छा लगता है. हमने उनका विवाह करवा दिया है. अगर आप चाहें तो
चंचुलक्ष्मी तथा नरसिंह को आपके सामने लाकर खडा कर देते हैं. इतना कहकर वे चंचु
युवक एवँ युवतियां वहाँ से निकल गए. नरसिंह वर्मा आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे.
तभी रास्ते के बीच में एक युवक एवँ युवती उनकी और आते हुए दिखाई दिए. श्रीपाद
प्रभु ने सुब्बय्या श्रेष्ठी को निकट बुलाया और बोले, “वे दोनों जो इधर
आ रहे हैं, क्या आपको ज्ञात हैं, कौन हैं? वे दोनों हैं बिल्वमंगल एवँ चिंतामणि. कुछ लकडियाँ एकत्रित करके आग जलाओ.
हम देखेंगे मजेदार नज़ारा.” नरसिंह वर्मा को पसीना छूटने लगा. वे आने वाले
बिल्वमंगल और चिंतामणि ही थे. वे दोनों गुरुवायुर क्षेत्र में श्रीकृष्ण के दर्शन
करके लौट रहे थे, रास्ते में कुरूर अम्मा नामक महायोगिनी के दर्शन हुए. उसने बड़े
सहज भाव से उन्हें आशीर्वाद दिया, “श्रीपाद श्रीवल्लभ दर्शन प्राप्तिरस्तु!” उसके
आशीर्वाद के फलस्वरूप उनके ह्रदय में भक्ति और वैराग्य उत्पन्न हुए. मंगलगिरी के
नरसिंह स्वामी के दर्शन करके वे पीठिकापुरम् की ओर श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए
आ रहे थे. महायोगिनी के आशीर्वाद के प्रभाव से उन्हें यहीं पर श्रीपाद प्रभु के
दर्शन हो गए. जब लकडियाँ जल रही थीं, तो बिल्वमंगल और चिंतामणि को इतना कष्ट होने
लगा, मानो वे स्वयँ जल रहे हैं. कुछ देर पश्चात उनके
शरीरों से उन्हीं के समान दो काली आकृतियाँ बाहर आकर रोते हुए अग्नि में गिर पडीं
और भस्म हो गईं. इसके पश्चात उन दोनों की चेतना लौटी.
तभी चंचु युवक और युवतियां चंचुलक्ष्मी को लेकर
आए. नरसिंह प्रभु के हाथ पीछे की और बांधकर चंचु लोगों ने उन्हें श्रीपाद प्रभु के
सम्मुख खड़ा कर दिया था.
ऐसी अजीब घटनाएं इससे पूर्व किसी भी युग में
घटित नहीं हुई थीं.
श्रीपाद प्रभु के अवतार काल में अनेक लीलाएँ
हुईं जो चमत्कारपूर्ण एवँ अनाकलनीय हैं. श्रीपाद प्रभु ने नरसिंह स्वामी से प्रश्न
किया, “पूर्व काल के नरसिंह स्वामी तुम ही थे ना? यह चंचुलक्ष्मी तुम्हारी ही पत्नी है ना? हिरण्यकश्यप का
वध करके प्रहलाद की रक्षा करने वाले तुम ही हो ना? ” इस पर नरसिंह
भगवान ने तीन बार “हाँ” कहा. उसी समय चंचुलक्ष्मी और नरसिंह प्रभु ने ज्योति रूप
में श्रीपाद प्रभु के शरीर में प्रवेष किया. चंचु लोग अंतर्धान हो गए. बिल्वमंगल
महान भक्त बना. वही बाद में महर्षि बिल्वमंगल कहलाया. चिंतामणि महायोगिनी हुई.
नरसिंह वर्मा का वह गाँव जहाँ ये चित्र-विचित्र
एवँ अद्भुत घटनाएं घटित हुई थीं, “चित्रवाडा” नाम से जाना जाने लगा.
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम्
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – 12
कुलशेखर की कथा
श्री सुब्बय्या श्रेष्ठी अनेक नये-नये विषय बड़ी
सहजता से समझाते. उनके कथन को सुनकर आत्म विकास होता था. वे कहते कि श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु साक्षात वेंकटेश्वर स्वामी ही हैं. कलियुग में वे ही कल्कि-अवतार
धारण करेंगे. काल गणना के अनुसार कलियुग में साधारणत: चार लाख बत्तीस हज़ार वर्ष
हैं. परन्तु सान्ध्र सिन्धु वेद के अनुसार कलियुग के पाँच हज़ार वर्ष बीत जाने पर
एक सामान्य प्रलय होकर सत्ययुग की स्थापना होगी. इस सम्बन्ध में ब्राह्मणों द्वारा
बताई गई जानकारी श्रेष्ठी द्वारा कथन की गई जानकारी से भिन्न थी.
श्वास और आयु का
संबंध
कलियुग में कलि की अन्तर्दशा पाँच हज़ार वर्ष में
समाप्त हो जायेगी. इसके उपरांत थोड़ा सा कालखण्ड – संधिकाल रहेगा. इसके पश्चात
कलियुग में सत्ययुग की अन्तर्दशा प्रारंभ होगी. कलियुग में यद्यपि चार लाख बत्तीस
हज़ार वर्षों का कालखंड है, फिर भी अन्तर्दशा, सूक्ष्म दशा, विदशा इत्यादि का भी अस्तित्व होता है. यह विषय उन्हीं को समझ में आता है, जिन्हें योग शास्त्र का ज्ञान होता है.
ब्रह्म देव ने प्रत्येक व्यक्ति को एक सौ बीस
वर्षों की आयु प्रदान की है. परन्तु हर व्यक्ति एक सौ बीस वर्षों की आयु पूरी
करेगा, यह निश्चित नहीं है. एक सौ बीस वर्षों में
कितने श्वास-प्रश्वास कोई व्यक्ति सामान्यतया ले सकता है, उतने श्वास-प्रश्वास उसे दिए गए हैं. जिनका मन चंचल है, जो क्रोधी स्वभाव के हैं, जो शीघ्रता से दौड़–धूप करते हैं, जो सदा दुःखी एवँ उदास रहते हैं, जो दुष्टता का व्यवहार करते हैं, ऐसे लोग अपना श्वास-प्रश्वास अल्प समय में पूर्ण कर लेते हैं. सबसे कम गति
से श्वास-प्रश्वास लेने वाला कछुआ तीन सौ वर्षों तक जीवित रहता है. अत्यंत चंचल
स्वभाव वाले वानर अल्प काल ही जीवित रहते हैं. श्वास-प्रश्वास के दौरान इन्द्रियों
का अच्छी स्थिति में होना आवश्यक है. योगी पुरुष वायु का कुंभक निर्मित करके श्वास
शरीर के अंतर्गत भागों में भ्रमण करता रहे, ऐसी व्यवस्था
करते हैं. इसके फलस्वरूप कितने ही श्वास बच रहते हैं, और वे दीर्घ काल
तक जीवित रहते हैं. मनुष्य के शरीर में जीवाणु परिणाम क्रमानुसार बदलते रहते हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत के पारायण/ पठन
का फल
दस वर्ष पूर्व शरीर की जो अवस्था थी, वैसी आज नहीं रहती है. पुराने जीवाणुओं का स्थान नए जीवाणु लेते हैं. जिस
प्रकार नए शारीरिक भाग का जन्म होता है, उसी प्रकार
प्राण-शक्ति भी अनेक परिवर्तनों से गुज़रती है. जीवनदायक नई प्राण-शक्ति का निर्माण
होता है. रोगी, पुरानी, प्राण-शक्ति नष्ट होती है. इसी प्रकार मानसिक-शक्ति में भी अनेक परिवर्तन
होते हैं. पुराने विचार नष्ट होकर नए विचारों का जन्म होता है. नई मानसिक शक्ति
में दैवीशक्ति, दैवीकृपा प्राप्त करने की सामर्थ्य होती है, उसी मार्ग से मन, प्राण एवँ शरीर में भी परिवर्तन होने लगते हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत ग्रन्थ साक्षात परमेश्वर स्वरूप है. इस
ग्रन्थ के प्रत्येक अक्षर में सिद्धशक्ति, योगशक्ति अन्तर्निहित है. ऐसे ग्रंथों
का मानसिक, वाचिक अथवा मानस-वाचिक पठन करने से श्रीपाद
प्रभु का दिव्य मानस-चैतन्य आकर्षित होता है. ग्रन्थ का पठन (पारायण) करने वाले
भक्त के शारीरिक, मानसिक
प्राण, रोग, बाधा, कष्ट आदि से संबंधित समस्त स्पंदन श्रीपाद प्रभु के मानसिक चैतन्य
में विलीन हो जाते हैं. वहाँ वे शुद्ध होकर दिव्य, अनुग्रह युक्त स्पंदनों के रूप में साधक की ओर वापस लौटते है. ऐसी स्थिति
में साधक को इहलोक – परलोक सुख की प्राप्ति होती है.
सत्पुरुषों को दिए गए अन्नदान का फल
ग्रन्थ का पारायण करने के पश्चात कम से कम ग्यारह सत्पुरुषों को भोजन
करावें अथवा उसके लिए आवश्यक धन राशि दत्त क्षेत्र में दान करें सत्पुरुषों को
भोजन कराने से साधक को आयुष्य की प्राप्ति होती है. उसे कुछ और काल के लिए आवश्यक
भोजन एवँ अनाज किसी अव्यक्त रूप में प्राप्त होता है. इतना ही नहीं, सत्पुरुष के संतुष्ट होने पर शान्ति, पुष्टि, तुष्टि, ऐश्वर्य इत्यादि से संबंधित भोग, योग के
स्पंदन अव्यक्त रूप में उत्पन्न होते हैं. कालान्तर से इस अव्यक्त अवस्था के बीज
व्यक्त स्थिति में अंकुरित होकर महावृक्ष के रूप में विराजमान होते हैं. वनवास में
स्थित द्रौपदी से अन्न का एक कण स्वीकार करके श्रीकृष्ण भगवान ने दुर्वासा महर्षि
एवँ उनके दस हज़ार शिष्यों के पेट भर दिए थे. श्री गुरु को श्रद्धाभाव से समर्पित
होकर अव्यक्त रूप से बीजावस्था में स्थित ये कण कालान्तर में व्यक्त रूप से प्रकट
होकर साधक को मनोवांछित भोग-भाग्य के प्रसाद के रूप में प्राप्त होते हैं.
संदीपनी ऋषि के आश्रम में जब श्रीकृष्ण एवँ सुदामा विद्याध्ययन करने के लिए
रहते थे , तब एक बार वे दोनों दर्भ लाने के लिए वन में गए. थक जाने के कारण
श्रीकृष्ण कुछ देर के लिए सुदामा की गोद में सिर रखकर सो गए. सुदामा को भूख
लगी थी. गुरुमाता ने दोनों के लिए थोड़े से
पोहे (चुड़वा) दिए थे. श्रीकृष्ण को कुछ भी बताये बिना सुदामा अकेले ही पोहे खाने
लगा. नींद का नाटक किये हुए श्रीकृष्ण नींद से जागते हुए बोले, “सुदामा, भूख लगी है.
आश्रम से चलते समय गुरुमाता ने कुछ खाने को दिया था क्या?” सुदामा ने कहा, “नहीं.”
श्रीकृष्ण बोले, “मुझे ऐसा
प्रतीत हुआ, जैसे तुम कुछ खा रहे हो.” सुदामा बोले, “मैं विष्णु सहस्त्रनाम का जाप कर रहा हूँ.” श्रीकृष्ण बोले, “ओ हो! तो ऐसी बात है ! मुझे स्वप्न में ऐसा दिखाई दिया कि गुरुमाता ने हम
दोनों के लिए पोहे दिए हैं, और तुम मुझे
दिए बिना अकेले ही खा रहे हो.” इतने में सुदामा बोला, “श्रीकृष्ण! तुम थक गए हो ना? फिर दोपहर
के समय देखे हुए स्वप्न का कोई फल नहीं होता, ऐसा शास्त्रों का कथन है,” श्रीकृष्ण मुस्कुरा कर चुप रह गए.
कालान्तर में सुदामा निर्धन एवँ भाग्यहीन हो गया. उसने अपने कष्टों के
निवारण के लिए अनेकों बार विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया, परन्तु विशेष लाभ नहीं
हुआ. अंत में श्रीकृष्ण का उस पर अनुग्रह हुआ. श्रीकृष्ण ने सुदामा के पोहे खाए और
उसे विशेष राज वैभव का प्रसाद दिया. श्रीकृष्ण ने सुदामा की गोद में सिर रखकर कुछ
देर तक विश्राम किया था, उसक्र बदले में उन्होंने सुदामा को अपनी गोद में लिटाया, उसके पैर के कांटे निकाल कर उसके पैर दबाये. कर्म सूत्र कितनी गूढ़ता से
कार्य करता है यही प्रभु ने इस कार्य के द्वारा सूचित किया था.
मल्ल योद्धा
का गर्व हरण
श्रीपाद प्रभु जब चार वर्ष के थे तब पीठिकापुरम्
में मल्याल देश से एक मल्ल योद्धा आया. उसका नाम था कुलशेखर. वह सप्तगिरी बालाजी
का भक्त था. प्रत्येक राज्य के मल्ल योद्धाओं को पराजित करके पीठिकापुरम् आया.
पीठिकापुरम् के मल्ल योद्धाओं को पक्का मालूम था कि उन्हें कुलशेखर के हाथों से
मार खाकर अपमानित होना है. मगर इनमें से कुछ मल्ल योद्धाओं को श्रीपाद प्रभु पर
दृढ़ विश्वास था. वही इस संकट से उनकी रक्षा करेंगे, यह सोचकर वे बड़ी
श्रद्धा से श्रीपाद प्रभु की शरण में आये. श्रीपाद प्रभु ने उन्हें अभय वरदान
दिया.
पीठिकापुरम् में एक कुबड़ा युवक था. उसके आठ अंग
टेढ़े थे, वह बहुत निर्बल था, कुछ काम नहीं कर
सकता था, फिर भी श्रेष्ठी उसे तनख्वाह दे दिया करते. वह श्रीपाद प्रभु का भक्त था, और उनसे अपनी विकृति दूर करने की प्रार्थना किया करता था. श्रीपाद प्रभु ने
उस युवक, भीम को यह आश्वासन दिया था कि उचित समय आने पर
उसकी विकृति दूर करेंगे.
श्रीपाद प्रभु उन मल्लों से बोले, “अपना भीम है ना? कुलशेखर से मल्ल युद्ध के लिए वही योग्य है.
भीम अपने साथ है तो भय किस बात का?” भीम की भी श्रीपाद प्रभु पर अटल श्रद्धा थी.
भीम एवँ कुलाशेखर के बीच मल्ल युद्ध का आरंभ
हुआ. अनेक लोग इस अद्भुत् युद्ध को देखने के लिए उपस्थित थे. कुक्कुटेश्वर के
मंदिर के प्रांगण में मल्ल युद्ध आरंभ हुआ. कुलशेखर के हर वार से भीम का शरीर
अधिकाधिक बलवान हो रहा था. वह जिस स्थान पर भीम को मारता, उसी स्थान पर स्वयँ कुलशेखर को उतनी ही जोर की मार लगती. कुलशेखर थक गया.
भीम का कूबड़ नष्ट होकर वह बलवान हो गया. कुलशेखर श्रीपाद प्रभु की शरण में आया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “कुलशेखर, मानव शरीर पर एक सौ
आठ मर्म स्थान हैं, उन सबके बारे में तुझे ज्ञान है. भीम का केवल
मुझ पर विश्वास है. मैं ही उसका रक्षक हूँ – इसी बात का उसे ज्ञान है. तू अहंकार
से उन्मत्त हो गया है. आज से भीम की सारी दुर्बलता तुझे देता हूँ. अन्न-वस्त्र की
तुझे कमी नहीं रहेगी. तेरे शरीर की प्राणशक्ति लेकर भीम अत्यंत बलवान हो गया है.
तिरुपति में जो है, वह मैं ही हूँ.”
कुलशेखर को श्रीपाद प्रभु ने क्षणभर के लिए श्री
वेंकटेश्वर के रूप में दर्शन देकर कृतार्थ किया.
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अचिन्त्य हैं. उनकी
करुणा प्राप्त करना ही हमारे लिए एकमात्र मार्ग है.
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम्
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १३
आनन्द शर्मा की
कथा
शंकर भट्ट बोले, “मैं सुब्बय्या
श्रेष्ठी की अनुमति लेकर कुरवपुर की दिशा में चल पडा. रात के समय एक गाँव में आया.
भिक्षा के लिए किस घर में जाऊँ यह विचार कर रहा था. इसी मार्ग पर एक घर के सामने
ड्योढी में एक ब्राह्मण पड़ोसी से बातें करते दिखाई दिए. उनके नेत्रों में तेज था
और वे करुना से ओत-प्रोत थे. उन्होंने आदरपूर्वक मुझे घर के अन्दर बुलाकर भोजन
करवाया. भोजन होने के पश्चात वे कहने लगे, “मुझे आनन्द
शर्मा कहते हैं. मैं गायत्री मन्त्र का अनुष्ठान करता हूँ. कुछ ही देर पूर्व माता
गायत्री ने मुझे मेरी अंतर्दृष्टि में
दर्शन दिए और बोली, “एक दत्त भक्त आ रहा है. उसे भरपेट भोजन करवाओ.
दत्त प्रभु के दर्शनों का फल तुझे प्राप्त होगा. उनकी आज्ञानुसार आपके दर्शन करके
मैं कृतार्थ हुआ.”
इस पर मैं बोला, “मैं दत्त भक्त
ही हूँ. वर्त्तमान में श्री दत्त प्रभु भूलोक में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में
वास कर रहे हैं, यह सुनकर उनके दर्शनों के लिए मैं कुरवपुर जा रहा हूँ. मेरा नाम
शंकर भट्ट है. मैं कर्नाटकी ब्राह्मण हूँ.
कण्व मुनि आश्रम की कथा
मेरी बात सुनकर आनन्द शर्मा हँस पड़े और बोले, “मेरे पिता जी ने जब मेरा यज्ञोपवीत संस्कार किया, तब एक अवधूत आये थे. हमारे घर के सभी व्यक्तियों ने उनकी यथोचित सेवा की.
गायत्री अनुष्ठान के बारे में उन्होंने अनेक बातें बताईं. ‘पेंचलकोनं’ प्रदेश के
श्री नृसिंह स्वामी के दर्शन लेने का उन्होंने आदेश दिया. मेरे पिता मुझे
‘पेंचलकोनं’ लेकर गए. वहाँ श्री नृसिंह स्वामी का दर्शन करने के पश्चात वे
ध्यानस्थ हो गए. उनकी यह ध्यानावस्था प्रातःकाल से रात तक चली. मुझे डर लग रहा था
और भूख भी लग रही थी. किसी अपरिचित व्यक्ति ने मुझे भोजन लाकर दिया. वह महात्मा
मुझे लेकर दुर्गम जंगल से होते हुए एक पहाडी पर स्थित गुफा में गया और वहाँ
अंतर्धान हो गया. उस गुफा में एक वृद्ध तपस्वी बैठे थे. उनके नेत्र अग्नि के गोल
के समान लाल-लाल थे. एक सौ एक ऋषि उनकी सेवा कर रहे थे. वे वृद्ध तपस्वी स्वयँ
कण्व मुनि थे. यह उनकी तपोभूमि थी एवँ सेवा करने वाले उनके शिष्य थे. यद्यपि वे
युवा प्रतीत हो रहे थे, परन्तु उनकी
आयु हज़ारों वर्षों की थी. अवधूत रूप में श्री दत्त प्रभु के दर्शन करने के कारण वे
यहाँ पहुँच सके थे. मैं संदेहावस्था में था, मैं आश्चर्यचकित हो गया, मेरे मुख से
एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. मेरा शरीर कांपने लगा. तभी कण्व मुनि ने मुझसे कहा, “वर्त्तमान में श्री दत्त प्रभु पीठिकापुर में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप
में उपस्थित हैं. ‘हम पर कृपा दृष्टी डालें’, यह संदेश उन तक पहुँचा देना. तुम्हें शीघ्र ही श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की
चरण पादुकाओं के दर्शन हों.” ऐसा आशीर्वाद
देकर उन्होंने मेरे मस्तक पर अपना वरद हस्त रखा. मैं पल भर में अपने पिता के पास
पहुंच गया. उनकी समाधि समाप्त हो गई थी. इसके पश्चात हम अपने गाँव वापस आ गए. कण्व
ऋषि के आश्रम में प्राप्त अनुभव के बारे में मैंने अपने पिता को कुछ नहीं बताया.
यह भी नहीं बताया कि श्री दत्त प्रभु का नया अवतार पीठिकापुरम् में हुआ है.
राजमहेंद्री
के निकट पट्टसाचला पुण्यक्षेत्र
समय बीत रहा था. कण्व ऋषि के आशीर्वाद से मुझे ध्यानावस्था
में श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाओं के दर्शन होते रहते थे.
एक बार हमारे घर कुछ रिश्तेदार आए. उनकी इच्छा थी कि पुण्य नदी में स्नान
करके पुण्य क्षेत्र के दर्शन करें. उन रिश्तेदारों ने मेरे पिता से उनके साथ चलने
की प्रार्थना की. उन्होंने इस अनुरोध को मान लिया और मुझे भी इस यात्रा पर साथ ले
चले. राजमहेंद्री गोदावरी के तट पर स्थित एक अत्यंत पुण्य क्षेत्र है. राजमहेंद्री
के उत्तर में स्थित एक पहाडी पर कुछ ऋषि तपस्या कर रहे थे, कुछ अन्य ऋषि पूर्व
दिशा की ओर स्थित पहाडी पर तपस्या में रत थे. राजमहेंद्री से कुछ दूर स्थित
‘पट्टसाचला’ पुण्य क्षेत्र गोदावरी नदी के बीचोंबीच है. महाशिवरात्रि के शुभ अवसर
पर कुछ ऋषि ‘पट्टसाचला’ आते, तो कुछ अन्य
ऋषि राजमहेंद्री के कोटीलिंग क्षेत्र में वेदों का स्वस्ति-वाचन करते. ये ऋषि मध्य
भाग से होकर पूर्व दिशा से आते. पश्चिम, उत्तर और दक्षिण की और से आने वाले ऋषिगण
‘येदुरुपल्ली’ गाँव में एकत्रित होते. इस येदुरुपल्ली ग्राम के बिलकुल निकट स्थित
मुनीकूडली ग्राम में विश्राम करके परस्पर चर्चा करते. सौभाग्य से मैं अपने पिता के
साथ मुनीकूडली ग्राम के दर्शन कर सका. यह श्री दत्त प्रभु की लीला ही थी.
कलियुग में
श्री दत्तात्रेय का प्रथम अवतार – श्रीपाद श्रीवल्लभ
वहाँ एकत्रित ऋषिगण अत्यंत गहन विषयों पर, उदाहरणार्थ वेदान्त, योग शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र पर चर्चा कर रहे थे. इस चर्चा में भाग लेने वाले सभी
महर्षि इस बात की जोर शोर से घोषणा कर रहे थे कि श्रीपाद श्रीवल्लभ पीठिकापुर में
अवतरित हुए हैं. वे ही कलियुग के प्रथम अवतार हैं. जिन्हें उनके भौतिक स्वरूप के
दर्शन करना संभव नहीं जान पड़ता था, वे ध्यान की
प्रक्रिया द्वारा अपने-अपने ह्रदय में ही उनके दर्शन कर रहे थे. यह अवतार अत्यंत
शांतिमय है एवँ करुणारस से परिपूर्ण है, ऐसा वे कह
रहे थे.
मेरे पिता मुझे पीठिकापुरम् ले गए. हमारे साथ आये हुए पंडित गणों ने पादगया
तीर्थ में स्नान किया. तत्पश्चात कुक्कुटेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठापित देवताओं के
दर्शन करने के उपरांत उन्होंने वेद पठन किया. फिर वे श्री बापन्नाचार्युलु के घर
की और चले. श्री बापन्नाचार्युलु एवँ श्री अप्पल राजू शर्मा ने पंडितवृन्द के साथ
वेदों का स्वस्तिवाचन करके हमसे भेंट की. वह दृश्य अत्यंत मनोहारी था. ऐसे दिव्य
भव्य दृश्य को देखना पूर्व सुकृतों का ही फल था.
श्रीपाद
प्रभु के दिव्य मंगल स्वरूप का वर्णन
हम सब के लिए श्री बापन्नाचार्युलु ने भोजन की
उत्तम व्यवस्था की. उस समय बालक श्रीपाद की आयु पांच वर्ष से कम ही थी. सुकोमल, अल्प आयु का वह दिव्य शिशु अत्यंत तेजस्वी, वर्चस्वी, सुन्दर, आजानुबाहु था. उसके नेत्रों में अपरिमित करुणा
थी. जिसके स्वरूप का वर्णन करके वेद भी थक गए हैं, वहाँ मैं पामर उस
स्वरूप का क्या वर्णन करूँ. जब मैंने उनके श्री चरणों को स्पर्श करके नमस्कार किया
तब उन्होंने अपना अभय हस्त मेरे सिर पर रखा. जन्म जन्मान्तर से मेरा अनुग्रह तुझे
प्राप्त है. ‘अगले जन्म में वेंकटय्या नाम से अवधूत होकर निरताग्निहोत्री बनेगा.
अकाल के समय वर्षा करवाने की सामर्थ्य तुझे प्राप्त होगी,‘ ऐसा आशीर्वाद श्रीपाद
प्रभु ने मुझे दिया.
श्रीपाद प्रभु से प्राप्त गायत्री मन्त्र के
सर्वाक्षरों की महिमा
आनंद शर्मा बोले, “गायत्री की
शक्ति विश्वव्याप्त है. उससे संबंध स्थापित करने से सूक्ष्म प्रकृति स्वाधीन हो
जाती है. उसकी महिमा से भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक क्षेत्रों की संपत्ति प्राप्त हो सकती है. मानव शरीर में
असंख्य नाड़ियो का जाल फैला हुआ है, इनमें से
कुछ नाड़ियाँ, जो एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं, ‘ग्रंथि’ कहलाती हैं.
जाप-योग में जिसकी श्रद्धा होती है, उस साधक के
मंत्रोच्चारण से ये ग्रंथियां जागृत होकर उनकी सुप्त शक्तियाँ जागृत होती है.
ऊँ – इस अक्षर का उच्चार करने से मस्तक का भाग
प्रभावित होता है,
भूः -- इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं आंख के ऊपर
चार उँगलियों वाले माथे का भाग जागृत होता है.
भुवः -- इस अक्षर का उच्चार करने से भृकुटी के ऊपर
तीन उँगलियों का भाग प्रभावित होता है
स्वः -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिनी आंख के
ऊपर माथे का चार ऊंगलियों वाला भाग जागृत होता है
तत् -- इस अक्षर का उच्चार करने से आज्ञा चक्र में
स्थित ‘तापिनी’ ग्रंथी में
सुप्तावस्था में पडी हुई ‘साफल्य’ शक्ति जागृत
होती है
स -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिनी आंख में
स्थित ‘सफलता’ नामक ग्रंथि
में सुप्त रूप से विद्यमान ‘पराक्रम’ शक्ति
प्रभावित होती है
वि --- इस अक्षर का उच्चार करने से दाईं आंख की
‘विश्व’ ग्रंथि में स्थित ‘पालन’ शक्ति जागृत होती है
तु -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाएं कान में
स्थित ‘तुष्टि’ नामक ग्रंथि
की ‘मंगलकारी’ शक्ति प्रभावित होती है
र्व --- इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ कान में स्थित ‘वरदा’ ग्रंथि में विद्यमान ‘योग’ नामक शक्ति सिद्ध होती है.
रे --- इस अक्षर का उच्चार करने से नासिका के मूल
में स्थित ‘रेवती’ ग्रंथि की
‘प्रेम’ नामक शक्ति जागृत होती है
णि --- इस अक्षर का उच्चार करने से ऊपरी होंठ पर
स्थित ‘सूक्ष्म’ ग्रंथि की
सुप्त शक्ति ‘धन’ सांध्य
जागृत होती है.
यम् --- इस अक्षर का उच्चार करने से निचले होंठ पर स्थित ‘ज्ञान’ ग्रंथि की ‘तेज’ नामक शक्ति सिद्ध
होती है
भ --- इस अक्षर का उच्चार करने से कंठ स्थित ‘भग’ ग्रंथि की ‘रक्षणा’ शक्ति जागृत
होती है
र्गो -- इस अक्षर का उच्चार करने से कंठकूप में स्थित
‘गोमती’ नामक ग्रंथि की ‘बुद्धि’ शक्ति सिद्ध होती है
दे -- इस अक्षर का उच्चार करने से सीने के दायें
भाग के ऊपरी हिस्से में स्थित ‘देविका’ ग्रंथि’ की ‘दमन’ शक्ति
प्रभावित होती है
व -- इस अक्षर का उच्चार करने से सीने के बाएँ
भाग के ऊपरी हिस्से में स्थित ‘वाराही’ ग्रंथि की
‘निष्ठा’ शक्ति सिद्ध होती है
स्य --- इस अक्षर का उच्चार करने से पेट के ऊपरी भाग में (जहाँ पसलियाँ जुड़ी होती हैं) ‘सिंहिनी’ नामक ग्रंथि होती है, जिसकी ‘धारणा’ शक्ति प्रभावित
होती है
धी - इस अक्षर का उच्चार करने से यकृत में स्थित
‘ध्यान’ ग्रंथि की ‘प्राण’ शक्ति जागृत होती है
म - इस अक्षर का उच्चार करने से प्लीहा में स्थित
‘मर्यादा’ ग्रंथि की ‘संयम’ शक्ति जागृत होती है
हि - इस अक्षर का उच्चार करने से नाभि में स्थित
‘स्फुट’ ग्रंथि की ‘तपो’ शक्ति सिद्ध होती है
धी -- इस अक्षर का उच्चार करने से मेरूदंड के
निचले भाग में स्थित ‘मेधा’ ग्रंथि की ‘दूरदर्शिता’ शक्ति सिद्ध होती है.
यो -- इस अक्षर का उच्चार करने से दाईं भुजा में
स्थित ’योगमाया’ ग्रंथि की
‘अन्तर्निहित’ शक्ति जागृत
होती है
यो -- इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं भुजा में
स्थित ‘योगिनी’ ग्रंथि की
‘उत्पादन’ शक्ति जागृत होती है
नः --- इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ बाजू में
स्थित ‘धारिणी’ ग्रंथि की
‘सरसता’ शक्ति की सिद्धी होती है
प्र --- इस अक्षर का उच्चार करने से दाहिने बाजू के
टखने में ‘प्रभव’ ग्रंथि की
‘आदर्श’ नामक शक्ति जागृत होती है
चो - इस अक्षर का उच्चार करने से बाईं कलाई में
स्थित ‘उष्मा’ ग्रंथि की
‘साहस’ शक्ति जागृत होती है
द - इस अक्षर का उच्चार करने से बाएँ तलवे पर
स्थित ‘दृश्य’ नामक ग्रंथि
की ‘विवेक’ शक्ति जागृत होती है
यात्त् -- इस अक्षरद्वय का उच्चार करने से दाहिने तलवे
पर स्थित ‘निरंजन’ ग्रंथि की
‘सेवा’ शक्ति जागृत होती है.
इस प्रकार गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों का चौबीस ग्रंथियों और उनमें
निहित चौबीस प्रकार की शक्तियों से निकट का संबंध है.
‘नौ’ यह संख्या अपरिवर्तनीय है एवँ
ब्रह्मतत्व को सूचित करती है. ‘आठ’ की संख्या मायातत्व को सूचित करती है.
दो चपाती देव
लक्ष्मी’ इस वाक्य का विवरण
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु अपनी पसंद के घर से दो चपातियां स्वीकार किया करते
थे. वे “दो चपाती देव लक्ष्मी” कहने के स्थान पर “दो चौपाती देव लक्ष्मी” कहा करते
थे. “दो” अर्थात् दो की संख्या, चौ –
अर्थात् चार. “पतिदेव” इस शब्द में जगत्प्रभु परमात्मा की नौ संख्या सूचित होती
है. “लक्ष्मी” शब्द माया स्वरूप ऐसे – “आठ” इस संख्या की सूचना देता है. अतः २४९८
संख्या अद्भुत् संख्या मानी जाती है. वही गायत्री का स्वरूप है. परमात्मा स्वरूप
है. पराशक्ति भी वही है, यह सूचित
करने के लिए इन संख्याओं को श्रीपाद प्रभु इस प्रकार से जोड़ा करते थे. तब मैंने
कहा, “महाराज! गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों
के बारे में जो कुछ भी आपने बताया, उसका अल्पांश
मैं समझ पाया हूँ. ९ (नौ) का अंक परमात्मा स्वरूप है तथा ८ (आठ) का अंक माया
स्वरूप है, ऐसा आप कहते हैं, कृपया समझाएं.”
नवम् (नौ)
संख्या का विवरण
आनंद शर्मा बोले, “अरे, शंकर भट्ट! परमात्मा
विश्वातीत है. वह किसी भी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होता. “नौ” यह संख्या बड़ी
विचित्र है. ९ को १ से भाग दें, तो ९ ही प्राप्त होते हैं. ९ को २ से गुणा करें, तो १८ प्राप्त
होते हैं, १ एवँ ८ का योग ९ ही है. ९ को ३ से गुणा करें
तो २७ प्राप्त होते हैं, २ एवँ ७ का योग भी ९ ही है. इस प्रकार ९ को
किसी भी संख्या से गुणा करें तब भी प्राप्त संख्या के आंकड़ों का योग ९ ही होगा.
अतः “९” की संख्या ब्रह्मतत्व की और इशारा करती है.”
गायत्री मन्त्र का
विवरण
गायत्री मन्त्र कल्प वृक्ष के समान है. इसका ॐकार भूमि से ऊपर निकलता हुआ
अंकुर माना जाता है. ॐकार के उच्चार से परमेश्वर के प्रति निष्ठा व्यक्त होती है,
उसके अस्तित्व का ज्ञान होता है. यह अंकुर तीन शाखाओं – भू:, भुवः, स्वः – के रूप
में फैलता है. “भू:” आत्मज्ञान प्राप्ति में सहायक है; “भुवः” यह सुझाता है कि शरीर धारण करने के
पश्चात जीव को कौन से कर्मयोग का अनुसरण करना है. “स्वः” समस्त दुविधाओं को समाप्त
कर समाधि स्थिति प्राप्त करने में सहायता करता है.
“भू:” – इस शाखा से “तत् सवितुः वरेण्यम्” ये उपशाखाएं निकलीं। शरीर धारण करने
वाले को जीव का ज्ञान करवाने में “तत्” उपयोगी है. शक्ति प्राप्त करने के लिए
“सवितु:” की सहायता प्राप्त होती है. “वरेण्यम्” मानव को जंतु स्थिति से दिव्य
स्थिति तक ले जाने में सहायता करता है.
““भुवः” इस शाखा से “भर्गो, देवस्य, धीमही” ये तीन
उपशाखाएँ उत्पन्न हुईं. “भर्गो” निर्मलत्व की वृद्धि करता है; “देवस्य” केवल देवताओं के लिए ही जो साध्य है, ऐसी दिव्य दृष्टी प्रदान
करता है. “धीमही” से सद्गुणों की वृद्धि होती है.
“स्वः” शाखा से उत्पन्न “धियो” से विवेक; ‘योनः” से संयम; “प्रचोदयात्” से समस्त जीव सृष्टि का सेवाभाव वृद्धिंगत होता है.
अतः गायत्री कल्पवृक्ष की तीन शाखाएं हैं,
प्रत्येक शाखा की तीन-तीन उपशाखाएं हैं. समझ गए ना? इसलिए २४९८ यह
संख्या श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की और इशारा करती है. इस संख्या के “९” का विवरण
तुम्हें बताया.
अष्टम (८) संख्या का विवरण
“आठ” – यह संख्या मायास्वरूप है. यह अनघा माता का तत्व है. ८ को १ से गुणा
करें तो ८ ही प्राप्त होते हैं. यदि इसे २ से गुणा करें तो प्राप्त होते हैं – १६, जिसके अंकों का योग है – ७, जो ८ से कम है. ८ को ३ से गुणा करने पर २४
प्राप्त होंगे, जिसके अंकों का योग है – ६. यह ७ से कम है. इस
प्रकार सृष्टि की समस्त जीव राशि की शक्ति हराने की सामर्थ्य जगन्माता में है. कोई
कितना भी बड़ा हो, उसे छोटा कर दिखाने की सामर्थ्य माया में है.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु गायत्री माता स्वरूप हैं, वे अनघा देवी के समेत श्री दत्त
प्रभु हैं. उनकी काया, वाचा, मनसा, कर्मणा प्रकार से आराधना करने से सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं.
गायत्री माता के भीतर प्रात:काल में हंसारूढ
ब्राह्मी शक्ति का वास होता है. मध्याह्न समय में गरुडारूढ़ वैष्णवी शक्ति एवँ
संध्या समय में वृषभारूढ़ शाम्भवी शक्ति का वास होता है. गायत्री मन्त्र की
अधिष्ठात्री देवता सविता है. त्रेतायुग में श्री पीठिकापुरम् में भारद्वाज महर्षि
ने सावित्र काठक यज्ञ किया था, जिसके फलस्वरूप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का अवतार
हुआ. सविता देवता प्रात:काल में ऋग्वेद स्वरूप में एवं रात में अथर्व वेद के रूप
में रहती हैं. हमारे नेत्रों को दिखाई देने वाला सूर्य केवल एक प्रतीक रूप है. जब
योगीजन महाउन्नत स्थिति को पहुँचते हैं, तब वे
त्रिकोणाकार महाजाज्वल्यमान ब्रह्म योनी के दर्शन कर सकते हैं. यहीं से कोटि-कोटि
ब्रह्माण्ड प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं, प्रतिक्षण उनका
संरक्षण होता है, प्रतिक्षण विनाश होता है. असंख्य खगोलों में
सुष्टि, स्थिति एवँ लय का निर्माण करने वाली शक्ति का
नाम “सावित्री” है. परन्तु फिर भी गायत्री एवँ सावित्री अभिन्न हैं. जीव की
आध्यात्मिक उन्नति गायत्री माता के अनुग्रह से होती है, इह लोक में सभी
सुखों का अनुभव लेने के लिए, परलोक की विमुक्त स्थिति के दिव्यानंद का अनुभव
प्राप्त करने के लिए दोनों का समन्वय होना आवश्यक है. श्रीपाद प्रभु के
चरणाश्रितों को इहलोक एवँ परलोक दोनों का लाभ होता है. अन्य देवताओं की तथा श्री
दत्तात्रेय की आराधना में यही अंतर है.”
आनंद शर्मा द्वारा मुझे दी गई जानकारी कितनी
अपूर्व थी! तब मैं (शंकर भट्ट) बोला, “ महाराज, आप धन्य हैं, श्रीपाद प्रभु जब नृसिंह सरस्वती का अवतार धारण करेंगे, उस समय आप उनके गुरू के रूप में उन्हें संन्यास दीक्षा प्रदान करेंगे. उस
जन्म में आप श्री कृष्ण सरस्वती नाम से संन्यास धर्म का आचरण कर रहे होंगे.”
इस पर आनंद शर्मा बोले, “भगवान का अवतार भक्तों के लिए ही होता है. वे मानव रूप धारण कर पृथ्वी पर
आते हैं और अपने आदर्श आचार से संपन्न जीवन से सभी मानवों को शिक्षा देते हैं. वे
स्वयँ सर्वज्ञ हैं, फिर भी गुरू का स्वीकार करके समाज को गुरू की आवश्यकता का
महत्त्व अपनी कृति से समझाते हैं. अवतारी पुरुष का गुरू होने की क्षमता कदाचित ही
किसी को प्राप्त होती है. अवतारी पुरुष का जन्म जिस वंश में होता है, उसकी पहले की अस्सी पीढ़ियाँ पुण्य का संचय कर चुकी होती हैं. उसी प्रकार जो
अवतारी पुरुष का गुरू होता है, उस व्यक्ति के वंश का भी परम पवित्र होना
आवश्यक है.”
“श्री बापन्नाचार्युलु एवँ सायणाचार्य के वंशों
के अनेक पीढ़ियों से संबंध थे. मल्लादी के यहाँ यदि पुत्री का जन्म होता तो वाजपेय
याजुलू के घर की बहू बनती और वाजपेय याजुलू के घर पुत्री का जन्म होता तो वह
मल्लादी के घर की पुत्र वधू बनाती, ऐसा वे मज़ाक में कहा करते. श्री
बापन्नाचार्युलु की पुत्री सकल सौभाग्यवती सुमति वाजपेय याजुलू के घर नहीं दी गई.
उसका विवाह विधि के विधान के अनुसार घण्डिकोटा अप्पल राजू शर्मा के साथ हुआ.
साक्षात् दत्तावतार ऐसे श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी ने अपनी माता के रक्त-संबंधी वाजपेय याजुलू का भी उद्धार किया. माधवाचार्य
के ह्रदय में श्रीपाद प्रभु के प्रति अत्यंत वात्सल्य का भाव था. ये ही आगे चलाकर
विद्यारण्य महर्षि हुए. उनके शिष्य मलयानंद, उनके शिष्य
देवतीर्थ, उनके शिष्य यादवेन्द्र सरस्वती और यादवेन्द्र
सरस्वती के शिष्य श्रीकृष्ण सरस्वती. विद्यारण्य महर्षि एवँ श्रीकृष्ण सरस्वती के
मध्य गुरु-शिष्यों की तीन पीढियां होंगी, श्री विद्यारण्य
ही श्रीकृष्ण सरस्वती के रूप में अवतार लेंगे, और वे श्रीपाद
स्वामी के अगले अवतार में उनका गुरुपद सुशोभित करेंगे.
श्रीपाद प्रभु नित्य सत्य वचन बोला करते. उनका
कहा हुआ प्रत्येक वाक्य सत्य होता. एक बार सुमति महारानी बालक श्रीपाद को स्नान
करवा रही थीं, तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी वहां आये. उन्हें
देखकर श्रीपाद प्रभु बोले, “क्या आपका गोत्र मार्कंडेय है?” श्रीपाद प्रभु के मीठे वचन सुनकर वे जवाब दिए बिना मुस्कुराए. वास्तव में
श्रीपाद प्रभु का गोत्र भारद्वाज था, श्रीपाद प्रभु ने सोचा कि वेंकटप्पय्या भी
उन्हीं के गोत्रज हैं. स्नान के पश्चात सुमति देवी ने घड़े का पानी उनके चारों और
घुमाकर फेंका और “मार्कंडेय के समान आयुष्मान हो” ऐसा आशीर्वाद दिया. मार्कंडेय की
आयु केवल सोलह वर्ष थी. आगे चलकर शिव के आशीर्वाद से वह चिरंजीवी हुआ. श्रीपाद
प्रभु सोलह वर्षों तक माता-पिता के साथ रहेंगे, यह वर्म उन्होंने
गूढ़ता से सुझाया था. सोलह वर्षों के पश्चात मार्कंडेय ने गृह त्याग किया था और वे
चिरंजीव हो गए थे. श्रीपाद प्रभु भी सोलह वर्षों तक माता-पिता के साथ रहे, तत्पश्चात वे जगद्गुरु हो गए. फिर यथासमय वे गुप्त हो गए. उनके शरीर को
चिरंजीवित्व प्राप्त हुआ. हम जिस स्वरूप में श्रीपाद प्रभु को देखते हैं, उसी स्वरूप में वे अत्री-अनुसूया के पुत्र के रूप में अवतरित हुए थे. ऐसा
उन्होंने अपनी बातों में अनेकों बार कहा था.
श्रीपाद प्रभु के विविध रूप
श्रीपाद प्रभु अपनी योग शक्ति को बहिर्मुख करके स्त्री रूप में दर्शन दिया
करते थे. साथ ही अपनी योगशक्ति के दर्शन भी साधकों को देते थे. यह सब कितना
अद्भुत् था! केवल श्री दत्तात्रेय भगवान ही कुण्डलिनी शक्ति को इस प्रकार बहिर्मुख
कर सकते थे. सोलह वर्षीय नवयौवन दंपत्ति रूप श्रीपाद प्रभु ने अपने माता-पिता, नरसिंह वर्मा एवँ उनकी पत्नी,
बापन्नाचार्युलु – राजमाम्बा,
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ उनकी पत्नी को अपनी अद्भुत् लीलाशक्ति का स्वरूप
दिखाया.
श्रीपाद प्रभु का विवाह सोलह वर्ष की आयु में किया जाए ऐसी उनके माता-पिता
की इच्छा थी, परन्तु उन्हें निराश ही होना पडा. श्रीपाद
प्रभु ने जब सुमती माता को अवधूत रूप में दर्शन दिए थे तब कहा था, “माता! तुम्हारा पुत्र सोलह वर्ष की आयु तक ही तुम्हारे पास रहेगा. उसके
विवाह का यदि निश्चय किया तो वह गृह त्याग करके चला जाएगा. अतः उसकी इच्छानुसार
बर्ताव करना होगा. श्री अनघा-दत्त आदिदाम्पत्य हैं. वे जन्म-मरण से परे हैं. वे
सदा लीला-विहार करते हैं. वे श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में, नृसिंह सरस्वती के रूप में, स्वामी
समर्थ के रूप में अर्धनारीश्वर रूप में रहेंगे.
मंडल काल अर्चना एवँ श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत के पठन का फल
श्रीपाद प्रभु का अवतार गणेश चतुर्थी के दिन हुआ, यह विशेष है. श्री गणेश
का पुत्र “लाभ” किसी युग में लाभाद महर्षि के नाम से प्रसिद्ध हुआ था. वही
श्रीकृष्ण अवतार में नन्द के रूप में जन्मा. श्री वासवी माता इस पृथ्वी पर
भास्कराचार्य के नाम से अवतरित हुईं. श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार काल में “लाभ” ने
उनके नानाजी के रूप में जन्म लिया था. अपने तत्व में विघ्ननाशक तत्व को स्थिर करके
श्रीपाद प्रभु ने अवतार लिया. जब वे अवतरित हुए, तब चित्रा नक्षत्र था. इस नक्षत्र
से सत्ताईसवां नक्षत्र (हस्त नक्षत्र) जब था, तब वे कुरवपुर में अद्रश्य हो गए. जन्म कुण्डली के हिसाब से २७ नक्षत्रों
में भ्रमण करने वाले नवग्रहों से उत्पन्न होने वाले अनिष्ट फल को दूर करने के लिए
श्रीपाद प्रभु के भक्त ‘मंडल’ दीक्षा ग्रहण करते हैं. एक मंडल में श्रद्धा-भक्ति
पूर्वक श्रीपाद प्रभु की अर्चना करने से अथवा उनके दिव्य चरित्र का पठन करने से
सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं. मन, बुद्धि, चित्त एवँ अहंकार एक एक दिशा में अपने स्पंदन तथा प्रकंपन छोड़ते हैं. उनके
ये प्रकम्पन चालीस विभिन्न दिशाओं में प्रसारित होते हैं. इन चालीस दिशाओं में
होने वाले प्रकम्पनों को रोक कर यदि श्रीपाद प्रभु की और मोड़ दिया जाए तो वे
श्रीपाद प्रभु के चैतन्य में विलीन हो जाते हैं. वहां उनमें आवश्यक परिवर्तन होकर, स्पंदनों में परिवर्तित होकर वे वापस साधक की ओर लौटते हैं. इसके पश्चात
साधक की धर्मानुकूल सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं.
“अरे, शंकर भट्ट! तू श्रीपाद प्रभु के चरित्र को
लेखनीबद्ध करेगा, ऐसा
अंतर्दुष्टि से ज्ञात हुआ है. आम तौर से पारायण ग्रन्थ में लेखक की वंशावली. इच्छा
न होते हुए भी रचे गए स्तोत्र आदि सम्मिलित होते हैं. तू जो प्रभु चरित्र लिखेगा, उसमें तेरी वंशावली की आवश्यकता नहीं है. श्रीपाद प्रभु का ध्यान करके, अपनी अंतर्दृष्टि के सम्मुख श्रीपाद प्रभु को पाते हुए. सबको सरलता से समझ
में आये, इस प्रकार से जब रचना करेगा, तब श्रीपाद प्रभु का चैतन्य तेरी लेखनी के माध्यम से जो कुछ भी व्यक्त
करेगा, वही सत्य होगा. इस प्रकार आत्मस्फूर्ती से
जो ग्रन्थ लिखा जाता है, अथवा जिन
मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है, उनका
छंदबद्ध होना आवश्यक नहीं है, किन्हीं
महान भक्तों को देवता का साक्षात्कार होता है एवँ उन्हें अपनी स्थानीय भाषा में
प्रार्थना स्तोत्रों को रचने की स्फूर्ति प्राप्त होती है. इन प्रार्थना स्तोत्रों
का छंदबद्ध होना अथवा व्याकरण की दृष्टी से सही होना ज़रूरी नहीं है. भक्त जो
प्रार्थना पद गाते हैं, उनमें
परमेश्वर द्वारा संतुष्ट होकर दिया गया वरदान होता है, अतः उनमें परमेश्वर की अनुग्रह शक्ति होती है. इन स्तोत्रों का पठन करने
से हमारा चैतन्य तत्काल प्रभु के चैतन्य से सामीप्य प्राप्त करता है. परमेश्वर को
भावना प्रिय होती है - भाषा नहीं. भावना शाश्वत शक्ति है.
श्रीपाद प्रभु की मल्लादी, वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी तथा वत्सवाई परिवारों से अत्यंत निकटता थी. एक बार
किसी त्यौहार के अवसर पर वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने अप्पल राजू दंपत्ति को अपने घर
निमंत्रित किया था. उस दिन श्रेष्ठी बड़े चिंतामग्न प्रतीत हो रहे थे. इसके पीछे
वैसा ही गंभीर कारण था. पीठिकापुरम् के एक प्रसिद्ध ज्योतिषी ने श्रेष्ठी की
मृत्यु का समय, दिन, तारीख, तिथि – सब
कुछ बताया था. उनका ज्योतिष कभी भी झूठा नहीं होता था. श्रेष्ठी की चिंता का कारण
यही था. उस ज्योतिषी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि उसका भविष्य झूठा निकलेगा, तो वह सिर मुंडवा कर, गधे पर बैठकर पूरे गांव में घूमेगा.
अपमृत्यु टालने के लिए अप्पल राजू शर्मा ने कालाग्निशमन दत्तात्रेय की पूजा
करके श्रेष्ठी को पूजा का प्रसाद लाकर दिया. कुछ ही देर में सुमति महारानी ज़री के
वस्त्र परिधान कर बालक श्रीपाद को लिए श्रेष्ठी के घर आईं. तभी श्रेष्ठी के ह्रदय
में असह्य वेदना होने लगी, वे जोर से
“माँ” कहकर चिल्लाए. सुमति महारानी भागकर उनके निकट गईं, दिव्य मंगल स्वरूप की उस साध्वी ने अपने दिव्य हस्त से श्रेष्ठी के ह्रदय
को स्पर्श किया, तभी बालक
श्रीपाद ज़ोर से चिल्लाए, “ जाओ!”
श्रेष्ठी के घर में एक बैल था, उसने कुछ ही
क्षणों में तड़फड़ाते हुए प्राण त्याग दिए और श्रेष्ठी बच गए. यह वार्ता मालूम होते
ही वह ज्योतिषी दौड़ते हुए श्रेष्ठी के घर आया. उसे इस बात का दुःख हुआ कि उसकी
भविष्यवाणी झूठी निकली.
श्रीपाद प्रभु उस ज्योतिषी से बोले, “तूने ज्योतिष शास्त्र का गहन अध्ययन किया है, परन्तु सब ज्योतियों की ज्योति, जो मैं हूँ, उसके उपस्थित रहते श्रेष्ठी को मृत्यु का भय कैसा? तुझे सिर मुंडवा कर, गधे पर बैठकर घूमने की आवश्यकता नहीं. तुझे
पश्चात्ताप हुआ है – यही पर्याप्त है. जब तेरे पिता जीवित थे, तब उन्होंने श्रेष्ठी से कर्ज़ लिया था. उसे उन्होंने वापस तो किया नहीं, उल्टे गायत्री की झूठी शपथ लेकर कहा कि वे क़र्ज़ लौटा चुके हैं. उस पाप
कर्म के फलस्वरूप उन्हें श्रेष्ठी के घर बैल का जन्म लेना पडा. हीन योनि प्राप्त
तेरे पिता को मैंने उत्तम जन्म प्राप्त करने का प्रसाद दिया. श्रेष्ठी की अपमृत्यु
के फल को बैल की और मोड़ दिया. तू इस बैल का दहन संस्कार करके अन्न दान कर. तेरे
पिता के पाप कर्म का फल नष्ट होकर उन्हें उत्तम जन्म प्राप्त होगा.” उस ज्योतिषी
ने श्रीपाद प्रभु की आज्ञा का पालन किया.
श्रीपाद प्रभु अनेक प्रकार से प्राणों की रक्षा कर सकते हैं. श्रीपाद प्रभु
योग सम्पन्न अवतार हैं. उनके लिए कुछ भी असाध्य नहीं है. उच्छ्वास, निश्वास की गति
का विच्छेदन करके मुक्ति प्राप्त करना आसान है. क्रिया योगी अपनी प्राण शक्ति को
आज्ञा चक्र, विशुद्ध अनाहत, मणीपुर, स्वाधिष्ठान
एवँ मूलाधार चक्रों में ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ले जाते हैं. इस एक बार की
क्रिया के लिए जितना समय आवश्यक है, वह एक वर्ष
में होने वाले आध्यात्मिक विकास जितना होता है. यदि रात-दिन के एक तिहाई समय में
एक हज़ार ऐसी क्रियाएँ की जाएं, तो केवल तीन
वर्षों में प्रकृति द्वारा दस लाख वर्षों में किया जाने वाला परिणाम दिखाई देता
है.
आनंद शर्मा की अच्छी बातें सुनकर मुझे बहुत कुछ ज्ञात हुआ. प्रात:काल का
आह्निक समाप्त करके मैंने श्री आनंद शर्मा से बिदा ली और श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
के दर्शन हेतु कुरवपुर की और चल पडा.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम् शरणम् प्रपद्ये।।
अध्याय १४
दत्त दासों
को अभय प्रदान
मैं (शंकर भट्ट) थोड़े दिनों की यात्रा के पश्चात “मुन्ताकल्लू” गाँव में
पहुँचा. रास्ता चलते लोगों से पूछा तो ज्ञात हुआ कि कुछ और दिनों के पश्चात
कुरवपुर पहुँचूंगा. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के सगुण स्वरूप को देखने की मन में
ललक थी. जिस रास्ते से मैं जा रहा था, उसी पर एक
व्यक्ति हाथ में ताड़ी का पात्र लिए चल रहा था. उस ताड़ी की बदबू मुझसे बर्दाश्त
नहीं हो रही थी. उसे टालने के लिए मैं श्रीपाद प्रभु का स्मरण करते हुए तेज़ी से
आगे बढ़ा जा रहा था. वह व्यक्ति भी अपनी चाल तेज़ करके मेरे निकट पहुँचा. उसने पूछा, “जब मैं तुम्हारे निकट आ रहा हूँ, तो तेरा इस तरह से दूर जाना क्या उचित है?”
मैंने पूछा, “ऐ! तू कौन
है? मुझसे तुझे क्या काम है?”
इस पर वह जोर से हंसा, उसके मुंह
से ताड़ी की तेज़ बू आई. “मैं कौन हूँ, यह जानने से पहले यह बता कि तू कौन है? कहाँ से आया? कहाँ जा रहा
है?” शायद ताड़ी बेचने वाले भी वेदान्त विषय पर
इतना अच्छा बोल सकते हैं.
उसने रास्ते पर चलने वाले लोगों को आवाज़ दे-देकर इकट्ठा कर लिया. काफी लोग
जमा हो गए. ताड़ी वाला उनसे बोला, “मैं यहाँ
ताड़ी बेचता हूँ. धर्म का अनुसरण करके जीवन यापन करता हूँ. ताड़ी का पेड़ ही मेरे लिए
कल्पवृक्ष के समान है. जब तक मैं पेड़ पर चढ़कर ताड़ी नीचे लाया, यह ब्राह्मण मेरी राह देखते हुए खडा रहा. “मैं ब्राह्मण होकर भी मुझे ताड़ी
पीने की आदत है. परन्तु मेरे पास तुम्हें देने के लिए पैसे नहीं हैं. थोड़ी ताड़ी
देकर पुण्य प्राप्त करो,” ऐसा इसने
कहा. मैंने “ना” कहा. परन्तु जब मैं इसे ताड़ी देने के लिए तैयार हो गया, तो रास्ते
पर लोगों का आना-जाना बढ़ गया था. लोगों के सामने ताड़ी पीने से ब्राह्मणत्व को दोष
लगेगा, ऐसा विचार कर, अब यह मना कर रहा है. अब वचन भंग का दोष लगकर मैं महापापी हो जाऊँगा.
वास्तव में देखा जाए तो मेरे कुल के लिए यह एक महान अवसर है. इस अमूल्य ताड़ी को
ब्राह्मण को देने से मुझे बड़े पुण्य की प्राप्ति होगी, मेरी इस आशा पर इसने पानी फेर दिया है. पूज्य लोगों, आप इस ब्राह्मण को धर्मोपदेश दें और मेरी इस पाप से रक्षा करें”
वहाँ एकत्रित हुए सारे लोग ताड़ी बेचने वाले गौड़ लोग ही थे. उन्होंने ताड़ी
वाले की बात का समर्थन किया और उस ताड़ी वाले ने मुझे ज़बरदस्ती ताड़ी पिला दी. इसके
पश्चात सब लोग चले गए. मैं बहुत दुखी हो गया. उत्तम ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर
अत्यंत नीच, ऐसी ताड़ी का मैंने प्राशन कर लिया. मेरा
ब्राह्मणत्व नष्ट हो गया. अब मैं परम पवित्र श्रीपाद प्रभु के मुखकमल का दर्शन
कैसे करूँ? सत्यानाश हो गया मेरे कर्म का, मेरे भाग्य का. विधि ने यही लिखा था मेरे ललाट पर, तो कुछ अन्य कैसे होता?
मेरे पाँव लड़खड़ाने लगे. मुँह से तीव्र बदबू आ रही थी. नसीब को कोसते हुए, श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करते हुए मैं चलने लगा.
मार्ग में एक तपोभूमि दिखाई दी. वहाँ कोई महात्मा वास करते थे. इस पवित्र
भूमि पर पैर रखने में मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा था. मैं अपने रास्ते जा रहा था, इतने में पीछे से आवाज़ आई, “अरे, शंकर भट्ट! रुको. श्री दत्तानंद स्वामी ने तुम्हें आश्रम ले चलने की आज्ञा
दी है.” ईश्वर की लीला को देखकर मैं चकित रह गया. मुझे श्री दत्तानंद स्वामी के
सम्मुख लाकर खडा किया गया. करुणामय नेत्रों से मेरी और देखते हुए उन्होंने मुझे
शीघ्र स्नान करके आने को कहा. स्नान के पश्चात मुझे मधुर फल खाने को दिए. श्री
स्वामी ने मुझे निकट बुलाकर कहा, “अरे, शंकर भट्ट! दत्तात्रेय के नए अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ की तुझ पर कितनी
कृपा दृष्टी है. उन्होंने अपने अमृत हस्त से तुझे अमृत पिलाया. उन्हें तू गौड़ कुल
का ताड़ी बेचने वाला समझा, उनके दिए गए
अमृत को भ्रमवश ताड़ी समझ बैठा. कैसी है यह भ्रामकता!”
मुझे वह सारा प्रसंग याद आया. सभी प्रसंग एक के बाद एक नज़रों के सामने तैर
गए. इसके बाद मुझे ऐसा अनुभव हुआ, मानो अनंत चैतन्य
शक्ति महासागर की असंख्य लहरें मुझ से आ आकर टकरा रही हैं. इसा अनंत शक्ति में
मेरा अत्यंत हीन अहंकार नष्ट हो गया. “मैं” कौन हूँ , समझ में नहीं आ रहा था, समझ
में आ भी नहीं सकता था. एक दिव्य आनंद में मैं डूब गया था. मेरा सीमित “मैं” नष्ट
हो गया था और समूची सृष्टि स्वप्नवत्
प्रतीत हो रही थी.
तभी स्वामी जी ने मुझ पर मंगल जल
छिड़का. अपने दिव्य हस्त से पवित्र भस्म का मेरे माथे पर लेप किया. मैं प्रकृति के
आधीन हो गया. कुछ क्षणों तक मैं दिव्य आनंद का अनुभव ले रहा था. इसके पश्चात मेरे
प्रकृतिस्थ मन को यह आभास हुआ कि मैं स्थूल तत्व में फंसता जा रहा हूँ.
श्री स्वामी जी बोले, “पहले किसी
एक जन्म में तू गौड़ कुल में जन्मा था. ताड़ी का सेवन बहुत अधिक मात्रा में किया
करता था. तेरी ताड़ी पीने की इच्छा शेष रह गई. यदि श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह न होता
तो तुझे वह बुरी लत लग जाती और तू पतित हो जाता. तेरी कुण्डली में अनेक गंडांतर
(आपदाएं) हैं. परन्तु श्रीपाद प्रभु की अमृत दृष्टी से तुझे ज्ञान हुए बिना ही
उनका परिहार हो जाता है. श्री गुरू की महिमा का वर्णन कौन कर सकता है/ वेद भी
‘नेति, नेति’ कहकर मौन हो गए.”
इस पर मैंने कहा, “श्रीपाद
प्रभु हमेशा कहते हैं कि वे नृसिंह सरस्वती के रूप में अवतार लेने वाले हैं. उनकी
लीलाओं के पीछे जो गर्भित अर्थ है, उसे जानने
की इच्छा है.”
यह सुनकर स्वामी जी बोले, “वेद ऋषियों
के तत्ववेत्तापन का वह प्रमुख लक्षण है. अध्यात्म में निहित सत्यवचन अपने सरल
शब्दों में संतों ने कहे हैं. यही आत्मसत्य है. वास्तव में कर्मकाण्ड के अनुसार
व्याख्या करते हुए आत्मसत्य को ही सत्य, यज्ञ, जल,
अन्न आदि नामों से संबोधित किया गया है. इसी प्रकार से देखा जाए तो ‘सरस्वती’ शब्द का भी बड़ा वैशिष्ट्य है. सरस्वती नदी अन्तर्वाहिनी है. उसका वर्णन
करते समय उसे सत्य वाक्यों का बोध करने वाली, महार्णव को स्पष्ट करके चित्त को प्रकाशित करने वाली कहा गया है. श्री
गुरू से तात्पर्य है एक अनुपम प्रबोध शक्ति, प्रबोधिनी प्रवाह. उनकी सत्य वाणी चित्त को प्रकाशित करती है, उसी तरह परम सत्य एवँ अंतर्ज्ञान को हमारे भीतर स्थिर करती है. वेदों में
वर्णित “यज्ञ” – यह अंतः प्रवृत्ति का बाह्य प्रतीक है. यज्ञ द्वारा मानव ईश्वर को
वह अर्पण करता है, जो उसका
होता है. उसे प्रत्युपकार स्वरूप देवता गोधन, अश्व देते हैं. गोधन से तात्पर्य है तेज संपदा, अश्व से तात्पर्य है शक्ति संपदा. इस प्रकार देवता हमें तप शक्ति (प्रसाद)
देते हैं. वेदों में निहित ज्ञान अत्यंत गुप्त रखा गया है, जिससे उसे अत्यंत योग्य व्यक्ति ही समझ सकें.”
औदुम्बर
वृक्ष को दिया गया वरदान
नृसिंह
सरस्वती अवतार की विशेषता
श्री महाविष्णु हिरण्यकश्यपु का संहार करने के
लिए औदुम्बर (गूलर) वृक्ष के स्तम्भ से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए. उन्होंने
प्रह्लाद की रक्षा की हिरण्यकश्यपु के वध के पश्चात उसे राजसिंहासन पर बिठाया. कुछ
समय पश्चात उस टूटे हुए स्तम्भ से पत्ते निकलने लगे और फिर वही औदुम्बर के वृक्ष
में रूपांतरित हो गया. प्रह्लाद आश्चर्य चकित होकर उस औदुम्बर वृक्ष की पूजा करने
लगा. प्रह्लाद को एक बार औदुम्बर वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ अवस्था में बैठे श्री
दत्तात्रेय ने दर्शन दिए और उपदेश दिया. प्रह्लाद की द्वैत-सिद्धांत के प्रति
आसक्ति को देखते हुए श्री दत्तात्रेय ने कलियुग में “यतिवेष धारण करके तू दीन जनों
का उद्धार करेगा”, ऐसा उसे आशीर्वाद दिया. परम पवित्र औदुम्बर वृक्ष ने मनुष्य का
रूप धारण करके श्री दत्त प्रभु के चरणों पर गिर कर प्रार्थना की, कि उसे भी वरदान दें. तब श्री दत्तात्रेय बोले, “हर औदुम्बर
वृक्ष की जड़ में मैं सूक्ष्म रूप से वास करूंगा. तुझसे नरसिंह भगवान प्रकट हुए थे, अतः कलियुग में मैं नृसिंह सरस्वती का अवतार धारण करूंगा, यह मेरा वचन है.”
स्वामी की बातें सुनकर मैंने कहा, “महाराज, श्री
पीठिकापुरम् में श्रीपाद प्रभु के दर्शन प्राप्त करने के लिए और उनकी बाल लीलाएं
सुनने के लिए मन सदा लालायित रहता है.”
श्रीपाद प्रभु की अद्भुत् लीलाएं
स्वामी बोले, “बचपन में
मैं स्पष्ट रूप से बोल नहीं सकता था, तुतलाता था, इसलिए सभी लड़के मेरा मज़ाक उड़ाया करते. मुझे एक विचित्र बीमारी हुई. पाँच
वर्ष की आयु से वह बीमारी बढ़ने लगी. एक वर्ष बीतता तो यूँ प्रतीत होता, जैसे मेरी आयु दस वर्ष बढ़ गई हो. जब मैं दस वर्ष का हुआ तो पचास वर्ष की
आयु जैसे शारीरिक लक्षण दिखाई देने लगे, उस समय बापन्नाचार्युलु
पीठिकापुरम् में यज्ञ कर रहे थे. मेरे पिताजी
यज्ञ के लिए मुझे वहां ले गए थे. उस समय श्री प्रभु की आयु छः वर्ष से अधिक नहीं
थी. यज्ञ के लिए घी इकट्ठा करके रखा था, उसे एक वृद्ध ब्राह्मण की देखरेख में रखा
गया था. उस घी में से वह ब्राह्मण एक तिहाई भाग अपने घर में छुपाकर रखता और बचा
हुआ दो तिहाई भाग यज्ञ के लिए लाता. यज्ञ आरम्भ हुआ, परन्तु घी कुछ ही देर में
समाप्त होने लगा. उसी समय घी तैयार करना कठिन था. श्री बापन्नाचार्युलु ने सहेतुक
श्रीपाद प्रभु की और देखा, तब श्रीपाद
प्रभु बोले, “कुछ चोर मेरे धन का अपहरण करने की योजना
बना रहे हैं, परन्तु मैं उनके प्रयत्न सफल न होने दूंगा.
योग्य समय आने पर उन्हें दंड दूँगा. उसके घर उसकी पत्नी के साथ शनिदेव का वास हो, ऐसी आज्ञा करता हूँ.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने उस वृद्ध ब्राह्मण को
बुलाकर ताडपत्री पर यह लिखा, “माँ, गंगा! यज्ञ के लिए आवश्यक घृत प्रदान करें. तुम्हारा ऋण मेरे नानाजी
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी चुकाएंगे, यह श्रीपाद श्रीवल्लभ की आज्ञा है.” यह पत्र उन्होंने श्रेष्ठी को
दिखाया. श्रेष्ठी ने मान्य कर लिया. उस वृद्ध ब्राह्मण के साथ चार अन्य ब्राह्मण
पादगया तीर्थ पर गए. वह पत्र उन्होंने तीर्थ राज को अर्पण किया और अपने साथ जो
पात्र ले गए थे, उसमें तीर्थ
स्थल से जल भर लिया. वेद मन्त्रों का पठन करते हुए वे उस जल को यज्ञस्थल पर लाये.
वह जल सब के सामने घृत में परिवर्तित हो गया. उस घृत की आहुति से यज्ञ की पूर्णता
हुई. सभी जन प्रसन्न हो गए. वचन के अनुसार श्रेष्ठी ने उस पात्र में घी भरकर
तीर्थराज को समर्पित किया. उंडेलते समय घी का पानी हो गया था.
मेरे पिता ने मेरी बीमारी के बारे में श्रीपाद प्रभु को बताया. वे बोले, “थोड़ी देर रुकिए. रोग का निवारण हो जाएगा. तुतलापन समाप्त कर दूँगा. एक घर
जलने वाला है, उसके लिए
मुझे मुहूर्त निश्चित करना है.” प्रभु के वचन समझ से परे थे. तभी वह वृद्ध
ब्राह्मण वहाँ आया. घी चुराने से कोई हानि तो नहीं हुई, यह देखने के लिए वह आया था. कुछ हुआ भी हो तो श्रीपाद प्रभु के दर्शन से
सब शुद्ध ही होगा, ऐसा दृढ़
विश्वास उसके मन में था. श्रीपाद प्रभु ने उससे कहा, “दादा जी! आप मुहूर्त निकालने में पारंगत हैं. एक घर की परशुराम प्रीती
करनी है (उसे नष्ट करना है), उसके लिए उचित मुहूर्त बताएँ.” तब वह वृद्ध ब्राह्मण बोला, “गृह निर्माण के लिए, भूमि पूजन
के लिए तो मुहूर्त होते हैं, परन्तु गृह
दाह के लिए मुहूर्त नहीं होते.” श्रीपाद प्रभु बोले, “चोरी करने के लिए, गृह दाह
करने के लिए मुहूर्त कैसे नहीं होते?” वृद्ध
ब्राह्मण बोला, “ऐसे
मुहूर्तों के बारे में मैंने सुना नहीं है.” श्रीपाद प्रभु बोले, “कैसी शुभ वार्ता बताई आपने. परम पवित्र यज्ञ के लिए संगृहीत घृत एक धूर्त
ने चुरा लिया. अग्नि देवता अपनी भूख रोक नहीं सके. धर्मानुसार जो घी उन्हें मिलना
चाहिए था, वह न मिलने से वे घर को जलाकर अपनी भूख मिटा
रहे हैं. अग्नि देवता प्रसन्नता से नाच रहे हैं.”
श्रीपाद प्रभु की बात सुनकर उस वृद्ध ब्राह्मण का चेहरा काला पड़ गया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “तेरा घर
भस्म हो गया है. थोड़ी सी राख लेकर आ.” श्रीपाद प्रभु अनुग्रह करें तो वरदान देते
हैं, परन्तु यदि क्रोधित हो जाएँ तो नष्ट करते
हैं, यह बात उस ब्राह्मण को ज्ञात थी. उसने एक भी शब्द नहीं कहा और अपने भस्म हो
गए घर का भस्म लेकर आया. श्रीपाद प्रभु ने मुझे उस भस्म को पानी में मिलाकर पीने
की आज्ञा दी, और तीन दिनों तक ऐसा करने के लिए कहा. हम श्री बापन्नाचार्य के घर
तीन दिन रुके, और मैं वह
भस्मयुक्त पानी पीता रहा. मेरा तोतलापन पूरी तरह लुप्त हो गया, और मैं स्वस्थ्य हो गया. श्रीपाद प्रभु ने अपना दिव्य हस्त मेरे मस्तक पर
रखकर शक्तिपात करते हुए मुझे ज्ञान दान किया और बोले, “आज से तू दत्तानंद के नाम से प्रसिद्ध होगा. गृहस्थाश्रम स्वीकार करके
भक्तों का कल्याण करेगा. उन्हें धर्म बोध करवाएगा. तू और यह वृद्ध ब्राह्मण मिलकर
पिछले जन्म में व्यापार करते थे. व्यापार के दौरान वैमनस्य उत्पन्न होने से तुम
दोनों एक दूसरे को नष्ट कर देना चाहते थे. एक दिन तुमने इस वृद्ध ब्राह्मण को घर
बुलाया और प्रेम पूर्वक उसे खीर खिलाई. उस खीर में ज़हर मिलाया गया है, यह मालूम न होने के कारण उसने पूरी खीर खा ली और कुछ ही समय बाद प्राण
त्याग दिए. इस ब्राह्मण ने भी तेरे अनजाने में कुछ लोगों के द्वारा तेरे घर में आग
लगवा दी थी, और तेरा घर जल कर भस्म हो गया. तेरी पत्नी
उस आग में जलकर मर गई. घर लौटने पर सर्वनाश हुआ देखकर ह्रदयाघात से तेरी भी मृत्यु
हो गई. पिछले जन्म में विष का प्रयोग किया था, इसीलिए इस जन्म में तू ऐसी विचित्र व्याधि से ग्रस्त हुआ. इस ब्राह्मण ने
पिछले जन्म में तेरा घर जलाया था, इस जन्म में
इसका घर भी भस्म हो गया. यह लीला करके मैंने तुम दोनों को तुम्हारे कर्म बंधन से
मुक्त कर दिया.”
श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त करके मैं अपने घर लौटा. उनकी कृपा से
वेद-शास्त्र संपन्न पंडित बना. उस वृद्ध ब्राह्मण को नरसिंह वर्मा ने नया घर
बनवाकर दिया. श्रीपाद प्रभु की कृपा से हम दोनों के कर्म बंधन टूट गए, दोनों का हित हो गया. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अत्यंत दिव्य एवँ अगाध
हैं.”
दत्तानंद आगे बोले, “अरे, शंकर भट्ट! सभी देवता तेज से उत्पन्न हुए हैं. अदिति माता सभी देवताओं की
माता हैं. देवता ही मानव की प्रकृति एवँ विकास के लिए सहायक हैं. देवता मानव को
तेज प्रदान करते हैं, मानव की आत्मा पर दिव्य चैतन्य संपदा की वर्षा करते हैं. वे
सत्य के पोषक हैं, सत्य लोक के निर्माता हैं. मानव के संपूर्ण मोक्ष में, निर्मल आनंद में सहायक हैं.”
ब्राह्मण – भूलोक के देवता
सभी देवता मन्त्र स्वरूप हैं. यह
विश्व ईश्वराधीन है. इस प्रकार देवता मंत्राधीन हैं. मन्त्र सद्ब्राह्मणों के आधीन
हैं. अतः ब्राह्मण भूलोक में देवता समान हैं.
शब्द को पंचेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण कर सकते हैं. शब्दों का प्रयोग
मानव कुछ मूलभूत भावों, जैसे प्रकाश, स्पर्श, शीतोष्ण, विस्मृति, बल प्रयोग, गमन आदि को
व्यक्त करने के लिए करता है. जैसे जैसे भाषा की प्रगति होती है, वैसे वैसे क्रमशः भावों की विविधता, निश्चितता भी भाषा में बढ़ती है. फिर क्रमशः अस्पष्टता से निश्चित ऐसे
निश्चल तत्व की भौतिक से मानसिक अंश में , व्यक्त से अव्यक्त भावना में अभिव्यक्ति
- इस प्रकार भाषा की वृद्धि होती रहती है.
पवित्र
ग्रन्थ पठन विशेष फलदायी है
तुम्हारा श्रीपाद प्रभु के दिव्य चरित्र को
संस्कृत भाषा में लिखने का निश्चय बहुत प्रशंसनीय है. यह ग्रन्थ कालान्तर में
संस्कृत भाषा से तेलुगु भाषा में अनुवादित किया जाएगा. अनुवादित ग्रन्थ के पठन का
फल मूल ग्रन्थ के पठन के फल जैसा ही है. श्रीपाद प्रभु के चरित्र का कोई भी, कहीं भी पठन करे, श्रीपाद प्रभु स्वयं वहां सूक्ष्म रूप में
उपस्थित होकर उसका श्रवण करते हैं. इस संबंध में एक कथा सुनाता हूँ, ध्यान से सुनो.
श्रीपाद प्रभु जब सात वर्ष के हो गए, तब उनका वेदोक्त विधि से उपनयन संस्कार किया गया. उस काल में किसी संपन्न
घर में जब ऐसे आयोजन किये जाते थे, तो चारों और अत्यंत प्रसन्नता का वातावरण
निर्मित हो जाता था. बापन्नाचार्युलु के हर्ष का तो पारावार न था. उन्होंने अपने जाति बांधवों को श्री दत्त-चरित्र सुनने के लिए
बुलाया था. वे सब बड़ी उत्सुकता से श्री दत्तात्रेय-चरित्र को सुनने के लिए आये थे.
दत्तदास ने दत्त चरित्र का पठन आरम्भ किया. वे
कहने लगे, “पूर्व युग में अनुसूया तथा अत्री महर्षि – इस
परम पावन दंपत्ति को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. उसका नाम रखा गया –
दत्तात्रेय. वही परम् ज्योति दत्तात्रेय इस कलियुग में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप
में पीठिकापुरम् में अवतरित हुए हैं. उन महाप्रभु का उपनयन संस्कार आज संपन्न हुआ
है. उपनयन के पश्चात दिव्य तेजस्वी श्रीपाद प्रभु और भी अधिक तेजःपुंज प्रतीत होने
लगे. उन दीन जनों के उद्धारक श्री प्रभु का नित्य मंगल हो!”
यही कथा वे बार-बार कह रहे थे और श्रोता तन्मयता
से सुन रहे थे. इस प्रकार त्रेपन्न बार उन्होंने यह कथा कही. दत्त दास को श्रीपाद
प्रभु ने अपनी अमृत दृष्टि से देखा. उपनयन के पश्चात श्रीपाद प्रभु वहाँ उपस्थित
ब्राहमणों से बोले कि वे फ़ौरन मलदासरी के घर जायेंगे. जब उनसे कारण पूछा गया तो
उन्होंने कहा कि विशुद्ध अन्तःकरण वाला दत्त दास मेरे चरित्र का पठन कर रहा है.
उसके एक बार कथन किये गए कथाभाग को यदि एक अध्याय माना जाए तो त्रेपन्न अध्याय
पूरे हो चुके हैं. मेरे चरित्र के त्रेपन्न अध्यायों को पूरा करने वालों को जो फल
प्राप्त होता है वह उसे तुरंत देना है.”
श्रीपाद
प्रभु के भक्त-वात्सल्य को जाति-कुल का भेद नहीं
श्रीपाद प्रभु को दत्तदास के घर जाने की अनुमति
ब्राह्मणों ने नहीं दी. तब श्रीपाद प्रभु क्रोधित होकर बोले, “आप लोग किसी को भी पंचम कहकर, नीचा जाति के लोगों को क्रूरता से दबाकर
रखते हो, परन्तु उन पर मेरी अधिक कृपा दृष्टी रहने से
आगामी शताब्दी में वे उन्नत स्थिति में रहेंगे और तुम लोगों का ब्राह्मणत्व,
तुम्हारे अधिकार उनकी सेवक वृत्ति धारण करके धर्मभ्रष्ठ और कर्मभ्रष्ठ हो जायेंगे.
मेरे वचन को पत्थर की लकीर समझो, इसका एक भी अक्षर मिथ्या नहीं होगा. तुम
ब्राह्मणों में से जो लोग धर्माचरण करते हुए दत्त भक्ति में रत होकर अपना जीवन
व्यतीत करेंगे, उनकी मैं सतर्कता से रक्षा करूंगा.”
श्रीपाद प्रभु के माता-पिता ने उनके क्रोधावेश
को शांत करने का प्रयत्न किया. कुछ देर बाद वे शांत हो गए.
ठीक उसी समय दत्त दास के घर श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु ने अपने दिव्य मंगल स्वरूप में दर्शन दिए. उनके द्वारा प्रेम भाव से अर्पित
फलों को स्वीकार किया. उन्होंने जो दूध अर्पण किया उसका प्रेम पूर्वक सेवन किया.
उन्होंने सबको अपने दिव्य हस्त से मिठाई का प्रसाद दिया और दत्त दास के घर में
उपस्थित सभी को उन्होंने आशीर्वाद दिया.
“बेटा, शंकर भट्ट! देखा
भक्तों के प्रति श्रीपाद प्रभु का प्रेम! वे भावना से ही संतुष्ट हो जाते हैं.
उन्हें कुल, गोत्र, भौतिक परिस्थिती
से कोई मतलब नहीं. यदि नीच कुल का व्यक्ति भी तुम्हें दत्त प्रसाद दे तो भक्तिभाव
से उसे स्वीकार करो. यदि उसे अनदेखा करोगे या प्रसाद को अस्वीकार करोगे तो कष्टों
का सामना करना पडेगा..”
श्रीपाद प्रभु द्वारा भक्तों को दिए गए बारह
अभय वचन
१.
जिस स्थान पर मेरे चरित्र का पठन हो रहा होता है, वहाँ मैं सूक्ष्म रूप में उपस्थित रहता हूँ.
२.
काया, वाचा, मनसा रूप से जो साधक मेरे प्रति समर्पित हैं, उनकी मैं सदैव सतर्कता पूर्वक रक्षा करता हूँ.
३.
श्री पीठिकापुरम् में मैं प्रतिदिन मध्याह्न काल में आकर भिक्षा स्वीकार
करता हूँ. मेरा आना देवी-रहस्य है.
४.
जो निरंतर मेरा ध्यान करता है, उसके
अनेकानेक जन्मों के कर्मफल को मैं भस्म कर देता हूँ.
५.
अन्न ही परब्रह्म है – अन्नमोरामचन्द्राय. जो क्षुधितों को अन्न देता है, उस पर मैं प्रसन्न होता हूँ.
६.
मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ हूँ. मेरे भक्तों के घर में महालक्ष्मी अपनी संपूर्ण
कलाओं से प्रकाशित होती है.
७.
यदि तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध है, तो मेरी
कृपा सदैव तुम पर बनी रहेगी.
८.
तुम किसी भी देवता-स्वरूप की आराधना करोगे, किसी भी सद्गुरू की उपासना करोगे, वह मुझे ही प्राप्त होगी.
९.
तुम्हारी की हुई प्रार्थना मुझ तक ही पहुँचती है. मेरा आशीर्वाद तुम्हें
आराध्य देवता द्वारा, तुम्हारे
सद्गुरू द्वारा तुम्हें प्राप्त होता है.
१०. श्रीपाद श्रीवल्लभ केवल नाम रूप ही नहीं है.
सकल देवताओं के स्वरूपों, समस्त शक्तियों के सम्मलेन से मेरा विराट रूप बना है.
इसे तुम अनुष्ठान द्वारा ही समझ सकोगे.
११. श्रीपाद श्रीवल्लभ का अवतार मेरा संपूर्ण योग
अवतार है. जो महायोगी,
महासिद्धपुरुष नित्य मेरा ध्यान करते हैं, वे मेरे ही अंश हैं.
१२. यदि तुम मेरी आराधना करोगे, तो मैं तुम्हें धर्ममार्ग का, कर्ममार्ग
का ज्ञान देता हूँ. तुम पतित न हो जाओ, इसलिए मैं
सदैव तुम्हारी रक्षा करता हूँ.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १५
बंगारप्पा. सुन्दरराम शर्मा की कथा
मैंने श्री दत्तानंद से आज्ञा लेकर आगे की
यात्रा आरम्भ की. रास्ते में मुझे प्यास लगी और मैं निकट ही स्थित एक कुएँ के पास
गया. पानी निकालने के लिए वहाँ एक डोल भी था. मैंने कुएँ में यह देखने के लिए
झांका कि उसमें कितना पानी है. मुझे एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया. कुएँ के भीतर एक
टहनी को पकड़कर एक व्यक्ति ऊपर नीचे कुलांटे मार रहा था. उस अपरिचित व्यक्ति ने
स्नेहपूर्वक मेरी और देखा और बोला, “अरे, शंकर भट्ट!” मुझे
आश्चर्य हुआ कि उसे मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ. मैंने उत्सुकतावश उससे पूछा, “आपको मेरा नाम कैसे ज्ञात हुआ?” वह व्यक्ति बोला, “मैं न सिर्फ
तुम्हारा नाम जानता हूँ, बल्कि यह भी जानता हूँ, कि तू श्रीपाद प्रभु का भक्त है और उनके दर्शन के लिए कुरुगड्डी जा रहा है.
मैं तेरी ही राह देख रहा था.”
मैं यह सोच रहा था कि उसे कुएँ से बाहर कैसे
निकालूँ. मेरे पास जो रस्सी थी, वह मज़बूत नहीं थी. मेरे मन के भाव जानकर वह पुण्य
पुरुष बोला, “तू सांसारिक बंधनों में जकड़ा, संसार रूपी कुएँ
में पडा मानव मुझे क्या बाहर निकालेगा जो इस विचित्र योग-प्रक्रिया में निहित
आत्मानंद में मगन है? मैं स्वयँ ही बाहर आऊँगा. यदि मेरी शक्ति
अपर्याप्त होगी तो श्रीपाद प्रभु करुणापूर्वक अपना अनुग्रह करते हैं.”
इतना कहने के बाद पल भर में ही वह मेरे निकट खडा
था. मैं हैरान हो गया. वह बोला, “मेरा नाम बंगारप्पा है. लगता है कि तुझे प्यास
लगी है, मैं तेरी प्यास बुझाऊंगा.” ऐसा कहकर उसने डोल की सहायता से जल्दी-जल्दी
पानी निकाला और स्वयँ ही उसे पी गया. परन्तु आश्चर्य की बात यह थी कि पानी उसने
पिया, और प्यास मेरी बुझ गई. मैं विस्मित था. फिर हम
दोनों साथ-साथ आगे चल पड़े.
उसने कहना आरम्भ किया, “मैं सुनार हूँ. मैंने मन्त्र-तंत्र विद्या आत्मसात की थी. मेरे मन्त्रों
की सामर्थ्य से मैं अपने अप्रिय व्यक्ति को मार भी सकता था. भूत-प्रेत, पिशाचों के सहवास में भी मैं रह चुका था. मेरा नाम सुनकर लोग डर जाते थे.
जिस गाँव में मैं जाता, वहाँ मैं भूत-प्रेत के प्रयोग न करूँ, इसलिए लोग मुझे बहुत सारा धन देते. मेरे मुख से साधारण व्यक्ति के चहरे पर
रहने वाली प्रसन्नता लुप्त हो गई, और उस पर भूत-प्रेतों के विकृत भाव आ गए, चेहरा
अत्यंत क्रूर दिखाई देने लगा.
एक बार अपने पूर्व पुण्य के फलस्वरूप यात्रा
करते-करते पीठिकापुरम् पहुँचा. श्री दत्त प्रभु के अवतार से पवित्र हुए उस गाँव
में क्षुद्र कुतंत्र की, परस्पर कलह की कोई कमी नहीं थी. श्री
बापन्नाचार्युलु तथा श्रीपाद प्रभु के बारे में अनेक विचित्र बातें मैंने सुनी
थीं. मैंने सोचा कि सर्वप्रथम बापन्नाचार्युलु को मार डाला जाए. मैं एक झरने के
निकट जाकर चुल्लू भर-भरकर पानी पीने लगा. मनुष्यों को मारने की अनेक विद्याओं का
मुझे ज्ञान था, उनमें से एक यह थी कि जिस व्यक्ति का अंत करना हो, उसका ध्यान करके पानी पीने से पानी उस व्यक्ति के पेट में जाता था. मैं जब
उस झरने में से पानी पी रहा था तो श्रीपाद प्रभु बापन्नाचार्युलु के पास बैठे थे.
श्रीपाद प्रभु प्रेम पूर्वक बापन्नाचार्युलु के पेट पर हाथ फेरते और वह पानी तुरंत
उड जाता. मैं पानी पी-पीकर थक गया, परन्तु बापन्नाचार्युलु पर उसका कोई भी अनिष्ट परिणाम नहीं हुआ. वे सुरक्षित ही
रहे. मेरी विद्या फलीभूत नहीं हुई, इसका मुझे दुख हुआ.
श्रीपाद प्रभु ने क्षुद्रोपासक को दण्ड दिया
मुझे एक सर्प मन्त्र ज्ञात था. इस मन्त्र के प्रयोग से इच्छित व्यक्ति के
घर जाकर सर्प उसे दंश करता था. मैंने बापन्नाचार्युलु का ध्यान करके उस मन्त्र का
पाठ किया. अनेक सर्प बापन्नाचार्युलु के घर गए और उनके घर में एक बेल पर पडवल के
समान लटकने लगे. परन्तु वे बापन्नाचार्युलु का कुछ भी बिगाड़ न सके. दो मुहूर्त की
समयावधि समाप्त होने पर वे जहाँ से आये थे, वहीं लौट गए. मेरा दूसरा प्रयत्न भी निष्फल हो गया था. मेरे अधीनस्थ
भूत-प्रेत बापन्नाचार्युलु के घर के निकट भी नहीं जा सकते थे. मैं समझ गया कि यह
सब श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का चमत्कार है. मैंने स्मशान में जाकर श्रीपाद प्रभु
की आटे की मूर्ती बनाई और उसमें बत्तीस स्थानों पर सुईयां गडा दीं. इस मारण क्रिया
में श्रीपाद प्रभु के शरीर के बत्तीस स्थानों पर घाव हो जाएँ, वे सुईयां द्रवित होकर उनके शरीर में ज़हर बन कर फ़ैल जाए और इसी से उनका
अंत हो जाए – ऐसी दुष्ट चाल थी मेरी. परन्तु यह कोशिश भी सफल न हुई. एक रात में
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मेरे शरीर में पानी भरता जा रहा है. इससे मुझे अतीव
वेदना होने लगी. बापन्नाचार्युलु के घर जो सर्प मैंने छोड़े थे, वे सब मेरे पास पहुंचकर मुझे ही दंश करने लगे. श्रीपाद प्रभु की आटे की
मूर्ती में मैंने जहाँ-जहाँ सुईयां चुभोई थीं, उन-उन स्थानों पर मुझे असह्य वेदना होने लगी, मैं नरक यातनाओं का अनुभव कर रहा था. मैं अपने अंतर्मन सहित श्रीपाद प्रभु
की शरण में गया. मेरी अंतर्दृष्टि को श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. वे बोले, “बंगारप्पा! तूने जो महापाप किये हैं उनके परिणाम स्वरूप तुझे इस लोक में
तो क्या, नरक में भी दुःख भोगने पड़ते. परन्तु मैंने
तुझ पर कृपा करके एक रात की यातनाओं
द्वारा तेरे कर्मों का नाश कर दिया है. तेरी सारी क्षुद्र विद्याएँ भी मैं नष्ट कर
रहा हूँ. फिर भी यदि तुझे कोई प्यासा व्यक्ति दिखाई दे तो तू स्वयँ पानी पीकर उसकी
प्यास बुझा सकेगा. कुंलाटे मारते हुए झूलना एक योग प्रक्रिया है. उसका अभ्यास करके
तू आनंद को प्राप्त कर सकेगा. आज से सात्त्विक प्रवृत्तियों का स्वीकार करेगा.
मेरे माता-पिता के अथवा श्री बापन्नाचार्युलू के घर में पैर रखने के लिए अनेक
जन्मों के पुण्य की आवश्यकता होती है. इस जन्म में वह सौभाग्य तुझे प्राप्त नहीं
होगा. जीवन प्रदान करने वाला परमेश्वर है, अतः प्राण हरण करने का अधिकार भी उसीका है. माता-पिता जन्मदाता हैं, अतः वे परमपूज्य होते हैं. जो उनकी वृद्धावस्था में उनका अनादर करता है, उन पर मैं अनुग्रह नहीं करता. तूने अपनी क्षुद्र विद्या से कितने ही
निष्पाप व्यक्तियों को अकाल मृत्यु दी है. उस पाप का फल तू शंकर भट्ट नामक कन्नड़
ब्राह्मण की भेंट होने तक भोगेगा. फिर वह पाप समाप्त हो जाएगा. शंकर भट्ट मेरे
चरित्र को लेखनीबद्ध करेगा. ऐसा श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा था.”
जब यह घटना घटित हुई तब श्रीपाद प्रभु की आयु सात-आठ वर्ष की थी. उस दिन से
मैं तुम्हारी राह देखा रहा हूँ. आज मेरे लिए बड़े सौभाग्य का दिन है, ऐसा बंगारप्पा ने कहा.
इस घटना से मैं विस्मय चकित रह गया. मैंने पूछा, “आपके पानी पीने से दूसरे की प्यास कैसे बुझती है? इसके पीछे कारण क्या है?”
इस पर बंगारप्पा बोले, “एक योग
प्रक्रिया के द्वारा मैं अन्य व्यक्तियों की प्राणमय शक्ति से संबंध स्थापित करता
हूँ. इसके माध्यम से, तादात्म्य भावना से, यह संभव होता है. रामायण युग में किष्किन्धा नगरी के वानर राज बाली को एक
योग प्रक्रिया के माध्यम से उससे युद्ध कर रहे योद्धा से दुगुनी शक्ति प्राप्त हो
जाती थी. इसी कारण श्री रामचंद्र ने पैड के पीछे छिपकर उसका वध किया था.
महर्षि विश्वामित्र ने राम लक्ष्मण को बला एवँ अतिबला नामक दो अत्यंत
पवित्र मन्त्रों का उपदेश किया था. इन मन्त्रों में निहित स्पंदनों के प्रभाव से
प्राणशक्ति की सिद्धी की जा सकती है. मानव शरीर के शुद्धि-क्रम की बारह अवस्थाएँ
होती है. श्री रामचंद्र का देह बारहवीं अवस्था में था. श्रीपाद प्रभु का देह भी
बारहवीं अवस्था में है, अतः उनकी
अनंत शक्ति, अनंत ज्ञान, अनंत व्यापकता सहज सिद्ध है.
साधना मार्ग
की सात अवस्थाएँ
मानव अपने विकास क्रम में सात अवस्थाओं में होता है.
पहली अवस्था में वह स्थूल देहेंद्रियों का एक साथ प्रयोग कर सकता है. दूसरी
अवस्था में सूक्ष्म देहेंद्रियों के आधार पर सूक्ष्म प्रपंच का अनुभव करते हुए
छोटे-छोटे चमत्कार करने की सामर्थ्य उसे प्राप्त होती है. तीसरी अवस्था में
सूक्ष्म शरीर द्वारा दूर प्रयाण कर सकता है. तीसरी एवँ चौथी अवस्थाओं में वशीकरण
केंद्र होता है. वशीकरण की अवस्था में वह जिस स्थिति में होता है, उसीमें रहता है.
जब गौतम महर्षि ने अहिल्या को शाप दिया तो वह आश्चर्य चकित रह गई. उसका दृढ़
विश्वास था, कि वह शील चैतन्य की अवस्था में है. श्री
रामचंद्र के दर्शन होने तक वह उसी स्थिति में रही. जिस प्रकार अहिल्या का शरीर
शिला की अवस्था में चला गया था, उसी प्रकार
उसका मन भी उस स्थिति में चला गया था. अर्थात् वह तीसरी और चौथी अवस्था के बीच में
स्थित वशीकरण केंद्र में रही. श्री रामचंद्र की चरण रज के स्पर्श से उनका मनोपुष्प
विकसित हुआ और वह अपनी सहज स्थिति में आ गई.
चौथी अवस्था में स्थित आत्मा को अतिशय विस्तारित योग शक्ति प्राप्त होती है.
अतः यदि अपनी योग शक्ति का उपयोग लोक कल्याण के लिए किया जाए तो उच्चस्थिति
प्राप्त होती है. परन्तु यदि इस शक्ति का प्रयोग पाप कार्यों के लिए, तुच्छ
प्रयोजनों के लिए किया जाए तो पतन होकर शिला की अवस्था में जाने का भय होता है.
ऐसा होने पर अनेक हज़ार जन्मों के उपरांत मानव जन्म प्राप्त होता है. पाँचवीं
अवस्था में स्थित साधक संकल्पज्ञानी होते हैं. छठी अवस्था वाले भावज्ञानी होते हैं
संकल्पज्ञानी साधक दैवी साक्षात्कार के साथ साथ सांसारिक कार्यकलाप भी चलाते हैं.
भावज्ञानी साधकों की सांसारिक कार्यों में रूचि कम होती है. सातवीं अवस्था वाले
साधक परमात्मा के पास जो ज्ञान है उसे प्राप्त कर सकते हैं.
अवतारी पुरुष एवँ साधक में अंतर
बंगारप्पा की बातें सुनकर मेरे मन में कुछ संदेह उत्पन्न हुए. उनका समाधान
प्राप्त करने के लिए मैंने उनसे प्रश्न किया, “महाराज, जीवन में
क्या परिणाम क्रम ही होता है? क्या यह
अवतारी पुरुषों के लिए भी सत्य है?”
इस पर बंगारप्पा बोले, “अवतारी
पुरुष काल की महिमा से जन्म लेते हैं. जब मानव भगवान हो जाता है, तब उसे समर्थ सदगुरु कहते हैं, जब ईश्वर मानव के रूप में आते हैं, तब उन्हें अवतारी पुरुष कहते हैं. मत्स्य पानी में तेज़ गति से तैर सकता
है. कूर्म पानी में तथा ज़मीन पर, दोनों
स्थानों पर रह सकता है. वराह, अर्थात्
खड्ग मृग भूमि पर सहजता से चल सकने वाला प्राणी है. सिंह पशुओं में सर्व श्रेष्ठ
प्राणी है. नरसिंह अवतार में विष्णु भगवान ने सिंह का मुख एवँ मानव का शरीर धारण
किया था. याचना प्रवृत्ति रखने वाला, तमोगुण
प्रधान अवतार था वामन अवतार. रजोगुण से युक्त था परशुराम अवतार, सत्वगुण प्रधान अवतार था – श्री रामावतार. त्रिगुणों से परे, निर्गुण तत्व
प्रधान – ऐसा था श्री कृष्णावतार. जिसमें कर्म प्रधान था, वह था बुद्ध अवतार. समस्त सृष्टि के एकत्व के अनेकत्व को, और अनेकत्व के
एकत्व को स्वयँ में सम्मिलित करने वाला, अत्यंत
अद्भुत, अत्यंत विलक्षण युगावतार – अर्थात् श्रीपाद
श्रीवल्लभावतार. श्रीपाद प्रभु से जिनका कोई ऋणानुबंध नहीं – ऐसे कोई योग
संप्रदाय, कोई मत, कोई धर्म नहीं है. श्रीपाद प्रभु की स्थिति को अत्यंत बुद्धिवान
भी समझ नहीं पाते. उनके जैसे बस वे ही हैं. सभी सिद्धांतों का, सभी सम्प्रदायों का समन्वय उन्हीं से होता है, इस समूची सृष्टि के आदि बिंदु वे ही हैं, अंतिम बिंदु भी वे ही हैं. स्पन्दनशील, ऐसे संसार के व्यवहारों का
निरीक्षण करने वाले, उसकी रक्षा
करने वाले, उसका निर्माण एवँ विनाश करने वाले वे ही
हैं. यह एक गूढ रहस्य है. सप्त ऋषि भी जिसे समझ नहीं पाए, उसके बारे में मैं क्या
बताऊँ? बेटा, शंकर भट्ट! तू धन्य है. उनकी निर्मल करुणा जिसे प्राप्त होती है, वह धन्य है. अन्य सभी जीव व्यर्थ हैं.
सत्कर्म एवँ दुष्कर्म का फल
मैंने पूछा, “महाराज, मेरे मन में एक संदेह उठा है. समस्त कर्मों का बोध करवाने वाला जब वही है, तो कुछ लोग अच्छे, तथा कुछ लोग
बुरे क्यों पैदा होते हैं?” इस पर
बंगारप्पा जोर से हँसे और बोले, “तूने अच्छा प्रश्न पूछा है. समूची सृष्टि द्वैत से ही निर्मित हुई है. यदि मृत्यु का भय न हो तो जन्म
देने वाली माँ भी बच्चे से प्यार नहीं करेगी. वेदों में ‘पुरुष’ इस शब्द का ‘आत्मा’ के अर्थ में प्रयोग किया जाता है, फिर भी
‘आत्मा’ अर्थात ‘पुरूष’ नहीं है. ‘पुरूष’ शब्द ‘देह’ का प्रतीक है, जबकी ‘आत्मा’ ‘देह’ नहीं है. वह ‘देह’ से भिन्न है. वह अजन्मा, अव्यक्त, अचिन्त्य और विकार रहित है. मानव में तथा प्राणिमात्र में एक ही
आत्मा का वास है. परन्तु मनुष्यों और देवताओं में भेद होता है. उसी भेद के कारण
मनुष्य देवत्व प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहता है. इस प्रयत्न के कारण ही
मानव का विकास होता है. ऐसी बात नहीं है कि देवताओं में केवल अच्छी, सृजनात्मक शक्ति ही होती है. उनमें कुछ
विघटनकारक, विनाशकारक शक्तियां भी होती हैं. आवश्यकतानुसार अच्छी अथवा बुरी
शक्तियों का प्रयोग करके देवता सृष्टि के क्रम को सुव्यवस्थित रूप से चलाते हैं.
मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख पूर्व कर्मानुसार आते हैं. दुःखों के आने पर मानव
को सुख का महत्त्व ज्ञात होता है और वह सुख प्राप्त करने की इच्छा करता है. कई बार
ऐसा प्रतीत होता है, कि जगत में अनेक दुष्ट, कुकर्मी, नास्तिक, दूसरों को
सताने वाले लोग अत्यंत सुखी जीवन जीते हैं, जबकि सत्यवचनी, सदाचारी, सत्शील, प्रामाणिक
व्यक्तियों को अनेक भीषण संकटों का सामना करना पड़ता है. इस विरोधाभास का कारण यह
है कि कुकर्म करते हुए सुख का उपभोग करने वाले लोगों ने अपने पूर्व जन्मों में कुछ
सत्कर्म किये थे, जिनके फलस्वरूप उन्हें इस जन्म में सुख प्राप्त हुआ है.
उसी प्रकार सज्जन लोग आज जिन दुःखों को भोगते दिखाई देते हैं, वे उनके
पूर्व जन्मों के पापों का फल है. मनुष्य को अपने पाप एवँ पुण्य का फल तुरंत
प्राप्त नहीं होता, कुछ समय पश्चात प्राप्त होता है. परन्तु यदि पाप अथवा
पुण्य अत्यंत तीव्र स्वरूप का हो तो उसका फल तुरंत मिलता है. अच्छे अथवा बुरे कर्म
करना मानव के हाथ में है. जब जब समाज में अधर्म की वृद्धि होकर दुष्ट, दुराचारी
लोगों द्वारा सज्जनों को, संतों को सताया जाता है, तब तब
भगवान सगुण रूप में अवतार लेकर पापियों, दुराचारियों का नाश करके संतों की, सज्जनों की रक्षा
करते हैं.
हज़ारों
वर्षों से आकाश में तारे, ग्रह आदि हैं, परन्तु वे आज जैसे सुव्यवस्थित नहीं थे.
समयानुसार इन तारामंडलों के अनेक तारे गिरकर पाषाण बन गए, अनेक ग्रह एक दूसरे में
समा गए. पृथ्वी समेत सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं. इन ग्रहों के आकर्षण, विकर्षण, से ही
सृष्टि का चालन होता है.
परमेश्वर
के प्रति आकर्षण से लोग आस्तिक होकर सत्कर्म की और प्रवृत्त होते हैं. जिन लोगों
के मन में ईश्वर के प्रति आकर्षण नहीं होता वे नास्तिक होकर दुष्कर्म की ओर
प्रेरित होते हैं. इन दोनों प्रकार के कर्मों का कारण वे स्वयँ ही होते हैं.
वेलुप्रभु महाराज का गर्व भंग
पीठिकापुरम्
नगर में वेलूप्रभु महाराज का राज्य था. वे वेष बदलकर नगर में घूम घूम कर प्रजा की
स्थिति का अवलोकन किया करते. एक बार उनके मन में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु से मिलने
की इच्छा उत्पन्न हुई. उन्होंने अपने सेवकों को अप्पल राजू शर्मा के घर पर यह आदेश
देकर भेजा कि श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को तुरंत
लेकर आएँ. उस समय श्री बापन्नाचार्युलु घर में थे. सेवकों ने उन्हें
राजाज्ञा सुनाई. नाना जी ने प्रभु से कहा, कि
पीठिकापुरम् के महाराज ने तुम्हें मिलने के लिए बुलाया है. श्रीपाद प्रभु बोले, “ताता!
राजा के मन में भक्तिभाव नहीं है, वह अहंकारवश मुझे आने की आज्ञा दे रहा है. उसे ऐसा
प्रतीत होता है कि वह महाराज है, अतः सब
लोगों पर उसका अधिकार है. जो वह कहे, वैसा ही होना चाहिए, ऐसा उसका
विश्वास है. परन्तु उसे यह नहीं मालूम है कि मेरे दर्शन प्राप्त करना आसान नहीं.
मैं महाराज से मिलने नहीं जाऊंगा.”
प्रभु
ने राजा के सेवकों से कहा, “तुम्हारे महाराज केवल इस पीठिकापुरम् के राजा हैं,
परन्तु मैं तो समस्त विश्व का चक्रवर्ती सम्राट हूँ. अपने महाराज से कहो कि यदि
मेरे दर्शनों की इच्छा है तो वे स्वयँ हमारे घर आएं. आते समय गुरुदक्षिणा एवँ
चक्रवर्ती सम्राट के लिए यथोचित उपहार लाना न भूलें.”
श्रीपाद
प्रभु का यह कथन सुनकर अप्पल राजू शर्मा एवँ बापन्नाचार्युलु ने आपस में विचार
विमर्श करके सेवकों को संदेश देकर भेज दिया.
सेवकों
ने प्रभु का सन्देश राजा को दिया. राजा अत्यंत क्रोधित होकर बोला, “मैं इस
नगरी का महाराजा हूँ. देखता हूँ, कि श्रीपाद श्रीवल्लभ मेरी आज्ञा का कैसे उल्लंघन करते
हैं.” इतना कहते ही वे चक्कर खाकर सिंहासन से
नीचे गिर पड़े. सभी सेवक सिंहासन के पास भागे. उन्होंने पानी पिलाकर राजा को
होश में लाने का प्रयत्न किया, परन्तु राजा की मानो समूची शक्ति नष्ट हो गई थी एवँ
उन्हें भयानक नरक यातनाएँ होने लगीं. फ़ौरन राज पुरोहित श्री कोटसुन्दर शर्मा को
बुलाया गया. उन्होंने महाराज की परिस्थिति देखकर स्वयँ श्री दत्तात्रेय की श्रद्धा
भाव से पूजा की एवँ तीर्थ-प्रसाद महाराज को दिया. माथे पर विभूति लगाई. राज
पुरोहित बोले, “देखा न मेरी पूजा-अर्चना का परिणाम! आपने श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शनों की इच्छा की, वह व्यर्थ है. क्योंकि वे स्वयँ ही श्री दत्त प्रभु के
अवतार हैं. उनके पूजन से छोटी-छोटी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं. बापन्नाचार्युलु
को भी उन्हीं के कारण मन्त्र सिद्धी प्राप्त हुई है. श्री वेंकट शास्त्री - जो
धूर्त वैश्य है, झूठा प्रचार करता है कि प्रभु को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हैं.
महाराज, माना कि आप शक्तिशाली हैं, परन्तु
श्रीपाद स्वामी को बांधकर लाना योग्य नहीं है, और वह
आपके हित में नहीं.”
महाराज
राजपुरोहित से बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने किन्हीं दुष्ट शक्तियों का
प्रयोग करके हमें हानि पहुँचाई है. आप इस पर कोई उपाय बताएँ.”
राज
पुरोहित बोले, “महाराज, आप विद्वान ब्राह्मणों द्वारा श्री दत्त-पुराण पठन
करवाएं. स्वयंभू श्री दत्तात्रेय की पूजा करके समाराधना कराएं और ब्राह्मणों को
भूदान, सुवर्णदान, एवँ अन्नदान करें. ऐसा करने से श्री दत्त प्रभु प्रसन्न
होकर आपकी व्याधि पूरी तरह ठीक करेंगे.”
राजा
ने राज पुरोहित के कथनानुसार विद्वान ब्राह्मणों द्वारा श्री दत्त-पुराण का पठन
प्रारम्भ करवाया. परन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि पठन आरम्भ करने पर नगर में
चोरों की संख्या बहुत बढ़ गई, उन पर नियंत्रण करना राजा के लिए असंभव हो गया. उसी रात
को राजा के सपने में उसके पितर आये. वे एकदम क्षीण एवँ दयनीय दिखाई दे रहे थे. वे
कह रहे थे, “अरे वेलू! तू हमें श्राद्ध का भोजन नहीं देता. इस
प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए कुछ नहीं करता.” महाराज बोले, “तात! मैं
तो शास्त्रों के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करता हूँ.” पितर बोले, “परन्तु
वह हम तक नहीं पहुँचता. परन्तु ब्राह्मण खा-खाकर हृष्ट-पुष्ट होते जा रहे हैं. यदि
राजा एवँ ब्राह्मण दोनों श्रद्धायुक्त अंतःकरण से मंत्रोच्चारसह श्राद्ध कर्म
करें, तभी वह हमें प्राप्त होगा.”
पितरों
की बातें सुनकर राजा को रात में नींद भी नहीं आई. इसी समय उसकी विवाह योग्य, सुन्दर
कन्या भूत-बाधा से पीड़ित होकर, बाल खोलकर, भयानक हास्य करते हुए, क्रोधित
होकर घर की सब वस्तुएं बाहर फेंकने लगी. वह भोजन करने बैठती तो उसे अन्न में कीड़े
दिखाई देते और वह भोजन फेंक देती. उसके शरीर के वस्त्रों में एकदम आग लग जाती. इस
प्रकार महाराज को चारों और से संकटों ने घेर लिया. उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय हो
गई.
राजा
की सहायता करने वाले राज पुरोहित की स्थिति भी अत्यंत शोचनीय हो गई थी. उसकी सौम्य, शांत
स्वभाव की पत्नी अचानक भयानक क्रोधित स्वभाव की हो गई. वह पति के सिर पर बर्तन
मारने लगी. उसके पुत्र ने खुद राज पुरोहित को घर में रस्सी से एक खम्भे के साथ
बाँध दिया. जब उसे भूख लगती तो उसके सामने घास की पूली डाल देता और उसके न खाने पर
गर्म सलाखों से उसे दाग देता. जो ब्राह्मण श्री दत्त-चरित्र का पठन कर रहे थे, वे जैसे
ही पठन समाप्ति के पश्चात भोजन करके घर लौटते, उन्हें घर
में तांडव करते भूत पिशाच्च दिखाई देते. यह देखकर वे बेचारे ब्राह्मण अत्यंत भयभीत
हो जाते. वे भूत ब्राह्मणों से कहते, “तुम्हारे महाराज ने अनगिनत पाप किये हैं, हमें अपने
पति से दूर करके हम पर बड़े-बड़े अत्याचार किये. राजा द्वारा वाम मार्ग से प्राप्त
किये धन को तुम दान-दक्षिणा के रूप में स्वीकार कर रहे हो, इसीलिये हम तुम्हें
कष्ट दे रहे हैं.
यह
सब परिस्थिति देखकर ब्राह्मण, राज पुरोहित एवँ स्वयँ महाराज अत्यंत भयभीत हो गए. वे
समझ नहीं पा रहे थे कि इस सबसे कैसे मुक्ति पाएँ.
राज
पुरोहित ने राजा से कहा, “श्री दत्त-चरित्र के पठन से सब दुःखों का नाश होकर सुख
की प्राप्ति होगी, ऐसा सोचा था, परन्तु सब कुछ विपरीत ही हो गया. अब वे श्रीपाद
श्रीवल्लभ स्वामी के सामर्थ्य को जान गए
और उन्हें अपनी करनी पर पछतावा हुआ. महाराज राजपुरोहित और ब्राह्मणों को साथ लेकर
श्रीपाद स्वामी के दर्शनों के लिए गए और उनकी शरण में जाकर क्षमा याचना की.
क्षमाशील एवँ दयानिधान श्रीपाद प्रभु ने उदार अन्तःकरण से उनके अपराध क्षमा कर
दिए. वे बोले, “इस सृष्टि में प्रत्येक व्यक्ति सेवक ही होता है. मैं
जब प्रसन्न होता हूँ, तो उस सेवक को उसकी सेवा का अधिकाधिक फल प्रदान करता
हूँ, परन्तु यदि मैं अप्रसन्न होता हूँ, तो उसकी
सेवा का उसे अत्यंत कम फल देता हूँ. मंदिर में प्रतिष्ठापित स्वयंभू दत्तात्रेय
मैं ही हूँ. कालाग्नि स्वरूप में जो है, वह दत्त रूप मेरा ही है. प्राणियों के उद्धार के लिए
मैं इस जन्म में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुआ हूँ. जो श्रद्धायुक्त
अन्तःकरण से मेरी भक्ति करता है उस पर मैं प्रसन्न होता हूँ. मेरे माता-पिता
सौभाग्यवती सुमति और श्री अप्पलराजू प्रत्यक्ष श्रीलक्ष्मी और भगवान विष्णू ही
हैं. मेरे नाना जी किसी एक पूर्व जन्म में लाभाद महर्षि थे. मेरा जन्म गणेश
चतुर्थी के दिन हुआ है.
“अगले,
नृसिंह सरस्वती के अवतार में, मैं अपने नाना जी बापन्नाचार्युलु जैसा दिखूंगा. उस
अवतार में मैं जब गंधर्वपुर क्षेत्र में निवास करूंगा तब भूतों को, प्रेतों
को उनकी योनि से मुक्त करूंगा. मानव को कभी भी विपुल धन, दौलत, शक्ति, सामर्थ्य
का गर्व नहीं करना चाहिए. संपत्ति सत्य मार्ग से अर्जित होनी चाहिए, वाम मार्ग
से उसे कभी न कमाएं. जो संपत्ति वाम मार्ग से अर्जित की जाती है, वह दुःख,
क्लेश, अशांति, वैमनस्य का कारण बनती है. चित्रगुप्त के पास प्रत्येक
प्राणी के पाप-पुण्य का हिसाब होता है. यदि मेरी शरण में आकर आर्तभाव से मुझे
श्रीपाद श्रीवल्लभ, दिगंबरा, दिगंबरा, दत्तात्रेय कहकर पुकारोगे तो मैं तुम्हारे सारे पापों
को दहन करके तुम्हें पुण्यात्मा बनाऊँगा. महाराजा, तूने सत्य
को असत्य बतलाकर, असत्य को सत्य कहकर उसका प्रतिपादन किया इस कारण तुझे
इतने संकटों का सामना करना पडा. श्रीपाद श्रीवल्लभ का उचित सम्मान न करके श्री
दत्त-पुराण का पठन करने पर भी तुझे उसका फल प्राप्त न हुआ, उलटे, संकट
झेलने पड़े. श्री दत्त प्रभु स्वयँ ही श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं, यह
त्रिवार सत्य है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय 16
श्रीमन्नारायण की कथा
मैं श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के चरित्र का स्मरण करते हुए चला जा रहा था.
यह सुनकर कि प्रभु कुरुगड्डी (कुरवपुर) में हैं, मेरे हर्ष का पारावार न रहा. उनके दर्शन की आस प्रतिक्षण बढ़ती ही जा रही
थी. मार्ग में एक गन्ने का खेत दिखाई दिया. खेत में एक किसान प्रसन्न चित्त बैठा
था. बगल में ही गन्ने का रस निकाल कर गुड बनाने का काम चल रहा था. उस किसान ने बड़ी
नम्रता से मुझे बुलाकर गन्ने का रस दिया. वह रस बड़ा ही मीठा था. मैं श्रीपाद प्रभु
के दर्शनों के लिए जा रहा हूँ, यह सुनकर उस
किसान को बहुत आनंद हुआ. वह बोला, “चाचा! मेरा
नाम है श्रीमन्नारायण मल्लादी.
हमारा गाँव मल्यादिपुरम् था, परंतु कालांतर में इसका अपभ्रंश होकर मल्लादी हो गया.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के नाना जी का कुलनाम भी मल्लादी था, परन्तु वे ब्राह्मण थे और हम चौधरी हैं. जब हमारे और उनके अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे, तभी हम
मल्यादिपुरम् गाँव छोड़कर पीठिकापुरम् आ गए. उस समय हमारी परिस्थिती बड़ी दयनीय थी.
सारी चल-अचल संपत्ति बेचकर हम केवल शरीर पर पहने हुए वस्त्रों में ही पीठिकापुरम् पहुंचे. श्री बापन्नाचार्युलु ने
बड़े प्रेम से हमें भोजन करवाया. हमने उनके खेतों पर काम करने की इच्छा प्रदर्शित
की. श्रीपाद प्रभु उस समय घर पर थे. वे बोले, “बापन्नाचार्युलु के घर का भोजन ईश्वर के प्रसाद के समान होता है. ईश्वर
की कृपा के बिना यह प्रसाद किसी को मिलता नहीं है. बापन्नाचार्युलु के दर्शनों का
लाभ भी दुर्लभ है. तुम्हारे पुण्य कर्मों के कारण ही यह संभव हुआ है.”
बापन्नाचार्युलु ने हमसे कहा, “हमने हमारे
खेत औरों को काम के लिए दे दिए हैं. बिना किसी कारण के उन्हें निकालना धर्म
विरुद्ध है. अब तुम एक मुट्ठी भर उड़द एक कपडे में बांधो और उसे लेकर पश्चिम की तरफ
जाओ. तुम्हारी मनोकामना पूरी होते ही वह उड़द फेंक देना. परमेश्वर दयालु है. वह
पत्थर में फँसे मेंढक को भी भोजन देता है, क्या वह तुम्हें भोजन नहीं देगा? तुम यशस्वी
होगे.”
हमने भोजन किया और वहाँ से चलते समय धोती के कोने में मुट्ठी भर उड़द बांधकर
पश्चिम की और चल पड़े. श्रीपाद प्रभु की कृपा से मार्ग में अन्न जल सहजता से
प्राप्त होता रहा. बिना मांगे ही हमें भोजन मिलता रहा. कैसी आश्चर्य की बात थी!
चलते-चलते हम आंध्र प्रांत पार करके कर्नाटक प्रांत में आये. रास्ते में हमें अनेक
पर्णकुटियाँ दिखाई दीं, इनमें रहने
वाले सभी लोग वृद्ध थे. उनके पास कोई धन संपत्ति नहीं थी. हमने एक पर्णकुटी में
प्रवेश किया. इसमें एक वृद्ध दंपत्ति रहते थे. वे चौधरी थे. उनके इकलौते पुत्र की
सर्पदंश से मृत्यु हो गई थी. उसकी पत्नी कृष्णा नदी में स्नान करते समय जल के
प्रवाह में बह गई. उनके कोई संतान नहीं थी. अब इस वृद्ध दंपत्ति के पास कोई आधार
नहीं बचा था. उनके पड़ोसी उनके साथ अच्छा व्यवहार करते, समय-समय पर उनकी सहायता करते. उस वृद्ध दंपत्ति ने हमारा बहुत अच्छा
स्वागत किया और हमें अपने ही घर में रख लिया. जब-जब हम वहाँ से जाने की सोचते, कोई न कोई रुकावट आ जाती और हमारा जाना स्थगित हो जाता, आखिरकार एक शुभ मुहूर्त पर हम निकल पड़े, परन्तु तभी उस वृद्ध पुरुष को उल्टियाँ और दस्त होने लगे. हमें रुक जाना
पडा. एक दो दिनों में जब उनकी तबियत सुधरी तो हम चल पड़े. हमारे चार-पाँच दिनों के
सहवास से उस वृद्ध परिवार के मन में हमारे प्रति स्नेह भाव उत्पन्न हो गया था.
हमें बिदा करते समय उनकी आंखों में आंसू भर आये.
धोती में
बंधे उड़द अब सडने लगे थे और उनमें बदबू आने लगी थी, अतः हमने उन्हें फेंक दिया. हमने उस वृद्ध दंपत्ति की सहायता करने की
इच्छा व्यक्त की, परन्तु
उन्होंने हमसे कुछ न लिया. उनकी बैरागी प्रवृत्ति देखकर हमें बहुत आश्चर्य हुआ. उस
वृद्ध दंपत्ति का परिचित एक ज्योतिषी था. उन्होंने उसको बुलाया. वह ज्योतिषी वृद्ध
दंपत्ति से बोला, “तुम्हारे
घर जो अतिथि आए हैं, वे बड़े ही
अमंगल हैं. उनके यहाँ रहने से आप दरिद्री हो जायेंगे. आप उन्हें जल्दी से जल्दी
बिदा कर दीजिये.” वृद्ध दंपत्ति ने कहा, “पंडित जी, उनके यहाँ वास्तव्य करने से जो दरिद्रता प्राप्त होगी, उसका परिहार तो शास्त्रों में होगा ना? आप वह बताएँ. उसके लिए जितना भी खर्च होगा, हम देने को तैयार हैं. अतिथियों के अमंगल को दूर करने के लिए जो पूजा विधि
हो, उसे बताने की कृपा करें. ईश्वर की इच्छा से
विश्व का कारोबार चलता है. सभी देवताओं को मन्त्र की सहायता से प्रसन्न किया जा
सकता है. आप तो प्रत्यक्ष ब्रह्मा को प्रसन्न करने की विधि भी जानते हैं – इसलिए
इस पृथ्वी पर आप ईश्वर ही हैं. आप हमारी इच्छा पूरी करें, यह प्रार्थना है.”
उस ज्योतिषी को वृद्ध दंपत्ति की विनती माननी ही पडी. वह ज्योतिषी बोला, “अनाज उत्पन्न करने के लिए जल की आवश्यकता होती है; अतः पर्जन्य यज्ञ की
तैयारी कीजिये. यज्ञ करने वाले व्यक्ति को देवता तुल्य माना जाता है. प्रत्यक्ष
ईश्वर यज्ञ करने वाले की स्तुति करते हैं. यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं:
१.
देवयज्ञ २. भूतयज्ञ 3. मनुष्ययज्ञ
४. ब्रह्मयज्ञ और ५. पितृयज्ञ
श्रीपाद श्रीवल्लभ की लीलाएँ अत्यंत अद्भुत् एवँ आश्चर्यकारक थीं. उस वृद्ध
दंपत्ति द्वारा दिए गए धन की सहायता से विद्वान ब्राह्मणों ने सर्वकार्य सिद्धि
हेतु यज्ञ किया. इस यज्ञ के प्रभाव से हमारी जन्म कुण्डली के सभी दोषों का
निर्मूलन हो गया. उस वृद्ध दंपत्ति की पुण्याई से हमें परम पवित्र यज्ञ के दर्शन
हुए. इस यज्ञ का हविष्य इन्द्रादि देवताओं को अर्पण किया गया था. हर देवता की
इच्छानुसार उसे हविष्य का भाग प्रदान किया गया. प्रत्येक देवता ने संतुष्ट होकर
आशीर्वाद दिए. गौ, वेद, ब्राह्मण, पतिव्रता
स्त्री, सत्यप्रिय तथा दानशूर लोगों के कारण पृथ्वी
का सृजन कार्य सुचारू रूप से चलता है. जिस प्रकार खेती करने के लिए बैल की
आवश्यकता होती है, उसी प्रकार
इहलोक सिद्धि के लिए यज्ञ-याग की आवश्यकता होती है और उतनी ही आवश्यकता होती है गौ
माता की – परलोक सिद्धि के लिए. साथ ही गौमाता दूध, दही, मक्खन, घी आदि तो देती ही है.
भूमाता के सात गुण
सभी धर्मों के तत्व वेदों पर ही आधारित हैं, धरती माता को भी वेदों का ही आधार प्राप्त है. ब्राह्मण लोग अपने यजमानों
द्वारा यज्ञ करवाकर समाज को सत्कर्म करने के लिए प्रवृत्त करते हैं. ऐसे सत्कर्मों
से भूमाता को शक्ति-सामर्थ्य प्राप्त
होती है. पतिव्रताएं अपने पातिव्रत्य धर्म की रक्षा करती हैं. पतिव्रता
स्त्रियों के कारण धरती माँ समृद्ध होती है. सत्य वचन बोलने वालों के कारण भी
पृथ्वी आनंदित होती है. निर्लोभी व्यक्ति अपनी लोभवृत्ति त्यागकर समाज में
सौहार्द्र और प्रेम फैलाते हैं, दानशूर व्यक्ति पुण्य मार्ग से प्राप्त किया हुआ
धन दीन-दुर्बल, अभागे लोगों
में बांटकर इहलोक और परलोक दोनों सुधारते हैं. इन सात प्रकार के गुणों से युक्त
लोगों के कारण भूमाता सदैव प्रसन्न, सामर्थ्यवान
और प्रचुर अन्न-जल देने वाली बनाती है. बापन्नाचार्युलु जैसे महापुरुषों ने हमें
केवल निमित्त मात्र बनाकर यज्ञपुरुष श्री श्रीपाद श्रीवल्लभ के समक्ष हमें धन्य कर
दिया.
श्रीपाद
श्रीवल्लभ द्वारा भक्तों की रक्षा
यज्ञ निर्विघ्नता से, बड़े आनंद से संपन्न हुआ.
वे वृद्ध दंपत्ति हमें अपने बच्चों जैसा स्नेह प्रदान कर रहे थे. उनके रिश्तेदारों
को यह बात अच्छी नहीं लगी. हमारे पास मिर्ची का एक खेत था. उसके चारों और ताड़ी के
पेड़ों की बागड थी. गौड़ लोग इस ताड़ी का रस निकाल कर ले जाते. एक बार जब मैं खेत में
गया तो देखा कि वे रिश्तेदार खेत से मिरचियाँ तोड कर, उन्हें बोरों में
भरकर, बैलगाड़ी में वे बोरे रखवाकर घर जा रहे थे. मैं अकेला था और वे थे दस. तभी एक
आश्चर्य की बात हुई. एक रीछ ताड़ी के पेड़ पर चढ़कर उसका रस पी रहा था. इतने में उसका
संतुलन बिगड़ गया और वह नीचे गिर पडा. उस रीछ को निकट आते देखकर हमारे रिश्तेदार
घबरा कर भाग गए. रीछ के ज़हरीले नाखूनों से होने वाले संभावित ज़ख्मों से उन्हें भय
था. मैं श्रीपाद प्रभु का स्मरण करते हुए बैलगाड़ी में बैठा और वह गाडी चल पडी. वह
रीछ श्रीपाद प्रभु के नाम स्मरण को सुनकर शांत हो गया और हमारी गाडी के साथ
चलते-चलते हमार्र घर आ गया. उस रीछ को देखकर पड़ोसी चकित हो गए. उस रात जब हमने
श्रीपाद प्रभु का भजन किया तो वह रीछ भी हमारे साथ बैठकर तन्मयता से भजन सुन रहा
था. भजन पूरा होने के उपरांत सबको प्रसाद दिया गया. उस रीछ ने बड़े आनंद से प्रसाद
खाया. इसके पश्चात वह रीछ हमारे घर के एक सदस्य की तरह रहने लगा. हमारे साथ उसका
व्यवहार प्रेम पूर्ण था, परन्तु हमारे शत्रु उससे भयभीत रहते थे. उसके
डर के मारे खेत पर कोई नहीं आता, वह रीछ हमारे खेत का मानो रखवालदार बन गया था.
हमारे घर में श्री दत्त प्रभु की लीला कथाओं का
कीर्तन और श्री दत्त प्रभु का नामस्मरण नित्य नियमपूर्वक होता था. एक बार जब मैं
खेत में था तो वह रीछ खेत में आया. उसने मेरी और बड़े प्रेम से देखा. मैंने श्रीपाद
प्रभु का नामस्मरण आरम्भ किया और वह बड़े हर्ष से नाचने लगा.
हमारे पड़ोस के गाँव में एक मान्त्रिक आया था.
उसने उपासना के बल पर कुछ सिद्धियाँ प्राप्त की थीं. उसके प्रभाव में आने वाले
व्यक्तियों से वह धन ऐंठता और उसे इकट्ठा करता जा रहा था. हमारे रिश्तेदार उसकी
शरण में गए. उसने रीछ पर मन्त्र का प्रयोग किया, जिससे रीछ की
सारी शक्ति नष्ट हो गई और वह निश्चेष्ट होकर गिर गया. दूसरे मन्त्र से उसने रीछ की
सारी शक्ति स्वयं में आकर्षित कर ली. रामायण में वर्णित बाली के समान उसे एक
विद्या अवगत थी जिसके प्रयोग से सामने वाले शत्रु की आधी शक्ति उसे प्राप्त हो
जाती थी. इसी कारण से प्रभु रामचंद्र ने बाली को पैड के पीछे से बाण मारा था, जिससे उसका अंत हुआ.
श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु के शिष्यों को कर्म बंधन से मुक्ति
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अगम्य हैं. उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध ढूंढ पाना
अत्यंत कठिन है. कारण के बिना कोई भी कार्य संभव नहीं है. गोकुल के निवासियों ने
जब प्रतिवर्ष की भाँति इंद्र की पूजा नहीं की, तो इंद्र ने क्रोधित होकर गोकुल पर घनघोर वर्षा की. तब श्रीकृष्ण भगवान ने
अपनी ऊँगली पर गोवर्धन पर्वत उठाया और सारे गोकुलवासी उसके नीचे सुरक्षित रहे. जिस
प्रकार श्रीकृष्ण भगवान ने गोकुलवासियों की रक्षा करके अपने गोपाल धर्म का पालन
किया, उसी प्रकार श्रीपाद प्रभु ने भी मान्त्रिक
की योग शक्ति को पहले कार्यान्वित होने दिया. रीछ उस शक्ति के वश में आ गया. उसके
भीतर के पुण्यत्व के अंश के कारण वह श्रीपाद स्वामी का भक्त हो गया था. उस
मान्त्रिक द्वारा शक्ति का प्रयोग करने पर निश्चेष्ट पडा हुआ रीछ हलके-हलके रो रहा
था. दुःखी प्राणियों का क्रंदन श्रीपाद प्रभु अवश्य सुन लेते हैं. वे हरेक व्यक्ति
के कर्म के अनुसार पाप कर्मों के फल की तीव्रता को कम करते है.
श्रीमन्नारायण के घर श्री दत्त कथा, श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी का नामस्मरण, कथा, कीर्तन नित्य नियमपूर्वक होता था. यहाँ आने
वाले भक्तों में कुछ भक्त अनन्य भाव से श्रीपाद प्रभु के चरणों की शरण में जाते
थे, परन्तु कुछ भक्तों के मन में संदेह अभी भी शेष था. नाम संकीर्तन चल रहा था, तभी एक अद्भुत् घटना घटित हुई. वह मृतप्राय रीछ श्रीपाद प्रभु के नाम के
घोष से एकदम चेतनामय हो गया और आनंद विभोर होकर नाचने लगा.
श्री दत्तात्रेय प्रभु का योग सामर्थ्य औरों
की अपेक्षा भिन्न है. उनकी करुणा से ही उस रीछ का रूपांतर एक मनुष्य के रूप में हो
गया, और वह तांत्रिक रीछ के रूप में परिवर्तित हो
गया. वहाँ उपस्थित लोगों ने उस रीछ को रस्सियों से बाँधकर जंगल में छोड़ दिया. इस
जन्म में वह मानव रूपी रीछ सबको संबोधित करते हुए बोला, “भाईयों, पिछले जन्म
में मैं एक साहूकार था और सूद पर लोगों को धन दिया करता था. सूद की दर बहुत अधिक
लगा कर मैं उन्हें कष्ट देता था. यदि वे धन वापस न करते, तो मैं उनकी संपत्ति ऐंठ लेता था. उस कुकर्म के कारण मुझे रीछ का जन्म
प्राप्त हुआ. परन्तु पूर्व जन्म के पुण्य फल से मुझे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के
दर्शन हुए और उनका अनुग्रह प्राप्त हुआ. श्रीपाद श्रीवल्लभ श्री दत्तात्रेय के
अवतार हैं. उनके अनुग्रह से ही मेरी रीछ योनी से मुक्ति होकर मुझे उत्तम मानव देह
की प्राप्ति हुई है. उस मान्त्रिक ने अनेक पाप कर्म किये, उसने मुझ जैसे मूक प्राणी को, और विशेषत:
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के भक्त को अपार कष्ट दिया – वह भी बिना किसी कारण के.
इस पापकर्म के फलस्वरूप श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने उसे उचित दंड दिया. “सज्जनों
का रक्षण और दुर्जनों को दंड” ऐसा जिसका नियम है, उन श्रीपाद प्रभु की जो अनन्य भाव से, श्रद्धायुक्त अंतःकरण से सेवा करते हैं, उन पर श्री स्वामी का कृपाछत्र हमेशा बना रहता है. ईश्वर तथा भक्तों की
निंदा करने वालों, तथा दूसरों
के धन पर आसक्ति रखने वालों को वे यथोचित दंड देते हैं. कुछ उदाहरण ऐसे दिखाई देते
हैं, जब पापियों को अपने पाप कर्मों का पछतावा
होता है, और उचित दंड भोगने के बाद वे स्वामी के भक्त
हो जाते हैं.”
वह मानव रूपी रीछ आगे बोला, “ मुझे श्री स्वामी के नामस्मरण से सद्गति प्राप्त हुई. मुझे मानव रूप
प्राप्त हुआ देखकर सभी भक्तों को अत्यंत आश्चर्य हुआ और प्रसन्नता भी हुई. वे सब
जोर जोर से श्रीपाद स्वामी की जय जयकार करने लगे.”
यह नामस्मरण चल रहा था, तब एक अजीब बात हुई. अचानक तीन नाग वहाँ आये और उस नामस्मरण में तन्मय
होकर डोलने लगे. इसी समय मानव रूपी रीछ के प्राण पंचतत्व में विलीन हो गए. उन
नागों ने उस मृत देह की तीन बार प्रदक्षिणा की और वहाँ से निकल गए. वे नाग कहाँ से
आये थे? कोई भी समझ नहीं पाया. उस मानव रूपी रीछ का
शास्त्रोक्त विधि से दहन संस्कार किया गया.
हम हमेशा श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम स्मरण में
रत रहते. हमारे जीवन का आधार वही थे. वे तीनों नाग उस घटना के बाद हमारे ही यहाँ
रहने लगे. हमें तथा अन्य दत्त भक्तों को उनसे डर नहीं लगता था, परन्तु अन्य लोग उनसे भयभीत रहते थे, इस कारण वे हमारे घर नहीं आते थे. श्रीपाद श्रीवल्लभ का नाम संकीर्तन
आरम्भ होते ही वे नाग तन्मय होकर डोलने लगते.
उस वृद्ध दंपत्ति के घर के निकट की ज़मीन उनके
रिश्तेदारों ने अन्यायपूर्वक हड़प ली थी. उस भूमि को पंचों ने विवादग्रस्त घोषित कर
दिया था, मगर उस ज़मीन पर साग-सब्जी उगाने की इजाज़त
थी. हमारे रिश्तेदारों ने गाँव के प्रतिष्ठित लोगों को धन का लालच देकर अपनी और
मिला लिया था. अतः उस विवादित भूमि के बारे में निर्णय लगातार स्थगित कर दिया जाता
था.
उस विवादास्पद भूमि पर एक नाग की बाँबी थी.
नागपंचमी के दिन उस बाँबी में दूध डालते. दूध डालने वाले भाविक लोग “नाग देवता!
नाग देवता! हमारे संकट दूर करो!” ऐसी प्रार्थना करते. दूध डालने वाले कुछ लोगों को
ज्ञात था कि उस बाँबी में एक भी नाग नहीं है. एक बार नागपंचमी के अवसर पर हमने
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी को नैवेद्य समर्पित करके नाग देवता की प्रार्थना की, तुरंत उस बाँबी में से वे ही तीन नाग बाहर निकले और हमारे लाए हुए दूध को
पीकर वापस उसी बाँबी में चले गए. यह दृश्य देखने के पश्चात कोई भी फिर उस बाँबी
में दूध डालने नहीं आया.”
नागपंचमी के दिन एक मान्त्रिक हमारे गाँव में
आया. उस मान्त्रिक का गाँव के प्रतिष्ठित लोगों ने स्वागत किया. कितना भी ज़हरीला
सर्प क्यों न हो, वह
मान्त्रिक अपने मन्त्र की सामर्थ्य से उसे वश में कर लेता था. वह सर्पदंश से पीड़ित
तथा मृत व्यक्ति को अपनी मन्त्र शक्ति से जीवित भी कर देता था. उसकी हथेली पर गरुड
का चिह्न था. शास्त्रों में लिखा गया है कि जिस व्यक्ति की हथेली पर गरुड़ रेखा
होती है उसके वश में सर्प हो जाते हैं. इस मन्त्र विद्या के कारण सभी ग्रामवासी
उसके सामने नत मस्तक रहते थे.
उस मान्त्रिक ने गाँव के प्रतिष्ठित लोगों को
साथ में लेकर हमारे घर के निकट की उस बाँबी के चारों और आग लगा दी. वह उस आग के
निकट बैठकर जोर-जोर से मंत्रोच्चारण कर रहा था, तथा विचित्र ढंग से हाथ-पैर हिला रहा था. हम दूर खड़े थे और उससे कह रहे थे, कि उन नागों को मारने से पाप लगेगा. परन्तु हम कुछ कर ही नहीं सकते थे.
हमने श्रीपाद स्वामी के चरणों में प्रार्थना की कि वे उन निरपराध नागों की रक्षा
करें. उन मन्त्रों के प्रभाव से वे नाग बाहर निकले, परन्तु हम देख रहे थे कि उस मान्त्रिक की विद्या क्षीण होती जा रही है. वह
कुछ भी नहीं कर पा रहा था. वह जोर-जोर से मंत्रोच्चारण कर रहा था, परन्तु उसका कुछ भी उपयोग नहीं हो रहा था. वे नाग जिस दिशा में जाते, वहाँ श्रीपाद प्रभु की कृपा से अग्नि शांत हो जाती. आश्चर्य की बात यह हुई
कि अग्निदेवता ने उन तीनों नागों के लिए मार्ग साफ कर दिया था, वे जिस मार्ग से आये थे, उसी से
निर्विघ्न निकल गए. थोड़ी ही देर में अग्नि पूरी तरह शांत हो गई. यह सब देखकर
मान्त्रिक के अनुचर भाग गए.
इसी समय गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति के बड़े
पुत्र के शरीर पर सांप काटने के निशान दिखाई दिए. थोड़ी ही देर में उसका बदन सांप
के विष से काला-नीला पड़ गया. दूसरे पुत्र की दृष्टी पूरी तरह जाती रही. उस
मान्त्रिक ने बड़ी देर तक मंत्रोच्चारण किया, परन्तु कुछ भी लाभ न हुआ. उस मान्त्रिक की हथेली की गरुड रेखा धीरे-धीरे
छोटी होकर लुप्त हो गई. गाँव के लोग खूब भयभीत हो गए. उनका दृढ़ विशवास था कि इस
भयानक संकट से केवल श्रीपाद श्रीवल्लभ ही उन्हें बचा सकते है. उस मान्त्रिक की
मन्त्र विद्या पूरी तरह नष्ट हो गई और वह निस्तेज होकर ज़मीन पर गिर पडा. श्रीपाद
प्रभु की लीला किस समय, किसके लिए, कैसे सहायक सिद्ध होगी, यह समझ पाना
असंभव है. गाँव के लोग हमारे पास आकर फूट-फूट कर रोने लगे, परन्तु हम कुछ भी नहीं कर सके. “अनन्य भाव से श्रीपाद प्रभु की शरण में
आकर उनका नामस्मरण करो तो तुम्हारे दोनों पुत्र पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेंगे,” ऐसा हमने प्रतिष्ठित व्यक्ति से कहा.
निस्तेज पड़े मान्त्रिक का कुछ ही समय में
देहांत हो गया. उसका पार्थिव शरीर ग्राम प्रमुख के घर के सामने रखा था. हमारे
रिश्तेदार भय से थरथर काँप रहे थे. चारों और दुःख का वातावरण था. उस मान्त्रिक का
शरीर अन्त्य संस्कार के लिए श्मशान भूमि ले जाया गया. चिता पर उसे रखकर अग्नि
संस्कार आरम्भ करते ही एक आश्चर्यजनक घटना घटित हुई. मान्त्रिक जीवित हो उठा. वह
अग्नि से उसे बचाने के लिए चीखने-चिल्लाने लगा. श्रीपाद प्रभु की कृपा से उस
मान्त्रिक के भीतर का दुष्ट भाव अग्नि का स्पर्श होते ही जल कर राख हो गया और चिता
से एक शुद्धात्मा बाहर आई. इस सबके पीछे श्रीपाद प्रभु की अगाध लीला दिखाई देती है; वे सज्जनों का उद्धार करते एवँ दुर्जनों को अनुकूल दंड देते हैं.
वह मान्त्रिक चिता से उठकर उछलते हुए ग्राम
प्रमुख के घर आया. हम सबने प्रमुख के घर श्री दत्त-महात्म्य की महिमा गाने वाला
कीर्तन किया. इसके पश्चात “दत्ता दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा” के घोष से समूचा वातावरण गुंजायमान कर दिया.
श्रीपाद प्रभु के स्थूल रूप से तथा सूक्ष्म रूप से निकलती हुई किरणें पूरे वातावरण को शांत एवँ पवित्र
बना रही थीं. समूचा ब्रह्माण्ड इन दिव्य
किरणों से पवित्र हो उठा था. स्वामी का सच्चिदानंद अद्वैत स्वरूप में उपस्थित
महाकारण देह महत् विश्रांती की स्थिति में था. उसमें से निकलने वाले दिव्य किरण
सायुज्य, सालोक्य और सामीप्य मुक्ति प्रदान करने वाले
थे. अवधूत, अंशावतार और महासिद्धि प्राप्त महायोगी भी
इन दिव्य किरणों से पवित्र हो रहे थे. यदि श्रीपाद प्रभु का अत्यंत श्रद्धा एवँ
भक्तियुक्त अन्तःकरण से नामस्मरण किया जाए तो अगोचर, अदृश्य स्वामी प्रकट होकर सबको दर्शन देते हैं. जिस प्रकार नन्हें शिशु को
अपनी माँ की गोद में आह्लाददायक, आरामदायक अनुभूति होती है, उसी प्रकार श्रीपाद प्रभु के चरणों में नतमस्तक होने वाले भक्तों को होती
थी.
अत्यंत पापी, ऐसा वह मान्त्रिक श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के नामस्मरण संकीर्तन में लीन
हो गया, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु दिगम्बरावस्था में हैं. उसे ऐसा लगा कि उसके द्वारा किये गए पापों
के फलस्वरूप ही स्वामी उसे ऐसे दिखाई दे रहे हैं. अनगिनत सर्पों की उसने अपनी
मन्त्र विद्या से आहुती दी थी. अनेक महान सन्यासियों एवँ दिगम्बर विभूतियों को
उसने कष्ट पहुँचाया था. अब उसे अपने कर्मों का पश्चात्ताप हो रहा था. वह श्रीपाद
प्रभु के दिव्य स्वरूप का अंदाज़ लगा रहा था. वह श्रीपाद प्रभु के चरणों में
नतमस्तक हो गया. जब उसके ह्रदय में परिवर्तन हुआ तब उसके मन की द्वेषाग्नि शांत हो
गई. श्रीपाद प्रभु ने अपना उत्तरीय उसे ओढ़ने के लिए दिया. उसे लेकर वह मान्त्रिक
आनंदविभोर होकर नाचने लगा. सूर्योदय से पूर्व ही ग्राम प्रमुख के छोटे पुत्र को
उत्तम दृष्टी प्राप्त हुई. श्रीपाद प्रभु को समर्पित किये गए दूध के नैवेद्य से
बड़े पुत्र को होश आ गया और कुछ ही देर में वह पूर्ववत निरोगी हो गया. वह मान्त्रिक
सर्वसंग परित्याग करके साधू बन गया और दूर देश को निकल गया. गाँव के पंचों ने यह
निर्णय दिया कि उस वृद्ध दंपत्ति की ज़मीन उन्हीं को मिलनी चाहिए.
जिस बांबी में तीनों नाग रहते थे, वहाँ से तीन औदुम्बर के पेड़ निकले. कुछ समय पश्चात दत्तानंद अवधूत सन्यासी
हमारे घर आये. वे औदुम्बर वृक्ष के नीचे ही ध्यान किया करते थे. एक बार शनिवार को
श्रीपाद प्रभु को नैवेद्य के रूप में जो हलवा उन्होंने समर्पित किया था उसका
प्रसाद हमें दिया. श्रीपाद प्रभु जब छोटे थे तब उनकी माता नाना जी के घर के
औदुम्बर वृक्ष के नीचे बैठकर चांदी के पात्र में उन्हें हलवा दिया करती थीं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ, श्रीनृसिंह सरस्वती और श्री स्वामी सनार्थ – इन तीन नामों के प्रतीक थे ये
तीन औदुम्बर वृक्ष.
(इन
संकेत रूपी वृक्षों के बीजों का प्रतीक है पीठिकापुरम् गांव का एक औदुम्बर वृक्ष.
इस पुण्यप्रद वृक्ष की घनी छाया में पेड़ के नीचे, श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की मूर्ती की प्राण प्रतिष्ठा करके उस पर एक सुन्दर मंदिर बनाया
गया. इस मंदिर के बारे में यह प्रसिद्ध है, कि जो भक्त
शनिवार को प्रदोष काल में हलवे का नैवेद्य प्रभु को समर्पित करते हैं, उन्हें सब प्रकार के सुख, संपत्ति और अपार समाधान प्राप्त होगा.)
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की यह महिमा सुनकर मेरी
उनके प्रति भक्ति और भी दृढ़ ध हो गई और मैं अपनी अगली यात्रा पर कुरुगड्डी की दिशा
में चल पडा,
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम्
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १७
श्री नामानंद के
दर्शन
जब मैं कुरुगड्डी जा रहा था, तो रास्ते में एक
स्त्री बाल खोले, विचित्र प्रकार से हास्य करती हुई मेरे निकट आई. उसकी मनःस्थिति
ठीक न होने के कारण वह कुछ अस्पष्ट-सा कहते हुए चिल्ला रही थी. वह जब मेरे निकट आई तो भय के कारण मेरे
हाथ-पैर थरथर कांपने लगे. उसके पीछे-पीछे हाथों में डंडे लिए दो बलवान पुरुष आ रहे
थे. उस स्त्री ने मेरे पैरों पर सिर रखकर उन दो बलवान पुरुषों से उसकी रक्षा करने
की प्रार्थना की. वह दृश्य देखकर मैं तो डर के मारे पीला पड़ गया. मेरे जैसा
ब्राह्मण, जो अपने घर-द्वार से दूर, परदेस में है, किस प्रकार उस स्त्री की रक्षा कर सकता था? उस समय मेरे मुख
से अचानक निकला, “हे माते! डरने की कोई बात नहीं. इन दुष्ट, दुराचारी लोगों से श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु तेरी निश्चित रूप से रक्षा
करेंगे. तुम निर्भय होकर उठो.” उस स्त्री के पीछे-पीछे आये वे पुरुष आश्चर्य से
मेरी और देख रहे थे. उनकी तुलना में मेरा शरीर बहुत कमजोर था, परन्तु मेरे धैर्य
एवँ दृढतापूर्वक दिए गए आश्वासन को सुनकर वे हैरान हो गए. वे बोले, “हे ब्राह्मण! हम इस दुराचारिणी को मारने के लिए आये हैं. यदि तू बीच में
पडा, तो तुझे भी मार डालेंगे. तू सीधे-सीधे हमारे
रास्ते से दूर हो जा.”
इन दुष्टों की बात सुनकर मुझमें एक अद्भुत शक्ति
का संचार हुआ और मैं बोला, “अरे, ब्राह्मण कुल में
जन्म लेकर, निर्लज्जता से गाय का वध करके, गो-मांस भक्षण करके, मदिरापान करने वाले तुम जैसे दुर्जनों के लिए मुझ
ब्राह्मण का और इस निरपराध स्त्री का वध करना कोई कठिन कार्य नहीं है.” मैं आने
वाली हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार था. आगे मैंने कहा, “जैसे ही तुम इस स्त्री का वध करोगे, वैसे ही कुष्ट
रोग से ग्रस्त हो जाओगे. सभी रोगों में यह अत्यंत भयंकर रोग है. तुम अपने कर्मों
से स्वयं ही इस रोग को निमंत्रण दे रहे हो. मुझे तुम पर दया आती है. यह सब मैं
तुम्हारी भलाई के लिए कह रहा हूँ.”
मेरी बातें सुनकर उनकी सारी हिम्मत टूट गई और वे
पीले पड़ गए. जो कुछ भी मैंने उनके बारे में कहा था वह सच होने के कारण मेरी
भविष्यवाणी भी निश्चय ही सच होगी, ऐसा भय उनके मन में समा गया. उन्होंने अपनी सभी
गलतियों को मान लिया. उनकी दृष्टी में मैं एक विद्वान भविष्यवक्ता था, जबकि मुझे
ज्योतिष शास्त्र का कुछ भी ज्ञान नहीं था.
निकट ही एक वृक्ष की छाया में हम बैठ गये. मैंने
उनसे उनका जीवन वृत्तांत बतलाने की प्रार्थना की. वे बोले, “महाराज, आप त्रिकालदर्शी हैं. पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी
नहीं है जो आपको अज्ञात हो. आपने पूछा है, इसलिये बतलाता
हूँ. हम दोनों सगे भाई हैं. हमारा जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ, परन्तु हम ब्राह्मणत्व को पूरी तरह भूल गए और भ्रष्ट हो गए. गाय का मांस
खाने में हमें बड़ा आनंद आता था. इन सब दुर्गुणों के साथ ही मदिरापान का भयानक
व्यसन भी लग गया. हम पूरी तरह से दुरात्मा हो गए. सामने वाली पहाडी पर पद्मासन में
बैठी इस स्त्री को देखकर हमारे मन में बुरे विचार आये, परन्तु इसने
स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया. हमारा स्वाभिमान आहत हो गया और हम क्रोध में भरकर
उसके पीछे भागे. परन्तु सुदैव से आप जैसे महापुरुष के दर्शन प्राप्त हुए.”
मैंने कहा, “भाइयों! क्या
अच्छा है और क्या बुरा है, इसका निर्णय करने वाली सद्सत विवेक बुद्धि
ईश्वर ने मानव को दी है. अच्छे मार्ग का अवलंबन करने से अच्छा फल प्राप्त होता है, बुरा मार्ग पकड़ने पर बुरे अनुभव होंगे, इसमें कोई संदेह
नहीं है. यह स्त्री सदाचारी है इसलिए इसने तुम्हारी बात नहीं मानी. तुम्हारी
दृष्टी दोषपूर्ण है, इसलिए तुम्हें यह स्त्री दुराचारिणी प्रतीत
हुई. तुम इसके निकट बुरी कामना से गए थे, परन्तु अब
तुम्हें अपने बुरे कर्मों का पश्चात्ताप हो रहा है. तुम्हारे पापों को परमेश्वर
क्षमा करेंगे अथवा नहीं, यह मैं नहीं कह सकता, मगर एक शुभ वार्ता अवश्य सुनाता हूँ. समूचे त्रैलोक्य के आराध्य देव, त्रिमूर्ति स्वरूपी श्री दत्त प्रभु वर्त्तमान में मानव रूप में श्रीपाद
श्रीवल्लभ के नाम से कुरुगड्डी नामक गाँव में निवास कर रहे हैं. उनके दिव्य चरण
तुम्हारा उद्धार करेंगे. उनकी अनेक दिव्य लीलाएँ मैंने सूनी हैं.”
वह स्त्री बोली, “आपने इन दुष्ट
पापी लोगों से मेरी रक्षा की है. आप मेरे लिए पिता समान हैं. मेरा जन्म एक उच्च
ब्राह्मण कुल में हुआ. बहुत कम आयु में ही मेरा विवाह हो गया. यह मेरा दुर्भाग्य
था कि मेरा पति मुझे बहुत दुःख पहुंचाता था, मगर मैं पूरे
मनोभाव से उसकी सेवा करती थी. वह मुझ पर निरर्थक, झूठे दोष लगाता
जिससे मुझे अत्यंत मानसिक पीड़ा पहुँचती. उसके माता-पिता, घर के बड़े लोग उसे समझाने का खूब प्रयत्न करते, परन्तु वह किसी की भी नहीं
सुनता था.” यह कहते हुए उसकी आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे. कुछ देर बाद खुद को
संयत करके वह बोली, “हमारे गाँव में एक मान्त्रिक आया था. उसे
ज्योतिषशास्त्र का अच्छा ज्ञान था. मेरे सास-ससुर ने उसे बुला भेजा. उसने मेरी
कुण्डली बनाकर विचित्र पूजा-अर्चना की और बोला, “यह नीच जाति की
स्त्री है. इसके हाथों से अनगिनत अमंगल कार्य हुए हैं, इस कारण इसके पति
को नपुंसकत्व प्राप्त हुआ है. इसे घर से बाहर निकाल दोगे तो तुम्हारे सारे गृह दोष
नष्ट हो जायेंगे और मेरी पूजा-अर्चना का फल प्राप्त होगा. इसका पति भी सशक्त हो
जाएगा, फिर आप उसका विवाह दूसरी कन्या से कर देना.
उन्हें यथावकाश संतति प्राप्त होगी.”
उस ज्योतिषी के कहने पर दृढ़ विश्वास रखते हुए
मेरे सास-ससुर ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया. उनके द्वारा सताए जाने से मैं बहुत
हैरान हो गई थी. मेरे सामने कोई भी सहारा न था, अतः मैंने मायके
जाने का निश्चय किया. परन्तु तभी वह मान्त्रिक आया, उसने मुझे रोका
और बुरी नज़र से मुझे देखने लगा. उसकी आँखों में मुझे दुष्ट वासना के जलते हुए
अंगारे दिखाई दिए. मैं बहुत क्रोधित हो गई. मेरे शरीर में भद्रकाली की शक्ति प्रकट
हो गई. मैंने निकट ही पडा हुआ एक बड़ा पत्थर उठाया और उसे मान्त्रिक के सिर पर दे
मारा. इस भयानक मार से उस मान्त्रिक का सर फूट गया और वह मर गया. मेरे शील की
रक्षा का कोई दूसरा मार्ग मेरे सामने न देखकर ही मैंने वह पत्थर मान्त्रिक को मारा
था. मगर मेरे दुर्भाग्य से मेरे हाथ से एक ब्राह्मण की ह्त्या हो गई थी. मेरा मन
बहुत अशांत हो गया. क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कुछ समझ में नहीं
आ रहा था. मैंने मायके जाने का निश्चय किया, परन्तु इससे मेरी
समस्याओं का समाधान होने वाला नहीं था. मेरे माता-पिता प्रेमपूर्वक मेरी देखभाल कर
लेते, परन्तु मेरे भाई, भाभी मुझसे अच्छा
व्यवहार करेंगे इसका कोई विश्वास नहीं था. मान्त्रिक ने जिस तरह से मुझे सताया, उसके बारे में मैं किसी से कैसे कह सकती थी? मुझे मान्त्रिक
की ह्त्या करते हुए गाँव के सभी लोगों ने देखा था. ऐसी बातें आग के समान चारों और
फैलती हैं.
उसी परिसर में औदुम्बर का एक पेड़ था. मैंने सुना
था कि यह वृक्ष श्री दत्त प्रभु को अत्यंत प्रिय है. इस पेड़ के नीचे बैठे-बैठे
मुझे गहरी नींद आ गई. कुछ देर बाद जब आँख खुली तो देखा कि मेरे दोनों तरफ दो नाग
मेरी रक्षा कर रहे हैं. मैंने उन दोनों नागों को प्रणाम किया तब वे दूसरी और निकल
गए. मैं “दत्त दिगम्बर, दत्त दिगम्बर, जय गुरुदेव दत्त” ऐसा जाप कर रही
थी. मैंने सुना था कि यदि दत्त प्रभु का केवल स्मरण भी किया जाए तो वह भक्तों की
सहायता के लिए दौड़ कर आ जाते हैं. सौभाग्य से, जब मैं औदुम्बर
वृक्ष की छाया में थी तो मुझे ऐसी अनुभूति हुई कि श्रीपाद प्रभु का कृपा छत्र मेरे
सिर पर है. जब मैं नाम स्मरण कर रही थी तो एक पथिक इस पेड़ की छाया में विश्राम
हेतु आया, मैंने भयभीत होकर उससे पूछा, “तुम कौन हो? तुम यहाँ से निकल जाओ, अगर नहीं गए तो पत्थर से तुम्हें मार डालूँगी, कुछ ही देर पहले
मैंने एक मान्त्रिक को मारा है.”
वह पथिक बोला, “माई, मैं एक रजक कुल में जन्मा हूँ, मेरा नाम है रविदास. मैं श्री दत्त प्रभु का
भक्त हूँ. मैं कुरवपुर में रहता था. श्री गुरु दत्त श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में
भूतल पर अवतरित होकर वर्तंमान में कुरवपुर क्षेत्र में उनका वास है. दूर-दूर रहने
वाले दत्त भक्तों को यह समाचार मिले इस हेतु से वे नई-नई लीलाएं करते रहते हैं.
मैं अभी कुरवपुर जा रहा हूँ. तुम्हारी इच्छा हो तो मेरे साथ आओ. कुरवपुर यहाँ से
निकट ही है. पहले मैं अपने भाई के पास जाऊंगा, वहाँ से आगे
कुरवपुर जाऊंगा.” तब मैंने कहा, “तुम्हारी बात पर मैं कैसे विश्वास करूँ? आप जिनकी बात कर रहे हैं, वे श्रीपाद श्रीवल्लभ कौन हैं, यह भी मैं जानना नहीं चाहती. वे यदि वास्तव में दत्तात्रेय प्रभु होते तो
उन्होंने मेरी रक्षा की होती. यह सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की है कि वे दत्त
गुरु हैं. मैं श्रीपाद प्रभु का नामस्मरण नहीं करती, परन्तु श्री
दत्तात्रेय का ही नाम स्मरण करती हूँ. इसके बाद जो होगा, मैं देख लूँगी. आप फ़ौरन यहाँ से निकल जाईये, वरना कुछ अनर्थ
हो जाएगा.”
मेरी बात सुनकर वह भक्त रविदास “दत्त दिगम्बर, श्रीपाद श्रीवल्लभ” का नामस्मरण करते हुए चला गया. उसके बाद मैं पद्मासन
में बैठकर ध्यान करने लगी. तभी ये दोनों दुष्ट वहाँ आये. उनकी नशीली नज़र मुझ पर
पडी और वे मेरे पीछे पड़ गए. आपने इन दोनों दुष्टों से मेरी रक्षा की है.” तब मैंने
कहा, “हे माता! श्रीपाद प्रभु की कृपा से ही तेरी रक्षा
हुई है. वे अन्तर्यामी हैं, कालातीत हैं. इस सृष्टि में विविध कालावधित
घटनाएं होती रहती हैं. इन सभी घटनाओं के पीछे वे स्वयँ कारण बन कर स्थित रहते हैं.
इस सृष्टि में बिना कारण के कोइ कार्य नहीं होता. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी को
निर्गुण, सगुण, निराकार, साकार – किसी भी अवस्था में कोई भी जान नहीं सकता. प्रत्यक्ष वेद भी असमर्थ
हैं उनका स्वरूप जानने में और वे “नेति-नेति” हम नहीं जानते, ऐसा कहते हैं. जब वेदों की यह अवस्था है, तो सामान्य भक्त
उनके बारे में क्या जान सकता है? उनके स्वरूप का ज्ञान केवल उन्हीं को है, इसमें रत्तीमात्र भी संदेह नहीं है. मगर यदि हम उनका नामस्मरण करते रहे, तो उनका अनुग्रह अवश्य प्राप्त होगा और सभी दुखों से हमें मुक्ति मिलती है.
मैं, वे दोनों ब्राह्मण और वह ब्राह्मणी – सुशीला
कुरुगड्डी की ओर चल पड़े. मार्ग में हम श्री दत्त प्रभु और श्रीपाद श्रीवल्लभ
स्वामी का भजन करते हुए, नामस्मरण करते हुए चल रहे थे. रास्ते में लोग
यह समझ रहे थे कि हम किसी भजन मंडली के लोग हैं. हम मार्ग में स्थित नामानंद
स्वामी के आश्रम में पहुंचे.
श्रीपाद प्रभु का रूप परिवर्तन और शिष्य
नामानंद पर उनका अनुग्रह
श्री नामानंद स्वामी त्रिकालज्ञानी महात्मा
पुरुष थे. उन्होंने बड़े आदरपूर्वक हमारा स्वागत किया. उन्होंने अपना परिचय इस
प्रकार दिया, “ मेरे पिता का नाम मायन्नाचार्युलु और मेरा
नाम सायन्नाचार्युलु है. हमारा गोत्र भारद्वाज है और हम वैष्णव सम्प्रदाय के हैं.
संन्यास दीक्षा ग्रहण करने पर मेरा नाम नामानंद रखा गया. संन्यास लेने के बाद
मैंने पूरी तरह वैराग्य धारण किया और पुण्यतीर्थों तथा सिद्धतीर्थों की यात्रा की.
तत्पश्चात सदगुरु की खोज में निकल पडा. घूमते-घूमते मैं पीठिकापुरम् पहुँचा. हम
वैष्णव हैं, इसलिए श्री विष्णु की ही आराधना करते हैं.
हमारे यहाँ शुद्ध-अशुद्ध, छुआ-छूत बहुत कठिन होता है एवँ आचार-विचार उच्च
रहते हैं. पीठिकापुरम् में कुंती-माधव का दर्शन लेकर बाहर आया तो सामने एक चांडाल
खडा नज़र आया. हम चांडाल का दर्शन अशुभ मानते हैं. वह चांडाल सम्मुख आकर ऊंचे सुर
में बोला, “हमारी दक्षिणा देकर आगे जाओ.” मैं आश्चर्य से
उसकी और देखता ही रहा. गाँव के सभी लोग यह घटना देख रहे थे. सभी सोच रहे थे कि
कलियुग होने के कारण ही ऐसी अजीब बात हो रही है. वह चांडाल मदिरापान करके श्री
वैष्णवों पर अत्याचार करता था. तभी नामानंद ने उससे कहा, “अरे चांडाल, तू कौन है? मैं एक वैष्णव
ब्राह्मण हूँ. मेरा नाम नामानंद है. मुझसे तेरा दक्षिणा मांगना उचित नहीं है.”
उस चांडाल के नेत्र लाल हो गए थे, उसका चेहरा ऐसा भयंकर था कि हर कोई डर जाए. नामानंद के शांत वक्तव्य से वह
और भी क्रोधित हो गया. वह चांडाल नामानंद से बोला, “तू सद्गुरू की
खोज में मूर्ख के समान भटक रहा है. तू मुझे जानता नहीं है, मैं ही तेरा सद्गुरू हूँ. मैंने ही संन्यास दीक्षा के बाद तुझे “नामानंद”
का नाम दिया. तू अपनी सारी संपत्ति गुरुदक्षिणा के रूप में मुझे अर्पण कर दे और
सबके सामने साष्टांग दंडवत करके गुरू के रूप में मुझे स्वीकार कर. यदि तूने ऐसा
नहीं किया तो मैं तेरा सर्वनाश कर दूँगा.”
उस चांडाल ने नामानंद के साथ बड़ा कठोर व्यवहार
किया था. वह आगे बोला, “ तुझे वही करना होगा, जैसा मैं कहूंगा. तू ईश्वर की कितनी भी आराधन कर ले, फिर भी तेरी कोई मदद नहीं करेगा.” इतना कहकर वह चांडाल नामानंद पर टूट पडा.
नामानंद की इच्छा न होते हुए भी, अन्य कोई उपाय
न देखकर उन्होंने उस चांडाल के पैर पकड़ लिये. उन्होंने अपना सर्वस्व गुरूदक्षिणा
स्वरूप उस चांडाल को अर्पण कर दिया. ईश्वर की जो प्रतिमा हमारे मन में होती है, उससे वह कितना विपरीत होता है, ऐसा विचार नामानंद के मन में आया. परन्तु तभी
उन्हें यह आभास हुआ कि वह चांडाल उन्हें दिव्य मंगल स्वरूप में दर्शन दे रहा है.
उसके दिव्य नेत्रों से अनंत दया एवँ करुणा की वर्षा हो रही थी. दिव्य मंगल स्वरूप
युक्त उस परमेश्वर ने कहा, “मैं श्री दत्त हूँ, वर्त्तमान में
श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप में पीठिकापुरम् में अवतरित हुआ हूँ. तू मेरा भक्त है
और मैं तेरा सद्गुरू हूँ. तू मेरा सर्वस्व हो गया है. मैं ही सत्, चित्, आनंद हूँ.
तू कल से ही नामानंद नाम ग्रहण कर धर्म प्रचार में लग जा. तुझे सुख एवँ शान्ति
प्रदान होगी. अंत में तू मेरे पद को आयेगा.” इतना कहकर चांडाल का रूप धारण करने
वाले दत्त प्रभु अंतर्धान हो गए.
नामानंद स्वामी को श्रीपाद श्रीवल्लभ द्वारा
भोजन का निमंत्रण
इस प्रकार नामानन्द सन्यासी पीठिकापुरम् के लिए
निकल पड़े श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शनों के लिए. मार्ग में किसी ने भी उन्हें
भिक्षा नहीं दी. भूख से उनके प्राण व्याकुल हो रहे थे. सब लोग उनको संदेह की
दृष्टि से देखा रहे थे. वे समझ रहे थे कि यह एक पागल है. एक चांडाल आकर इससे
गुरुदक्षिणा ले गया. इसने ब्राह्मण होते हुए भी एक चांडाल को अपना गुरू बनाया है, अतः यह अस्पृश्य हो चुका है. इसलिए इसे भिक्षा देना शास्त्रों के विरुद्ध
होगा. इस विचार से पीठिकापुरम् के लोगों ने नामानंद स्वामी को भिक्षा नहीं दी.
घूमते-घूमते वे अप्पल राजू शर्मा के घर पहुंचे. भूख से व्याकुल नामानंद स्वामी के
मुख से बोल नहीं फूट रहे थे. किसी तरह उन्होंने ‘ऊँ भिक्षां देहि’ कहा. तभी द्वार खोलकर श्रीपाद श्रीवल्लभ घर से भोजन से भरी हुई थाली लेकर
आये. उन्हें ड्योढी पर बिठाकर प्रभु ने अपने हाथ से नामानंद स्वामी को खाना
खिलाया.
कैसा अपूर्व है यह सौभाग्य! विश्व-नियंता अपने
हाथ से अपने भक्त को खाना खिला रहा था. धन्य हैं
वह गुरू और वह शिष्य! भोजन के पश्चात उस अनंत शक्ति स्वरूप विधाता ने अपना
हाथ नामानंद के सिर पर रखा और आशीर्वाद दिया, “तुम्हें सब
प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होंगी. किसी भी चीज़ के लिए तुझे हाथ पसारना नहीं
पडेगा. तू कहीं भी रहे, मैं हमेशा तेरे साथ अदृश्य रूप में रहूँगा.
आँखों की पुतली के समान मैं तेरी रक्षा करूंगा.”
इस आशीर्वाद एवँ अभय वचन को प्राप्त करके
नामानन्द स्वामी उसी दिन से संन्यास ग्रहण करके धर्म प्रचार हेतु भ्रमण करने लगे.
अदृश्य रूप में श्रीपाद प्रभु का दिव्य हस्त स्वामी की रक्षा करता रहा. इस प्रकार
की जानकारी स्वामी नामानंद ने अपने आश्रम में हमें दी.
चार प्रकार के जीवन मुक्त प्राणी
नामानन्द स्वामी के आश्रम में सभी शिष्य बैठे थे. एक शिष्य ने गुरू से
प्रश्न किया, “स्वामी, श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से शीघ्र मोक्ष प्राप्ति होती है, इसके लिए क्या कोई साधन, मन्त्र अथवा विधान है? कृपया मेरे इस प्रश्न का समाधान करके मुझे कृतार्थ करें.” इस पर स्वामी
प्रसन्नचित्त से बोले, “हे पुत्र, मोक्ष का अर्थ है
– वासना त्याग. यह आवश्यक नहीं है कि मोक्ष शरीर के पतन होने के उपरांत ही प्राप्त
हो. प्रारब्ध के अनुसार शरीर को विविध अनुभवों से गुज़रना पड़ता है. जिन सत्पुरुषों
की जीवात्मा मुक्त अवस्था में होती है, उन्हें “जीवन्मुक्त” कहते हैं. अपने इष्ट देवता
के सान्निध्य में सदा रहने को “सालोक्य मुक्ति” कहते हैं. इस अवस्था में साधक इष्ट
देवताओं के लोक में रहता है. इनसे अधिक पुण्यवान भक्तों को इष्ट देवता के समीप
रहने का सौभाग्य प्राप्त होता है, इसे “सामीप्य मुक्ति” कहते हैं. इनसे अधिक
पुण्यवान भक्तों को इष्ट देवता का स्वरूप ही प्राप्त हो जाता है. इसे “सारूप्य
मुक्ति” कहते हैं. इससे भी अधिक उच्च स्थिति तब प्राप्त होती है जब भक्त इष्ट
देवता के चैतन्य में लीन हो जाता है. इसे “सायुज्य मुक्ति” कहते हैं. इस
आध्यात्मिक चिंतन में श्री दत्त भक्त इहलोक में रहकर भी “सालोक्य मुक्ति” का अनुभव
प्राप्त करते हैं. वे अपने शरीर से प्रारब्ध के अनुसार भोग लेते हुए भी मन से श्री
दत्त प्रभु के चरणों में सदा लीन रहते हैं. उन्हें सदैव श्री दत्त प्रभु का ही
ध्यान रहता है.
सृष्टि धर्म एवँ सूक्ष्म सृष्टि में भी कालचक्र
निरंतर घूमता ही रहता है. सृष्टि के चिद्विलास को अपनी अंतर्दृष्टि से देखकर दत्त
भक्त आनंद विभोर हो जाता है. स्वार्थ रहित योगी की दिव्य शक्ति से विश्व का कल्याण
होता रहता है. इसमें उनकी नि:स्वार्थ वृत्ति दृष्टिगोचर होती है. इस प्रकार यह
योगी इहलोक में अपना कल्याण करके “सामीप्य मुक्ति” प्राप्त कर लेता है. ऐसा भक्त
श्री दत्त प्रभु की दिव्य लीलाओं का अपनी अंतर्दृष्टि से अवलोकन कर, उनका मनन, चिंतन करके “सालोक्य मुक्ति” से भी अधिक श्रेष्ठता प्राप्त करके
सर्वोच्च आनंद प्राप्त कर लेता है. जब जीवात्मा शरीर के बंधन में होता है, उस समय उसे अनेक वासनाएं, इच्छाएँ जकडे रखती हैं. परन्तु जब उसे मुक्त
अवस्था का ज्ञान होता है, तब उसे खूब हल्का-हल्का लगता है. इस प्रकार
इच्छा तथा वासना रहित लघु जीवात्मा आनंद में मग्न रहते हैं. “सायुज्य मुक्ति” का
लाभ जिन दत्त भक्तों को होता है, उनके भीतर श्री दत्त प्रभु की लीलाएँ यथेच्छ
मात्रा में प्रकट होती हैं.इन भक्तों को कुछ और पाने की इच्छा ही शेष नहीं रहती.
श्री दत्त प्रभु का दर्शन, स्पर्श, संभाषण एवँ अनुग्रह
जिन भक्तों को प्राप्त होता है, उन्हें सदा प्रभु का संरक्षण मिलता रहता है.
इहलोक में अथवा परलोक में प्राप्त होने वाला महदैश्वर्य श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी
ही देते हैं. मानव विविध देवताओं की विविध स्वरूपों में आराधना करते हैं, ये सभी
देवता श्रीपाद प्रभु का ही दिव्य अंश होते हैं. उन देवताओं के माध्यम से श्रीपाद
श्रीवल्लभ उन भक्तों को अनुग्रह प्रदान करते है.
श्री दत्त
आराधना की विशेषता
इस पर मैंने कहा, “क्या हमें विविध
रूपों में अवतरित देवताओं की आराधना करना चाहिए अथवा श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की
आराधना करना चाहिए? क्या अन्य देवता श्रीपाद श्रीवल्लभ से भिन्न
हैं? कृपया इस बात का विश्लेषण करके समझाएं.”
नामानंद स्वामी ने उत्तर दिया, “एक कन्या
विवाहोपरांत अपनी ससुराल गई. कुछ महीनों के बाद उसका बड़ा भाई उससे मिलने गया.
कन्या की सास बोली, “तुम्हारी बहिन हमारे घर में विविध प्रकार की
चोरियां करती है, दूध, दही, मक्खन, घी चुरा चुरा कर खाती है. एकाध चोरी होती, तो मैं सहन कर लेती, परन्तु इतनी चोरियाँ?” तब भाई अपनी बहिन से बोला, “बहना, तू चोरी करना बंद
कर दे. तू सिर्फ दूध लेती जा, जिससे तेरी सास तुझ पर क्रोधित नहीं होगी. दूध
में सभी कुछ तुझे मिल जाएगा.” इसी प्रकार अकेले श्री दत्त प्रभु की आराधना करने से
सभी कुछ मिलता है. लोग अपनी-अपनी पसंद के अनुसार विविध देवताओं की पूजा-अर्चना
करते हैं. शिव की पूजा करने से विष्णु प्रसन्न नहीं होते, न ही विष्णु पूजन से शिव प्रसन्न होते हैं. सगुण एवँ साकार देवताओं की पूजा
करने से भक्त को उसके कर्म के अनुसार फल मिलता है. अनेक जन्मों में किये गए
पाप-पुण्य का फल यदि क्षीण स्थिति में हो, तो पुण्य
महाविशेष श्रेणी में जमा हो जाता है. इस समय श्री दत्त प्रभु की भक्ति प्राप्त
होती है. ऐसे भक्त को सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं. ब्रह्मा द्वारा
लिखित भाग्य के लेख को कोई मिटा नहीं सकता. परन्तु जहाँ तक श्री दत्त प्रभु के
भक्तों का सम्बन्ध है, श्री दत्त प्रभु ब्रह्मदेव को आदेश दे सकते हैं, किसी भी जीवात्मा की शारीरिक, मानसिक एवँ आध्यात्मिक स्थिति श्री विष्णु के
कारण होती है. यदि महायोग शक्ति अपरिपक्व अवस्था में स्थित जीवात्मा में प्रवेश
करे तो शरीर, मन एवँ बुद्धि उस शक्ति को संभाल नहीं सकते, इसके फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है, मानो जीवात्मा
अग्निज्वाला में दग्ध हो रहा है. जीवात्मा के जीवन को सुचारू रूप से चलाने के लिए
भगवान विष्णु सहायता करते हैं, ऐसा हर जीवात्मा के कर्मानुसार होता है.
श्रीकृष्ण श्री दत्त प्रभु के अभिन्न अंग हैं. श्रीकृष्ण ने अपनी तर्जनी पर
गोवर्धन पर्वत धारण किया था, यह तो सभी को ज्ञात है. गोकुल के सारे
गोप-गोपियाँ पूर्व जन्म में महान, महान ऋषि थे उनके द्वारा रचित महान ग्रन्थ
पर्वत के रूप में अवतरित हुए थे. इन महान ग्रंथों का विभेदन होकर उसमें से जब
प्रचंड महायोग शक्ति निकलती है, तब जीवात्मा को खूब हल्कापन महसूस होता है. इस
सूक्ष्म स्थिति में जीवात्मा को महायोगानंद प्राप्त होता है. इसे प्राप्त करने के
लिए कठोर तप की आवश्यकता होती है. श्रीकृष्ण भगवान अपने भक्तों का, आश्रितों का संपूर्ण भार स्वयँ वहन करते है, उनकी ग्रंथियों
का विभेदन करके उन्हें शक्ति प्रदान करते हैं, यह एक आध्यात्मिक
रहस्य है. बौद्धिक दृष्टि से देखा जाए तो श्रीकृष्ण भगवान गोवर्धन पर्वत उठाकर
सबकी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है. श्री दत्त प्रभु का यही
निश्चय था. परिस्थिति में परिवर्तन लाने का, परिणाम क्रम को
शीघ्र प्राप्त करने का आदेश वे श्री विष्णु को देते रहते थे. इस प्रक्रिया में
भक्तों के प्रारब्ध के अनुसार मार्ग में आने वाली कठिनाईयाँ, उनके अनुभव, उनके अनजाने में ही सुलभ एवँ सुसह्य होते जाते थे. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
अपनी भारी-भरकम विद्याओं पर भक्तों का भार वहन करते हैं. श्रीपाद प्रभु कितने
दयालु हैं, कितने करुणामय हैं! श्रीपाद श्रीवल्लभ के साथ
सायुज्य स्थिति का अनुभव करने वाले योगियों ने एक लाख पच्चीस हज़ार अनुयायी बनाने
का संकल्प किया था. श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार का मुख्य लक्ष्य था इस उद्देश्य की
पूर्ती करना. वे कर्मबंधन के स्पंदनों से सबको मुक्त स्थिति में लाकर, रूद्र के अंश के रूप में प्रकट होकर करोड़ों जन्मों के पश्चात होने वाले
जन्मों का विनाश करके उस जीवात्मा को मुक्ति देते हैं. उनमें निहित ब्रह्मा, विष्णु एवँ रूद्र के अंश का प्रस्फुटन होकर उनके ईश्वरीय गुणों से भक्तों
की रक्षा होती है. यह सब उस आत्मा विशेष की इच्छानुरूप होता है. अपनी इच्छा को
फलीभूत देखने के लिए यह आवश्यक है कि भक्त जन भक्ति मार्ग का अवलंबन करें
एक बार पीठिकापुरम् में श्रीपाद प्रभु के एक
भक्त को, जब वह घोड़े पर बैठ रहा था, घोड़े ने नीचे गिरा दिया और पैरों से कुचल
दिया. वह भयानक रूप से ज़ख़्मी हो गया. उस ज़ख़्मी भक्त को श्रीपाद प्रभु ने अपना अभय
हस्त दिखाया और उसी समय उसकी सभी चोटें पूरी तरह ठीक हो गईं, मानो चोट लगी ही नहीं
थी. उसी दिन श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु पर दृढ श्रद्धा एवँ उनके प्रति भक्तिभाव रखने
वाले एक भक्त को अकस्मात् सौ मुहरों से भरा हुआ घडा प्राप्त हुआ. श्री
वेंकटप्पय्या ने प्रभु से विनती की कि इस घटना का विश्लेषण करके समझाएं. इस पर
श्रीपाद स्वामी बोले, “मैंने मेरे एक अनन्य भक्त की आयु बीस वर्षों
से बढ़ा दी है. उसकी भक्ति से संतुष्ट होकर मैंने उसे यह फल दिया है. आज एक भक्त को
सौ मुहरों से भरा हुआ घडा मिला, यह उसके लिए अत्यंत भाग्यशाली दिन है. जो मेरी
मन:पूर्वक अनन्य भक्ति करता है, मैं उसका दास हो जाता हूँ. जो भक्त अपने ह्रदय
में मुझे स्थापित करते हैं, वे मुझे अत्यंत प्रिय हैं. त्रैलोक्यपति
परमेश्वर भी ऐसे भक्तों के आधीन होकर उनके साथ ही संचार करते हैं.
श्री नामानंद स्वामी के दिव्य सत्संग से सभी बड़े
आनंदित हुए. वे दो ब्राह्मण नामानंद से बोले, “हमें अपने पाप
कर्मों पर पश्चात्ताप हो रहा है. आप हमें कृपया उपदेश दें.”
स्वामी नामानंद बोले, “तुम एक-भुक्त
व्रत करो. श्रम पूर्वक धन सम्पादन करो, और उस धन का उपयोग सद्ब्राह्मणों को अन्नदान
करने के लिए करो. इससे तुम्हारे पापों का क्षालन होगा. इस प्रकार का आचरण करने से
श्रीपाद प्रभु प्रत्यक्ष रूप से अथवा स्वप्न में दर्शन देंगे. मन्त्र दीक्षा
प्राप्त होने के बाद भी सदाचार का आचरण करो. यदि तुम पुनः दुराचारी वर्तन करोगे, तो श्रीपाद स्वामी तुम्हें दुगुनी सज़ा देंगे. इस बात का सदैव ध्यान रखना.”
श्री दत्तात्रेय की आराधना का फल
सुशीला नामक उस ब्राह्मणी ने श्री नामानंद से पूछा, “स्वामी! संकटों से किस प्रकार मुक्ति प्राप्त की जा सकती है?” इस पर नामानंद स्वामी ने प्रसन्न चित्त से कहा, “आत्मा शाश्वत है. यह जन्म-मृत्यु से परे है. उसे अग्नि जला नहीं सकता, शस्त्र हानि नहीं पहुँचा सकता, पानी उसे
भिगो नहीं सकता, वायु उसे
सुखा नहीं सकता. मनुष्य करोड़ों बार मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः पुनः जन्म लेता है.
तुम अनघा देवी का व्रत करो, इससे तुम
संसार में सुखी होगी. साथ ही तुम देवी सहित श्री दत्तात्रेय की आराधना करके उन्हें
संतुष्ट करो. ऐसा करने से श्री दत्तात्रेय प्रभु निश्चय ही तुम पर कृपा करेंगे.
श्री बापन्नाचार्युलु को श्री दत्त प्रभु के दर्शन प्राप्त हुए और उन्होंने ‘सिद्ध
मंगल स्तोत्र’ की रचना की. प्रत्यक्ष श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन की अनुभूति
से गाए जाने वाले इस स्तोत्र के अक्षर अत्यंत प्रभावशाली हैं. इन अक्षरों में
निहित चैतन्य युगों युगों तक विलसित रहेगा. इस स्तोत्र में व्याकरण की दृष्टी से
कोई भी त्रुटी नहीं है. इस स्तोत्र के पठन के लिए किसी भी विधि-विधान की आवश्यकता
नहीं. मुझे यह स्तोत्र श्री बापन्नाचार्युलु के मुख से सुनने का सौभाग्य प्राप्त
हुआ. यह स्तोत्र मेरे ह्रदय पटल पर अंकित हो गया है:
सिद्ध मंगल स्तोत्र
१.श्री मदनंत श्री विभूषित अप्पल लक्ष्मी नरसिंह राजा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
२.श्री विद्याधरी राधा सुरेखा श्री राखीधर
श्रीपादा।
जय
विजयी भव दिग्विजयी भव, श्रीमदखण्ड श्री विजयी भव।।
३.माता सुमति वात्सल्यामृत परिपोषित जय श्रीपादा ।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
४.सत्यऋषीश्वर दुहितानन्दन बापन्नाचार्यनुत
श्री चरणा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
५.सवित्र काठक चयन पुण्यफल भारद्वाज ऋषि
गोत्र संभवा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
६. दो चौपाती देव लक्ष्मी गण संख्या बोधित
श्री चरणा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
७.पुण्यरूपिणी राजमाम्बासुत गर्भ पुण्यफल
संजाता।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
८.सुमति नंदन नरहरी नंदन दत्तदेव प्रभु
श्रीपादा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
९.पीठिकापुर नित्यविहारा मधुमती दत्ता मंगल
रूपा।
जय विजयी भव दिग्विजयी भव, श्री मदखण्ड श्री
विजयी भव।।
इस परम पवित्र सिद्ध मंगल स्तोत्र का पठन यदि श्री अनाघाष्टमी का व्रत करने
के पश्चात किया जाए तो सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन देने का पुण्य प्राप्त होता है.
साथ ही स्वप्न में सिद्ध पुरुषों के दर्शन प्राप्त होते हैं. इसके पठन से सभी
मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं जो भक्त काया, मन तथा
कार्य से श्री दत्तात्रेय प्रभु की आराधना करके इस स्तोत्र का पठन करते हैं, वे श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की कृपा के पात्र बन जाते हैं, इसके नियमित गायन से सूक्ष्म वायुमंडल में अदृश्य रूप से संचार करने के
सिद्धी प्राप्त होती है.
श्रीपाद
प्रभु का सुशीला के पति पर अनुग्रह
श्री नामानंद स्वामी की अमृत वाणी सुनकर मेरे मन
में एक विचार आया. मैंने श्री नामानंद से कहा, “हे स्वामी, इस स्तोत्र के पठन में श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं का सप्रसंग वर्णन
करें, ऐसी मेरी आपके चरणो में नम्र प्रार्थना है.” हम
तीनों पर स्वामी ने अपनी दयामयी, आनंददायी दृष्टी डाली और हमारी विनती को
स्वीकार किया. उस रात को हमने श्रीपाद प्रभु का नामस्मरण किया. स्वामी ने प्रभु की
लीलाओं का वर्णन करते हुए ‘सिद्ध मंगल स्तोत्र’ का गायन आरम्भ किया. उस दिव्य
अनुभूति में रात कब बीत गई, पता ही नहीं चला. उष:काल में हमने श्रीपाद
प्रभु की मंगल आरती की. थोड़ी ही देर में खाद्य पदार्थों से भरी हुई एक बैलगाडी
आश्रम में आई. गाडीवान नीचे उतरा. उसने सारी खाद्य सामग्री गाडी से उतार कर आश्रम
में रखी. फिर वह सुशीला से बोला, “थोड़ी ही देर में तुम्हारा पति, सास एवँ ससुर दूसरी बैलगाड़ी से आने वाले हैं.” उस गाडीवान की बोली में एक
अनोखी मिठास थी. देखने में भी वह दूसरे गाडीवानों जैसा नहीं था. उस गाडीवान की और
निरंतर देखते रहने को मन करता था, परन्तु. वह सामान उतारकर, संदेसा देकर फ़ौरन निकल गया. उस समय नामानंद स्वामी ध्यानावस्था में थे.
ध्यानावस्था से निकलने पर उन्होंने पूछा, “वह गाडीवान कहाँ
है?” हमने उन्हें बताया कि वह सामान रखकर चला गया
है. यह सुनते ही स्वामी बोले, “तुम लोग कितने भाग्यवान हो! मैं ही अभागा
हूँ.” वे आगे बोले, “परम करुणा की मूर्ती श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
अपने लिए गाडीवान के रूप में खाद्य सामग्री लेकर आये. उन्होंने तुम लोगों को दर्शन
दिए.” फिर वे सुशीला की और मुड़कर बोले, “हे सुशीला! तुम्हारा भाग्योदय हो गया है.
तुम्हारे पति का नपुंसकत्व समाप्त हो गया
है. तुम्हारा पति एवँ सास-ससुर दूसरी बैलगाड़ी में आ रहे हैं.”
सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा त्रिकालज्ञानी स्वामी
नामानंद ने कहा था. सुशीला अपने पति तथा सास-ससुर के साथ अपने घर चली गई. मैंने
तथा उन दोनों ब्राह्मणों ने श्री स्वामी से कुरुगड्डी जाने की आज्ञा मांगी. श्री
नामानंद स्वामी का आशीर्वाद लेकर हम कुरुगड्डी के मार्ग पर चल पड़े.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम् शरणं प्रपद्ये।।
।। अध्याय १८ ।।
।। संत
रविदास एवं श्रीपाद प्रभु के दिव्य मंगल दर्शन।।
मैं उन दोनों ब्राह्मणों के साथ यथासमय कुरुगड्डी पहुंचा. अनंत कोटि
ब्रह्माण्ड नायक, जो आदि, मध्य, अंत रहित हैं, चतुर्दश
भुवनों का जिनमें समावेष है और जो इन लोकों के सार्वभौम हैं, ऐसे लीलावतारी भगवान श्रीपाद प्रभु कृष्णा नदी से स्नान करके बाहर आ रहे
थे. उनके दिव्य मंगल स्वरूप के इस अकस्मात् दर्शन से हम भाव विभोर हो गए. उनके
नेत्रों से अपार प्रेम, करुणा एवँ
वात्सल्य की वर्षा हो रही थी. वे मेरे निकट आये : मैं संभ्रमित हो गया. क्या करूँ, यह मैं समझ ही नहीं पाया. वे स्वयँ ही मुझसे प्रणाम करने को कह रहे थे.
मेरे उनके चरणस्पर्श करने पर उन्होंने अपने कमंडलु से पवित्र जल मुझ पर छिड़का. मैं
स्तब्ध रह गया. वे अपनी मधुर वाणी में बोले, “बेटा, शंकर भट्ट!
मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ.” उस मधुर वाणी का वर्णन मैं शब्दों द्वारा नहीं कर सकता.
उनकी वात्सल्यपूर्ण दृष्टी मुझ पर पड़ते ही मैं कृतार्थ हो गया. समस्त भूमंडल में
अपनी अनंत शक्ति से विराजमान प्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ ने अपना वरदहस्त मेरे मस्तक
पर रखा. मेरी कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो गई और मेरे सामने की सारी सृष्टि अंतर्धान
हो गई. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सहस्त्रों सागर मेरा आलिंगन कर रहे हैं. एक अनंत
शक्ति का विद्युत् प्रवाह मेरी नसों में प्रवाहित होने लगा, शरीर में दाह उत्पन्न
हो गया. मेरे नेत्र अपने आप बंद हो गए, नाडी तथा
ह्रदय स्पंदन कुछ देर के लिए रुक गए. मेरा मन निर्विकार एवँ निश्चल होकर अनंत
शून्य में खो गया. मेरे ह्रदय का चैतन्य विश्व चैतन्य में विलीन हुआ प्रतीत हुआ.
इस अवस्था में मैं अत्यंत आनंद का अनुभव कर रहा था. उस स्थिति का शब्दों में वर्णन
करना कठिन है. उस अत्युच्च आनंद की अवस्था में मुझे ऐसा आभास हुआ, मानो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड मुझसे निकलकर सृष्टि, स्थिति एवँ विलय को प्राप्त हो रहे हैं. ऐसा दृढ़ विशवास हो रहा था कि मैं
इन से भिन्न नहीं हूँ. मेरे ‘स्व’ का विलय हो
जाने के कारण मैं एक अव्यक्त आनंद की अवस्था में था. यह सब मुझे बड़ा विचित्र
प्रतीत हो रहा था. तभी श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेमभाव से अपने कमंडलु से मुझ पर जल
छिड़का. मैं वापस सहज स्थिति में लौट आया. संपूर्ण विश्व के जो आदिगुरू हैं, वे श्रीवल्लभ सहस्त्रों माताओं की वात्सल्य पूरित दृष्टी से मेरी ओर देखते
हुए मंद स्मित कर रहे थे.
यवनों को
श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शन
मेरे साथ आये दोनों ब्राह्मणों को श्रीपाद प्रभु
से बात करने का अथवा उनके चरण स्पर्श करने का साहस न हुआ. श्रीपाद स्वामी से मुझसे
पूछा, “तुम्हारे साथ आये ये दोनों अपरिचित कौन हैं?” मैंने कहा, “प्रभु, आपके दिव्य चरणों
के दर्शन की अभिलाषा रखने वाले ये दो ब्राह्मण हैं.” इस पर प्रभु बोले, “ ये ब्राह्मण नहीं प्रतीत होते, गौ-मांस भक्षण
करने वाले यवन प्रतीत होते हैं. सच-झूठ उन्हीं से पूछो.” तभी वे ब्राह्मण बोले, “हम ब्राह्मण नहीं हैं, निःसंदेह हम यवन हैं. हम कुरान पढ़ते है.” उनके इस
कथन से मैं स्तंभित रह गया. “श्रीपाद श्रीवल्लभ के नाम से माया वेश में संचार करने
वाले जगत्प्रभु श्री दत्तात्रेय स्वामी को पहचानना अनेक जन्मों का पुण्य फल है. उस
स्थिर भाव में संपूर्ण रूप से भक्तिभाव का अनुभव करना महद्भाग्यपूर्ण है.
“गौ माता में सब देवताओं का वास होता है. गाय के
बिना घर स्मशान के समान है. श्रद्धा पूर्वक गौ माता की सेवा करने वाले मुझे बहुत
प्रिय हैं. गाय का दूध तुष्टिदायक एवँ पुष्टिदायक होता है. ब्राह्मण के रूप में
जन्म लेकर गौ मांस खाने वाला दंड का पात्र होता है. यज्ञ-याग करते समय बकरी की बलि
दी जाती है. यज्ञ-पशु होने के कारण बकरी अथवा अन्य पशु भी अपनी नीच योनि से मुक्त
होकर आगे उत्तम जन्म प्राप्त करते हैं. यज्ञ-पशु को उत्तम जन्म प्राप्त हो इसके
लिए यज्ञ करने वाले को महायोगी के तपोबल एवँ योगबल से समृद्ध होना अत्यावश्यक है.
यदि वह योगी ऐसा समर्थ न हो, तो उसे प्राणी ह्त्या का पाप लगता है. देश एवँ
कालानुसार धर्म-कर्म पद्धति में थोड़ा बहुत परिवर्तन होता रहता है. यवन तपस्वी यदि
गौ मांस भक्षण करे तो भी परमेश्वरार्पण बुद्धि से किया गया यह कर्म उस गाय तथा
उसकी संतति को उत्तम जन्म दे जाता है. परन्तु यदि ऐसा न हो, तो महान पाप होता है, इसलिए गोहत्या, शास्त्रानुसार, महान पाप है.”
“कौरव-पांडवों के युद्ध के लिए उचित धर्मक्षेत्र
की खोज में अर्जुन एवँ श्रीकृष्ण निकले. उन्होंने एक खेत में एक किसान को सिंचाई
करते हुए देखा. पानी के प्रवाह को रोकने के लिए वह एक बड़ा पत्थर ढूंढ रहा था. तभी
उसका पुत्र अपने पिता के लिए भोजन लेकर आया. खाना खाने के पश्चात, जब पानी के बहाव
को रोकने के लिए किसान को पत्थर नहीं मिला, तो उसने अपने
पुत्र का वध कर दिया और उसके मृत शरीर का उपयोग खेत में पानी रोकने के लिए किया.
उस समय उस किसान तथा उसके पुत्र के बीच यह वध करते समय कोई भी अन्य भावना नहीं थी.
वे दोनों निर्विकार थे, फसल पका कर सबको अनाज देना, बस इतना ही वह किसान जानता था. वही उसका धर्म था. फल की आशा किये बिना वह
किसान अत्यंत श्रद्धाभाव से अपना कर्म कर रहा था. इसी स्थान को श्रीकृष्ण ने
धर्मक्षेत्र के रूप में चुना.”
“अरे
नाममात्र के ब्राह्मण! गोमांस भक्षण करना कभी भी योग्य नहीं है. तुम्हारे पूर्व
पुण्य से तथा पूर्व पितृ देवताओं की प्रार्थना से, एवँ मेरी अपार करुणा के कारण ही
तुम्हें मेरे दर्शनों का काभ प्राप्त हुआ. इसी को अपना महान सौभाग्य समझो.
तुम्हारे द्वारा किया गया प्रणाम मैं स्वीकार नहीं करूंगा. तुम मुझे स्पर्श न
करना. मेरे कमण्डलु के जल को तुम्हारे शरीर पर छिड़कना असंभव है. तुम तुरंत यहाँ से
निकल जाओ. तुम्हारे अन्न-वस्त्र की व्यवस्था मैंने कर दी है. किसी यवन स्त्री से
विवाह करके तुम यवन की भाँती रहना. जिन गायों का तुमने वध किया है, वे अगले जन्म में तुम्हारी संतान के रूप में जन्म लेंगी और तुम्हें कष्ट
देकर तुम्हारे धन से सुख प्राप्त करेंगी. मेरे दर्शनों के कारण तुम पुनीत हो गए
हो, इस कारण कुछ जन्मों के पश्चात तुम बड़े बाबा और अब्दुल बाबा के नाम से जाने
जाओगे. महाराष्ट्र के शिरडी ग्राम में श्री साईंबाबा नामक महात्मा का अवतार होगा, वे तुम्हारा उद्धार करेंगे. मेरे ये वचन पत्थर की लकीर के समान हैं.” इतना
कहकर श्रीपाद प्रभु ने उन्हें वहाँ से जाने को कह दिया.
अब वहाँ केवल मैं और श्रीपाद प्रभु ही थे. तभी
वहाँ रविदास नामक रजक आया. रविदास निरंतर प्रभु को प्रणाम किये जा रहा था, परन्तु प्रभु उसकी और ध्यान नहीं दे रहे थे. कुछ देर पश्चात वे उसकी और
देखकर मुस्कुराए. मुझे इस बात से आश्चर्य हुआ. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने मेरे
माथे के मध्य बिंदु को जोर से दबाया. तब मुझे अपनी आंखों के सामने चित्र-विचित्र
दृश्य दिखाई दिए.
श्रीपाद स्वामी का अपने भक्तों पर अनुग्रह
रविदास की नौका कृष्णा नदी में कुरुगड्डी की और जा रही थी. उस नाव में एक
वेदशास्त्र पंडित बैठे थे. अन्य अस्पृश्य जाति के लोगों के स्पर्श से बचने के लिए
वे अकेले ही उस नौका में बैठे थे. वे पंडित जी रविदास से बोले, “मैं महापंडित हूँ और श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी के पास जा रहा हूँ.
उन्होंने मुझे बुलाया है, वे ही तुझे नौका का किराया देंगे.” यह सुनकर रविदास ने
अपनी सम्मति दर्शाई. नौका चल पडी. बातों-बातों में उस पंडित को ज्ञात हुआ कि
रविदास को पौराणिक-ऐतिहासिक कथाओं का किंचित भी ज्ञान नहीं है. वह पंडित बोला, “अरे रविदास, तुझे
इतिहास-पुराण आदि का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है, अर्थात तूने अपना तीन चौथाई जीवन व्यर्थ गँवा दिया है. यह सुनकर रविदास
निराश हो गया. अचानक वायु की गति तीव्र हो गई. नौका में एक छेद हो गया और उसमें से
पानी भीतर आने लगा. रविदास ने पंडित जी से पूछा, “महाराज, क्या आपको
तैरना आता है?” पंडित ने
जवाब दिया, “अरे, मुझे तो तैरना नहीं आता.” रविदास बोला, “महाराज, मैं तो
तैरना जानता हूँ, परन्तु
तैरना न जानने के कारण आपका सौ प्रतिशत जीवन व्यर्थ हो गया है.”
बढ़ते हुए जलस्तर को देखकर रविदास ने श्रीपाद प्रभु का नाम लेकर पानी में
छलांग लगाने की तैयारी की. तभी उसे पानी के बीचोंबीच एक दिव्य कांति दिखाई दी.
उसने आदि-अंत रहित श्रीपाद स्वामी की महिमा के बारे में अनेक कथाएँ सुनी थीं.
रविदास ने अत्यंत श्रद्धापूर्वक उस दिव्य कांति को प्रणाम किया. नौका में जलस्तर
बढ़ता ही जा रहा था, तभी एक
महदाश्चर्य की बात हुई. एक अदृश्य हाथ उस
नौका से पानी निकाल-निकालकर बाहर फेंकने लगा. नौका में पानी कम हो गया और नौका
किनारे पर पहुँच गई. वे दोनों श्रीपाद प्रभु के दर्शन करने पहुंचे. रविदास ने पहले
कभी भी स्वामी के दर्शन नहीं किये थे, परन्तु आज
जब उसने स्वामी को प्रणाम किया तो उन्होंने प्रसन्न होकर मंद स्मित किया. उस पंडित
की और ध्यान ही नहीं दिया. शास्त्रों की चर्चा करने आये उस पंडित के मुख से बोल ही
नहीं फूटा. श्रीपाद प्रभु ने पंडित से कहा, “अरे, पंडित! अपने
अहंकार के कारण तुझे योग्य तथा अयोग्य का ज्ञान ही न रहा. महापंडित होकर भी तूने
सद्गुणों के बदले पाप-संचय ही किया है. अपनी सुशील पत्नी को कष्ट देकर एक सुखी
परिवार की रानी को अपने पति से परावृत्त किया है, इस कारण वह तुझे निरंतर शाप दे रही है. तेरी भार्या एक सद्ब्राह्मणी है, परन्तु मानसिक कष्ट से वह क्षोभित हो गई है. इतने सारे पाप कर्म करने के
पश्चात तू मेरे पास क्योंकर आकर्षित हुआ है? तेरी जन्म कुण्डली के अनुसार आज तेरी मृत्यु होने वाली है. मैं तेरी आयु
तीन वर्ष बढ़ा देता हूँ. तू अपने गाँव जाकर दुर्वर्तन छोड़कर सदाचरण कर. तू एक पंडित
है – इसमें कोई संदेह नहीं. क्या तू अपनी विद्वत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण मुझे
दिखाना चाहता है या तुझे दिए गए आयु के तीन वर्ष वापस करता है? फ़ौरन उत्तर दो.”
सर्वज्ञान से संपन्न ऐसे श्रीपाद प्रभु का कथन सुनकर पंडित के मुख से एक
शब्द भी न निकला. मानो वह गूंगा हो गया था. उसकी आतंरिक इच्छा तो यही थी कि उसकी
आयु में वृद्धि हो जाए. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी बोले, “तेरी इच्छा के अनुसार मैं तेरी आयु तीन वर्षों से बढ़ा रहा हूँ. तूने एक
रजक की स्त्री को ज़बरदस्ती भगाकर उसे दासी बनाया है, अगले जन्म में वह रजक दंपत्ति राजाओं के सुख वैभव का आस्वाद लेंगे, तब तू
उस रजक पत्नी का दास होकर उनकी सेवा करेगा. इन तीन वर्षों में यदि तू सत्कर्म
करेगा तो अन्न-वस्त्र की कमी न रहेगी, परन्तु यदि
दुष्कर्म करेगा तो नाना प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़ेंगी. मृत्यु से तेरी रक्षा
करके मेरे पास तुझे लाने वाले रविदास को तेरा सब पुण्य प्राप्त होगा. उस पुण्य के
फलस्वरूप वह मेरी सेवा करेगा. तू फ़ौरन इस पुण्य भूमि से निकल जा.”
स्वामी के आदेशानुसार वह पंडित वहाँ सेa चला गया. रविदास आश्रम में ही रहकर स्वामी की सेवा करने लगा. वह प्रतिदिन
स्वामी के वस्त्र धोता, आश्रम के
आँगन को झाड़-पोंछ कर साफ करता. पूजा के लिए फूल लाने का काम उसे बहुत प्रिय था. जब
श्रीपाद प्रभु स्नान हेतु कृष्णा नदी पर जाते, तब वह उन्हें साष्टांग दंडवत करता और स्वामी उसके प्रणाम को सानंद स्वीकार
करते. एक बार रविदास के पिता ने उससे कहा था, कि “श्रीपाद प्रभु अन्तर्यामी हैं. यदि वे किसी का एक प्रणाम स्वीकार करते
हैं, तो वह सौ लोगों को किये गए प्रणाम का फल
प्रदान करता है.”
एक बार रविदास कृष्णा नदी के किनारे पर खडा था.
उस समय उस गाँव का राजा एक बड़ी नौका में अपने ताम-झाम के साथ नौका विहार कर रहा
था. रविदास एकाग्र दृष्टी से उस राजा की और देख रहा था. तभी श्रीपाद स्वामी स्नान
करके कृष्णा नदी से बाहर आये. रविदास का उनकी और ध्यान ही नहीं गया. स्वामी ने
उसके कंधे पर प्रेम से हाथ रखकर पूछा, “क्या देखता है रे, रजक?” उनकी मधुर वाणी सुनकर रविदास एकदम बौखला गया और स्वयँ को संभालते हुए उसने
स्वामी को साष्टांग दंडवत किया. स्वामी ने पूछा, “तू उस राजा के
वैभव को निहार रहा था, न?” रविदास ने सहमति दिखाते हुए गर्दन हिला दी.
स्वामी आगे बोले, “तेरे मन में राजा होने की इच्छा है ना? तू अगले जनम में विदुरा (वर्त्तमान में बीदर) नगरी का राजा होगा. उस समय
मैं नरसिंह सरस्वति के रूप में तुझे दर्शन दूँगा.” वह रजक बोला, “प्रभु, मेरी राजा होने की इच्छा तो है, परन्तु आपके चरणों की सेवा करने का सौभाग्य मुझे सदैव प्रदान करें.” स्वामी
ने रविदास की यह इच्छा पूरी की. उसने मृत्यु के उपरांत यवन कुल में जन्म लिया और
यथासमय विदुरा नगरी का राजा बना. राज वैभव भोग कर ढलती आयु में उसे श्री नरसिंह
सरस्वति स्वामी के दर्शन प्राप्य हुए. उन्हीं की कृपा से उसे अपने पूर्व जन्म का
स्मरण हुआ और वह श्री नरसिंह सरस्वति के चरणों पर नत मस्तक हुआ. उसने स्वामी को
अपने नगर में लाकर उनका बड़ा सम्मान किया.
खीर से भरा हुआ अक्षय पात्र
हम सब बैठे थे, तभी वहाँ एक
युवा ब्राह्मण आया. वह दूर से आया था. उसके पैर धूल से भरे थे. उसका नाम वल्लभेश्वर शर्मा था. उसका गोत्र काश्यप था एवँ
वह आपस्तम्भ शाखा से था. श्रीपाद प्रभु पीठिकापुर से आने वाले भक्तों से अपने
आत्मीय जनों के कुशल मंगल के बारे में विस्तार से पूछते थे. सर्वज्ञानी श्रीपाद
प्रभु को यह बहुत अच्छा लगता था. वल्लभेश्वर पीठिकापुर से आया था. स्वामी ने उससे
अपने रिश्तेदारों के, स्नेही जनों
के कुशल क्षेम के बारे में पूछा. दोपहर का समय था, स्वामी के शिष्य भिक्षा लेकर आ चुके थे. तभी स्वामी ने अपना दिव्य हस्त
ऊपर उठाया और उनके हाथ में एक चांदी का पात्र आ गया. उस पात्र में खीर थी.
उन्होंने वह खीर अपने शिष्यों में बांट दी. परन्तु वह पात्र भरा ही रहा. श्रीपाद
प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि वे लाई हुई पूरी भिक्षा जलचरों को दे दें. स्वामी
की आज्ञानुसार रविदास भिक्षान्न लेकर कृष्णा नदी के किनारे गया. नदी के जीव जंतुओं
को भी स्वामी का प्रसाद प्राप्त हो ऐसा उनका निश्चय था.
श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वामी ने मुझसे कहा कि मैं
वल्लभेश्वर के निकट बैठूं. परन्तु उसके पास रविदास बैठा था. मेरे पास सुब्बन्ना
शास्त्री नामक ब्राह्मण बैठा थ. एक गरीब ब्राह्मण अपनी पुत्री के विवाह के बारे
में स्वामी से पूछ रहा था. प्रभु बोले, “मेरे होते हुए तुझे चिंता किस बात की है? जो लोग पापी होते हैं, उन्हीं को भय प्रतीत होता है.” प्रभु ने आगे
कहा, “यह वल्लभेश्वर शर्मा तेरा दामाद होने के लिए
पूरी तरह योग्य है. सुब्बन्ना शास्त्री उसे पौरोहित्य सिखा रहे हैं.” वल्लभेश्वर
की और देखकर स्वामी बोला, “तेरे पितरों की ऐसी इच्छा है कि उनका पिंडदान
किया जाए. श्रद्धापूर्वक एवँ मंत्रोच्चारण सहित किया गया पिंडदान पितरों तक
पहुंचता है. पितृ देवता का शाप पाना अच्छा नहीं है. गरुड-पुराण में दिए गए मन्त्रों का उच्चारण करने के बाद ही
विवाह के मन्त्रों का उच्चारण किया जाए ऐसा शास्त्रों का वचन है. इसी प्रकार
विवाह-मांगल्य हेतु हल्दी स्वीकार करें. आज तुझे जो प्रसाद प्राप्त हुआ वह अति
दुर्लभ है. पीठिकापुरम् में मल्लादी लोग, वेंकटप्पा श्रेष्ठी महाराज और वत्सवाई
महाराज नैवेद्य के लिए खीर लेकर आए. वही नैवेद्य मैंने तुम लोगों को प्रसाद के रूप
में दिया है. जो लोग ब्रह्मराक्षस, महापिशाच्च आदि बाधाओं से पीड़ित हैं, उनकी बाधा इस प्रसाद से तुरंत दूर हो जाती है. जो दुःख एवँ दारिद्र्य से
पीड़ित हैं, उन्हें इस प्रसाद को स्वीकार करने से संपदा एवँ
अभिवृद्धि प्राप्त होती है.”
ये दिव्य वचन सुनकर मेरे नेत्रों में अश्रु भर
आये. सद्गदित कंठ से श्रीपाद प्रभु बोले, “इन तीन वंशों से
मेरा ऋणानुबंध कालातीत है. उनके वात्सल्य तथा भक्ति से मैं उनका अंकित हो जाता
हूँ. मुझे यदि कहीं भी भोजन न मिले तो मैं सूक्ष्म रूप से वहाँ जाकर यथेच्छ भोजन
करता हूँ. जो भी वात्सल्यपूर्ण भाव से मेरी सेवा करते हैं, उनके घर के सामने मैं बाल स्वरूप में खेलता रहता हूँ. मेरे पैरों की सुमधुर
आवाज़ मेरे भक्तों के ह्रदय में प्रतिध्वनित होती रहती है. रात के समय मेरी इच्छा
तथा सम्मति के बिना कोई भी कुरुगड्डी गाँव में रुक नहीं समता. महाआरती के समय
यक्षिणी, ब्रह्मराक्षस, महापिशाच्च
आक्रोश करते हैं. मैं उनको पिशाच्च योनि से मुक्ति देकर नई देह प्रदान करता हूँ.
देवता, गन्धर्व, यक्ष, अदृश्य शक्ति आदि उच्च पद को प्राप्त जीव मेरे दर्शनों के लिए आते हैं.
महासिद्ध, महायोगी, तपस्वी महापुरुष
मेरे दर्शन का, स्पर्श का, संभाषण का
सौभाग्य प्राप्त करने की इच्छा से अनेक कष्ट उठाकर मेरे पास आते हैं. तुम आनंद से
नाम रूप को पार करके आगे बढोगे.” यह श्रीपाद प्रभु की अनुल्लंघनीय आज्ञा थी.
हम पड़ोस के गाँव में पहुंचे. उस कन्या का पिता
अपने घर के सामने वधु-वर को बिठाकर सुब्रह्मण्यम शास्त्री से मन्त्र पढ़वा रहा था.
शास्त्री को विवाह संस्कार के मन्त्रों का तो ज्ञान था, परन्तु अंतिम
संस्कार के मन्त्र उन्हें ज्ञात नहीं थे. श्रीपाद प्रभु का ध्यान करके सुब्बन्ना
ब्राह्मण के स्थान पर बैठे. उनके मुख से अपने आप मंत्रोच्चारण होने लगा. उन्हें स्वयँ
को भी इस बात का आश्चर्य हुआ. इस प्रकार सभी मन्त्रों का पठन होने के पश्चात
वधू-वर का विवाह संपन्न हुआ. कन्या का पिता निर्धन था एवँ उसका भावी पति निर्धन
था. अतः मंगल सूत्र के स्थान पर हल्दी की गांठ को धागे से बांधकर वधू के गले में
पहनाया गया. जो ब्राह्मण विवाह समारोह में आये थे, वे सम्प्रदाय के
अनुसार विवाह न होने के कारण निंदा करते हुए विवाह मंडप से चले गए. वल्लभेश्वर के
माता-पिता नहीं थे, कन्या के माता-पिता, पुरोहित तथा मैं – बस हम
पाँचों ही विवाह पर उपस्थित थे. विवाह के पश्चात हम नव दंपत्ति के साथ श्रीपाद
प्रभु के दर्शन के लिए गए. श्रीपाद स्वामी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए हमें
आशीर्वाद दिया और हमें आज्ञा दी कि हम कुछ देर ध्यान धारणा करें.
जैसे ही मैं ध्यान मग्न हुआ, मेरे सामने वल्लभेश्वर के भविष्य में घटित होने वाली एक एक घटना का चित्र
दिखाई देने लगा. वल्ल्भेश्वर एक व्यापारी हो गया था. उसने व्यापार में हुए लाभ से
कुछ धनराशि अलग निकाल कर रखी थी और यह मन्नत मानी थी कि उस धनराशि का उपयोग वह
कुरवपुर में सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए करेगा. परन्तु अपनी मन्नत
पूरी करने में वह विलम्ब कर रहा था.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु कुरवपुर में अंतर्धान
हो चुके थे. वे गुप्त रूप से संचार कर रहे थे. मगर कुरवपुर में प्रभु की चरण
पादुकाएं थीं. वल्ल्भेश्वर धन सम्पादन करने के पश्चात उसे लेकर अपनी मन्नत पूरी
करने के लिए कुरवपुर की और निकल पडा. मार्ग में उसे मांत्रिकों के वेश में चार चोर
मिले. थोड़ी देर उसके साथ चलने पर उनमें से एक चोर ने वल्ल्भेश्वर का वध कर दिया और
उसके पास का धन लेने का प्रयत्न करने लगा. तभी श्रीपाद प्रभु वहाँ त्रिशूलधारी यति
के रूप में प्रकट हो गए. वध किये जाने से पूर्व वल्ल्भेश्वर श्रीपाद प्रभु के ध्यान
में मग्न था. अपने भक्त की रक्षा करने प्रभु तुरंत आ गए थे. उन्होंने तीन चोरों को
अपने त्रिशूल से मार डाला. चौथा चोर गिडगिडाकर बोला, “महाराज, मैं चोर नहीं हूँ.” दयालु प्रभु ने उस चौथे चोर को अभयदान देकर विभूति दी
और उससे बोले, “वल्ल्भेश्वर का सिर लाकर उसके धड से जोड़ो.” इस
प्रकार धड से सिर को जोड़ते ही प्रभु ने अपनी अमृत दृष्टी से उस मृत शरीर की और
देखा. अगले ही क्षण वल्ल्भेश्वर जीवित होकर ऐसे उठ खडा हुआ, मानो नींद से जागा हो. उस चौथे चोर ने वल्ल्भेश्वर को पूरी घटना सुनाई.
उसके आनंद की सीमा न रही , मगर उसे इस बात का दुःख भी हुआ कि उसे श्रीपाद प्रभु के
दर्शनों का लाभ प्राप्त न हो सका. श्रीपाद प्रभु के दर्शन पाकर चौथा चोर अति
प्रसन्न था. वल्ल्भेश्वर कुरवपुर पहुँचा. उसने एक सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन
करवाया.
श्रीपाद स्वामी का विराट रूप
हम सब आंखें मूंदे ध्यान मग्न बैठे थे. मुझे अपनी आंखों के सामने
वल्ल्भेश्वर के भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के चित्र दिखाई दे रहे थे. तभी
श्रीपाद प्रभु ने हमें आंखें खोलने की आज्ञा दी. वे बोले, “कोई भी कार्य अकारण नहीं होता. प्रत्येक कर्म के पीछे कोई न कोई कारण
अवश्य होता है. सृष्टि का विधान बड़ा विचित्र है. मैं, जो निर्गुण एवँ निराकार हूँ, तुम्हारे
लिए साकार रूप में अवतरित हुआ हूँ. यह देखकर तुम्हें आश्चर्य होगा. मैं, जो अपरिमित हूँ, अवधूत नहीं
हूँ, तुम्हें ऐसा आभास होता है, कि मैं परिमित हूँ एवँ अवधूत हूँ. यह बड़ा क्लिष्ट विषय है. सब शक्तियाँ
मेरे आधीन हैं. इस अनंत कोटि ब्रह्मांड के प्रत्येक अणु में मैं ही विद्यमान हूँ.
अणु-अणु को एकत्र रखने वाला संकल्प स्वरूप मैं ही हूँ. इस अणु-अणु को विघटित करके
नूतन सृष्टि का निर्माण करने के लिए जिस स्थिति की आवश्यकता होती है, उसके लिए प्रलय काल का आयोजन करने वाला रूद्र रूप मैं ही हूँ. इस ज्ञान
एवँ इस अज्ञान का तुम्हें बोध करवाकर समस्त जीवों को अनेक प्रकार की माया उत्पन्न
करके उसमें बंदी मैं ही बनाता हूँ. जब जब भक्त आर्त स्वर में मेरी प्रार्थना करते
हैं एवँ मुझे सहायता के लिए बुलाते हैं, तब तब मैं
सहस्त्र बाहुओं से उनकी रक्षा करता हूँ. मेरा यह अनादी तत्व मैं ही हूँ. प्रत्येक
जीव में व्याप्त “मैं”, वही “मैं”, ऐसे “मैं” में निहित शक्ति, सर्वज्ञता,
सर्वान्तर्यामित्व तुम्हारी दृष्टी को दिखाई नहीं देता, इसलिए तुम भ्रमित होते हो. इसका अनुभव करके यदि तुम मुझे व्यक्त रूप में
देखोगे, तो इसमें आश्चर्य की बात क्या है?” परब्रह्म स्वरूप श्रीपाद प्रभु इस प्रकार समझा कर बता रहे थे. तभी
घंटानाद सुनाई दिया. सभी आश्चर्यचकित हो गए. तभी वह घंटानाद शांत हो गया.
श्रीपाद प्रभु की मातृ भावना
हम सब बैठे थे. श्रीपाद प्रभु बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ का यह अवतार फल देने वाला महान अवतार है. मेरे
नामस्मरण के बिना कोई भी अवधूत पूर्ण सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता. उसी प्रकार
महान योगी भी सिद्धि प्राप्त करने के लिए मेरा नामस्मरण करते हैं. अरे, वल्लभेश, तेरे
माता-पिता का बचपन में ही निधन हो गया और तेरे रिश्तेदारों ने तुझे कुमार्ग पर
डालकर तेरी सारी संपत्ति हथिया ली और तुझे भिखारी बना दिया. हमें यह ज्ञात है. उन
रिश्तेदारों के पुत्र भी तुझसे वैर भाव रखते हैं, यह हमें ज्ञात है. तेरे वे दुष्ट
रिश्तेदार अगले जन्म में चोर बन गए. जब तू धन लेकर कुरुगड्डी जा रहा था, तो उन्होंने तेरा धन लूट कर तुझे मार डाला. जैसे ही तूने हमारा नामस्मरण
किया, हमने वहाँ प्रकट होकर हमारे त्रिशूल से तीन
चोरों का वध कर दिया. चौथा चोर हमारी शरण में आया. उसका दोष भी बहुत कम था अतः
हमने उसे जीवन दान दिया.”
श्रीपाद प्रभु की बातें सुनकर वल्लभ की पत्नी की आंखें भर आईं. यह देखकर
श्रीपाद प्रभु बोले, “हे माता!
हमें प्रत्येक स्त्री में हमें जन्म देने वाली अखंड सौभाग्यवती सुमति महाराणी ही
दिखाई देती है. उस महान माता की गोद में हम सदैव बालक ही रहते हैं. तू दु:खी न हो.
मैंने जो हल्दी की गाँठ तुझे दी है, उसे संभाल
कर रखना. इस हल्दी की गाँठ के कारण तुझे सदैव सौख्य प्राप्त होगा. तू अखंड
सौभाग्यवती रहेगी. हमारा यह वचन काले पत्थर की लकीर के समान अमिट है. इसे सृष्टि
की कोई भी शक्ति नहीं बदल सकती. मुझे
गायत्री मंत्र का उपदेश देने वाले प्रथम गुरू मेरे पिता ही हैं एवँ उनका नाम
चिरकाल तक अमर रहेगा. मेरे अगले अवतार में मेरे नाम ‘नरसिंह’ के साथ सरस्वती नाम जोड़कर मुझे ‘नृसिंह सरस्वती’ यह नाम प्राप्त होने वाला
है. मेरे नानाजी बापन्नाचार्युलु का नाम भी अजरामर करने का मेरा निश्चय है. नृसिंह
सरस्वती के अवतार में मेरा रूप मेरे नानाजी के रूप जैसा ही रहेगा. मेरे नानाजी
मेरे दूसरे गुरू थे. उनके पास मैंने वेद शास्त्रों का अध्ययन किया. यह घंटी, जो
तुम देख रहे हो, कभी हमारे
नानाजी के घर में थी. मेरी इच्छा से वह अनेक प्रदेशों में घूम कर आई है. वह भूमिगत
सुरंग मार्ग द्वारा भी चलती रही है. हे शंकर भट्ट, तू जिस “श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत” की रचना कर रहा है, उसका अठारहवां अध्याय समाप्त हो रहा है. वह घंटा पीठिकापुरम् पहुँच चुकी
है. यह घंटा अनेकों आकार धारण कर, अनेकों आकार बदल कर मेरी इच्छा से फिर यहाँ आई
है. हमारे नानाजी के अपने घर में मेरे महासंस्थान की स्थापना होगी. हमारे प्रेम की
निशानी के रूप में जय-जय निनाद करने वाली घंटा हमने पीठिकापुरम् भेज दी है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय १९
श्री गुरुचरण
समागम
वल्लभेश्वर शर्मा दंपत्ति, सुब्बन्ना
शास्त्री और मैं – ऐसे हम चार लोग श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का स्मरण कर रहे थे.
उसी समय उनके घर एक दूर का रिश्तेदार लिंगन्ना शास्त्री आया. वह वेद शास्त्र
पारंगत था. लिंगन्ना शास्त्री ने कहा, “मैं पिता के तर्पण निमित्त पादगया क्षेत्र, पवित्र, ऐसे
पीठिकापुरम् क्षेत्र में आया. मेरे दादा कर्मठ ब्राह्मण थे. वे धनवान होते हुए भी
स्वभाव से मितव्ययी थे. संकट में पड़े लोगों को शास्त्रों में वर्णित कोई उपाय
बताकर उन्हें अपना बना लेते. पितृ देवताओं को संतुष्ट करने के लिए भाविक लोग दस
प्रकार के दान यथाशक्ति दिया करते. परन्तु मेरे दादा जी अत्यंत कम धन में सब विधि
निपटा देते और इस प्रकार करते जिससे उनका स्वयँ का अधिकाधिक लाभ हो. उनका यह
व्यवहार ब्राह्मण धर्म के अनुरूप नहीं था. कुछ काल के उपरांत, वार्धक्यावस्था
में उनका देहांत हो गया. मेरे पिता भी मेरे दादा जी के ही समान थे. कालानुसार उनकी
भी मृत्यु हो गई. मगर मैं अपनी सामर्थ्य के अनुसार और शास्त्रों के अनुसार पितृ
देवताओं का श्राद्ध, तर्पण आदि कर्म किया करता. हमारे घर में अकारण होने वाले गृह
कलह के कारण मेरी मन:शान्ति हमेशा भंग होती रहती. मेरे आप्त मित्र, जो परम शांत
स्वभाव के थे, हमारे घर में
प्रवेश करते ही रौद्र रूप धारण कर लेते. इसी समय मेरी पत्नी रूठ कर अपने मायके चली
गई. मेरा पुत्र, पुत्री, दामाद सभी पग-पग
पर मेरा अपमान करते. उन्होंने मेरा जीना दूभर कर दिया था. मेरा जीवन नरकमय हो गया
था. जीवन में यदि धन हो तो जीने में आनंद आता है. परन्तु मेरे पास तो धन था ही
नहीं. साथ ही गृह कलह भी था. इस सबसे ऊब कर मैंने आत्महत्या करने का निश्चय किया.
परन्तु मन में भय था कि ऐसा करने से मृत्योपरांत पिशाच्च योनि प्राप्त होगी. मेरी
मृत्यु के उपरांत मेरी अंतःक्रिया शास्त्रोक्त पद्धति से नहीं की जायेगी यह
निश्चित था.
एक दिन मैं गौशाला की साफ-सफाई का काम समाप्त करके
भोजन के लिए बैठा. उस दिन मेरी बहू ने मुझे सडा हुआ भोजन परोसा. उसमें दुर्गन्ध आ
रही थी. कुछ कीड़े भी दिखाई दे रहे थे. गौशाला के काम से मैं अत्यंत थक गया था, और भूख के कारण
मेरी आंखों में आँसू आ गए थे. मेरी स्थिति बड़ी शोचनीय हो गई थी. मेरे आप्त गण,
मेरे मित्र, पुत्र, पत्नी, कन्या...ये क्या
वास्तव में मेरे हैं? कहीं यह सारा मायाजाल तो नहीं? मेरे मन में संदेह उठ रहे थे. विचार शक्ति कुंठित
हो गई थी. तभी एक अवधूत ने मुझे दर्शन दिए. उसके नेत्रों से अपार करुणा का सागर
उमड़ रहा था. उस करुणा मूर्ती को देखते ही मैं एक बालक के समान भाग कर उसके पास
गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह व्यक्ति मेरा चिर-परिचित है. उस अवधूत के चरणों
पर मैं नतमस्तक हो गया. मैंने उन दिव्य चरणों को ह्रदय में समा लिया. अवधूत ने
थाली में परोसे सड़े हुए अन्न को स्पर्श करके उसे शुद्ध किया. थाली में परोसा हुआ
अन्न अदृश्य होकर उसके स्थान पर “हलवा” प्रकट हो गया. उस थाली में से थोड़ा-सा हलवा
अवधूत ने खाया और बचा हुआ प्रसाद के रूप में मुझे दिया. मैंने बड़े आनंद से उसे
खाया और तृप्त हो गया. उस प्रसाद के सेवन से मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मुझमें नई
शक्ति का संचार हो गया हो. फिर अवधूत ने मुझे एक फावड़ा दिया और मुझसे कहा कि मैं
ईशान्य दिशा में भूमि खोदूं. एक बड़ा गड्ढा खोदने के पश्चात उसमें से कुत्तों के
अस्थि पंजर दिखाई दिए. अवधूत ने मुझसे उस गढ़े में चावल की मांड डालने के लिए कहा.
उनके आदेशानुसार मैंने मांड डालकर उस गढ़े
को वापस भर दिया. तब वे अवधूत बोले, “अब तेरी पिशाच बाधा से मुक्ति हो गई है, और तेरे घर की
स्थल शुद्धि हो गई है, अब सारी बातें तेरे लिए अनुकूल ही होंगी. पादगया जितनी ही महिमा वाले
पीठिकापुरम् से तुझे बुलावा आया है. तू तत्काल यात्रा की तैयारी कर, बाकी व्यवस्था मैं
देख लूँगा. हम पीठिकापुरम् में मिलेंगे.”
अवधूत के आदेशानुसार मैं पीठिकापुरम् के लिए चल
पडा. घर में किसी को कुछ भी नहीं बताया. शरीर पर पहने एकमात्र वस्त्र में ही मैं
निकल पडा. थोड़ी देर बाद शाम हो गई. एक आमराई में मैंने प्रवेश किया. उसके मालिक
नरसिंहप्पा ने मेरा यथोचित स्वागत किया. खाने के लिए आम तथा कुछ अन्य मीठे फल दिए.
उन्हें खाकर मेरी भूख मिट गई. उस आमराई के मालिक की विनती पर मैंने रात वहीं
बिताई. प्रात: स्नान संध्यादी से निवृत्त होकर आगे जाने के लिए निकला, तब नरसिंहप्पा ने
मुझे एक कपडे में कुछ आम बांधकर दिए. अवधूत के कथनानुसार मेरी रहने की और
खाने-पीने की व्यवस्था उत्तम प्रकार से हो गई थी. मुझे उस अवधूत की लीला का बड़ा
आश्चर्य हो रहा था. फिर नरसिंहप्पा ने मुझसे कहा, “कल से मेरे सपने में एक अवधूत आ रहा है. वह
अवधूत मुझसे कह रहा है, कि कल तेरे पास एक सद्ब्राह्मण आएगा. उसका उत्तम प्रकार से स्वागत करके
जाते समय उसे वस्त्र दान एवँ दक्षिणा भी दे. मार्ग में खाने के लिए तेरे खेत के आम
दे. मेरा सपना आज पूरा हुआ. आपकी सेवा करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ और आपके
दर्शनों का लाभ हुआ. मैं धन्य हो गया.” इस घटना से मुझे पूरा विश्वास हो गया कि वह
अवधूत कोई दिव्य महापुरुष है. कोई साधारण व्यक्ति न होकर कोई दिव्य महापुरुष ही है.
मैं आगे की यात्रा पर चला पडा. नए वस्त्र पहनकर
वेदस्मरण करते हुए जब मैं चल रहा था तो मुझे ऐसा अनुभव हुआ, मानो मेरे शरीर
में तेज़ी से विद्युत् प्रवाहित हो रही है. उस विद्युत् प्रवाह से मुझे एक अनामिक
सुख की अनुभूति हो रही थी. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे साथ-साथ एक वेदपारंगत
महापंडित चल रहा है. वह वेदों में वर्णित सावित्री मन्त्रों का पाठ कर रहा था. मैं
भी उसके साथ वेद पठन कर रहा था. तभी वह बोला, “सावित्री वर्णन मुख्य मन्त्र है. त्रेता युग में
भारद्वाज ऋषि ने सावित्री काठक चयन किया. यह भी पीठिकापुरम् में ही हुआ. कभी किया
गया विधान आज सत्य होकर पीठिकापुरम् में
श्री दत्तात्रेय प्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुए हैं. वेद अपौरुषीय
एवँ ईश्वर निर्मित हैं. वेद पठन का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को ही है, परन्तु
वेदाध्ययन सभी वर्णों के लोग कर सकते हैं. ब्राह्मण श्रीकृष्ण की भक्ति करते थे, परन्तु श्रीकृष्ण
प्रभु ब्राह्मणों का सत्कार करके उनके पैर धोते और इस जल का अपने सर पर प्रोक्षण
करते. तुझे पीठिकापुरम् से बुलावा आया है, तू कितना भाग्यवान है!” तब मैंने पूछा, “महाराज, श्रीपाद श्रीवल्लभ
कौन हैं और क्या उनकी महिमा का आप वर्णन करेंगे?”
“अरे बेटा, श्रीपाद प्रभु के दर्शन से सब पापों का क्षालन हो
जाता है. वे साक्षात दत्तात्रेय प्रभु हैं. उनकी जन्मभूमि पीठिकापुरम् क्षेत्र है.
प्राचीन काल में जब जब भी धर्म का ह्रास हुआ, तब तब परमेश्वर ने पृथ्वी पर मानव अवतार धारण
करके सज्जनों का रक्षण तथा दुर्जनों का हनन किया.
उस समय विष्णुदत्त एवँ सुशीला नामक एक पुण्यवान
दंपत्ति रहते थे. सुशीला एक साध्वी स्त्री थी एवँ अपने पातिव्रत्य तथा साधना
सामर्थ्य के बल पर वह सती अनुसूया के समान थी. विष्णुदत्त अत्यंत विद्वान, आचारसंपन्न,
सत्यशील ब्राह्मण था. उसने अपनी साधना तथा विद्वत्ता के बल पर अत्री ऋषि के समान
स्थान प्राप्त कर लिया था. इस दंपत्ति ने सती अनुसूया एवँ अत्री मुनि के साथ
तादात्म्य स्थिति प्राप्त कर ली थी. यह स्थिति निराकार होते हुए नेत्रों के लिए
अगोचर होती है. शब्दों से उसका वर्णन करना असंभव है, उसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता
है. विष्णुदत्त एवँ सुशीला ने अगले जन्म में अप्पल राजू शर्मा तथा सुमति महाराणी
के रूप में जन्म लिया. उनके द्वारा किये गए तप के फलस्वरूप ही उन्हें श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में एक दिव्य पुत्र की प्राप्ति हुई. अप्पल राजू भारद्वाज गोत्र
की आपस्तम्भ शाखा के कृष्ण यजुर्वेदी
ब्राह्मण थे. प्राचीन युग में लाभाद नामक एक वैश्य मुनि थे. वे श्री माता के वासवी
कन्यका अवतार में उनके पिता भास्कराचार्युलू थे. वे ही श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार
में सुमति महाराणी के पिता थे. तुझे पीठिकापुरम् में उस महापुरुष के दर्शन प्राप्त
होंगे. तेरा जिसने उत्तम प्रकार से आदरातिथ्य करके तुझे वस्त्रादि दक्षिणा दी, वह
किसान पूर्व जन्म में पीठिकापुरम् के वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ उनके पिता
सुब्बरामय्या श्रेष्ठी के घर में सेवक था. परम पवित्र सुब्बरामय्या श्रेष्ठी के घर
सेवा करके तथा उनका पवित्र अन्न ग्रहण करने के फल स्वरूप वह एक वतनदार होकर सभी
सुखों को भोग रहा है. पीठिकापुरम् के वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी तथा नरसिंह वर्मा
श्रीपाद प्रभु को अत्यंत प्रिय थे. उन्हें श्रीपाद प्रभु की वात्सल्य भक्ति का लाभ
प्राप्त हुआ था.
सभी बंधनों में अत्यंत क्लिष्ट बंधन है – कर्म
बंधन. यदि यज्ञ करते समय गलती से भी पवमान घट टूट जाए तो यज्ञकर्ता ब्राह्मण का
सिर फूटकर वह तत्काल मृत्यु प्राप्त करता है, ऐसा शास्त्रों का वचन है. परन्तु आजकल यदि पवमान
घट टूट भी जाए तो भी यज्ञकर्ता ब्राहमण को कुछ भी नहीं होता. इसके पीछे क्या कारण
है? ऐसा प्रश्न
श्रीपाद प्रभु से शिष्यों ने पूछा. उसी प्रकार वेद शास्त्रों में वर्णित यज्ञ के
फलस्वरूप शुभ घटनाएं ही घटित होती हैं, अशुभ घटनाएं नहीं होतीं. इसके पीछे क्या कारण है?
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “पुत्र, वर्त्तमान समय में
यज्ञ संपन्न करते समय विद्युत् पदार्थ उतने प्राणघातक नहीं होते. यज्ञकर्ता
पुरोहित का उत्तम साधक होना अनिवार्य है. उनके भीतर प्रचुर मात्रा में योगाग्नि का
होना आवश्यक है. उस अग्नि से पवमान घट के भीतर की विद्युत् भी जल सकती है. यदि
यज्ञकर्ता पुरोहित महायोगी हो और वह शास्त्रोक्त विधि से यज्ञ करे तो उसका अच्छा
फल प्राप्त होकर विश्व का कल्याण होता है. परन्तु यदि ऐसा न हो तो यज्ञ की
प्रक्रिया तो होती है, परन्तु वेदशास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता. यज्ञादि कर्म में दी जाने
वाली दक्षिणा रुपये १६, ११६, १११६ – ऐसी ही
संख्या में दी जाती है. इसके पीछे भी रहस्य है. गोत्र – पितृ संबंधित होता है, वह
सृष्टि के अंत तक बदलता नहीं है. धर्म – सात पुरुषों के बीच ही भ्रमण करता रहता
है. सपिंड – माता से संबंधित होता है. विवाह योग्य पुत्र एवँ धन – दोनों ही उत्तम
कर्म के फल हैं. स्त्री – अग्निरूप होती है – वह प्रकृति के लिए अत्यंत आवश्यक
है.”
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु अद्वैत मत के समर्थक थे.
वे आदि शंकराचार्य की भाँति पक्षपात रहित थे. गुण भेद रहित श्रीपाद प्रभु के लिए
कुल भेद लेशमात्र भी नहीं था. आदिशंकराचार्य ने अपनी हेम विद्या सत्वगुणी ब्राह्मण
को न देकर रजोगुणी गौड़ कुल के लोगों को दी. शंकराचार्य ने सोचा कि यदि ब्राह्मणों
को हेम विद्या दी गई तो वे धन के लोभ में अपने इष्ट धर्म का पालन नहीं करेंगे.
शंकराचार्य की ही भाँति श्रीपाद प्रभु ने जाति, वर्ण, मत आदि का भेद भाव न करते
हुए हरेक को उसकी योग्यतानुसार अनुग्रह प्रदान किया. पृथ्वी, आप, तेज, वायु, एवँ आकाश – ये
पञ्च महाभूत एवँ मन, बुद्धि तथा अहंकार - यह अष्टधा प्रकृति जड़ स्वरूप है. एक (१) यह चित्र
प्रकृति का प्रतीक है. २ से ९ तक की आठ संख्याएं जड़ प्रकृति के द्योतक हैं. शून्य
(०) – ब्रह्म तत्व का दिग्दर्शक है. नौ (९) – इस संख्या में समूची पृथ्वी के
कार्यकलापों का रहस्य छिपा हुआ है. श्रीपाद स्वामी हँस कर कहा करते, “दो चौपाती देव
लक्ष्मी” और दो रोटियों के लिए भिक्षा माँगा करते. यह कथन २,४,९,८ इस संख्या का
प्रतीक है. स्वामी के इस कथन में नाना अर्थ दिखाई देते हैं. सुष्टि के सभी द्वंद्व
का प्रतीक है दो (२). देह के स्थूल, सूक्ष्म, कारण, एवँ महाकारण – इस प्रकार के चार (४) प्रतीक हैं.
ब्रह्मतत्व कभी भी बदलता नहीं है. वह नौ (९) संख्या का द्योतक है. महामाया आठ (८)
इस अंक से दर्शाई जाती है.
श्रीपाद श्री वल्लभ प्रभु अर्ध नारी नटेश्वर हैं.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का विराट रूप
मैं ब्रुहत्शिला नगरी
के पेनुगोंदा गाँव का रहने वाला हूँ. मेरा नाम गणपति शास्त्री है. मैं वेदाध्ययन
करने के लिए वायासपुर(काकीनाडा) आया. गुरु की सेवा करते हुए मैं वेदाध्ययन करता
था. मेरे गुरुदेव के घर के निकट ही उनकी खेती थी. गाय-बछड़े थे. मैं गाय-बछड़ों को
चराने के लिए जंगल ले जाया करता. उनका दूध निकाल कर उसे बांटने का काम भी बड़े
प्रेम से किया करता.
एक दिन जब मैं गायों को
लेकर वन में गया था तो मुझे दस वर्ष का एक अत्यंत तेजस्वी बालक दिखाई दिया. वह
हमारे खेत में आया. उसके गले में जनेऊ देखकर मुझे विश्वास हो गया कि वह ब्राह्मण
ही है. मैंने उससे पूछा, “तेरे गले में जनेऊ दिखाई दे रहा है, तू कौन है?: इस पर वह बालक बोला, :मैं, “मैं” ही हूँ. सृष्टि के सारे तत्व मुझमें ही समाए हुए हैं. सबके लिए
आधारभूत जो है वह “मैं” ही हूँ. मुझमें ब्राह्मण के लक्षण देखकर तू मुझे ब्राह्मण
समझा – यह गलत नहीं है. परन्तु यही परम सत्य नहीं है. मुझमें क्षत्रिय के लक्षण
देखकर यदि कोई मुझे क्षत्रिय समझे तो वह झूठ नहीं है, परन्तु वह पूर्ण सत्य नहीं है. मुझमें वैश्य के लक्षण देखकर यदि कोई मुझे
वैश्य समझे तो वह असत्य नहीं है, परन्तु वह भी पूर्ण सत्य नहीं है. मुझमें शूद्र के लक्षण देखकर यदि कोई
मुझे शूद्र समझे तो वह भी झूठ नहीं, मगर वह पूर्ण सत्य भी नहीं है. तू मुझे यदि चांडाल समझ ले, तो वह भी अयोग्य
नहीं होगा, मगर वह भी संपूर्ण
सत्य नहीं होगा. मैं सभी सीमाओं से परे हूँ, हैं, अतीत हूँ. मैं सत्य
एवँ असत्य, सभी विषयों से परे हूँ, मगर सभी का आधार भूत
भी हूँ. “मैं” परम सत्य हूँ, यह अवधूतों को ज्ञात है. मेरा धर्म – परम धर्म है. वह सभी धर्मों से परे है
और उसका आधार भी है. यही मेरा परम प्रिय तत्व है. सृष्टि के जीवों में विद्यमान
प्रेम तत्व की अपेक्षा यह सुमधुर है. यही नहीं, यह सभी का आधार (मूल) है. तू और मैं – यद्यपि पुरुष हैं, परन्तु स्त्रियों की
भाँति व्यवहार करते हैं. स्त्री हो, तो भी वह पुरुष की भांति व्यवहार करती है. अर्धनारी नटेश्वर – इन दो रूपों
से एकत्र हुआ मैं मन तथा वाचा के लिए अगोचर होते हुए, दिव्यानंद तत्व भी मैं ही
हूँ. इतने विलक्षण रूप से युक्त मुझको तू कैसे पहचानेगा?”
उस चरवाहे के ऐसा कहने
पर मेरे शरीर में कंपकंपी होने लगी. मेरी मन:स्थिति को जानकर वह दिव्य ग्वाला बोला, “अभी अभी मैंने
शनिदेवता से बात की है. मैंने इस गणपति शास्त्री को चित्र विचित्र बंधनों में
बांधकर उसे कष्ट दिए तब वह मुझसे बंधन मुक्त करने की विनती करने लगा. इस पर मैंने
कहा, “मैंने इसका कर्मफल
गाय के दूध के रूप में ग्रहण किया है. तू ऐसे बंधनों में न पड़.” यह सुनकर मेरा
शरीर कांपने लगा. मेरी कुण्डली में इस काल में मेरी दयनीय स्थिति दिखाई गई थी. मैं
कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं था. तभी वह ग्वाला एक गाय के निकट जाकर बोला, “हे गायत्री, मुझे खूब भूख लगी है.
दूध दोगी क्या?” गोमाता ने सहमति में सिर हिलाया और उसके स्तनों से उष्ण दूध की धाराएं
बहने लगीं. उस ग्वाले ने भरपेट दूध पिया. आश्चर्य की बात यह थी कि वह गाय बाँझ थी, फिर भी उसने उस ग्वाले
को दूध दिया. ग्वाला तृप्त होकर एक आम के पेड़ के नीचे बैठ गया. मैंने एक बार फिर
उसकी और देखा. उसके साथ एक दस वर्ष की किसान कन्या भी थी. देखने में दोनों ही
सुन्दर थे. उनके विनोद पूर्ण वार्तालाप को सुनते रहने को जी चाहता था. बोलते समय
होने वाले उनके हाव भाव नयनरम्य थे. तभी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी अपनी घोड़ा गाडी से
उतरे. उनके साथ दस वर्ष का एक तेजस्वी बालक था. मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि वह
श्रीपाद श्रीवल्लभ हैं. मेरे गुरुदेव को यह भूमि वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने अपने
पिता की स्मृति प्रीत्यर्थ दान दी थी. इस भूमि से लगा हुआ उनका एक विस्तीर्ण खेत
था. इस खेत को देखने के लिए श्रेष्ठी पीठिकापुरम् से वायसपुर आया करते थे.
श्रेष्ठी ने जब उस ग्वाले के साथ कन्या को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ. उस
ग्वाले ने एवँ उस कन्या ने श्रीपाद प्रभु को प्रणाम किया.
“दादा जी, आपको इतना आश्चर्य
क्यों हो रहा है?” दादाजी बोले, “उन दोनों की और देखो, कितना नयन मनोहारी दृश्य है. दर्शक एवँ दृश्य दोनों एक ही हैं इसमें निहित
वेदान्त विषय मैं समझ नहीं पा रहा.” तब श्रीपाद प्रभु बोले, “इसमें वेदान्त कहाँ
है? श्रीहरी भी अपरिमित,
निर्गुण, निराकार होते हुए भी
अपनी मायागति को देखकर आश्चर्य चकित होते हैं. यह सृष्टि नवरस पूर्ण है. आश्चर्य
पूर्ण दृश्यों की कल्पना करना भी सृष्टि का ही एक नियम है. जहाँ द्वैत दिखाई देता
है, वहाँ वास्तव में
अद्वैत होता है. तो सत्य क्या है – द्वैत अथवा अद्वैत? यह सोचकर बताना चाहिए”
उस ग्वाले को और किसान
कन्या को देखते हुए श्रेष्ठी के मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि कहीं वह श्रीपाद
प्रभु की ही माया तो नहीं है? श्रेष्ठी की ठोढी को हलके से स्पर्श करते हुए श्रीपाद प्रभु बोले, “दादा जी, किस बात की शंका
उत्पन्न हुई है आपके मन में? जब तक आपके घर के लोग मुझे भूलेंगे नहीं, तब तक मैं अपनी सर्व शक्ति के साथ अदृश्य रूप में आपके घर में वास करूंगा.
आपके घर में हर साधक को हमेशा मेरी पग ध्वनि सुनाई देगी. अनघा देवी समेत दत्त
स्वरूप अर्धनारी नटेश्वर के रूप में है, परन्तु वह आपको दिखाई नहीं देता. वही आपको
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अपने समक्ष दिखाई देते हैं. मैं सुमति माता का प्रथम
पुत्र हूँ. मैंने अपनी माता से स्पष्ट कह दिया था कि मेरा विवाह न करे. यदि ऐसा
प्रयत्न किया तो मैं गृह त्याग करूंगा. श्रेष्ठी राजऋषि हैं। उन्होंने मुझे
निष्कलंक भक्ति पाश में बांधकर रखा है, इसलिए मैं अनघा देवी समेत अपने अनघ स्वरूप
में आपको दर्शन दे रहा हूँ. श्रीपाद प्रभु के सान्निध्य में कोई भी कार्य कारण के
बिना नहीं होता. सृष्टि के नियम विचित्र हैं. कर्म एवँ कर्मफल का निर्णय देश
कालानुसार निश्चित होता है. सभी भक्त गणों को मेरे आचरण से, मेरी लीला से, मेरी महिमा से ज्ञान
बोध करवाना – यह भी मेरे अवतार कार्य का ही भाग है.”
श्रीपाद प्रभु इस
प्रकार हमारे साथ बातें कर रहे थे, तभी उनकी कांति हमारे देखते-देखते एक अनामिक तेज से दैदीप्यमान हो गई. फिर
वे आम के पेड़ की और मुड़े. वे उस वृक्ष की ओर देख रहे थे – तभी उस किसान कन्या तथा
ग्वाले की कांति दैदीप्यमान हो गई और वे श्रीपाद प्रभु के रूप में विलीन हो गए.
वसन्त ऋतु न होते हुए भी आम के पेड़ पर बैठकर कोयल मधुर स्वर में गाने लगी. उस पेड़
पर एक ही फल लगा था. वह फल श्रीपाद प्रभु ने तोड लिया. स्वामी के स्पर्श से वह
कच्चा फल तुरंत पक गया और मधुर, रसभरित हो गया. जिस प्रकार माता अपने शिशु को
मिष्ठान्न बड़े प्रेम से भक्षण कराती है, भोजन में परोसा गया प्रत्येक पदार्थ शिशु
खाए इसके लिए गाने गाकर, कहानी सुनाकर उसे खिलाती है, उतने ही प्रेम से श्रीपाद प्रभु ने वह मीठा आम श्रेष्ठी को खिलाया. स्वामी
के प्रेमपूर्ण स्पर्श से श्रेष्ठी की आंखों में आनंदाश्रु बह निकले. श्रीपाद
स्वामी का अपने भक्त के प्रति स्नेह सहस्त्रों माताओं के प्रेम से भी ज़्यादा
श्रेष्ठ था. उनके दिव्य नेत्रों से करुणा, प्रेम बह रहा था, वे साक्षात स्त्री शक्ति स्वरूपिणी अनघा माता प्रतीत हो
रहे थे. श्रीपाद प्रभु द्वारा तोड़ा गया आम उनके सामने एक आज्ञाकारी सेवक के समान
प्रतीत हो रहा था. श्रीपाद प्रभु की अंजुली से थोड़ा रस ऊपर उड़ा तो उनकी दिव्य
कांति ही ऊपर उठती हुई प्रतीत हुई. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “बीज पहले होता है, अथवा पेड़ – ऐसा
निष्कारण वितंडवाद लोग करते रहते हैं. इन दोनों से भी पहले एक शक्ति होती है – वह
शक्ति है – “ईश्वर”. उसकी इच्छानुसार “बीज” से पेड़ अथवा पेड़ से “बीज” निर्मित होता
रहता है. उसकी अमोघ इच्छा-शक्ति की कल्पना कोई कर ही नहीं सकता. मलिनता से जो उदास
हो गए हैं, ऐसे जीवात्मा को
परमात्मा अपने पास बुलाता रहता है. मालिन्य रहित जीवात्मा उस ईश्वरी शक्ति को रोके
रखता है. परमात्मा में जो विलीन हो चुका है वह जीवात्मा अच्छी फसल देने वाली
उर्वरक ज़मीन में “बीज” के समान होता है. ऐसे जीवात्मा को सृष्टि चक्र में आने से
कोई रोक नहीं सकता. परमेश्वर की इच्छानुसार उसकी शरण में आए हुए जीवात्मा ‘कारण’ देह धारण करके
पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं एवम् दैवी कार्य सम्पन्न करते हैं. यह कार्य पूर्ण
होने पर वे फिर से परमात्म स्वरूप में विलीन हो जाते है. ऐसे जीव परमात्मा के
अत्यंत समीप रहकर अत्युच्च आनंद का लाभ प्राप्त करते है. जीवात्मा एवँ परमात्मा
में भेदभाव करने वाले जीव भी कारण-देह को प्राप्त कर दैवी कार्य को सम्पन्न करते
हैं, परन्तु उनकी स्थिति
में परिवर्तन नहीं होता. द्वैत, विशिष्ट अद्वैत अथवा अद्वैत स्थिति को मानने वाले लोगों की एकाध मनोकामना
पूर्ण होती है. इस कारण सर्व सामान्य लोगों के मन में यह संदेह उत्पन्न होता है कि
द्वैत श्रेष्ठ है, अथवा विशिष्ठ अद्वैत श्रेष्ठ है, या फिर अद्वैत श्रेष्ठ है? ‘सृष्टि, स्थिति एवँ लय’ ये क्रियाएँ प्रतिक्षण होती ही रहती हैं. ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों
अपने अपने कल्पांत में अव्यक्त स्वरूप में होते हैं. वे परमेश्वर की महान इच्छा का
अनुसरण करते हुए व्यक्त, साकार रूप में प्रकट होकर नए स्वरूप में निर्मित ब्रह्मांड में सृष्टि की
उत्पत्ति करते हैं. जीवात्माओं को उनके संस्कार तथा योग्यतानुसार विश्व पालन के
कार्य में सहयोग देना पड़ता है. इस कार्य में देवी शक्तियां उनकी सहायता करती है.
इन देवी शक्तियों का विरोध करने वाली अनेक राक्षसी शक्तियां भी होती हैं. यवन लोग
सगुण स्वरूप के निराकार ईश्वर को “अल्ला” के नाम से संबोधित करते हैं, ईसाई लोग उसी को
“येशू” कहते हैं. संबोधन चाहे कोई भी हो, मगर सभी में एक ही आदरणीय, वात्सल्यपूर्ण, करुणामय दिव्य चैतन्य प्रवाहित होता रहता है. सभी धर्मों
में, सभी मतों में, सभी सिद्धांतों में
स्वयंप्रकाश से चमकने वाला मूलतत्व “मैं” ही हूँ. प्रत्येक जीवात्मा की
इच्छा-आकांक्षा के अनुसार उसे विशेष मार्ग से, विशेष स्थिति के अनुरूप चलाने वाला “मैं” ही हूँ. “मैं” सभी तंत्रों में
स्वतन्त्र होने के कारण मेरे लिए साध्य अथवा असाध्य ऐसा कोई भी विधान नहीं है. सभी
देव-देवताओं के स्वरूप में अन्तर्निहित जाज्वल्य से प्रकाशित होने वाला “मैं” ही
हूँ. इसलिए उस विशेष स्वरूप द्वारा पूजा, स्तोत्र अथवा सभी विचारों को स्वीकार करने वाला “मैं” ही हूँ. सबको ज्ञान
बोध करवाने वाला “मैं” ही हूँ. कलीपुरुष के अंतर्धान होने के पश्चात सभी मतों का
सार, जो सनातन धर्म है, वह मेरा ही स्वरूप है, ऐसे ज्ञान का उदय होगा. तब साधक बहिर्रूप से अथवा अन्तर्यामी
होकर सदैव मेरा दर्शन करेंगे. उनसे प्रेमपूर्वक संवाद स्थापित करने वाला “मैं” ही
हूँ. वेदान्त में भी प्रथम ‘सत्य’, फिर ‘ज्ञान’ और तत्पश्चात ‘ब्रह्म’ का वर्णन है. ‘सत्य’, ज्ञान’ और ‘ब्रह्म’ तीनों का स्वरूप “मैं” ही हूँ. ‘ईश्वर नहीं है’, ऐसा नास्तिकों से
कहने वाला मैं ही हूँ . आस्तिकों को ईश्वर के ‘अस्तित्व का प्रमाण “मैं” ही देता
हूँ. समस्त ‘गुरुस्वरूप’ मेरा ही है. सत्यलोक में, गोलोक में, महाशून्य में निहित समस्त साधना स्थिति में स्वयंप्रकाशित होने वाला “मैं”
ही हूँ. जो साधक निर्मल भाव भक्ति से मेरी आराधना करता है, अपने जीवन का सारा भार
मुझ पर सौंप कर अनन्य भाव से मेरी शरण में आता है, उसका योग क्षेम मैं ही सदा वहन करता हूँ. मैं श्रीपाद हूँ. मैं श्रीवल्लभ
हूँ. दादा जी, उस समय का अति प्राचीन योगी – अत्रि-अनुसूयानंदन – आज श्रीपाद श्रीवल्लभ
है. भारद्वाज मुनि को दिए गए वचन के अनुसार मैंने पीठिकापुरम् क्षेत्र में अवतार
लिया है.”
श्री वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी के नेत्रों से आनंदाश्रु बह निकले. उन्होंने श्रीपाद प्रभु का दृढ़ता से
आलिंगन किया. उन्हें हो रही आत्मानुभूति को शब्दों में प्रकट करना असंभव था. कुछ
देर के पश्चात वे वापस सामान्य अवस्था में आए और श्रीपाद प्रभु से बोले, “अरे बेटा, श्रीपाद, हमारे वंश पर इसी
प्रकार कृपा दृष्टी बनाए रखना. हमारे सभी गोत्रजों पर अपना अनुग्रह हस्त रहने दे.
हमारे आर्य वैश्य कुल पर सदा अपनी छत्रछाया रहने दे.”
इस पर श्रीपाद प्रभु
बोले, “तथास्तु!” ब्राह्मणों
को एक वर माँगने का अधिकार है, क्षत्रियों को दो वर माँगने का, वैश्यों को तीन वर माँगने का, और शूद्रों को चार वर माँगने का अधिकार है. तेहतीस कोटि देवताओं को साक्षी
मानते हुए मैं वरदान देता हूँ. बापन्नाचार्युलु के घर में जिस स्थान पर मेरा जन्म
हुआ वहाँ पर “श्रीपाद श्रीवल्लभ महासंस्थान” की स्थापना होगी. यह महासंस्थान आपके
घर से तैंतीस कदम की दूरी पर होगा. उसी प्रकार वह श्री बापन्नाचार्युलु तथा श्री
नरसिंह वर्मा के घरों से भी तैंतीस-तैंतीस कदमों की ही दूरी पर रहेगा. आपके वंश के
तैंतीसवें व्यक्ति को निमित्तमात्र बनाकर मेरे महासंस्थान का निर्माण करके उसकी
सारी व्यवस्था मैं ही देखूंगा. आपके वंश के ‘मार्कंडेय’ नामक महापुरुष को मैं इस संबंध में आदेश देने वाला हूँ, यह आदेश इस प्रकार का
होगा – वह गुरूवार को मध्याह्न समय में किसी भी रूप में आकर मेरे लिए नैवेद्य
स्वरूप बनाए गए पदार्थ का थोड़ा सा भाग स्वीकार करे. इसके फलस्वरूप मार्कंडेय गोत्र
में जन्म लेने वाले सभी व्यक्तियों पर मेरा सदैव अभय हस्त रहेगा, उनकी सदैव उन्नति होती
रहेगी. आपकी इच्छानुसार आर्यवंश पर मेरी कृपा दृष्टी सदा बनी रहेगी. आर्यवंशियों
को राज्याधिकार प्राप्त होंगे. भविष्य में आर्यवंशी भारत का राजा बनेगा और विधि के
लेख के अनुसार वह पीठिकापुरम् आएगा. उसे मेरा अनुग्रह प्राप्त होगा. नेपाल राज्य
से असंख्य भक्तगण मेरे दर्शनों के लिए पीठिकापुरम् आयेंगे. मेरा यह कथन काले पत्थर
की लकीर के समान है. सृष्टि का कोई भी प्राणी इसे असत्य नहीं सिद्ध कर सकता. दादा
जी, कालान्तर में मेरी इस
जन्मभूमि पर अनेक परिवर्तन होंगे. इस स्थान के नूतनीकरण की प्रक्रिया में भूमि से
मृण्मय पात्र मिलेगा. पीठिकापुरम् क्षेत्र में निर्माण होने वाले महासंस्थान के
देव कार्य में धन सेवा करने का लाभ केवल पूर्व सुकृत से ही प्राप्त होगा. आर्यवंश
कुल के किसी एक भाग्यवान व्यक्ति को ही धन-सेवा करने का महाभाग्य प्राप्त होगा.
उसके द्वारा ही यह देव कार्य होने वाला है. अविश्वासी, अहंकारी लोग हर बार तुझसे सहायता मांग कर तुम्हें महत्त्व देंगे. मेंरे
चरित्र का पठन करने वालों को “अभिष्ट सिद्धी” प्राप्त होगी. पीठिकापुरम् के मेरे
महासंस्थान से संबंधित किसी भी सत्कार्य में सहभागी होने वाले भक्तों को मैं सभी
बंधनों से मुक्त करूंगा. जो पीठिकापुरम् क्षेत्र में मेरे जन्म नक्षत्र “चित्रा”
पर श्रद्धापूर्वक मेरी अर्चना करेगा उसे मैं ऋण बंधन से मुक्त करूंगा. कुमारी
कन्याओं को योग्य वर प्राप्त होकर उनके विवाह संपन्न होंगे ऐसा मेरा आशीर्वाद है.
भूत, प्रेत, पिशाच्चादि अदृश्य शक्ति से उत्पन्न व्यथा मैं दूर करूंगा. श्रावण
शुद्ध पौर्णिमा के दिन, मेरी बहिन वासवी कन्यका ने मुझे राखी बांधी थी. वह अत्यंत पुण्य दिन है. इस
दिन पीठिकापुरम् क्षेत्र में मेरे सान्निध्य में जो साधक आयेगा उसके भाग्य में
चित्रगुप्त द्वारा महापुण्य लिखा जाएगा. इन सब बातों का प्रमाण मैं स्वयँ ही हूँ.
मेरी लीलाएँ स्वयँ प्रमाणित हैं. सूर्य सूर्य की साक्षी किस प्रकार दे सकता है?”
श्रीपाद प्रभु के इस
वक्तव्य से सब भाव विभोर हो गए. उनकी लीलाओं का वर्णन करना महाकठिन है.
दूसरे दिन मैं, वल्लभेश्वर शर्मा
दंपत्ति, सुब्बण्णा शास्त्री,
लिंगय्या शास्त्री श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी की ओर चल पड़े.
श्रीपाद प्रभु ने हमें एक बार फिर से आशीर्वाद दिया और सुहास्य वदन से बोले, “अहा हा! आज की चर्चा
कैसा रंग लाई! श्रीपाद श्रीवल्लभ महासंस्थान का वर्णन करने में काफी समय निकल गया.
मल्लादी वंश का ऋण वेंकटप्प्य्या श्रेष्ठी का ऋण और वत्सवाई का ऋण मैं कभी चुका
नहीं पाऊंगा.” इतना कहकर स्वामी ने मौन मुद्रा धारण कर ली.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार
हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं
प्रपद्ये।।
अध्याय
२०
श्रीपाद
प्रभु का दिव्य मंगल स्वरूप
मैं
सुबह-सुबह ही श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी पहुँचा. श्रीपाद प्रभु के दिव्य शरीर से मुझे तेजोमय किरण बाहर
निकलते हुए दिखाई दिए. उनके तेजस्वी नेत्रों में शान्ति, करुणा, प्रेम, ज्ञान
ज्योति स्वरूप में उमड़ रहे थे. उनके सहवास में जो भक्त थे उन्हें बिना किसी प्रयास
के शान्ति, करुणा, प्रेम एवँ
ज्ञान की प्राप्ति होती रहती थी. इहलोक में वे एकमेव प्रभु के स्वरूप थे. निराकार
तत्व के साकार होकर, सगुण रूप में मानवाकार धारण कर सामने दिखाई देने से मैं आनंद विभोर हो उठा.
श्रीपाद प्रभु के
अनुग्रह के कारण मुझे उनके निकट आकर नमस्कार करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. उनके
मुख कमल की ओर देखते ही मेरे अन्तरंग में एक अलौकिक शान्ति, वात्सल्य, प्रेम व्याप्त होकर
मेरे मन तथा शरीर को एक अवर्णनीय आनंद की अनुभूति हुई. मैंने श्रीपाद प्रभु के
चरणों को अत्यंत श्रद्धा भाव से स्पर्श किया. उस स्पर्श से मेरा शरीर हल्का-हल्का
प्रतीत होने लगा. ऐसा प्रतीत हुआ, मानो मेरे नेत्रों से तेज निकल रहा हो. मेरे
शरीर के प्रत्येक अंग से काले रंग का तेज निकल रहा था. उस तेज ने मानवाकार धारण
किया. वह आकृति मेरे ही सदृश्य थी. श्रीपाद प्रभु ने मंद स्मित करते हुए मुझसे
पूछा, “तेरे सदृश्य जो आकृति
है, वह कौन है, यह समझे क्या?” मैंने कहा, “स्वामी, वह आकृति मैंने देखी.
वह मेरे जैसी ही थी. परन्तु वह मेरे शरीर से बाहर कैसे आई, वह मैं समझ नहीं पाया.
वह आकृति किसकी थी, यह भी मैं समझा नहीं.”
इस पर श्रीपाद प्रभु
बोले, “वह तेरा पाप शरीर था.
तेरे भीतर का पापी पुरुष था. अब तेरे शरीर में बचा है, वह केवल पुण्य पुरुष ही है. प्रत्येक मानव के शरीर में एक पाप पुरुष तथा एक
पुण्य पुरुष होता है. इस युग्म का विभाजन होकर जब पापी पुरुष बाहर निकल जाता है
वही होती है मुक्ति की अवस्था. ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के पश्चात निष्ठावान
होकर, अपने पाप शरीर का दहन करने के पश्चात, बचे हुए पुण्य शरीर का अपने उत्तम
कर्मों से उद्धार करना चाहिए. ब्राह्मण जब अपने यजमानों द्वारा वेदशास्त्रों में
निहित कर्म करवाते हैं, तब उन्हें अपनी उपजीविका के अनुसार ही धन दक्षिणा में लेना चाहिए. यदि ऐसा
न किया गया तो ब्राह्मण यजमान के पापों का भागी हो जाता है. उन पापों को ब्राह्मण
अपनी तमोगुण रूपी अग्नि में दहन करे. इस प्रकार से जीवन बिताने वाला ब्राह्मण ही
ब्रह्मत्व को प्राप्त होता है अन्यथा वह केवल जाति से ही ब्राह्मण होगा, वह ब्रह्मज्ञानी
ब्राह्मण नहीं होगा.
मेरे नानाजी
बापन्नाचार्युलु, पिता अप्पल राजू शर्मा – दोनों सद्ब्राह्मण थे. मेरी नानी और मेरी माता
सुमति महाराणी परम पवित्र महिलाएं थीं, उनका केवल स्मरण मात्र करने से लक्ष-लक्ष पाप नष्ट हो जाते हैं.” इतना कहकर
श्रीपाद प्रभु क्षण भर के लिए मौन हो गए. फिर उन्होंने अपने सीधे हाथ की उंगली से
भूमि को स्पर्श किया, उस समय उनके बाईं ओर से एक प्रकाश पुंज निकला और यज्ञ के लिए आवश्यक
सामग्री प्रकट हुई. कुछ मधुर फल, सुवासिक फूल, थोड़ा सा सोना, चांदी और नवरत्नों का हार प्रकट हुआ. दिव्य अग्नि भी प्रकट हुई. मेरे शरीर
से निकला हुआ पाप पुरुष भयभीत होकर कांपने लगा और आक्रोश करने लगा. श्रीपाद प्रभु
ने उस पाप पुरुष को अपने नेत्र संकेत से अग्नि में भस्म होने की आज्ञा दी. तदनुसार
वह अग्नि में गिरकर भस्म हो गया. मेरे शरीर में बड़ा दाह उठा. “स्वामी, मुझे बचाइये,” ऐसी विनती मैंने की.
प्रभु के नेत्रों से एक दिव्य तरंग निकल कर मुझे स्पर्श करती हुई निकल गई. उस तरंग
से मेरा शरीर शीतल हो गया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मेरी कुण्डलिनी शक्ति जागृत
हो उठी है. मेरी नाडी का स्पंदन रुक गया, ह्रदय की धड़कन बंद हो गई प्रतीत हुई और मैं समाधि अवस्था में पहुँच
गया.
दोपहर हो चुकी थी. उस
दिन गुरूवार था. श्रीपाद प्रभु स्नान करके भक्त समूह में बैठे थे. भक्त जनों
द्वारा समर्पित भिक्षान्न को श्रीपाद प्रभु ने अपने दिव्य हस्त से स्पर्श किया.
कमंडलु के जल से भक्त समुदाय का प्रोक्षण किया. भिक्षान्न का कुछ अंश काक-बलि हेतु
अलग निकाल कर रखा. अत्यंत मधुर स्वर में मुझे अपने पास बुलाया. पल भर को नेत्र बंद
किये, फिर नेत्र खोलकर मेरी
ओर स्नेहार्द्र दृष्टी से देखा. उसी समय उनके हाथ में एक चांदी का पात्र प्रकट
हुआ. उसमें हलवा भरा हुआ था. श्रीपाद प्रभु बोले, “अरे शंकर भट्ट! मेरे भक्त मुझे अपनी भक्ति के पाश में बाँध कर रखते हैं.
मैं निरपेक्ष भक्तिभाव के वश हो जाता हूँ. श्रेष्ठी के घर उनकी धर्मपत्नी मेरे लिए
अवश्य हलवा बनाया करती थीं. मेरे भोजन करने के पश्चात् ही उन्हें समाधान प्राप्त
होता था. उनकी पोती लक्ष्मी वासवी ने मेरे हाथ में राखी बांधी थी. उसके पति की
जन्म कुण्डली में अनिष्ट कारक योग है ऐसा एक ज्योतिषी ने बताया था. उसने मुझसे
विनती की, कि मैं उसकी राखी को
स्वीकार करके उसे अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दूं. मैंने उसे अखंड सौभाग्य का
आशीर्वाद देकर फूल, चूड़ियाँ और कुंकुम प्रसाद के रूप में दिए. उसकी दादी, वेंकटसुब्बम्मा ने
प्रेम से बनाया हुआ हलवा मुझे दिया. इस मधुर प्रसाद के सेवन से अनेक जन्मों के पाप
नष्ट हो जाते हैं. मेरे श्रद्धालु भक्त जो भी नैवेद्य मुझे अर्पित करते हैं, उसका सेवन मैं सूक्ष्म
रूप से उनके घर जाकर करता हूँ, परन्तु श्रेष्ठी के घर के महाप्रसाद को स्वीकार
करने के लिए मैं स्वयँ प्रत्यक्ष रूप से जाता हूँ.”
श्रीपाद प्रभु ने कहा
कि सभी भक्त इस प्रसाद को ग्रहण करें. उस प्रसाद के मधुर स्वाद का वर्णन कौन कर
सकता है? इस प्रसाद का कुछ भाग
उन्होंने आकाश की और उछाला. वह नभ मंडल में जाकर विलीन हो गया. थोड़ा सा प्रसाद
उन्होंने भूमि को अर्पण किया. उसे भूमाता ने स्वीकार किया.
उस प्रसाद को सब भक्तों
ने आपस में बांट लिया. श्रीपाद प्रभु किसी को भी निराश नहीं करते थे. चाहे जितना
भी प्रसाद बांटा जाता, वह कम ही नहीं हो रहा था. उसी समय पद्मशाली कुलोत्पन्न गुरुचरण नामक एक
भक्त वहाँ आया. उसे श्रीपाद स्वामी ने चांदी के पात्र से प्रसाद दिया. उसने बड़े
श्रद्धाभाव से प्रसाद खाया. फिर स्वामी के आदेशानुसार उसने वह पात्र कृष्णा नदी
में प्रवाहित कर दिया.
इसके बाद श्रीपाद प्रभु
बोले, “पद्मशाली कुल के
मार्कंडेय गोत्र वाले लोग कालान्तर में मांस भक्षण करने लगे. मेरे सान्निध्य में
बिना कारण के कोई भी कार्य कभी होता ही नहीं है. गुरुचरण! तू कितने दिनों से मुझे
नैवेद्य अर्पण करते समय ‘श्री गुरु शरणम्’ , ‘स्वामी शरणम्’ ऐसा नामोच्चारण करते
हुए पवित्र जीवन व्यतीत कर रहा है. आज तुझे श्री गुरु के करकमलों से महाप्रसाद
प्राप्त हुआ है. जिस गुरुतत्व को तू समझा है, उसे इस शंकर भट्ट को बता. हम मध्याह्न समय में योग निद्रा की स्थिति में
रहते हुए मानस संचार करते हैं. उस समय हम किसी को दर्शन नहीं देते. हमारी
विश्रान्ति भंग न होने पाए.”
श्री गुरुचरण कलियुग का
एक महान भक्त था. उसे योग मार्ग में अत्युच्च स्थिति प्राप्त हो गई थी. शंकर भट्ट
ने उससे विनती की, “हे महापुरुष, गुरुतत्व का ज्ञान देकर मुझे कृतार्थ करें.” इस पर गुरुचरण बोले, “अनंत कोटि ब्रह्मांड
में उत्पत्ति, स्थिति, एवँ लय जिसकी केवल इच्छा मात्र से ही घटित होते हैं, वे श्री दत्तात्रेय
प्रभु निर्गुण, निराकार स्वरूप से श्रीपाद श्रीवल्लभ के स्वरूप में साकार रूप में अवतरित
हुए हैं. उन्हें साकार समझना महादोषास्पद है, क्योंकि वे साकार रूप में होते हुए भी निराकार ही हैं. सगुण दिखाई देते हुए
भी निर्गुण हैं. वे एक देवता के रूप में दिखाई देने पर भी उनमें सभी देवताओं का
समावेश है. वे सभी योगमार्गों के श्रेष्ठ गुरु हैं. सृष्टि के अनेक महाऋषियों ने
अपने अपने विशिष्ठ साधनों से जिन देवताओं का साक्षात्कार कर लिया है, उन्हीं देवताओं का
स्वरूप है श्रीपाद प्रभु का दिव्य रूप. प्राचीन काल से ही महर्षियों को अनेक दिव्य
शक्तियां प्राप्त थीं. वशिष्ठ ऋषि हव्य युक्त यज्ञ किया करते थे. विश्वामित्र ऋषि
हव्य सामग्री के बगैर ही यज्ञ करते थे. जमदग्नि ऋषि विश्वामित्र ऋषि का अनुकरण
करते थे. अपने श्रीपाद प्रभु सभी प्रकार के यज्ञों का समर्थन करते हैं. किसी भी
कर्म को करने की अथवा न करने की, अथवा किसी अन्य पद्धति से करने के लिए उस कर्म के एवँ मन्त्रों के रहस्य
उन्हें ज्ञात हैं. श्रीपाद प्रभु सब कुछ करने में समर्थ हैं, एवँ उन्हें सभी कर्मों
के रहस्य ज्ञात होने के कारण उन्हें उस व्यक्ति विशेष के आचरण का सूक्ष्म ज्ञान
था. बापन्नाचार्युलु, नरसिंह वर्मा. वेंकटप्प्य्या श्रेष्ठी को अनेक प्रकार की योग विद्या अवगत
थी. सभी शक्तियों में प्रेम शक्ति सर्व श्रेष्ठ है. इन तीनों को श्रीपाद प्रभु की
वात्सल्य भक्ति प्राप्त थी. उनकी प्रेम शक्ति के कारण वे स्वामी को अपना इच्छित
कार्य सुसंपन्न करने की विनती करके करवा लेते थे. श्रीपाद स्वामी भी बड़े आनंद से
उनका कार्य सुसंपन्न करते.
श्रीपाद प्रभु प्रत्येक
स्त्री में अपनी माता का स्वरूप देखकर सहज स्वभाव, सहज वात्सल्य से शिशु समान व्यवहार करते. वे महिलाएं भी स्वामी की शिशु रूप
में ही प्रेमभाव से आराधना किया करती थीं.
योगियों एवँ वेदज्ञों
द्वारा पुनः पुनः वर्णित निर्गुण, निराकार, परब्रह्मरूप, दिव्य शिशु पीठिकापुरम् क्षेत्र में अपनी दिव्य लीलाओं से
सबका चित्त आकर्षित करता था. इस शिशु की लीलाओं का वर्णन करना असंभव है. दैव मार्ग
से, योग मार्ग से, ज्ञान मार्ग से, वेद-शास्त्रों के
अध्ययन से साधना करने वाले साधकों को उनके अपने-अपने मार्ग से श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु की ही कृपा का लाभ प्राप्त होता है.”
इसके बाद शंकर भट्ट ने
उस महान भक्त श्री गुरुचरण से विनती की, “ महाराज, आपको श्रीपाद स्वामी के दर्शन पहली बार किस प्रकार हुए? कृपया वह कथा प्रसंग
सुनाकर मेरा उद्धार करें.”
गुरुचरण बोले, “हे ब्राह्मणोत्तम! आप
अत्यंत धन्य-धन्य हैं. आपको श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं के समक्ष दर्शन पूर्व
जन्म के सुकृतों के फलस्वरूप ही हुए हैं. आपको प्रतिदिन स्वामी के करुणा कटाक्ष का
लाभ प्राप्त होता है. मेरा जन्म देवभक्त कुटुंब में हुआ था. बचपन से ही हमारे कुल
देवता श्री दत्त प्रभु की भक्ति करता रहा हूँ. हमारे परिवार के सम्मुख अनेक आर्थिक
समस्याएँ थीं. मैं अत्यंत श्रद्धा से दत्तात्रेय प्रभु की आराधना करता परन्तु
समस्याएँ कम ही नहीं होती थीं. हमारे गाँव के कुछ लोगों ने सलाह दी कि तुझ पर
दत्तात्रेय प्रभु की कृपा दृष्टी नहीं है, अतः तू दूसरे कुल देवता को चुनकर उनकी आराधना कर. ऐसा करने से तेरे संकट
दूर हो जायेंगे. मैंने उनकी सलाह मानने का निश्चय किया और मैं रात को सो गया. सपने
में मुझे एक भयानक कसाई दिखाई दिया. वह बड़े प्रेम से बकरियां पालता था, मगर प्रतिदिन कुछ
बकरियों की बलि दिया करता. उसके हाथ का हंसिया देखकर मैं भयभीत हो गया. वह
घन-गंभीर स्वर में बोला, “मैं दत्त हूँ. तू चाहे किसी भी देवी-देवता की आराधना कर, परन्तु उसके स्वरूप
में मैं ही रहता हूँ. तू अपने आराध्य देवता का नाम-रूप चाहे तो बदल ले, मगर फिर भी मैं बदलने
वाला नहीं. मैं तुझे कभी भी छोडूंगा नहीं. तू मेरी छाया है. मेरी छाया मुझे छोड़कर
कैसे रह सकती है? समस्त देवी-देवताओं की इच्छाओं को, और समस्त कोटि मानवीय इच्छाओं को चालित
करने वाली महाशक्ति मैं ही हूँ. भगवत्
अवतार के भगवत् स्वरूप को तेजोकान्ति देने वाला ब्रह्म मैं ही हूँ. शेर के मुँह से
शायद एकाध प्राणी छूट भी जाए, परन्तु मेरे हाथों में आया हुआ तू मुझे छोड़कर कभी भी
जा नहीं सकता. दत्त भक्तों को सिंह के शावकों के समान शूर होना चाहिए और भय को
त्याग देना चाहिए. मैं सिंह के समान हूँ. सिंह के शावकों को सिंह के निकट कोई भय
नहीं होता. वे उसके साथ स्वच्छंदता से खेलते हैं. मैं इस हंसिये से तेरा वध
करूंगा. समूचे त्रैलोक्य में तेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है.”
मैं
अत्यंत भयभीत होकर चिल्लाया और तभी मेरा सपना टूट गया. परिवार के लोग पूछने लगे कि
मुझे क्या हुआ था. मैंने स्वप्न का वृत्तांत उन्हें सुनाया. हमारी आर्थिक समस्याएँ
दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि किस जन्म में किये गए
कर्म के फलस्वरूप यह दारिद्र्य-अवस्था भोगनी पड़ रही थी.
सुबह
होते ही एक हरिदास हमारे घर के सामने आया. उसके हाथों में करताल थे और वह हरिनाम
का गायन कर रहा था. उसके सिर पर चावल का एक टोकरा था. यह एक विचित्र हरिदास था.
उसकी टोकरी में औदुम्बर वृक्ष का पौधा था. वह हमारे घर के सामने खड़ा होकर पूछा रहा
था, “क्या चावल दोगे?” मैं घर
में चावल ढूंढ रहा था तो मुझे मुट्ठी भर चावल के दाने मिले. उन कणों को स्वीकार
करते हुए वह बोला, “ महाराज, कल रात को एक कसाई ने गुरुचरण नामक एक दत्त भक्त की
ह्त्या कर दी. आश्चर्य की बात यह हुई कि इस दत्त भक्त के प्राण उसके शरीर से निकल
कर इस औदुम्बर के पौधे में प्रविष्ठ हो गए. औदुम्बर वृक्ष के नीचे श्री दत्त प्रभु
निवास करते हैं, यह बात प्रमाणित है. यह पौधा असामान्य है. गोदावरी मंडल में
पीठिकापुरम् नामक एक महान क्षेत्र है. वहाँ श्री दत्तात्रेय प्रभु का श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में वास्तव्य है. श्रीपाद प्रभु की नानी के औदुम्बर वृक्ष का ही
यह पौधा है. यह पौधा तुम्हारे घर में लगाने से तुम्हारी सब कामनाएँ पूरी हो
जायेंगी.” उस हरिदास की बातें सुनकर मैं तो पगला गया. मैंने कहा, “गुरुचरण तो मैं ही हूँ. मेरी ह्त्या नहीं हुई है.
मैं दत्त भक्त हूँ. मैंने सपने में एक कसाई देखा था. वह कह रहा था कि मुझे मार
डालेगा.”
औदुम्बर वृक्ष की महिमा
इस
पर हरिदास जोर से हंसा और बोला, “क्या तू जो कह रहा है, वह सच
है? कहो कि नहीं है. इस सृष्टि में व्याप्त अनेक मार्गों
के आदिगुरू श्री दत्तात्रेय ही है. वे भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं के बारे
में जानते हैं. उनके सामने हम सब क्षुद्र हैं. यदि जन्म कुण्डली में अनिष्ट फल
दर्शाया गया हो, तो भी गुरुदेव अपने शिष्यों को भयानक मानसिक कष्ट, घोर अपमान सहन करने की सामर्थ्य प्रदान करते हैं. घोर
कष्ट से उसे बाहर निकाल कर उसका कर्म क्षय करके उसे पुनर्जीवन देते हैं. उसी
प्रकार अवतारी पुरुष भी अपने आश्रितों के दुःख दूर करके, उसकी व्याधि कम करके
उन्हें पुनर्जन्म प्रदान करते हैं. श्री दत्तात्रेय प्रभु अपने भक्तों को
प्राणशक्ति देकर अपने नियमित आवास स्थल, औदुम्बर
वृक्ष, से निकलने वाली प्राण शक्ति द्वारा उनकी रक्षा करते हैं. मगर अल्पबुद्धि
वाले साधक ऐसा समझते हैं, कि वे अपने शरीर की प्राणशक्ति के कारण जीवित हैं.
वास्तव में वह प्राणशक्ति औदुम्बर वृक्ष से निकलकर भक्तों का शरीर-व्यवहार भली
प्रकार निभा सकती है. यदि भक्त मरणासन्न अवस्था में हो, तो उस
क्षण औदुम्बर वृक्ष से निकलती हुई प्राणशक्ति भक्त के शरीर में स्थित होकर भक्त की
आयु को थोड़ा सा बढाती है. यह प्राणशक्ति परिपूर्ण होती है, क्योंकि प्रत्येक औदुम्बर के वृक्ष में सूक्ष्म रूप
में श्री दत्तात्रेय प्रतिष्ठित रहते हैं.” हरिदास द्वारा कथन किया गया वृत्तांत
विस्मित करने वाला था. कृष्णदास नामक एक व्यापारी उस मार्ग से जा रहा था. मैं उस
औदुम्बर वृक्ष की देखभाल बड़े प्रेम और भक्तिभाव से कर रहा था. कुछ दिन इसी प्रकार
बीते. हमारे दूर के एक रिश्तेदार रेशमी कपड़ों का व्यापार किया करते थे. वे वृद्ध
हो चुके थे. उनके कोई संतान नहीं थी. मुझ पर उनका विशेष स्नेह था. वे हमारे ही घर
में रहते थे. उन्होंने मुझे थोड़ा सा धन देकर रेशमी कपड़ों का व्यापार करने के लिए कहा.
वे भी हमारे घर के औदुम्बर वृक्ष की भक्तिपूर्वक परिक्रमा करते और श्री दत्त प्रभु
की आराधना किया करते. हमारे घर में किसी भी आपत्ति अथवा संकट के आने पर हम औदुम्बर
वृक्ष की परिक्रमा करके हमारे दुःख निवारण करने की प्रार्थना करते. हमारी याचना
दत्त प्रभु तक पहुँचती थी. हमारे ऊपर आए हुए संकट श्री दत्त प्रभु की कृपा से दूर
हो जाते थे. श्री दत्त प्रभु को यदि हम कोई मन्नत मानते तो वह औदुम्बर वृक्ष के
माध्यम से पूरी होती थी. औदुम्बर वृक्ष की सेवा करना दत्त भक्तों के लिए अति
महत्त्वपूर्ण विधि है. घर में औदुम्बर वृक्ष के होने का तात्पर्य है साक्षात् श्री
दत्त प्रभु का घर में निवास. औदुम्बर वृक्ष की महिमा का जितना भी वर्णन किया जाए, कम ही है.”
पाप
कर्मों के फलस्वरूप कंटीले वृक्ष का जन्म.
मैं
व्यापार के सिलसिले में जब आँध्रप्रदेश में था तो सौभाग्य से पीठिकापुरम् आ
पहुँचा. मैंने श्री बापन्नाचार्युलु का घर ढूंढ निकाला. उस समय श्रीपाद प्रभु
बापन्नाचार्युलु के साथ आँगन में बैठे थे. उनके आँगन में एक कंटीला वृक्ष था. उस
वृक्ष को श्रीपाद प्रभु बड़े श्रद्धाभाव से प्रतिदिन पानी दिया करते थे.
बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “यह कंटीला वृक्ष तुम्हें इतना प्रिय क्यों है? यदि यह संजीवनी वृक्ष होता तो उस पर प्रीती करना उचित
होता. इस वृक्ष को तुम श्रद्धापूर्वक पानी दो, या न भी
दो, तो भी वह बढ़ने वाला ही है.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी, यह कंटीला वृक्ष पूर्व जन्म में हमारे कुल के
“विश्वावाधानी” थे. स्वयंभू श्री दत्तात्रेय बापन्नाचार्युलु के पोते के रूप में
अवतरित हुए हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है! परन्तु विश्वावधानी नाना
उपहासपूर्वक कहते: “यह कितना बड़ा देवद्रोह है!” वे ही इस जन्म में कंटीले वृक्ष के
रूप में हमारे आँगन में स्थित हैं. मैं, माँ, बड़े भाई, श्री विद्याधरी, राधा, सुरेखा, वेंकट सुब्बय्या श्रेष्ठी के एवँ नरसिंह वर्मा के घर
में बड़े प्रेम से भोजन किया करते. यह बात विश्वावधानी नाना जी को बिल्कुल अच्छी
नहीं लगती थी. वे क्रोधित होकर कहते, “मल्लादी एवँ घंडीकोटा इन दो कुलों को धर्मभ्रष्ठ
करने वालों को ब्राह्मण समाज से बहिष्कृत करो. आज वे ही नानाजी कंटीले वृक्ष के
रूप में दिखाई दे रहे हैं.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ साक्षात् दत्तात्रेय हैं, इसका क्या प्रमाण है? इस प्रकार के तर्क-कुतर्क करने वाले विश्वावाधानी नाना ने इस कंटीले वृक्ष
के रूप में जन्म लिया है.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मेरी माता, सर्व सौन्दर्य
स्वरूपिणी, सुमति महाराणी को
श्रेष्ठी अपने घर की बेटी मानते थे. एक बार उन्होंने सम्मानपूर्वक सुमति महाराणी
को भोजन के लिए निमंत्रित किया और नूतन वस्त्रों से उनकी गोद भरी. इससे उन्हें ऐसा
प्रतीत हुआ मानो उनका जन्म धन्य हो गया हो. नरसिंह वर्मा दादाजी का विश्वावधानी
नाना बहुत अपमान करते थे. उन्होंने अपने दादा की मृत्यु पश्चात उत्तर क्रिया भी
विधिपूर्वक नहीं की. उनके पाप कर्मों का भार अत्यधिक बढ़ जाने के कारण ही उन्हें
कंटीले वृक्ष का जन्म प्राप्त हुआ. उस कंटीले वृक्ष को देखते ही श्रीपाद प्रभु
उसका पूर्व वृत्तांत जान गए और उन्हें उसकी दया आ गई. उन्होंने उस वृक्ष पर थोड़ा
जल छिड़का. और वे आँगन से बाहर आए. श्रीपाद प्रभु का मनोहर रूप देखकर मैं आनंद
विभोर हो गया, मेरे नेत्रों से आनंदाश्रु बहाने लगे. मैंने विनम्र भाव से श्रीपाद
प्रभु के दिव्य चरणों पर शीश नवाया. श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से मुझे छूकर कहा, “हे गुरुचरण, उठ. क्या पागलपन कर
रहे हो? तू पुनर्जन्म लेकर मेरे
पास आया है.”
बापन्नाचार्युलु ने यह जानकर कि मैं कपड़ों का व्यापारी हूँ, मुझसे कहा, “हमारे नन्हे के लिए
तुम्हारे पास कपडे हैं?” मैंने श्रीपाद प्रभु के लिए सुन्दर वस्त्र निकाल कर दिए. श्रीपाद प्रभु
गुरुचरण को अन्दर लेकर आये और बोले, “अब तुम्हें एक मजेदार बात दिखाता हूँ. देखो.” उनके साथ बापन्नाचार्युलु भी
थे. श्रीपाद प्रभु सबको लेकर उस कंटीले वृक्ष के निकट आये और बोले, “विश्वन्ना नाना जी!
आपके पुत्र के श्रद्धारहित श्राद्ध कर्म करने से तथा बापन्नाचार्युलू जैसे
महापुरुष की अकारण निंदा करने के कारण आपको इस कंटीले वृक्ष के रूप में जन्म लेना
पडा है. यह गुरुचरण आपका पूर्व जन्म का पुत्र है. इसके द्वारा मैं श्रद्धापूर्वक
आपका उत्तर कर्म करवा रहा हूँ. आप सहमत हैं ना?” प्रभु का यह कथन सुनकर हम आश्चर्यचकित हो गए. उस कंटीले वृक्ष से लिपटी
हुई विश्वावधानी की प्रेतात्मा बोली, “इससे अधिक सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है?” श्रीपाद प्रभु ने गुरुचरण से उस कंटीले वृक्ष को उखाड़कर उसे अग्नि देने को कहा. गुरुचरण ने
श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार उस कंटीले वृक्ष को उखाड़ कर उसका दहन कर दिया एवँ
तत्पश्चात स्नान कर लिया. प्रभु ने उसे स्नानोपरांत विभूति लगाने को कहा. श्रीपाद
प्रभु बोले, “भगवान शिव जो भस्म
धारण करते हैं, वह महायोगी, महातपस्वी, महान भक्त, महान सिद्ध पुरुषों की मृत्यु के पश्चात उनके शरीर के दहनोपरांत की पवित्र
विभूति होती है. शिव प्रभु के तेजोवलय में ये महात्मा ऐक्य स्थिति में विश्राम
करते हैं. वानर, सर्प, गाय – इन पशुओं की यदि अनजाने में अपने हाथ से ह्त्या हो जाए तो उनकी बिना
भूले उत्तर क्रिया करना चाहिए. श्रद्धापूर्वक उनका दहन करके अन्नदान करना चाहिए.
यहाँ मन्त्र पूर्वक किसी भी विधि के करने की आवश्यकता नहीं है. मनुष्य के पूर्व
ऋणानुबंध के अनुसार यदि उसके हाथ से किसी भी प्राणी की अनजाने में ह्त्या हो जाए
तो उनका श्रद्धापूर्वक दहन करें. ऐसा करने से पाप कर्म नष्ट हो जाता है और उन
प्राणियों को सद्गति प्राप्त होती है.”
“प्राचीन काल में गौतम नामक महर्षि थे. उनकी पत्नी अहिल्या एक महान पतिव्रता
स्त्री थीं. उन्होंने विश्व शान्ति के लिए कोटि कमलों से यज्ञ किया था. गौतम
महर्षि अपने तपोबल से घर के सामने अनाज उगाया करते थे. मानव जीवन के लिए अन्न
अत्यंत आवश्यक है. महर्षि गोधन की वृद्धि भी करते थे. गो अमृत जैसे पदार्थों का भी
उत्पादन करते थे.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “यज्ञ-याग न करने से विश्वनियन्ता, देवता एवँ मानव के परस्पर सहयोग से चलने वाला जीवन निरर्थक होकर धर्म की
ग्लानी होती है. माया के निवारण के लिए, गोहत्या-पातक के निवारण के लिए गोदावरी नदी गौतम ऋषि की सहायता से अवतरित
हुई. उनके इस महान कार्य के लिए सारा जन समुदाय उनका अत्यंत ऋणी है.
विश्वावधानी ने गौतम गोत्र में ही जन्म लिया था, परन्तु गौतम गोत्र से उनका सम्बन्ध केवल जन्म लेने तक ही सीमित था. त्रेता
युग में पीठिकापुरम् क्षेत्र में “सावित्री काटक” यज्ञ के आयोजन में गौतम ऋषि का
बड़ा योगदान था. विश्वावाधानी के भाग्य से ही उसे पीठिकापुरम् में जन्म लेने का
अवसर प्राप्त हुआ और जो अत्यंत दुर्लभ है – ऐसे मेरे दर्शन उसे उसे प्राप्त हुए.
उसके अयोग्य होते हुए भी मेरे स्वार्थ रहित प्रेम एवँ करुणा के फलस्वरूप उसे
सद्गति प्राप्त हुई. यह सद्गति उसे श्री दत्तात्रेय प्रभु की कृपा के फलस्वरूप ही
प्राप्त हुई. यदि पूर्व ऋणानुबंध न हो तो कुत्ता भी निकट नहीं आता. यदि कोई सहायता
माँगने अपने पास आए तो उसकी यथासंभव सहायता करनी चाहिए. यदि सहायता करना संभव न हो
तो अपनी मधुर वाणी से अपनी असमर्थता प्रकट करनी चाहिए. परन्तु निष्ठुरता न दिखाएं.
यदि तुम कठोरतापूर्वक व्यवहार करोगे, तो सभी वस्तुओं में चैतन्य रूप से वास करने वाला मैं भी तुम्हारे साथ वैसा
ही व्यवहार करूंगा. जिस प्रकार का व्यवहार तुम अन्य लोगों के साथ करोगे, वैसा ही व्यवहार वे भी
तुम्हारे साथ करेंगे. इस समूची सृष्टि में सत्य का एकमेव मूल कारण मैं हूँ. मैं
समूचे सत्य का ‘सर्वमय परम सत्य’ हूँ. वेदों में भी कहा गया है कि ज्ञान का अंतिम
सत्य ब्रह्म है.”
श्रीपाद प्रभु की बातें सुनकर बापन्नाचार्युलु की आंखों से आनंदाश्रु बहाने
लगे. बड़े प्रेम भाव से श्रीपाद प्रभु ने अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उनके अश्रु
पोंछे और बोले, “नानाजी आप हमेशा मेरे ध्यान में ही रहते हो. आपका जन्म धन्य है. मैं
नृसिंह सरस्वति के अवतार में बिलकुल आप जैसा रूप ही धारण करने वाला हूँ. यह
त्रिवार सत्य है.”
बातें करते समय श्रीपाद प्रभु ने नानाजी का हाथ अपने हाथ में थाम रखा था.
बापन्नाचार्युलु ने कहा, “अरे, श्रीपाद! मेरे मन में कई दिनों से एक संदेह है. पूछूं क्या?” उसी क्षण श्रीपाद मुस्कुराते हुए बोले, “मेरे निकट क्या संदेह
हो सकता है? मैं, दस वर्ष का बालक, आपके संदेह का निवारण
किस प्रकार कर सकता हूँ? प्रयत्न करूंगा.”
इस पर बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “सृष्टि, स्थिति एवँ लय – इनके कर्ता ब्रह्मा, विष्णु एवँ महेश हैं ना?” श्रीपाद प्रभु बोले, “हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं.” बापन्नाचार्युलु ने आगे पूछा , “उनकी स्त्री शक्ति
की स्वरूप सरस्वति, लक्ष्मी एवँ पार्वती हैं ना?” श्रीपाद प्रभु ने सहमति से सर हिलाया. “इन त्रिमूर्तियों को एवँ उनकी
तीनों शक्तियों को निर्माण करने वाली एक आदि पराशक्ति है ना?” श्रीपाद प्रभु बोले, “हाँ है.” इस पर
बापन्नाचार्युलु ने पूछा, “तो उनके सम्मुख तू कौन है? तू हमेशा मेरे बंधू-बांधवों को जिस वासवी कन्या के बारे में बताता है वह
कौन है? तुम दोनों भाई-बहन हो
क्या इस बात का कोई शास्त्राधार है?”
श्रीपाद प्रभु सर्व देवस्वरूप – सभी का मूल रूप हैं श्रीपाद प्रभु.
एक के बाद एक प्रश्नों की बौछार सुनकर श्रीपाद प्रभु अपनी मनमोहक मुस्कान
बिखेरते हुए बोले, “नाना जी, अभी अभी आपकी आँखों के सामने ही तो मैंने कंटीले वृक्ष को सद्गति दी है.
मैंने जो कार्य किया उसके लिए शास्त्रों में कोई प्रमाण है क्या? अतः इस प्रकार की
बातों की विवेचना करने की कोई आवश्यकता नहीं. मैं योगी हूँ और सभी योगक्रियाओं में
उपस्थित रहता हूँ, इसलिए मैं किसी भी प्रकार की भूमिका के साथ समरस हो जाता हूँ.
सृष्टि मेरी माया ही तो है. उसी को हम सृष्टि मानते हैं. समूची सृष्टि में एक ही
भगवत् चैतन्य व्याप्त है. यह चैतन्य विविध स्थितियों में एवँ विविध अवस्थाओं में
परिणाम के वश में है. इस परिणाम क्रम का आधार है काल. काल का ज्ञान प्राप्त करने
की प्रक्रिया में परिणाम चक्र का अनुभव होता है. इस काल की गणना होती है आकाश में
स्थित सूर्य, चन्द्र, तारों एवँ ग्रहों की गति से.
अत्रि महर्षि को त्रिकाल का एवँ तीनों अवस्थाओं का ज्ञान था. अनुसूया माता
को इस सृष्टि में एक महान पतिव्रता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई.” श्रीपाद
प्रभु आगे बोले, “मुझे एक ही काल में सृष्टि, स्थिति तथा लय का, एवँ एक साथ ही स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण – देह की इन तीनों अवस्थाओं का, और भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान
काल का अनुभव होता है इसलिए मेरे लिए नित्य वर्तमान काल ही है. जो घटित हो चुका है, घटित हो रहा है एवँ भविष्य में घटित होने वाला है – इन सब का अनुभव मुझे एक
ही काल में होता है, अतः त्रिमूर्ति, त्रिशक्ति मुझमें विद्यमान हैं – यह कोई आश्चर्य की बात नहीं त्रिमूर्ति
एवँ त्रिशक्ति सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व आदि-पराशक्ति के रूप में थीं. यह बात
सत्य है. मैं तथा आदि-पराशक्ति अभिन्न हैं. इसमें से एक सूक्ष्म अंश होने के कारण
समस्त सृष्टि के मातृगर्भ में एक महासंकल्प आदिपराशक्ति के रूप में विलास करता है.
यही ब्रह्मयोनि स्वरूप है. यहीं से त्रिमूर्ति, त्रिशक्तियों का आविर्भाव हुआ. उस आदिपराशक्ति को निर्माण करने का संकल्प
हो अथवा सृष्टि रचना का संकल्प हो – यह कैसे संभव होगा – इसकी प्रबोधन शक्ति मैं
ही हूँ. अतः मैं ही महासंकल्प स्वरूप हूँ. उस महासंकल्प की सिद्धि के लिए ही
आदिपराशक्ति का आविर्भाव हुआ. साथ ही त्रिशक्ति का भी आविर्भाव जिस महासंकल्प के
कारण हुआ वह महासंकल्प रूप परम गुरुस्वरूप है. यह अत्यंत रहस्यमय विषय है. इस
महासंकल्प स्वरूप में संकल्प के मिलते ही वह तत्काल सिद्ध हो जाता है. संकल्प का
होना एवँ उसका सिद्धि को प्राप्त होना – ये दोनों क्रियाएँ एक ही समय में घटित
होती है. सभी शक्तियों को एकत्रित रखने वाली मूल शक्ति मैं ही हूँ. सृष्टि में
माता-शिशु संबंध, पिता-पुत्र संबंध, पति-पत्नी संबंध, भाई-बहिन संबंध – ये अनिवार्य संबंध हैं. इन पवित्र संबंधों के लिए आदर्श
के स्वरूप में देवी-देवता पृथ्वी पर अवतरित होते हैं. जीव अर्थात माया की शक्ति
है. मैं ऐसी महाशक्ति हूँ, जो माया से परे है. मायाशक्ति अथवा महाशक्ति योगशक्ति द्वारा ही फलीभूत
होती है. जो महाशक्ति स्त्री-स्वरूप में वासवी कन्यका के नाम से जानी जाती है, वही महाशक्ति
पुरुष-स्वरूप में श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुई है. इन दोनों शक्तियों
का आविर्भाव भी महासंकल्प के अनुरूप ही है. आदिपराशक्ति की अथवा मूल दत्त स्वरूप
की आराधना करने से त्रिमूर्ति एवँ त्रिशक्ति अंतर्लीन हो जाती हैं. इन देवी
संबंधों और उनके उनके तत्वों के, उनकी स्थिति-विशेष के अनुरूप, अनुभव का ज्ञान
केवल साधना संपन्न जीवों को ही अवगत होता है.”
श्रीपाद प्रभु की
आराधना करने वाले साधकों के पापों का निवारण
“मृग के पास जाकर
उसे संस्कृत व्याकरण का ज्ञान देना निरर्थक है. यदि संस्कृत का अध्ययन करके नीच
योनि से मुक्ति प्राप्त करना हो, तो व्याकरण का ज्ञान ऐसे ही व्यक्ति से प्राप्त
करना चाहिए जो इसके लिए समर्थ हो. मेरा प्रत्येक जीव के साथ आतंरिक संबंध होने के
कारण मैं जीव के संस्कार एवँ मलिनता दोनों को स्वीकार करता हूँ. वास्तव में देखा
जाए तो मेरी पूजा करने की आवश्यकता नहीं है. मेरी आराधना करने वाले भक्तों के
पाप-संस्कार मैं अपने भीतर आकर्षित कर लेता हूँ. यदि मेरे भक्त अपने कुल देवता की
पूजा करें, तो वह मेरे स्वरूप
की स्थूल पूजा होगी. उस पूजा के करने से प्राप्त होने वाला महाफल मेरी आराधना करने
वाले अपने भक्तों को मैं अर्पण करता हूँ. यदि तुम कर्म न करोगे तो तुम्हें फल
कदापि प्राप्त नहीं होगा. इसीलिये मैं तपश्चर्या तथा महापूण्यकर्मों का आचरण करता
हूँ. मैं अनंत चैतन्य हूँ इसलिए उत्तम कर्म करने वाले साधकों को उनकी योग्यतानुसार
कर्म का फल तत्काल प्रदान कर देता हूँ. मेरा स्वरूप आदिगुरूस्वरूप है. जिस प्रकार
माता-पिता की धन-दौलत की हकदार संतान होती है, उसी प्रकार गुरू की तपोशक्ति के वारिस होते हैं
उसके शिष्य. भगवान श्रीकृष्ण ने भी भगवद्गीता में कहा है कि मानव के लिए कर्म करना
अनिवार्य है.”
मेरी तपाराधना अंतहीन है.
“श्री दत्तात्रेय के समान ही मैं भी सुलभता से प्राप्त होने वाला देवता हूँ.
अन्य देवी-देवता भक्तों की तपश्चर्या से संतुष्ट होकर उन्हें वर प्रदान करते हैं.
गुरूस्वरूप श्री दत्तात्रेय अपने शिष्यों की वरप्राप्ति के मार्ग की रुकावटों को
दूर करते हैं. वे सदा अनुग्रह करने वाले, परम करुणामूर्ति-स्वरूप हैं. नाना जी, मुझे स्मरण करते ही प्रसन्न होने वाला देवता कहा जाता है. जो सबका मूल है –
वह गुरुरूप मैं ही हूँ. यह परम गुरुतत्व-स्वरूप महान करुणा के फलस्वरूप अवतरित हुआ
है, अतः यह अवतार अंतहीन है. मेरे भक्तों की पुकार पर मैं तुरंत प्रतिसाद देता
हूँ. मैं यह ही देखता हूँ, कि मेरे भक्त मुझे कब बुलाते हैं. यदि साधक मेरी और एक कदम आगे बढाता है, तो मैं उसकी ओर सौ कदम
बढाता हूँ. जिस प्रकार पलकें आंखों की रक्षा करती हैं, उसी प्रकार मैं अपने भक्तों की सुरक्षा करता हूँ. उन्हें संकटों से, विपत्तियों से छुड़ाता
हूँ. यह मेरी सहज प्रवृत्ति है.”
श्रीपाद प्रभु के इस कथन के बाद मैंने उनसे पूछा, “हे महागुरू! मैंने सोमलता एवँ सोम-याग के बारे में अनेक लोगों से सूना है.
कृपया इसके बारे में विस्तार से बताएँ.”
श्रीपाद प्रभु बोले, “सोमलता को संजीवनी वनस्पति कहते हैं. क्या तुम उसे देखोगे?” मैंने ‘हाँ’ कहते हुए गर्दन हिला
दी. तत्काल श्रीपाद प्रभु के हाथों में संजीवनी बेल प्रकट हो गई. उन्होने
सम्मानपूर्वक वह बेल मेरे हाथों में दी. मैंने उस दिव्य प्रसाद को अपने पूजा मंदिर
में संभाल कर रखा है. श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “ यह संजीवनी वनस्पति हिमालय की पर्वत श्रेणी में, काश्मीर के निकट, मानसरोवर के पास,
सिन्धु नदी के उद्गम स्थल के निकट, मल्लिकार्जुन प्रभु का जहाँ नित्य निवास रहता
है, उस श्री शैल्यम पर्वत
पर, सह्याद्री, महेंद्र, देवगिरी, विन्ध्य पर्वत श्रेणी एवँ बदरी के अरण्य प्रांत में पाई जाती है. इस बूटी
के प्रभाव से ही लक्ष्मण की मूर्छा दूर हुई थी. इस बूटी के सेवन से अनेकों असाध्य
रोग दूर हो जाते हैं. इसका लेप करने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो ‘आकाशगमन’ सिद्धि प्राप्त हो गई
हो. इसके सेवन से हड्डियां मज़बूत होती हैं, नेत्र कांति बढ़ती है, श्रवण शक्ति में सुधार
होता है. इस बूटी के प्रभाव से अग्नि से, विष से एवँ जल से भय नहीं होता. इसके कारण अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती
हैं. इस संजीवनी बेल में शुक्ल पक्ष के आरंभ से प्रतिदिन एक-एक पत्ता लगता है, पूर्णिमा तक पंद्रह
पत्ते आ जाते हैं. कृष्ण पक्ष के आरम्भ होते ही प्रतिदिन एक-एक पत्ता गिरने लगता
है और अमावस्या को बेल सूख जाती है. इस सूखी हुई बेल की एक टहनी रात को पानी में
भिगोकर रखने से इसमें से प्रकाश निकलता है. सह्याद्री पर्वत श्रुंखला पर भीमाशंकर
पर्वत के निकट ‘क्रूर मृग’ इस संजीवनी बूटी की रक्षा करते हैं. अमावस की रात को भी दिव्य कांति से
चमकने वाली संजीवनी बूटी ढूँढना आसान होता है.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “हे गुरुचरण, इस प्रकार चौबीस प्रकार की दिव्य औषधी-बूटियाँ हैं. वे सभी अत्यंत पवित्र
हैं. देवता-शक्तियां इनका आश्रय लेती हैं. पवित्र वेद मन्त्रों का उच्चारण करते
हुए इन बूटियों को तोड़ना चाहिए. ये चौबीस बूटियाँ इस प्रकार हैं:
1. सोम
2. महासोम
3. चन्द्र
4. अंशुमान
5. मंजुवान
6. रजीत प्रभु
7. दूर्वा
8. कनियान
9. श्वेतान
10. कनक प्रभा
11. प्रतान वान
12. लाले वृत्त
13. करदीर
14. अन्शवान
15. स्वयंप्रभा
16. रुद्राक्ष
17. गायत्रि
18. एष्टम
19. पावत
20. जगत
21. शाकर
22. अनिष्टम
23. रैकत
24. त्रिपाद गायत्रि “
मैंने श्रीपाद प्रभु से बिदा ली और पीठिकापुरम् से निकला.
मैंने शंकर भट्ट को यह वृत्तांत विस्तारपूर्वक बताया. महागुरू का मानस संचार
पूर्ण हो गया एवँ उनके दर्शनों के लिए आने की आज्ञा प्राप्त हुई. मैं श्रीपाद
प्रभु के दर्शन पाकर धन्य हो गया. मुझे उनके दिव्य हस्त से फलों का प्रसाद प्राप्त
हुआ. श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा, “कृष्णा नदी पार करके मान्चाल ग्राम को जाओ. इस ग्राम की ग्राम देवता
तुम्हें आशीष देगी. उसका आशीर्वाद लेकर वापस कुरुगड्डी आओ. यह बात हमेशा ध्यान में रहे कि चाहे तुम
मेरे पास रहो या मुझसे दूर रहो, मेरा ध्यान हमेशा तुम पर रहता है. भविष्य में यह मान्चाल ग्राम विश्व में
प्रसिद्ध होगा. एक महापुरुष की समाधि के कारण इस गाँव को प्रसिद्धी प्राप्त होगी.
इस महापुरुष की लीलाएँ अद्भुत होंगी. स्थूल दृष्टी से देखने से पीठिकापुरम् एक
प्रकार का दिखाई देता है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टी से देखने पर अलग ही प्रतीत होता है. यही सुवर्ण
पीठिकापुरम् है जो मेरे शरीर को वलायांकित करता हुआ अतिशय तेजोमय है. व्यक्ति किसी
भी योग का, किसी भी देशा का, किसी भी युग का क्यों
न हो, मेरे केवल नेत्र
कटाक्ष से उसका चैतन्य सुवर्ण पीठिकापुरम् में प्रतिष्ठित हो जाता है. यह विशेष
योगदृष्टि वाले भक्तों को ही समझ में आ सकता है. सुवर्ण पीठिकापुरम् में अपने जीवन
चैतन्य को प्रतिष्ठित करने वाले सभी भक्त धन्य हैं. उनका मैं जन्म-जन्मान्तर तक
ध्यान रखूंगा. पिता समान शंकर भट्ट! अनेक शतकों के बाद मेरे आँगन में महासंस्थान
का निर्माण होगा. मेरे नाना जी के घर, जहाँ मेरा जन्म हुआ, उस स्थान पर औदुम्बर वृक्ष की छाया में वह बनेगा. मेरा अगला अवतार श्री
नृसिंह सरस्वति के नाम से होगा. इस अवतार की मूर्ती भी इस महासंस्थान में स्थापित
होगी.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “देखो, मैं तुम्हें दिव्य दृष्टी दे रहा हूँ,” इतना कहकर उन्होंने गुरुचरण के और मेरे भ्रूमध्य पर अपनी दृष्टी जमाई. वह
सुन्दर दृश्य देखकर हम धन्य-धन्य हो गए. उनका संकल्प अमोघ है. उनकी लीलाएँ अद्भुत
हैं. हम आगे की यात्रा पर निकले तब श्रीपाद प्रभु बोले, वशिष्ठ ऋषि के अंश वाला एक भक्त मेरे संस्थान में पुजारी के रूप में
आयेगा.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय 21
श्री दन्डी स्वामी का कुककुटेश्वर में आगमन
साधकों की स्थान
शुद्धि, भाव शुद्धि आवश्यक है
मैं महागुरू की
आज्ञानुसार गुरुचरण के साथ मान्चाल ग्राम के दर्शनों के लिए निकल पडा. रास्ते में
मुझे बार-बार श्रीपाद प्रभु की लीलाओं का स्मरण हो रहा था. अध्यात्म से संबंधित
अनेक विषय मैं श्री गुरुचरण से समझ रहा था. मैंने गुरुचरण से पूछा, “वशिष्ठ ऋषि का अंश – एक व्यक्ति मेरे संस्थान
में पुजारी बनकर आयेगा, ऐसा श्रीपाद प्रभु ने कहा था. यह व्यक्ति महाभाग्यवान है. वह व्यक्ति है
कौन? वह किस समय आयेगा?” इस पर गुरुचरण बोले, “अरे, शंकर भट्ट! अनेक
शताब्दियों के उपरांत उनके जन्म स्थल पर महासंस्थान का निर्माण होने वाला है, ऐसा श्रीपाद प्रभु ने
कहा था. उस महासंस्थान में कोई एक महातपस्वी आने वाला है, ऐसा प्रभु का संकल्प
था. उस महासंकल्प की पूर्ति के लिए वह महातपस्वी निश्चय ही यहाँ आयेगा. दीर्घ काल
तक किये गए ध्यान के कारण, आराधना के कारण, पवित्र मंत्रोच्चारणों के कारण एवँ श्रद्धा पूर्वक किये गए पूजा विधानों के
कारण यहाँ की भूमि एवँ वायुमंडल अत्यंत शुद्ध हो गया है. विश्व-अंतराल (अंतरिक्ष)
की दसों दिशाओं के भाव तरंग यहाँ सदा के लिए प्रस्फुटित हो गए हैं. जिन भक्तों के
मन के भाव पवित्र होते हैं, वे यहाँ के पवित्र स्पंदनों को आत्मसात्त् करते हैं. अपवित्र ह्रदय के
भक्तों को अपवित्र स्पंदनों का अनुभव होता है. किसी स्थान के वायुमंडल के भाव तरंग
प्रबल शक्ति-संपन्न होकर बिना कोई प्रयत्न किये महापुरुषों के मानसिक चैतन्य को
स्पर्श करके अनेक विचित्र पद्धतियों द्वारा उस विशिष्ठ स्थान की ओर आकर्षित होते
हैं. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है. इसके परिणाम स्वरूप स्थल-शुद्धि होने के
कारण साधक वहाँ निवास कर सकते हैं. ऐसा उन साधकों के लिए संभव है जिनकी भाव शुद्धि
हो गई हो. हमें ऐसे ही साधकों की संगत करनी चाहिए. ऐसे ही साधकों से हमें अन्न
अथवा धन स्वीकार करना चाहिए जिनका द्रव्य एवँ अन्न शुद्ध हो. वेदों एवँ वेदान्तों
के महापंडित कहे जाने वाले जन्मजात ब्राह्मणों को भी श्रीपाद प्रभु के कृपा कटाक्ष
का लाभ नहीं प्राप्त हो सका, परन्तु दोष रहित, अल्पज्ञानी भक्त को सहजता से प्राप्त हो जाता है.
मैं पौण्ड्र देश (ओड़िसा) के जगन्नाथ पुरी क्षेत्र में व्यापार हेतु गया था.
वहाँ मुझे श्री जगन्नाथ की मूर्ती में श्रीपाद प्रभु के दर्शन हुए. मेरे साथ आये
हुए तीन-चार भक्तों को श्रीपाद प्रभु ने उनके इष्ट देवताओं के रूप में दर्शन देकर
तुरंत अपने निज स्वरूप में दर्शन दिए. उन्होंने ऐसा मौन-बोध हमें करवाया कि सभी
देवी-देवताओं के रूप में मैं ही हूँ.”
दंडी स्वामी का गर्व हरण
जिस दिन हम जगन्नाथ
पुरी पहंचे, उसी दंडी स्वामी
अपने एक सौ आठ शिष्यों सहित वहाँ आये थे. किसी भी महात्मा को देखते ही उनके चरणों
पर नतमस्तक हो जाना – यह हमारी रीत ही थी. हमने दंडी स्वामी के चरणों पर माथा टेका
और कैसी अचरज की बात हुई कि तत्काल दंडी स्वामी की वाचा खो गई. वह कुछ भी बोलने
में असमर्थ थे. हम सबने श्रीपाद प्रभु के चरणों में नम्र प्रार्थना की कि दंडी
स्वामी की वाचा लौट आये. इस प्रार्थना के फलस्वरूप उन स्वामी जी की वाचा लौट आई.
दंडी स्वामी के शिष्य श्रीपाद प्रभु के शिष्यों को देखकर कुत्सित भाव से बोले, “श्रीपाद तो एक
क्षुद्र मान्त्रिक है. उनके शिष्य भी क्षुद्र मान्त्रिक हैं. उन्होंने अपनी
क्षुद्र विद्या का प्रयोग करके दंडी स्वामी की वाचा हर ली. परन्तु हमारे स्वामी जी
समर्थ हैं, इसीलिये उनकी वाचा
वापस लौट आई और वे स्वस्थ्य हो गए. हमारे गुरू श्री दंडी स्वामी श्रीपाद का सच्चा
स्वरूप जनता के सामने लाएंगे. वे पीठिकापुरम् जाकर श्रीपाद वल्लभ के साथ
शास्त्रार्थ चर्चा करके उन्हें पराभूत करेंगे और विजय-पात्र लेकर लौटेंगे इसमें
कोई संदेह नहीं.” पीठिकापुरम् के निवासियों ने दंडी स्वामी के स्वागत के लिए एक
महान रथ की व्यवस्था की थी. हम यह सुनकर निरुत्तर हो गए.
जब कोई भक्त अनन्य
भाव से श्रीपाद प्रभु की शरण में जाता है तब वे अपने लीला-विधान से भक्तों की संकट
से रक्षा करते हैं. आश्चर्य की बात तो यह है कि समस्याओं का निर्माण भी श्रीपाद
प्रभु ही करते हैं, और उनका निराकरण भी श्रीपाद प्रभु ही करते हैं. ऐसी अनेक अंतरमय लीलाएँ
करके श्रीपाद प्रभु सब दत्त भक्तों को अपने होने का अनुभव देते हैं.
कुछ दिनों के बाद
दंडी स्वामी ने पीठिकापुरम् क्षेत्र में प्रवेश किया. सौभाग्य से मैं (शंकर भट्ट)
भी पीठिकापुरम् में था. श्री बापन्नाचार्युलु, श्री अप्पल राजू एवँ श्रीपाद प्रभु के विरोधियों
की पीठिकापुरम् गाँव में कमी नहीं थी. श्री दंडी स्वामी ने कुक्कुटेश्वर के मंदिर
में जाकर सभी देवी-देवताओं के दर्शन किये. स्वयंभू दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन के
बाद उन्होंने कहा, “यहाँ विराजित
स्वयंभू दत्तात्रेय प्रभु की महिमा अपरंपार है.” आगे बोले कि उनका अवतार श्रीपाद
प्रभु का गर्व दूर करने के लिए है. उसी दिन से उन्होंने अपनी संकल्प शक्ति से
कुंकुम, विभूति आदि जैसे
पदार्थों का निर्माण करके अपने भक्तों को बांटना आरम्भ कर दिया. पीठिकापुरम् के
ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों सहित दंडी स्वामी का स्वागत किया और उन्हें कुक्कुटेश्वर
के मंदिर में ले गए. गाँव में मुनादी करवा दी कि दंडी स्वामी आये हैं. स्वयँ
दत्तप्रभू के अवतार – श्रीपाद प्रभु ने दंडी स्वामी की तपस्या पहचानकर उन्हें
साष्टांग दंडवत किया. श्री बापन्नाचार्युलु ने दंडी स्वामी के दर्शन करके उनकी
शरणागति स्वीकार की. श्री अप्पल राजू शर्मा ने भी दंडी स्वामी के दर्शन करके
परंपरानुसार पूजित काले पाषाण की एक मूर्ती उन्हें अर्पण की. वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी की अध्यक्षता में आर्य वैश्य समिति का सम्मलेन हुआ. इस सम्मलेन में यह
प्रस्ताव सर्वानुमति से पारित किया गया कि किसी भी परिस्थिति में श्री दंडी स्वामी
के कुकृत्यों में श्रीपाद प्रभु, अप्पल राजू शर्मा और बापन्नाचार्युलु सहकार्य
नहीं करेंगे. नरसिंह वर्मा की अध्यक्षता में आयोजित की गई क्षत्रिय सभा में भी यही
प्रस्ताव पारित किया गया.
श्रीपाद प्रभु अपने
ननिहाल के आँगन में स्थित औदुम्बर वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे. दिव्य
कांति बिखेरने वाले श्रीपाद प्रभु की ओर देखकर श्रेष्ठी का ह्रदय गद्गद् हो गया और
उनके नेत्रों से अश्रु बह निकले. बापन्नाचार्युलु, श्री अप्पल राजू शर्मा एवँ
श्रेष्ठी – ये तीनों श्रीपाद प्रभु के मुखारविंद की और देखते हुए उनके एकदम निकट
बैठे. श्रीकृष्ण के समान दिखाई देने वाले श्रीपाद प्रभु को भूख लगी थी. उनकी नानी
राजमाम्बा श्रीपाद प्रभु को खिलाने के लिए एक चांदी की कटोरी में दही-भात लाई.
श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से उसे खाया. दहीभात खाने के पश्चात उन्होंने अपने
नानाजी से वेदघोष आरम्भ करने के लिए कहा. बापन्नाचार्युलु ने वेदघोष आरम्भ किया.
उनके साथ अप्पल राजू शर्मा एवँ स्वयँ श्रीपाद प्रभु भी वेदघोष कर रहे थे. नरसिंह
वर्मा तथा श्रेष्ठी ने भी अत्यंत आनंदित होकर सुस्वर में वेदपठन आरम्भ किया. उस
वेदघोष के कारण वहाँ का वातावरण किसी ऋषि के आश्रम जैसा पवित्र हो गया था. इसी समय
कुक्कुटेश्वर के मंदिर में एक आश्चर्यजनक घटना हुई. स्वयंभू दत्तात्रेय के मुँह के
पास दहीभात के कण दिखाई देने लगे. पुजारी ने दो-तीन बार उन्हें पोंछा फिर भी वे कण
आते ही रहे. इस प्रकार श्रीपाद प्रभु अद्भुत लीला दिखा रहे थे. दंडी स्वामी अपने
शिष्यों समेत वेदघोष करते हुए पीठिकापुरम् से बाहर जाने के लिए निकले. वे सब एक के
पीछे एक कदम बढ़ाते हुए चल रहे थे, परन्तु जहाँ से चले थे, वहाँ से आगे ही
नहीं बढ़ पा रहे थे. इस विचित्र अवस्था में काफी समय बीत गया. सबको यह देखकर बड़ा
आश्चर्य हो रहा था, तभी दंडी स्वामी के हाथ का दंड टूट गया. उसके दो टुकड़े हो गए. दंडी स्वामी
को ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनके शरीर के ही दो टुकड़े हो गए हों. पीठिकापुरम् के
ब्राह्मणों को यह घटना भयभीत कर गई. आज तक के अपने अनुभव से दंडी स्वामी को
विश्वास हो गया था कि श्रीपाद प्रभु उनसे कई गुना अधिक शक्ति संपन्न हैं. उनका
विरोध करने से अनर्थ होगा – ऐसा उनके मन ने ठान लिया. प्रस्तुत परिस्थिति में अपने
गाँव कैसे जाएँ, यह चिंता उन्हें
सताने लगी.
मोहनाश ही मोक्ष है
पीठिकापुरम् में अब्बन्ना नामक एक व्यक्ति रहता था. वह साँपों को पकड़कर उनका
खेल दिखाता और अपना जीविकोपार्जन करता था. वह बापन्नाचार्युलु के घर आया. उस समय
श्रीपाद प्रभु ने कुछ देर के लिए वेदघोष रोकने के लिए कहा. अब्बन्ना को भरपेट भोजन
दिया. फिर उससे कहा कि “यहाँ से एक बर्तन में पानी लेकर कुक्कुटेश्वर के मंदिर में
आओ. श्री दत्त प्रभु के एक अवतार को करचरणद्वय संचार करते हुए भी जिन्होंने उसकी
अकारण निंदा की है, ऐसे महापापी लोग कुक्कुटेश्वर के मंदिर में हैं. उन्हें मृत्यु के पश्चात
पिशाच्च योनि प्राप्त होगी ऐसा चित्रगुप्त ने घोषित किया है, मैंने चित्रगुप्त से
संवाद करके उनके पापों के परिहार के लिए एक उपाय सोचा है. भूमाता ने मुझसे ऐसी ही
विनती की है. तू वहाँ जाकर भूमाता को मेरा सन्देश दे कि वह शांत रहे. श्रीपाद
प्रभु के दर्शनों के लिए उत्सुक भक्तों को तेरी सम्मति लेनी पड़ेगी. उन पर तू यह जल
छिड़कना. मेरे पूर्वआदेशानुसार तू मादिगा सुब्बय्या के घर जाकर सबको दही-भात का
महाप्रसाद दे. अब्बय्या, सुब्बन्ना आदि वहीं गए हैं; वे सबको बापन्नाचार्युलु के घर लेकर आयेंगे.” श्रीपाद प्रभू उग्र स्वर में आगे बोले, “अरे दंडी स्वामी! एक
महान तपस्वी होकर भी कितना गर्व करते हो? तुम जिसकी दत्त स्वरूप में आराधना करते हो, वही श्रीपाद श्रीवल्लभ का रूप धारण करके भक्तों के उद्धार के लिए अवतरित
हुए हैं. उन्हें न पहचानने वाले तुम, महामूर्ख हो. तुम्हारे शिष्य भी तुम्हारे ही जैसे मूर्ख हैं. पीठापुरम के
तुम्हारे नए शिष्य अज्ञानी हैं. तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो? समूची सृष्टि पर शासन
करने वाली एकमेव सत्ता के सामने तुम्हारा अस्तित्व है ही कितना! तुम्हारी सामर्थ्य
ही कितनी है! दैव दूषण जैसा महापाप करने के कारण तुम्हें अनेक शतकों तक पिशाच्च
योनि में रहना पडेगा. मैं वह निर्णय रद्द करता हूँ. मानव जीवन प्राप्त करके तुम सब
लोग नीच जाति में जीवन बिताने वाले हो, ऐसा आदेश दिया है. तुम्हारे पापों का परिहार मैं तुम्हें बहुत कम सज़ा देकर
कर रहा हूँ. श्रीपाद श्रीवल्लभ स्वरूप महा अग्नि के समान है. अग्नि से खेलोगे तो
बड़े प्रमाद की संभावना है. जब मेरी माया को, अथवा मुझे ही अभिन्न स्वरूप में जान लिया हो तो मोक्ष का अर्थ क्या है, ऐसा तुम विचार करते
हो. वास्तव में देखा जाए तो मोह का क्षय ही मोक्ष है. किसी भी जीवात्मा को, जो सच्चिदानंद स्वरूप
के आनंद का अनुभव करता है, उसकी योग्यतानुसार मैं अनुगृहीत करता हूँ. जो जीवात्मा मेरे आदिस्वरूप
‘दिव्यानंद परवश” में अनंत सुख स्वरूप में रहने की इच्छा करता है, उसे मैं तुरंत वह
स्थिति प्राप्त करा देता हूँ. मेरी दृष्टी में निर्गुण-निराकार, सगुण-साकार, मोक्ष-बंधन ऐसा भेद ही
नहीं है. मैं प्रत्येक क्षण असंख्य नूतन लोकों की सृष्टि, स्थिति, एवँ लय में व्यस्त
रहता हूँ. जीवात्मा की उन्नत स्थिति अथवा उन्नत आनंद अवस्था के लिए कोई सीमा नियत
नहीं है. जो साधक मृत्योपरांत मेरे स्वरूप में लीन होने की अच्छा करते हैं, वे मेरे स्थान पर
अवश्य आयें मैं उस स्थिति में कितने शतकों तक रहें, किस लोक में पुनर्जन्म को प्राप्त हों, इस सबका निर्णय मैं अपनी इच्छा से करूंगा.
समूचे विश्व रूपी नाटक का सूत्रधार, मैं, इस समय साकार रूप में
तुम्हारे सामने हूँ. तुम मुझे अभी मेरे साकार रूप में देख रहे हो. निर्गुण-निराकार
अवस्था में होते हुए भी मैं हमेशा तुम्हारी और देखता रहूँगा, यही कहने के लिए
मैंने साकार रूप धारण किया है. उस महान उन्नत स्थिति से मैं तुम्हारे लिए नीचे उतर
कर आया हूँ. महायोगी की योग शक्ति का उपयोग लोक कल्याण के एवँ लोक रक्षण के लिए
करना चाहिए. लोक से तात्पर्य केवल भूलोक से नहीं है. अपने से कम, अर्थात नीच अवस्था में, निःसहाय स्थिति में
पड़े हुए जीवों की सहायता करना मानव धर्म है. मैं धर्ममार्ग, कर्ममार्ग, योगमार्ग,
भक्तिमार्ग एवँ ज्ञानमार्ग का बोध कराने के लिए अवतरित हुआ हूँ. मैं सभी धर्मों के
मूल में जो स्थित है ऐसा एकमेव धर्म, सभी सत्य का मूल – एकमेव सत्य एवँ सभी कारणों का कारण - एकमेव कारण हूँ. मेरी इच्छा के बिना इस
सृष्टि में कुछ भी घटित नहीं हो सकता. ऐसा कुछ भी इस सृष्टि में नहीं है, जिसमें मैं नहीं हूँ.
मैं हूँ – इसलिए तू है, यह सृष्टि है, इससे भिन्न कोई और सत्य मैं तुम्हें क्या समझाऊँ? तू हिमालय पर्वत पर
जाकर निःसंग होकर तपाचरण कर. तुझे शिष्यों की कोई आवश्यकता नहीं. तू मोक्ष को
प्राप्त हो अथवा तेरा उद्धार हो, इससे इस सृष्टि की अथवा मेरी कोई हानि नहीं होने वाली. सृष्टि के सारे
व्यवहार उचित ढंग से चलते रहेंगे. यह समझ लेना तेरे लिए आवश्यक है. यदि तू अपने
साथ पीठापुरम् के शिष्य ले जाएगा तो ऐसा प्रतीत होगा मानो ऊँट की शादी में गधों का संगीत हो रहा है.
ऊँट के सौन्दर्य की स्तुति गधा करे और गधे के गान-माधुर्य की प्रशंसा ऊँट करे –
ऐसा प्रतीत होगा. एक दूसरे की प्रशंसा करने से यथार्थ स्थिति कभी बदलती नहीं, वह
अलग ही होती है.”
अरुंधती – वशिष्ठ संबंध
इस पर मैंने पूछा, “अरे, गुरुचरण, अरुंधती माता का
जन्म चांडाल वंश में हुआ, ऐसा मैंने सुना है. तो फिर उनका विवाह वशिष्ठ ऋषि के साथ
किस प्रकार हुआ?” इस पर गुरुचरण
बोले, “प्राचीन काल में
वशिष्ठ ऋषि ने एक हज़ार वर्षों तक तप किया था. उस समय अक्षमाला नामक चांडाल कन्या
ने उनकी उत्तम प्रकार से सेवा की थी. उसकी सेवा से प्रसन्न होकर ऋषि ने उसे वर
माँगने के लिए कहा. इस पर वह कन्या बोली, “मेरी ऐसी इच्छा है कि वशिष्ठ ऋषि मेरे पति हों.”
तब वशिष्ठ ऋषि ने कहा, “अक्षमाला! तू एक चांडाल कन्या है. मैं एक सत्शील ब्राह्मण हूँ. मैं
तुझे पत्नी के रूप में कैसे स्वीकार कर सकता हूँ?” यह सुनकर अक्षमाला ने कहा, “पहले तो आपने
मुझे वर माँगने के लिए प्रेरित किया. और अब, जब मैंने अपना इच्छित वर माँगा, तो आप अपने वचन से
पीछे क्यों हट रहे हैं?” वाक् दोष के भय से वशिष्ठ मुनि बोले, “क्या तुम अपना
देह मेरी इच्छानुसार परिवर्तित करने की सम्मति देती हो?” अक्षमाला इस बात
के लिए राजी हो गई. वशिष्ठ ऋषि ने उसे भस्म करके फिर जीवित कर दिया. इस प्रकार
उन्होंने अक्षमाला को सात बार भस्म करके सात बार पुनर्जीवित किया. सातवें जन्म में
अक्षमाला के चांडाल वंश के सारे दोष नष्ट होकर वह अत्यंत पवित्र हो गई. तब वशिष्ठ
ऋषि ने उसके साथ विवाह किया. वशिष्ठ ऋषि द्वारा किये गए शुद्धिकरण का विरोध न करने
के कारण उसका नाम अरुंधती पडा, और वह इसी नाम से प्रसिद्ध हुई. यह वृत्तांत वशिष्ठ
गोत्रोत्पन्न श्री नरसिंह वर्मा को श्रीपाद प्रभु ने बताया था. शूद्र जाति में जन्म होने पर भी ब्राह्मणोचित कर्म करने
वाला सातवें जन्म में उपनयन के उपरांत ब्राह्मण पद को प्राप्त हो जाता है. उस समय
समाज के चतुर्वर्ण का विभाजन कर्मों के अनुसार होता था. समाज की दृष्टी से यह
योजना हितकर थी, परन्तु कुछ
कालावधि के पश्चात यह विभाजन कर्म पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित होने लगा.
प्राचीन काल में यदि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति ब्राह्मणोचित कर्म न
करके वाणिज्य में लीन रहता था, तो वह वैश्य वर्ण के लिए अनुकूल समझा जाता था.
इसी प्रकार यदि कोई क्षत्रिय अत्यंत सात्विक वृत्ति का होता और उसे ब्राह्मणोचित
कार्यों में अधिक रूचि होती, तो वह ब्राह्मण पद के लिए योग्य समझा जाता था.
श्री दत्त प्रभु पर विश्वास करने वाले साधकों को वे उन्नत स्थिति में रखकर उनकी
योग्यतानुसार उन्हें शिष्यत्व प्रदान करते. उनके भक्तों का जन्म चाहे किसी भी कुल
में हुआ हो, अथवा वे किसी भी
परिस्थिति में हों, श्री दत्त प्रभु अपने भक्तों को सुखी जीवन के लिए आवश्यक आयु, आरोग्य एवँ
ऐश्वर्य प्रदान किया करते. भक्तों को जन्म-जन्मान्तरों के कर्मबंधन तोड़कर उन्हें
उन्नत स्थिति में रखना – यह श्रीपाद प्रभु की सहज लीला थी.
दत्त भक्तों को
स्वामी का अभय वरदान
हम श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की महिमा को भली भाँति समझने के उद्देश्य से मान्चाल ग्राम आये.
मान्चाल की ग्रामदेवता ने दर्शन देकर हमें धन्य किया. उसने अपने दिव्य हस्त से
हमें प्रसाद दिया. ग्राम देवता ने कहा, “ प्राचीन काल में प्रहलाद को गुरूबोध देने वाले
श्री दत्तात्रेय प्रभु ही श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुए हैं. श्रीपाद
प्रभु की इच्छा (संकल्प) अनाकलनीय होती है. आगामी शताब्दी में प्रहलाद के सार्वभौम
गुरू अवतरित होंगे. यह प्रदेश मंत्रालय के नाम से प्रसिद्ध होगा. ऐसा श्रीपाद प्रभु
ने स्वयँ मुझसे कहा था. तुम्हारा सब शुभ मंगल हो,” ऐसा कहते हुए वह अपने पूर्व रूप में लौट गईं. हम
वहाँ से निकल ही रहे थे कि वहाँ कृष्णदास नामक व्यापारी आया. मान्चाल ग्राम देवता
ने उसे भी प्रसाद दिया और फूलों की एक माला भी दी.
हम तीनों (मैं,
गुरुचरण और कृष्णदास) कुरुगड्डी के लिए निकल पड़े. सभी दत्त भक्तों का कुल एक ही
होता है. उन्हें श्री दत्तात्रेय का प्रसाद किसी भी कुल का भक्त दे, तो भी वे बड़े
प्रेम से उसे स्वीकार करते हैं. हमारे साथ कृष्णदास के आ जाने से हम बड़े उत्साहित
हो गए थे: बातें करते-करते कृष्णदास प्रसंगवश बोले, “यज्ञादि कर्म के लिए दी जाने वाली दक्षिणा सोलह, एक सौ सोलह अथवा
एक हज़ार सोलह होनी चाहिए. यह संख्या श्रीपाद प्रभु द्वारा उल्लेखित २४९८ इस संख्या
के ही सामान है. जिस प्रकार परमात्मा से संसार का निर्माण होता है, उसी प्रकार पिता
द्वारा पुत्रों का निर्माण होता है. विवाह के समय दूल्हा होमकुण्ड के अग्नि देवता
से प्रार्थना करता है कि, “हे अग्निदेव, मुझे इस वधु से दस पुत्रों की
प्राप्ति हो.” दस कन्या-पुत्रों की प्राप्ति होने के पश्चात वह पत्नी को माता के
स्वरूप में देखे ऐसा शास्त्रों का वचन है.”
कृष्णदास आगे बोले, “ ‘पूर्ण’ इस शब्द का अर्थ –
‘निर्गुण’ यह समझना चाहिए. इसलिए उसे रूद्र रूप समझा जाता है. समस्त विश्व का लय
होने के पश्चात जो शेष बचता है, वह ‘शून्य’ ही है. इस महाशून्य में ही सबका लय होता है.
विष्णुस्वरूप का तात्पर्य है ‘अनंत धर्मतत्व’ से. सृष्टि के ‘स्थिति’ स्वभाव के लिए
अनंत तत्व अत्यंत आवश्यक है.”
श्रीपाद प्रभु का
षोडश कला पूर्णत्व
गुरुचरण बोले, “अरे, शंकर भट्ट, किसी भी वस्तु के यदि अनगिनत टुकड़े किये जाएँ, तो उनमें से प्रत्येक टुकड़ा शून्य के समान ही होता है. इस प्रकार के अनेक
शून्य जब एकत्रित हो जाते हैं, तो उन्हें एक विशेष, मर्यादित आकार प्राप्त हो जाता है. इसी कारण से शिव
एवँ केशव अभिन्न हैं. पंचभूतात्मक सृष्टि विष्णुस्वरूप ही है. दक्ष के यज्ञ का
विध्वंस करने वाले वीरभद्र से श्री विष्णु ने कहा, “मूल प्रकृति तथा ईश्वर के निमित्त से देखा जाए तो पार्वती माता, राक्षसों
से युद्ध करने वाली दुर्गामाता तथा कोपावस्था में स्थित कालिका माता – ये सभी मेरे
ही रूप हैं. श्रीपाद प्रभु को षोडश कला
सम्पन्न कहने का आशय यही है। सोलह वर्ष की आयु में ही श्रीपाद प्रभ पीठिकापुर
छोड़कर चले गए। वे स्वयँ ब्रह्मा, विष्णु एवँ रुद्र स्वरूप होने के कारण उन्हें
षोडश कला परिपूर्ण माना जाता है।
श्रीपाद प्रभु का अवतार सावित्री काठक यज्ञ का फल है.
सभी प्राणियों की बुद्धि को प्रेरित करने वाली
और सभी मंडलों के केंद्र में स्थित दिव्य तेज ही गायत्री माता है. गायत्री माता के
चौबीस प्रतीक हैं : नौ (९) यह संख्या ब्रह्मा के स्वरूप का प्रतीक है. आठ (८)
महास्वरूप की द्योतक है. त्रेतायुग में भारद्वाज ऋषि ने पीठिकापुरम् क्षेत्र में
सावित्री काठक यज्ञ का आयोजन किया था. उस समय ऋषियों द्वारा की गई भविष्यवाणी के
अनुसार आज पीठिकापुरम् में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का
अवतार हुआ है. वे शक्तिस्वरूप हैं, अर्धनारी
नटेश्वर हैं, अपने इस स्वरूप में वे साधकों की बुद्धि तथा
सत्प्रवृत्ति की उन्नति करते हैं, उन्हें धर्ममार्ग से जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित
करते हैं. यह उनके इस महाअवतार की विशेषता है. उनके क्रोधपूर्ण वाक्यों का तथा
लीलाओं का व्याकरण अनाकलनीय है. इस नए व्याकरण के रचयिता वे स्वयँ ही होने के कारण
केवल वे ही इसे समझ सकते हैं. मुझे (शंकर भट्ट को) कृष्णदास से अनेक नई-नई बातों
का ज्ञान प्राप्त हुआ. पांडित्यपूर्ण, परन्तु अहंकारी साधकों को श्रीपाद प्रभु का कृपा कटाक्ष
प्राप्त नहीं होता था.
कृष्णदास आगे बोले, “श्रीपाद प्रभु पिपीलिका से ब्रह्मा तक सर्वत्र व्याप्त हैं. एक बार नरसिंह
वर्मा के खेत में श्रीपाद श्रीवल्लभ एवँ वर्मा विश्राम कर रहे थे. तभी वहाँ दो नाग
आये. श्रीपाद प्रभु ने बड़ी कुशलता से उन्हें मार कर दूर फेंक दिया. नरसिंह वर्मा
गहरी नींद में थे. उनके निकट अत्यंत बड़े आकार की लाल-लाल चीटियाँ आ गईं. इतनी बड़ी
चींटियों को पहले कभी किसीने नहीं देखा था. उनके काटने से वर्मा की नींद न टूटे
इसलिए श्रीपाद प्रभु ने उन सभी चीटियों को मार डाला. मारी हुई चीटियों का एक
छोटा-सा ढेर बन गया था. थोड़ी देर में वर्मा जाग गए. उन्हें मरी हुई चीटियों पर दया
आई. उस समय श्रीपाद प्रभु ने मंद मुस्कान से कहा, “राजा को अपने सेवकों की रक्षा करनी ही पड़ती है. यह प्रकृति का नियम ही
है. इन अद्भुत चीटियों को बनाने वाला एक अद्भुत जादूगर है.” तभी वहाँ एक सफ़ेद रंग
की चींटी आई. वह आकार में अन्य चीटियों से बड़ी थी एवँ कांतिवान थी. वह रानी चींटी
थी. उसने मरी हुई चीटियों के चारों और एक प्रदक्षिणा की और आश्चर्य की बात यह हुई
कि सभी मरी हुई चींटियाँ जीवित हो उठीं और वहाँ से चली गईं. श्रीपाद प्रभु मंद मंद
मुस्कान से बोले, “इन चीटियों की रानी को संजीवनी शक्ति प्राप्त है, इसलिए उसने सब चीटियों
की रक्षा की. इस प्रकार की अनेक विस्मयकारी बातें इस सृष्टि में हैं.” वे आगे बोले, “यदि आपकी इच्छा हो तो मैं हर पल आपको अनेक
लीलाएँ दिखा सकता हूँ.” तभी नरसिंह वर्मा का ध्यान उन मरे हुए नागों की और गया.
उन्हें देखकर वे चकित हो गए. वे जान गए कि यह भी श्रीपाद प्रभु की ही लीला है.
श्रीपाद प्रभु ने एक नाग को सहलाया और दूसरे को अपने दिव्य चरण से स्पर्श किया. वे
दोनों नाग जीवित होकर श्रीपाद प्रभु की एक प्रदक्षिणा करके निकल गए.
वे नाग क्यों आये थे? श्रीपाद प्रभु ने उनके साथ ऐसा क्यों किया? इस बारे में पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया, “राहु ग्रह का बल प्राप्त न होने से प्राणियों को अनेक संकटों से जूझना
पड़ता है, और उन्हें बंधनों में
जकडे होने का अनुभव होता है. इसीको कुछ लोग काल-सर्प योग कहते हैं. राहू सभी
देवताओं की आदि देवता है, इस प्रकार से आये हुए संकटों का निवारण किस प्रकार किया जाए यह कोई भी
नहीं जानता. परन्तु मैं उन सबके दोष दूर करके उन्हें सुख संतोष प्राप्त हो ऐसी
योजना बनाता हूँ.”
हम कुशलता पूर्वक कुरुगड्डी पहुँच गए. श्रीपाद प्रभु के मंगलमय दर्शन किये.
उन्होंने हँस कर हमें आशीर्वाद दिए.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २२
गुरुदत्त भट्ट की
कथा – ज्योतिष शास्त्र के अनुसार
भक्त की कुण्डली
में शुभफल देने वाले एकमेव श्रीपाद प्रभु
गुरुचरण, कृष्णदास और मैं (शंकर भट्ट) श्रीपाद प्रभु के सम्मुख आनंद के सागर
में विहार कर रहे थे. गुरुदत्त नामक एक ज्योतिषी श्री गुरुदेव के दर्शन हेतु आया
था. श्रीपाद प्रभु ने उसका यथोचित सम्मान किया. उन्होंने आदेश दिया कि एकांत स्थल
में बैठकर हम सत्संग करें. हमारा वार्तालाप ज्योतिष शास्त्र की ओर मुड़ा. मैंने
दत्त महाशय से पूछा, “महाराज, क्या ज्योतिष शास्त्र में वर्णित फल सत्य होता है? क्या उस फल में
परिवर्तन किया जा सकता है? क्या मानव जन्म में पूर्व कर्म निर्देशित होते हैं?” इस पर गुरुदत्त भट्ट
बोले, “ ‘भ’ चक्र – नक्षत्र कक्षा
है. इसका आरम्भ अश्विनी नक्षत्र से होता है. नक्षत्र स्थल का निर्देश करने के लिए
चैत्र पक्ष होता है. रैवत पक्ष नामक एक दूसरी पद्धति भी है. रेवती नक्षत्र जहाँ
विद्यमान है उस स्थान से आठ कलाएँ कम होने के कारण वह ग्राह्य नहीं है. अश्विनी
नक्षत्र गोल पहचानने में कठिन है, परन्तु उससे १८०० अंशों पर स्थित चित्रा नक्षत्र का केवल एक ही
गोल प्रकाशमान होकर स्फुट होने के कारण उसमें ६ (छः) यह अंक मिलाने से वह अश्विनी
होकर चैत्र पक्ष के रूप में ग्राह्य समझी जाती है. अश्विनी नक्षत्र को ‘तुरग
मुखाश्विनी श्रेणी’ – तीन गोलों के रूप में स्पष्ट किया गया है. श्रीपाद श्रीवल्लभ के चित्रा
नक्षत्र में जन्म लेने के पीछे एक विशेष कारण है. तीन एकत्रित गोलों वाला अश्विनी
नक्षत्र – अर्थात उनका स्वरूप है. यही ‘भ’ चक्र का आरम्भ है. वही उनका दत्तात्रेय स्वरूप है. कलियुग में उनका प्रथम
अवतार श्रीपाद श्रीवल्लभ है. इस अश्विनी नक्षत्र की सीध में १८०० अंशों
पर स्थित चित्रा नक्षत्र उनका जन्म नक्षत्र है. १८०० अंश की दूरी पर
स्थित कोई भी नक्षत्र अथवा कोई भी ग्रह शक्ति को केन्द्रित करने का कार्य करता है.
मनुष्य का जन्म उसके पूर्व जन्म के प्रारब्ध के गणितानुसार यथायोग्य ग्रह संपुट
में होता है. ग्रह मानव के प्रति कोई भी द्वेष भावना अथवा प्रेम भावना नहीं रखते.
ग्रह विशेष से निर्मित विविध किरणों के द्वारा, विविध स्पंदनों के कारण उस काल विशेष में, उस प्रदेश विशेष में उन जीवों को इष्टानिष्ट फल की प्राप्ति होती है.
अनिष्ट फल के परिणामों से दूर जाने के लिए उन किरणों एवँ स्पंदनों को दूर हटाना
पड़ता है. यह १. मन्त्र-तंत्र द्वारा २. ध्यान द्वारा ३. प्रार्थना द्वारा अथवा ४.
योगशक्ति की सहायता से साध्य किया जा सकता है. यदि पूर्व जन्म का कर्म अत्यंत
प्रबल हो तो उपरोक्त विधि-विधान कोई सहायता नहीं कर सकते. ऐसी परिस्थिति में
श्रीपाद प्रभु ही हमारी भाग्य रेखा बदल सकते हैं. इसके अनुसार हमारी भाग्य रेखा
बदलने के लिए यह आवश्यक है कि हमारे द्वारा दूसरों के हित में कोई अच्छा काम किया
जाए. साधारण परिस्थितियों में ऐसा होना कठिन है. श्रीपाद प्रभु सृष्टि के अथवा
कर्म देवता के कार्य कलापों में अनावश्यक दखल नहीं देते. मगर भक्तों की आर्तता
श्रीपाद प्रभु को झकझोर देती है और उन्हें योग्य उपाय बतलाने के लिए प्रेरित करती
है. श्रीपाद प्रभु के ह्रदय से उमड़ते हुए प्रेम एवँ करुणा के सामने कर्म देवता की
शक्ति निस्तेज हो जाती है. कर्म का स्वरूप जड़ होता है. श्रीपाद प्रभु चैतन्य
स्वरूप हैं. योग्य समय पर प्रकट होकर वे अपनी चैतन्य शक्ति की सामर्थ्य प्रदर्शित
करते है. यह उनका अत्यंत सहज स्वभाव है.
मैं (गुरुदत्त भट्ट) अज्ञानवश स्वयँ को ज्योतिष का महापंडित समझता था. मैं
कर्नाटक प्रदेश से आया था इसलिए मैं तेलुगु भाषा भली भाँति बोल नहीं सकता था, मगर संस्कृत का मुझे
अच्छा ज्ञान था. मुझे पीठिकापुरम् आने की संधि सौभाग्यवश ही प्राप्त हुई थी.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के बारे में मैंने अनेक बातें सुनी थीं. मेरे कुलदेवता
श्री दत्तात्रेय प्रभु ही हैं. मैं पादगया क्षेत्र वाले पीठिकापुरम् के कुक्कुटेश्वर मंदिर में दर्शनों
के लिए आया था. भक्तिपूर्वक अन्तःकरण से, श्रद्धापूर्वक मैंने देवता के
दर्शन किये. जब मैं ध्यान करने बैठा तो मेरी अन्तःवाणी ने मुझसे स्पष्ट रूप से कहा, “अरे मूर्ख! तुझे मरे
हुए कितने दिन हो गए? तू ऐसा कहता है कि मेरा भक्त है और मेरी आरती करके मेरे पैरों पर शीशा
नवाता है. क्या तू पादगया आकर मेरे चरणों पर शीश नवा कर मन्नत पूरी करने वाला है? या फिर मेरे पैरों पर
सिर पटक-पटक कर मेरा खून सुखाने वाला है?” मुझे यही शब्द बार-बार सुनाई दे रहे थे.
मैंने ज्योतिष पंडित होने के कारण अपनी कुण्डली बनाई थी. उस कुण्डली के अनुसार मैं
जिस दिन इस शरीर का त्याग करूंगा, उस दिन पादगया क्षेत्र में स्थित श्री दत्तात्रेय प्रभु के सम्मुख होऊँगा.
मैंने अपनी नाडी की धक्-धक् को जांचा, नाडी चल ही नहीं रही थी. मैंने अपने ह्रदय पर हाथ रखकर देखा, वह भी बंद था.
मैंने आईने में अपना चेहरा देखा. मेरे मुख पर से जीवन के लक्षण लुप्त होकर वह
प्रेतवत दिखाई दे रहा था. मैंने हँसते हुए स्वयँ को आईने में देखा, तो मेरा मुख और भी
भयानक प्रतीत हुआ. अब मेरे पास गर्व करने के लिए बचा ही क्या था? मुझे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो कोई मृत व्यक्ति
पिशाच्च युक्त होकर विकृत प्रेत के समान हँस रहा हो. स्वयंभू दत्तात्रेय के मंदिर
के पुजारी का सूक्ष्म शरीर मुझे दिखाई दे रहा था. उसके अत्यंत सूक्ष्म विकार भी
स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे. मेरे मन के कोने में छुप कर बैठा हुआ विवेक जागृत
हो उठा. मुझे विश्वास हो गया कि श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के दर्शनों के बिना मेरा
दुर्भाग्य समाप्त नहीं होने वाला. देवता आनंद स्वरूप होते हैं. वे आनंद की
सर्वोच्च स्थिति में होते है. मेरी स्थिति बड़ी दुखदायक थी. मेरा मन बहुत दुखी था.
जब आत्मा शरीर को छोड़कर चली जाती है, तो देह की सभी बाधाएं समाप्त हो जाती हैं. मेरी आत्मा ने अभी तक शरीर को
छोड़ा नहीं था. मानो मैं जीवित होते हुए भी बंधन मुक्त स्थिति में था. मुझ निर्बंध
के शरीर के भीतर ह्रदय स्पंदनों को भरकर श्री गुरुदेव ने मुझे एक अनामिक अवस्था
प्रदान कर दी थी. अत्यंत निकृष्ट तथा पापी लोगों की बातों में आकर मैं कैसे फंस
गया था, इसका ज्ञान मुझे हुआ.
“पाषाण रूप की स्वयंभू श्री दत्तात्रेय की मूर्ती ने घंडीकोटा वंश में जन्म लिया
था. पाषाण की मूर्ति के भीतर कहीं नाडी का एवँ ह्रदय का स्पन्दन होता है? परन्तु श्रीपाद प्रभु
के ह्रदय एवँ नाडी तो स्पंदन करते हैं ना? महालय अमावस्या का दिन पितृ
देवताओं का परम पवित्र दिन होता है. उस दिन कोई
अवधूत आकर भिक्षा स्वीकार करके चला जाता है. वही अवधूत दत्तात्रेय प्रभु
हैं, ऐसा स्थानीय लोग मानते
हैं. श्रीपाद महाप्रभु ने ही मल्लादी वंश के शालक (दामाद) के रूप में जन्म लिया
है, यह कैसी आश्चर्य की बात है! कैसी ये वंचना है!” ऐसे निकृष्ट बोल सुनकर मैं स्तब्ध रह गया. उस
नीच व्यक्ति की बातें सुनकर उन्हें मैं सत्य समझ बैठा और मैं रत्नतुल्य श्रीपाद
प्रभु से दूर हो गया. मुझे मनःपूर्वक पश्चात्ताप हुआ.
मैं फ़ौरन भागते हुए श्रीपाद प्रभु के घर गया. दस वर्ष की आयु के श्रीपाद
प्रभु आँगन में आए. वे गुरुदत्त भट्ट को देखकर बोले, “आ रे आ, मूरख! जीवित होने का नाटक कर रहा है. तेरे जैसे मृतवत, मानव
पिशाच्च को सद्गति मेरी कृपा से ही प्राप्त हो सकती है. तेरे द्वारा किये गए
दुष्कृत्यों के फलस्वरूप रौरवादी नरक की यातनाएँ भोग रहे तेरे पितरों को सद्गति
प्रदान करने के लिए अवधूत का वेष धारण कर महालय
अमावस्या के पवित्र दिन जो भिक्षा माँगने आया था, वह कौन था, क्या यह तू जानता है? वे दत्तात्रेय कौन हैं, क्या यह तुझे मालूम है? वह दत्तात्रेय मैं ही
हूँ. उनका केवल नाम लेने से राक्षस- पिशाच्च थरथर कांपते हैं, वे दत्तात्रेय –
अर्थात मैं ही हूँ. मैं तुझे पत्थर की शिला में परिवर्तित कर सकता हूँ, तुझे भूखा रख सकता हूँ
और तेरे प्राण भी ले सकता हूँ. तू भले ही जीवित मनुष्य जैसा दिखाई दे रहा है, परन्तु तू मृतवत ही है.
तू जीवित होने का नाटक कर सकता है. मैं दत्तात्रेय हूँ, अथवा नहीं, इस पर विचार हम बाद में करेंगे. पहले तू अपने बारे में बता.”
यह सुनकर मैं अत्यंत भयभीत हो गया और थरथर कांपने लगा. तभी सुमति महाराणी
आँगन में आईं. वे बोली, “कृष्णा, कन्हैया, यह प्रेतवत, अघोरी आदमी कौन है? तू अन्दर आ, तेरी नज़र उतारती हूँ.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माँ, यह अभी तक अघोरी बना
नहीं है, परन्तु इसका अगला जन्म
शवों को ले जाने वाले का होने वाला है. उस जन्म से पूर्व यह मेरे दर्शन के लिए आया
है. अपने घर का बचा हुआ भात इसे खाने के लिए दो. श्रीपाद प्रभु की माता जी ने बचा
हुआ भात लाकर दिया. श्रीपाद प्रभु ने वह गुरुदत्त भट्ट को दिया और उसे लेकर निकल
जाने को कहा. गुरुदत्त भट्ट ने वह भात कुक्कुटेश्वर के मंदिर के सामने खाली जगह
में बैठकर खाया. उसे खाते ही उसकी दुरावस्था दूर हो गई. वह दुबारा श्रीपाद प्रभु
के दर्शन के लिए आया. उस समय श्रेष्ठी श्रीपाद प्रभु को दूकान में लेकर गए थे.
श्रीपाद प्रभु पैसे गिनकर तिजोरी में रख रहे थे. स्वयं श्रेष्ठी चावल, जवारी आदि तौल-तौल कर
ग्राहकों को दे रहे थे. तभी श्रीपाद प्रभु ने श्रेष्ठी से पूछा, “दादा जी, आज दशमी है. बाबा को
कितनी दक्षिणा देने वाले हैं?” तब श्रेष्ठी ने उत्तर दिया, “हम दोनों में कोई
परदा नहीं है. तुझे जो चाहिए वह तू ले सकता है, और जो मुझे चाहिए वह मुझे दे दे.: वह दृश्य कितना मनोहारी था! उसका वर्णन
करना असंभव है. श्रीपाद प्रभु ने गुड का एक टुकड़ा लेकर मुँह में डाला और एक गुड का
टुकड़ा प्रसाद के रूप में श्रेष्ठी को दिया. श्रीपाद प्रभु बोले, “आज मुझे गणेश पूजा
करनी थी. वह हो गई. गणेश ने गुड का टुकड़ा मुँह में डालकर नैवेद्य स्वीकार कर लिया.
यदि विश्वास न हो तो मेरा मुँह देखिये.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने अपना मुँह
खोलकर श्रेष्ठी को दिखाया. इस मुँह में कौनसा महारूप उन्हें दिखाई दिया, यह तो श्रेष्ठी ही
जानें. उसके बारे में उन्होंने किसी को भी नहीं बताया. वे श्रीपाद प्रभु से बोले, “सोनू! श्रीपाद! जब जब
भी गणेश को भूख लगे, तब मुझसे पूछे बिना जितना चाहो, उतना गुड नैवेद्य के लिए लेते रहो.” तभी अखंड सौभाग्यवती वेंकट सुब्बमम्बा
वहां आई.
“अरे, शंकर भट्ट! नीच लोगों
की बातों में आकर मैं, गुरुदत्त भट्ट, अधोगति को प्राप्त होकर अघोरी जन्म के दुर्भाग्य में फंसने
वाला था. परन्तु श्रीपाद प्रभु ने उस दुर्भाग्य से मेरी रक्षा की. यदि उन्होंने
मुझे यूँ ही छोड़ा दिया होता, मुझ पर अपनी कृपा दृष्टी न डाली होती, तो मेरा पतन हो गया होता. सद्गुरू को अपने भक्तों पर नि:स्वार्थ प्रेम होता
है, इसी कारण वे पूर्व जन्म के कर्मफल से उनको पूर्ण रूप से मुक्त करते है. इसके
लिए वे अपना अमूल्य समय एवँ शक्ति खर्च करते हैं.
श्रीपाद प्रभु की जन्म पत्रिका सान्ध्र-सिन्धु वेद की दृष्टी से देखी जा
सकती है. श्रीपाद प्रभु के घर में तेलुगु भाषा के साथ-साथ संस्कृत भी बोली जाती
थी. हिमालय की पवित्र भूमि पर जो भाषा बोली जाती थी, उसी में श्रीपाद प्रभु, अप्पलराजू शर्मा, बापन्नाचार्युलु वार्तालाप करते थे. संबल प्रांत में बोली जाने वाली भाषा
संस्कृत से भिन्न थी. उस भाषा का माधुर्य एवँ उसकी सरलता वर्णनातीत थी. इस भाषा
में पीठिकापुरम् में केवल श्रीपाद प्रभु, बापन्नाचार्युलु एवँ अप्पलराजू शर्मा ही बातें कर सकते थे. एक बार
सत्यऋषिश्वर नामक एक विद्वान व्यक्ति बापन्नाचार्युलु के साथ थे, तब श्रीपाद प्रभु ने
कहा, “नाना जी श्रीकृष्ण
सत्य अथवा असत्य वचन नहीं कहते थे. वे केवल कर्तव्य बोधक थे.” इस पर
बापन्नाचार्युलु ने कहा, “कन्हैया, हमेशा सत्य ही बोलना चाहिए, दवा के रूप में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए.” यह
सुनकर श्रीपाद प्रभु मंद-मंद मुस्काए. उस दिन बापन्नाचार्युलु के घर वेंकट
सुब्बय्या श्रेष्ठी आए थे. उनकी एक आतंरिक इच्छा थी कि बापन्नाचार्युलु उनके घर
भोजन करके दक्षिणा स्वीकार करें. यह दिन परम पवित्र महालय पक्ष का ही कोई दिन हो, जिससे उनके पितृ देवता
संतुष्ट हो जाएँ. बापन्नाचार्युलु उनकी इच्छा पूरी करेंगे अथवा नहीं, इस बात के बारे में
उन्हें संदेह था. इस कारण श्रेष्ठी ने श्रीपाद प्रभु के सम्मुख नतमस्तक होकर
बापन्नाचार्युलु के सामने अपनी इच्छा प्रकट की. बापन्नाचार्युलु ने महालय पक्ष के
दिनों में श्रेष्ठी के घर जाकर भोजन करने और उनसे दक्षिणा स्वीकार करने की अनुमति
दी, यह सुनकर श्रेष्ठी के
आनंद की सीमा न रही.
श्रीपाद प्रभु बहु चमत्कारी थे.
महालय पक्ष में
भोजन का निमंत्रण तो बापन्नाचार्युलु ने स्वीकार कर लिया, परन्तु वे इस बारे
में भूल गए. श्रेष्ठी को भी इस बारे में कुछ याद न रहा. महालय अमावस्या की दोपहर
हो गई. श्रेष्ठी बापन्नाचार्युलु के घर आये. श्रीपाद प्रभु मंद मंद मुस्कुराते हुए
बोले, “नाना जी, पहले तो
वाग्दान करना नहीं चाहिए, यदि करें तो उसके अनुसार व्यवहार करना चाहिए. वाग्दान
करके उसे भूल जाना महापाप है. आप दोनों को मैं इस बारे में याद दिला रहा हूँ.” तब
श्रेष्ठी और बापन्नाचार्युलु को अपनी गलती का अहसास हुआ. प्राणियों को समझाना कैसे
चाहिए और उनकी विस्मृति कैसे दूर करनी चाहिए, ये दोनों कलाएँ श्रीपाद प्रभु को
उत्तम प्रकार से अवगत थीं. वे सभी बातों में समर्थ थे. वे उन दोनों को सावधान करते
हुए बोले, “आपके मस्तिष्क में विस्मृति उत्पन्न करने के पीछे
मेरा एक उद्देश्य है. प्रत्येक मानव के भीतर ‘मैं’ मैं’ करने वाला एक चैतन्य रूप है. प्राणी अपने
माता-पिता से न केवल शरीर, अपितु यह चैतन्य रूप भी ग्रहण करता है. इस ‘मैं’ नामक चैतन्य रूप
के सामने इस विश्व प्रणाली में कोई न कोई ज़िम्मेदारी का कर्म होता ही है जिसे उसे
निभाना पड़ता है. पिता से पुत्र को, पुत्र से उसके पुत्र को ...इस प्रकार यह
परम्परागत बंधन हर प्राणी पर होता ही है. गृहस्थाश्रम त्याग कर जब सन्यासाश्रम
स्वीकार किया जाता है तभी इस कर्मबंधन से मुक्ति मिलती है. आज किया हुआ वाग्दान
सीमित होकर नाम स्वरूपात्मक इस जन्म के पश्चात आप दोनों के बीच समाप्त हो जाएगा, ऐसा नहीं है. यह
बृहदाकार स्वरूप वाले ‘मैं’ के चैतन्य में परिवर्तित होने के कारण किसी एक
देश में, किसी एक काल में
बापन्नाचार्युलु के वंश का कोई एक व्यक्ति श्रेष्ठी के वंश के किसी एक व्यक्ति के
घर महालय पक्ष का भोजन करके दक्षिणा स्वीकार करेगा. यह कब, कैसे कहाँ होगा, यह मुझसे न पूछें,
क्योंकि कर्मस्वरूप बहुत ही संदिग्धमय होता है, सूक्ष्ममय होता है. किन्हीं
किन्हीं कर्मों में भौतिक काल एवँ योग काल भिन्न-भिन्न होते हैं. भौतिक काल की
दृष्टि से महालय पक्ष का यह कर्म करके ही उसे समाप्त करना होता है. योग्य काल न हो
तो वह कर्म विलंबित हो जाता है.”
इस पर मैंने (शंकर भट्ट ने) पूछा, “अरे, गुरुदत्त भट्ट! भौतिक काल तथा योग काल से क्या तात्पर्य है? मुझे समझाइये.” श्री
गुरुदत्त भट्ट ने कहा, “भौतिक काल-भौतिक देश, मानसिक काल- मानसिक देश, एवँ योग काल – योग देश – इनकी आयु छः से दस वर्ष तक की होती है. यह हमेशा
सोलह वर्ष के किशोर की भाँति निरंतर विद्याश्रम में रहता है. उसका भौतिक काल साठ
वर्षों का निर्धारित किया गया है, जो शरीर से संबंधित है. उसका मानसिक काल बीस
वर्षों का निर्धारित किया गया है. बीस वर्षों के युवक का साठ वर्षों के वृद्ध
जितना वज़न होता है. यदि जिम्मेदारियां हों तो उसका काल बीस वर्षों का होता है. यह
शरीर से संबंधित है. उसका मानसिक काल साठ वर्षों का है. इस प्रकार भौतिक काल और
मानसिक काल एक ही समय खण्ड में मिल जाएँ, ऐसा नियम नहीं है. वह अलग-अलग भी हो सकते हैं.”
काशी अथवा पीठिकापुरम्
में निवास करने से विविध तापों से मुक्ति. काशीवास का फल – पीठिकापुरम् निवास का
फल.
श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं कालातीत हूँ. जिस
भक्त के मन में काशी में निवास करने की इच्छा है और जो इसके लिए तड़प रहा है, उसे काशी निवास की
प्राप्ति होती है. भौतिक दृष्टी से वह किसी भी प्रदेश में हो, परन्तु मानसिक
दृष्टि से उसका निवास काशी में ही होता
है. भौतिक दृष्टी से काशी में रहते हुए भी जो गोहत्या करता है उसे काशी निवास का
फल प्राप्त नहीं होता. जिस प्रकार गंगाजल में मछलियाँ ढूँढने वाले बगुले को
गंगास्नान का लाभ नहीं होता. यदि कोई साधक भौतिक रूप से पीठिकापुरम् में रहता हो
और श्रीपाद प्रभु के दर्शन भी करता हो, परन्तु उसका मानसिक काल एवँ मानसिक देश के पीठिकापुरम् में न हो तो वह
श्रीपाद प्रभु का भक्त नहीं हो सकता. योग काल एवँ योग देश अध्यात्मिक शक्ति से
संपन्न व्यक्ति को ही अवगत होता है. श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह किसे और कब मिलेगा
यह समझ में न आने वाला गूढ़ रहस्य है. मानव का केवल कर्म करने का अधिकार है.
देह एक क्षेत्र है, यदि उसमें मन न हो
तो उसे क्षेत्र निवास का फल नहीं मिलेगा.
सत्कर्म करने से
सुख और दुष्कर्म करने से दुःख ही प्राप्त होना अनिवार्य है. पूर्व जन्म के बंधन
हमारा पीछा करते रहते हैं. सदगुरु की कृपा से ही इनसे मुक्ति मिलती है. यदि समय
(काल) ठीक न हो तो हम किसी भी देश में हों, फिर भी इस कर्म के फल से भाग नहीं सकते. यह एक
अत्यंत अनाकलनीय विषय है. पीठिकापुरम् में नरसिंह वर्मा के घर में एक सेवक था.
उसका नाम था शिवय्या. एक दिन उसने श्रीपाद प्रभु को देखा. तत्काल उसकी मनोदशा
परिवर्तित हो गई. उसने निद्रा एवँ आहार त्याग दिए और असंबद्ध बडबडाने लगा, “मैं सृष्टि, स्थिति एवँ लय का
कारण हूँ. मैं ही समूची सृष्टि का आदिमूल हूँ. यह सृष्टि मुझसे ही उत्पन्न हुई है.
मेरे कारण ही वृद्धिंगत होकर मुझमें ही लय होने वाली है.” नरसिंह वर्मा को शिवय्या
पर बड़ी दया आई. उन्होंने श्रीपाद प्रभु से शिवय्या की रक्षा करने की प्रार्थना की.
श्रीपाद प्रभु शिवय्या को लेकर श्मशान गए. साथ में नरसिंह वर्मा भी थे. औदुम्बर वृक्ष की सूखी टहनी रखकर शिवय्या के हाथों उसका
दहन करवाया. इसके फलस्वरूप शिवय्या की उस विचित्र मनोदशा से मुक्ति हो गई. नरसिंह
वर्मा को यह सब बहुत आश्चर्यजनक प्रतीत हुआ. श्रीपाद प्रभु बोले, :दादा जी, इसमें आश्चर्य की कोई
बात नहीं है. वायसपुर ग्राम नें एक पंडित मुझ पर अत्याचार कर रहा था. वह बार-बार
कहता कि वेदस्वरूप परमेश्वर कहाँ और यह कम आयु का श्रीपाद कहाँ? इनकी कैसी तुलना? कहता है कि वह सृष्टि, स्थिति एवँ लय का कारण
है, कहता है कि वह आदिमूल
है, यह सब मिथ्या है. कुछ
ही दिनों में उस पंडित की मृत्यु हो गई और अपने कर्मों के कारण वह ब्रह्मराक्षस हो
गया. किसी जन्म में यह शिवय्या उस पंडित का अल्प ऋणी था. मैंने योगकाल की कल्पना
करके श्मशान में योगदेश का निर्माण किया और अपने कर्म के फलस्वरूप सूख चुकी इस
टहनी का दहन करके उस ब्रह्मराक्षस तत्व से पंडित को मुक्त किया. हमारे शिवय्या को
उस ब्रह्मराक्षस के चंगुल से मुक्त कर दिया.”
“अरे, शंकर भट्ट! पीठिकापुरम् क्षेत्र में अवतरित महातेजस्वी एवँ धर्म ज्योति
श्रीपाद प्रभु ने कुरुगड्डी आकर इस क्षेत्र को पवित्र कर दिया. श्रीपाद प्रभु के
महासंकल्प से ग्रहों के फलित का निर्णय होता है. किसी भी प्रकार के ज्योतिष फल द्वारा
निर्धारित भौतिक काल एवँ भौतिक नियमों का अस्तित्व नहीं होता. उसका निर्णय योगकाल
एवँ योगदेश देखकर किया जाता है.”
श्रीपाद प्रभु द्वारा अनुगृहीत प्रारब्ध कर्म
मृत्यु को दूर भगा सकता है.
श्रीपाद प्रभु
द्वारा कल्पित ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक हज़ार वर्षों के उपरांत होने वाली
घटनाओं को वे वर्तंमान में ही घटित करवा सकते हैं, इसलिए योग-काल का निर्णय वे ही
करते हैं. दूर प्रदेश में घटित होने वाली घटना भी वे अपने निकट ही घटित करवा सकते
हैं. अतः योग-देश का निर्णय भी वे ही कर सकते हैं. सभी देश-कालों का संघटन वे ही
कर सकते हैं.श्रीपाद प्रभु अपनी इच्छानुसार देश काल परिवर्तित कर सकते हैं. एक बार
श्रेष्ठी के घर में उनके देवता के सम्मुख नारियल फोड़ते समय स्वयँ श्रीपाद प्रभु ने
वह नारियल फोड़ा. उस नारियल के उन्होंने टुकड़े-टुकड़े कर दिए. श्रीपाद प्रभु ने कहा,
“दादा जी, आज आपका मृत्यु योग था, परंतु मैंने नारियल के टुकड़े-टुकड़े करके उसे टाल
दिया.”
शाम का सायं संध्या
का समय हो गया. श्रीपाद प्रभु से आज्ञा लेकर हम कुरुगड्डी से कृष्णकथवल्ली झरने की और चल पड़े.
. ।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २३
मैं कृष्ण-युवल बड्डू से कुरवपुर की ओर यात्रा कर रहा था कि रास्ते में
धर्मगुप्त नामक एक सद्वेषधारी सज्जन से मुलाक़ात हुई. वे श्रीपाद प्रभु के दर्शनों
के लिए कुरुगड्डी की ओर जा रहे थे. वे भी, संयोगवश पीठिकापुरवासी वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के निकट के रिश्तेदार थे.
मुझे इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि मुझसे मिलने वाले सभी व्यक्ति श्रीपाद प्रभु
के भक्त थे. वे प्रभु के दिव्य चरित्र के बारे में और अधिक जानकारी देने वाले थे.
निश्चय ही इसके पीछे कोई विशेष कारण था. श्रीपाद प्रभु के चरित्र का एक एक वर्ष
जैसे जैसे पूरा होता, उसमें घटित घटनाओं की थोड़ी
पृष्ठभूमि मुझे ज्ञात होती जाती. इनमें एक घटना का दूसरी घटना से सम्बन्ध
बहुत अल्प होता था. अब तक श्रीपाद प्रभु की दस वर्षों की लीलाएँ ही मुझे ज्ञात हुई
थीं. वे एक क्रमबद्ध पद्धति से मुझे इन लोगों के माध्यम से ज्ञात हुई थीं. मैं मन
में विचार कर रहा था कि क्या मुझे प्रभु की ग्यारहवें वर्ष की लीलाओं का ज्ञान
होगा? श्रीपाद प्रभु
क्षण-क्षण में लीला विहार करते हैं. श्री धर्मगुप्त ने कहा, “अरे शंकर भट्ट! मैं
शिवभक्त हूँ. जब श्रीपाद प्रभु ग्यारह वर्ष के थे तो उनके घर एक दिन एक शिवयोगी
आया. वह अत्यंत विद्वान था. वह केवल करतल भिक्षा ही ग्रहण करता था. उसके पास न कोई
झोली थी, न ही कोई बर्तन अथवा
थाली थी. देखने में वह पागल जैसा प्रतीत होता था. वह एक दिन कुक्कुटेश्वर मंदिर के
निकट आया. उसके धुल से भरे हुए वस्त्र और असम्बद्ध बातें सुनकर मंदिर के पुजारियों
ने उसे भीतर नहीं आने दिया. वह अवधूत था जिसे अपनी देह की भी सुध नहीं थी. वह
निरंतर शिव पंचाक्षरी मन्त्र “ऊँ नमः शिवाय” का जाप कर रहा था. मैं अपने जीजा
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर घोड़े पर जा रहा था. राह में कुक्कुटेश्वर मंदिर में
जाकर श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन करने की मेरी आदत थी. चूंकि मैं वैश्य पुरुष
था अतः मंदिर के अर्चकों ने मेरे नाम से बड़ी पूजा की. मैं उन्हें हमेशा भारी दक्षिणा
दिया करता था. मैंने उन अर्चकों को पाँच वराह दिए जो उन्होंने आपस में बाँट लिए.
मंदिर के अर्चकों ने अपनी आर्थिक परिस्थिति के बारे में, अपने अनेक कष्टों के
बारे में मुझे बताया और बोले कि सनातन धर्म की रक्षा के लिए आप जैसे सदाचारी
शिष्यों की अत्यंत आवश्यकता है. तभी बाहर ठहरा हुआ शिवयोगी अन्दर आया. उसके साथ दो
नाग भी भीतर आये. यह देखकर अर्चक भयभीत हो गए. शिवयोगी बोला, “ अरे, अर्चक स्वामी! आप
भयभीत न हों. ये तो शिव के आभूषण हैं. जिस प्रकार पुत्र अपने पिता को प्रेमपूर्वक
आलिंगन देता है उसी प्रकार ये नाग भी अपने पितासम कुक्कुटेश्वर का आलिंगन करने के
लिए आतुर हैं. वे अपने स्नेही जैसे हैं. अपने स्नेही को देखकर भयभीत होना अथवा
उनसे दूर भाग जाना महापाप है. अर्चक स्वामी ने विशेष पूजा की है इसीलिये ये नाग
यहाँ आकर्षित हुए हैं. नागभूषण कुक्कुटेश्वर प्रभु की हमें अधिक मन:पूर्वक एवँ
श्रद्धा से पूजा करनी चाहिए. रुद्राध्याय में वर्णित नमक एवँ चमक सुस्वर में गाकर
शिव शंकर प्रभु के रागयुक्त भजनों का गायन करना चाहिए. अर्चक स्वामी वहीं बैठे थे.
मंदिर में आनेवाले भक्तजनों में कुछ भक्त गरीब तथा कुछ धनवान थे. अधिक धन दान देने
वाले भक्तों से अर्चक स्वामी अधिक आत्मीयता पूर्वक बातें करते. इन अर्चकों के बीच
पीठिकापुरम् का सूर्यचन्द्र शास्त्री नामक पंडित था जो बहुत अच्छी तरह से अनुष्ठान
किया करता था. उसके ह्रदय में श्रीपाद प्रभु के प्रति भक्ति एवँ प्रेम था. वह
श्रीपाद प्रभु का स्मरण करके सुस्वर में नमक एवँ चमक का पाठ करते हुए रागयुक्त
आलाप भी ले रहा था. वहाँ आये हुए नागों को उसका गायन अच्छा लग रहा था, वे ही अपने फनों को
डोलाते हुए अपना आनंद प्रकट कर रहे थे. सूर्यचंद्र शास्त्री शिवयोगी को लेकर
बापन्नाचार्युलु के घर आये. वहाँ उन्हें भरपेट भोजन करवाया. शिवयोगी के तृप्त होने
के पश्चात उसे श्रीपाद प्रभु के दर्शन करवाए. श्रीपाद प्रभु ने उसे शिवशक्ति
स्वरूप में दर्शन दिए. उस दिव्य दर्शन से वह शिवयोगी इतना आनंदित हो गया कि उसकी
समाधि लग गई. उस अवस्था में वह तीन दिनों तक रहा. उसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने
अपने दिव्य हस्त से उसे भोजन करवाया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “ हे पुत्र! सनातन धर्म में जो बताया गया है उस प्रकार अपना जीवन व्यतीत
करके संसार सागर तर जा. पुराण के विषयों के बारे में कल्पनाएँ अथवा असत्य कुछ भी
नहीं होता. वहाँ वर्णित विषयों का सामान्य अर्थ कुछ और होता है तथा गूढ़ रहस्यात्मक
अर्थ कुछ और ही होता है. अनुष्ठान करने वाले साधकों को उनके अंतर्गत अर्थ एवँ गूढ़
रहस्य का ज्ञान अपने आप हो जाता है. भूतकारकों को चन्द्र सूर्य में सूर्य परमात्मा
का प्रतीक तथा चन्द्र मन का प्रतीक प्रतीत होता है.
चित्स्वरूप तेजस मनोरूप वाले सोचते हैं कि चन्द्रमा के बिना सृष्टि कार्य चल
ही नहीं सकता. अमावस्या – माया का प्रतीक है. प्राचीन काल में यह माया वसुगुल नामक
कला से उद्भव को प्राप्त होती थी. चंद्रबिंब में कला का प्रवेश होकर वह उसी में
लीन हो जाती है. जिस प्रकार माया परमेश्वरीय तेज लेकर मनोरूपी चन्द्रमा में फ़ैल
जाती है उसी प्रकार सूर्य के किरण चन्द्रमा में प्रविष्ट होते है. माया अथवा
अमावस्या के जड़ स्वरूप के कारण उनसे निर्मित सृष्टि उनके चिर सान्निध्य के
फलस्वरूप चित्तजडात्मक होती है. जिस प्रकार वसन्त ऋतु सृष्टि में फल-फूल की
उत्पत्ति के लिए कारणीभूत है उसी प्रकार स्त्री भी शिशु के जन्म के लिए कारणीभूत
होती है.
मृत्युलोक में प्राणियों के साथ जन्म-मरण जुडा रहता है. पाताल लोक में सूर्य
कांति के कारण कांतिवान प्रतीत होने वाले लोगों को वृष्ण कहते हैं. सप्त पाताल में
वेदों के अधिष्ठात्र देवताओं का वास होता है. जिस स्थान पर मन का वास होता है, उस भूमि को सप्त पाताल
कहते हैं. इसकी आदि देवता अग्नि है. इन अष्ट देवताओं को अष्ट वसु कहते हैं. सूर्य
कांति के कारण शोभायमान होने वाले देवताओं को वसु कहते हैं. ब्रह्मशिला नगरी की
श्रीपाद प्रभु की बहन ‘वासवी’ के नाम का यही गूढ़ रहस्य है. इन अष्ट गोलकों के मध्य स्थित वायु स्कन्द को
सप्त समुद्र कहते हैं. सामान्य जन इस सप्त समुद्र को जल स्वरूप समझते हैं, परन्तु यह सत्य नहीं
है.
शिव महिमा – आंध्र प्रदेश के ग्यारह शिव क्षेत्र
एवँ उनका स्वरूप
शिव एकादश रूद्र स्वरूप हैं. आंध्र प्रदेश में ग्यारह शिवक्षेत्र हैं. उनके
दर्शन करने से महापुण्य की प्राप्ति होती है. ये क्षेत्र इस प्रकार हैं:
१ बृहत्शिलानगर में नगरेश्वर
२. श्री शैल्यम्
में मल्लिकार्जुन
३.
द्राक्षारामम् में भीमेश्वर
४.
क्षीरारामम् में रामलिंगेश्वर
५.
अमरावती में अमरेश्वर
६.
कोटीफली में कोटीफलेश्वर
७.
पीठिकापुरम् में कुक्कुटेश्वर
८.
महानंदी में महानंदीश्वर
९.
कालेश्वर में कालेश्वर
१०. कालहस्ती में
कालाहस्तेश्वर
११.
त्रिपुरान्तक में त्रिपुरान्तकेश्वर.
पूजा के लिए शिव की मूर्ती कहीं भी नहीं
पाई जाती. शिवलिंग आत्मा में प्रज्वलित ज्योति का रूप है. सिद्धि प्राप्त होने के
बाद निर्मल मन में वास करने वाली निर्मलता ही ‘स्फटिक लिंग’ है. हमारे शरीर का
मस्तिष्क (मेंदू) ज्ञान प्राप्ति हेतु सहायता करने वाला रूद्र है. गर्दन से नीचे
की और नाडी रूप में व्याप्त नाड़ियों को रूद्र जटा कहते हैं. शिव के हठयोगी रूप में
लकुलीश्वर हैं. शिव प्रभु भिक्षाटन करके प्राणियों के पापकर्म हर लेते हैं. इस
सृष्टि में तालबद्ध रूप से स्थित सृजन, स्थिति तथा लय के महास्पंदन शिव के आनंद तांडव से
सुव्यवस्थित होते हैं, इसलिए शिव को नटराज कहते हैं. शिव परमानन्द कारक है और अपने अनन्य
भक्तों को वे मोक्ष सिद्धि प्रदान करते हैं. चित् का तात्पर्य है मन से और अंबर का
अर्थ है आकाश. आकाश रूप में वह चिदम्बर ( चित् + अंबर) है. जो तुम देख रहे हो, उस विशाल विश्व
में रोदसी स्वरूप में रूद्र स्वरूप ही है. द्वादश ज्योतिर्लिंगों में राशीचक्र की
बारह राशियों का प्रतीक होने के कारण शिव कालस्वरूप है. आठ दिशाओं में जो
अष्टमूर्ति हैं, वे चिदाकाश स्वरूप
ही हैं. पंचभूत शिव के पंचमुख हैं. पञ्च ज्ञानेन्द्रिय, पञ्च कर्मेन्द्रिय
एवँ मन – इन सबको मिलाकर कुल ग्यारह रूद्र हैं, इसीको एकादश रूद्र कहते हैं. शिव का उमा महेश्वर
रूप नित्य प्रसन्न रूप है. त्रिगुणों का भस्मित किया हुआ रूप ही त्रिपुरान्तक रूप
है. ज्ञान नेत्र ही शिव का तीसरा नेत्र है. शिव की जटाओं से निरंतर प्रवाहित होने
वाली गंगा माता का उद्गम होता है, वह धरती पर प्रवाहित होकर सारे प्रदेश को सुजलाम्
, सुफलाम् बनाती है. जब आकाश में आर्द्रा नक्षत्र चमकता है, उस समय शिव प्रभु
दर्शन देते हैं. मिथुन राशि के निकट जाने के लिए वृषभ राशि को पार करना पड़ता है.
यह वृषभ राशि नन्दीश्वर का प्रतीक है. वह धर्मस्वरूप है. दोनों भ्रूमध्य के बीच
प्रज्वलित ज्योति ही चन्द्रकला है. योगस्थिति के फलस्वरूप उत्पन्न काम वासना के
कारण स्त्री-पुरुष भेद समाप्त होने पर एकत्व की स्थिति को प्राप्त होने का स्वरूप
है अर्धनारीनटेश्वर. लिंग से तात्पर्य है
स्थूल शरीर के भीतर छुपा हुआ लिंग शरीर, जो ज्योतिस्वरूप में विलास करता है, ऐसा वर्णन वेदों
में किया गया है.
शिवपूजा-रहस्य
अनुष्ठान करने से अथवा गुरुकटाक्ष प्राप्त होने पर ही समझ में आता है. भौतिक रूप
में जिस प्रकार का पीठिकापुरम् है, वैसा ही ज्योतिर्मय स्वरूप स्वर्णपीठिकापुरम्
भी है. जो उसका तथा श्रीपाद प्रभु का निरंतर पूजन अथवा स्मरण करता है, वह ज्ञानी
भक्त श्रीपाद प्रभु को जान सकता है. वह चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका
स्वर्णपीठिकापुरम् में ही वास होता है. ऐसे भक्त को श्रीपाद प्रभु अत्यंत सुलभ
प्राप्य होते हैं.
भौतिक पीठिकापुरम्
के कुक्कुटेश्वर मंदिर के अर्चक स्वामी ने प्रमदगणों के अंश के रूप में जन्म लिया
था. भूत-प्रेत, पिशाच्चादी अनेक
महागण होते हैं, जो भक्तजन
योगाभ्यास करते हैं तथा श्रीपाद प्रभु की आराधना करते हैं, वे उन भूत-प्रेतों
को रोक कर रखते हैं. इन सब बाधाओं को दूर करके जो भक्त श्रीपाद प्रभु के दर्शन
पाते हैं, वे धन्य हैं.
श्रीपाद प्रभु बोले, “मेरे ननिहाल के
घर के आँगन में एक महासंस्थान बनने वाला है, ऐसा मैं अनेक बार कहता आया हूँ. मेरा संकल्प अमोघ
है. जिस प्रकार चींटियों की संख्या अगणित होती है उसी प्रकार मेरे भक्तों की
संख्या भी लक्षानुलक्ष है. योगी जन मेरे संस्थान का धर्म पालन योग्य रीति से
करेंगे. कौन, कितने व्यक्ति, कहाँ से, कब, किस प्रकार आएगा
इसका निर्णय मैं ही करता हूँ. पीठिकापुरम् में वास्तव्य करने पर श्रीपाद प्रभु के
संस्थान का दर्शन करना ही चाहिए. मेरा अनुग्रह केवल योग्य शिष्यों को ही प्राप्त
होगा. उन पर मैं अमृत वृष्टि करूंगा, अयोग्य व्यक्ति को मेरे दर्शन मृगजल के समान
प्रतीत होंगे.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजम शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय २४
अर्ध नारी नटेश्वर – वर्णन
मैंने (शंकर भट्ट ने) श्री धर्मगुप्त से पूछा, “ महाराज, भगवान शिव विविध
प्रकार के शस्त्र एवँ आभूषण धारण करते हैं. इन्हें धारण करने के पीछे क्या
निहितार्थ है, कृपया स्पष्ट
करें.”
धर्मगुप्त ने उत्तर
दिया, “अरे शंकर भट्ट!
गणपति भगवान का मुख्य आयुध है पाशांकुश. उसी प्रकार श्री विष्णु का मुख्य आयुध है
सुदर्शन चक्र. त्रिशूल भगवान शंकर का मुख्य आयुध है. त्रिशूल के ऊपरी भाग में तीन
नुकीले सिरे होते हैं, ये अग्नि ज्वाला के रूप में होते हैं. ये तीनों सिरे मिलकर एक शूलहस्त
के सामान होते हैं. ये तीनों नुकीले सिरे सत्व, रज तथा तम इन त्रिगुणों को प्रदर्शित करते है.
पिंगला नाडी द्वारा श्वास का चलन-वलन होता है, तत्पश्चात भ्रूमध्य के भाग से होकर वह शिरोस्थान
तक पहुँचती है. इडा, पिंगला और सुषुम्ना – ये तीन नाड़ियाँ ब्रह्मज्ञान की केंद्र हैं, इन्हीं
को नाड़ियों का त्रिवेणी संगम कहते हैं. यह त्रिशूल का निहितार्थ है. शिव का दूसरा
आभूषण नाग है. मानव शरीर में कुण्डलिनी शक्ति सर्पाकार में सुप्त अवस्था में पडी
रहती है. उसके जागृत होने पर अष्टसिद्धि प्राप्त हो जाती है. इन महासिद्धियों को
वश में करके उनका उपयोग लोक कल्याण के लिए करने वाले शिव का एक अन्य दिव्य नाम
‘ईश्वर’ भी है. शिव के
त्रिशूल से बंधा होता है डमरू. यह शब्द गुण का प्रतीक है. नाद, झंकार – यह आकाश
गुण है. आकाश में शब्द कम्पनों द्वारा विचलित होता है. जब हम किसी मन्त्र का जाप
करते हैं, अथवा उसका श्रवण
करते हैं तो वह डमरू की आवाज़ के समान हमारे कानों में गूंजता रहता है. मन्त्र
पुरश्चरण करने से योगी जनों को आनंद होता है, इस आनंद की धुन में वह नृत्य करता है. इसके
प्रतीक स्वरूप परमेश्वर डमरू धारण करते हैं.
दोनों भौंहों (भ्रूमध्य) के मध्य बिंदु पर होता
है आज्ञा चक्र. यही सब ज्ञानों का केंद्र होता है. ज्ञानी पुरुष को अतीन्द्रिय
दृष्टी होती है, अतः उसका ज्ञान
केंद्र विकसित होता है. इसी चक्र के द्वारा योगीजन भूत एवँ भविष्य को यथार्थता से
समझ सकते हैं. इसीको परमेश्वर का तीसरा नेत्र कहते हैं. जब यह ज्ञान नेत्र विकसित
हो जाता है, तब कामस्वरूप मदन
का दहन करना संभव है.
शिवप्रभु का वास
श्मशान में होता है, ऐसा कहते हैं. योगाग्नि के कारण सभी वासनाएं भस्म हो जाती हैं
और योगी को परम शान्ति प्रदायक निर्वाण स्थिति का अनुभव होता है. ज्ञान स्थिति का
रंग होता है – सफ़ेद. वही विभूति है. आलोचना (निंदा), वासना इत्यादि पर नियंत्रण
करने की शक्ति जब प्राप्त हो जाती है, तब शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है. इससे आनंद
की प्राप्ति होती है. ज्ञान की शुद्धि चार प्रकार से होती है: १. आधिभौतिक, २. आधिदैविक, ३, आध्यात्मिक एवँ ४, मानसिक. इनके
प्रतीक स्वरूप शिव भक्त माथे पर विभूति की चार रेखाएं लगाते हैं. शिलाजीत नामक एक
दिव्य औषधि होती है. इस औषधि के सेवन से नित्य यौवन प्राप्त होता है. प्राचीन काल
में शिलादुड नामक एक महर्षि हो गए हैं, जो कंकड़ खाकर जीवन गुजारते थे. वे ही
नन्दीश्वर के रूप में अवतरित हुए, श्रीकृष्ण का जन्म रोहिणी नक्षत्र पर वृषभ राशि
में हुआ. शिव जी का जन्म नक्षत्र है आर्द्रा. उमामहेश्वर के अर्धनारी नटेश्वर की
राशि थी मिथुन. इस राशि से पूर्व आती है वृषभ राशि. यह वृषभ ही नन्दीश्वर है. नंदी
धर्म का प्रतीक है. निम्न जाति के कामरूपी मदन को शिव जी ने दग्ध कर दिया था.
परन्तु शिव जी की कृपा से ही वह निराकार रूप धारण कर उच्च प्रकृति वाले दिव्य
दाम्पत्य धर्म का पालन करने वाले दंपत्ति के पुत्र के रूप में अवतरित हुआ.
श्रीकृष्ण ने उपमन्यु ऋषि का शिष्यत्व स्वीकार कर अत्यंत निष्ठापूर्वक शिव की
उपासना की थी. शिव जी के अनुग्रह से रुक्मिणी के गर्भ से मन्मथ ने प्रद्युम्न के
नाम से जन्म लिया. यह मन्मथ वृषभ राशि का काम स्थान है. कर्मबद्ध कामनाएँ, चाहे वे किसी भी
प्रकार की क्यों न हों, उन्नत प्रकृति की होती हैं. उनको पूर्ण करना धर्म विहित है.
भयंकर तांत्रिक
शक्तियाँ शेर के समान प्रमादकारी होती हैं. उन्हें केवल शिव भगवान ही अपने वश में
करके अपने आधीन कर सकते हैं. शेर देवी स्वरूपी शक्ति का वाहन है. शक्ति को पूर्ण
रूप से अपने आधीन रखने के प्रतीक स्वरूप परमेश्वर अपने शरीर पर चर्म धारण करते
हैं. इसीलिये उन्हें व्याघ्रचर्माम्बरधारी कहते हैं. शिव प्रभु की, जिन्हें अमृतत्व
सिद्ध है, जटा से बहने वाली
लोक पावनी गंगा शुद्ध ब्रह्मज्ञान निरंतर प्रवाहित करने वाली प्रज्ञा का प्रतीक
है. इसी प्रकार नित्य प्रसन्न तत्व के द्वारा प्राप्त होने वाली महाप्रशांत आनंद
आल्हाददायक स्थिति की प्रतीक है चंद्रकोर.
दाईं और प्रवाहित
होने वाली श्वासरूपी शक्ति की नाडी कहलाती है पिंगला. बाईं और प्रवाहित होने वाली
श्वास रूपी शक्ति कहलाती है इडा. अरे, शंकर भट्ट! प्राणायाम करते समय दाईं और की नाक की
नली से साँस लेने से ऊष्मा बढ़ती है, इसलिए उसे सूर्यनाडी कहते हैं. बाईं और से
साँस लेने से शीतलता प्राप्त होती है, अतः उसे चंद्रनाडी कहते हैं. कालपुरुष के शरीर
में स्थित राशिचक्र में मेष राशि से तुला राशि तक ऊष्मा देने वाले छः महीने यदि
सूर्य नाडी समझें तो अश्विन से फागुन मास तक के छः महीने शीत अर्थात कम उष्णता
वाले होने से उन्हें चन्द्रनाडी समझा जाता है. चन्द्र सूर्य की इस गति के कारण ही
पूर्णिमा एवँ अमावस्या की निर्मिती होती है.
योगी पुरुष अपनी
विशिष्ठ प्रकार की साधना से काल चक्र की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है. योग
शक्ति के कारण उसे भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान – तीनों कालों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है. इस
कालचक्र को ही अर्धनारीश्वर, अर्थात ऐसी जोड़ी जिसे कभी भी, किन्हीं भी
परिस्थितियों में अलग नहीं किया जा सकता, समझना चाहिए. रात-दिन, पूर्णिमा-अमावस्या
एक विशिष्ट कालावधि के पश्चात ही क्रमानुसार दृष्टिगोचर होते हैं. यदि रात न हो, तो दिन नहीं हो
सकता और दिन न हो, तो रात नहीं हो
सकती. माता-पिता के रूप में संबोधित अर्धनारीश्वर ही इस अनंत सृष्टि के चलन-वलन के
लिए कारणीभूत हैं. जब हम कहते हैं कि शिव का कार्य संहारक है तो इसका गर्भित अर्थ
यह हुआ कि पुरानी सृष्टि का अंत होकर नई सृष्टि का निर्माण हो रहा है. सृष्टि में
परिवर्तन बड़ी सहजता से होते हैं और इनके परिणाम स्वरूप नूतन सृष्टि का अविर्भाव
होकर वह कुछ समय तक इसी स्थिति में रहती है. इसके पश्चात इसका संहार अनिवार्य ही
है. अथर्व वेद में वर्णित सभी अस्त्र-शस्त्रों को, मन्त्र-विद्याओं को सिद्ध करने के लिए इस विद्या
के अधिपति ईशान रूद्र का अनुग्रह होना आवश्यक है.”
इस वार्तालाप के बीच मैंने पूछा, “ आपने
शिव-पार्वती एवँ आर्द्रा नक्षत्र का घनिष्ठ संबंध होने की बात कही थी, इस बारे में कृपया
विस्तार से बताने का कष्ट करें.”
तब धर्मगुप्त ने
कहा, “रूद्र भागते हुए
हिरण का शिकार करने वाले रूप में ‘मृगव्याध रूद्र’ के रूप में दर्शन देंगे, यह दिव्य रूप आकाश
में आर्द्रा नक्षत्र में दिखाई देगा,”
ग्रह संचार का प्रभाव
धर्मगुप्त ने आगे
कहा, “ इस मृगव्याध
रूद्र का रूप नक्षत्र मंडल के मिथुन एवँ कर्क राशियों के बीच आडा दिखाई देगा. तब
इस नक्षत्र मंडल के निकट राहू, केतु, शनि आदि ग्रहों का संचार होता है. तब विश्व
व्यापी युद्ध, प्रलय, देवों-दानवों का
युद्ध, महाभारत का युद्ध
जैसे संकट इन्हीं ग्रहों की गति के कारण ही होते हैं. काल-संहार मूर्ती का अर्थात
धनुष्य बाण धारण किये हुए, उग्रमूर्ती स्वरूप वाले रूद्र देवता का ही मन्यु देवता
के रूप में वेदों ने वर्णन किया है.” धर्मगुप्त अपनी बात आगे बढाते हुए बोले, “माघ मास की
अमावस्या से पहले की चतुर्दशी को ‘महा शिवरात्री’ कहते हैं. प्रत्येक मास में
अमावस्या से पहले आने वाली चतुर्दशी को ‘मास शिवरात्री’ कहते हैं.”
शनि प्रदोष के समय ईश्वर आराधना का फल है शनिग्रह
का दोष-निवारण
जो महाशिवरात्रि मंगलवार के दिन होती है उसे अत्यंत पुण्यकारक मानते हैं.
शनिवार को जब त्रयोदशी पड़ती है तो उसे शनिप्रदोष कहते हैं. इस शुभ दिन शिवार्चन
करके शनिदेव को प्रिय तिल-दान करना चाहिए. शिव प्रभु शनि के आदि देवता होने के
कारण यदि तिल के तेल से परमेश्वर की आराधना की जाए तो शनिदेव की बाधा से मुक्ति प्राप्त
होती है. शनिवार को प्रदोष समय में शिवाराधना करने से समस्त कर्म दोषों से मुक्ति
मिलती है और साधक को सुख शान्ति प्राप्त होती है. शनि कर्मकारक देवता है. शिव
संहारक देवता है. शनि प्रदोष काल में शिव की आराधना सब प्रकार के अशुभ कर्मों से
उत्पन्न महापापों को भस्म करके शुद्ध, नूतन, दिव्य तेजोमय शुभ स्पंदनों से मानव के मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त की शुद्धि करके नया जन्म प्रदान करती है.
इस प्रकार की अर्चना से शनिदेव शांत होते हैं. शनिवार को रात्रि के समय उस
साधक के सारे दुष्कर्म, दोषों की अधिष्ठित देवता महाकाली में विलीन हो जाते हैं.
दूसरे दिन, अर्थात रविवार को, सूर्योदय के समय
सवित्र मंडल के मध्य में स्थित उस महाशक्ति का अनुग्रह साधक को प्राप्त होता है.
इसी समय उसके नूतन जीवन का आरम्भ होता है. उसके अशुभ कर्मों से उत्पन्न पापों की
गठरी परमेश्वर की योगाग्नि में जल जाती है.
पंचभूतात्मक
शिवस्वरूप
शिवशंकर
पंचभूतात्मक देवाधिदेव हैं. मानव शरीर के ‘मूलाधार चक्र’ में पृथ्वी तत्व होता है.
इसीके प्रतीक स्वरूप साधक द्वारा पार्थिव शिवलिंग की पूजा की जाती है.
‘स्वाधिष्ठान चक्र’ में जल तत्व होता है. इसका प्रतीक होता है – जल लिंग. ‘मणिपुर चक्र’ में
अग्नितत्व होता है. इसका प्रतीक है – ज्वाला लिंग. इसे ‘हिरण्य स्तंभ’ भी कहते
हैं. कंठस्थान में अर्थात ‘विशुद्ध चक्र’ में वायुतत्व होता
है. इसका प्रतीक वायु लिंग है. ह्रदय के आकाश स्थान में स्थित लिंग को ‘चिदम्बर
लिंग’ कहते हैं. इन
पंचभूतात्मक लिंगों की आराधना, दर्शना, अर्चना विशेष फलदायी होती है. चिदम्बर लिंग को
आकाश लिंग भी कहते हैं. इसका कोई आकार नहीं होता.
चिदम्बर क्षेत्र
में परदे के पीछे छिपे हुए चिदम्बर-रहस्य का तात्पर्य है कि परदा उठाने पर बीच में
कुछ भी नहीं होता, शुद्ध आकाश से
तात्पर्य शिव के आत्म लिंग से है. ह्रदय ही चित् स्थान होने के कारण आत्मा का
निवास स्थान आकाश ही होता है. वास्तव में यदि देखा जाए, तो आकाश का कोई
आकार ही नहीं होता. एकाग्र चित्त से निज तत्व का ध्यान करने वाले योगियों को अपने
ह्रदय में समस्त सृष्टि, संपूर्ण ब्रह्मांडों, नक्षत्रों एवँ तारों आदि के दर्शन होते हैं.
परमेश्वर सर्वव्यापी है. वही अरुणाचलेश्वर के रूप में, अरुणाचल पर्वत के
रूप में, एक महासिद्ध के रूप में ही है. उनके दर्शन मात्र से ही पापों का क्षय हो
जाता है. वही अरुणाचलेश्वर आज मानवाकृति में पीठिकापुरम् में श्रीपाद श्रीवल्लभ के
नाम रूप से अवतार लेकर, समूची मानव जाति का कल्याण करने के उद्देश्य से वर्तमान
में कुरुगड्डी में विलसित हो रहे हैं.
कुरुगड्डी अरुणाचल
पर्वत के समान है. अर्धनारीश्वर रूप वाले
अरुणाचलेश्वर श्रीपाद श्रीवल्लभ ही हैं. जिस प्रकार अरुणाचल का पर्वत साक्षात शिव
स्वरूप है, उसी प्रकार
कुरुगड्डी भी साक्षात श्रीपाद श्रीवल्लभ का रूप है. अरुणाचल के शिवलिंग में
शिवशक्ति है, उसी प्रकार
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में भी शिव एवँ शक्ति सम्मिलित हैं. अरुणाचल के महासिद्ध
रूप में परमेश्वर के दर्शन साधकों के लिए अति दुर्लभ होते हैं, परन्तु श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में महासिद्ध के दर्शन साधकों को अत्यंत सुलभता से हो जाते हैं.”
धर्मगुप्त की बात
सुनकर मैंने कहा, “महाराज, अब तक तो मैंने
सुना था कि श्रीपाद प्रभु श्री पद्मावती देवी सहित श्री वेंकटेश का संयुक्त रूप
हैं, परन्तु आपने यह
बताया कि वे शिव-शक्ति स्वरूप हैं. मुझे यह सब कुछ समझ में नहीं आ रहा है. मैं
दुविधा में पड़ गया लगता हूँ. आप कृपया यह बात स्पष्ट करें.” मेरी बात सुनकर
धर्मगुप्त हँस कर बोले, “अरे बाबा, श्रीपाद प्रभु का दिव्य तत्व सप्त ऋषियों को भी अवगत न हो सका, तो मुझ जैसे पामर
की बिसात कहाँ! फिर भी अपनी सामर्थ्य के अनुसार मैं तुझे समझाने का यत्न करूंगा.”
“श्री वेंकटेश
प्रभु कृतयुग से अस्तित्व में हैं. उन्होंने राजा दशरथ को दर्शन देकर कहा था कि
मैं श्री रामचंद्र के नाम से तुम्हारे घर जन्म लूँगा. “कौशल्या-तनय” श्री राम के
नाम से भी कुछ लोग स्वामी की पूजा करेंगे. कुछ समय तक भक्तों ने श्रीपाद प्रभु की
शक्ति स्वरूप, अर्थात बाल
त्रिपुरसुन्दरी के स्वरूप में भी आराधना की. कुछ साधकों ने उनकी ‘सुब्रह्मण्यम्’
स्वरूप में भी अर्चना की. इसके पश्चात श्री रामानुजाचार्य ने “श्री महाविष्णु” रूप
में वैष्णवों द्वारा उनकी आराधना संपन्न की. इन सारे रूपों को धारण करने वाले
साक्षात दत्त प्रभु ही हैं. साधकों द्वारा श्रद्धा भाव से उन्हें किसी भी रूप में
पुकारने पर वे भक्तों की रक्षा करने के लिए दौड़े चले आते हैं और उनकी रक्षा करते
हैं. साधकों को अपनी लीलाएँ दिखाने वाले माया नाटक के सूत्रधार श्रीपाद प्रभु ही
हैं. वे ही आज श्रीपाद श्रीवल्लभ – इस नाम रूप में भक्तों का कल्याण कर रहे हैं.
श्रीपाद प्रभु के
वाम भाग में शक्ति का संचार होता है एवँ बाएँ भाग में शिव संचार होता है, इस कारण
से वे शिव-शक्ति स्वरूप हैं. उनके ह्रदय में पद्मावती देवी का वास होता है. ह्रदय
दया एवँ अनाहत चक्र का स्थान है. यहाँ से शक्ति ऊर्ध्व चक्र की ओर तथा इसी प्रकार
अधो चक्र की और, अर्थात मूलाधार
चक्र की और प्रवाहित होती है. इस कारण से ही वे एक दिव्य चैतन्यमय शरीर से ही
श्रीपद्मावती तथा श्री वेंकटेश स्वामी के रूप में हैं. श्रीपाद प्रभु वाणी
हिरण्यगर्भ के भी स्वरूप हैं. परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी स्वरूपी वाणी देवी का वास उनकी
जिह्वा पर होता है. वाणी माता का दिव्य मानस एवँ हिरण्यगर्भ का दिव्य मानस – ये
अद्वैत स्थिति में होते हैं.”
वास्तव में देखा
जाए तो चिदम्बर रहस्य का तात्पर्य यह है कि वे तीन प्रकार का चैतन्य स्वरूप एक ही
समय में धारण करते हैं. चाहे किसी भी दृष्टी से देखें, उनके एक शरीर को
दूसरा शरीर कभी भी स्पर्श नहीं करता. वे वाणी- हिरण्यगर्भ का चैतन्य शरीर, शिव-पार्वती का
चैतन्य शरीर, पद्मावती-वेंकटेश
का चैतन्य शरीर एक ही समय में धारण करते हुए इन सब से परे – श्रीपाद श्रीवल्लभ
रूपी एक अन्य दिव्य चैतन्य शरीर धारण करते हैं. इसकी विशेषता यह है कि एक शरीर को
दूसरे शरीर का स्पर्श नहीं होता – यही प्रभु की योगमाया है, यही उनकी वैष्णवी
माया है, और यही उनका
चिदम्बर रहस्य है. श्रीपाद प्रभु को द्वैत, विशिष्ठ द्वैत, अद्वैत और इन सब से परे समझा जाए तो भी वह योग्य
ही होगा. क्योंकि उनकी योगमाया अगाध है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो ।।
।। श्रीपाद राजम शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – २५
रुद्राक्ष महिमा
शिवाराधना की विविध पद्धतियाँ एवँ इनका फल
मैंने धर्मगुप्त से
प्रश्न किया, “महाराज, शिवाराधना किस
प्रकार करनी चाहिए? उसकी विविध पद्धतियों की जानकारी देकर कृपया अनुग्रहित करें.” श्री
धर्मगुप्त बोले, “शिव पंचाक्षरी
मन्त्र “ऊँ नमः शिवाय” का जपानुष्ठान करके शिव की आराधना करना – यह हुई पहली
पद्धति, महान्यास का विधान
– शिवपूजा का दूसरा प्रकार है और रुद्राभिषेक से शिवार्चना करना – यह है शिवाराधना
का तीसरा प्रकार. पंचाक्षरी मन्त्र के पाँच अक्षर पञ्च महाभूतों के प्रतीक हैं.
प्राणी पशुओं के समान ममता, मोह आदि बंधनों में फंसा हुआ होने के कारण उसे
पशु कहा जाता है. पशुबंध का विमोचन करने वाला ही पशुपतिनाथ है. शास्त्रों में शिव
पंचाक्षरी मन्त्र का वर्णन पंचकोणीय नक्षत्र के समान किया गया है. इस पंचाक्षरी
मंत्र में मोक्ष प्रदान करने वाले मंत्र प्रथम वर्ग में तथा भोग, भाग्यादि प्रदान
करने वाले मन्त्र दूसरे वर्ग में सम्मिलित हैं. पंचोपचारों में शामिल हैं – भूतत्व
वाला चन्दन, जलतत्व वाला नारियल
का पानी, अग्नितत्व वाला
दीपाराधन, वायुतत्व वाला
सुगन्धित धूप और आकाशतत्व वाला घंटानाद.”
“पंचाक्षरी के पाँच
अक्षर अपने-अपने तत्व के अनुरूप साधना करने वाले साधकों को पाँच रंगों में अपने
तत्वों के दर्शन करवाते हैं. १. सफ़ेद मोती जैसा पादरस अथवा चांदी जैसा जगमगाता
प्रकाश २. प्रवाल जैसी अरुण कांति ३. पीली
हल्दी जैसी सुनहरी कांति ४. नीले वर्ण में नीले आकाश जैसी विश्व व्यापी कांति ५.
शुद्ध धवल कांति. भ्रूमध्य में पाँच रंगों की ज्योत प्रकाशित होने को ही ऋषिश्वरों
ने संध्योपासना का नाम दिया है. यंत्र, पंचतत्व साधना, योग साधन, आत्म समर्पण ये सब प्रधान साधनांश हैं. इन
रीतियों से देहात्म बुद्धि का नाश होता है. प्राणी की देह ही देवालय है और उसमें
विराजमान आत्मा ही शिवात्मा है – इस
प्रकार के तादात्म्य की स्थापना होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है. पंचाक्षरी मन्त्र का जाप, महान्यास पूर्वक
शिवाराधना, रुद्राभिषेक सहकारी
एवँ कल्याणप्रद सिद्ध होते हैं. विष्णु सहस्त्रनाम श्री विष्णु को अत्यंत प्रिय
है. गणेश जी को मोदक अति प्रिय हैं. सूर्य को सूर्यनमस्कार, चन्द्र को अर्ध्य
प्रिय है, अग्नि को हवन प्रिय है, उसी प्रकार शिव जी को अभिषेक प्रिय है. अभिषेक
द्वारा शिव प्रभु संतुष्ट होते है. ब्रह्म कल्प में प्रलय के समय, भविष्य में निर्माण
होने वाली सृष्टि के लिए सकल जातियों के बीज को अर्थात समस्त जीव राशि, वृक्ष, औषधी, वनस्पतियों के
बीज को एक पूर्ण कुम्भ में भर दिया गया. उसमें अमृत, सभी नदियों का जल, समुद्र का जल डालकर गायत्री मन्त्र द्वारा अपनी प्राण
शक्ति का उसमें आवाहन किया. इस कुम्भ को ही पूर्ण कुम्भ कहते हैं. इस कुम्भ के
अमृत का ही सिंचन महर्षियों ने पृथ्वी पर किया. इस कलश के जल का, अमृत का अभिषेक
कैलाश पर्वत पर प्रमुखता से हुआ, इसलिए वह अमृत स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ. श्रावण पौर्णिमा के दिन
अमरनाथ की गुफा में बर्फ का शिवलिंग तैयार होता है. इस दैवी शिवलिंग के दर्शन से
समस्त पापों से मुक्ति मिलती है.
वशिष्ठ तथा अगस्त्य मुनि का जन्म
जब पूर्ण कुंभ को
उलटा गया तो उसमें से दो महामुनि अवतरित हुए. इनमें से पहले वाले – वशिष्ठ मुनि
अपने शुभ्र तेज से दमक रहे थे, तथा दूसरे – अगस्त्य मुनि नीलवर्ण के थे एवँ उनकी
कांति अपूर्व तेजोमय थी. वे मित्र वरुण के अंश रूप में जन्मे.
पूर्ण कुम्भ के
अमृतीकरण किये गए जल से ग्यारह बार रुद्राभिषेक करने से शिव भगवान से एकादशी का
पुण्यफल “एकादश रुद्ररूप” प्राप्त होता है. इस प्रकार एकादश रूद्र का तथा वैष्णव
सम्प्रदाय की एकादशी के व्रत का निकट का सम्बन्ध है. इससे यह निष्कर्ष प्राप्त
होता है कि शिव एवँ केशव अभिन्न रूप ही हैं. “नमक” से रुद्राभिषेक करने से अकाल
मृत्यु दोष दूर होता है. सोम ग्रह की अधिष्ठान देवता चन्द्र है. चन्द्र प्राणियों
के पुनर्जीवन के लिए मूल साधन शक्ति की वर्षा करता है. इस चन्द्रकला का स्थान योगी
पुरुषों के भ्रूमध्य में भंवों से कुछ ऊपर सहस्त्रार चक्र के सामने चमकता रहता है.
ईश्वर के विविध रूपों का वर्णन
इसीलिये ऐसा कहा जाता है कि शिव प्रभु के शिर पर चन्द्रकला स्थित है. गुर्जर
देश (गुजरात) में स्थित सोमनाथ के मंदिर में चंद्रकांत शिला से ही शिवलिंग के
मस्तक पर सफ़ेद चंद्रकोर बनाई गई है. यहाँ ज्योति के समान दमकने वाले स्फटिक के
ज्योतिर्लिंग की पूजा की जाती है. शास्त्रों में कहा गया है कि जब तक साधक में
रूद्र तत्व न आ जाए, तब तक वह रुद्राभिषेक न करे. महान्यास में ‘काल‘ से तात्पर्य है स्व-रूप का
संहार करने वाला, इसीलिये अभिषेक करने वाले को कालात्मक होकर यज्ञ स्वरूप शरीर में न्यास
करके रुद्राभिषेक करना चाहिए. बोधायन महर्षि के महान्यास रुद्राभिषेक विधान में
शिव का वर्णन तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव, ईशान – इस प्रकार किया गया है.
तत्पुरुष मूर्ति प्रलायाग्नि के समान विद्युत् रंग की होती है. अघोर मूर्ति
मेघ वर्णीय, सद्योजात मूर्ति चन्द्र की कांति के समान धवल होती है. वामदेव मूर्ति
गौरवर्ण की होती है. ईशान मूर्ती आकाश के रंग की और अत्यंत तेजोमय होती है.
रूद्र सहस्त्रादि संख्या में होते हैं. रूद्र के गण, इस नाम से जिन देवताओं
को संबोधित किया जाता है उनकी संख्या एक गण में तीस हज़ार के हिसाब से होती है.
एकादश सहस्त्र गणों में तेहतीस करोड़ रूद्र के गण होते हैं. ये ही गण भूमि, आकाश, अंतरिक्ष, जल, वायु, शरीर, प्राण तथा मन को
व्याप्त करते हैं. ऐसा वेदों में प्रतिपादित किया गया है.
श्रीपाद प्रभु की अर्चना एवँ उनका स्मरण करने वाले भक्तों को तैंतीस करोड़
रुद्रों का अनुग्रह – रुद्राक्ष का वर्णन
इन तैंतीस करोड़
रूद्र-गणों के अधिपति श्री गणपति हैं. इसी कारण स्वयँ के गणपति तत्व को योग मार्ग
द्वारा प्रदर्शित करने के उद्देश्य से श्रीपाद प्रभु ने अपना अवतार गणेश चतुर्थी
के शुभ दिन धारण किया. इसलिए श्रीपाद प्रभु की अर्चना, उनका स्मरण करने वाले
साधकों को तैंतीस करोड़ रूद्र-गणों का अनुग्रह प्राप्त होता है.
धर्मगुप्त आगे बोले, “अरे बेटा, शंकर भट्ट, शिवभक्तों को
रुद्राक्ष धारण करना चाहिए. वह अत्यंत लाभकारी होता है. रुद्राक्ष की चार जातियां
होती हैं. वे इस प्रकार हैं :
१.
ब्रह्म जात
२. क्षत्रिय जात ३. वैश्य जात ४. शूद्र जात.
ब्रह्म जाति के
रुद्राक्ष सफ़ेद रंग के होते हैं. यह रुद्राक्ष बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं.
क्षत्रिय जाति के रुद्राक्ष लाल शहद के रंग के होते हैं. इमली के बीज के रंग वाले
वैश्य जाति के होते हैं. काले रंग के रुद्राक्ष शूद्र जाति के होते हैं. आम तौर से
पाँच मुख से सोलह मुख वाले रुद्राक्ष पाए जाते हैं. एक मुखी रुद्राक्ष अत्यंत दुर्लभ
होता है. इसे यदि दूध अथवा पानी में डाला जाए तो वह डूब जाता है. हलके रुद्राक्ष, कोमल रुद्राक्ष को
धारण करना निषिद्ध होता है. रुद्राक्ष को यदि ताँबे के उलटे ग्लास एवँ चम्मच के
बीच दबाया जाए तो, यदि वह असली
रुद्राक्ष है तो प्रदक्षिणा करने की दिशा में घूमता है. कुछ रुद्राक्ष अप्रदक्षिण
अर्थात उल्टी दिशा में घूमते हैं. इन रुद्राक्षों को द्रविड़ रुद्राक्ष कहते हैं.
गृहस्थों को ऐसे रुद्राक्षों का उपयोग नहीं करना चाहिए. इससे अनेक अनिष्ट घटनाएं
हो सकती हैं एवँ संन्यास का योग भी संभव हो सकता है. अतः ऐसे रुद्राक्षों को केवल
सन्यासियों को ही धारण करना चाहिए. कालाग्नि रूद्र ने ऐसा कहा है कि सफ़ेद
रुद्राक्ष केवल ब्राह्मण ही धारण करें, क्षत्रिय लाल रंग के, वैश्य हलके पीले
रंग के तथा शूद्र काले रंग के रुद्राक्ष धारण करें. ये ही रुद्राक्ष इनके लिए
अनुकूल होते हैं एवँ उनके पापों का नाश करके उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं.
एकमुखी रुद्राक्ष
प्रत्यक्ष शिव स्वरूप होता है. दो मुखी रुद्राक्ष अर्धनारी स्वरूप होता है.
त्रिमुखी – अग्नि स्वरूप, चौमुखी रुद्राक्ष – ब्रह्म स्वरूप, पञ्च मुखी –
कालाग्नि स्वरूप, छह मुखी – कार्तिकेय स्वरूप होता है. सप्त मुखी रुद्राक्ष –
मन्मथ स्वरूप, अष्टमुखी – रूद्र
भैरव स्वरूप, नौ मुखी – कपिल
मुनि स्वरूप होता है. यह रुद्राक्ष अत्यंत दुर्लभ होता है. इस रुद्राक्ष में
विद्या शक्ति, ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति, शांत शक्ति, वाम शक्ति, ज्येष्ठा शक्ति, रौद्र शक्ति, अंग
शक्ति, पश्यंती – ये नौ
प्रकार की शक्तियां होती हैं. इसी कारण से यह रुद्राक्ष धर्म देवता स्वरूप है.
दशमुखी रुद्राक्ष विष्णु स्वरूप, एकादश मुखी रुद्राक्ष साक्षात शिवस्वरूप, द्वादश
मुखी – द्वादशादित्य रूप . इस प्रकार रुद्राक्षों का विविध देवताओं से संबंध बताया
जाता है.
श्रीपाद प्रभु ने
प्राकृतिक प्रवृत्ति एवँ निवृत्ति के अधिपति, श्री गणपति, के तत्व को अपने
चैतन्यमय स्वरूप में धारण किया हुआ है. इसी कारण से वे तैंतीस करोड़ देवताओं के
दिव्य स्वरूप हैं. इतना ही नहीं, इस सृष्टि में होने वाली प्रत्येक हलचल, प्रत्येक घटना
श्रीपाद प्रभु के संकल्प से ही होती रहती है. सभी गतिविधियों का मूल कारण श्रीपाद
प्रभु हैं, सभी कारणों के वे
ही कारण स्वरूप हैं. वे शिव स्वरूप हैं, ऐसा मन में भाव रखकर यदि उनका पूजन किया जाए तो
वे विष्णु रूप में दिखाई देते हैं और विष्णु रूप में उनकी आराधना करने से वे शिव
रूप में दिखाई देते हैं. परन्तु यदि मन में उठ रहे अनेक तर्क-वितर्कों की मेल को
दूर करके अनन्य भाव से उनकी शरण में जाएँ तो वे यथार्थ रूप में दिखाई देते हैं.”
श्री धर्मगुप्त आगे
बोले, “अरे शंकर भट्ट!
मैं भी तुम्हारे साथ कुरुगड्डी आकर श्रीपाद प्रभु के दर्शन लेकर अपना जन्म कृतार्थ
कर लूँगा.”
मैं धर्मगुप्त के
साथ कुरुगड्डी आया और हमने श्रीपाद प्रभु के दर्शन किये. उन्होंने अपने नेत्र
खोलकर हमारी ओर देखा और मज़ाक में बोले, “वाह! क्या उत्तम चर्चा हो रही थी. श्रीपाद –
शिवरूप हैं. क्या मैं ही श्रीपाद हूँ? यदि ऐसा न हो तो क्या श्रीपाद ही “मैं” बनकर आया
हूँ? मैं कौन हूँ? धर्मगुप्त, थोड़े विस्तार से
बताओ ना!” इस पर धर्मगुप्त ने उत्तर दिया, “जब मैं पीठिकापुरम् से आ रहा था तो
श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी ने मुझसे कहा था कि श्रीपाद प्रभु के साथ कोइ भी तर्क–वितर्क
न करना. बस, पूरी तरह से उनकी
शरण में जाना. अतः मैं अनन्य भाव से आपकी शरण में आया हूँ. आपके प्रत्येक प्रश्न
पर मैं मौन ही रहूँगा. जहाँ वेद भी श्रीपाद प्रभु का यथार्थ वर्णन करने में असमर्थ
रहे, वहाँ धर्मगुप्त
जैसे सामान्य साधक की क्या बिसात?”
धर्मगुप्त की बात
सुनकर श्रीपाद प्रभु अत्यंत प्रसन्न हो गए. उन्होंने हम दोनों को अपने चरण स्पर्श
करने की अनुमति दी. हमने आनंद विभोर होकर प्रभु के चरण स्पर्श किये, और क्या आश्चर्य!
हम दोनों तत्क्षण ध्यानावस्थित हो गए. इस अवस्था में कितना समय बीता, इसका ज्ञान ही न
रहा. जब ध्यानावस्था से बाहर आये तो सायंसंध्या की बेला हो रही थी.
श्रीपाद प्रभु ने
हमें कृष्णा नदी पार करके दूसरे किनारे पर जाने के लिए कहा. उनकी आज्ञानुसार हम
दोनों श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीलाओं का स्मरण करते हुए कृष्णा के दूसरे तीर पर
पहुंचे, वहाँ नदी की नर्म बालू-रेत में हम लेट गए और पता ही नहीं चला कि कब निद्रा
देवी ने हमें अपनी गोद में ले लिया. प्रातः काल योगी जनों के “श्रीपाद श्रीवल्लभ
दिगंबरा” मधुर नाम स्मरण से हमारी आंखें खुलीं.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।।
श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय
– २६
कलियुग के लक्षण
हम सुबह-सुबह नदी पार
करके श्रीपाद प्रभु के दर्शन हेतु कुरुगड्डी पहुँचे. धर्मगुप्त को श्रीपाद प्रभु के मुख से कलियुग के प्रादुर्भाव की विशेषताएं
जानने की तीव्र इच्छा थी. आज श्रीपाद प्रभु अत्यंत प्रसन्न थे. उनकी कारुण्य वर्षा
करने वाली अमृत दृष्टी सभी साधकों को एक विशेष आध्यात्मिक आनंद प्रदान कर रही थी.
प्रभु के चरण कमलों का स्पर्श करके हम धन्य हो गए. धर्मगुप्त ने श्रीपाद प्रभु से
नम्र निवेदन किया कि कलियुग के प्रादुर्भाव की विशेषता का वर्णन करें. श्रीपाद
प्रभु बोले, “साधकों, काल परमात्मा का विराट
स्वरूप है. सूर्य को ‘कालात्मक’ भी कहते हैं. धनिष्ठा नक्षत्र से आरम्भ की हुई
श्रवण नक्षत्र की सूर्य के चारों ओर की परिक्रमा के वापस धनिष्ठा नक्षत्र तक
पहुँचने की समयावधि को ब्रह्म कल्प कहते हैं. ब्रह्म कल्प के एक भाग को सृष्टि
कल्प कहते हैं एवँ शेष भाग को प्रलय कल्प कहते हैं. पितृ देवताओं से संबंधित काल
गणना में आधा भाग शुक्ल पक्ष तथा आधा भाग कृष्ण पक्ष कहलाता है. संवत्सर पुरुष के
छः महीने उत्तरायण तथा शेष छः महीने दक्षिणायन कहलाते हैं. योगी जन संपूर्ण काल
चक्र के दर्शन अपने शरीर में करते हैं. इस रहस्य विद्या को तारक राज विद्या कहते
हैं. तारक राज योग में शरीर को ही ब्रह्माण्ड माना जाता है. सभी लोग इसी में
समाविष्ट हैं. मनुष्य के शिरस्थान को ब्रह्म लोक कहते हैं. इस शिरस्थान में
आचार-विचार रहते हैं. नाभि में विष्णु लोक होता है. ह्रदय में रूद्र लोक होता है.
पितृ जन अपने वीर्य कणों में जन्यु देवता स्वरूप में वास करते हैं. जन्यु देवताओं
का कार्य यह है कि मानव के विगत जन्म में किये गए कर्म का फल अगले जन्म में प्रदान
करें. परन्तु विगत जन्म के फल को एक क्रम पद्धति से प्रदान करने के लिए काल की अत्यंत
आवश्यकता होती है.
कलियुग का लक्षण
पितृ देवता से तात्पर्य
दिवंगत पूर्वजों से नहीं है. स्वर्गवासी हो चुके अपने माता-पिता, दादा-दादी के नाम से किये गए श्राद्ध का फल
स्वीकार करके उन्हें उत्तम गति प्रदान करने वाले जन्यु देवता ही हैं. ये जन्यु
देवता जन्म मृत्यु से परे हैं. योगीजन अपने शरीर में ही छः ऋतुओं के दर्शन करते
हैं. एक वर्ष में बारह पूर्णिमा तथा बारह अमावस्या होती हैं. ये चौबीस पर्व
गायत्री के चतुर्विंशति छंद हैं. कुछ लोग काल स्वरूपी श्री विष्णु भगवान को
संवत्सर पुरुष मानकर उनकी उपासना करते हैं. इस विद्या को द्वादशाक्षरी विद्या कहते
हैं. प्रत्येक मास के एक अक्षर के हिसाब से बारह महीनों के बारह अक्षर मिलकर एक
मन्त्र बनाते हैं.
नदियों में भयानक बाढ़
से मनुष्यों की, पशुओं की, संपत्ति की अपार हानि होना, भूमि का प्रकम्पित होना अर्थात् भूकंप आना, सूर्य चन्द्र की गति बदलना, दिन में अन्धेरा होकर सूरज का दिखाई न देना, आकाश में ‘धूमकेतु’ का प्रकट होना – ये सभी कलियुग के लक्षण हैं. द्वापर युग के अंतिम खंड में
पश्चिमी सागर के एक द्वीप पर कलियुग के अधिपति, कलिपुरुष, ने घोर तपस्या की थी. ये
सारे विषय वेदव्यास ऋषि द्वारा रचित भविष्य पुराण में प्राप्त होते हैं.
म्लेच्छ जाति का आविर्भाव
जिधर देखो उधर वेदमंत्रों के उच्चार, यज्ञ-यागादी, तपस्या आदि का जोर
था. इस कारण कलिपुरुष अत्यंत दुखी था. उसने ईश्वर से प्रार्थना की, “हे प्रभो, पृथ्वी पर चारों और यज्ञ, याग, धार्मिक आचरण, नीतिमत्ता का ही प्राबल्य है. ऐसी स्थिति में
मैं अपने कलियुग का प्रभाव लोगों के बीच कैसे फैलाऊँ? आपकी आज्ञानुसार मुझे अपने युग-धर्म को चारों और व्याप्त करना है, परन्तु वर्त्तमान परिस्थिति में मुझे यह असंभव
प्रतीत होता है.”
कलिपुरुष के वचन सुनकर जगत्प्रभु ने उसे पश्चिमी सागर में स्थित एक द्वीप
दिखाया. म्लेच्छ जाति के मूल पुरुष आदम तथा स्त्री हव्यावती को जगत्प्रभु ने
कलिपुरुष को दिखाया. उन स्त्री-पुरुष के विहार के लिए एक अत्यंत रमणीय उद्यान का
निर्माण किया. वास्तव में वे स्त्री-पुरुष बहन-भाई थे. परन्तु कलिपुरुष ने सर्प
रूप में उनके भीतर प्रवेश करके काम भावना उत्पन्न कर दी, तथा अधर्मी संतान उत्पन्न
करने के लिए उन्हें प्रेरित किया. उन दोनों के इस प्रकार से पतित हो जाने पर उनके
भीतर की दिव्य शक्ति अदृश्य हो गई. कालान्तर में इस युगल से कलि धर्म की मूल
म्लेच्छ जाति का आविर्भाव हुआ.
द्वापर युग के अंत में अर्थात दो हज़ार आठ सौ वर्षों के बाद म्लेच्छ देश में
म्लेच्छ जाति की संतति की अभिवृद्धि होगी. ऐसा वर्णन भविष्य-पुराण के प्रत्येक
सर्ग-पर्व में किया गया है. नीलांचल पर्वत के निकट आदम और हव्यावती ने अपने पाप के
फल का अनुभव करके आर्य धर्म को दूषित करने वाली, अभक्ष्य भक्षण करने वाली, दुराचारी संतति की वृद्धि की.
श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “मैं कल्कि अवतार
धारण करके करोड़ों अधर्मियों तथा दुराचारियों का नाश करके पुनः सत् युग की स्थापना करने वाला हूँ. यह काफी दूर के
भविष्य में मेरा कार्यक्रम है.”
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – २७
पंचदेव पहाड़ पर
विरूपाक्ष से भेंट
श्री धर्मगुप्त और मैं
कृष्णा के दूसरे तीर पर पहुंचे. मध्याह्न का समय था. गुरूवार के दिन श्रीपाद प्रभु
एक ही समय में विविध स्थलों पर भिक्षा स्वीकार करते थे. तो, ऐसे परम पवित्र गुरूवार के मध्याह्न का समय था.
पंचदेव पहाड़ नामक स्थल पर घास की एक कुटी बनाई जाए ऐसी श्रीपाद प्रभु की आज्ञा थी.
यह कुटी एक ही दिन में बनाई जाए, ऐसा भी उन्होंने कहा था. परन्तु पंचदेव पहाड़ का वह परिसर हमारे लिए नया
था. कुटी का निर्माण करने के लिए योग्य स्थान की आवश्यकता थी. उसे बनाने के लिए
आवश्यक सामग्री – घास, बांस, डोरी, पत्ते आदि – हमारे पास नहीं थी. कुटी बनाने वाले मज़दूर भी वहाँ नहीं थे.
पंचदेव पहाड़ का महत्त्व
कहाँ जाएँ, इसके बारे में कोई निश्चय नहीं था. इस परिसर
में हम पथिकों के समान इधर-उधर घूम रहे थे. घूमते-घूमते हम एक किसान के खेत में
गए. वहाँ वह किसान अपने जानवरों के लिए गौशाला का निर्माण कर रहा था. खेत में एक
साफ-सुथरी जगह पर एक ऊँची चौकी बनाई गई थी और उस पर एक गद्दी बिछी थी – खेत के
मालिक के लिए. उस गद्दे पर बैठे हुए मालिक ने हमें बुलाकर हमारा स्वागत किया और
हमें भोजन दिया. हम भूखे ही थे, परन्तु क्षण भर के
लिए मन में यह विचार कौंध गया कि शूद्र के घर का भोजन किया जाए अथवा नहीं. तब उस
खेत का मालिक गुस्से से बोला, “हमारे जानवर चुराकर
दूसरे प्रांत में बेचने वाले तुमको शूद्र के घर का भोजन करना चाहिए अथवा नहीं ऐसा
संदेह हुआ है क्या?” उस मालिक की नज़रों
में हम चोर बन गए थे. परन्तु भूख के मारे हमने वहाँ भोजन कर लिया. खेत के मालिक का
नाम था विरूपाक्ष. भोजन के पश्चात हम दोनों को एक-एक पेड़ से बाँध दिया गया. “मैं
एक गरीब ब्राह्मण हूँ, भिक्षा मांगकर अपना
उदर निर्वाह करता हूँ ,” ऐसा मैंने अत्यंत दीनतापूर्वक कहा. मेरे पास बिलकुल भी धन
नहीं है., यह भी पुनः पुनः कहा. इसके बाद खेत के मालिक के सेवक धर्मगुप्त के निकट
धन की आशा में गए, और वे उसका सारा धन छीन लेने का विचार करने
लगे.
श्रीपाद प्रभु की कल्पनातीत दिव्य लीला
हमने वास्तविक स्थिति बार-बार उसे समझाई परन्तु खेत के मालिक पर उसका कोई
प्रभाव नहीं पडा. उसकी आज्ञानुसार हमें
बंदी बनाया गया था. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए. तभी वहां मुसाफिरों
की एक टोली आई. इनमें “शिव कावडी” नामक भक्त थे. ये मुसाफिर वासवी कन्यका
परमेश्वरी के लिए कावडी ले जाते हैं. ये भक्तजन त्रिपुण्ड लगाते हैं. घंटानाद करते
हुए श्री कन्यका परमेश्वरी की स्तुति में गीत गाते हुए मार्गक्रमण करते हैं. ये
भक्त गण किसी शुभ कार्य के लिए अथवा वासवी माता के जयन्ती उत्सव के लिए गंगा के
पवित्र जल की कावड ढोकर लाते हैं. इनके बीच एक अन्य प्रकार के साधक भी होते हैं, उनकी कमर में एक पट्टा बंधा होता है. इस पट्टे
में तलवार, ढाल एवँ विविध प्रकार के युद्धोपयोगी शस्त्र होते हैं. इन्हें “वीर
मुष्टि” कहते हैं. ये लोग नामघोष करते हुए घंटानाद के साथ चलते हैं.
उस खेत के मालिक ने आये हुए साधकों तथा वीरमुष्टि लोगों को भोजन देकर उनका
सत्कार किया. तत्पश्चात हमें बंधनमुक्त करके गोशाला के निर्माण में सहायता करने का
आदेश दिया. हम काम करने लगे. शाम को काम समाप्त होने के बाद विरूपाक्ष ने हमसे
पूछा, “मुष्टि में मुष्टि वीरमुष्टि – इसका क्या अर्थ
है?” हमें इसका उत्तर ज्ञात नहीं था, हमने यह बात उस खेत के मालिक से कह दी. उस दिन
शाम को भी उसने हमें भोजन दिया. हमें गायों की रखवाली करते हुए उस रात वहीं सोने
का आदेश दिया. तत्पश्चात वह अपने सेवकों सहित हँसते-खेलते हुए वहाँ से चला गया. हम
आधी रात तक श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण एवँ उनकी दिव्य लीलाओं का स्मरण कर रहे थे.
फिर हमें नींद आ गई. प्रातःकाल सूर्य की किरणें शरीर पर पड़ते ही हम उठ गए. चारों
और देखा – वहाँ कोई भी गाय नहीं थी. आसपास के किसान आकर पूछने लगे कि वह जगह हमने
कितने में खरीदी है. हमने कल की घटना उन्हें पूरी तरह सुना दी, परन्तु वे हमें
पागल समझने लगे. हमारे मन में एक ही प्रश्न उठ रहा था – क्या कल का दृश्य वास्तविक
था या आज का?
इसी संभ्रमावस्था में एक अपरिचित वहाँ आया. उसने हमसे पूछा, “श्री वासवी कन्यका देवी का जन्म वैशाख शुद्ध
दशमी के दिन हुआ अथवा सप्तमी के दिन?”
श्री धर्मगुप्त ने उत्तर दिया, “श्री वासवी कन्यका
का जन्म वैशाख शुद्ध दशमी के दिन मध्याह्न समय में हुआ. उस दिन शुक्रवार था.” यह
सुनकर अपरिचित बोला, “तुम दोनों मूर्ख
हो.” उस व्यक्ति द्वारा श्रीपाद प्रभु के बारे में कहे गए उदगार हमें अच्छे नहीं
लगे. परन्तु तुरंत कुरुगड्डी की ओर जाने का विचार करके हम चल पड़े. हम दोनों के पास
नाविक को देने के लिए पैसे नहीं थे, यह बात नाव में चढने से पहले ही हमने उसे बता
दी थी. नाविक ने दया करके हमें नाव में बैठने दिया. नाव चल पडी. तभी मल्लाह की नज़र
धर्मगुप्त की अंगूठी पर पडी, उसने उसे निकाल कर
कृष्णा के जल में फेंक दिया. हम नदी पार करके कुरुगड्डी पहुंचे तब श्रीपाद प्रभु
कृष्णा नदी में स्नानादि से निवृत्त होकर तपश्चर्या के लिए बैठ गए थे.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – २८
श्रीपाद प्रभु श्री वेंकटेश्वर स्वामी हैं.
विष्णु-महाविष्णु, लक्ष्मी- महालक्ष्मी, सरस्वती- महासरस्वती, काली- महाकाली
इनके स्वरूप का वर्णन
वह शुक्रवार का शुभ दिन
था और वासवी कन्यका देवी के जयन्ती उत्सव का मंगलमय पर्व था. प्रातःकाल की बेला
में श्रीपाद प्रभु कृष्णा के जल पर चलकर दूसरे किनारे पर पहुंचे, हम नाव में बैठकर दूसरे किनारे पर गए. उस समय
सुबह के सात बजे थे. तिरुमला क्षेत्र में श्री वेंकटेश्वर स्वामी की श्री लक्ष्मी
स्थान पर पूजा अर्चना स्वीकार करने की मंगल बेला थी.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
उस खेत के मालिक द्वारा कल बनाई गई गौशाला में आकर ध्यानस्थ हो गए. तभी हम भी
गौशाला पहुंचे. पंचदेव पहाड़ के परिसर में श्रीपाद प्रभु के सत्संग आरंभ करने का यह
मंगल समय था. अचानक एक आश्चर्यजनक बात हुई! श्रीपाद प्रभु की देह अकस्मात्
तेजःपुंज होने लगी. वह महातेज धीरे-धीरे चारों दिशाओं में व्याप्त होने लगा. उस
समय श्रीपाद प्रभु एक अत्यंत तेजस्वी मूर्ती की भाँति प्रतीत हो रहे थे. थोड़ी देर
में प्रभु गौशाला से बाहर आये. आम तौर से साधारण मानव की भाँति उनके शरीर की छाया
भूमि पर पड़ती थी, परन्तु आज आश्चर्य की बात यह हुई कि उनकी छाया भूमि पर नहीं पड़ रही थी.
चलते समय उनके पद चिह्न मिट्टी में दिखाई देते थे, परन्तु आज एक भी पद चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था. उन्होंने तीक्ष्ण दृष्टि
से सूर्य की और देखा. उनका शरीर दिव्य तेज से भरकर प्रतिक्षण वृद्धिंगत हो रहा था.
थोड़ी ही देर में हमारी आंखों के सामने ही श्रीपाद प्रभु का विशाल तेजोमय रूप सूर्य
में विलीन हो गया. उस सूर्य बिंब में हमें एक दिव्य शिशु के दर्शन हुए. वह शिशु
तेज़ी से पृथ्वी पर आ रहा था. उस शिशु के चरण जैसे ही भूमि पर पड़े, हमारी आंखों के सामने से सब कुछ ओझल हो गया.
श्रीपाद प्रभु मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. उन्होंने फिर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि से
सूर्य की और देखा और हमें दुबारा सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा. उन्होंने हमें भी
सूर्य की ओर देखने का आदेश दिया. हमें उस लाल-लाल सूर्य बिंब में एक अत्यंत
सुन्दर, दिव्य तेजमूर्ती बालिका के दर्शन हुए. वह बालिका हास्य वदन से भूमि की और
आ रही थी. उसके चरणों के भूमि पर पडते ही हमारी आँखों को पुनः कुछ भी दिखाई न
दिया. हम आश्चर्य चकित होकर चारों और देखने लगे. उस प्यारी बालिका ने हमारी ओर
देखा और मंद-मंद मुस्कुराई. तब हमें दुबारा सब कुछ दिखाई देने लगा. श्रीपाद प्रभु
ने उस बालिका को अत्यंत प्रेम से, आदरपूर्वक उठा लिया. उस समय श्रीपाद प्रभु की
आयु सोलह वर्ष की थी, और उनके समान दिखाई देने वाली उस कन्या की आयु तीन वर्ष की प्रतीत हो रही
थी. उसने शरीर पर जरी के वस्त्र परिधान किये थे. वह दिव्य आभूषण भी पहने थी.
श्रीपाद प्रभु उस बालिका के साथ उस गौशाला में गए.
मैं और धर्मगुप्त इस
अद्भुत् दृष्य को अत्यंत भय, आश्चर्य एवँ संभ्रम से देखा रहे थे, मेरे मन में शंका उठी कि कहीं यह सब इंद्रजाल तो नहीं?
मेरे ह्रदय की भावनाएँ
जानकर श्रीपाद प्रभु बोले, “अरे, शंकर भट्ट! यह कोई इंद्रजाल नहीं, यह मेरा स्वभाव ही है, यह मेरी दिव्य प्रकृति ही है. मेरे संकल्प से ही “पृथ्वी” एवँ “आकाश” बनते
हैं. मेरे संकल्पानुसार ही ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं. इस समय
भिन्न-भिन्न व्यक्तित्वों का निर्माण होता है, अदृष्य रूप वाली प्राकृतिक शक्ति
साकार हो जाती है. सगुण रूपी सृष्टि व्यक्ति रूप में साकार हो जाती है. मैं ब्रह्म
स्वरूप ही हूँ, अर्थात् ब्रह्म की प्रेरणा ही हूँ. इस सृष्टि में प्राणियों का पालन-पोषण
करना विष्णु स्वरूप का कार्य है. उस विष्णु को प्रेरणा देने वाला महाविष्णु मैं ही
हूँ. सरस्वती तथा महासरस्वती दोनों अलग-अलग हैं. सरस्वती इस सृष्टि की ज्ञान देवता
है. इस ज्ञान देवता स्वरूप सरस्वती को प्रेरणा देने वाली देवता है “महासरस्वती” जो
अनघा स्वरूप ही है. सृष्टि की स्थिति, कारण, वस्तुओं की समृद्धि, धन समृद्धि – यह सब लक्ष्मी माता का ही स्वरूप है.
महालक्ष्मी देवता अनघा स्वरूप ही है, जो लक्ष्मी स्वरूप को प्रेरणा एवँ शक्ति देती है. सृष्टि का शक्ति स्वरूप
कालिका देवी ही है, “महाकाली” काली स्वरूप की प्रेरणा है. यह शक्ति स्वरूप करने वाला अनघा
स्वरूप ही है.
अनघालक्ष्मी का स्वरूप
अनघा लक्ष्मी का अनघ – अर्थात् मेरा दत्त स्वरूप है. महासरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाली इन तीनों का एक संयुक्त –
एक विशेष दिव्य मातृत्व स्वरूप ही अनघा लक्ष्मी का आविर्भाव है. इसी कारण से अनघा
लक्ष्मी महालक्ष्मी, महाकाली और
महासरस्वती, तीनों के संयुक्त रूप की तादात्म्य स्थिति का स्वरूप
है. अनघा लक्ष्मी एक अलौकिक दिव्य शक्ति है जो इन तीनों देवताओं का आधार है. मेरे
अनघ स्वरूप से तात्पर्य है ब्रह्मा, विष्णु तथा रूद्र के
एकत्र होकर तादात्म्य स्थिति को धारण करके, इन तीनों का आधार – अर्थात् त्रिशक्ति रूपिणी अनघा देवी को मेरे वाम भाग
में स्थापित किया हुआ मेरा शक्ति-स्वरूप. यह ध्यान में रखना.
त्रेता युग में किये गए “सवित्र काठ चयन” यज्ञ के फलस्वरूप ही मेरे भव्य, दिव्य, “अर्धनारीश्वर” स्वरूप को आधार बनाकर ही पीठिकापुरम् में मेरा श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में आविर्भाव हुआ. इस समय जो तुम देख रहे हो, वह स्वरूप वास्तव में महालक्ष्मी - महाविष्णु
का ही स्वरूप है. महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती – इन तीनों का चैतन्य पद्मावती देवी
में समाया हुआ है. मगर उसका स्वरूप महालक्ष्मी का ही है, जबकि उसमें तीनों की
शक्ति सम्मिलित है. इस प्रकार पद्मावती देवी तीनों शक्तियों का आधार, अतीत ऐसा पराशक्ति स्वरूप ही है. श्री
वेंकटेश्वर के रूप से तात्पर्य है – बृहदाकार ब्रह्मा को, विराट रूपी विष्णु को, प्रलय काल रूद्र को
अर्थात् महाकाल को अपने दिव्य चैतन्य में धारण करके, उनका आधार एवँ उनके लिए अतीत ऐसा परब्रह्म का स्वरूप. श्रीपाद श्रीवल्लभ –
अर्थात् मायारूपी श्री पद्मावती वेंकटेश्वर ही अर्धनारी स्वरूप में हैं, यह जान लो.”
श्रीपाद प्रभु की ये बातें सुनकर मैंने कहा, “ गुरु सार्वभौम की जय जयकार हो. आप कभी कहते हैं कि मैं पद्मावती वेंकटेश
हूँ. थोड़ी देर बाद कहते हैं कि मैं अनघालक्ष्मी सहित अनघ हूँ. मेरी मंद बुद्धि को
इसका बोध नहीं हो रहा है. कृपया मेरा उद्धार करें.”
तब दीनों के नाथ सदगुरु श्रीपाद प्रभु बोले, “महालक्ष्मी तथा पद्मावती ये दोनों मूलतः एक ही तत्व की हैं. वह जब
महालक्ष्मी तत्व को स्वीकारती हैं, तब मेरे विष्णु तत्व
का प्रादुर्भाव होता है, जब वह पद्मावती तत्व
का स्वीकार करती हैं, तब मेरे भीतर से उसके प्रभु वेंकटेश्वर तत्व का आविर्भाव
होता है. जब-जब जिस सगुण साकार तत्व का आविर्भाव होता है, तब-तब उस तत्व की मर्यादा का, उसके आचार आदि का अचूक पालन करना होता है. मेरी
यह दिव्य भगिनी, यह महाशक्ति कृष्णावतार के समय योगमाया के रूप
में अवतरित हुई थी. फिर वह अपना कार्य समाप्त करके अंतरिक्ष में लुप्त हो गई. आज वही
श्रेष्ठ, तपः संपन्न योगी, मुनि, महर्षि आदि की घोर तपस्या के परिणाम स्वरूप ही
वासवी कन्यका के रूप में प्रकट हुई है. किसी विशेष कारण से ही मुझे पीठिकापुरम्
में अवतार लेना पड़ा है. जो दृष्टी के सामने दिखाई देता है, उसे देखते रहो. तुम्हें समझ में आ ही गया होगा
कि मेरा अवतार तत्व दिव्य, विनोदी लीलाएँ करने
के लिए ही हुआ है.”
श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “अरे, शंकर भट्ट, इस पंचदेव पहाड़ पर घटित लीलाओं का, यहाँ देखे गए दृश्यों का वर्णन बिल्कुल वैसे ही
करना, जैसे देखा है. यह वर्णन भविष्य के भक्तजनों के
लिए स्फूर्तिदायक होगा. उनकी नाना शंका-कुशंकाओं को इससे समाधान हो जाएगा. साधकों
के लिए इस ग्रन्थ एवँ लीला प्रसंगों से भक्तिमार्ग सुलभ हो जाएगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु की दिव्य वाणी ने विश्राम किया. हम आश्चर्य चकित
देख ही रहे थे, तभी श्रीपाद प्रभु का स्वरूप दिव्य तेज से
दमकने लगा और उसमें से श्री पद्मावती देवी का तथा श्री वेंकटेश्वर स्वामी का
आविर्भाव हुआ.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये ।।
अध्याय - २९
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का दिव्य उपदेश
हमने कुरुगड्डी में श्रीपाद प्रभु के दर्शन किए और उनकी आज्ञा से उनके समीप
बैठ गए। तब प्रभु बोले, “जो साधक अनन्य भाव से मेरी शरण में आते हैं उनकी मैं सदैव
रक्षा करता हूँ. यह देश काल मेरे हाथ में एक गेंद के समान है. कहीं भी घटित हो रही, भूतकाल में घटित हो चुकी तथा
भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं को मैं बदल सकता हूँ. मैं देश और काल का शासक ही
हूँ. तुम्हारे चैतन्य के संस्कारों की श्रेणी के अनुरूप ही तुम्हें मेरे बारे में
ज्ञान प्राप्त होगा. सभी धर्मों का परित्याग करके तुम्हारे अंतर्मन में अन्तर्यामी
रूप में स्थित, ऐसे मेरी शरण में अनन्य भाव से आने पर मेरे आदेशानुसार कर्म का
पालन करने पर मैं तुम्हारा सब भार वहां करके तुम्हें जीवन्मुक्त करूंगा. केवल अपने
शब्दों से ही मैं सृष्टि पर शासन करता हूँ. इसलिए मैं ही सरस्वती रूप में प्रसिद्ध
होऊँगा. कलियुग का मानव हिरण्यकश्यपू के समान होगा. उनकी समस्याएँ, भाव एवँ आचार-विचार अत्यंत
कठोर स्वरूप के होंगे. उन्हें प्रकृति-विज्ञान से संबंधित अनेक संशोधनों में यश
प्राप्त होगा. परन्तु मुझे प्रहलाद जैसे निष्पाप, निरपराध भक्तों के संरक्षण
के लिए नरसिंह का अवतार धारण करना होगा. इस कारण से मैं “नृसिंह सरस्वती” इस
नाम-रूप से एक और दिव्य अवतार धारण करके गंधर्वपुर नगर में प्रसिद्धी को प्राप्त
करूंगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ध्यानस्थ हो गए और उन्होंने हमें भी ध्यान
मुद्रा में बैठने को कहा.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये ।।
अध्याय – ३०
श्रीपाद श्रीवल्लभ महासंस्थान का निर्माण होगा ऐसा श्रीपाद प्रभु ने ही
बताया
नाथ सम्प्रदाय के अनुसार जीवात्मा चौंसठ शाबर तंत्र का उपयोग करके परमेश्वर
से तादात्म्य प्राप्त करता है. नाथ सम्प्रदाय के आदिगुरू श्री दत्तात्रेय भगवान ही
हैं. हमारे सम्मुख विराजमान श्रीपाद श्रीवल्लभ साक्षात श्री दत्तात्रेय ही हैं.
शतरंज की बिसात पर चौंसठ खाने होते हैं. श्री महाविष्णु श्री महालक्ष्मी के साथ
वैकुण्ठ लोक में शतरंज की बाज़ी खेलते हैं, इसका गूढार्थ यह हुआ कि चौंसठ योनियों में स्थित विभिन्न जीवात्माओं के
जीवन कलापों के कर्मफल तथा उनकी परिणामी क्रियाओं का अवलोकन करते हुए, उनके
कर्मफलों के आधार पर वे उन पर अनुग्रह करते हैं.
दिव्य मानव होने के लिए आवश्यक योग्यता
“मानव के आध्यात्मिक अधिकार पर उनकी उन्नति की गति निर्भर करती है. प्रत्येक
जीवात्मा दिव्यात्मा होने की अभिलाषा रखता है. इस मार्ग से चलने के लिए योगपद्धति,
मन्त्र, जप, याज्ञयागादी कर्म, धर्मं कार्यों को संपन्न करना इत्यादि विधियों
का अवलंबन करके शरीर की आत्म ज्योति को प्रकाशमय करें. इस प्रकाश पर नाडी-शुद्धि
अवलंबित रहती है. नाडी-शुद्धि के स्तर के अनुरूप मानव को विभिन्न स्तर की शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है. शक्ति विशेष का विकास होने पर साधकों
द्वारा किये गए धार्मिक कर्मों के अनुसार उन्हें दैवानुग्रह की प्राप्ति होती है.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “शंकर भट्ट, भविष्य में मेरे महासंस्थान का श्री
पीठिकापुरम् में मेरे जन्मस्थल पर ही निर्माण होगा. श्री पीठिकापुरम्,
श्यामालाम्बापुर एवँ वायसपुर अग्रहार ये तीनों स्थान मिलकर एक महानगर बनायेंगे.
मेरे दर्शनों के लिए मेरे देवस्थान पर भक्तों की लम्बी-लम्बी, चीटियों के समान कतारें लगेंगी. कलियुग में
अनेक आश्चर्यजनक घटनाएं होंगी. वशिष्ठ महामुनि का अंश लेकर जन्मा हुआ एक साधक
श्रीपाद श्रीवल्लभ संस्थान का पुजारी नियुक्त होगा. उसके साथ मैं कितनी दिव्य
लीलाएँ करूंगा, उनका कोई अंत ही नहीं. प्रतिक्षण दिव्य लीला
एवँ दिव्य विनोद चलते ही रहेंगे.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मंद-मंद मुस्कुराए. उसे देखने के लिए सहस्त्रावधि
जन्म भी कम ही हैं.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये ।।
अध्याय – ३१
दशमहाविद्याओं का वर्णन
हम रोज़ शाम को श्रीपाद प्रभु की आज्ञानुसार कृष्णा के दूसरे किनारे पर जाकर
रात भर वहीं रहते थे. प्रातःकाल स्नान-संध्या समाप्त करके पुनः श्रीगुरु के
सान्निध्य में जाते. इस अलभ्य सत्संग में श्री प्रभु के प्रसाद रूपी दर्शन, नित्य
नूतन योगानुभव एवँ अनेक दिव्य रहस्यों के भेद ज्ञात होते थे. देवी तत्व की उपासना
दशमहाविद्या रूप से ही होती है. ऐसा हमने सूना था, अतः हमने “श्री” के चरणों में नम्र प्रार्थना की कि इन दशमहाविद्या रूपों
की संपूर्ण जानकारी हमें बताएँ.
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे, शंकर भट्ट, श्री विद्या की उपासना अत्यंत श्रेष्ठ है. प्राचीन काल में हयग्रीव के कृपा
प्रसाद से ही अगस्त्य महामुनि को श्री विद्या के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ.
उन्होंने यह विद्या अपनी पत्नी लोपामुद्रा को दी. लोपामुद्रा देवी ने इस महाविद्या
का गहन अध्ययन करके उसका गूढार्थ अगस्त्य ऋषि को समझाया. इस प्रकार वे दोनों एक
दूसरे के गुरु हुए.”
लोपामुद्रा एवँ अगस्त्य ऋषि के चरित्र.
“विदर्भ देश के राजा को कई वर्षों तक संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी.
अगस्त्य महामुनि के तपोबल से राजा को एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई. उस कन्या का
नाम रखा गया लोपामुद्रा. जब लोपामुद्रा समयानुसार युवावस्था को प्राप्त हुई तो
अगस्त्य मुनि ने उससे विवाह करने की इच्छा दर्शाई. दोनों की आयु के अंतर को देखकर
राजा विचार मग्न हो गया. इतनी छोटी कन्या का विवाह वृद्ध महामुनि से किस प्रकार
करूँ, यही चिंता उसे सता रही थी. अंत में उसने अपनी
कन्या से ही इस विवाह के विषय में अपने विचार प्रकट करने को कहा, तब क्षण भर का भी विलम्ब किये बिना वह बोली, “पिताश्री, मेरा जन्म अगस्त्य मुनि के लिए ही हुआ है. मैं उन्हींसे विवाह करूंगी.”
राजा ने दोनों का विवाह कर दिया. राजकन्या लोपामुद्रा राजमहल छोड़कर वल्कल परिधान
करके अगस्त्य मुनि के साथ तपोभूमि को चली गई. कालान्तर में अगस्त्य ऋषि ने उससे
शास्त्रयुक्त संग करने की इच्छा व्यक्त की. इस पर लोपामुद्रा ने मुनि से कहा, “नाथ, मैं ललिता स्वरूप की उपासना करके ललिता
स्वरूप ही हो चुकी हूँ. आप भी शिवोपासना करके जब शिवरूप हो जायेंगे, तब मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगी. अगस्त्य मुनि
ने घोर तपस्या करके शिवरूप प्राप्त कर लिया. फिर उन्होंने अपनी इच्छा लोपामुद्रा
के सम्मुख व्यक्त की. इस पर वह बोली, “नाथ, मैंने एक राजकुल में जन्म लिया है.
क्षत्रियोचित धन, आभूषण, रेशमी वस्त्र, सुगन्धित द्रव्य, उपभोग की समस्त
वस्तुओं के बिना मुझसे संग करना योग्य नहीं है. अतः आप इन सब वस्तुओं का संग्रह
करें, साथ ही स्वयँ के लिए भी ज़री के वस्त्र लाएं. यह
सब भोग सामग्री लाने के पश्चात ही आपकी इच्छा पूर्ण होगी. अगस्त्य मुनि धन संपादन
करने के इरादे से इलवल नामक एक राक्षस के पास गए. अपनी माया से उसे अपना बनाकर
उससे धन, आभूषण, वस्त्र आदि लेकर लोपामुद्रा के पास आए
और उन्होंने पत्नी की इच्छा पूरी की. यथावकाश उन्हें उत्तम संतान की प्राप्ति हुई.
एक बार अगस्त्य ऋषि ने अपने तपोबल से समूचे सागर को ही अपने कमण्डलु में भर लिया
था, और उसे पी गए थे. अगस्त्य महर्षि ने विन्ध्याचल पर्वत का गर्व हरण किया था. आज
भी दक्षिण भारत में अगस्त्य मुनि को एक महान सिद्ध पुरुष माना जाता है. अनेक
स्थानों पर उनके मंदिर हैं.” श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “जब मैं कल्कि अवतार धारण करूंगा तब अगस्त्य ऋषि को परशुराम जैसा गुरुस्थान
प्रदान करूंगा.”
देवी की दशमहाविद्या
श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “ ‘काली’
दशमहाविद्याओं में प्रथम रूप है. ‘महाकाली’ समस्त विद्याओं की आदि देवता है. उसकी विद्यामय विभूति को ही महाविद्या
कहते हैं. किसी समय हिमालय पर मातंग ऋषि के आश्रम में सब देवताओं ने महामाया की
स्तुति की. उस समय अम्बिका ने ‘मतंग वनिता’ के रूप में उन्हें दर्शन दिए. वह काजल के समान काले रंग की होने के कारण
उसका नाम कालिका देवी पडा. उसने शुंभ-निशुंभ राक्षसों का वध किया. उसका रूप
काला-नीला होने के कारण उसे तारा देवी के नाम से भी जाना जाता है. कोई भी संकल्प
अथवा फलीभूत न हुई योगसाधना अल्पकाल में ही गंतव्य स्थल तक पहुंचे इसलिए काली माता
की उपासना की जाती है. इस साधना काल में काली माता के साधक के शरीर में भयंकर दाह
होता है, जिसे साधक को सहन करना पड़ता है.
दशमहाविद्या में दूसरा रूप तारा देवी का है. यह माता मोक्ष दायिनी, सब दुःखों से तारने वाली है, इसलिए वह ‘तारा’
नाम से प्रख्यात हुई. इस देवी को ‘नील सरस्वती’ भी कहते हैं. भयानक विपत्ती में भक्त की रक्षा करने वाली होने के कारण
योगीजन ‘उग्रतारा’ रूप में इसकी आराधना करते हैं. वशिष्ठ महामुनि
ने भी तारा देवी की आराधना की थी. चैत्र शुद्ध नवमी की रात को ‘तारा रात्रि’ कहते हैं.
दशमहाविद्या का तीसरा रूप है ‘छिन्नमस्ता देवी’. छिन्नमस्ता देवी का यह रूप अत्यंत गोपनीय है. एक बार देवी अपनी दो सखियों
सहित मंदाकिनी नदी पर स्नान के लिए गई थी. जब द्वारपालों ने उससे भोजन के विषय में
पूछा, तब उसने अपनी तलवार से अपना ही शिरच्छेद कर
दिया. उसका सिर वाम हस्त पर आकर गिरा. उसके धड़ से निकली रक्त की दो धाराओं का
सखियों ने प्राशन किया और तीसरी धार देवी ने स्वयँ ही प्राशन की. तब से उसका नाम
‘छिन्नमस्ता देवी’ पडा. हिरण्यकश्यपु आदि दानव इसी देवी के उपासक
थे.
दशमहाविद्या में चौथा रूप ‘षोडशीमहेश्वरी’ का है. इस देवी का स्वरूप मक्खन
की भाँति मुलायम है और वह अत्यंत दयावती है. इनके आश्रय में आये हुए साधकों को
त्वरित ज्ञान प्राप्ति होती है. विश्व के सभी मन्त्र तंत्रों के निर्माता इस देवी
के उपासक हैं. इस ‘षोडशीमहेश्वरी’ देवी का वर्णन वेद
तथा श्रुति भी नहीं कर सके, वे ‘नेति नेति’ कहकर शांत हो गए. यह प्रसन्नवदना माता भक्तों
के सकल मनोरथ पूर्ण करती है. इस भगवती की उपासना से भोग एवँ मोक्ष दोनों की
प्राप्ति होती है.
दशमहाविद्या में पाँचवां रूप ‘भुवनेश्वरी देवी’ का है. सप्त कोटि महामंत्र इस देवी के उपासक हैं. इस देवी की काली तत्व से
लेकर कमला तत्व तक दस अवस्थाएं होती हैं. इनमें से अव्यक्त भुवनेश्वरी व्यक्त होकर
ब्रह्माण्ड का रूप धारण कर सकती है. प्रलय काल में कमल से, अर्थात् व्यक्त जगत से
क्रमशः लय होते हुए काली के मूल स्वरूप में परिवर्तित होती है. इसलिए इस देवी को
काल की जन्मदात्री भी कहते हैं.
दशमहाविद्या में छठा रूप ‘त्रिपुर भैरवी’ का है. महाकाल को शांत करने में समर्थ इस शक्ति रूप को ही त्रिपुर भैरवी
कहते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपुर भैरवी नरसिंह भगवान की अभिन्न
शक्ति हैं. सृष्टि में परिवर्तन की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. इस प्रक्रिया
के मूल कारण स्वरूप हैं आकर्षण और विकर्षण. यह प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया
है. इस त्रिपुर भैरवी का रात्रि का नाम काल-रात्रि तथा भैरव का नाम काल-भैरव है.
इन दोनों के संयुक्त स्वरूप से ही मेरा आगामी नृसिंह सरस्वती का अवतार होने वाला
है. यह अवतार महायोगियों के लिए त्रिपुर भैरवी एवँ काल भैरवनाथ अवतार माना जाएगा.
दशमहाविद्या का सातवाँ अवतार धूमावती है. यह धूमावती उग्रतारा ही है. इस
देवी की शरण में जाने वाले साधकों के सारे संकट नष्ट होकर उसकी कृपा से सकल संपदा
प्राप्त होगी.
दशमहाविद्या का आठवां रूप ‘बगुलामुखी देवी’ का है. ऐहिक, पारलौकिक, देश, समाज का अरिष्ट निवारण करने के लिए, साथ ही
शत्रु के शमन के लिए इस देवी की आराधना की जाती है. विष्णु भगवान, परशुराम इस देवी के भक्त थे. श्री तिरुमला
क्षेत्र के श्री वेंकटेश्वर स्वामी ने इस देवी की माता स्वरूप में आराधना की थी.
दशमहाविद्या का नवम् रूप ‘मातंगी माता’ का है. मानव के गृहस्थ जीवन को सुखी
बनाकर पुरुषार्थ को सिद्ध करने की शक्ति मातंगी माता में ही है. इस देवी को मातंग
ऋषि की कन्या भी मानते हैं.
दशमहाविद्या का दसवां रूप ‘कमलालया’ माता का है. यह सुख एवँ समृद्धि प्रदान करने वाली देवता है. भार्गव मुनि ने
इस देवी की आराधना की थी इसलिए इसे भार्गवी भी कहते हैं. इस देवी की कृपा से
पृथ्वी के पतित्व एवँ पुरुषोत्तमत्व का लाभ होता है. यही देवी तिरुमला क्षेत्र में
श्री वेंकटेश्वर स्वामी के साथ पद्मावती के रूप में निवास करती है.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “दशमहाविद्या
स्वरूपिणी अनघा देवी तथा उनके प्रभु अनघ (अर्थात् साक्षात श्री दत्त प्रभु) की
अर्चना करने से अष्टसिद्धि की प्राप्ति होती है. प्रत्येक मास की कृष्ण अष्टमी को
अनघाष्टमी मानकर अनघा माता की पूजा-अर्चना करें. इस आराधना से तुम्हारी सारी
मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी.”
प्रभु ने आगे कहा, “अरे, शंकर भट्ट! तेरे द्वारा रचित इस श्रीपाद
श्रीवल्लभामृत का पारायण करके, इसके पश्चात आने
वाली शुक्ल अथवा कृष्ण अष्टमी को “अनघाष्टमी” का व्रत करके ग्यारह गृहस्थों को
भोजन करावें, अथवा इस हेतु आवश्यक शिधा-सामग्री का दान करें.
इस प्रकार के पारायण से तथा अन्नदान से इच्छित फल की प्राप्ति निश्चित रूप से होती
है.”
चरित्रामृत के
पारायण की महिमा
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “श्री चरित्रामृत को केवल एक ग्रन्थ ही न
समझें. यह एक सजीव महाचैतन्य का प्रवाह है. जब तुम इसका पठन करते हो, तब इसके प्रत्येक अक्षर की शक्ति मेरे चैतन्य
में प्रवाहित होती है. अनजाने ही तुम्हारा मुझसे संबंध स्थापित हो जाता है. इससे
तुम्हारी सभी धर्मबद्ध इच्छाएँ मेरी कृपा से पूर्ण होती हैं. इस ग्रंथराज को
तुम्हारे पूजा घर में सिर्फ रखने मात्र से इसमें से शुभप्रद स्पंदन निकलते हैं. ये
स्पंदन दुष्ट शक्तियों को, दुर्दैवी शक्तियों को भगा देते हैं.”
“श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत की जानबूझ कर अथवा अनजाने में निंदा करने से निंदक का पूर्व पुण्यफल
धर्म देवता ले लेती है, और किसी योग्य प्राणी को बांट देती है. इस प्रकार श्रद्धावान गरीब भक्त
भाग्यवंत हो जाता है और अश्रद्धावान व्यक्ति गरीब हो जाता है. यह अक्षरसत्य ग्रन्थ
है. यह ग्रन्थ स्वयं ही अपना प्रमाण है. जिज्ञासू व्यक्ति इसकी परिक्षा ले सकते
हैं. मन में कोई इच्छा धारण करके भी ग्रन्थ का पारायण कर सकते हैं. अपना जीवन
शुद्ध करने के लिए अत्यंत श्रद्धा एवँ भक्ति पूर्वक इस ग्रन्थ का पठान करना
चाहिए.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३२
नवनाथों का वर्णन
नवनाथों का
वृत्तांत
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
के दिव्य चरणों को स्पर्श करके मैंने उनसे प्रश्न किया, “हे महाप्रभु! मैंने सुना
था कि नवनाथों के नाम से प्रसिद्ध सभी सिद्ध योगी श्री दत्त प्रभु के अंशावतार
हैं. उनके बारे में कृपया विस्तार से बताएँ, ऐसी श्रीचरणों में नम्र प्रार्थना है.”
श्री नवनाथों का नाम
सुनते ही श्रीपाद प्रभु के दोनों नेत्रों से अमृत वृष्टि का प्रवाह बहिर्मुख होकर
सृष्टि पर पड़ता हुआ प्रतीत हुआ. उनके नेत्रों से प्रेम चैतन्य प्रवाहित हो रहा था.
वे अत्यंत आनंदित होकर बोले, “श्रोता गण! मच्छेन्द्र, गोरक्ष, जालंधर, गहनी, अडभंग, चौरंग, भर्तरी, चर्पट तथा नागनाथ – ये नवनाथ हैं. इनके स्मरण मात्र से ही शुभफल की सिद्धि
होती है. नवनाथों का स्मरण करने वालों पर श्री दत्त प्रभु की अपार कृपा रहती है.
कलियुग के प्रारम्भ से पूर्व श्रीकृष्ण ने उद्धव जैसे महान भक्त सहित, साथ ही
समस्त यादवों के साथ चर्चा करके आज नवनाथों के नाम से प्रसिद्ध नवनारायणों का
स्मरण किया था.”
“ऋषभ चक्रवर्ती के सौ
पुत्र थे. उनमें से नौ पुत्रों का जन्म नारायण के अंश से हुआ था. इसलिए उन्हें
नवनारायण कहते हैं. उनके नाम हैं – १. कवि २. हरी ३. अंतरिक्ष ४. प्रबुद्ध ५.
पिप्पलायन ६. अविर्होत्र ७. दृमिल ८. चमस एवँ ९. करभाजन. ये सभी अवधूत स्थिति में
रहने वाले सिद्ध पुरुष थे. मेरी आज्ञा के अनुसार इन नवनारायणों ने धर्मं
संस्थापनार्थ नवनाथों के नाम से पुनः पृथ्वी पर अवतार धारण किया.
प्रथम पुत्र ‘कवि’ ने “मच्छेन्द्रनाथ” के नाम से जन्म लिया.
अंतरिक्ष ने “जालंदर” के रूप में जन्म लिया. इनके शिष्य के रूप में प्रबुद्ध ने
“कानिफा” नाम से जन्म लिया. पिप्पलायन ने “चर्पटनाथ” के नाम से, अविर्होत्र ने “नागेशनाथ” के नाम से जन्म लिया.
दृमिल ने “भर्तरिनाथ” के नाम से, चमस ने “रेवणनाथ” के नाम से और करभाजन ने “गहनीनाथ” के नाम से जन्म लिया.
सृष्टि पर अनेक स्थानों पर किसी कारण से ब्रह्मा का वीर्य गिरा. इससे अनेक ऋषि
जन्म लेंगे ऐसा व्यास मुनि ने अपने ‘भविष्य पुराण’ में कहा था.
उपरिचर नामक एक वासु था.
उसने एक बार ऊर्वशी को देखा और उस पर अत्यंत मोहित हो गया. इस समय उसका वीर्य
द्रवित होकर यमुना के जल में गिरा. उसे एक मछली निगल गई. इस मछली से मच्छेन्द्रनाथ
का जन्म हुआ. कामदेव को शिव जी ने क्रोधित होकर अपनी ललाटाग्नि से भस्म कर दिया.
उस भस्म में मन्मथ का आत्मा सूक्ष्म रूप से विद्यमान था. बृहद्रथ ने जब यज्ञ किया
था तो उस यज्ञकुंड से जालंदरनाथ का आविर्भाव हुआ. रेवा नदी अर्थात् आज की नर्मदा
नदी. इस नदी में गिरे हुए ब्रह्म वीर्य से रेवणनाथ का जन्म हुआ.
एक बार थोड़ा सा
ब्रह्मवीर्य एक नागिन के सिर पर पडा. इसे भक्ष्य समझ कर नागिन ने खा लिया. इस कारण
वह नागिन गर्भवती हो गई. इसी समय जनमेजय राजा सब नागों, सर्पों को नष्ट करने के लिए सर्प यज्ञ कर रहा था. ब्राह्मणों के
मंत्रोच्चारण के साथ ही सैंकड़ों नाग यज्ञ कुण्ड में आ आकर गिरने लगे. इस महा भयानक
नाग यज्ञ से बचाने के लिए तक्षक की पुत्री को एक बड़े वटवृक्ष के बिल में छिपाया
गया. इस गर्भपिन्ड से अविर्होत्र का जन्म होने वाला था, इसलिए उस अंडे को उस बिल में रखकर तक्षक की पुत्री स्वस्थान को चली गई.
यथावकाश उस अंडे में से वटसिद्ध नागनाथ का जन्म हुआ.
जब मच्छेन्द्रनाथ देश
भ्रमण करते समय एक स्थान पर रुके, उनके दर्शनों के लिए अनेक लोग आते थे. एक बाँझ स्त्री ने मच्छेन्द्रनाथ को
प्रणाम किया एवँ अपनी व्यथा सुनाई. मच्छेन्द्रनाथ ने भस्म मंत्रित करके उसे दिया
परन्तु उस स्त्री ने अविश्वास से उस भस्म को कचरे के ढेर पर फेंक दिया. उस भस्म की
अमोघ शक्ति सम्पन्नता से उसमें से गोरक्षनाथ का जन्म हुआ.
पार्वती के विवाह के समय
पौरोहित्य कर रहे ब्रह्मदेव उसका अनुपम लावण्य देखकर उस पर मोहित हो गए और उनका
वीर्य स्त्रवित हो गया. इससे वह अत्यंत लज्जित हो गए और उन्होंने उस वीर्य को अपनी
जंघा पर पोंछ डाला. तत्क्षण उस वीर्य के साठ हज़ार भाग हो गए और उसमें से बालखिल्य
नामक साठ हज़ार ऋषियों का जन्म हुआ. जो थोड़ा सा भाग बचा था उसे कचरा समझ कर भागीरथी
नदी में फेंक दिया गया. वह कचरा नदी की घास में अटक कर वहीं रह गया. उसमें
पिप्पलायन की आत्मा ने प्रवेश किया और उससे चर्पटनाथ का जन्म हुआ.
कोलिक मुनि ने अपनी
पर्णकुटी से बाहर जाते समय अपना भिक्षापात्र पर्णकुटी से बाहर रख दिया था. इसी समय
सूर्य का तेज उस पात्र में गिरा. महर्षि को जब यह बात ज्ञात हो गयी तो उन्होंने उस
पात्र को संभाल कर रखा दिया. भिक्षापात्र का अर्थ “भर्तरी” भी होता है. उस पात्र
से एक नवनाथ का जन्म हुआ, अतः उनका नाम भर्तरिनाथ पड़ गया.
हिमालय में एक पर्वत के
एक घने जंगल में एक हाथी सो रहा था. एक बार जब ब्रह्मदेव सरस्वती पर मोहित हुए और
उनका वीर्य द्रवित होकर नीचे गिरा और उस हाथी के कान में जा गिरा. उस कान में से
प्रबुद्ध को जन्म प्राप्त हुआ. कान में से जन्म होने के कारण उनका नाम “कर्ण
कानिफा” पडा.
गोरक्षक ने संजीवनी
मन्त्र का जाप करते हुए भूमि पर मिट्टी में एक आकृति बनाई. उस आकृति में से करभाजन
को उस संजीवनी मन्त्र की सहायता से जीवन प्राप्त हुआ और उन्होंने गहनीनाथ के नाम
से अवतार लिया.
श्रीकृष्ण भगवान की
आज्ञानुसार इन नवनारायणों ने अपने स्थूल शरीर को मंद पर्वत पर समाधि अवस्था में
संभाल कर रखा और अंशावतार से नवनाथों के नाम से पृथ्वी पर जन्म लिया. धर्मं
संस्थापना का महान कार्य करने के लिए ही इन नवनाथों का अवतार हुआ था.”
नवनाथों के जन्म के संबंध
में श्रीपाद प्रभु के मुख से यह आश्चर्यजनक वर्णन सुनकर हम मंत्रमुग्ध हो गए. हमने
प्रभु के चरणों में वंदन करके उनकी जय जयकार की. इसके बाद मैंने पूछा, “प्रभु! नवनाथों के अवतार नव नारायणों के
अंशावतार हैं, ऐसा आपने कहा, क्या नवनाथों एवँ नव नारायणों में कोई अंतर है?”
अपनी दिव्य, प्रेमपूर्ण दृष्टी से हमारी और देखते हुए प्रभु
ने मंद हास्य किया और बोले, “श्रोतागण! समस्त सृष्टि के महासंकल्प का स्वरूप मैं ही हूँ. देवी-देवताओं
के कार्य करने के संकल्प भी मेरे महासंकल्प के अंश मात्र होते हैं. इन अंश मात्र संकल्पों
को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता रहती है. यह स्वतंत्रता वैसी ही होती है, जैसे खेत में पेड़ से बंधी हुई गाय को चरने के
लिए दी जाती है. उसी प्रकार कर्मसूत्रों का अनुसरण करते हुए अंशावतारों को
स्वेच्छा प्रदान की जाती है. परन्तु संकल्प मूल तत्व से ही निकलते हैं. उनका योग्य
प्रकार से नियंत्रण करना अंशावतार का कार्य होता है. किसी भी प्रकार की समस्या के
निर्माण होने पर अंशावतार उसके निराकरण हेतु मूलतत्व के पास निवेदन लेकर आते हैं.
मूलतत्व से अनुमति प्राप्त कर जीवों का कल्याण करते हैं. इस अंशावतार में क्रोध, लोभ, मद-मत्सर, अहंकार जैसे मानवीय दुर्गुण नहीं होते. इस कारण मूल तत्व की
कार्य-सामर्थ्य अंशावतार में भी प्रतिलक्षित होती है. इस कारण से अंशावतार एवँ
पूर्णावतार में कोई अंतर नहीं होता.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय 33
रमणी एवँ नरसिंह रायुडु का विवाह स्वयँ श्रीपाद प्रभु ने
करवाया
हम दोनों ने श्रीपाद प्रभु से आज्ञा ली. वे बोले, “बेटा, तुम लोग यहाँ से निकलकर श्री पीठिकापुरम् जाओ.
मेरे मंगल आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं. श्री महागुरु की आज्ञा शिरासावंद्य मानकर हम
दोनों कृष्णा नदी पार करके दूसरे किनारे पर पहुंचे. वहाँ एक पत्थर पर श्रीपाद
प्रभु की चरण मुद्रा देखी. श्रीपाद प्रभु नित्य उसी पत्थर पर खड़े होकर सूर्य
नमस्कार किया करते थे. श्री चरणों के चरण कमल वहाँ देखकर हमें आश्चर्य हुआ एवँ
अतीव आनंद हुआ.
हम पंचदेवपहाड़ ग्राम पहुंचे. वहाँ अल्पाहार करके आगे की यात्रा पर निकल पड़े.
एक ज्वार के खेत से जब हम पगडंडी से गुज़र रहे थे तो उस खेत के मालिक ने हमारा
स्वागत किया. खाने के लिए मीठे फल और पीने के लिए मीठी छाछ दी. उस मालिक का नाम था
नरसिंह रायुडु. उसने खेत में ही अपना घर बनाया था और वहीं वह रहता था. उसने विनती
की कि हम एक दिन उसके यहाँ विश्राम करें, उसका आदरातिथ्य स्वीकार करें और फिर आगे
जाएँ. उसकी बात सुनते हुए हम एक दिन वहाँ रुक गए. उसने श्रीचरणों के वैभव के बारे
में बताना आरम्भ किया.
वह बोला, “बंधू, मेरा नाम नरसिंह रायुडु है. मैं बचपन में अत्यंत दुर्बल तथा डरपोक था. मेरे
माता-पिता की मेरे बचपन में ही मृत्यु हो गई थी. मैं अपने मामा की छत्रछाया में बड़ा
हुआ. मेरी मामी बड़े क्रोधी स्वभाव की थीं. मुझे घर में खूब काम करना पड़ता था, साथ
ही खेत में भी काम करना पड़ता.”
“मेरे मामा की एक पुत्री थी. उसका नाम था रमणी. पूरे गाँव में, हमारे कुलस्थों में, सभी लड़कियों से बढकर सुन्दर थी रमणी. वह सद्गुण संपन्न थी, ईश्वर के प्रति
उसके ह्रदय में भक्ति थी. वह श्रीकृष्ण भगवान को अपना आराध्य देव मानती थी. मेरी
मामी मुझे बासा अन्न खाने को देती, यह बात उसे सहन न
होती थी. मेरा आहार बहुत कम था. घर में किसी के भी मन में मेरे प्रति आदर की भावना
न थी, मगर काम का तो मेरे सामने सदा पहाड़ ही खडा रहता था. रमणी छुपा छुपाकर मुझे
ताज़ा अन्न एवँ मीठे फल लाकर दिया करती. कभी कभी मामी की नज़र में यदि यह बात आ जाती, तो मेरे साथ साथ उसे भी दंड मिलता. मेरे मामा
स्वभाव से भले थे, परन्तु पत्नी के सामने उनकी एक न चलती थी. वे
उसके सम्मुख असमर्थ ही थे. कभी कभी मामी हमारे कुल के मुझसे अधिक बलवान लड़कों को
बुलाकर मुझे मारने के लिए कहती थी. मेरी दुर्बलता के कारण मैं उनका विरोध न कर
पाता. इससे मेरा डर तथा दुर्बलता और बढ़ती जाती. मुझसे छोटे लड़कों के सामने भी मैं
असमर्थ एवँ असहाय प्रतीत होता था. वे मेरा मज़ाक उड़ाते. इस प्रकार का कष्टमय जीवन
मैं जी रहा था.
हमारी रमणी बहुत सुन्दर थी, इस कारण गाँव के
हमारे कुल के सभी युवकों की उससे शादी करने की इच्छा थी, परन्तु रमणी को मुझसे ही शादी करनी थी. मेरे
पास धन तो नाम मात्र को नहीं था, ऊपर से दुर्बल शरीर
एवँ डरपोक स्वभाव होने के कारण यह कैसे संभव हो पायेगा यह समस्या थी. हमारे मामा
बहुत धनवान थे, स्वभाव से बहुत अच्छे थे, परन्तु उन्हें पैसों की बड़ी लालसा थी. मामी
स्वभाव से तो दुष्ट थी, परन्तु यदि उसकी
तारीफ की जाती तो वह फंस जाती थी.
हमारी रमणी रोज़ श्रीकृष्ण भगवान से प्रार्थना करती थी कि मैं ही उसका पति
बनूँ. एक बार हमारे गाँव में एक ढोंगी
साधू आया. सारे गाँव में यह बात फ़ैल गई कि वह काली माता का भक्त है एवँ उसे भूत, भविष्य एवँ वर्तमान का ज्ञान है. उसे
भूत-भविष्य जानने की विद्या अवगत थी. गाँव में उसका बताया हुआ भविष्य शत-प्रतिशत सच
हुआ था. हमारी मामी पर उसने अपना माया जाल फेंका और उससे कहा कि घर में काली पूजा
का आयोजन करे. पूरी तैयारी कर ली. उसने मामी से कहा कि रमणी की पूजा वाली
श्रीकृष्ण की मूर्ती घर से बाहर फेंक दे. मामी मान गई. रमणी तड़पने लगी, विलाप करने लगी, मगर मामी पर कोई असर न हुआ. उस ढोंगी साधू ने पूजा आरम्भ की. अनेक
मुर्गियों की बलि दी. उन मुर्गियों के खून से पूजाघर की और देखा नहीं जाता था. घर
में मनुष्य का कपाल एवँ श्मशान-साधना की सामग्री भी आ गई. वह पूजा संपूर्ण होने पर
इस घर में किसी स्थान पर अपार धन लाभ होगा, परिवार ऐश्वर्य संपन्न हो जाएगा, ऐसा कहकर उस ढोंगी साधू ने सबका विश्वास
प्राप्त कर लिया. उस साधू को वशीकरण विद्या का ज्ञान था. उस विद्या की सहायता से
उसने रमणी का शील हरण करने की योजना बनाई. इस उद्देश्य से वह घर में चित्र-विचित्र
प्रकार की पूजाएँ कर रहा था, फलस्वरूप रमणी की
प्रकृति क्षीण होती गई. उसके बर्ताव में अंतर आ गया. आधी रात को उठकर वह रक्तपान
करने लगी. मुर्गियां और बकरे मार-मार कर उसे वह खून पिलाया जा रहा था. उसके शरीर
में कालिका माता का संचार हो गया है, इसीलिये वह रक्तपान
करती है; खून के बिना माता शांत नहीं होती और माता की
कृपा न होने पर अपार संपत्ति का लाभ नहीं होगा. उसके शरीर से कालिका माता निकल
जाने पर ही यह कन्या पूर्ववत् होगी ऐसा उस साधू ने कहा.
घर में वीभत्स का तांडव चल रहा था. अचानक रसोई घर से बर्तन बाहर निकल-निकल
कर कुएँ में गिरते. आधी रात को मानव कंकालों जैसी आकृतियाँ घर में दिखाई देतीं और
डरावनी आवाजें आतीं. हमारा घर श्मशान भूमि जैसा ही दिखाई दे रहा था. उस साधू को
निकाल बाहर करने का धैर्य हमारे मामा में नहीं था. थोड़े दिनों तक यह कष्ट सहन करने
से अथाह संपत्ति प्राप्त होगी इस आशा में मामी दिन बिता रही थी. परिस्थितियाँ बड़ी
असमंजस की एवँ चिंताजनक थीं.
एक बार रात को अचानक वह साधू रमणी के निकट गया, वह वशीकरण के प्रभाव में थी. वह उसकी आज्ञा का पालन करेगी और उसकी इच्छा
पूर्ण करेगी इस विचार से वह साधु उसके बिलकुल समीप पहुँचा. रमणी जोर से चिल्लाई और
पास ही पडी हुई एक वज़नदार चीज़ उसने उस साधु के सिर पर दे मारी. साधु को उससे ऐसे
व्यवहार की बिलकुल आशा न थी. वशीकरण के पश्चात भी व्यक्ति इस प्रकार का व्यवहार
कैसे कर सकता है, साधु यह बात समझ न पाया.
श्रीपाद प्रभु का
आर्त परायण तत्व
दूसरे दिन सुबह एक गरीब ब्राह्मण
याचक हमारे द्वार पर भिक्षा के लिए आया. रमणी ने उससे कहा कि हमारे घर में भूत
प्रेतों का वास्तव्य है, चाहें तो उन्हें ही आप भिक्षा स्वरूप स्वीकार करें ब्राह्मण ने इनकार कर
दिया.
उस ब्राह्मण का मुख कमल
अत्यंत शांत एवँ सोज्ज्वल था. हमारे मामा
बाहर आये और बोले, “हमारे घर की परिस्थिति अत्यंत चिंताजनक है, इन परिस्थितियों की कारक दुष्ट शक्तियों को आप दान स्वरूप स्वीकार करें,”
तभी मामी भी बाहर आई और बोली, “हमारे घर में आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है. हमारे घर का दारिद्र्य
भिक्षा स्वरूप स्वीकार करें.” मैं भी तब वहीं था. मैंने कहा, “स्वामी, मेरे पास वंश पारंपरिक एक चांदी का ताबीज़ है. यदि आपकी सम्मति हो तो वह
ताबीज़ मैं आपको अर्पण करता हूँ, इसे भिक्षा स्वरूप स्वीकार करें.”
ब्राह्मण ने ताबीज़
स्वीकार कर लिया. तभी वह ढोंगी साधू श्मशान से मानव कपाल लेकर आया. वह अट्टहास
करते हुए बोला, “अरे भिक्षुक ब्राह्मण! तू मना करेगा तब भी मैं इस मानव कपाल को तुझे
भिक्षा में दूँगा. इसका तू स्वीकार कर!” उस ब्राह्मण ने इस भिक्षा को अस्वीकार कर
दिया.
तभी हमारे घर में एक
दिव्य प्रकाश दिखाई दिया और वह भिक्षुक ब्राह्मण अदृश्य हो गया. उस दिव्य प्रकाश
के कारण उस ढोंगी साधू के पूरे शरीर में भयानक दाह होने लगा. उस प्रकाश की किरणें
रमणी के शरीर पर पडीं और वह एकदम पूर्ववत् हो गई. मामी को लकवा मार गया और वह भूमि
पर गिर पडी. मामा भय से थरथर कांपने लगे. मगर मुझमें अपार धैर्य का संचार हो गया.
मुझमें शक्ति का प्रवेश होकर मैं अत्यंत बलवान हो गया. उस मान्त्रिक के मुँह से
खून की धाराएं बहने लगीं और उसके भीतर की सभी शक्तियां नष्ट हो गईं.
वह दिव्य तेजोमय प्रकाश
एक मानव के रूप में परिवर्तित हो गया. वे आर्तत्राण परायण, समस्त देवी-देवता
स्वरूपी, आदि, मध्य तथा अंत से रहित दिव्य, भव्य तेजोमय स्वरूप
वाले श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ही थे.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
बोले, “वास्तव में देखा जाए तो
काली माता मानव के भीतर छिपे हुए काम क्रोधादि राक्षसों का संहार करती है. वह कभी
भी मुर्गियां, बकरे आदि नहीं मांगती. इस प्राणमय जगत में राक्षस शक्ति ही कालिका रूप
धारण करके विभिन्न प्रकार के प्राणियों की बलि मांगती है. वास्तविक काली माता के
लक्षण हैं प्रेम, शान्ति, दया आदि.”
“इस प्राणमय जगत की
राक्षसी शक्तियां, आसुरी शक्तियां, भूत-प्रेतादि शक्तियां ऐसा प्रचार करती हैं, कि वे देवता हैं, और क्षुद्र विद्या का प्रदर्शन करती हैं. क्षुद्र मान्त्रिक इनकी उपासना
करके लोगों में आतंक फैलाते हैं. याद रखो कि विभिन्न प्रेतात्माएं देवताओं के शरीर
तो धारण कर सकती हैं, मगर उन देवताओं की दैवी शक्तियां उनके पास नहीं होतीं.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “मैंने यह वचन दिया है कि मेरा अवतार धर्म
रक्षणार्थ होता है. उसके अनुसार धर्म संस्थापनार्थ ही श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का
अवतार हुआ है. यह अवतार दया, शान्ति, प्रेम, करुणा जैसी अनंत शक्तियों का मिश्रण है.”
हमारे घर की शुद्धि करके
उस ढोंगी साधु को भगा दिया गया. श्रीपाद प्रभु के अनुग्रह से मामी भी ठीक हो गई.
श्रीपाद प्रभु ने हमें
आशीर्वाद देकर अपने हाथों से मेरा और रमणी का विवाह करवाया. उस समय वे मुश्किल से
बारह वर्ष के थे. श्रीपाद प्रभु का वास्तव्य तब पीठिकापुरम् में ही था, मगर
मायारूप में वे पंचदेव पहाड़ नामक ग्राम में भी रहते थे. उन्होंने हमें ये अक्षता
(चावल) दिए थे और कहा था कि शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त नाम के दो व्यक्ति आएँगे, उन्हें इसमें से धोडी सी अक्षता दे दूं. अहा!
कितना लीलामय स्वरूप है श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का!”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो ।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३४
शरभेश्वर का वृत्तांत
हम दोनों कई दिनों तक
चलकर एक गाँव में पहुंचे. रास्ते में हम श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का नामस्मरण
करते, उनकी अलौकिक लीलाओं को याद करते हुए जा रहे थे. मार्ग में हमारा आदरातिथ्य
भी होता था. कभी बैलगाड़ी मिल जाती, कभी कोई घोड़ा गाडी तो कभी-कभी पैदल चलना पड़ता था. हमारी यात्रा के मार्ग
में श्रीपाद प्रभु के भक्तों द्वारा आदरातिथ्य किया जा रहा था, यह सब परोक्ष रूप से श्रीपाद प्रभु की लीला ही
थी.
उस गाँव में पहुँचते ही
हमने देखा कि एक ब्राह्मण के घर उसका सारा सामान बाहर फेंका जा रहा है. ब्राह्मण
की पत्नी एवँ बच्चे घर में ही थे. इस ब्राह्मण ने साहूकार से थोड़ा क़र्ज़ लिया था, जिसे वह वापस नहीं कर पाया. एक दिन साहूकार ने
ब्राह्मण को रास्ते में ही रोक लिया और उसके चारों और कोयले से एक गोल घेरा बनाकर
ब्राह्मण को धमकाया कि वह उस घेरे से बाहर न आये. साहूकार ने क्रोध में ब्राह्मण
से कहा कि अपने पवित्र यज्ञोपवीत की शपथ लेकर बताए कि कितने दिनों में उसके पैसे
वापस करेगा. मैं आपके पैसे दो सप्ताह में वापस कर दूँगा, ऐसा ब्राह्मण ने आश्वासन दिया, परन्तु पंद्रह दिनों में वह धन की व्यवस्था
न कर सका, और वह अपने वचन का पालन
न कर सका. समयावधि समाप्त हो जाने पर भी अपना पैसा प्राप्त न होने के कारण वह
साहूकार ब्राह्मण के घर का सामान रास्ते पर फेंक रहा था. ब्राह्मण, उसकी पत्नी तथा बच्चे सभी उदास होकर देख रहे
थे. गाँव के लोग बस तमाशा देख रहे थे. किसी ने भी साहस जुटाकर साहूकार से यह नहीं
कहा कि ब्राह्मण को कुछ और दिनों का समय दे दे.
श्रीपाद प्रभु की भक्ति परिक्षा
एवँ
भक्तों को तारना
श्री धर्मगुप्त को
ब्राह्मण की यह अवस्था देखकर बड़ी दया आई, परन्तु सहायता करने के लिए उनके पास धन नहीं था, और मैं तो निर्धन ही था. परन्तु मैंने धैर्य करके कहा, “बाबा! इस दुर्बल ब्राह्मण को दया करके और दो
महीने का समय दे दो. इस अवधि में श्रीपाद श्रीवल्लभ की कृपा से उसके कष्ट दूर हो
जायेंगे. थोड़ी शान्ति से विचार करो. इसका कर्जा चुकाने की ज़िम्मेदारी मेरी है, ऐसा ही समझा लो.” कहने को तो मैंने ऐसा कह दिया, पर मन में अत्यंत भयभीत था. साहूकार ने कहा, “ठीक है! तुम्हारी बात पर विश्वास करके मैं इसे
और दो महीने की अवधि देता हूँ. मेरा धन वसूल होने तक तुम दोनों यहाँ से कहीं मत
जाना. मान लो, यदि निश्चित अवधि में इसने मेरा धन वापस नहीं किया, तो इसके घर पर तो कब्ज़ा कर ही लूँगा, साथ ही बिचौलियापन करने
के लिए तुम दोनों को भी अदालत में घसीटूँगा. तब न्यायाधीश जो भी सज़ा सुनाएँगे, वही तुम दोनों को भी भुगतनी पड़ेगी.”
मुझे और धर्मगुप्त को तो
यह असंभव ही प्रतीत हो रहा था कि ब्राह्मण इस अवधि में क़र्ज़ चुका पायेगा. बिना
सोचे-समझे, अविवेक से, मैंने वचन दे दिया था. इस अविचारपूर्ण बर्ताव
के लिए मैं स्वयँ को ही कोस रहा था. इस मामले में श्रीपाद प्रभु को दोष देना उचित
नहीं था. मैंने अपने साथ-साथ धर्मगुप्त को भी संकट में डाल दिया था. यह भी एक
प्रकार से पाप कर्म ही मुझसे हो गया था. जुबान को लगाम न देने से कितना अनर्थ हो
जाता है, यह इसीका उदाहरण था.
परन्तु प्रभु की लीला अपरंपार है, उसका कोई अंत ही नहीं है. ऐसी परिस्थिति में
मानव की प्रभु के ऊपर भक्ति दृढ़ हो जाती है, अथवा वह भक्तिहीन हो जाता है.
मैं अति चिंतित था, मगर धर्मगुप्त
निश्चिन्त थे. वे बोले, “शंकर भट्ट! बीती
हुई घटना पर विचार नहीं करना चाहिए. जो हो चुका है, जो हो रहा है, तथा आगे होने वाला
है, अर्थात् भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान सब प्रभु की लीला है. जो ब्रह्मलिखित है, वही होगा, उसे तो टाला नहीं जा सकता.”
ब्राह्मण पूरी तरह निर्धन एवँ दरिद्री हो चुका था. वह और उसके परिवार के सब
लोग भूखे ही रहते थे. हम उनके घर में अतिथि थे, अतः हमें भी भूखा रहना पड़ता था. परिस्थिति बड़ी दयनीय थी. श्रीपाद प्रभु के
अनुग्रह से रहने को स्थान तो मिल गया था, हम उनके आभारी थे. भूख, प्यास, थकान होने पर, लेनदारों के आने पर श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का नाम ही एकमेव
तरणोपाय है, ऐसा दृढ़ विश्वास मन में अवश्य था. हमने स्नान
संध्या करने के उपरांत श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करने का निश्चय किया. उस
ब्राह्मण के घर में भगवान के सम्मुख दिया जलाने के लिए बाती भी नहीं थी. हम जोर
जोर से, ऊंचे सुर में “श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये” गाते जा रहे थे. घर के सभी
सदस्य हमारे साथ इसी मन्त्र का जाप कर रहे थे. पड़ोस के आबाल वृद्ध लोग जमा हो गए
और भक्ति भाव से नाम स्मरण करने लगे.
ब्राह्मण के घर एक किसान आया है, ब्राह्मण का क़र्ज़
चुकाने की ज़िम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली है, तभी यह बात भी चारों और फ़ैल गई कि मैं किसी महापुरुष का शिष्य हूँ और अपनी
दैवी शक्ति के बल पर ही ब्राह्मण का ऋण चुकाने को सिद्ध हुआ हूँ, ऐसा गाँव के लोग
समझ बैठे. उन्होंने गाँव में यह भी प्रचार किया कि मैं बहुत बड़ा ज्योतिषी हूँ.
उस गाँव में किसानों को शर्त लगाने की लत थी. मैं उस ब्राह्मण का ऋण चुका
पाऊंगा या नहीं इस प्रश्न पर किसान शर्त लगा रहे थे. यदि मैंने ब्राह्मण का ऋण न
चुकाया तो हमें न्यायालय में घसीटा जाने वाला था. मेरे साथ-साथ धर्मगुप्त भी संकट
में पड़ गए थे. मेरे केवल वाग्दान पर लोग शर्तें लगा रहे थे. यह एक तरह से सट्टा ही
खेला जा रहा था. इसका कारण था मेरे द्वारा दिया गया वचन. क्या किया जाए कुछ समझ
में नहीं आ रहा था. ऐसी परिस्थिति में हमने केवल श्रीपाद प्रभु के नाम स्मरण का ही
सहारा लिया. मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं इसके लिए भी योग्य नहीं हूँ.
‘मैं एक बड़ा ज्योतिषी हूँ, देवी शक्ति से संपन्न हूँ’, ऐसा प्रचार चल ही रहा था. परन्तु दिव्य, क्षण-क्षण लीलाविहारी श्रीपाद प्रभु के चरण कमल ही मुझे इस
संकट से उबारेंगे इस दृढ़ विश्वास के भरोसे मैं बैठा था. मुझे ‘सत्यं विधातुं निज
भृत्यु भाषितं’ इस नारद मुनि द्वारा श्री महाविष्णु को कहे गए वाक्य का स्मरण हो
आया. नारायण के भक्त जिन शब्दों का उच्चार करते हैं, उन शब्दों को सत्य सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी नारायण प्रभु की
ही होती है.
उस गाँव में शरभेश्वर शास्त्री नामक एक पंडित रहता था. वह बड़ा
भारी मन्त्र शास्त्रवेत्ता था. उस पर एक प्रेतात्मा का अनुग्रह था. इस बल पर वह
भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान का अचूक वर्णन करता
था. जिन किसानों ने मुझ पर शर्त लगाई थी,
वे शरभेश्वर शास्त्री के पास यह पूछने के लिए गए कि शर्त का क्या होगा? उस प्रेतात्मा ने बताया कि ब्राह्मण साहूकार का क़र्ज़ लौटा
नहीं पायेगा. इसके बाद तो शर्तों ने और जोर पकड़ लिया और सौ-सौ वराहों की शर्त लगी.
शर्त लगाने वाले इस बात को जानने के लिए अति उत्सुक थे कि शरभेश्वर शास्त्री बड़ा
है या शंकर भट्ट बड़ा है.
आखिरकार हमें पुरानी हवेली में ले जाकर न्यायालय ले जाने के
लिए तैयार किया गया. उस ब्राह्मण के मन में आशा जगाकर मैंने उसे निराश किया था,
धर्मगुप्त को भी अपने साथ संकट में डाला था. श्रीपाद प्रभु की दिव्य लीला का गूढार्थ क्या होगा, यह मैं समझ नहीं पा रहा था. मैंने थोड़ी बहुत शिक्षा पाई
थी, परन्तु मेरे पास किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति
नहीं थी, ज्योतिष विद्या तो मुझे लेशमात्र भी नहीं आती थी. जप-तप, योगाभ्यास, नियम-निष्ठा आदि का तो बिलकुल भी
ज्ञान नहीं था. श्रीपाद प्रभु के चरित्र लेखन का संकल्प मैंने कुतूहलवश किया था, परन्तु इसके लिए आवश्यक योग्यता मेरे पास नहीं थी. “मेरी
इस आपदा से रक्षा करके मेरा उद्धार करें, बाकी सब आपकी इच्छा पर निर्भर है”
ऐसी आर्त-प्रार्थना मैंने श्रीपाद प्रभु के चरणों में की. अचानक न जाने कैसे
मुझमें विलक्षण धैर्य आ गया. जो होने वाला है, वह तो होगा ही, परन्तु श्रीपाद श्रीवल्लभ इस
विपत्ती से मेरी रक्षा करेंगे ऐसा दृढ़ विश्वास मन में उत्पन्न हो गया.
शरभेश्वर शास्त्री की एक बहिन थी. वह भी उसी गाँव में रहती थी. उसने एक दिन
प्रात:काल सपने में देखा कि उसे तेज़ बुखार चढ़ा है, उसके पति की मृत्यु हो गई है और वह विधवा हो गई है. उसने अपने भाई से इस
सपने का फल पूछा. शरभेश्वर ने अपने भीतर उपस्थित प्रेतात्मा से उस सपने के बारे
में पूछा. उस प्रेतात्मा ने कहा, कि इसके पति को
परदेस में जाते समय मार्ग में चोरों ने घेर लिया और उसका सारा धन लेकर उसे मार
दिया.
यह सुनते ही वह जोर से विलाप करने लगी, अपने भाग्य को दोष देने लगी. तभी कुछ लोग उसके घर आये, उसे धीरज देने लगे और बोले कि अपने गाँव में
शंकर भट्ट नामक महापंडित आये हैं. उन्हें भूत एवँ भविष्य का ज्ञान है. श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु उनके आराध्य देव हैं. उनसे सत्यासत्य की जांच पड़ताल कर लो. यह
सलाह उसे लोगों ने दी. उसे ज्ञात न था कि उसके भाई से बड़ा कोई और पंडित भी है.
उसके मन में इच्छा हुई कि शंकर भट्ट से आशिर्वाद लिया जाए.
उसने हमारे घर आकर दीन वाणी से प्रार्थना की, “भैया! मेरे सुहाग की रक्षा करो!” यह सुनकर मेरा कलेजा पानी पानी हो गया. मुझे याद आया कि
श्रीपाद प्रभु के पास से पंचदेव पहाड़ ग्राम के किसान को विवाह समारंभ में अक्षता
प्राप्त हुई थी. उनमें से थोड़ी सी मेरे पास बची है. मुझमें एक दिव्य स्फूर्ति का
प्रादुर्भाव हुआ. ये मंत्राक्षता साक्षात श्रीपाद प्रभु के कर कमलों से प्राप्त
हुई हैं, इनसे इसके सुहाग की रक्षा निश्चित ही होगी, ऐसा
दृढ़ विश्वास मन में जागा. मैंने उस स्त्री को बुलाकर कहा, :बहन! ये मंत्राक्षता लो और अपने पूजा घर में
संभाल कर रखो. तुम्हारा पति कुछ ही दिनों में वापस आयेगा. यही सत्य है! त्रिवार
सत्य है!”
इस घटना की सूचना कुछ किसानों ने शरभेश्वर शास्त्री को दी. शरभेश्वर
शास्त्री को अपनी बहन पर बड़ा क्रोध आया.
“मेरा पति जब सकुशल वापस लौट आयेगा, तब मैं उस गरीब ब्राह्मण का कर्जा तो चुकाऊंगी ही, साथ ही शंकर भट्ट को गुरु मानकर श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु का नाम स्मरण तथा आराधना करूंगी,” ऐसा संकल्प उस स्त्री ने किया.
तीन दिन बीत गए. इन तीन दिनों में किसानों ने हमें सीधा-सामग्री लाकर दी. इन
किसानों ने ही मुझ पर शर्त लगाई थी, यदि मैं विजयी हुआ
तो उनकी भी जीत होगी और शर्त के पैसे उन्हें मिलने वाले थे.
चौथे दिन शरभेश्वर शास्त्री की बहन का पति देशाटन करके सकुशल घर वापस लौट
आया. उस ब्राह्मण स्त्री के आनंद की कोई सीमा ही नहीं थी. उस मंत्राक्षता के बल पर
ही उसके सुहाग की रक्षा हुई है, इसका उसे पूरा
विश्वास हो गया. उसके पति को मार्ग में चोरों ने मार डालने का प्रयत्न तो किया था, परन्तु एक यवन मल्ल ने उन चोरों को मार कर उस
ब्राह्मण की रक्षा की थी.
अहा! श्रीपाद प्रभु की महिमा अगाध है, अमोघ है. शरभेश्वर शास्त्री का अहंकार नष्ट हो गया. मेरा भविष्य सत्य सिद्ध
होने पर जिस घर में हम रुके थे, उसके मालिक का क़र्ज़
शरभेश्वर शास्त्री ने चुकाया और उन्होंने हमसे प्रार्थना की कि हम उनके घर
आदरातिथ्य स्वीकार करें. हम मान गए.
शरभेश्वर शास्त्री बोले, “बेटा! धूमावती देवी
दशमहाविद्या में से एक है. मैं उनका उपासक हूँ. वह बड़ी उग्र देवता है, परन्तु यदि
प्रसन्न हो जाए तो रोग, शोक आदि का नाश करती
हैं. कुपित होने पर सब सुखों का, सब कामनाओं का नाश
कर देती हैं. इन देवी की शरण में जाने से सभी विपत्तियों का नाश होकर सभी संपदाओं
की प्राप्ति होती है. यदि देवी क्रोधित हो जाए तो घर में उपवास, कलह, दारिद्र्य इत्यादि का आगमन होता है. मुझ पर धूमावती माता का अनुग्रह है.
टोना-टोटका आदि से त्रस्त
जनों का उद्धार करने के लिए इस देवी की उपासना अनिवार्य है. लोक कल्याण हेतु मैंने
कुछ दिनों तक बिनामूल्य सेवा की. परन्तु थोड़े दिनों में मेरे भीतर धन के प्रति
आसक्ति उत्पन्न हो गई और मैं अधिक धन स्वीकार करने लगा. माता को यह बात अच्छी नहीं
लगी. इसी समय मेरा एक बलशाली प्रेतात्मा से संबंध स्थापित हो गया. उसकी सहायता से
भूत, भविष्य, वर्त्तमान काल के बारे में कथन करने की शक्ति मुझे प्राप्त हुई.
प्रेतात्मा की, पहले तो, उपासना करनी ही नहीं चाहिए, और यदि करो तो उसकी शक्ति के कारण प्राप्त धन
का उपयोग प्रजा की सेवा के लिए, गरीबों को दान देने
के लिए करना चाहिए. ऐसा करने से प्रेतात्मा हमेशा हमारे वश में रहती है. ऐसा न
करने से वह प्रेतात्मा गलत भविष्य बताती है और ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करती है, कि उसके साधक का अपमान हो और वह निर्धन हो जाए.
इतना ही नहीं, उसके प्राण भी संकट में पड़ जाते हैं.
स्वार्थपूर्ण व्यवहार करने से अपनी संचित पुण्य राशि नष्ट हो जाती है. तब वह
प्रेतात्मा साधक के सामने कष्टों के पहाड़ खड़े करती है. इससे बाहर निकलना आसान नहीं
होता.
मैंने अविवेकवश धनार्जन किया और हमेशा अपने ही स्वार्थ के बारे में सोचता
रहा. इसीलिये इस प्रेतात्मा ने गलत भविष्य बताकर मुझे संकट में डाल दिया और मेरा
अपमान भी हुआ. आज से आप ही मेरे गुरु हैं. कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में
स्वीकार करे, यह नम्र प्रार्थना है.” इस पर मैंने कहा, “बाबा! इस सृष्टि का, इस प्रपंच का गुरुत्व करने का अधिकार केवल
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को ही है. उनके सिवा कोई अन्य गुरु है ही नहीं. यदि मैंने
अहंकारवश गुरुत्व स्वीकार कर लिया तो तुम्हारे अपमान से भी ज़्यादा कुछ और मुझे
भोगना पडेगा. हम जब कुरुगड्डी से निकल रहे थे, उस समय श्रीपाद प्रभु ने
दशमहाविद्याओं का संक्षिप्त वर्णन किया था. शेष भाग वह योग्य समय आने पर बताएंगे.
दशमहाविद्याओं में से काली के बारे में, धूमावती के बारे में उन्होंने हमें बताया
ही है.” “ बाबा! तुम मुझे गुरु न बनाओ!
श्रीपाद प्रभु के लिए भक्तों को संकट में डालना और फिर उनसे मुक्त कराना एक
चमत्कार के समान ही है. सदा सर्वदा श्रीपाद प्रभु का नाम स्मरण करना ही इह तथा
परलोक का साधन है.”
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३५
उग्र तारा देवी का वर्णन
तारा देवी के उपासकों के दुष्कर्मों की श्रीपाद प्रभु
द्वारा सज़ा एवँ
करुणा कटाक्ष
शरभेश्वर शास्त्री की आज्ञा लेकर हमने आगे की यात्रा आरम्भ की. श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु का नाम स्मरण करते हुए हम चले जा रहे थे. थोड़ी दूर जाने पर हमें एक
आश्रम दिखाई दिया. उस आश्रम में एक सिद्ध महर्षि रहते थे. वे पूर्णतः वैरागी थे.
उन्होंने कौपीन धारण की थी. दो शिष्य आश्रम के द्वार पर खड़े थे. हमें देखते ही
उन्होंने पूछा, “क्या आप ही शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त हैं?” हमने उत्तर दिया, “हाँ, हम ही हैं.” वे हमें अन्दर ले गए. वहाँ तारा देवी की मूर्ति थी. वे
सिद्ध महर्षि तारा देवी के उपासक थे, ऐसा ज्ञात हुआ.
मध्याह्न समय हो चुका था. पूजा के उपरांत भजन प्रारम्भ हुआ, तत्पश्चात भोजन दिया गया.
सिद्ध बोले, “आपके आने की पूर्व सूचना श्रीपाद प्रभु ने
पहले ही दी थी. श्रीपाद प्रभु के आदेश से ही आपका आदरातिथ्य किया गया. मैं तारा
देवी का उपासक हूँ. यह माता भक्तों को सदैव मोक्ष प्राप्ति देकर उन्हें तारती है
इसीलिये इन्हें “तारा देवी” कहते हैं और यही नाम प्रचलित हो गया है. इस माता की
कृपा से अकस्मात् वाक्शक्ति का प्रसाद प्राप्त होता है, इसलिए इनका नाम “नील सरस्वती” भी है. माता भयंकर विपत्ति से भक्तों की
रक्षा करती है.
प्राचीन काल में हयग्रीव नामक तीन व्यक्ति थे. १. विष्णु मूर्ति का अवतार
हयग्रीव, २. हयग्रीव महर्षि और ३. हयग्रीव राक्षस. तारादेवी ने हयग्रीव राक्षस का
वध किया था, इस कारण से वह “नील विग्रह रूपिणी” नाम से
प्रसिद्ध हुईं.
इस देवी की कृपा से अति सामान्य मानव भी बृहस्पति के समान विद्वान हो जाता
है. भारतवर्ष में तारादेवी की उपासना सर्वप्रथम वशिष्ठ महर्षि ने की थी. इस कारण
इस माता का नाम “वशिष्ठ आराधिता” पड़ गया है.
मैं तारा देवी का उपासक हूँ, परन्तु मुझे कभी भी
तारा देवी के दर्शनों का लाभ नहीं हुआ. मैंने मिथिला देश के महिषी ग्राम में स्थित
उग्रतारा पीठ के दर्शन किये. यहाँ तारा, एकजटा तथा नील सरस्वती – ऐसी त्रिमूर्ति एक ही साथ है. मध्य में ऊँची
मूर्ती है और दाएं-बाएँ उससे थोड़े छोटे आकार की मूर्तियाँ हैं. यहीं पर वशिष्ठ
महर्षि ने तारोपासना करके सिद्धी प्राप्त की थी, ऐसा गाँव के वयोवृद्ध लोगों ने बताया.
मैं जैसे ही उग्रतारा देवी के दर्शन करके बाहर आया, मैंने अपने सामने एक सुन्दर एवँ आकर्षक बालिका
को देखा. उसके पैरों के पैंजन की आवाज़ अति मधुर थी. वह बालिका छम्—छम् करती चल रही थी और उसके पैंजनों की ध्वनि मेरे
ह्रदय में प्रतिध्वनित हो रही थी. उस बालिका ने मुझसे पूछा, “बाबा! कहाँ-कहाँ और कितना भटकोगे? मेरे दर्शनों के लिए ही इस संपूर्ण लोक का
चक्कर लगा रहे हो, यह सच है ना?” यह सुनकर मैं आश्चर्यचकित हो गया. क्षण भर को मेरे मन में विचार कौंध गया
कि कहीं यह बालिका ही तो तारादेवी नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण ऐसा प्रतीत हुआ कि वह कोई अन्य बालिका है. तारादेवी तो शिव के कपाल पर
प्रत्यलीढ़ मुद्रा में बैठी हुई होती हैं, वह नीलवर्णी, त्रिनेत्री हैं और
उनके हाथों में कैंची, कपाल, कमल तथा खड्ग होता है. वह व्याघ्रचर्म धारण
करती हैं और गले में मुण्डमाला धारण करती हैं. वह भोग-मोक्ष प्रदान करने वाली हैं –
ऐसा है उस मंगलमयी देवी का असली रूप. परन्तु जिसे मैंने अभी देखा वह बालिका १२-१३
वर्षों की मनमोहक स्वरूपिणी है. अतः मैं आश्चर्यचकित था. कुछ भी कह नहीं सका. तभी
उस बालिका का शरीर अत्यंत तेजस्वी होकर एक बालक के रूप में परिवर्तित हो गया. उस
बालक के नेत्र योगियों के नेत्रों जैसे अत्यंत दयार्द्र एवँ शांत थे, उसका रंग सुवर्ण कांति जैसा था, वह स्वरूप अत्यंत दिव्य एवँ तेजस्वी था. उस
बालक के दोनों पैरों में पैंजन थे. “मेरे पैरों के ये पैंजन कस गए हैं, क्या तुम उन्हें निकाल सकते हो?” बालक ने मुझसे पूछा. मैंने सहमति दर्शाई और
हौले से उसके पैरों से वे दिव्य पैंजन निकाले. तब वह बालक बोला, “ये दोनों पैंजन तुम्हारे पास ही रखो. इनमें
जीवन शक्ति है. तुम्हें कहाँ जाना चाहिए, क्या खाना चाहिए, किससे बात करना
चाहिए इन सब बातों का निर्णय ये पैंजन ही करेंगे.”
इतना कहकर वह बालक अंतर्धान हो गया. मैंने काली घाट में कालिका माता के
दर्शन किये और दक्षिण की और गया. पुरी महाक्षेत्र के दर्शन किये. दक्षिण के
सिंहाचल क्षेत्र के दर्शन किये. मेरे पूर्व सुकृत के फलस्वरूप ही पादगया क्षेत्र
श्री पीठिकापुरम् पहुँचा. वहाँ श्री कुक्कुटेश्वर स्वामी के दर्शन किये. स्वयंभू
श्री दत्तात्रेय की मूर्ति के निकट नाग की एक बाँबी थी. उसमें एक देवता सर्प था.
मैंने जब श्री दत्तात्रेय प्रभु के दर्शन किये तो उस सर्प-देवता ने भी मुझे दर्शन
दिए. उस सर्प-देवता के दर्शन मात्र से मेरे भीतर की कुण्डलिनी जागृत हो गई. मेरा
शरीर मेरे बस में नहीं था. मैं पागल के समान यहाँ-वहाँ घूम-घूम कर जोर-जोर से तारा
माता का नाम घोष कर रहा था. संयोगवश मैं नरसिंह वर्मा नामक क्षत्रिय ज़मींदार के घर
के सामने पहुँचा. महिषी ग्राम में जिस बालिका को मैंने देखा था, वही रूप मुझे फिर से अपने नेत्रों के सम्मुख
दिखाई दिया. परन्तु वह बालिका कुछ ही समय में बालक के रूप में परिवर्तित हो गई.
जिस दिव्य तेजस्वी बालक ने मुझे दर्शन दिए थे वही मेरे सामने था. श्री वर्मा के घर
एक अजीब तरह का तांगा था. उस दिव्य बालक को उस तांगे में बैठकर अपनी माता के घर
जाना था. श्री वर्मा ने एक सेवक का इंतज़ाम किया. सेवक वहाँ आया. उस बालक ने सेवक
को भी तांगे में बिठा लिया और मुझे उस तांगे को खींचने की आज्ञा दी. मैंने इनकार
कर दिया. तब वह बालक बोला, “अगर तू तांगा नहीं
खींचेगा तो तेरी चमड़ी उतार कर उसके जूते बनाकर पहनूंगा. मैं तो चमार ही हूँ. चमड़ी
उतार कर चप्पलें बनाना यह मेरी कुलवृत्ति ही है. तेरे जैसे जानवर की चमड़ी गाय अथवा
भैंस की चमड़ी से श्रेष्ठ होती है.
मेरी इच्छा न होते हुए भी मैं वह तांगा खींचने को तैयार हो गया. उस बालक के
हाथ में एक छडी थी. उस तांगे को खींचने में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ रही थी. वह
दिव्य बालक अपने हाथ की छडी से लगातार मुझे मारे जा रहा था. उन दोनों का वज़न बीस
आदमियों के वज़न जितना था. बड़े कष्ट से मैं वह गाडी खींच रहा था. वह बालक जोर जोर
से मुझे अपनी छडी से मार रहा था. मेरी पीठ से खून की धाराएं बह रही थीं और अपने
दुःख का भार सहते हुए मैंने किसी तरह वह गाडी खींचकर उस बालक के मातृगृह तक पंहुचाई
.
उस बालक के साथ आए सेवक से मेरी हालत बर्दाश्त नहीं हुई, परन्तु वह बालक अपने विनोद के लिए बड़ी क्रूरता
से बर्ताव कर रहा था. बालक ने सेवक को धमकाते हुए कहा, कि यदि उसने मुझ दुरात्मा पर दया दिखाई तो उसे भी कड़ी सज़ा देगा.
मेरे शरीर पर कमर के ऊपर कोई वस्त्र नहीं था. खून की धाराएं बह ही रही थीं.
ऊपर से वह बालक घर के भीतर जाकर मिर्च लाया और मेरे बदन पर लगा दी. हाँ, मेरी कमर से महिषी ग्राम से प्राप्त हुए पैंजन
थे.
तभी उस दिव्य बालक की पुण्यमूर्ति नानी राजमांबा बाहर आई. उनका एक अन्य नाम
‘पुण्यरुपिणी’ भी था. उनके दर्शन करते ही मेरे शरीर की जलन
शांत हो गई. उनके पति बापन्नाचार्युलु नामक सुप्रसिद्ध सत्यऋषीश्वर थे, वे बोले, “बेटा! तू किस गाँव का है? थोड़ी देर आराम करके
फिर भोजन करके ही जाना.”
उन्होंने हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग किया था. उस सेवक ने श्रीपाद द्वारा
मेरे साथ किये गए व्यवहार का वर्णन प्रभु की नानी एवँ नाना से किया.
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “नानी! यह सेवक
सरासर झूठ बोल रहा है. इस आदमी के तन से खून बहा ही नहीं. वह तो पसीने की धाराएं थीं.
मैंने उसके शरीर पर मिर्च मली ही नहीं, वह तो चन्दन का उबटन
था. चाहें तो उस सेवक से कहिये कि देख ले.” उस सेवक ने देखा. जैसा श्रीपाद प्रभु
ने कहा था, बिलकुल वैसा ही हुआ था. तभी बापन्नाचार्युलु
बोले, “श्रीपाद! तू
सत्यव्रती है. अगर कहेगा कि खून की धाराएं हैं, तो वहाँ खून ही की धाराएं दिखाई देंगी. चन्दन का उबटन कहेगा, तो वही दिखाई देगा, अतः मुझे ऐसा प्रतीत होता
है कि तू साक्षात उग्रतारा देवी का स्वरूप है. उग्रतारा देवी के अनुग्रह से
वाक्सिद्धी प्राप्त होती है ऐसा सुना था, परन्तु साक्षात अनुभव आज ही प्राप्त हुआ. उग्रतारा देवी के समान तू केवल
इच्छामात्र से किसी भी वस्तु के गुण धर्म बदल सकता है. अब अपना लीला विनोद बंद
करके इस अभागे पर करुणा दृष्टि डाल.”
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “नाना जी! आपने कुछ
अतिशयोक्ति ही कर दी. मैं इच्छा करूंगा और वह तुरंत फलीभूत होगी, ऐसा आपने कहा. यह कहाँ तक सत्य है? या कि झूठ है? इसका निर्णय तो शास्त्रों की सहायता से करना होगा. खैर, यह आगंतुक एक सद्ब्राह्मण है, उग्रतारा देवी का उपासक है, यह सब तो ठीक है, परन्तु इसने अपने गुरु की अनुमति से संन्यास
दीक्षा नहीं ली. जैसा इसे योग्य प्रतीत हुआ, उसी प्रकार से इसने संन्यास ग्रहण कर
लिया. इसके पिता ने अनेक कष्ट उठाकर इसका लालन-पालन किया. इसकी माता को गर्भावस्था
में बहुत कष्ट उठाने पड़े. जब इसका जन्म हुआ तो इसकी माता के शरीर से बहुत रक्त
स्त्राव हुआ. गीले घाव पर मिर्ची मलने से कैसी पीड़ा होती है, वैसी पीड़ा इसकी माता ने तब सहन की थी.
माता-पिता दोनों ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, और अपने पूर्व सुकृतों के कारण उनका पुनर्जन्म पीठिकापुरम् में हुआ है.”
काशी वास का फल
नरसिंह वर्मा के घर में रहने वाला यह सेवक कोई और नहीं, बल्कि इस आगंतुक का पूर्व जन्म में पिता था.
इसकी पत्नी आगंतुक की पूर्व जन्म की माता है. मृत व्यक्तियों को योग्य विधि से
पिण्ड प्रदान न करना महापाप है. इस आगंतुक ने चूंकि संन्यास ग्रहण कर लिया था, अतः
इसने माता-पिता का पिण्ड प्रदान नहीं किया. इसके पाप कर्मों एवँ पुण्य कर्मों का
फल ही इसे पादगया क्षेत्र अर्थात् श्रीपीठिकापुरम् खींच लाया है. थोड़े से दुःख
भोगकर इसने अपने पापकर्मों के फल का अनुभव ले लिया. इसके सारे दुर्योगों का परिहार
हो गया. शिशु नौ महीने माता के गर्भ में रहता है, उसी प्रकार काशी क्षेत्र में नौ महीने, नौ दिन और नौ घंटे वास करने से मनुष्य पितृशाप से मुक्त हो जाता है. श्री
पीठिकापुरम् काशी क्षेत्र के समान है. यदि यह आगंतुक अपने पूर्व जन्म के माता-पिता
की सेवा करे तो पितृ देवताओं के शाप से मुक्त हो जाएगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. मैंने प्रभु के आदेशानुसार अपने पूर्व
जन्म के माता-पिता की सेवा की. उनका आशीर्वाद प्राप्त किया. प्रभु से प्राप्त
पैंजन पूजा घर में संभाल कर रखे. मुझे उग्रतारा देवी के अनुग्रह से सिद्धी प्राप्त
हुई. अपनी तंत्र शक्ति के बल पर मैं लोगों के दुःखों का, कष्टों का परिहार करने लगा.
आपके यहाँ आने से पूर्व श्रीपाद प्रभु ने मुझे दृष्टांत दिया. वे बोले, “शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त नामक दो यात्री इस मार्ग से यहाँ आयेंगे, उनका योग्य आदर सत्कार करके उनके यहाँ रहने की
व्यवस्था करना. मेरे पैंजन उन्हें भेंट स्वरूप दे देना.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३६.
वेदान्त शर्मा का वृत्तांत
मैं एवँ धर्मगुप्त प्रभु से भेंट स्वरूप प्राप्त हुए पैंजन लेकर आगे की
यात्रा पर निकल पड़े. रात भर उन पैंजनों की मधुर ध्वनि हमारे ह्रदय में प्रतिध्वनित
होती रही. ह्रदय के अनाहत चक्र से ऊँकार बड़े प्रयत्न से ही सुनाई देता है, ऐसा हमने सुना था. पिछली रात को इसका प्रत्यक्ष
अनुभव प्राप्त हुआ. उन पैंजनों की मधुर ध्वनि, राग-ताल युक्त संगीत के समान थी. अनाहत चक्र से शक्ति अन्य चक्रों की ओर
प्रवाहित होती है. इस शक्ति का प्रसार होते समय शरीर की सभी नसों में नूतन शक्ति
का प्रादुर्भाव होता रहता है.
जब तक हम चलते रहते, पैंजनों की ध्वनि
आती रहती. हम रुकते तो वह ध्वनि भी रुक जाती. उस भाग में, एक खेत में हमने एक आश्रम देखा. निकट ही छोटा
सा गाँव भी दिखाई दिया. गाँव की सीमा पर एक दलित लोगों की बस्ती थी. बस्ती के निकट
ही यह आश्रम था.
जैसे ही हम आश्रम के निकट पहुंचे, पैंजनों की ध्वनि रुक गई. हमने सोचा कि यहाँ कोई दिव्य अनुभव प्राप्त होने
वाला है, और वह भी प्रभु की केवल एक दिव्य लीला ही होगी. तभी उस आश्रम से लगभग ६०
वर्ष के एक तेजस्वी महर्षि बाहर आए. उनके पीछे-पीछे करीब ३० वर्ष की योगिनी माता
बाहर आईं. वे दोनों अत्यंत आदरपूर्वक हमें आश्रम के भीतर ले गए. जलपान के पश्चात
महर्षि कहने लगे, “ वास्तव में मेरा नाम वेदान्त शर्मा है. मैं
पीठिकापुरवासी हूँ. अब मुझे बंगारय्या के नाम से जानते हैं. इसका नाम बंगारम्मा
है. मैं जन्म से ब्राह्मण हूँ, और यह स्त्री जन्म
से नीच कुल की है. हमारे घर में मातंगी माता का पीठ है. मातंगी माता दशमहाविद्या
में से एक हैं, उसीकी हम यहाँ आराधना करते हैं.
इतना सुनते ही मैं रोमांचित हो गया. यह व्यक्ति तो ब्राह्मण है और यह स्त्री
नीच कुल की है. तब इनका दाम्पत्य धर्मसम्मत कैसे हुआ, यह प्रश्न मुझे सताने लगा.
हमें भोजन में कंद, मूल एवँ फल दिए गए.
बंगारय्या ने आगे कहा, “ बेटा! जब अरुंधती
ने वशिष्ठ महामुनि से विनती की कि वे उससे विवाह करें, तब वशिष्ठ मुनि ने उसके सामने एक शर्त रखी. वे बोले, “ मैं कुछ भी करूँ, फिर भी तुम विरोध न करना.” अरुंधती ने यह बात स्वीकार कर ली. महर्षि ने उसे
सात बार दग्ध किया फिर भी उसने विरोध नहीं किया. इसीलिये उसका नाम अरुंधती पडा.
इसके पश्चात महर्षि ने उसे अपनी धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार किया.
जब मैं पीठिकापुरम् में था तब तीन बार मेरा विवाह हुआ था. तीनों पत्नियां
स्वर्ग सिधार गईं. मैं उनमें से किसी का भी संग प्राप्त न कर सका. अपने नसीब को
दोष देते हुए मैं अत्यंत दुखी हो गया था. इस पर श्रीपाद प्रभु मुस्कुरा कर बोले, “नाना जी, मैंने तुम्हारे लिए एक और नई नानी ढूंढी है. विवाह किये बिना यदि आप उसको
धर्मपत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे तो आपको उत्तम जन्म का प्रसाद प्राप्त होगा.”
बापन्नाचार्युलु पीठिकापुर की ब्राह्मण परिषद् के अध्यक्ष थे. ब्राह्मण समाज
की यह राय थी कि इस संबंध में वेद पंडितों की बैठक बुलाई जाए. धर्म-कर्म के
सन्दर्भ में शास्त्रानुसार चर्चा करने के पश्चात ही निर्णय लिया जाए, ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया. दूर दूर के
प्रान्तों के पंडितों को निमंत्रण भेजे गए. किस-किस को बुलाया जाए इसका कार्यभार
मुझे सौंपा गया.
श्रीपाद प्रभु ने उपनयन संस्कार होने के पश्चात अन्य बालकों के समान वेद पठन
नहीं किया. नानाजी के अथवा पिता के सम्मुख उन्होंने कभी भी पाठ नहीं पढ़े और जो
किया उसके बारे में कभी बताया नहीं. परन्तु यदि कोई परिक्षा लेने के उद्देश्य से
उनसे कुछ पूछे तो श्रीपाद प्रभु तुरंत उसका उत्तर देते थे. बापन्नाचार्युलु का
संपूर्ण वेदान्त श्रीपाद प्रभु को ज्ञात था. इतना ही नहीं, वेदान्त एवँ उसका रहस्यमय गूढार्थ तो श्रीपाद
प्रभु के लिए मानो हाथों का मेल था. संक्षेप में, श्रीपाद प्रभु विद्वान पंडित ही थे. उन्हें भी परिषद् में आमंत्रित करने का
निर्णय मैंने लिया.
ब्राह्मणों का उद्देश्य कुछ और ही था. अप्पल राजू को एवँ बापन्नाचार्युलु को
कुल से बहिष्कृत किया जाए, ऐसा निर्णय ब्राह्मण सभा में लिया गया. इस निर्णय की एक
प्रति श्री शंकराचार्य को भेजी गई और यह विचार किया गया
कि शंकराचार्य की अनुमति प्राप्त होते ही इन दोनों परिवारों को पीठिकापुरम् से
बाहर निकाल दिया जाए. जब श्रीपाद प्रभु ने उनकी मंशा के बारे में मुझे बताया तो
मैं भी ब्राह्मणों की और हो गया, क्योंकि मेरे मन में
ब्राह्मण परिषद् का अध्यक्ष पद प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो गई थी.
श्रीपाद प्रभु कुल की, मतभेदों की परवाह
किये बिना सभी के घर जाया करते और सब से समान बर्ताव करते थे. पीठिकापुरम् में
बंगारय्या और बंगारप्पा दम्पत्ति रहते थे. उन्हें श्रीपाद प्रभु से मिलने की, उनसे बातें करने की उत्कट इच्छा थी.
श्रीपाद प्रभु ने जब यह इच्छा प्रकट की कि उन्हें चर्म पादुकाएं चाहिए, तब उनकी आयु चौदह वर्ष की थी. घर के बड़े लोगों
ने उनसे कहा कि ब्राह्मणों को लकड़ी की खडाऊ पहनना चाहिए, न कि चमड़े की. इस बात की भनक उस चमार दंपत्ति
तक पहुँची. श्रीपाद प्रभु को चमड़े की पादुकाएं समर्पित करके जीवन को सार्थक किया
जाए, ऐसा निश्चय उस दंपत्ति ने किया. तभी उनके घर में श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रकट
हुए. उनके दिव्य चरणों की नाप ली गई. बंगारम्मा बोली, “महाप्रभु! मेरी ही चमड़ी निकाल कर उसकी पादुका बना दूं, ऐसी मेरे मन में इच्छा है. इस पर श्रीपाद
श्रीवल्लभ मंद मंद मुस्कुराए और अंतर्धान हो गए. हमारे यहाँ एक बढ़िया गाय थी.
अचानक वह एक असाध्य रोग से ग्रस्त होकर मर गई. उस गाय का चमडा निकाल कर, उसे शुद्ध
करके श्रीपाद प्रभु के लिए चर्म पादुकाएं बनाई गईं.
इधर वेद पंडितों की सभा बैठी. चर्चा आरम्भ हुई. चर्चा का मुख्य विषय था –
आदि शंकर का काशी में मंडन मिश्र से हुआ वाद विवाद. वाद विवाद में यदि उभय भारती
देवी को भी पराजित किया गया तो परिक्षा पूर्ण होगी, ऐसा भारती देवी ने कहा. उभय भारती ने काम शास्त्र पर प्रश्न पूछा. इस
शास्त्र में आदि शंकर को कोई ज्ञान नहीं था. उन्होंने उत्तर देने के लिए छः मास की
अवधि मांगी. धर्म के विरुद्ध न जाते हुए काम शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने का
निर्णय शंकराचार्य ने किया.
इसी समय उस राज्य के महाराजा का निधन हुआ था. आदि शंकर ने परकाया प्रवेश
विद्या का उपयोग किया और उस राजा के शरीर में सूक्ष्म शरीर से प्रवेश किया.
उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि उनका भौतिक शरीर संभाल कर रखा जाए और यदि
कोई महत्त्वपूर्ण सन्देश हो तो राजप्रासाद के निकट आकर सांकेतिक भाषा में उन्हें
बताया जाए. महारानी को अपने महाराज में कुछ परिवर्तन, कुछ नयेपन का अनुभव हुआ.
उसने जान लिया कि किसी
महापुरष की आत्मा का प्रवेश उसके पति के शरीर में हुआ है. वह दिव्यात्मा
महारानी के पति के मृत शरीर में प्राणमय जगत के चैतन्य को आकर्षित करके प्रविष्ट
हुआ है. केवल इसलिए कि दाम्पत्य सुख का अनुभव साक्ष भावना से देखकर उस संबंध में
ज्ञान प्राप्त कर सके – इस बात को भी महारानी समझ गई. जब तक इस दिव्यात्मा का वास
मेरे पति के शरीर में है, तभी तक उसके प्राण
शरीर में रहेंगे, यह बात वह जान गई. उसने आदेश दिया कि नगर में
यदि कोई ऐसा मृत शरीर हो, जिसका दाह संस्कार न
किया गया हो, तो उसे फ़ौरन जला दिया जाए. शंकराचार्य का शरीर
दहन करने के लिए ले जाया गया. तब उनके शिष्यों ने तुरंत सांकेतिक भाषा में राजवेश
धारण किये हुए शंकराचार्य को इस बात की सूचना देने का प्रयत्न किया, परन्तु तब तक देर हो चुकी थी. अग्नि में
शंकराचार्य के हाथ-पैर जल गए थे जो उन्होंने श्री लक्ष्मी नरसिंह की कृपा से वापस
प्राप्त कर लिए.
ब्राह्मण परिषद् में श्रीपाद प्रभु का अद्भुत संवाद
श्रीपाद प्रभु ने परिषद् से प्रश्न किया, “आप कहते हैं, कि आत्मा एक शरीर से
दूसरे शरीर में प्रवेश तभी कर सकती है जब वह अपने पहले अवतार को छोड़ दे. परन्तु
मैं आपसे एक प्रश्न पूछता हूँ, क्या आत्मा एक ही
समय में तीन-चार शरीरों में प्रवेश करके तीन-चार जन्मों के कर्मफल प्राप्त कर सकती
है?” परिषद् ने उत्तर दिया, “यह बड़ा जटिल विषय है. आज तक इस संबंध में कोई
प्रमाण प्राप्त नहीं है.”
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “प्राचीन युग में
ऐसा हुआ है, परन्तु आपको वह ज्ञात नहीं है. शाप के कारण
देवेन्द्र को पञ्च पांडवों का जन्म लेना पडा और शची देवी को द्रौपदी के रूप में
जन्म लेना पडा. उसे पांडवों की पत्नी होना पडा. शची-पुरंदर ने यद्यपि पृथ्वी पर
जन्म लिया, फिर भी उनका मूलतत्व निश्चय ही स्वर्ग में था.
द्रौपदी का शय्या सुख केवल अर्जुन को ही प्राप्त हुआ. मंत्रांग विषयों पर वह
धर्मराज से चर्चा करती थी, भीम को माता जैसा
रुचिकर भोजन बनाकर देती थी. नकुल को वह लक्ष्मी स्वरूपिणी प्रतीत होती थी, सहदेव को भूत, भविष्य एवँ वर्त्तमान का ज्ञान था, इसलिए आगे घटित होने वाली घटनाएं जल्दी-जल्दी होकर संग्राम शीघ्र समाप्त हो
जाए ऐसी इच्छा वह प्रकट करता. इसलिए भूमाता से भी अधिक सहनशील वृत्ति से वह उसके
साथ व्यवहार करती थी. देवता धर्म, मनुष्य धर्म एवँ
जंतु धर्म एक दूसरे से भिन्न हैं. उन सबको एक साथ मिलाना नहीं चाहिए.”
इस पर मैंने कहा, “पुराण काल में ऐसी
आश्चर्यजनक घटनाएं हुई होंगी, परन्तु वर्त्तमान
में ऐसा कुछ नहीं होता.”
श्रीपाद प्रभु की तीक्ष्ण दृष्टी मुझ पर पडी. वे बोले, “तुम्हारा तीन स्त्रियों के साथ विवाह हुआ. वे
तीनों परलोक सिधार गईं. क्या उन तीनों की तीन अलग-अलग आत्माएं थीं? यदि नहीं, तो क्या उनकी आत्मा एक ही थी? पुरुष तीन स्त्रियों
से विवाह करे, यह धर्म सम्मत है. परन्तु क्या एक स्त्री का
तीन पुरुषों से विवाह करना धर्म सम्मत है? वास्तव में देखा जाए, तो आत्मा क्या है? दाम्पत्य जीवन का अर्थ क्या है?”
तभी मैंने कहा, “पुरुष चाहे जितनी
भी स्त्रियों से विवाह कर सकता है, मगर स्त्री को यह अधिकार नहीं है.” श्रीपाद
प्रभु बोले, “ओ हो! क्या तू जगन्नियंता से बड़ा है? मंदोदरी अपने पातिव्रत्य के लिए प्रसिद्ध थी. जब वह बाली की पत्नी थी, तब उसके शरीर के अणु भिन्न थे. रावण की पत्नी
के रूप में उसके शरीराणु भिन्न थे और विभीषण की पत्नी के रूप में भी उसके शरीराणु
भिन्न थे. आत्मा निर्विकार होता है, अतः किन्ही भी गुणों से उसका मेल नहीं होता.
इसीलिये आत्मा नित्य निर्विकार, सत्ययुक्त, शुद्ध एवँ अत्यंत पवित्र है. मंदोदरी ने
तमोगुणी रावण के साथ उसके उपयुक्त ही व्यवहार किया. विभीषण के साथ उसने सत्वगुण
प्रधान होकर उत्तरदायित्व निभाया.”
मैं निरुत्तर हो गया. परन्तु थोड़ी देर विचार करने के बाद बोला, “यदि आपकी बात को सत्य मान लिया जाए, तो बहुपतीत्व को स्वीकारना होगा.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “यह कलियुग है. यहाँ कितनी ही भिन्न-भिन्न
अवांतर जातियों का आविर्भाव होता रहता है. पशु-पक्षी, वृक्ष, कृमि-कीटक, मानव जन्म ले रहे हैं. उनके अपने स्वभाव के कारण विभिन्न प्रकार के संबंध
स्थापित हो रहे हैं. धर्म विरुद्ध संबंध स्थापित होने पर अवांतर कुल का निर्माण
होता है. कलियुग के अंत में ऐसे कुलों का नाश होना ही है. ये अवांतर कुल आसुरी
शक्ति के कारण निर्माण होते हैं, इसीलिये असुर ध्वंस
करना पड़ता है. एक बार असुर का नाश होने पर उसे दुबारा जन्म नहीं मिलता. परन्तु एक
असुर के स्थान पर दस-दस असुरों का जन्म होने लगा है. धर्मबद्ध संबंध ही सदा के लिए
शाश्वत रहते हैं, इसीलिये सबको कुल गोत्र एवँ वर्णाश्रम धर्म का
पालन करना चाहिए.”
“दिव्यात्मा का प्रादुर्भाव बिरले ही होता है. उनकी आत्मा एक ही होती है.
यदि इस आत्मा का पुरुष-रूप में प्रादुर्भाव होता है, तो उस आत्मा की शक्ति का
प्रादुर्भाव स्त्री-रूप में होता है. इन्हीं को दिव्य-दाम्पत्य कहते हैं. ऐसे
दिव्यात्मा सृष्टि के आदि से अंत तक होते हैं. पराशक्ति एवँ परब्रह्म ही अद्वितीय
स्वरूप में सायुज्य स्थिति में रहते हैं.” श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “अब देखो, वेदान्त शर्मा नामक ब्राह्मण तू ही था. बंगारय्या के नाम से चमार कुल में
जन्मा है. यह सब एक ही समय में हुआ है. तेरी ही पत्नी तेरी तीन पत्नियों के रूपों
में चमार पत्नी बंगारम्मा के नाम से जन्मी है. अभी-अभी तेरे घर में जिस गाय की
मृत्यु हुई है, वह एक समय में तेरी पत्नी ही थी. तेरी दिवंगत पत्नी का चैतन्य एवँ
उस गोमाता का चैतन्य प्रस्तुत बंगारम्मा नामक इस महान स्त्री के चैतन्य में
सम्मिलित हो गया है. चैतन्य जहाँ से आता है, वहाँ उसे जाकर मूल चैतन्य में मिल जाना है, यह निश्चित है. सृष्टि का रहस्य अति गहन है. इसे समझने के लिए सप्त ऋषियों
की सामर्थ्य भी पर्याप्त नहीं है. बंगारम्मा का शरीर बंगारय्या के लिए ही नियत है, इसलिए यह बिलकुल भी धर्मं विरुद्ध नहीं है, तू इसके साथ संसार कर. उससे तुझे शरीर सौख्य
प्राप्त नहीं होगा. यह निर्णय मैंने धर्मस्थान में बैठकर किया है. प्रकृति में
जन्म लेने के पश्चात प्रकृति के धर्म का, उसकी मर्यादा का पालन विधिवत करना ही पड़ता है.”
“बंगारम्मा ने मुझसे कहा था कि अपनी चमड़ी से चप्पल बनाकर मुझे देगी. मैंने
स्वीकार कर लिया. वह बंगारम्मा जीवित रहते हुए भी उसने अनजाने में गाय का जन्म
लिया. उसके अनजाने में ही उसने तेरी तीनों पत्नियों के रूपों में जन्म लिया. जब
चैतन्य तीन-चार शरीरों में विभाजित हो गया, तब उस प्रत्येक शरीर के चैतन्य को यह आभास होता है कि केवल वही उपस्थित है.
उनके बीच की एकात्मता समझ में नहीं आती. ‘कलौ पञ्चसहस्त्राणि जायते वर्णसंकर:’ ऐसा
कहा गया है. इसका अर्थ यह हुआ कि कुल सांकर्य का नहीं, अपितु वर्ण सांकर्य का ही उल्लेख किया गया है. कुल सांकर्य होने पर नीच
जन्म प्राप्त होता है. वर्ण सांकर्य होने पर नूतन शक्तियुक्त नवीन जातियों का
उद्भव होता है. परिणाम स्वरूप नई मानव जाति को दैवत्व की प्राप्ति होती है. इस
भूमि पर दैवत्व का लाभ प्राप्त करने योग्य जातियों को उत्पन्न करना है.”
“इस ब्राह्मण परिषद् का असली उद्देश्य मुझे ज्ञात है. मेरे नाना जी एवँ पिता
जी को कुल से बहिष्कृत करने का उद्देश्य उनके मन में खदखदा रहा है. इसीलिये मैं
वेदान्त शर्मा को कुल बहिष्कृत करता हूँ. आज से तेरा नाम बंगारय्या होगा.”
पूरी ब्राह्मण परिषद् चकरा गई. सबकी नज़रों के सामने ही एक ज्योति स्वरूप
मुझमें विलीन हो गया. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “आपकी आंखों के सामने ही बंगारप्पा की आत्मज्योति वेदान्त शर्मा में विलीन
हो गई. यह ब्राह्मण है, अथवा चांडाल है यह
निर्णय आप स्वयँ ही कर लीजिए. हमें कुल से बहिष्कृत करने के लिए शंकराचार्य की
अनुमति प्राप्त करने का प्रयत्न भी आपने कर लिया. शंकराचार्य मेरा क्या कर लेंगे? आप सबके देखते-देखते ही मैं अपने नाना जी अथवा
पिता जी से वेदाभ्यास ग्रहण न करते हुए भी, वेदोच्चारण कर सकता हूँ. एक ही समय में अनेक स्थानों पर दर्शन दे सकता हूँ.
शंकराचार्य मेरे सामने भी आ जाएँ, तो भी मुझे किस बात
का डर है? उन्हें उनके नित्य आराधित शारदा चंद्रमौलीश्वर
के रूप में दर्शन देकर उन पर अनुग्रह करूंगा, तब कोई अन्य उपाय न होने के कारण
उन्हें मुझे ईश्वर के रूप में स्वीकार करना होगा. तब उनका निर्णय आप सबके लिए
दुर्भाग्यशाली होगा. क्षत्रिय परिषद्, वैश्य परिषद् आपके
निर्णय को सम्मति नहीं देगी. यदि वे पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, दान, दक्षिणा, सीधा आदि देना बंद कर दें, तब बाल बच्चों समेत आप सबकी दीन हीन अवस्था हो
जायेगी. यदि मुझसे लड़ाई मोल लोगे तो सर्वनाश का मूल कारण तुम ही बनोगे. मैं कह रहा
हूँ कि चतुराश्रम का धर्म पालन करो. यह कह रहा हूँ कि अष्टादश वर्णों के लोग
सुख-संतोष से रहें. आप लोग अपने-अपने धर्म के नियमों का अचूक पालन करके धर्म
संस्थापन में सहयोग दें. वैसा न करने पर अनेक आपत्तियां टूट पड़ेंगी. मैं तो शांत
ही रहूँगा, परन्तु आपकी स्थिति दुखमय हो जायेगी. प्रकृति
दो प्रकार से परिणाम देती है, पहला – एकदम सुधार करना और दूसरा – धीरे-धीरे सुधार
करना. दूसरी विधि के अनुसार पर्याप्त समयावधि दी जायेगी. यदि आप लोग अपने आपको
नहीं सुधारेंगे तो विनाश को आमंत्रित करेंगे. मैं तो विनाश करके भी धर्म की
स्थापना करूंगा.”
इतना कहने के पश्चात श्रीपाद प्रभु ने मौन धारण कर लिया. बंगारय्या आगे बोले, “मुझे कहीं भी कोई आधार न था, ऐसी स्थिति में मैं बंगारम्मा को लेकर गाँव-गाँव
घूमते हुए यहाँ आ पहुँचा. हमारे इस आश्रम में मातंगी देवी की प्रतिष्ठा करके जीवन
काट रहा हूँ.”
श्रीपाद प्रभु इस मार्ग से गुज़रते हुए यहाँ आये. उन्होंने हमें आशीर्वाद
दिया और बोले, “इस शरीर के पतन के पश्चात तू फिर से अपने
ऋणानुबंध से ब्राह्मण कुल में जन्म लेगा और बंगारम्मा शूद्र जाति में जन्म लेगी, तब तुम दोनों पति पत्नी बनोगे, तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी. उस संतान को
कुरुगड्डी में मेरी सेवा करने की संधि प्राप्त होगी, सुखी भव!”
“बेटा, यही हमारा वृत्तांत है. आप इस प्रदेश में
आयेंगे, आपके पास उनके पैंजन हैं. वे पैंजन आपसे लेकर
आपको उनकी चर्म पादुकाएं दे दूं, ऐसा उनका आदेश है.”
“हम मातंग मुनि की कन्या मातंगी देवी के उपासक हैं. इस मातंगी माँ की आराधना
करने से उत्तम दाम्पत्य सुख की प्राप्ति होती है. इसे राज मातंगी, कर्ण मातंगी आदि नामों से भी संबोधित किया जाता
है. एक बार श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु ने भौतिक स्वरूप में इस आश्रम में दर्शन दिए.
उस समय बंगारम्मा दूध गरम कर रही थी. जिस गोमाता के चर्म से ये पादुकाएं बनाई हैं, वह गोमाता भी सामने से गर्दन हिलाती हुई गई,
ऐसा प्रतीत हुआ. श्रीपाद प्रभु ने हमारे दूध को स्वीकार किया. हमारे द्वारा पूजित
मातंगी देवी की मूर्ती उनके नाम से संस्थापित संस्थान के औदुम्बर वृक्ष के नीचे
अनेक गज नीचे चली जायेगी और वहाँ अनेक सिद्ध पुरुषों द्वारा उसकी सेवा की जायेगी.
वे बंगारम्मा को बुलाकर बोले, “अम्मा! तेरा पति
खूब अनुकूल है. अगले जन्म में तुझे इससे सारे सुख प्राप्त होंगे. तेरे लिए सोने की
बिंदी तैयार करके रखी है. एक शुभप्रद मंगलसूत्र भी बना लिया है. ये दोनों चीज़ें
हिरण्यलोक में सुरक्षित रखी हैं. अगले अवतार में मैं स्वयँ ही तुम पर कृपा करके
अपने हाथों से तुम्हारा विवाह करूंगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु अंतर्धान हो गए. “
:बेटा! तुमने हमारी कथा सुनी. हमेशा “सिद्ध मंगल स्तोत्र” का पठन करना चाहिए, तुमको अवश्य ही महापुरुषों का अनुग्रह प्राप्त
होगा. सिद्ध, महासिद्ध, महायोगी पुरुष श्रीपाद प्रभु के कर-चरण आदि अवयवों के समान हैं. उनके
माध्यम से ही श्रीपाद प्रभु अपने संकल्प की पूर्ति करते हैं. एक बार उन्होंने
राजमाता मातंगी देवी के रूप में दर्शन देकर हमें अनुगृहीत किया. समस्त सृष्टि एवँ
सृष्टि का रहस्य उनके आधीन है. तुम हमेशा, हर पल उनका स्मरण करना, ध्यान करना, उनकी अर्चना करना. वे ही सर्वसिद्ध हैं. माता के समान वे तुम्हारी रक्षा
करेंगे. कोटि-कोटि माताओं के प्रेम की तुलना में श्रीपाद प्रभु का अपने भक्तों पर
प्रेम कितनी उच्च कोटि का होता है!”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय ३७
छिन्नमस्ता देवी का वर्णन
बंगारय्या और बंगारम्मा
से बिदा लेकर, उनकी दी हुई चर्म पादुकाएं लेकर हम आगे चल पड़े. हम एक जंगल में से होकर जा
रहे थे. चलते-चलते एक वट वृक्ष के नीचे आराम करने के लिए रुक गए. तभी वहाँ योगिनियों
का एक समूह आया. वे हमें देखकर बोलीं, “अब सायं संध्या का समय हो चला है. इस समय आपका इस प्रदेश में आना उचित
नहीं है. यहाँ हम छिन्नमस्ता देवी का पूजन करने वाले हैं. वह बड़ी रहस्यमय देवता
है. यहाँ पुरुषों का प्रवेश वर्जित है. इतना ही नहीं, यह देव भूमि है. यहाँ आकर कोई भी जीवित वापस नहीं जा सकता.” यह सुनते ही
हमारे पैरों तले की ज़मीन खिसकने लगी. तभी एक तेजोमयी योगिनी माता वहाँ आई. उसके
नेत्र अग्नि के समान लाल-लाल थे. उसके साथ आई हुई योगिनियाँ एक टोकरे में
छिन्नमस्ता देवी को साथ में लाई थीं. तब वह योगिनी माता बोली, “इन्हें पहनने के लिए साड़ी-चोली दो.” उसकी
आज्ञानुसार हमें वस्त्र दिए गए और हमारे वस्त्रों को वहाँ प्रज्वलित अग्निकुण्ड
में फेंक दिया गया.
साड़ी-चोली पहनने पर हमें
ऐसा प्रतीत हुआ मानो हमारे शरीरों में परिवर्तन हो रहा है. हमारा पुरुषत्व समाप्त
होने लगा, उरोज पुष्ट होने लगे. हम
पूरी तरह से स्त्री बन गए. हमारा नाम भी नए प्रकार से रखा गया. मेरा नाम रखा गया –
शंकरम्मा, और धर्मगुप्त का –
धर्मम्मा. हमें भोजन में मांसाहारी पदार्थ दिए गए, पीने के लिए मदिरा दी गई.
हमने ऐसे शेर के बारे में
सुना तो था कि वह दिन में मनुष्य की भाँति तथा रात में शेर की भाँति संचार करता है. परन्तु इस प्रकार की किसी देवता
के बारे में अथवा योगीजनों के संकल्प के बारे में नहीं सुना था जो पुरुष को स्त्री
के रूप में परिवर्तित करती हो. हमने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा था. हमें भयभीत
करके नृत्य करने के लिए मजबूर किया गया. तभी योगिनी माता बोलीं, “ कबंध मुनि परिवर्तनशील जगत के अधिपति हैं.
परिवर्तन- शक्ति को ही छिन्नमस्ता देवी कहते हैं. इस संसार में निरंतर वृद्धि एवँ
क्षय होता रहता है. जब क्षीणत्व कम होता है, उस समय विकास का स्तर अपने आप बढ़ जाता है, उस समय भुवनेश्वरी देवी प्रकट होती है. इसके विपरीत जब क्षीणत्व में
वृद्धि होकर विकास का स्तर कम हो जाता है, उस समय छिन्नमस्ता देवी का प्राधान्य होता है.
इस महामाता का स्वरूप
अत्यंत रहस्यमय है. एक बार पार्वती देवी अपनी सखियों के साथ मंदाकिनी नदी पर स्नान
के लिए गई थीं. स्नान होने के पश्चात दोनों सखियों को खूब भूख लग आई, इससे वे
कृष्णवर्णा हो गईं. भोजन की याचना करने पर पार्वती देवी ने उनसे कुछ देर रुकने को
कहा. थोड़ी देर के बाद सखियों ने फिर से भोजन की प्रार्थना की. इस बार भी उन्हें
रुकने के लिए कहा गया. ऐसा कई बार हुआ. अंत में पार्वती देवी ने अपनी तलवार से
अपना सिर तोड दिया. उसके कंठ से खून की तीन धाराएं बह निकलीं. दो धाराएं उसने
दोनों सखियों को पीने के लिए दीं और तीसरी धार से स्वयँ रक्त प्राशन किया. मस्तक
छेदन करने के कारण देवी को छिन्नमस्ता कहते हैं.
आधी रात को की गई
छिन्नमस्ता देवी की उपासना बहुत शुभ फल देती है. शत्रु पर विजय प्राप्त करने के
लिए, शत्रु के समूह को रोक कर
रखने के लिए, राज्य प्राप्ति के लिए, दुर्लभ ऐसे मोक्ष की
प्राप्ति के लिए इस देवी की उपासना अत्यंत फलदायी है. चारों दिशाएं इस महामाया के
वस्त्र हैं. इसके नाभिस्थान में योनिचक्र होता है. कृष्णवर्ण अर्थात तामसी गुण और
रक्तवर्ण अर्थात् राजसी गुण. इन दोनों गुणों से युक्त सखियाँ माता के साथ रहती हैं.
उन्होंने अपने मस्तक का खण्डन कर दिया फिर भी वे सजीव ही रहीं योगभाषा में इसका
अर्थ यह हुआ कि वह परिपूर्ण अंतर्मुखत्व का प्रतीक हैं. अग्निस्थान वाले मणिपुर
केंद्र में योगीजन छिन्नमस्ता देवी का ध्यान करते हैं. यह हिरण्यकश्यपू की उपास्य
देवता हैं.”
यह सारा अनुभव हमारे लिए
अत्यंत विचित्र एवँ भयानक था. तभी आधी रात हो गई. चित्र-विचित्र प्राणियों की
आवाजें आने लगीं. शेर की दहाड़ सुनकर तो हम भय से थरथराने लगे. शेर की आवाज़ उस शांत
वातावरण को दहला रही थी. योगिनी जनों ने सोचा कि दो अच्छी स्त्रियों की बलि मिली
है. उनके निकट उपस्थित हम दोनों का वध करना अत्यंत श्रेयस्कर है ऐसा उन्होंने
सोचा. उन्होंने हमारे सिरों पर नीम के पत्ते बांधे. ललाट पर बड़ा सा कुंकुम का तिलक
लगाया. एक तेज़ धार वाले चाकू से हमारे सिर काट दिए. खून की धाराएं देखकर योगिनियों
को बड़ी प्रसन्नता हुई. वे मदोन्मत्त होकर रक्तपान करने लगीं. हमारे सिर एक तरफ तथा
धड दूसरी तरफ फेंक दिए. फिर भी ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो हम सजीव ही हैं. शरीर
में असहनीय जलन हो रही थी. हम उन योगिनियों की क्रूर एवँ अत्यंत हीन क्षुद्र
विद्या की बलि चढ़ गए थे.
तभी हम गहरी निद्रा में
सो गए. निद्रावस्था में हमें अस्पष्ट रूप से आकाश में एक प्रकाश पुंज दिखाई दिया.
हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह प्रकाश निकट आते हुए काल के समान योगिनियों के चारों
और की हवा में लीन हो गया. हमारे सिर पुनः हमारे धडों से लग गए. हम हमेशा की भाँति
नींद से जागे. हमारे शरीरों पर साड़ी-चोली थी. हमारे शरीर के स्त्रियोचित लक्षण
धीरे-धीरे लुप्त होने लगे और पुरुषोचित लक्षण स्पष्ट होने लगे. रात की अग्नि में
हमारे स्त्री वस्त्र दग्ध हो गए और उनके स्थान पर नए पुरुषोचित वस्त्र प्रकट हो
गए. स्नानादि के पश्चात हमने वे वस्त्र धारण कर लिए.
तभी एक पथिक हमारे पास
आया और बोला, “मित्रों, कल रात को तुमने जो देखी, वह एक प्रकार की यौगिक-प्रक्रिया है. तुम्हारे
शरीर के भीतर के स्त्री तत्व को शुद्ध कर दिया गया है. प्रत्येक प्राणी के शरीर
में स्त्री एवँ पुरुष – दोनों तत्व विद्यमान रहते हैं. दोनों तत्वों की शुद्धि के
बिना योग शक्ति विश्व चैतन्य से होकर प्रवाहित नहीं होती. आपके भीतर के विश्व
चैतन्य से आवश्यक मात्रा में शक्ति प्रवाहित हो रही है. आत्मा के लिए स्त्री-पुरुष
भेद नहीं होता. वह इन दोनों तत्वों के आधार से परे है.”
आप लोगों को श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की कृपा से योगिनी गणों की असाधारण प्रक्रिया के द्वारा अनुपम
करुणा प्राप्त होगी. अनेक प्रयत्नों के पश्चात भी ज्ञात न होने वाले सुषुम्ना
मार्ग का ज्ञान आपको हो गया है. इससे बढकर सौभाग्य और क्या हो सकता है? इस महाभाग्य की प्राप्ति का कारण श्रीपाद प्रभु
की वे चर्म पादुकाएं हैं. जो आपके पास हैं. चर्म देह के चैतन्य से निकलकर आप
चैतन्य प्रवाह रूप ऐसे दिव्य तत्व के सान्निध्य में हैं. श्रीपाद प्रभु की दिव्य
लीलाएँ वे स्वयँ ही जानते हैं. औरों के लिए वे अति अगम्य, अद्भुत् एवँ चमत्कारपूर्ण होती हैं.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३८
बगुलामुखी देवी की आराधना
पीठिकापुरम् के रास्ते पर
हमें एक बैरागी मिला. वह एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा था. उसकी आंखें बड़ी तेजस्वी
थीं. हमें देखते ही बैरागी ने पूछा, ‘क्या आप लोग शंकर भट्ट और धर्मगुप्त हैं? हमने “हाँ” कह दिया. वह बोला, “इस पीपल के पेड़ की छाया में कुछ देर विश्राम कर लो. आपके पास श्रीपाद प्रभू की
चर्म पादुकाएं हैं न, वे मुझे दे दो और मुझसे कालनाग मणि स्वीकार करो.” हमने उसकी बात मान ली और
उसे चर्म पादुकाएं देकर उससे वह दिव्य मणि ले लिया.
मैंने उस बैरागी से कहा, “महाराज! मैंने श्रीपाद प्रभु के दिव्य चरित्र
के लेखन का संकल्प किया है. उनके जीवन में घटित प्रत्येक वर्ष की घटनाओं का मैं
श्रीपाद प्रभु के भक्तों के सम्मुख वर्णन करता हूँ. इन लीलाओं का श्रवण करके वे
आसानी से भव सागर पार कर जाते हैं. इस सब के लिए मैं तो केवल निमित्त मात्र हूँ.”
इस पर बैरागी बोला,
“श्रीपाद श्रीवल्लभ आदिभैरव एवँ आदिभैरवी का संयुक्त रूप हैं. काल के ऊपर शासन
करने वाले कालभैरव भी वे ही हैं, वे कालस्वरूप हैं, कालपुरुष उनसे भिन्न नहीं है, महाकाल स्वरूप भी वे ही हैं. किस समय कौनसी घटना घटित होगी इसका सम्पूर्ण
ज्ञान उन्हें ही होता है. इसलिए अव्यक्त रूप में स्थित श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु के
संकल्प स्वरूप को समझना देश तथा काल की परिधि में कैद प्राणी के लिए संभव नहीं है.
देश एवँ काल के साथ क्रीडा, प्राणियों का विकास, धर्म, कर्म – उनका फल तथा उनका प्रभाव पूरी तरह से श्रीपाद प्रभु के आधीन होता
है. ज्ञान का अभाव होते हुए भी स्वयँ को महापंडित समझने वाले लोगों का गर्व वे
तत्काल हरण करते हैं एवँ उन्हें अहंकार रहित करते हैं. इसी प्रकार विनयशील, नम्र परन्तु ज्ञान रहित साधकों को वे अपनी कृपा
दृष्टी से पंडित बना सकते हैं. उनका यह अवतार योग संपन्न अवतार है. वे अवतारी
पुरुष हैं; प्रत्यक्ष श्री
दत्तात्रेय के अवतार हैं, यह समझने के लिए प्राणी की पाप राशियों को पहले दग्ध
होना पड़ता है , और पुण्य राशियों को संचित
होना पड़ता है. यह सर्व साधारण नियम है. उनका कृपा कटाक्ष प्राप्त होने पर इस
साधारण नियम को दूर करके वे भक्तों की रक्षा करते हैं. श्रीपाद प्रभु के चरित्र का
पठन करने वाले भक्तों का एक क्रमबद्ध पद्धति से विकास होता है. उनके जीवन के
प्रत्येक वर्ष में घटित एक या दो दिव्य लीलाएँ साधक समझ सकता है. वे क्रमानुसार ही
समझ में आयें, यह भी उन दिव्य लीलाओं का अंतर्भाव है. श्रीपाद प्रभु ने केवल एक
देश अथवा एक ही प्रांत के लोगों के उद्धार के लिए अवतार नहीं लिया है.
प्रतिक्षण अनंत कोटि
ब्रह्मांडों का निर्माण, स्थिति एवँ लय होता रहता है. उनका परिणाम क्रम भी श्रीपाद
प्रभु के अधिकार में होता है. उनके दिव्य नेत्र गोलकों में कोटि-कोटि ब्रह्मांडों
की वृद्धि तथा क्षय होता रहता है. यही उनका निज तत्व स्वरूप है. उनका निराकार
स्वरूप ही परतत्व है. अव्यक्त स्वरूप में विद्यमान उनके स्वरूप को कोई भी जान नहीं
सकता है. उनके महातत्व का साकार रूप में पीठिकापुरम् में अवतरित होना उनकी एक
दिव्य लीला ही है. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अत्यंत अद्भुत और अनाकलनीय हैं. उनकी
लीलाओं का कोई अंत नहीं. वेद भी उनका वर्णन करते हुए मौन हो गए. श्रीपाद प्रभु का
जन्म अनंत है. वेदों में सिमटा हुआ ज्ञान सीमित है, परन्तु श्रीपाद प्रभु का ज्ञान, उनकी दिव्य शक्ति, उनकी करुणा अनंत है. वे सभी देशों में, सभी काल में विद्यमान रहते हैं. सत्य का सत्य, ज्ञान का ज्ञान एवँ अनंत को भी अवगत न होने वाला ऐसा उनका महामंगल स्वरूप
है.
बगुलामुखी देवी की उपासना
बैरागी ने कहा, “वास्तव में मैं
बंगाल देश का निवासी हूँ. मैं बगुलामुखी देवी की आराधना करता हूँ. यह देवी
दशमहाविद्याओं में से एक है. शत्रु नाश की इच्छा करने वालों को बगुलामुखी देवी की
आराधना करनी चाइये. सभी रूपों के परमेश्वर की संहार शक्ति बगुलादेवी ही हैं. इस
देवी की आराधना करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है. मनोवाक्य तथा कर्ममूल के
ऐक्य भाव से धर्मबद्ध जीवन बिताने वाले लोगों द्वारा कहा गया प्रत्येक वाक्य सत्य
समझा जाता है. वाक्य में भी परा, पश्यन्ति, मध्यमा –
ये भेद होते हैं.”
“सत्य युग में संपूर्ण जगत का नाश करने वाला एक भयानक बादल उठा था. पृथ्वी
पर आये हुए इस संकट से विष्णु भगवान चिंतित हो गए थे. तब उन्होंने तपस्या आरंभ की.
उस समय विद्या महादेवी बगुलामुखी के रूप में अवतरित हुईं. श्रीमन्नारायण को दर्शन
देकर उसने सृष्टि का विनाश करने वाले उस बादल को रोका. इस देवी को कुछ लोग वैष्णवी
देवी भी मानते हैं. मंगलवार को चतुर्दशी की अर्धरात्रि को यह देवी प्रकट हुईं.
बगुलामुखी देवी स्तम्भन शक्ति रूपिणी है. इसी देवी के कारण सूर्यमंडल का अस्तित्व
है, स्वर्ग का अस्तित्व भी बगुलामुखी माता के कारण ही है. यह देवी अपनी कृपा से
इहलोक एवँ परलोक के सभी सुख अपने भक्तों को प्रदान करती है. साधकों के जीवन में
खलबली मचाने वाली दुष्ट शक्तियों तथा अंध शक्तियों का निर्मूलन करके बगुलामुखी
माता प्रगति का अभयदान देती है. बगुलामुखी देवी को ‘वडवामुखी’, ‘जातवेद्मुखी’, ‘उल्कामुखी’, ‘ज्वालामुखी’, ब्रुहद्भानुमुखी’ आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है. सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने बगुला
महाविद्योपासना की थी. देवी ने ब्रह्मदेव को बाल रूप में दर्शन दिए. ब्रह्माजी ने
तिरुपति तिरुमलै क्षेत्र में माता की अर्चना की थी. इस देवी की मूर्ति की
वेंकटेश्वर-पद्मावती की मूर्तियों के साथ ही ब्रह्मोत्सव के मंगल पर्व पर अर्चना
की जाती है. इस महाविद्या का उपदेश ब्रह्मदेव ने सनकादि ऋषियों को दिया था.
ब्रह्माजी के बाद बगुलामुखी देवी की उपासना विष्णुजी ने की थी. भगवान परशुराम ने
भी अपने शत्रुओं का नाश करने के लिए बगुलामुखी देवी की उपासना की थी.
मैं तीर्थयात्रा करते हुए पीठिकापुरम् पहुँचा. श्री कुक्कुटेश्वर देवस्थान
में आराधना की. उसके बाद एक सुन्दर बालक को देखा जो अत्यंत मधुर वाणी में बोल रहा
था. उस बालक ने मुझसे कहा, “महाशय! आप बंगाल
देश से आये हैं, यह मुझे ज्ञात है. मैं लम्बे समय से आज तक इस
मंदिर में स्वयंभू दत्तात्रेय के रूप में विद्यमान हूँ. मेरी नित्य पूजा की
व्यवस्था करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र एक अर्चक की व्यवस्था करो.”
उस बालक के कथनानुसार एक उत्तम ब्राह्मण द्वारा अर्चना करवाकर उनका यथोचित
सम्मान किया गया. उस अर्चक का नाम था – कलवर. उसने कुक्कुटेश्वर तथा स्वयंभू
दत्तात्रेय, दोनों की अत्यंत मनोभाव से, अपने कष्टों की
परवाह किये बिना आराधना की थी. इस कार्य के लिए उसे काफी सारी दक्षिणा दी गई थी.
भोजन के लिए भी दक्षिणा दी गई. उसने यह धनराशि घर ले जाकर संदूक में रखी और अचरज
की बात यह हुई कि सुबह वह अदृश्य हो गई थी. भोजन के सारे पदार्थ अदृश्य हो गए थे, मगर वहाँ उपस्थित ब्राह्मणों के पेट प्रतिदिन
की अपेक्षा दुगुने-तिगुने अधिक भर गए. इस कारण वे सुस्त हो चले थे. सुस्ती आना, धन-दक्षिणा, भोजन का अदृश्य होना – सर्व साधारण व्यक्ति यह सब समझ नहीं पा रहा था. कलवर
एक निष्ठावंत, नियम-निष्ठ, वेद-शास्त्रों को
जानने वाला तथा उनका प्रचार करने वाला अर्चक था. परन्तु यक्षिणीयों के प्रभाव के
कारण वह अत्यंत क्षीण हो चला था. इस कारण उसकी स्थिति लज्जाजनक हो गई थी. परन्तु
सारे ब्राह्मण इस बारे में मौन ही रहते. इस विषय पर वे चर्चा नहीं करते थे.
एक बार एक बैरागी साधु कुक्कुटेश्वर के मंदिर में बेहोश हो गया. उसके शरीर
में किसी भी प्रकार की हलचल न देखकर लोगों ने सोचा कि वह मर गया है. कुछ ही देर
में उसे श्रीपाद प्रभु के नानाजी, बापन्नाचार्युलु के
पास ले गए. उन्होंने उस साधु की परिक्षा की एवँ बोले कि साधु न तो मृत है, न ही मूर्छित हुआ है, अपितु यह समाधि अवस्था
में है. परन्तु लोगों ने बापन्नाचार्युलु की बात पर विश्वास नहीं किया और वे उस
साधू को दहन हेतु ले गए. आश्चर्य की बात यह हुई कि श्रीपाद प्रभु के कृपा प्रसाद
से उसे अग्नि जला न सका. वह समाधि से बाहर आया और चिता से उठ कर नीचे आया. आठ ही
दिनों में वह साधू पूर्ववत हो गया. परन्तु इस घटना के पश्चात गाँव के ब्राह्मण
समाज ने उसे भिक्षा देना बंद कर दिया, इसलिए उसे मजबूर
होकर ग्वाले के घर रहना पडा. वहाँ उसकी भिक्षा की व्यवस्था हो गई. कुल, जाति, वर्ण का भेदभाव न मानने वाला वह साधू ग्वाला समाज में अति लोकप्रिय हो गया
था.
ग्वाला-समाज में लक्ष्मी नामक एक युवती थी. वह बचपन में ही विधवा हो गई थी.
उसका पति उससे अत्यंत प्रेमपूर्वक व्यवहार करता था. उसे सभी चाहते थे. अपने समाज
में उसे श्रेष्ठत्व प्राप्त था. ग्वालों के बीच के वाद विवाद अपनी कुशाग्र बुद्धि
से वह तत्काल सुलझा देता एवँ योग्य निर्णय लिया करता था. उसकी अल्पायु की ओर न
देखते हुए लोगों ने उसे अपना नेता चुना था. उसकी पत्नी लक्ष्मी बड़ी पतिव्रता
स्त्री थी.
उस दौरान श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी की गाय गुम हो गई थी. इसलिए लक्ष्मी श्रेष्ठी
के घर दूध लाकर दिया करती थी. श्रीपाद प्रभु हमेशा श्रेष्ठी के घर जाया करते थे.
जब भी वे दादी से कहते कि भूख लगी है, महालक्ष्मी समान
वेंकट सुब्बम्मा तुरंत श्रीपाद प्रभु को गरम दूध दिया करती, इतना ही नहीं, वह बड़े प्रेम से प्रभु को मलाई, मक्खन भी देती. एक
बार जब लक्ष्मी दूध लेकर आई, तो श्रीपाद प्रभु
वहीं थे. वे कहने लगे, “मुझे खूब भूख लगी
है.” तब वेंकट सुब्बम्मा ने लक्ष्मी से और दूध लाने के लिए कहा. उसने अपने घर में
खुद के लिए जो दूध रखा था वह भी लाकर दिया और स्वयँ छाछ से काम चलाया.
कुक्कुटेश्वर के मंदिर में दस दिनों तक उत्सव चल रहा था. उत्सव में ब्राह्मणों को
यथोचित दक्षिणा दी जा रही थी. इस कारण यक्षिणी का प्रभाव कुछ कम हो रहा था, परन्तु
अभी भी ब्राह्मण-भोजन के लिए तैयार की गई पाक सामग्री अदृश्य हो जाती थी. इससे
ब्राह्मणों को समय पर भोजन नहीं मिलता था और वे क्षीण होते जा रहे थे.
पुराण वाचक पंडित
की कथा
पीठिकापुरम् में एक पुराण
वाचक पंडित आया था. कुक्कुटेश्वर मंदिर
के बाहर के आँगन में प्रवचन की व्यवस्था की गई थी. पुराण सुनाने के लिए गाँव की
सभी जातियों के लोग आया करते. पुराण वाचक पंडित के भोजन की व्यवस्था
बापन्नाचार्युलु ने अपने घर में की थी. पुराण कहने से पहले वह पुराणिक लक्ष्मी
ग्वालन द्वारा लाया गया दूध पीता था. श्रीपाद प्रभु सभी ह्रदयों के अन्तर्यामी
होने के कारण उन्हें पंडित के बारे में सब कुछ ज्ञात था. यह पुराण वाचक महापंडित
एक महायोगी था. अपनी योग शक्ति से वह अपनी आत्मा द्वारा पूर्व में धारण किये किये
गए रूपों को पहचान सकता था. इन रूपों के चैतन्य को वह आकर्षित कर लेता था. ग्वालन
लक्ष्मी की और वह योग दृष्टि से देखा करता. लक्ष्मी के पति के रूप में भी उस पंडित
को स्वयँ अपनी आत्मा दिखाई देती थी. लक्ष्मी का पति मृत्योपरांत एक ब्राह्मण ज़मींदार के घर बाल रूप में
जन्मा था. उस समय वह चार-पाँच मास का था. पुराण पंडित ने योग शक्ति से यह भी देखा
था कि उसका अपना शक्ति रूप कैसा है. उसका मूल रूप स्त्री समान लक्ष्मी से संबद्ध
था – यह उसे ज्ञात हुआ. उसने अपने स्वरूप को स्त्री तत्व की लक्ष्मी में विलीन
होते हुए देखा. उसका अपना पुरुष तत्व चार मास के बालक में विद्यमान है तथा कुछ ही
दिनों में उसका कर्मशेष पूरा हो रहा है, ऐसा उसे प्रतीत हुआ. पीठिकापुरम् में अपने कर्मऋणानुबंध पूर्ण करने के लिए
उसने पुराण पंडित का रूप धारण किया था.
लक्ष्मी का अपने पति पर निस्सीम प्रेम था. उसके
पति का चैतन्य भूतकाल का शरीर छोड़कर आ नहीं सकता, यह बात उसे मालूम हो गई थी. लक्ष्मी के पति का चैतन्य मूलतत्व पुराण पंडित
में विलीन हो चुका था यह बात सर्वज्ञानी श्रीपाद प्रभु को ज्ञात थी. श्रीपाद प्रभु
ने उस पुराण पंडित से कहा, “अरे, पंडित! यह लक्ष्मी मासूम है, यह कुछ ही दिनों में अपनी जीवन यात्रा पूरी करने वाली है. मृत्यु के
पश्चात इसकी क्या गति होगी? तुम या तो ज्ञान रूपी ब्राह्मण बनोगे अथवा अज्ञानी ग्वाले बनोगे. उस रूप
में लक्ष्मी तेरे दुख-सुख में तेरा साथ देगी. अपने प्रेम से उसने अपने पति के
चैतन्य को अपनी और आकर्षित किया है. ग्वालन के रूप में उपस्थित चैतन्य कुछ दिनों
पश्चात शरीर का पतन होने के बाद ब्राह्मण के चैतन्य में मिल जाएगा ना? यह ग्वालन के रूप में ब्राह्मण स्त्री है. तू
ब्राह्मण के रूप में ग्वाला है. तुम दोनों के कर्म संबंध मुझे भली-भाँती ज्ञात
हैं. भविष्य में ब्राह्मणी स्वरूप लेने वाली इस लक्ष्मी को पद्मावती स्वरूप मानकर
मैं उसे सुवर्ण तिलक लगाकर आशीर्वाद दूँगा और मांगल्य प्रदान करके हिरण्य लोक में
सुरक्षित रखूंगा. अगले जन्म में तुम एक आदर्श दंपत्ति होगे, और मेरे भक्त बनकर तुम्हारा उद्धार होगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. उनकी लीलाएँ
अगम्य, अद्भुत होती हैं.
।।श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ३९
नागेन्द्र शास्त्री के साथ
मैंने कालनाग मणि स्वीकार किया और
अपनी यात्रा पर चल पडा. श्री पीठिकापुरम् क्षेत्र पहुँचने की तीव्र इच्छा थी.
शीघ्रातिशीघ्र पहुँचना चाहता था.
काल नाग का स्वरूप
रास्ते में हमने एक ब्राह्मण का आदरातिथ्य स्वीकार किया. ब्राह्मण का नाम
नागेन्द्र शास्त्री था. वह मन्त्र शास्त्र विद्या में अति निपुण था. उसके घर में
अनेक नाग और सर्प निर्भयता से घूम रहे थे. वे किसी को काटते नहीं थे. नागेन्द्र
शास्त्री इन नागों तथा सर्पों की देखभाल अपनी संतान की भाँति करता था. वे उसके
शरीर पर खेलते रहते.
दिव्य नागों के पास मणि होती है. अनेक वर्षों से नागेन्द्र शास्त्री
नागोपासना कर रहा था. उसने पूजा हेतु “कालनाग मणि” प्राप्त करने के लिए नाग देवता
की अखंड आराधना की थी.
नागमणि का प्रभाव
नागेन्द्र शास्त्री ने
हमसे कहा, “बंधुओं! आज का दिन
अत्यंत शुभ है. आप जैसे थोर व्यक्तियों के
चरण कमल मेरी कुटिया में पधारे. पंद्रह वर्ष की आयु में मैं श्रीपाद प्रभु
के दर्शन के लिए गया था. पीठिकापुरम् क्षेत्र के कुक्कुटेश्वर मंदिर एवँ पादगया
क्षेत्र के दर्शन किये. मंदिर में स्वयंभू दत्तात्रेय की मूर्ति के निकट एक काल
नाग को देखा. उसके फन पर एक मणि थी. काल पर शासन करने वाले नाग को कालनाग कहते
हैं. कालनाग के फन पर मणि होती है और वह किसी महर्षि के समान योग ध्यान में मग्न
रहता है. मानवों के ही समान नागों की भी विभिन्न स्थितियाँ होती हैं. साधारणतः
कालनाग मनुष्य को दिखाई नहीं देता. कालनाग के फन पर स्थित मणि में मंगल गृह से आते
हुए अशुभ स्पंदनों का निवारण करने की शक्ति होती है. इस नागमणि के कारण अशुभ
स्पंदन लुप्त होकर शुभ स्पंदन उत्पन्न होते हैं. इन मंगलदायी स्पंदनों से मंगल
ग्रह से पीड़ित व्यक्तियों की पीड़ा नष्ट होकर उन्हें शुभ फल की प्राप्ति होती है.
यदि जन्म कुण्डली में मंगल ग्रह उचित स्थान पर न हो तो जीवन में अनेक कठिनाइयाँ
आती हैं, जैसे कि घर वालो का विरोध, बांधवों का, मित्रों का विरोध, ऋण-बाधा, कन्या के विवाह में अकारण विलंब, किसी भी काम को करने की सामर्थ्य होते
हुए भी उसमें यश प्राप्ति न होना इत्यादि. स्वयंभू दत्तात्रेय के दर्शन के पश्चात
मेरे मन में नागमणि को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई. ऐसा प्रतीत हुआ
मानो उस मणि को प्राप्त करके जीवन में सब कुछ प्राप्त हो जाएगा.
श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाओं की महिमा;
नाग दोष
निवारणार्थ नियम
मैं नरसिंह वर्मा के घर के निकट से जा रहा था. श्रीपाद प्रभु उनके घर के
सामने के आँगन में लीला विनोद कर रहे थे. साथ में पेड़ों को पानी भी डाल रहे थे.
श्री नरसिंह वर्मा पेड़ों के चारों और क्यारियाँ बना रहे थे. उनके आँगन में एक
औदुम्बर वृक्ष था. उसे पानी भली प्रकार से प्राप्त हो, इसलिए नरसिंह वर्मा जब उसके चारों और क्यारी बना रहे थे, तभी उनके हाथों में श्रीपाद प्रभु की ताम्र
पादुकाएं आईं. उस बारह वर्ष के बालक की वे चरण पादुकाएं सामुद्रिक शुभ लक्षणों से
युक्त थीं. तभी मेरे कानों में “नागेन्द्र शास्त्री” ऐसी पुकार आई. मैं आश्चर्य से
उनके निकट गया. नरसिंह वर्मा उन चरण पादुकाओं को शुद्ध जल से, एवँ उसके पश्चात
नारियल के जल से धो रहे थे. उन्हें धोकर नरसिंह वर्मा ने श्रीपाद प्रभु के चरण
कमलों के पास रखा. वर्मा उन चरण पादुकाओं की पूजा करने के लिए अत्यंत उत्सुक
प्रतीत हो रहे थे, परन्तु श्रीपाद प्रभु की इच्छा कुछ और ही थी. उन्होंने उन चरण
पादुकाओं को बड़े प्रेम से सहलाया और नागेन्द्र शास्त्री से बोले कि वे एक पीठ की
स्थापना करके इन चरण पादुकाओं की पूजा करें. प्रभु बोले, “नागेन्द्र शास्त्री, तू ‘कालनाग मणि’ की प्राप्ति के लिए बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहा था. मैं तुझ पर प्रसन्न
हूँ, कालनाग जिन दिव्य पादुकाओं की आराधना करके अपनी
दिव्य मणि से जिस स्वामी की पूजा करता है, वह महास्वामी मैं ही हूँ. ये दिव्य पादुकाएं मेरी ही हैं. इन्हींकी तुम
नित्य नियम पूर्वक पूजा करते रहो. आधि-व्याधि से पीड़ित जन तुम्हारे पास आयेंगे.
उन्हें इन चरण पादुकाओं का तीर्थ देना. इसे प्राशन करते ही उन्हें व्याधियों से
मुक्ति प्राप्त होकर शान्ति मिलेगी.” इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने नागदोष
परिहारार्थ दी जाने वाली दक्षिणा के बारे में विस्तार से बताया और बोले, “अरे नागेन्द्र शास्त्री! मेरे इन वचनों का तुम
पालन करना. लोक कल्याण के लिए ही नागशास्त्र विद्या का उपयोग करना.”
दत्त प्रभु की
आराधना करने वाले भक्तों को प्राप्त विशेष फल
श्रीपाद प्रभु बोले, “हे नागेन्द्र
शास्त्री! कालान्तर से शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त तुम्हारे पास अवश्य आयेंगे. मेरी
दिव्य चरण पादुकाओं के कारण तुझे दिव्य कालनाग मणि अवश्य प्राप्त होगी, तब तक तू नित्य नियम से मेरी दिव्य पादुकाओं की
आराधना करना. जिस प्रकार शरीर धर्म का भी एक काल होता है, उसी प्रकार मन का, प्राण का भी एक काल होता है, परन्तु आत्मा
कालातीत है. प्रत्येक ग्रह-नक्षत्र के अनुसार वह एक विशेष काल होता है. वृद्धि
अथवा क्षय कालानुसार होते रहते हैं. अनेक ब्रह्मांडों का जन्म होकर उनकी वृद्धि
होती है. कुछ काल तक वे एक स्थिति में रहते हैं, तत्पश्चात वे सब विलीन हो जाते हैं. यह अंत ही काल-महिमा है. इस प्रकार का
काल-स्वरूप भी मेरे ही आधीन है. मेरी आराधना करने वालों के काल पुरुष को मैं सदा
अनुकूल रखता हूँ. दत्त आराधना करने वाले साधकों का भूत-प्रेत पिशाच्चादि शक्तियां
भी कुछ भी बिगाड़ नहीं सकतीं; उनका बुरा नहीं कर
सकतीं. इस सृष्टि में विद्यमान सभी प्राणियों से अधिक बलवान मैं ही हूँ. मुझसे ही
बल प्राप्त करके जीवराशियाँ वृद्धिंगत होती हैं. गर्व से मदोन्मत्त हुए मानव से
मैं अपना बल वापस ले लेता हूँ. गर्व के लिए, अहंकार के लिए तथा अन्य सभी अनिष्ट स्वरूप की घटनाओं के लिए मैं ही
कारणीभूत हूँ. मेरी आराधना करते हुए, सदा शांत चित्त होकर
रहने वालों को मैं नित्य संतुष्ट रखता हूँ, उन्हें आनंद प्रदान करता हूँ.
उन महापुरुषों ने श्री वर्मा के घर मेरे भोजन की व्यवस्था की थी. श्री वर्मा
स्वयँ भी अन्नदाता हैं. दत्तात्रेय प्रभु को अन्नदान बहुत प्रिय था. कोई भी प्राणी
यदि भूखा रहता, तो उन्हें बड़ी दया आती थी. वे उसके भोजन की व्यवस्था
करते. वे सर्वभूत हितकारी थे. मैं महास्वामी की आज्ञा लेकर निकल पडा. इस स्थान पर
मैंने आश्रम बनाया. जो भी कोई मेरे पास आता उसे मैं वर्णाश्रम धर्म के बारे में
समझाता. श्रीपाद प्रभु ने मुझसे कहा, “अपनी मन्त्र
शास्त्र विद्या का प्रयोग अच्छे कामों के लिए करना. पंडितों की निरपेक्ष भाव से
सेवा करना. लोगों द्वारा केवल स्वेच्छा से दिए गए धन का ही स्वीकार करना. अधिक धन की अपेक्षा न करना.”
।। श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं
शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४०.
भास्कर शास्त्री, शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त के अनुभव
हम अनेक प्रकार के वाहनों
से यात्रा कर रहे थे. कभी पैदल, कभी दो बैलों वाली गाडी से या कभी घोड़ा-गाडी से. हमारी यात्रा जारी थी. इस
तरह से यात्रा करते हुए हम त्रिपुरान्तक क्षेत्र पहुंचे. वहाँ त्रिपुरान्तकेश्वर
के दर्शन किये. इस स्थान पर हमें अनेक दिव्य अनुभव प्राप्त हुए. हमारे पास श्रीपाद
प्रभु की दिव्य पादुकाएं थीं. हमें ऐसा प्रतीत होता कि हमारे साथ-साथ श्रीचरण भी
चल रहे हैं. मानो हमारे पैर जब आगे बढ़ते तो उनमें श्रीचरण ही प्रवेश करके उन्हें
आगे बढाते. हम जब बातें भी करते, तो समझ नहीं पाते थे कि क्या कह रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता मानो श्रीपाद
प्रभु ही हमारे माध्यम से बोल रहे हों. हम भोजन करते, तो मानो वे हमारे मुख के माध्यम से स्वयँ भोजन करते. ऐसा अनुभव हो रहा था
मानो हमारे शरीर के मांस, रक्त, नाड़ियों में श्रीपाद प्रभु ही प्रविष्ट हो गए हैं. शास्त्रों के कथन, “जीवात्मा ही परमात्मा है”, को हमने सुना तो था, मगर आज यह अनुभव हो रहा था कि श्रीपाद प्रभु के
स्पर्श के बिना ही, उनका चैतन्य हमारे समूचे शरीर में व्याप्त हो गया है. इस प्रकार की लीला
हमने पहले कभी न तो देखी थी, न ही उसके बारे में कभी सुना था.
श्री त्रिपुरान्तकेश्वर
के अर्चक स्वामी का नाम था भास्कर शास्त्री. उन्हें हम पर बहुत गर्व था. वे
पीठिकापुरम् में वास कर चुके थे. अर्चना करने के लिए उनकी नियुक्ति हुई थी. वे
षोडशी राजराजेश्वरी देवी के भक्त थे. श्री पीठिकापुर निवासिनी कुक्कुटेश्वर
महाप्रभु की स्वामिनी श्री राजराजेश्वरी देवी ने उन्हें स्वप्न में मन्त्र दीक्षा
दी थी. उन्होंने हमसे विनती की, कि हम उनके घर में आतिथ्य स्वीकार करें. उन्हें
ज्ञात था कि हमारे पास श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाएं हैं, हमने वे चरण पादुकाएं उनके पूजा-मंदिर में रखी थीं. उन चरण पादुकाओं से
प्रभु की दिव्य वाणी सुनाई दी. प्रभु ने कहा, “बच्चों, तुम कितने धन्य हो. इन चरण पादुकाओं की भास्कर शास्त्री पूजा किया करते
थे. ये पादुकाएँ वर्त्तमान में ताम्र रूप में हैं. भास्कर शास्त्री की मंत्रोपासना
के बल पर कुछ सालों में वे सुवर्ण रूप में परिवर्तित हो जायेंगी. हिरण्य लोक के
कुछ महापुरुषों ने इन चरण पादुकाओं को हिरण्यलोक ले जाकर उनकी अर्चना एवँ अभिषेक
किया था. इसके पश्चात ये पादुकाएँ कारण लोक में विद्यमान मेरे पास लाई गईं. इन
पादुकाओं को पहन कर मैं कारण लोक में आकर यहाँ की दिव्य आत्माओं को आशीर्वाद देता
हूँ. इसके बाद हिरण्यलोक जाकर वहाँ के महापुरुषों को आशीर्वाद देता हूँ. उस समय
मेरी पादुकाओं को तेजोमय सिद्धि प्राप्त होती है. भविष्य में इन चरण पादुकाओं को
अठारह हज़ार महासिद्ध पुरुष स्वर्ण विमान में ले जायेंगे और पीठिकापुरम् में मेरे
जन्म स्थान पर समन्त्र पूजा-अर्चना करके ज़मीन के नीचे तीन सौ फुट की गहराई पर इनकी
प्रतिष्ठापना करेंगे. वहाँ स्वर्णमय कान्तियुक्त दिव्य नाग प्रतिदिन मेरी अर्चना
करेंगे. उनके साथ चौंसठ हज़ार योगिनी होंगी.
चरण पादुकाओं को स्वर्ण सिंहासन पर रखा जाएगा. वहाँ मैं ऋषि समुदाय और
योगिनियों के साथ दरबार भर कर सबको सत्संग का लाभ दूँगा. इस भूमि से संलग्न, परन्तु अदृश्य एवँ अगोचर एक और स्वर्ण
पीठिकापुरम् है. उसका अनुभव केवल योगदृष्टि वाले भक्तों को ही होता है. मेरी
सुवर्ण पादुकाओं की प्रतिष्ठा जिस स्थान पर होगी, उसी स्थान पर पीठिकापुरम् की
स्थापना होगी. अतः तुम सब लोग अत्यंत प्रसन्न चित्त होकर रहो, भविष्य में अनेक विचित्र घटनाएं होने वाली है.
मेरे महासंस्थान में मेरी चरण पादुकाओं के दर्शन के लिए भक्तों की चींटियों जैसी
कतार लगेगी.”
यह देव वाणी सुनकर हम अत्यंत
आश्चर्यचकित हो गए. शरीर पर रोमांच उठ आये, नेत्रों से अश्रु बहने लगे. पता ही
नहीं चला कि हम ऐसी स्थिति में कितनी देर तक थे. श्री भास्कर शास्त्री षोडशी
राजराजेश्वरी के परम श्रेष्ठ भक्त थे. मैंने उनसे प्रार्थना की कि राज राजेश्वरी
देवी के वैभव के बारे में वर्णन करें.
श्री राज राजेश्वरी देवी विवेक की खान है
श्री भास्कर शास्त्री बोले, “ बंधुओं, श्री राजराजेश्वरी देवी के चैतन्य का विचार
करने वाला तुम्हारा मन विशाल सीमा पार करके जाने वाला है. राजराजेश्वरी के शुद्ध
आचरण से तुम्हारे सर्व साधारण मन, मेधा व शक्ति में
परिवर्तन होगा. तुम्हारी बुद्धि विवेकपूर्ण बनाने के लिए वह महामाता तुम्हारी
सहायता करेगी. संकुचित वृत्ति का निर्मूलन करके तुम्हें विशाल दृष्टी प्रदान
करेगी.
आम तौर से किसी व्यक्ति में शक्ति एवँ विवेक दोनों एक साथ नहीं दिखाई देते.
परन्तु राजराजेश्वरी देवी के अनुग्रह से शक्ति एवँ विवेक दोनों ही एक ही व्यक्ति
में स्थिर हो जाते हैं. दिव्य चैतन्य अनेक रूपों में विद्यमान है - इन रूपों को
समझने की शक्ति हमें राजराजेश्वरी देवी से प्राप्त होती है. विश्व में उदात्त
भावों की वृद्धि करने में श्री राजराजेश्वरी मुक्त हस्त से सहायता देती हैं.
अत्यंत अद्भुत दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हेतु, शाश्वत दिव्य मातृशक्ति की प्राप्ति हेतु, विश्व के महान कार्यों की सफलता हेतु माता का
अनुग्रह अत्यंत आवश्यक है. श्री राजराजेश्वरी देवी अनंत विवेक की खान हैं. यदि वे
किसी बात को जानने का संकल्प करें, तो उसे जान लेती है. इस विश्व में ऐसी कोई चीज़ नहीं, जो उनके लिए अगम्य हो. सभी विषय, सभी जीव, उनके स्वभाव, उन्हें गतिमान करने की
सामर्थ्य; इस विश्व का प्रत्येक धर्म, उससे संबंधित योग्य काल – ये
सभी राजराजेश्वरी देवी के आधीन हैं. माता में पक्षपाती दृष्टि नहीं है. उन्हें न
तो किसी के प्रति अभिमान या न ही किसी के प्रति द्वेष है. जो भक्त साधना के बल पर
माता के दर्शन की अभिलाषा करते हैं, उन्हें विश्वासपात्र समझ कर वे अपने अन्तरंग में
स्वीकार करती हैं. साधक राजराजेश्वरी देवी की शक्ति में वृद्धि करके, अपने विवेक बल से विरोधी
शक्तियों का निर्मूलन कर सकते हैं. माता अपने भक्तों को इच्छित फल की प्राप्ति
करवाती है. श्री राजराजेश्वरी देवी विश्व में किसी के भी साथ कोई अनुबंध रखे बगैर
अर्थात, असंगत्व की भावना से अपना कार्य करती रहती हैं. माता
अपने प्रत्येक साधक से उसके स्वभाव के, उसकी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार करती हैं. वह किसी
पर भी बलपूर्वक शासन नहीं करतीं. साधना पूरी होने के पश्चात वह अपने भक्तों को
उनकी योग्यतानुसार प्रगति पथ पर अग्रसर करती हैं. अज्ञानियों को उनके अज्ञान मार्ग
पर जाने देती हैं. उस मार्ग से जानेवाले भक्तों का पालन-पोषण करके उनके अपराधों को
क्षमा करती हैं. वे चाहे अच्छा व्यवहार करें या बुरा, वह उस पर ध्यान नहीं देतीं.
माता की करुणा अनंत है. वह इस संसार रूपी सागर से तारने वाली हैं. उनकी दृष्टि में
समूचे संसार के सभी मानव उनकी संतान के समान हैं. राक्षस, असुर, पिशाच सभी को वह अपनी संतति
की भाँति देखती हैं. चाहे उनके मन में कितनी ही दया उत्पन्न हो, परन्तु उनका विवेक सदा जागृत
रहता है. परमात्मा द्वारा निर्देशित मार्ग वह किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़तीं.
उसकी शक्ति का ज्ञान केंद्र वे स्वयँ ही हैं. इसलिए उनका अनुग्रह प्राप्त करने पर
हमें “सत्यज्ञान बोध” होता है. यदि राजराजेश्वरी देवी की शक्ति प्राप्त करनी हो तो
हमें कर्तव्य दक्षता, सत्य शोधन आदि गुणों का पालन करना चाहिए.
मैंने पीठिकापुरम् में वास किया था, इसलिए मैं श्रीपाद
प्रभु की कृपा का पात्र बन सका. इन्हीं के कृपा प्रसाद के कारण मेरी राजराजेश्वरी
देवी की दीक्षा फलीभूत हुई. आज मेरा दीक्षा दिन है. अपनी प्रगति की जांच का दिन.
साथ ही अधिक समय तक ध्यान करने का दिन. श्रीपाद प्रभु किस परिस्थिति में पीठिकापुरम् से निकल कर संचार करने के लिए
निकलेंगे, यह मैं आपको कल बताऊँगा.. आपके यहाँ आने से पहले
मैंने श्रीपाद प्रभु को जो प्रसाद अर्पण किया था, उसमें से थोड़ा सा भी यदि
ग्रहण करोगे तो आप भी धन्य हो जाओगे.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४१
परिव्राजक का वृत्तांत
श्री भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली, राजराजेश्वरी
स्वरूप हैं. उनके देवीतत्व का ज्ञान उनका अनुष्ठान करने वाले भक्तों को होता है.”
मैंने भास्कर पंडित से पूछा, “हे आर्य!
मैंने सूना है कि वाणी के चार रूप – परा, पश्यंती, मध्यमा एवँ वैखरी होते हैं. कृपया इनके बारे में
विस्तार से बताएँ.” इस पर भास्कर पंडित बोले, “अंबिका प्रत्येक वाक्य द्वारा व्यक्त होती है. वह
प्रत्येक व्यक्ति के माध्यम से बोलती है. जो वाक्य हम अपने कानों से सुनते हैं, वह स्थूल
होता है. कभी-कभी वाक्य मुख के बाहर बिलकुल सुनाई नहीं देता, केवल होठों की हलचल से ही अर्थ बोध
होता है. तब इसे “मध्यमा” वाणी कहते हैं. इस “मध्यमा” से कुछ और सूक्ष्म वाणी को
“वैखरी” कहते हैं. कंठ के भीतर जब वाणी गले तक आए, परन्तु बाहर
न आ सके, अर्थात जो भीतर ही भीतर मन में घूमती है, उसे
“पश्यंती” वाणी कहते हैं. इस “पश्यंती” से भी सूक्ष्म वाणी को, जो नाभि स्थान से निर्विकल्प रूप
से संकल्प मात्र होती है, वह “परा” वाणी है.
अंबिका की आराधना त्रिपुर भैरवी
स्वरूप में भी की जाती है. गुणत्रय, जगत्रय, मूर्तीत्रय, अवस्थात्रय – इन सबकी आदिशक्ति त्रिपुर भैरवी है.
बालकों! यदि हम श्रद्धापूर्वक आत्मसमर्पण करके संपूर्ण शरणागति स्वीकार कर लें, तो इस लोक
में अथवा अदृश्य लोक में किसी भी प्रकार का शत्रुत्व हमारा कोई नुक्सान नहीं कर
सकता. विरोध शक्ति केवल भौतिक जगत में ही सीमित नहीं है, बल्कि वह
प्राणमय, भौतिकमय, मानसिकमय, अध्यात्मिकमय भी होती है. हमें जितनी प्रगति करने की
इच्छा है, उतनी प्रगति प्राप्त करने पर, भौतिक जगत
में हम जिस प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य लोकों में भी उसी प्रकार का जीवन बिता सकते हैं.
मानव को यदि प्रगति करना हो, तो मन में
श्रद्धा का होना आवश्यक है. हम अपना जीवन विश्वास के आधार पर ही बिताते हैं. संकट
के समय परमेश्वर निश्चय ही सहायता करेंगे और वे ही इस संकट से मुक्ति देंगे, यह दृढ़
विश्वास मन में होना चाहिए. यह विश्वास ही एक प्रकार की सुरक्षा की भावना उत्पन्न
करता है और आत्मविश्वास को बढाता है.
शक्तिहीन ज्ञान निर्लेपता की और
बहता है.ज्ञानहीन शक्ति अंधी होती है और वह विनाश का कारण बनती है. इसलिए मानव को
ज्ञान संपादन करके प्रकृति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए. शक्ति अनुग्रह के
उपरांत परिपूर्णता साधनी चाहिए.
सांख्य मार्ग में चैतन्य को पुरुष
कहा गया है. कर्म करने वाले को प्रकृति कहा गया है. निम्नावस्था में इन दोनों में
विरोध होता है. चैतन्य – कर्म नहीं करता एवँ प्रकृति में ज्ञान नहीं होता. प्रकृति
एवँ पुरुष दोनों मिलकर ही सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं. ये दोनों ही अपंग हैं.
चैतन्य – देखा जाए तो लंगडा है और प्रकृति – अंधी है. सभी लोगों में यह अपंगत्व-
अंधापन और लंगड़ापन – किस प्रकार व्याप्त है, यह समझाने के लिए श्रीपाद प्रभु के परिवार में एक भाई
जन्म से अंधा था तथा एक भाई जन्म से लंगडा था. ये दोनों अंधत्व एवँ लंगडेपन के
प्रतीक थे.
उन्नत स्थिति में पहुँचने पर पुरुष
एवँ प्रकृति “ईश्वर” तथा “ईश्वरी” नाम से जाने जाते हैं. तब इन दोनों में परस्पर
विरोध नहीं होता. श्रीपाद प्रभू योग्य काल आने पर अपने बंधुओं का अपंगत्व दूर
करेंगे, इसमें कोइ संदेह नहीं. लोगों में व्याप्त अंधत्व एवँ
पंगुत्व को दूर करने के अपने ब्रुहदत्तर कार्य की सूचना स्वरूप वे यह करेंगे. अतीत
ऐसे स्वामी रूप में विद्यमान पुरुष-प्रकृति को ब्रह्म माया के नाम से संबोधित किया
जाता है. श्रीपाद प्रभु ने अपनी आयु के सोलहवें वर्ष में वैराग्य धारण किया और घर
त्याग कर धर्म प्रचार हेतु निकल पड़े. इस गृहत्याग का उद्देश्य था सामान्य लोगों को
यह समझाना कि वे स्वयं ही ब्रह्म हैं और वे ही माया हैं. अपरिमित एवँ अनंत गुणों
से युक्त ब्रह्मस्वरूप को परिमितता देने वाली शक्ति ही माया है. श्रीपाद प्रभु का
जन्म पीठिकापुरम् में हुआ – इसका उद्देश्य यह सूचित करना था कि वे अपरिमित
ब्रह्मस्वरूपी होने के कारण माया के सम्मुख न झुकते हुए परिमित व्यवहार करते हैं.
सोलह वर्ष की आयु में वे माया के बंधन में न पड़कर केवल भक्तों का उद्धार करने का
संकल्प करके घर त्याग कर चले गए.
समूचे विश्व में श्रीपाद प्रभु की
महिमा का विस्तार होने के पश्चात आगामी शतक में उनके संकल्प के अनुसार पीठिकापुरम्
के निवासियों का भी ज्ञानोदय होने वाला है. श्रीपाद प्रभु की दिव्य चैतन्य शक्ति मानव चैतन्य के अंधत्व तथा अपंगत्व का निवारण करेगी.
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ सामान्य मानवों के लिए अनाकलनीय हैं.
एक बार एक सन्यासी श्री
कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आया. वह श्री दत्तात्रेय का भक्त था. वह दत्त दीक्षा भी
दिया करता था. उसने अपने वक्तव्य में कहा था कि दत्त दीक्षा लेने से मानव का
नियोजित कार्य बिना किसी विघ्न बाधा के सिद्ध हो जाता है. पीठिकापुरम् के अनेक
ब्राह्मणों ने दत्त दीक्षा स्वीकार की. वह सन्यासी दीक्षा देकर साधक से दक्षिणा
स्वीकार करता था. इस दक्षिणा का कुछ भाग वह दीक्षित ब्राह्मणों को दिया करता. अनेक
ब्राह्मणों तथा अन्य कुलीनों ने विचार विमर्श करके दत्त दीक्षा ली और गुरुदक्षिणा
दी. परन्तु मंदिर में आये कुछ लोगों में यह विवाद प्रारम्भ हो गया कि दत्त दीक्षा
ली जाए अथवा नहीं. ब्राह्मण परिषद्, क्षत्रिय परिषद्, वैश्य
परिषद् का एक संयुक्त सम्मलेन आयोजित किया गया. सम्मलेन के अध्यक्ष श्री
बापन्नाचार्युलु थे. वे बोले, “श्री दत्तात्रेय प्रभु सभी के हैं. अतः सभी दत्त
दीक्षा ले सकते हैं. अष्टादश वर्णों के लोग सन्यासी महाराज से दत्त दीक्षा ले सकते
हैं. दीक्षा प्राप्त करने की यह सुवर्ण संधि सभी के लिए उपलब्ध है. इस अवसर पर
ब्राह्मण परिषद् के कुछ व्यक्तियों का यह मत था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय
एवँ वैश्य आचार संपन्न होने के कारण दीक्षा के पात्र होते हैं, परन्तु शूद्र अनाचारी होने के कारण
दीक्षा के अधिकारी नहीं हैं. उनसे दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से उन्हें शुद्ध
कर सकते हैं. इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “सभी कुलों में आचारवंत तथा अनाचारी – दोनों प्रकार
के लोग होते हैं. कौन आचारवान है तथा कौन अनाचारी – यह कहना कठिन है. इसलिए
सामूहिक कल्याण, स्थैर्य, क्षेम को दृष्टिगत रखते हुए हम श्री दत्त-होम अथवा
अन्य यज्ञ-यागादी कार्यक्रम करके संघ के भीतर क्षेम, स्थैर्य
बनाए रख सकते हैं. दक्षिणा लेकर शूद्रों को दीक्षा न देना उन पर अन्याय करने के
समान है, ऐसा मेरा मत है. दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से
शूद्र लोगों को शुद्ध करने के पश्चात ब्राह्मण, क्षत्रिय
एवँ वैश्य लोगों का भी उद्धार कर सकते हैं. इस प्रकार किसी भी कुल के लोगों को
व्यक्तिगत दीक्षा की आवश्यकता नहीं. इसके अतिरिक्त दक्षिणा की राशि बहुत अधिक रखी
गई है. प्रत्येक कुल में गरीब लोग होते हैं. वे इतनी धन राशि दक्षिणा के रूप में
नहीं दे पायेंगे. इतना धन देने के पश्चात उन्हें कुछ दिनों के लिए भूखा रहना
पडेगा. अतः दक्षिणा ऐच्छिक होनी चाहिये. यथाशक्ति एवँ श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से दी
गई दक्षिणा का ही स्वीकार करना चाहिए, तभी श्री दत्त प्रभु संतुष्ट होंगे.”
इस पर वहाँ एकत्रित ब्राह्मण बोले, “महाराज जब
हमारे गाँव में पधारे तो हमने उनका स्वागत पूर्ण कुम्भ से एवँ वेद मन्त्रों के घोष
से नहीं किया. महाराज ने स्वयँ ही जनहित की भावना से हम सबको दत्त दीक्षा दी, परन्तु हमारी ब्राह्मण परिषद् ने
उन्हें कुछ भी नहीं दिया, यह बड़ी लज्जाजनक बात है.”
इस पर बापन्नाचार्युलू ने कहा, “वास्तव में
देखा जाए तो परमहंस परिव्राजकाचार्य का स्वागत करने की एक विशेष विधि होती है.
प्रथम, उनके प्रधान शिष्यों द्वारा कुछ दिन पूर्व ब्राह्मण
परिषद् को सूचना भेजी जानी चाहिए. परिषद् इस पर पूरी तरह से विचार करके प्रधान
शिष्यों से विचार विमर्श करके सारी बातें निश्चित करती है. इससे प्रधान शिष्यों का
सबसे परिचय हो जाता है. तत्पश्चात परिषद् एक निर्णय लेकर एक योग्य परिव्राजक शिष्य
का चुनाव करती है. इसके बाद परमहंस परिव्राजक अपने पधारने का निर्णय लेते हैं. तब
उनका स्वागत वेदमंत्रों से, पूर्ण कुम्भ से किया जाता है. फिर उनके साथ शास्त्र
चर्चा की जाती है. फिर परिव्राजक महोदय की सूचनानुसार यज्ञ, याग, दीक्षा अथवा
प्रवचनों का आयोजन किया जाता है. इस प्रकार की कोई भी पूर्व सूचना दिए बिना
परिव्राजकाचार्य कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आ गए. आते ही उन्होंने दीक्षा का
प्रस्ताव रखा एवँ गुरुदक्षिणा की भी मांग की. यह सब हमारे नियमों के विरुद्ध हुआ
है.”
इस पर ब्राह्मणों ने उत्तर दिया, “नियमों के
उल्लंघन के बारे में चर्चा करने का यह समय नहीं है. अब आप अथवा आपके दामाद
अप्पल्रराजू शर्मा दीक्षा दक्षिणा देने वाले हैं अथवा नहीं ?” इस पर बापन्नाचार्युलु ने उत्तर
दिया, “सामूहिक स्थैर्य के लिए दीक्षा लेने का हमारा विचार
है. व्यक्तिगत क्षेम अथवा स्थैर्य के लिए नहीं. हम दीक्षा नहीं ले रहे, इसलिए
दक्षिणा भी नहीं देंगे. जिन ब्राह्मणों को दीक्षा लेनी है वे स्वेच्छा से दीक्षा
ले सकते हैं. ब्राह्मण परिषद् सामूहिक समस्याओं के निवारण के लिए होती है. सामूहिक
प्रयोजन वाले विषयों पर परिषद् विचार विनिमय करती है. व्यक्तिगत दीक्षा एवँ
व्यक्तिगत समस्या पर विचार नहीं करती.” श्रेष्ठी एवँ नरसिंह वर्मा ने दीक्षा लेने
से इनकार कर दिया. ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य लोगों को उनकी इच्छानुसार दीक्षा
लेने अथवा न लेने की स्वतंत्रता दी गई थी.
श्रीपाद प्रभु से दत्त दीक्षा
श्रीपाद प्रभु पर श्रद्धा भक्ति
रखने वाले लोगों में कुछ काश्तकार / किसान भी थे. इनमें प्रमुख थे वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी. श्रीपाद प्रभु वेंकटप्पय्या के घर गए और कहने लगे, “दत्त
दीक्षा प्राप्त नहीं हुई इस बात से कोई भी निराश न हो. मैं दत्त दीक्षा दूँगा.
इसके लिए मंडल (४० दिन) दीक्षा की भी आवश्यकता नहीं. एक रात भी दीक्षा ली जाए तो
पर्याप्त है.”
श्रीपाद प्रभु एक दिन भर
वेंकटप्पय्या के घर अष्टादश वर्ण के लोगों को दीक्षा दे रहे थे. दीक्षा ग्रहण करने
वाले साधकों में कुछ ब्राह्मण, कुछ क्षत्रिय एवँ कुछ वैश्य थे.
श्रीपाद प्रभु का श्री दत्तात्रेय
स्वरूप में प्रकट होना
श्रीपाद प्रभु बहुरूपी थे – यह
उनके श्री दत्त स्वरूप में प्रकट होने का दिन था. वह दिन दत्त प्रभु का प्रिय दिन
गुरूवार था. जिन भक्तों को उन्होंने दीक्षा दी थी, उन्हें मंगल आशीर्वाद दिया. सब भक्तों ने बड़े श्रद्धा
भाव से श्री दत्त प्रभु का भजन अर्चन किया. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने अपने
भावी कार्यक्रम के बारे में भक्तों को विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने भक्तों से कहा
कि श्री दत्त प्रभु स्मरण करते ही भक्तों को दर्शन देते हैं और उनकी मनोकामनाएं
पूर्ण करते हैं. इसके बाद दूसरे दिन (अर्थात शुक्रवार को) सुबह मैं नरसिंह वर्मा
के घर गया. वहाँ श्रीपाद प्रभु का मंगल स्नान हो रहा था. स्नान के पश्चात नरसिंह
वर्मा ने श्रीपाद प्रभु को खाने के लिए अनेक फल लाकर दिए परन्तु उन्होंने केवल एक
केला ही उठाया. वह भी वर्मा के घर में बंधी गोमाता को दे दिया. इसके पश्चात वे
वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर आये. यहाँ भी उन्हें मंगल स्नान करवाया गया. वहाँ
श्रीपाद प्रभु ने मक्खन, दूध, छाछ एवँ मलाई स्वीकार की. वहाँ उन्होंने कहा, “मेरे भक्त मुझे बुला रहे हैं. पीठिकापुरम् छोड़कर
जाने का समय हो रहा है.”
वेंकटप्पय्या के घर से निकल कर वे
अपने नाना जी बापन्नाचार्युलु के घर आये. वहाँ भी उन्होंने मंगल स्नान किया.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु प्रत्यक्ष दत्त स्वरूप हैं. उन्होंने अपने भक्तों के दुःख, पीड़ा, बाधाएं दूर करने के लिए अवतार धारण
किया है. अपने वक्तव्य में उन्होंने अनेक बार स्पष्ट रूप से यह बात कही थी. अपनी
दिव्य लीलाओं द्वारा जनता जनार्दन के उद्धार हेतु नियत किये गए कार्यक्रम की
जानकारी श्रीपाद प्रभु ने अपने भक्तों को दी. इसके पश्चात वे अपने घर आये. श्रीपाद
प्रभु के पीठिकापुरम् छोड़कर जाने के निश्चय के बारे में उनके माता-पिता को ज्ञात
हो चुका था. उन्होंने श्रीपाद प्रभु को समझाने का काफी प्रयत्न किया, परन्तु प्रभु अपने निर्णय पर अडिग
रहे. इसके बाद श्रीपाद प्रभु के माता-पिता ने उनके विवाह संबंधी चर्चा आरम्भ की.
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “मैंने अनेक बार श्रेष्ठी दादा जी
को, वर्मा दादा जी को अनघालक्ष्मी सहित
दर्शन दिए हैं. इस दिव्य दंपत्ति का विहार श्रेष्ठी दादाजी की आमराई में सबने देखा
है. यह देखो अनघा लक्ष्मी सहित मेरा दिव्य मंगलमय स्वरूप.” इतना कहकर
श्रीपाद प्रभु ने उस दिव्य स्वरूप के दर्शनों का लाभ माता-पिता को दिया. उस मंगलमय
स्वरूप को देखकर माता-पिता भाव विभोर हो गए. उनके मुख से शब्द ही नहीं निकले.
श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं जब अवधूत रूप में आया था, तभी मैंने कहा था कि मेरे विवाह का प्रस्ताव रखते ही
मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा.”
इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने अपने
दोनों बड़े भाइयों को स्पर्श करके अपनी अमृतमय दृष्टी से उनकी और देखा. तत्काल अंधे
बंधू को दृष्टी प्राप्त हो गई, और पंगु भाई चलने लगा. उस दिव्य
स्पर्श से दोनों बंधुओं को ज्ञान की प्राप्ति भी हो गई और वे ज्ञान के तेज से
दमकने लगे. यह सब देखकर प्रभु के माता-पिता को आनंदाश्चर्य का धक्का लगा, उनके मुख से शब्द ही नहीं फूटे.
तभी वहाँ नानी राजमाम्बा और नाना जी बापन्नाचार्युलू आये. साथ ही वेंकटप्पा
श्रेष्ठी और उनकी धर्मपत्नी सुब्बमाम्बा; नरसिंह वर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी अम्माजम्मा आए.
श्रीपाद प्रभु प्रसन्नता पूर्वक सबके साथ हँसी मज़ाक करते हुए बातें कर रहे थे. तब
सुमति महाराणी ने कहा, “बेटा, श्रीपाद! तुमने कहा था कि तुम सारी जिम्मेदारियां
पूरी करके जाओगे परन्तु तुमने अभी तक वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर की दूध बाकी , वत्सवाई के घर की दूध बाकी, मल्लादी की दूध बाकी पूरी नहीं की.” इस पर श्रीपाद
प्रभु बोले, “माँ! तुम ठीक कहती हो. इन तीनों
वंशों के लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा. यदि मैं भूल भी जाऊँ, तो तुम याद दिला देना. उनसे यथायोग्य सेवा करवाकर मैं
उन्हें वर प्रदान करूंगा. तुम्हारे मायके के किसी एक घर में भोजन के लिए आता
रहूँगा, परन्तु दक्षिणा स्वीकार नहीं
करूंगा. तुम्हारे मायके के लोग मुझसे अत्यंत वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करते हैं, और मुझे दामाद कहकर संबोधित करते हैं. मैं इस मानवी
संबंध को स्वीकार करके उनके साथ दामाद के लिए योग्य व्यवहार ही करूंगा.” इतना कहकर
श्रीपाद प्रभु ने पिता की और मुड़कर कहा, “तात, हमारे घंडीकोटा वंश में अनेक वर्षो
से वेद परंपरा चली आ रही है. अब मेरे दोनों बड़े भाई वेदशास्त्र संपन्न होकर
महापंडित हो गए हैं. वे अपनी वेद परंपरा जारी रखेंगे. घंडीकोटा वंश के
लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा.” श्रीपाद प्रभु कुछ देर आँखें बंद करके बैठे और
फिर बोले, “अपने श्रीधर शर्मा आगे किसी जन्म
में “समर्थ रामदास” नाम से एक महापुरुष के रूप में महाराष्ट्र में जन्म लेंगे.
नरसिंह वर्मा छत्रपति शिवाजी के नाम से जन्म लेकर महाराष्ट्र में राज्य स्थापित
करेंगे और श्री समर्थ रामदास का शिष्यत्व स्वीकार करेंगे. इस प्रकार अपने पूर्व
संबंध बंधू रूप में स्पष्टत: कायम रहेंगे. समर्थ रामदास के पश्चात श्रीधर शर्मा
शिवग्राम (शेगांव) क्षेत्र में गजानन नामक महायोगी के रूप में जन्म लेंगे. उनके
कारण शिवग्राम क्षेत्र की महिमा अपरंपार बढ़ेगी. रामराज शर्मा
“श्रीधर” के नाम से जन्म लेकर महायोगी बनेंगे. श्रीधर की शिव परंपरा वाले इस
पीठिकापुर में मेरे आंगन में महासंस्थान का निर्माण होने वाला है. वेंकटप्पय्या
श्रेष्ठी के साथ के अपने ऋणानुबंध स्थायी स्वरूप ग्रहण करेंगे. इतना ही नहीं, बल्कि इसके पश्चात वत्सवाई कुटुंब के लोग भी यहां
आएँगे. यहाँ सावित्र-पन्न का पारायण (वाचन) होगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो
गए. उन्हें वेद-पठन अत्यंत प्रिय था. अनेक बार श्रीपाद प्रभु वेद पठन होते देखकर
आत्मलीन हो जाते थे. उस समय वेद पठन करने वाले विप्रगण अत्यंत श्रद्धाभाव से श्री
प्रभु के दिव्य मुख की और एकाग्रता से देखते हुए वेद पठन जारी रखते.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४२
श्रीपाद प्रभु पीठिकापुर से
अन्तर्धान
श्रीपाद प्रभु के माता-पिता एवँ
बापन्नाचार्युलु को दिव्य दर्शन
दोपहर के भोजन के पश्चात श्री
भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद प्रभु ने शूद्र के घर
जाकर दत्त दीक्षा दी. दीक्षा विधि के समय की जाने वाली पूजा-अर्चना तथा अन्य
नियमों का पालन न करते हुए केवल भक्तों के हाथों में पवित्र धागा बांधा एवँ उन्हें
भोजन करने के लिए कहा. श्रीपाद प्रभु ने दीक्षा लेने वाले भक्तों से कहा था कि वे
स्वयँ ही दत्तात्रेय हैं एवँ उनके स्मरण मात्र से ही भक्तों की पीड़ा एवँ उनके कष्टों का
निवारण होता है. कोई ऐसा विचार भी मन में न लाये कि इस दीक्षा विधि में शास्त्रों
की अवहेलना की गई. प्रभु ऐसा बार-बार जोर देकर कह रहे थे. परन्तु पीठिकापुरम् के
ब्राह्मणों ने एकत्रित होकर तत्कालीन पीठाधीश शंकराचार्य से इस विषय में शिकायत कर
दी. साथ ही श्री बापन्नाचार्युलु एवँ अप्पल राजू शर्मा को ब्राह्मण कुल से बहिष्कृत
कर दिया जाए ऐसी सिफारिश भी की. उस समय श्री शंकराचार्य प्रभु अंतर्ध्यानस्थ थे, अतः वह चर्चा वहीं समाप्त हो गई.
श्री शंकराचार्य की अनुमति के बिना आध्यात्मिक विषयों में किसी भी प्रकार का
परिवर्तन करना संभव नहीं है, ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया. अनेक
ब्राह्मणों का यह मत था कि इस सन्दर्भ में सोलह वर्ष की आयु के बालक द्वारा स्वयँ
को श्री दत्त प्रभु के अवतार होने की घोषणा करना देवद्रोह के समान है. कुछ
ब्राह्मणों के मन में कपट था, परन्तु ऊपर से झूठी सहानुभूति
प्रकट करने के लिए वे बापन्नाचार्युलु के घर आए. बापन्नाचार्युलु ने कहा, “ श्रीपाद प्रभु अपने तेज से हमें चकाचौंध कर रहे
हैं. वे महाप्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में बालक रूप में हमारे आँगन में खेले, और उन्होंने हमें अपने दिव्य आनंद का लाभ प्रदान
किया. हमारी आंखों पर पडा हुआ मायारूपी परदा उन्होंने दूर हटाया. आज वे हमारे
नेत्रों में किरण के सामान चमक रहे हैं. उनके नयन-मनोहारी, दिव्य दर्शन से हम भाव विभोर हो गए
हैं. हम कितने भाग्यवान हैं, इसकी गणना ही नहीं की जा सकती.”
बापन्नाचार्युलु का यह वक्तव्य
सुनकर झूठी सहानुभूति दिखाने आए ब्राह्मण कुछ भी बोले बिना वापस चले गए. उनके मन
का किल्मिष धुल चुका था. कुछ देर में श्रीपाद प्रभु अपने घर लौटे. सुमति महाराणी, अप्पल राजू शर्मा, उनकी बहनें तथा भाई सभी अत्यंत प्रसन्न थे.
श्री अप्पल राजू शर्मा बोले, “श्रीपाद प्रभु के विषय में पहले हम बहुत चिंतित थे, परन्तु अब हमारे ह्रदय का बोझ हल्का हो गया है. उनका
स्मरण करते ही वे हमारे मनःचक्षुओं के सामने प्रकट हो जाते हैं. हम जो भी उनसे
माँगते हैं, उसे वे स्थूल रूप में आकर, हमसे वार्तालाप करके, देते हैं. श्री दत्त प्रभु को जन्म देने वाले
जनक-जननी होने के कारण हम अत्यंत धन्य हैं. अब हमें निरंतर आनंद की प्राप्ति हो गई
है.” इतना कहकर अप्पल राजू शर्मा ने अपने उत्तरीय से आंखों से बहने वाले आनंदाश्रु
पोंछे. ब्राह्मणों ने जो सोचा था, यहाँ की स्थिति उससे पूरी तरह
भिन्न थी. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी सब ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले, “हे विप्रगण! आज तक हम केवल कुछ पल श्रीपाद प्रभु के
साथ बिताते थे, परन्तु इसके पश्चात वे हमारे
मनःचक्षुओं में सदैव वास करने वाले हैं. इसी प्रकार स्थूल देह से दर्शन देकर हमारे
घर में ही निवास करने वाले हैं.” इसके बाद नरसिंह वर्मा ने ब्राह्मणों से कहा, “श्रीपाद प्रभु ने हमारी आंखों से माया का पर्दा
हटाया है. नित्य विनोद, दिव्य विनोद करने वाले महाप्रभु
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में हमारे साथ उत्कट हास्य करते हुए हमारे चारों और
रहेंगे. पहले से भी अधिक उत्साह भाव से वे स्थूल रूप में हमें दर्शन देंगे.”
श्रीपाद प्रभु के इस स्थूल स्वरूप
की कल्पना कुक्कुटेश्वर में उपस्थित दत्त भक्त सन्यासी को हुई और उसके ह्रदय में
खलबली मच गई. श्रीपाद प्रभु स्वयँ साक्षात दत्तात्रेय प्रभु हैं ऐसा स्पष्ट रूप से
इशारा देकर वे ध्यानस्थ हो गए. श्रीपाद प्रभु कोई और देवता न होकर उनके उपास्य देव
दत्तात्रेय हैं, यह उन्होंने जोर देकर कहा. श्रीपाद
प्रभु का विरोध करने वाले कुछ ब्राह्मण पीठिकापुरम् में थे. उनके मन में सदा यही
प्रश्न उठता था कि “क्या वास्तव में प्रभु श्री दत्तात्रेय श्रीपाद श्रीवल्लभ के
रूप में अवतरित हुए हैं? यदि यह सत्य है तो हमारा उन्हें कष्ट
पहुंचाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है.”
श्री दत्तात्रेय प्रभु का स्वभाव
बहुत विशेष है. वे स्वयँ कष्ट सहन करके अनन्य भाव से शरण में आये हुए अपने साधकों
का उद्धार करते हैं. यह उनके स्वभाव की विशेषता है. पीठिकापुरम् के अनेक
ब्राह्मणों ने श्रीपाद प्रभु को ब्रह्म-रथ में बैठाकर शोभा यात्रा का आयोजन किया
था. एक बड़ी राशि भी दक्षिणा स्वरूप अर्पण की थी.
दत्त दीक्षा देने वाले सन्यासी
केवल गुरु दक्षिणा के लोभ में दीक्षा दे रहे थे. उन्होंने इसे धनार्जन का साधन बना
लिया था. दीक्षित साधकों की इच्छा यदि पूरी न होती तो वे कह देते कि उनमें निष्ठा
का अभाव है. इच्छा, मनोकामना पूरी होने पर वे कहते कि
यह दत्त दीक्षा का फल है. उस सन्यासी के मन में श्रीपाद प्रभु का डर सदैव बना
रहता. उन्हें ऐसा लगता था कि श्रीपाद प्रभु अपनी दिव्य लीलाओं से उनका सत्य स्वरूप
सबके सामने उजागर कर देंगे.
उस समय कुक्कुटेश्वर के मंदिर में
एक वृद्ध ब्राह्मण आया. उसका नाम था नरसिंह, गोत्र था काश्यप. वह दूरस्थ
महाराष्ट्र प्रदेश से आया था. उसने कुक्कुटेश्वर प्रभु के दर्शन बड़े भक्ति भाव से
किये, फिर स्वयंभू श्री दत्तात्रेय के
दर्शन किये. उस समय उसे ज्ञात हुआ कि वहाँ दत्त दीक्षा दी जा रही है. वह वृद्ध
ब्राह्मण दीक्षा देने वाले परिव्राजकाचार्य के पास आया. उसने उस सन्यासी को बड़े
नम्र भाव से नमस्कार किया और गुरुदक्षिणा के लिए लाये हुए सिक्के दिए. दक्षिणा
देखकर सन्यासी बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने दीक्षा देने के लिए ब्राह्मण से अपनी
अंजुली आगे बढाने को कहा. उसके हाथ पर कमंडलु का पवित्र जल डालने के लिए सन्यासी
ने अपना कमंडलु उठाया और ब्राह्मण के हाथ पर पवित्र जल डाला. परन्तु आश्चर्य की
बात यह हुई कि कमंडलु से जल के साथ साथ एक बिच्छू भी ब्राह्मण के हाथ पर गिरा. उस
ब्राह्मण का गला सूख गया. सन्यासी ने ब्राह्मण से हाथ पर डाला हुआ जल पीने को कहा
और बोला, “ अहाहा! तूने अनेक वर्षों से की
गई तपश्चर्या का फल आज मुझे अर्पण किया.” तभी वह ब्राह्मण बिच्छू के दंश से
चिल्लाया. मंदिर में उपस्थित कुछ ब्राह्मणों को बिच्छू के दंश का दाह कम करने का
मन्त्र ज्ञात था. उन्होंने ब्राह्मण के लिए वह मन्त्र पढ़ा, परन्तु दाह कम न हुआ. अब सन्यासी
डर के मारे मंदिर के एक कोने में छिप गया. दाह कम होने के लिए अनेक मन्त्र पढ़े गए, कुक्कुटेश्वर का अभिषेक किया गया; स्वयंभू दत्तात्रेय की विशेष
कर्पूर आरती की गई, परन्तु किसी भी बात से कोई भी सुधार
नहीं हुआ. ब्राह्मण मूर्च्छित अवस्था में पडा था, उसके मुख से झाग निकल रहा था. झाग देखकर कुछ लोगों ने
सोचा कि ब्राह्मण को शायद साँप ने काटा है. परन्तु कुछ ब्राह्मणों ने उस ब्राह्मण
के हाथ पर कमंडलु के जल के साथ गिरते हुए बिच्छू को देखा था. सभी ने अपनी ओर से
ब्राह्मण की सहायता करने की पूरी कोशिश की, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ. अब सभी ने सोचा कि इस पूरी
घटना का कारण वह सन्यासी ही है. वेदना सहन न कर पाने के कारण वृद्ध ब्राह्मण कुछ
देर तक गड़बड़ लोटता रहा, फिर मूर्च्छित हो गया.
कुछ देर बाद ब्राह्मण को होश आया, परन्तु उसके पेट में असह्य वेदना होने लगी और वह
हिचकियाँ लेने लगा. तभी वहाँ एक किसान आया. उसने वृद्ध ब्राह्मण से कहा, “हमारे कुल के वेंकय्या नामक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति
ने श्रीपाद प्रभु की मंत्राक्षताएं दी है. ब्राह्मण ने अत्यंत श्रद्धाभाव से
श्रीपाद प्रभु का स्मरण किया और उन मंत्राक्षताओं को हाथ में लेकर अपने मस्तक पर
धारण कर लिया. और, आश्चर्य की बात यह हुई कि कुछ ही
क्षणों में ब्राह्मण की सारी वेदनाएं नष्ट हो गईं और वह पूर्ववत स्वस्थ्य हो गया.
इस घटना से लोगों का सन्यासी से
विश्वास उठ गया. सब दीक्षित साधकों ने उसे दी हुई गुरुदक्षिणा उससे वापस ले ली और
उसे पीठिकापुरम् से निकाल दिया.
सन्यासी से वापस ली गई धनराशि का
उपयोग किस प्रकार से किया जाए, इस बारे में सभी साधकों ने
बापन्नाचार्युलू से पूछा, तब वे बोले, “उस धन से भोजन सामग्री लाकर सबको
अन्नदान किया जाए. अन्नदान से दत्त प्रभु प्रसन्न होंगे, किसी और दत्त दीक्षा की आवश्यकता
नहीं है.”
बापन्नाचार्युलु के कथनानुसार
कुक्कुटेश्वर के प्रांगण में एक बड़ा मंडप डाला गया. वहाँ बड़ी मात्रा में अन्न
संतर्पण किया गया. भोजन के पश्चात सब लोगों ने “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा” इस
दिव्य नाम घोष से पूरा परिसर गुंजायमान कर दिया. इस दिव्य महामंत्र से सारा विश्व
व्याप्त हो जाएगा, ऐसी भविष्यवाणी श्रीपाद प्रभु पहले
ही कर चुके थे.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार
हो।।
।। श्रीपाद राजं शरण प्रपद्ये।।
अध्याय – ४३
श्री अनघा लक्ष्मी वर्णन – श्रीपाद
प्रभु की वैष्णवी माया
श्री भास्कर पंडित ने अपनी
सायंकालीन आराधना पूरी करने के उपरांत कहना आरम्भ किया. वे बोले, “अरे महोदय!
विद्योपासना सर्वश्रेष्ठ है. विद्योपासना के लिए कोई आयु-सीमा नहीं होती. वास्तव
में श्रीपाद श्रीवल्लभ महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली स्वरूप हैं.” इस पर मैंने कहा, “श्रीपाद
प्रभु श्री पद्मावती-वेंकटेश्वर स्वरूप हैं, ऐसा आपने पहले कहा था. अब आप कह रहे हैं कि वे ही
उपरोक्त त्रिमाताएं भी हैं. साथ ही उन्हें अनघा लक्ष्मी समेत अनघ देव भी कहा जाता
है. मुझे इसका बोध नहीं हो रहा है, कृपया विस्तार से समझाएं.”
श्रीपाद प्रभु का विराट स्वरूप
तब वे महापंडित बोले, “बंधुओं! परमात्मा सभी जीव राशियों में विद्यमान है
ऐसा शास्त्रों का वचन है. पिपीलिका से लेकर ब्रह्मा तक, सभी में वह व्याप्त है. श्रीपाद प्रभु के अवतार में
वे पिपीलिका रूप में भी हैं एवँ ब्रह्म स्वरूप में भी हैं. इसीलिये पूरी सृष्टि
में वे सृष्टि रूप में विद्यमान हैं. वे सम्पूर्ण जीवराशि के चैतन्य में तादात्म्य
स्थिति से एकरूप हो जाते हैं. यही उनकी विशेषता है. उनके सभी जीवराशियों में
तादात्म्य रूप से रहते हुए भी किसी भी जीव में उनके स्पर्श का अनुभव नहीं होता.
यही उनकी वैष्णवी माया है. सृष्टि की मर्यादा के, उसकी सीमा के, कुछ नियम होते हैं. श्रीपाद प्रभु
का महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली रूपों में होने का तात्पर्य यह है कि उस
चैतन्य रूप में वे व्यक्त होते हैं. वे चैतन्य रूप में स्वयँ ही होते हैं. जिस रूप
की अभिव्यक्ति होती है, उस स्वरूप में वे अपनी योगमाया से
निरंतर तादात्म्य स्थिति में होते हैं. वे जब महासरस्वती का चैतन्य ग्रहण करके
तादात्म्य स्थिति में होते हैं, तब चतुर्मुखी ब्रह्म स्वरूप से
तादात्म्य को प्राप्त होते हैं. महासरस्वती हो अथवा हिरण्यगर्भ रूप में हों, वे स्पर्श बंधन में होते हैं. इसी प्रकार एक ही आत्मा
चार-पाँच पुरुष रूपों में भी अवतरित हो सकता है. इस आत्मा की स्त्री शक्ति एक ही
समय में चार-पाँच रूपों में भी अवतरित हो सकती है. उसी प्रकार पुरुष रूप के लिए
स्त्री भी सगुण साकार रूप लेकर विधि निर्णय के अनुसार निश्चित मर्यादा का अचूक
पालन करती है.
इस हिसाब से श्रीपाद प्रभु अनघा
लक्ष्मी सहित अनघ देव के रूप में वास्तव्य करते हैं. वह उनका अर्धनारीश्वर रूप है.
वर्त्तमान में, श्रीपाद श्रीवल्लभ के अवतार में
यतीश्वर के रूप में हैं. सगुण साकार रूप की मर्यादा का, उसकी सीमा का वे अचूक पालन करते
हैं. यह धर्म की सूक्ष्मता है. धर्म अलग है, एवँ धर्म-सूक्ष्मता भिन्न है.
श्रीपाद प्रभु ने दिव्य अनुभवों की विशेष वर्षा करने के लिए सृष्टि रूप धारण किया
है. सृष्टि में विद्यमान तादात्म्य स्थिति के कारण मानव को त्वरित गति प्राप्त हो
सकती है. इसका यह तात्पर्य है. श्रीपाद प्रभु जप, ध्यान, तपस्या करते और उसका फल स्वयँ न
लेकर सृष्टि को देते. भक्तों को आधि-व्याधि से मुक्त करने के लिए वे अपनी तपस्या
का फल देकर उनको कर्म बंधन से मुक्त करते हैं.
जगन्नाथ अपनी चार शक्तियां –
महासरस्वती, महालक्ष्मी. महाकाली, राज राजेश्वरी – विश्व में दैवाभिव्यक्ति हेतु , विश्व परिपालन हेतु, आविर्भूत करते हैं. अंबिका देवी की तीन स्थितियां
होती हैं. १. अतीत स्थिति २. विश्व स्थिति एवँ ३. शक्ति स्थिति. सृष्टि का कार्य
चलाने के लिए पराशक्ति अतीत स्थिति में होती है. परमात्मा में विद्यमान अनंत सत्य
को वह अपनी और आकर्षित करके, उसे अपने चैतन्य में सम्मिलित करके, फिर सृष्टि में जन्म लेती है. उसका कार्य केवल जन्म
लेने से पूरा नहीं होता. वह सब जीवों का निर्माण करके, उन्हें अपने भीतर सम्मिलित करके, उनमें प्रवेश करके उन्हें बल प्रदान करती है. यह उसका
विश्वस्थाई स्वभाव है. व्यक्ति स्थाई होने के कारण वह मानवी व्यक्तित्व की दिव्य
प्रकृति के मध्यवर्ती भाग में रहती है. यही अनघा लक्ष्मी रूप में आविर्भूत होने का
रहस्य है. उसके मूल-तत्व से थोड़ा-सा अंश लेकर वह अवतार धारण करती है. उस अंश के
निर्वाहन का काम पूरा होने के पश्चात उस अंश को पुन: मूल तत्व में आकर्षित कर लेती
है. अनघ देव के संकल्प के बिना अनघा लक्ष्मी छोटा-सा काम भी नहीं कर सकती. परन्तु
वही प्रभु का प्रत्येक संकल्प पूरी तरह से पूर्णत्व की और ले जाती है. श्रीपाद
श्रीवल्लभ के रूप में माता एवँ पिता – दोनों रूप होने के कारण उनका विशेष अनुग्रह
होता है. अनघा लक्ष्मी की प्रमुखतः तीन प्रकार की भूमिकाएं हैं. पदार्थगोल विषयक
सच्चिदानंद भूमिका. इस भूमिका में उसमें अनंत – ऐसी स्थिति, अनंत – ऐसी शक्ति , अनंत – ऐसा दिव्य आनंद ओत प्रोत
रहता है. इस भूमिका का वर्णन करने में शब्द असमर्थ हैं.
सच्चिदानंद भूमिका से निचली भूमिका
में दिव्य चैतन्य सृष्टि लोक है, जो सभी प्रकार से परिपूर्ण है. इस भूमिका में अनघा
लक्ष्मी की दिव्य चैतन्य महाशक्ति स्थित होती है. वेदों में इस विश्व को ‘महालोक’ कहा गया है. इस लोक में कर्मों को कभी भी अपयश
प्राप्त नहीं होता. प्रत्येक प्रक्रिया में ज्ञान एवँ शक्ति प्रयत्नों के बिना ही
परिपूर्णता को प्राप्त होती है. यहाँ निरंतर दिव्य आनंद का अनुभव होता है. यहाँ
असत्य, बाधा, दुःख, पीड़ा का संपूर्ण अभाव रहता है. इस भूमिका से नीचे है
– अज्ञान भूमिका. यहाँ के जन समुदाय में अज्ञान व्याप्त होता है. यहाँ के लोगों
में भी मन, जीव, शरीर होता है, परन्तु उनका अनुभव अपरिपूर्ण, परिमित एवँ विफलतायुक्त होता है.
राजराजेश्वरी महिमा
राज राजेश्वरी चैतन्य मातृमूर्ति
में अनंत करुणा ओतप्रोत भरी है. वह सभी भक्तजनों को अपने बालकों के समान मानती है.
प्राणमयी, मनोमयी भूमिका में अज्ञानी जीवों को “असुर” कहते हैं.
वे डरपोक, आत्मनिग्रही तथा तपस्वी होते हैं, जो
अहंकारपूर्ण होते हैं. प्राणमयी भूमिका में अधिकारी पक्ष में होने वालों को
“राक्षस” कहते हैं, उनकी शक्ति असीमित होती है, उनकी भावनाएँ प्रचंड तथा तीव्र
होती हैं. इसके अतिरिक्त किन्हीं निचले स्तरों की निम्न प्राणमय भूमिका में रहने
वाले लोगों को पिशाच अथवा प्रमादी कहते हैं. वे कोई भी असुर रूप एवँ वेष धारण कर
सकते हैं. वास्तव में देखा जाए तो पिशाच कोई व्यक्ति नहीं हो सकता. केवल कोई इच्छा
अथवा दुराशा यदि अपूर्ण रह जाती है तो वह मन का काल्पनिक रूप होती है. राक्षसों की
प्राणमयी स्थिति बलवान होती है. उनका “मन” आदि होता ही नहीं है. जो मिले, उसी को वे
कस कर पकडे रखने का प्रयत्न करते हैं.
काली माता का जो रूप हमें दिखाई
देता है, वह काली, श्याम प्राणमयी स्थिति द्वारा प्रदर्शित रूप होता है.
“काली” का तात्पर्य “ विध्वंसक शक्ति” से है. यह अज्ञानी प्रकृति शक्ति है जो सबको
दु:खी – कष्टी बनाकर उनकी अवस्था छिन्न भिन्न कर देती है. महाकाली उन्नत भूमिका
में होती है. वह साधारणत: सुवर्ण रूप में होती है. राक्षसों को वह महाभयंकर स्वरूप
में दिखाई देती है. राजराजेश्वरी विवेक का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि
महाकाली बलशक्ति प्रदर्शित करती है. इस माता में असीम विनाश-शक्ति होती है. यह
शक्ति जब प्रकट होती है, तो विनाश एवँ संघर्ष के उपरांत ही शांत होती है.
महाकाली काली-माता से भिन्न देवता है. यदि साधक को अपनी साधना में विघ्न उत्पन्न
होने का आभास हो, तब उसे अपने अन्तरंग में उपस्थित महाकाली शक्ति का
आह्वान करना चाहिए.
असुरी, काली, श्यामा, महाकाली इत्यादि के स्वरूप
काली एवँ श्यामा आद्य प्राणशक्ति
हैं. काली विध्वंसकारी शक्ति है. महाकाली सुवर्णवर्णा हैं एवँ असुरों के लिए
महाभयंकरी है. राजराजेश्वरी विवेक की स्वामिनी हैं, महाकाली बल की स्वामिनी हैं. महालक्ष्मी का सौन्दर्य
अप्रतिम है. विवेक तथा शक्ति पूरी तरह से प्राप्त करने के लिए सौन्दर्य का होना
आवश्यक हो. यदि यह न हो तो अपने प्रयत्न फलीभूत नहीं होते. परन्तु कहीं-कहीं किसी
प्रकार की संतुलित अवस्था पाई जाती है. किसी समय विशेष में वह परिपूर्ण प्रतीत
होती है. कुछ उन्नत अवस्था में पहुँचने पर वहाँ एक नई परिस्थिति का अनुभव होता है, जिसके अनुरूप नई संतुलित स्थिति प्राप्त होती है. यह
अवस्था हमें परिपूर्ण प्रतीत होती है. इस अवस्था की प्रतीक हैं महालक्ष्मी. यदि विवेक
परिपूर्णता को प्राप्त कर ले, परन्तु बल एवँ शक्ति में
परिपूर्णता न हो तो पूर्व सिद्धि अनुकूल नहीं होती. इसीलिये परिपूर्ण परिपूर्णता
साध्य करने के लिए विवेक, बल, सौन्दर्य तथा परिपूर्णता – इन चार गुणों की आवश्यकता
होती है. मनुष्य के लिए जो रहस्य गूढ़ है, वह है दिव्य सामरस्यपूर्ण
सौन्दर्य. यह सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करने वाला चिद्विलास है. केवल श्री
महालक्ष्मी के अनुग्रह से इस विविधता से मंडित सृष्टि की वस्तुएं, शक्ति तथा जीव-जंतु एकात्मता से रहते हैं. इस एकात्म
स्थिति में ही आनंद की अनुभूति होती है. वह विविध प्रकार की वस्तुओं की, शक्ति की एवँ जीवों की लयबद्ध एवँ रूपबद्ध वृद्धि
करती है. महालक्ष्मी परम प्रेम एवँ परम आनंद की आदि देवता हैं. उसी प्रकार लक्ष्मी
भौतिक वस्तुओं के संचय की प्रतीक है. जबकि महालक्ष्मी भौतिक वस्तु, जीव एवँ शक्ति को दिव्यानंद के साम्राज्य की ओर मोड़कर
दिव्य जीवन का आनंद प्रदान करने वाली महाशक्ति है.
अनघा लक्ष्मी की शक्ति को पूर्णतः
प्राप्त करने के लिए विवेक, बल एवँ सौन्दर्य के साथ-साथ कर्म
में भी कौशल्य प्राप्त करना आवश्यक है. वेदों में सरस्वती माता की प्रशंसा है.
दशमहाविद्याओं में इसे मातंगी कहते हैं. उसकी वाणी वैखरी है. महासरस्वती इससे
भिन्न है. दिव्य नैपुण्य, आत्म चैतन्य कर्म की प्रतीक है महासरस्वती. इस
महामाता की कृपा से एवँ करुणा से हमारे इष्ट कर्म पूर्णत्व प्राप्त करते है. उसके
प्रसाद स्वरूप प्राप्त दिव्य ज्ञान का हमारी कर्मसिद्धि में उपयोग होता है. आत्म
चैतन्य का अन्वय किस प्रकार किया जाए इसका ज्ञान होता है; अनेक शक्तियों के सामरस्य से आनंद
की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसका ज्ञान होता है. महासरस्वती पर
दृढ़ श्रद्धा रखने से परिवर्तनीयता, परिपूर्णता आदि अति दुर्गम विषयों का तथा अति सूक्ष्म
विषयों का ज्ञान प्राप्त हो सकता है.
श्रोताओं! आनंद परमेश्वर से
संबंधित विषय है, परन्तु अत्युच्च आनंद का अनुभव
केवल योगियों को ही होता है. निरीच्छ योगी को जिस हर्ष की प्राप्ति होती है, वह ये ही है. सब जीवों को अपने पूर्व सुकृतों के
अनुसार सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु प्रत्येक सुख के पीछे-पीछे
दुःख भी आता ही है.”
दत्त भक्तों द्वारा अनघा देवी के
व्रत का आचरण
श्री अनघा देवी का रूप श्री
लक्ष्मी देवी का ही रूप है. उनमें राजराजेश्वरी. महालक्ष्मी, महाकाली –
इन देवताओं के लक्षण ओत प्रोत भरे हैं. श्री अनघा देवी का एक विष्णु रूप भी है, इसमें
परमेश्वर के, श्री दत्तात्रेय के लक्षण परिपूर्णता पूर्वक भरे हैं.
इसी कारण अनघा देवी की आराधना सहित विष्णुरूप अनघा की आराधना करने से सर्व फल की
प्राप्ति नीहोती है. “अनाघाष्टमी” का व्रत दत्त भक्तों के लिए अति आदरणीय है. इस
व्रत के आचरण से सब सुखों की प्राप्ति होती है.
श्रीपाद प्रभु का महत्त्व – दत्त
आराधना का माहात्म्य.
“श्रोताओं! श्री अनघा देवी समेत
अनघ रूप विष्णु ही श्रीपाद प्रभु का अवतार है. वे सर्व सामान्य जनों के बौद्धिक, मानसिक एवँ
आत्मिक चैतन्य के अत्यंत निकट होते हैं. वे सर्वगामी हैं एवँ भक्तों की पुकार पर
फ़ौरन दौड़ कर आते हैं. वे अपने भक्तों एवँ आश्रितों के दुःख नष्ट करके उन्हें सुख
प्रदान करते हैं. दशमहाविद्याओं की आराधना करने से जो फल प्राप्त होता है, वह केवल
श्रीपाद प्रभु की अथवा श्री दत्तात्रेय की आराधना करने से तत्काल प्राप्त हो जाता
है. अन्य देवताओं की श्रद्धा भाव से आराधना करने से इष्ट फल की प्राप्ति होती है, परन्तु श्री
दत्तात्रेय की आराधना तत्काल फलदायी है. दत्तात्रेय प्रभु सब देवताओं का स्वरूप
हैं, वे चतुर्युगों में महान अवतार हैं. उनका महाअवतार समाप्त
न होने वाला है तथा वे अत्यंत सुलभता से साध्य हैं.”
श्रीपाद चरित्रामृत लीला
“हे शंकर भट्ट! तुम जिस पवित्र
ग्रन्थ की रचना कर रहे हो, उसका अध्ययन महापुरुष और महायोगी
भी करेंगे. वे अपने संबंधित व्याकरण से उसका अर्थ निकालेंगे. योग संपन्न विभूति इस
ग्रन्थ का अध्ययन करके ज्ञान सम्पादन करेंगे. सर्व सामान्य भक्त इस ग्रन्थ का
पारायण करके इहलोक तथा परलोक का सुख, वैभव एवँ समृद्धि प्राप्त करेंगे. यह ग्रन्थ अक्षर
सत्य है, एवँ इसका प्रत्येक अक्षर बीजाक्षर
है, शक्तियुक्त है. इस ग्रन्थ का
श्रद्धा एवँ भक्तियुक्त अंतःकरण से किसी भी भाषा में पारायण करने से इष्ट फल की
प्राप्ति होती है. यह महाग्रंथ उस महाप्रभु का प्रत्यक्ष अक्षर-स्वरूप है.”
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४४
स्वर्ण पीठिकापुर का वर्णन
श्री भास्कर पंडित ने हमसे विनती
की कि उस दिन हम उनके घर में उनका आदरातिथ्य स्वीकार करें एवँ श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रभु का चरित्र सुनाएं. हम भास्कर पंडित की बात टाल न सके. रात में उनके घर रुके, दूसरे दिन
स्नान संध्या के पश्चात त्रिपुरान्तकेश्वर के दर्शन के लिए गए. वहाँ श्रीपाद
श्रीवल्लभ प्रभु के अत्यंत रसभरित चरित्र का वर्णन हुआ. वक्ता ने अपनी मधुर वाणी
से श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध कर लिया था.
श्रीपाद प्रभु का जन्म स्थान
“श्रोताओं! श्रीपाद श्रीवल्लभ
प्रत्यक्ष शिव स्वरूप हैं. वे पीठिकापुरम् से अंतर्धान होकर काशी में अवतरित होते
और गंगा स्नान करते. पीठिकापुरम् में उनके अवतरित होने से वहाँ की भूत-पिशाच बाधा
का निर्मूलन हो गया था. पीठिकापुरम् में उनके जन्म स्थल की भूमि चैतन्यमय हो गई
थी. भविष्य में, कुछ शताब्दियों के पश्चात उनके
जन्म स्थान पर निर्मित होने वाले महासंस्थान में उनकी दिव्य चरण पादुकाओं की
प्रतिष्ठापना होगी. वहाँ की भूमि जागृत होकर क्रमशः अपने आस-पास की भूमि को जागृत
करेगी. वहाँ का जन समुदाय पीठिकापुरम् के दिव्य आकर्षण से आकर्षित होगा. जिस-जिस
स्थान पर श्रीपाद प्रभु ने संचार किया एवँ जहाँ-जहाँ वे संचार करेंगे उस प्रदेश
में अनजाने ही जागृति का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है एवँ दैवी शक्ति का अनुभव होता
है.
प्रत्येक मानव में एक पृथ्वी तत्व
होता है, यह शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवँ गंध इन तत्वों से बनता है. योग दृष्टि से
देखने पर ऐसा ज्ञात होता है कि जिस शरीर में पृथ्वीतत्व होता है, वह श्रीपाद प्रभु के दिव्य करुणा भाव के कारण निश्चित
रूप से पीठिकापुरम् की और आकर्षित होता है.” इस पर मैंने पूछा, “आर्यावर्त के लोग उनके भीतर के पृथ्वी तत्व की
जागृति के कारण क्या भौतिक रूप से पीठिकापुरम् आते हैं?”
सुवर्ण पीठिकापुर महिमा
श्रीपाद प्रभु ने मंद हास्य किया
और बोले, “ तुमने जो प्रश्न किया वह उचित ही है. भौतिक रूप से
दिखाई देने वाले पीठिकापुरम् में एक सुवर्ण पीठिकापुर है. भौतिक
पीठिकापुरम् का जितना क्षेत्रफल है, उतना ही सुवर्ण पीठिकापुरम् का भी
है. सुवर्ण पीठिकापुरम् केवल चैतन्य से निर्मित हुआ है. वास्तव में साधकों में
उपस्थित चैतन्य से संबंधित पदार्थों का जब निर्माण होता है तो उसे ऐसा प्रतीत होता
है, जैसे कि वह सुवर्ण पीठिकापुरम् में
वास कर रहा है. इस सुवर्ण पीठिकापुरम् के चैतन्य के कारण हज़ारों दिव्य किरणों की
आभा का निर्माण होता है. योगी, तपस्वी, महापुरुष इस सुवर्ण पीठिकापुरम् में रहने के लिए उत्सुक होते हैं.
परन्तु ये दिव्य पुरुष हमारी सामान्य दृष्टि को दिखाई नहीं देते. सुवर्ण पीठिकापुरम् केवल योग चक्षु, ज्ञान चक्षु वाले साधकों को ही दिखाई देता है.”
काशी की पंचकोस यात्रा की विशेषता
“सुवर्ण पीठिकापुरम् ही के समान सुवर्ण
काशी नामक दिव्य क्षेत्र है. वह भौतिक काशी के विस्तार जितना ही है. सुवर्ण काशी
चैतन्यमय पदार्थों से निर्मित है. “काशी यात्रां गमिष्यामि, तत्रैव निवासाम्यहम्”। इति ब्रुवाणः सततं काशीवासं
फलं लभेत्त्।।“ ऐसा शास्त्रों का वचन है. “मैं काशी जा रहा हूँ और वहीं पर रहने का
मेरा विचार है,” ऐसा हमेशा कहने वालों को भी काशीवास का फल प्राप्त
होता है. सुवर्ण काशी में निवास करने के बारे में और श्री काशी विश्वेश्वर के
दर्शनों के बारे में प्रत्येक व्यक्ति को बड़े श्रद्धाभाव से निरंतर चिंतन करना
चाहिए.
तुम्हारे अन्नमय कोष से संबंधित एक
भौतिक पीठिकापुरम् है, उसी प्रकार एक भौतिक काशी भी है.
प्राणमय कोष के सापेक्ष एक भौतिक पीठिकापुरम् एवँ भौतिक प्राणमय काशी है. मनोमय
कोष, विज्ञानमय कोष एवँ आनंदमय कोष – इन
प्रत्येक कोषों से संबंधित एक-एक पीठिकापुरम् तथा एक-एक काशी है.
इस आनंदमय पीठिकापुरम् को ही
सुवर्ण पीठिकापुरम् कहते हैं. उसी प्रकार आनंदमय काशी को ही सुवर्ण काशी कहते
हैं.”
इस पर मैंने कहा, “महाशय, मैं अल्पज्ञ हूँ. कृपया मुझ पर
अनुग्रह करके इस विषय के बारे में विस्तार से बताएँ. कुछ लोग काशी की पंचकोष
यात्रा के फल के बारे में कहते हैं. वह यात्रा कौनसी है?”
मेरे प्रश्न का समाधान करते हुए
श्री भास्कर पंडित बोले, “बेटा, पञ्चकोष यात्रा से तात्पर्य भौतिक
यात्रा से है. वास्तव में जो यात्रा हमें करनी चाहिए, वह अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोष कहलाई
जाने वाली पंचकोष यात्रा है. इसे चैतन्य रूप से ही करना पड़ता है. यही इस पंचकोषमय
यात्रा का गूढ़ दैवरहस्य है. श्रीपाद प्रभु के अनुग्रह के कारण ही साधक को पंचकोष
यात्रा करने की सामर्थ्य प्राप्त होती है, इसी अनुग्रह के फलस्वरूप पंचभूतों से संबंधित पञ्च
महायज्ञ श्रीपाद प्रभु की योग शक्ति से सिद्ध होते हैं. इस पञ्च महायज्ञ के प्रतीक
स्वरूप ही कुरुगड्डी के निकट पंचदेव पहाड़ सुशोभित किया गया है. जिन साधकों ने
देव-रहस्य का अनुष्ठान किया है, जिनके पास योग दृष्टि है, उन्हीं को इस सबका आकलन होता है, सामान्य मानवों को इस बारे में कोई जानकारी नहीं
होती.”
“जब श्रीपाद प्रभु ने गंगा स्नान
किया, तब गंगा माता प्रत्यक्ष हुईं और
उन्होंने श्रीपाद प्रभु से प्रार्थना की कि वे प्रतिदिन गंगा स्नान करें. उस समय
श्रीपाद प्रभु ने वरदान दिया , “मैं प्रतिदिन गंगा स्नान करूंगा,” इसी कारण से गंगा माता का चैतन्य
भी पंचकोष में समाया हुआ है. उसी प्रकार गंगा माता का वास्तव्य भी पंचकोष में है.”
इस पर मैंने पूछा, “गंगा माता तो जल स्वरूप होती है ना? वह पंचकोषों में किस प्रकार हो सकती है? यह मैं समझ नहीं पा रहा हूँ.” इस पर भास्कर पंडित
हँसते हुए बोले, “बेटा, देवता मन्त्र स्वरूप होते हैं. वे भौतिक स्वरूप में
नहीं होते. मन्त्र स्वरूप से तात्पर्य है शब्द-ब्रह्म का शक्ति रूप. गंगा माता शक्ति देवता
हैं, इसका अर्थ यह है कि वह
देवता-चैतन्य स्वरूप हैं. भौतिक स्वरूप वाली गंगा नदी तादात्म्य स्थिति की
अभिमान-देवता तथा चैतन्य-स्वरूपी देवता हैं. उसी प्रकार सूर्य देवता
(चैतन्य-स्वरूपी) जो सृष्टि में दिखाई देते हैं, वे सूर्य खगोल में तादात्म्य स्थिति के चैतन्य-स्वरूप
देवता होते हैं. यह धर्मंसूक्ष्म, गूढ़, दिव्य रहस्य अब तुम भली प्रकार समझ
गए होगे.”
“ प्रत्येक मानव में जल तत्व होता
है, इसके शुद्धिकरण के लिए जलयज्ञ का
संकल्प किया जाता है. इसलिए वे प्रतिदिन काशी में गंगा स्नान हेतु जाते हैं. इस
योग प्रक्रिया के कारण भौतिक रूप में विद्यमान जल-वासना को पवित्रता प्राप्त होती
है. पवित्र नदियाँ अपने अति पवित्र जल से मानव का मालिन्य दूर करके उसे पवित्रता
प्रदान करती हैं. गंगा, गोदावरी आदि महानदियाँ पापी जनों
द्वारा उनके जल में किये गए स्नान के कारण अपवित्र हो जाती हैं, परन्तु जब इन नदियों में चैतन्य-स्वरूप महापुरुष तथा
पुण्यात्मा स्नान करते हैं, तब ये महानदियाँ पूर्ववत पवित्र हो
जाती हैं. जलयज्ञ से तात्पर्य है जीवराशी के शरीर में जलस्वरूप एवँ जलतत्व का
शुद्धिकरण. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु सार्वभौम हैं. केवल एक आदेश मात्र से
कोटि-कोटि ब्रह्मांडों की रचना, उनकी रक्षा एवँ तत्पश्चात विलय
करने वाले महान त्रिमूर्ति स्वरूप दत्त प्रभु ही हैं. त्रेता युग में भारद्वाज
मुनि को दिए गए वचनानुसार, भारद्वाज गोत्र में, सावित्रिकाठक महायज्ञ की पुण्य भूमि अर्थात्
पीठिकापुरम् गाँव में श्रीपाद प्रभु ने अवतार धारण किया. उनके अवतार का प्रयोजन है
महायोगियों, महासिद्धों, महापुरुषों को अनुगृहीत कर उनके माध्यम से धर्म का
उद्धार करना. उन्होंने इस अवतार के पश्चात नरसिंह सरस्वती नाम रूप से अवतार धारण
करने के बारे में कहा है. इस दिव्य वचन पर जो अविश्वास करेगा उन्हें, तथा जो श्रीपाद प्रभु के अवतार की अवहेलना करेगा
उन्हें पिशाच्च योनि प्राप्त होगी. वे बलहीन एवँ अत्यंत दीन हीन अवस्था को प्राप्त
होकर नरक यातना भोगेंगे. ऐसे पापियों को श्री गाणगापुर क्षेत्र में श्री नृसिंह
सरस्वती स्वामी के अवतार में मुक्ति मिलेगी. ऐसा श्रीपाद प्रभु ने कहा है.”
“तू जो लिख रहा है, वह श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु का चरित्रामृत ग्रन्थ
अक्षर सत्य ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ का सभी भाषाओं में अनुवाद होगा. इस महान ग्रन्थ
का किसी भी भाषा में पारायण करने से उसका विशिष्ठ फल प्रत्येक मानव को प्राप्त
होगा. इसका अनुवाद करने की योग्यता वाले व्यक्तियों का चयन वे स्वयँ ही करेंगे, इस ग्रन्थ का अनुवाद करने वाले एवँ अनुवाद कार्य में
सहायता करने वालों पर प्रभु की विशेष कृपा होगी. यह ग्रन्थ पवित्र मंदिर में रखकर
इसकी पूजा करने से उनको प्रभु की कृपा का लाभ होगा. इस ग्रन्थ के पठन से कलियुग
में सब कुछ शुभ होगा, ऐसा महाप्रभु ने कहा. तुम्हारा यह
ग्रन्थ लेखन का कार्य श्रीपाद प्रभु ही तुमसे पूरा करवाएंगे.” इस पर मैंने कहा, “महाराज, आपने जो कुछा कहा, वह योग्य ही है. परन्तु मैं तो पंडित नहीं हूँ, इसके अतिरिक्त वेद-वेदान्तों के ज्ञान से भी अनभिज्ञ
हूँ. इस अल्पज्ञ के हाथों से आप कितना महान कार्य करवा रहे हैं, इसका मुझे आश्चर्य होता है, और प्रसन्नता भी होती है.”
इस पर भास्कर पंडित बोले, “वास्तव में यह दत्त विधान ही है कि निषिद्ध पदार्थो
ने रोगों में वृद्धि होती है, परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि
अद्भुत महत्कार्य अज्ञानी, सामान्य व्यक्ति द्वारा करवा लेने
का श्रीपाद प्रभु का नित्य विनोदी स्वभाव है. यह उनकी दिव्य शक्ति का ही उदाहरण
है.”
एक दिन एक सन्यासी पीठिकापुरम् के
कुककुटेश्वर के मंदिर में आए. उस समय श्रीपाद प्रभु बाल्यावस्था में थे. श्री
नरसिंह वर्मा एवँ श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी बालक श्रीपाद श्रीवल्लभ को घोडागाडी
में कुक्कुटेश्वर के मंदिर में लाए. उस समय वह सन्यासी स्वयंभू दत्तमंदिर में
ध्यानावस्था में बैठे थे. उन्हें देखकर श्रीपाद प्रभु ने श्रेष्ठी महाशय से कहा, “इस साधू को मंदिर में क्यों आने दिया?” नरसिंह वर्मा ने हौले से श्रीपाद
प्रभु से कहा, “अरे बेटा, वे सन्यासी हैं. यदि इन्हें क्रोध आ गया तो वे हमें
शाप दे देंगे.” श्रीपाद प्रभु बोले, “ओ हो, तो इन्हें भी क्रोध आता है! मछलियाँ पकड़ कर जिनके
शरीर से मछलियों की बू आती है, उन्हें क्या सन्यासी कहते हैं?” तभी उस सन्यासी ने नेत्र खोले.
उनके शरीर से मछलियों की बू आ रही थी. सन्यासी इस बात को समझ गए. वे वास्तव में
सचमुच के सन्यासी ही थे. उन्होंने श्रीपाद प्रभु की और देखा. उन्हें मत्स्य-अवतार
के श्री विष्णु का स्मरण हो आया. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “आपके कमण्डलु में भी छोटी-छोटी मछलियाँ हैं, आप ही देख लीजिये.”
सन्यासी पर विशेष अनुग्रह
सन्यासी को अपने कमण्डलु में
मछलियाँ देखकर बहुत आश्चर्य हुआ. श्रीपाद प्रभु उस सन्यासी की और तीव्र दृष्टि से
देख रहे थे. तभी सन्यासी अंतर्मुख हो गए. उन्हें योग दृष्टि प्राप्त हो गई और ऐसा
प्रतीत हुआ मानो उनकी रक्त वाहिनी में विभिन्न द्रवों के छोटे-छोटे कण मत्स्य के
आकार के हैं. वे कण विविध प्रकार की अनुभूतियों का प्रदर्शन कर रहे थे. एक-एक कण
मानो एक-एक वासना का रूप लेकर मछली के आकार में तैर रहा था. “अहा! मत्स्यावतार
प्रक्रिया क्या यही है?” आश्चर्य चकित होकर सन्यासी चिल्लाए. उन्हें इस बात
का ज्ञान हो गया कि इन सूक्ष्म कणों के विषय में ज्ञान प्राप्त होने पर विश्व की
सब वासनाओं पर नियंत्रण रखना संभव है. सन्यासी बहिर्मुख हुए. उन्होंने मंद-मंद
मुस्काते हुए बड़े श्रद्धाभाव से श्रीपाद प्रभु के मुख की और देखा. श्रीपाद प्रभु
ने भी मंद हास्य करते हुए उनकी और देखा. सन्यासी श्रीपाद प्रभु के चरण कमलों पर
नतमस्तक हो गए. श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से अपना हाथ सन्यासी के मस्तक पर रखकर
उन्हें अनुग्रह प्रदान किया. इस स्पर्श से सन्यासी के शरीर से मछलियों की बू लुप्त
हो गई, और उसके स्थान पर दैवी सुगंध छा गई. इस समय उस
सन्यासी को वह घटना स्मरण हो आई जब पाराशर मुनि ने अपनी कृपा दृष्टि से मत्स्यगंधा
के शरीर से आने वाली मछलियों की दुर्गन्ध को दूर करके वहाँ सुगंध भर दी थी. इसी
प्रकार पतिव्रता मातली के शरीर से भी सुगंध आती थी, इसलिए उसे सुवासिनी कहते थे.
जिस प्रकार शरीर के भीतर की
अनुभूति सुगंध में परिवर्तित होती है, उसी प्रकार भौतिक शरीर में भी परिवर्तन होकर सुगंध की
अनुभूति होती है, इस प्रकार का मौन बोध श्रीपाद प्रभु ने उस सन्यासी को
दिया. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे बाबा, तुझे मत्स्य अवतार के बारे में ज्ञान हुआ. दैवी
प्रकृति एवँ आसुरी प्रकृति को कूर्मावतार का आधार होता है. मंदार पर्वत को कूर्म
पर प्रस्थापित करके देवताओं एवँ दानवों ने समुद्र मंथन किया था. तुम अंतर्मुख होकर, जिस तरह कूर्म संकट के समय अपनी
इन्द्रियों को भीतर लेकर उन्हें नियंत्रण में रखता है, उस प्रकार
से यदि अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवँ कर्मेन्द्रियों को अपने वश में रखोगे तो बहुत बड़े
योगी हो जाओगे. ऐसा न करने से बहिर्मुख होकर, सब दुर्गुणों से युक्त राक्षस बन जाओगे. जिस क्षण तुम
बहिर्मुख होगे, उसी क्षण कोई तुम्हें मार डालेगा. यदि तुम्हें जीवन
चाहिए तो अंतर्मुख होकर योगाभ्यास करो. ऐसा करने से तुम्हें सब बंधनों से मुक्ति
प्राप्त हो जायेगी.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय ४५
श्री हनुमान को पृथ्वी पर अवतार
लेने की आज्ञा –
काशी क्षेत्र में श्रीपाद प्रभु की
लीलाएँ.
श्री भास्कर पंडित के घर में हमने
दोपहर का भोजन किया. उसके बाद उन्होंने कहना आरम्भ किया. वे बोले, “ श्रोताओं! श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अतर्क्य हैं.
उन्होंने काशी में अनेक महापुरुषों को आशीर्वाद दिए. उन्हें इच्छित सिद्धियों की
प्राप्ति करवाई. वे ऋषियों के समूह को संबोधित करते हुए बोले, “मैं नृसिंह सरस्वती के नाम से एक और अवतार धारण करने
वाला हूँ. पीठिकापुरम् में अदृश्य होकर काशी क्षेत्र में आने का मुख्य कारण यह है
कि यह एक महापुण्य क्षेत्र है. सिद्ध संकल्प की यहाँ पूर्ती होती है. प्रतिदिन
गंगा स्नान के लिए मैं योग मार्ग से आता हूँ. नृसिंह सरस्वती के अवतार में मैं
यहीं पर संन्यास दीक्षा ग्रहण करने वाला हूँ. आगामी शताब्दी में क्रिया योग का
ज्ञान पाने के इच्छुक गृहस्थाश्रमी लोगों को विद्या प्रदान करने के उद्देश्य से
श्यामाचरण नामक साधक को यहाँ काशी में जन्म लेने का आदेश दे रहा हूँ. आने वाले युग
में हनुमान को श्यामाचरण से क्रिया योग का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहा है. यह
वचन त्रिवार सत्य है.”
हनुमान को सीता, राम, लक्ष्मण एवँ भारत के दर्शन
तभी श्रीपाद प्रभु ऋषि-समुदाय सहित
योग मार्ग का अनुसरण करते हुए बद्रिका वन में आ पहुंचे. वहाँ उन्होंने नर-नारायण
गुफा में अनेक शिष्यों को क्रिया योग की दीक्षा दी. वहाँ से बारह कोस दूर स्थित
उर्वशी कुंड के निकट वे आए. ऋषि-गंगा में भी उन्होंने स्नान किया. पाँच हज़ार
वर्षों से तपस्या कर रहे सर्वेश्वरानंद नामक महायोगी को श्रीपाद प्रभु ने आशीर्वाद
दिया. वहाँ से वे नेपाल गए. वहाँ एक पर्वत पर राम-नाम में ध्यान मग्न हनुमान को एक
साथ श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, भरत एवँ शत्रुघ्न के दर्शन श्रीपाद प्रभु ने करवाए.
वे हनुमान से बोले, “हे हनुमंत, तुमने राम-नाम का कितने करोड़ की संख्या में जाप किया
है, इसका अनुमान करना असंभव हो गया है. इतने अल्प काल में
तुमने राम-नाम का इतनी महान संख्या में जाप किया है कि चित्रगुप्त के लिए भी उसका
हिसाब रखना असंभव हो गया है. इसी जाप के कारण तुम चिरंजीवी पद को प्राप्त हो गए
हो. तुम कालातीत हो. तुम्हारी आयु कितने लाख वर्षों की है, यह लिखना
चित्रगुप्त के लिए भी असंभव है. तुम कलियुग में अवतार लो, जितेन्द्रिय
होकर सबके लिए वन्दनीय हो जाओ.”
राम-बीज महिमा
इस पर हनुमान ने कहा, “प्रभु, राम-बीज अग्नि-बीज ही है. इसीके
कारण मुझे अग्नि सिद्धि प्राप्त हुई है. मैं देह-बुद्धि से आपका अंश हूँ.
आत्मा-बुद्धि से मैं आप ही का स्वरूप हो गया हूँ. मैं किस स्वरूप में अवतार लूं, कृपया यह मुझे बताएँ.”
श्रीपाद प्रभु मंद-मद मुस्कुराते
हुए बोले, “तुम शिवांश रूप के राम भक्त हो.
अरबी भाषा में ‘अल्’ से तात्पर्य है – ‘शक्ति’ एवँ ‘अहा’ का अर्थ है – “उस शक्ति को धारण
करने वाला”. इसलिए “अल्लाह” का तात्पर्य है “शिव शक्ति स्वरूप!” इतने वर्षों तक
सीतापति के रूप में मेरी सेवा की, अब यवन जाति के लोगों को स्वीकार्य
ऐसे शिवशक्ति स्वरूप ‘अल्लाह’ के नाम से मेरी आराधना करो.”
इस पर हनुमान ने कहा, “प्रभु, मुझे यह ज्ञात था कि भारद्वाज ऋषि
त्रेता युग में पीठिकापुरम् में ‘सावित्री काठक’ यज्ञ करने वाले थे. उस समय आपने यह वर दिया था कि आप
भारद्वाज गोत्र में जन्म लेने वाले हैं. अतः मैं तो किसी भी परिस्थिति में आपको
छोड़कर नहीं रह सकता. आपका और मेरा गोत्र एक ही है. इस कारण से मैं आपका पुत्र ही
हुआ ना?”
श्रीपाद प्रभु एवँ हनुमान के बीच
संवाद
इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “बालक, हनुमान, तेरे द्वारा
धारण किया गया यह देह भारद्वाज गोत्र का है.” हनुमान ने पूछा, “”अल्ला
मालिक” से “अल्ला ही सबका मालिक है, यही हुआ ना?” श्रीपाद प्रभु ने बड़े प्रेम से हनुमान का आलिंगन
किया और बोले, “ हनुमान, तू देह बुद्धि छोड़ दे. तू मेरा ही अंश है.”
“प्रभो, मैं इस बात
को स्वीकार करता हूँ कि मैं आप ही का अंश हूँ>” हनुमान ने उत्तर दिया. “मैं इस
भूमि पर आपका कार्य करने के पश्चात जब मूल तत्व में विलीन हो जाऊंगा, तब अंश
अवतार भी पूरी तरह से नष्ट हो जाएगा. अंश अवतार में मूल तत्व निरंतर मेरे साथ ही
रहेंगे. जब उन तत्वों का विकास होगा, तब अपनी शक्ति संपदा एवँ मूल तत्वों से मुझे संभाले
रखना.” इस पर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे, हनुमान, तू अत्यंत बुद्धिमान है. जो शक्तियां मेरी हैं, वे तुम्हारी
भी हैं. मैं नृसिंह सरस्वती के अवतार में श्री शैल्यम के निकट स्थित कर्दली वन में
तीन सौ वर्षों तक गुप्त रूप से योग समाधि में रहूँगा. इसके पश्चात प्रज्ञापुर
(वर्त्तमान में अक्कलकोट) में स्वामी समर्थ के नाम से प्रसिद्ध होऊँगा. इस अवतार
को समाप्त करते समय साईं रूप में तुझमें अवतरित होऊँगा. मैं स्पष्ट रूप से यह कहता
हूँ कि मेरा अवतार तेरे स्वरूप में प्रकट होगा. उस समय तू एक समर्थ सद्गुरू के अवतार
में विख्यात होगा.
इसके पश्चात हनुमान ने कहा, “प्रभु, मैं आपका
सेवक. “अल्ला मालिक है!” ऐसा कहते हुए संचार करूंगा, जीवत्व
बुद्धि के अनुसार मैं आपका अंश होते हुए भी आपके समान व्यवहार न कर पाऊंगा. आपके
श्री चरण प्रत्यक्ष दत्त प्रभु ही हैं. आपमें और मुझमें अंतर कैसे हो सकता है? जब मैं आपके
स्वरूप में, तथा आप मेरे
स्वरूप में परिवर्तित हो जाएंगे, तब हमारे बीच अद्वैत सिद्ध होगा. इसलिए आप मुझे श्री
दत्त प्रभु की सायुज्यता का प्रसाद दें.”
श्रीपाद प्रभु ने काल पुरुष को
अपने पास आने की आज्ञा दी. कालपुरुष हाथ जोड़कर श्रीपाद प्रभु के सम्मुख खडा हो
गया. तब श्रीपाद प्रभु ने कहा, “हे कालपुरुष! यह हनुमान कालातीत है. मैंने इसे
प्रसाद स्वरूप अपनी सायुज्यता दी है. इसे ‘नाथ’ का संबोधन
देता हूँ. अब से यह साईंनाथ के नाम से संबोधित किया जाएगा. चलो, आज दत्त
जयन्ती का आयोजन करते हैं.”
हनुमान का चैतन्य दत्त स्वरूप में
प्रकट हुआ यह देखकर ऋषि समुदाय श्रीपाद प्रभु की ओर आश्चर्य से देखने लगा. तभी
हनुमान के शरीर के जीवाणुओं का विघटन हुआ. उनमें से अनुसूया माता प्रकट हुईं. वे
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु को देखकर बोलीं, “बेटा, कृष्णा! तू कितना बढ़िया बालक है. जब मैंने तुझे जन्म
दिया, उस समय साधारणतः माँ को होने वाली प्रसव वेदना मुझे
नहीं हुई. माँ के लिए वह वेदना भी सुखदायक है. उसमें एक माधुर्य की अनुभूति होती
है. परन्तु तेरे जन्म के समय मैं इस सुख से वंचित रही. क्या तू मेरे उदर में
दुबारा जन्म नहीं लेगा? तेरी यह वैष्णवी माया मेरी समझ से परे है.? इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “हे माँ!
पुत्र को माँ की धर्मबद्ध इच्छा पूरी करनी ही चाहिए. तेरे गर्भ से प्रकट हुआ यह
हनुमान है. इसे मेरी सायुज्य स्थिति प्रदान कर दी है. दूसरे शब्दों में कहें तो
अपनी माया से मैं तुम्हारे उदार से दुबारा जन्म ले रहा हूँ. थोड़ी ही देर में
तुम्हें तीव्र प्रसव वेदना का अनुभव होगा.”
अनुसूया माता ने तीन शिरों वाली
दत्त मूर्ति को जन्म दिया. कुछ ही देर में वह मूर्ति अंतर्धान हो गई, एवँ अनुसूया
माता की गोद में एक शिशु प्रकट हुआ. उस नवजात शिशु को अनुसूया देवी ने स्तनपान
कराया. इस घटना के कुछ ही देर के पश्चात हनुमान का स्वरूप दिखाई दिया. उनके सम्मुख
श्री रामचंद्र प्रभु खड़े थे. इसके बाद हनुमान ने कहा, “म्लेच्छ
धर्म के उत्तम तत्व तथा सनातन धर्म के उत्तम तत्वों का समन्वय करने का मैं प्रयत्न
करूंगा. म्लेच्छ लोगों का भी कोइ गुरू होना चाहिए ना?”
श्रीपाद प्रभु ने उत्तर दिया, “महबूब
सुभानी नामक एक महाज्ञानी मुझमें समाया हुआ है. वह वारिफ अलिफ के नाम से अवतरित
होगा. वह तुम्हारा गुरू बनकर योग रहस्य का ज्ञान तुम्हें देगा. क्रिया योग का ज्ञान
शामाचरण नामक गुरू देंगे, उनसे तुम्हें इच्छित वर प्राप्त होंगे,”
माणिक प्रभु का अवतार
हनुमान ने कहा, “प्रभु, मैंने सूना था कि आप
पद्मावती-व्यंकटेश स्वरूप हैं. आपकी आराधना जानने वाले वैष्णव स्वामी को भी आपका
अनुग्रह प्राप्त हुआ.”
तब श्रीपाद प्रभु ने कहा, “निरंतर मेरा स्मरण करके अपने मन को सदैव मेरे चैतन्य
रूप में लीन करो. मैं तुम्हें वर देता हूँ कि गोपाल राव नामक महावैष्णव तुम्हारे
गुरू होंगे. वे श्री वेंकटेश्वर के भक्त होकर व्यंकन्ना के नाम से प्रसिद्ध होंगे.
उनके महाप्रयाण के पश्चात उनकी अस्थियाँ एक मिट्टी के पात्र में रखकर ज़मीन के
अन्दर कुछ समय तक सुरक्षित रखना. मेरी सूचना मिलने पर तुम वह पात्र खोलकर देखना, उसमें वेंकटेश की मूर्ति दिखाई देगी. उस मूर्ति की
तुम पूजा करना. मैं प्रसन्न होकर तुम्हें इच्छित वर प्रदान करूंगा.” तब हनुमान ने
जानकी माता से कहा, “माता, आपने मुझे अत्यंत प्रेम एवँ वात्सल्य भाव से एक माणिक
मोतियों का हार दिया था. उन मोतियों में प्रभु श्री राम को ढूँढने के लिए मैंने उन
मोतियों को पत्थर से तोडा, परन्तु उनमें श्री राम प्रभु दिखाई
नहीं दिए, इसलिए मैंने उस हार को फेंक दिया.
उस महान अपराध के लिए मुझे क्षमा प्रदान करें.” श्रीपाद प्रभु ने इस पर कहा, “ईश्वर के सान्निध्य के बगैर कोई भी कार्य पूर्ण नहीं
होता. माणिक मोतियों का वह हार मैंने सुरक्षित रखा है. वह हार दत्त स्वरूप है, इसमें कोइ संदेह नहीं. मेरी आत्मज्योति से मैंने उस
हार में प्राण डाल दिए हैं. वह माणिक हार गुरूस्वरूप के दिव्य तेज से दमक रहा था.
वह गुरू स्वरूप माणिक प्रभु के स्वरूप में प्रकट होगा”
श्रीपाद श्रीवल्लभ बद्रीनाथ
क्षेत्र के नारायण स्वरूप हैं. वे पुनः मानव देह धारण करने वाले हैं, परन्तु उनका नाम व रूप किस प्रकार का होगा यह कोई भी
नहीं जान सकता.
श्रीपाद प्रभु का द्रोणागिरी पर्वत
के निकट शंबलगिरी ग्राम में निवास
श्रीपाद प्रभु के मामा वेंकटावधानी
महाराज विद्यार्थियों को वेदों की शिक्षा दिया करते थे. उस स्थान के निकट ही एक
नारियल का वृक्ष था. वेद पाठशाला के दिव्य परिसर में एक वानर वेदाध्ययन की और
आकर्षित हुआ. वह वानर पेड़ के नारियल को न तोड़ता, किसी अन्य
वस्तु को भी हाथ न लगाता. बस, चुपचाप बड़े श्रद्धाभाव से पेड़ पर बैठकर पाठ का श्रवण
करता. श्रीपाद प्रभु ने बड़े भोलेपन से पूछा, “मामा, भगवान के अवतार के समान क्या नारियल के पेड़ का भी
अवतार होता है?”
“कृष्णा, यह कैसा
प्रश्न पूछ रहे हो? प्रश्न का भी कुछ अर्थ होना चाहिए.”
इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “वो बात
नहीं, मामा. पेड़ों पर फल लगते हैं. उस फल के बीज से फिर नए
वृक्ष की उत्पत्ति होती है. इस प्रकार बीज से वृक्ष एवँ वृक्ष से पुनः बीज के
निर्माण की प्रक्रिया निरंतर चलती ही रहती है.”
इतने पर ही वार्तालाप रुक गया. उसी
समय उनकी बगल में खड़े वृक्ष से एक बड़ा नारियल नीचे गिरा. उस नारियल को श्रीपाद
प्रभु ने अपने हाथ में लिया. उस वानर की ओर देखकर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तुझे खाली
हाथ भेजना मैंने योग्य नहीं समझा. मेरे हाथों से तुझे प्रसाद स्वरूप यह नारियल दे
रहा हूँ.” श्रीपाद प्रभु ने वह नारियल उस वानर के हाथों में देकर प्रेम से उसकी
पीठ सहलाई और बोले, “तू मुझसे और नारियल मत मांगना, यदि यह
स्वीकार है, तभी मैं यह नारियल ले जाने दूँगा.”
वानर ने सहमति से सिर हिलाया और
नारियल लेकर प्रसन्नता से वहाँ से चला गया. वह वानर कौन था? श्रीपाद
प्रभु ने उसे नारियल क्यों दिया? एक और नारियल नहीं दूँगा, ऐसा
उन्होंने क्यों कहा? बिना कोई प्रयत्न किये नारियल नीचे कैसे गिरा? किसके लिए
गिरा? इन सब प्रश्नों के उत्तर कौन दे सकता है? श्रीपाद
प्रभु की लीला अद्भुत्, अगम्य एवँ अनाकलनीय है, यही सत्य
है.
श्रीपाद प्रभु द्रोणागिरी नामक
संजीवनी पर्वत पर गए. कुछ दिन वहाँ के ऋषि-मुनियों के समुदाय के साथ प्रसन्नता
पूर्वक रहे. वहाँ उपस्थित महायोगियों को अनुग्रह प्रदान कर कृतार्थ किया. वहाँ से
वे उस गाँव में गए जहाँ श्री कल्कि प्रभु का जन्म होने वाला है. उस प्रदेश को
महायोगियों ने भी नहीं देखा है. हिमालय में हज़ारों वर्षों से तपस्या करने वाले
महापुरुष इस ग्राम में हैं. संबल गाँव के पर्वत के शुद्ध जल का श्री प्रभु ने प्राशन
किया. उस जल की यह महिमा है कि उसे पीने वाले की आयु बढ़ती नहीं है. इसी कारण
श्रीपाद प्रभु की आकृति हमेशा सोलह वर्षीय कुमार जैसी ही रही. आयु के अनुसार उसमें
कोई परिवर्तन नहीं हुआ.
श्रीपाद प्रभु का गोकर्ण क्षेत्र
से दिव्य लोक को प्रयाण
तत्पश्चात श्रीपाद प्रभु अनेक
दिव्य स्थलों पर जाते हुए, साधकों, भक्तों, महापुरुषों को अनुग्रह प्रदान करते
हुए गोकर्ण महाबलेश्वर क्षेत्र में पहुंचे. इस क्षेत्र में प्रभु तीन वर्षों तक
रहे. इस पूण्य क्षेत्र में उन्होंने अनेक लीलाओं का प्रदर्शन किया, परन्तु उनका वर्णन करना नितांत
असंभव है. गोकर्ण क्षेत्र से श्रीपाद प्रभु श्री शैल्य क्षेत्र में पधारे. श्री
बापन्नाचार्युलु ने वहाँ एक महायज्ञ किया था. इस यज्ञ के परिणाम स्वरूप ही श्रीपाद
प्रभु का अवतार हुआ.
श्रीपाद प्रभु योगमार्ग से महा
अग्निगोल के समान तप्त लाल होकर सूर्य मंडल गए. वहाँ से ध्रुव नक्षत्र से, सप्त ऋषिमंडल से, आर्द्रा नक्षत्र में घूम कर चार
मास पश्चात श्री शैल्य क्षेत्र में वापस लौटे. उनके साथ उस नक्षत्र पर वास करने
वाले महर्षि अत्यंत नूतन योग सीखने के लिए आए. श्री शैल्य के सिद्ध पुरुषों की, ऋषियों की एक सभा आयोजित करके सब ऋषियों को, दूसरे ग्रह से आये हुए ऋषियों को
उस नूतन महायोग का, सिद्धयोग का बोध कराया. उस ज्ञान
से सब ऋषि, मुनिगण अत्यंत प्रसन्न हो गए. इस ज्ञानामृत प्राशन के
उपरांत आर्द्रा नक्षत्र के ऋषि अपने स्थान को लौट गए. श्रीपाद प्रभु कुछ दिनों के
बाद श्री शैल्य से पवित्र क्षेत्र कुरुगड्डी आए.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जी
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४६
श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाओं पर
समर्पित मंत्राक्षता में वृद्धि, पादुकाएं श्री भास्कर पंडित को भेंट में
हम भास्कर पंडित से आज्ञा लेकर
चलने को तैयार हुए. भास्कर पंडित कुछ देर ध्यान मग्न रहे. श्रीपाद प्रभु की चरण
पादुकाएं भास्कर पंडित ने अपने पूजा घर में रखी थीं. उन चरण पादुकाओं पर चढ़ाए हुए
चावल (अक्षता) बढ़ रहे थे. यह देखकर हम आश्चर्यचकित रह गए. भास्कर पंडित बोले, “श्रोताओं!
श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अगम्य हैं. श्री पद्मावती माता का जन्म नक्षत्र मृग है, एवँ श्री
वेंकटेश्वर प्रभु का जन्म नक्षत्र श्रवण है. उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र पद्मावती माता
के लिए मित्र तारा है, जबकि श्री वेंकटेश स्वामी के लिए वह परम मित्र तारा
है, अतः उनका लग्न नक्षत्र उत्तरा फाल्गुनी है. आज भी
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है. इस दिव्य नक्षत्र की बेला में श्रीपाद प्रभु की चरण
पादुकाओं पर समर्पित मंत्राक्षताओं में वृद्धि हुई है. इससे यह निष्कर्ष निकलता है
कि श्रीपाद प्रभु साक्षात श्री पद्मावती एवँ श्री वेंकटेश स्वरूप ही हैं, यह
प्रदर्शित करने के लिए ही उन्होंने यह लीला दिखाई. इनमें से कुछ मंत्राक्षता आप
लोग अपने पास रखो. वे आपके लिए मंगलदायक होंगी एवँ श्री प्रभु की कृपा सदा आप पर
रहेगी.”
शंकर भट्ट तथा धनगुप्त के साथ देश
पर्यटन एवँ विविध क्षेत्रों के दर्शन
हमने यात्रा का संकल्प करके
बैलगाड़ी से यात्रा आरम्भ की. वह बैलगाड़ी एक बरात की थी. इस बरात के वैश्य प्रमुख
घोड़ा गाडी से यात्रा कर रहे थे. वे कोंडविडू गाँव जा रहे थे. वे वैश्यप्रमुख
धनगुप्त बोले, “आज बड़ा शुभ दिन है. आपने बैलगाड़ी
से यात्रा करके श्रीपाद प्रभु की मंत्राक्षता शादी वाले घर में दीं और फिर हमें भी
दीं.” वे आगे बोले, “मैं एक बार व्यापार हेतु
पीठिकापुरम् गया था. तब मुझे श्री वेंकटप्पा श्रेष्ठी के घर श्रीपाद प्रभु के
दर्शन हुए. उस समय श्रीपाद प्रभु प्रेम से बोले थे, “तेरे पुत्र के विवाह के अवसर पर मैं आशीर्वाद स्वरूप
मंत्राक्षता भेज दूँगा. जिससे तुझे मंत्राक्षता प्राप्त होगी, उस ब्राह्मण को दो वराह दक्षिणा के रूप में देना.”
इसके पश्चात हम कोंडविडू गाँव पहुंचे. वहाँ वैश्य
प्रमुख के पुत्र का विवाह बड़े शानदार ढंग से संपन्न हुआ. यहाँ हमारी मुलाक़ात एक
हीरे मोतियों के व्यापारी से हुई. धनगुप्त कुछ दिनों तक कोंडविडू में रुके, परन्तु मैं घोडागाडी से विजय वाटिका (वर्त्तमान में
विजयवाड़ा) क्षेत्र में आया. इस महाक्षेत्र में कृष्णा नदी है तथा श्री कनक दुर्गा
एवँ श्री मल्लेश्वर स्वामी का मंदिर है. कृष्णा नदी में स्नान करके मैंने भगवान के
दर्शन किये. देवी के मंदिर में मुझे एक वृद्ध सन्यासी मिले. उन्हें कई दिनों से
पीठिकापुरम् जाकर श्रीपाद प्रभु के दर्शन करने की तीव्र इच्छा हो रही थी. विजय
वाटिका से निकलकर हम कुछ दिनों में राजमंड्री क्षेत्र में पहुंचे. वहाँ गोदावरी
में स्नान करके श्री मार्कंडेश्वर तथा श्री कोटिलिंगेश्वर के दर्शन किये. श्रीपाद
प्रभु की कृपा से हमारी यात्रा अत्यंत सुखद हो रही थी. मैंने अपने साथ चल रहे
सन्यासी से कहा, “कुछ ही दिनों में हम पीठिकापुरम्
पहुँचने वाले हैं. वहाँ श्रीपाद प्रभु का जन्मस्थान देखेंगे. श्री वेंकटप्पा
श्रेष्ठी एवँ श्री नरसिंह वर्मा से मिलेंगे. श्रीपाद प्रभु के नानाजी श्री
बापन्नाचार्युलु से आशीर्वाद लेंगे. श्रीपाद प्रभु की माता सुमति महाराणी, पिता अप्पलराजू शर्मा से भी
मिलेंगे. तदनंतर हम पीठिकापुरम् से कुरुगड्डी जाकर श्रीपाद प्रभु के दर्शन लेंगे.”
सन्यासी अत्यंत प्रसन्न हो गया.
मार्ग में अनेक मंदिरों के दर्शन करते हुए हम कुछ ही दिनों में पीठिकापुरम् पहंचे.
श्री बापन्नाचार्युलु के घर में हमारी रहने की एवँ खाने-पीने की व्यवस्था की गई.
श्रीपाद प्रभु की अनेक बाल लीलाएँ हमने भक्तजनों के मुख से सुनीं. श्रीपाद प्रभु
की असंख्य लीलाओं का वर्णन करना सहस्त्रमुखों वाले शेषनाग के
लिए भी कठिन है, वहाँ मेरे जैसे य:कश्चित ब्राह्मण
की क्या बिसात?
श्रीपाद प्रभु के भक्तों का
कुरुगड्डी को प्रयाण
श्री नरसिंह वर्मा की धर्मपत्नी ने
कुरुगड्डी जाकर श्रीपाद प्रभु के दर्शन करने का संकल्प किया. इस सन्दर्भ में
उन्होंने श्री वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी एवँ श्री बापन्नाचार्युलु से चर्चा की. सबने
एकमत से कुरुगड्डी जाने का निश्चय किया. श्रीपाद प्रभु के माता-पिता, सुमति महाराणी तथा अप्पल राजू
शर्मा, अपने पुत्र से मिलने की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर
रहे थे. इन सबने अठारह घोड़ा-गाड़ियों की व्यवस्था की. एक शुभ दिन सब सामान-असबाब
सहित घोड़ा-गाडियों से सुबह-सुबह निकल पड़े. पीठिकापुरम् से कुरुगड्डी के बीच अंतर
काफी होने से यात्रा कई दिनों तक चलने वाली थी. सुमति महाराणी अपने पुत्र का मुख
देखने के लिए उतावली हो रही थीं. पुत्र की याद से माता की आंखें भर आईं. सबने यह
कहकर उनका समाधान किया कि अब वे शीघ्र ही श्रीपाद प्रभु से मिलने ही तो वाले हैं.
माता-पिता, नाना-नानी को श्रीपाद प्रभु के पुनः दर्शन
सर्वान्तर्यामी एवँ माया नाटक सूत्रधारी
त्रिकालदर्शी श्रीपाद प्रभु को अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही पीठिकापुरम् से
घोड़ा-गाडियों में आ रहे लोग दिखाई दे रहे थे. प्रातःकाल की निकली हुई गाड़ियां
दोपहर के बारह बजे तक चल ही रही थीं. अचानक एक अद्भुत बात हुई. गाडीवानों सहित सभी
को ऐसा लगा मानो वे मूर्छित हो गए हैं. उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी गाड़ियां
आकाश मार्ग से जा रही हैं. कुछ देर के पश्चात मूर्च्छा टूटने पर देखा कि एक अनजान
प्रदेश में पहुँच गए हैं. गाडी से नीचे उतर कर हम देखने लगे कि वह कौनसा प्रदेश
है. रास्ते से आ रहे एक पथिक से पूछा कि यह कौनसा गाँव है. वह बोला, “महाराज, यह पंचदेव पहाड़ ग्राम है. आज
गुरूवार होने के कारण हम श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के लिए गए थे. महाप्रभु ने
दर्शनों के लिए आए हुए प्रत्येक भक्त से उसका कुशल क्षेम पूछा, और उनकी व्याधियां दूर कीं. दर्शनाभिलाषियों के भोजन
की व्यवस्था अत्यंत उत्तम थी.” इतना कहकर वह पथिक अपने मार्ग पर चला गया. हम
प्रात:काल पीठिकापुरम् से घोड़ा-गाडी से निकले थे. इस समय दोपहर के साढ़े बारह बजे
थे......इतने कम समय में हम यहाँ पर कैसे पहुँच गए इसका हमें महान आश्चर्य हो रहा
था. हमने नौका से नदी पार करके कुरुगड्डी ग्राम में प्रवेश किया. यह स्वप्न है या
सत्य है, इस बारे में हम भ्रमित हो गए.
परन्तु यह सत्य ही था. हम सब प्रभु के दरबार में गए. सुमति माता ने श्रीपाद प्रभु
को बड़े वात्सल्य से अपने ह्रदय से लगाया. उनके नेत्रों से आनंदाश्रु बह रहे थे, जो श्रीपाद प्रभु की पीठ पर गिर रहे थे. श्रीपाद
प्रभु बोले, “माँ, तुम निर्गुण, निराकार ऐसे परतत्व के पुत्र की
माता हो. तुम अनुसूया माता के सामान पतिव्रता शिरोमणी हो.” इतना कहकर उन्होंने
अपने हाथ से माता के अश्रु पोंछे.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ४७
पीठिकापुरम् से पंचदेव पहाड़ ग्राम
तक श्रीपाद प्रभु के माता-पिता , नाना-नानी एवँ भक्तगणों का विचित्र प्रयाण
श्रीपाद प्रभु के दरबार में सबको
यथेच्छा भोजन मिलता था. अन्नपात्र से चाहे जितना भी अन्न निकालो, उसमें से
भोजन कभी समाप्त ही न होता था. यह बड़ा दिव्य आश्चर्य था. सभी प्राणियों के भरपेट
भोजन के पश्चात जलचरों को भी यह प्रसाद प्राप्त हो, इस उद्देश्य
से भोजनपात्र में बचा हुआ अन्न कृष्णा नदी में छोड़ दिया जाता था.
श्रीपाद प्रभु ने बापन्नाचार्युलु
से कहा, “नाना जी, आपने श्री शैल्य पर सावित्री काटक यज्ञ संपन्न करके
सूर्य मंडल का तेज शक्तिपात द्वारा आकर्षित किया था. साथ ही, भारद्वाज
मुनि ने भी अत्यंत आर्त भाव से प्रार्थना की थी कि मैं अवतार लूँ. उन्हें दिए हुए
वचन का पालन करने के लिए मैंने अवतार धारण किया है. ब्रह्म स्वरूप को शब्दों में
वर्णित नहीं किया जा सकता. मन में भी उसकी कल्पना नहीं की जा सकती. उस
ब्रह्मस्वरूप को केवल दत्तात्रेय प्रभु ही जान सकते हैं. अतः हम उन्हीं के नाम का
जयघोष करें. मैं देश एवँ काल पर विजय प्राप्त कर सकता हूँ. मेरी इच्छा के विरुद्ध
कुछ हो ही नहीं सकता. मेरी आवश्यकता के अनुसार मैं मेरे मतों-विचारों का आपके
मतों-विचारों से तादात्म्य स्थापित कर सकता हूँ. अंतरिक्ष के सभी तारे तथा ग्रह
मेरे हाथों के खिलौने हैं. मैंने आपकी हर इच्छा-आकांक्षा पूरी की है. नाना जी, पहले आप जब
लाभाद महर्षि, नन्द, भास्कराचार्य थे, तब हर बार
मैंने आप पर अनुग्रह किया, अब बापन्नाचार्युलु के रूप में आये हैं, और मैं
श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में भाव विभोर होकर आया हूँ. इसमें आश्चर्य करने जैसी
कोई बात ही नहीं है.”
इसके उपरांत वेंकटप्पा श्रेष्ठी
बोले, “हे सोन्या, हे कृष्णा, तुम्हें तो सब कुछ बड़ा आसान लगता है. परन्तु हमें वह
असाधारण एवँ रोमांचकारी प्रतीत होता है.”
श्रीपाद प्रभु ने उत्तर दिया, “दादा जी, मैं पूर्ण
प्रज्ञ हूँ और प्रत्येक प्राणी को उसके धर्म कर्म के अनुसार फल देता हूँ. मुझसे
निकली हुई सूक्ष्मतम किरण भी पृथ्वी सहन नहीं कर सकती. थोड़ी सी कुण्डलिनी जागृत
करूँ तो भी आप उसे सहन नहीं कर सकते. इसलिए मैं अपनी ही माया के भीतर अपने आपको
सुरक्षित रखता हूँ. आवश्यकता होने पर ही मैं असाधारण कार्य कर सकता हूँ. ऐसा कोई
भी वरदान नहीं है, जिसमें मेरी माया न हो. ऐसा कोई भी कार्य नहीं है, जो मैं नहीं
कर सकता. आप सबको पीठिकापुरम् से पंचदेवपहाड़ ग्राम तक इतने अल्प समय में लाने का
उद्देश्य यही था कि आपको ज्ञात हो जाए कि मैं दत्त प्रभु ही हूँ.”
नरसिंह वर्मा ने कहा, “सब
प्राणियों की रक्षा करने वाले एकमेव क्षत्रिय तुम ही हो. बाकी सारे तो नाम मात्र
के क्षत्रिय हैं.” इस पर श्रीपाद प्रभु ने कहा, “
क्षत्रियत्व मेरा चिर स्वभाव ही है. शिवाजी महाराज के नाम से महाराष्ट्र में अवतार
लेकर सनातन धर्म की रक्षा करूँ, ऐसी ईश्वरी इच्छा थी. इस इच्छा के अनुसार शिवाजी राजा
का अवतार धारण करके महाराष्ट्र में हिन्दवी राज्य की प्रतिष्ठापना करूंगा.”
इस पर नरसिंह वर्मा ने कहा, “सार्वभौम
श्रीपाद प्रभु की जय जयकार हो!”
श्रीपाद प्रभु की नानी बोली, “अरे बेटा!
तुम्हारे विवाह का समारोह देखने के लिए हमारे नेत्र आतुर हैं. तुम्हारी शादी
धूमधाम से होते हुए और तुम्हें भाल पर तिलक लगाए, माथे पर
मोती-माला बांधे, सब श्रृंगारों से सुसज्जित दूल्हे के रूप में हम देखना
चाहते हैं.” श्रीपाद प्रभु ने कहा, “नानी! तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी. मैं शंबल
ग्राम में कल्की अवतार में जन्म लूँगा. उस अवतार में पद्मावती नामक अनघालक्ष्मी से
विवाह करूंगा. परन्तु इसके लिए कुछ समय की आवश्यकता है. परन्तु आपकी इच्छा मैं
अवश्य पूरी करूंगा.”
वेंकट सुब्बम्मा श्रीपाद प्रभु से
बोलीं, “हे कान्हा! मेरे हाथ से तुझे दूध, दही, मलाई, मक्खन खिलाए
बहुत दिन हो गए. अपने हाथों से तुम्हें खिलाने की तीव्र इच्छा है.”
मायानाटक सूत्रधारी श्रीपाद प्रभु
एवँ उनका लीला विनोद
श्रीपाद प्रभु बोले, “नानी, तुम अवश्य खिलाओ. मुझे अपने हाथों
से खाने में उकताहट होती है. तुम लोग पीठिकापुरम् से आते हुए दूध, दही, मक्खन लाओगे, यह मुझे ज्ञात हो गया था, परन्तु इतनी दूर की यात्रा में वह खराब न हो जाए, अतः आपके वात्सल्य प्रेम से बंधे
हुए, मैंने ऐसी लीला की कि वह सब, जैसा था वैसा, अच्छा ही रहे. नानी, इसके लिए मैंने कितना कष्ट उठाया, क्या बताऊँ! इतनी दूर से अठारह घोड़ागाडियों को पंचदेव
पहाड़ तक लाना क्या आसान बात है? मेरा पूरा शरीर दर्द कर रहा है.
देखो, मेरे हाथों पर कितने बल पड़ गए
हैं.” वास्तव में श्रीपाद प्रभु की हथेलियों पर फोड़े हो गए थे, वेंकट सुब्बम्मा ने अत्यंत मृदु
भाव से श्रीपाद प्रभु की हथेलियों पर मक्खन लगाया, और उनके शरीर को गर्म जल से सेंका. सचमुच, माया नाटक सूत्रधारी श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ अगम्य
थीं.
राजमांबा ने कहा, “हे कृष्णा, तेरी पसंद का हलवा बनाकर चांदी के
पात्र में रखकर लाई हूँ. तू मेरे पास आ जा, तुझे खिलाती हूँ.” श्रीपाद प्रभु की तीनों
नानी-दादियों ने मिलकर उन्हें वह मधुर हलवा खिलाया, परन्तु उस पात्र का हलवा समाप्त ही
नहीं हो रहा था. श्रीपाद प्रभु बड़ी देर तक यह लीला दिखाते रहे. वे नानी से बोले, “आप तीनों के मन में मेरे प्रति अत्यंत प्रेम भाव है.
तीनों ने मिलकर मुझ अकेले को ही यदि हलवा खिलाया तो क्या मुझे तकलीफ नहीं होगी?” इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने
अपने हाथों से वह हलवा अपने भाईयों को, बहनों को, जीजाओं को खिलाया. वहाँ आये हुए भाविकों के बीच
वेंकय्या नामक एक किसान था. उसे प्रभु ने दीक्षा दी एवँ अपने हाथों से हलवा दिया.
बचा हुआ हलवा गाडीवानों एवँ घोड़ों को देने को कहा. चांदी का वह पात्र वेंकय्या को
भेंट स्वरूप दिया.
अप्पल राजू शर्मा बोले, “बेटा, तू दत्त प्रभु है, यह समझ न पाने के कारण हमारे हाथों से अनजाने में हुए
अपराधों को क्षमा कर.”
श्रीपाद प्रभु बोले, “तात! आप मेरे पिता हैं. क्या पुत्र पिता को क्षमा
करे, ऐसा होता है? आप मुझे पहले ही की भाँति अपना बेटा समझ कर मुझ पर
सदा वात्सल्यामृत का सिंचन करें. साथ ही मेरे अभ्युदय की कामना भी करें!”
इस समय श्री वेंकटावधानी एवँ उनकी
पत्नी के नेत्रों से अश्रुध्रारा बह रही थी. श्रीपाद प्रभु ने उनसे कहा, “मामा, हमारा संबंध शाश्वत स्वरूप का है.
मैं केवल आप ही का नहीं, अपितु आपके वंश में जन्म लेने वाले
हर व्यक्ति का दामाद हूँ. अपनी दिव्य लीलाओं से मैं आपको सुख देता रहूँगा. कल्की
अवतार के समय पद्मावती देवी को वधू के रूप में स्वीकार करके आपकी मनोकामना पूरी
करूंगा. सुमती महाराणी का दुःख दूर करूंगा. अपने लाडले पुत्र को अन्य सभी पुत्रों
के समान दूल्हे के रूप में देखने के स्थान पर वैराग्य ग्रहण किये हुए एक यति के
रूप में देखकर वह दुखी हो गई है.”
श्रीपाद प्रभु माता की ओर देखकर
बोले, “माँ! तुममें और अनुसूया माता में
मुझे कोई अंतर नहीं दिखाई देता. तुम दोनों की मनोकामना मैं कल्की-अवतार में अवश्य
पूरी करूंगा.”
श्रीपाद प्रभु आगे बोले, “माँ, तुम्हारे गर्भ से जन्म लेकर मैं
कितना महान हो गया हूँ. तुम्हारे वात्सल्यामृत से ही मेरा पालन-पोषण हुआ है. मेरी
बहन वासवी ने कितना महान कार्य किया, यह जानती हो ना? जब मुझे भूख लगी थी, तब मुझे एक छोटे शिशु के रूप में परिवर्तित करके
अनुसूया माता के पास दुग्धपान के लिए भेज दिया.”
वेंकय्या ने कहा, “ हे महागुरू! आपके चरणों में एक नम्र प्रार्थना है.
आपने जो असंख्य लीलाएँ इस दरबार में की हैं, वह दरबार एवँ उसके आसपास का परिसर
विश्व में विख्यात हो जाए.” श्रीपाद प्रभु बोले, “भविष्य में मेरा दरबार एक पक्की इमारत में परिवर्तित
होगा. इसमें गोधन भी होगा. वहाँ मेरी कितनी सारी लीलाएँ प्रदर्शित होंगी. मेरे
नेत्रों को भविष्य काल का यह अनुभव दिखाई दे रहा है.”
वहाँ एकत्रित सभी भाविक भक्तों को
गहरी निद्रा आ गई और कुछ ही क्षणों में मैं, वह सन्यासी, श्रीपाद प्रभु एवँ उनका पूरा दरबार
– सभी अदृश्य हो गए. उस सबका क्या हुआ होगा, यह चिंता मुझे सताने लगी. मेरे मन
में यह शंका उत्पन्न हुई कि कहीं यह राक्षसी माया तो नहीं? इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “मेरे निकट कोई भी राक्षसी माया चल ही नहीं सकती.
मैंने उन सबको सुरक्षित रूप से पीठिकापुरम् पहुँचा दिया है. यह एक महान अनुभूति
थी. जो मुझे जिस भाव से भजता है, उसी भाव से मैं उसकी रक्षा करता
हूँ. यह मेरा व्रत है. ”
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो.
श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये
अध्याय – ४८
श्रीपाद प्रभु का स्त्री-पुरुषों
को संबोधन
श्रीपाद प्रभु प्रत्येक गुरूवार को
पंचदेव पहाड़ पर सत्संग करते थे. श्रीपाद प्रभु कृष्णा नदी के पानी पर चलकर जाया
करते. उनके पग जहाँ-जहाँ पड़ते वहाँ-वहाँ एक कमल विकसित हो जाता. उस कमल पुष्प पर
श्रीपाद प्रभु के चरणों के चिह्न प्रकट हो जाते. यह कैसे होता था ये मानव की सीमित
बुद्धि की समझ से परे की पहेली थी. इतना ही नहीं, पानी पर चलकर जाना भी एक अद्भुत् विषय था. कुछ दिनों
तक देखने वालों को इस बात से आश्चर्य होता, परन्तु कालान्तर में लोग इसे
श्रीपाद प्रभु की साधारण लीला समझने लगे. श्रीपाद प्रभु जब कृष्णा नदी से चलकर
दूसरे किनारे तक पहुँचते, तो सारे भक्त गण उनका भव्य स्वागत
करते. शाम तक सत्संग चलता रहता. फिर वे वापस कृष्णा नदी पर चलकर दूसरे किनारे पर
जाते, तब भक्तगण बड़े श्रद्धाभाव से उनकी
जय जयकार करते. रात के समय वे अकेले ही कुरुगड्डी में रहते थे. पंचदेव पहाड़ और
कुरुगड्डी के मध्य में कृष्णा नदी का पात्र है.
हर शुक्रवार को वे विवाह योग्य
कन्याओं को सौभाग्य का मंगल आशीर्वाद देते. महिलाओं को हल्दी की गाँठ देते.
श्रीपाद प्रभु आयु में उनसे बड़ी महिलाओं को “अम्मा सुमति” अथवा “अम्मा अनुसूया
तल्ली” कहकर संबोधित करते. आयु में छोटी महिलाओं को “अम्मा वासवी” अथवा “अम्मा
राधा”, “अम्मा सुरेखा” कहकर बुलाते. उनसे बड़े पुरुषों को वे
“अय्या” अथवा “नायना” कहकर बुलाते. आयु में उनसे छोटे लड़कों को “अरे अब्बी”, अथवा “बंगारू” कहकर पुकारते. अपने
नानाजी की आयु के वृद्ध पुरुषों को “ताता “ कहते, तथा वृद्ध स्त्रियों को “अम्मम्मा” कहकर पुकारते.
श्रीपाद प्रभु के नित्य कार्यक्रम
एवँ सत्संग
गुरूवार एवँ शुक्रवार का सत्संग
श्रीपाद प्रभु की इच्छानुसार कभी कुरुगड्डी में होता था अथवा कभी पंचदेव पहाड़ पर.
इतवार के सत्संग में श्रीपाद प्रभु अत्यंत गहन योग विद्या के बारे में चर्चा करते.
इसके पश्चात दर्शन हेतु आए हुए सभी भक्तों से उनका कुशल क्षेम पूछ कर उनकी
कठिनाइयों का, प्रश्नों का बड़े प्रेमभाव से
समाधान करते और उन्हें अभय वचन देते. सोमवार के सत्संग में पुराणों से ली गई कथाएँ
सुनाते. उसके पश्चात भक्तों की समस्याओं का निराकरण करते. मंगलवार के सत्संग में
उपनिषदों का बोध करवाते, तत्पश्चात भक्तों की व्यक्तिगत समस्याओं पर चर्चा कर
उन्हें दूर करने का उपाय बतलाते. बुधवार को वेद एवँ वेदों का अर्थ बताया जाता.
गुरूवार को गुरुतत्व का विवेचन होता. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु शान्ति से भक्तों
की आधि-व्याधि के बारे में सुनकर उनके निराकरण का उपाय बताते. इस दिन विशेष भोजन
बनता. सबको भरपेट स्वादिष्ट भोजन मिलता. इस भोजन की विशेषता यह होती कि श्रीपाद
प्रभु स्वयँ पंगत में कोई न कोई पदार्थ परोसते. कुछ भाग्यशाली व्यक्तियों को अपने
हाथ से ग्रास देते. श्रीपाद प्रभु के पास अनाज का अथवा धन का अभाव कभी भी नहीं
होता था. शुक्रवार के सत्संग में वे श्रीविद्या के बारे में बोध कराते और सबको
विधियुक्त ढंग से हल्दी की गाँठ का प्रसाद देते. शनिवार को शिवाराधना की महिमा पर
प्रकाश डालते. श्रीपाद प्रभु के सत्संग का लाभ जिन्हें हुआ वे सचमुच ही धन्य हैं.
श्रीपाद प्रभु के भक्त साग-सब्जी, ज्वारी, रागी आदि अपने खेतों से लाते.
भक्तों के लिए प्रतिदिन अन्नदान का आयोजन था, परन्तु गुरूवार के दिन विशेष भोजन
बनता था. उस दिन अन्य पदार्थों के साथ-साथ एक मिष्ठान्न भी बनाया जाता, जिसे प्रसाद स्वरूप सारे भक्तों को
दिया जाता था.
श्रीपाद प्रभु का ह्रदय मक्खन जैसा
मुलायम था. उनसे भक्तों के दुःख देखे नहीं जाते. उनके सत्संग में आया हुआ दुखी
श्रोता आनंद पूर्वक घर लौटता था. श्री दत्तात्रेय के दत्त पुराण का पाठ करने वाले
भक्तों को तत्काल श्रीपाद प्रभु का अनुग्रह प्राप्त होता. ऐसी श्रीपाद प्रभु की यह
माया कोटि-कोटि माताओं के वात्सल्य प्रेम से भी बढकर थी.
रात के समय किसी को भी कुरुगड्डी
में रुकने की अनुमति न थी, परन्तु मेरे साथ आये हुए वृद्ध सन्यासी को श्रीपाद
प्रभु ने वहाँ रुकने की अनुमति दी. मुझे भी श्रीपाद प्रभु ने रात को कुरुगड्डी में
रुकने के लिए कहा. दूसरे दिन श्रीपाद प्रभु ने उस सन्यासी को काशी जाने का आदेश
देते हुए कहा कि वह अपने अंतकाल तक वहीं रहे. भोजन हेतु प्रयुक्त बर्तन माँजना, भोजन बनाना, आने वाले भक्तों की सब प्रकार से व्यवस्था करना – ये
मेरे काम थे. दरबार में कोइ भक्त चाहे किसी भी समय आये, उसे भोजन अवश्य मिलता था. जो भक्त अपने घर से भोजन
करके आते, उन्हें भी प्रसाद स्वरूप भोजन करना
ही पड़ता. यदि भोजन के लिए आये हुए भक्तों की संख्या अधिक होती और बनाया गया भोजन
कम होता, तो श्रीपाद प्रभु अपने कमण्डलु से
खाद्य पदार्थों पर जल छिड़कते. फिर सारे भक्तों के भोजन के पश्चात भी खाद्य पदार्थ
शेष ही रहते. श्रीपाद प्रभु ने इस प्रकार की अनेक लीलाएँ कीं. रात के समय अनेक
देवता विमान से कुरुगड्डी आते और श्रीपाद प्रभु की सेवा करते. सुबह होते ही
श्रीपाद प्रभु का आशीर्वाद लेकर स्वस्थान को लौट जाते. कभी-कभी हिमालय से कुछ
योगीजन आते. वे भी कृष्णा नदी के जल पर चलते हुए आते. उनके शरीर अत्यंत कान्तिमान
एवँ दैदीप्यमान होते थे. इन योगियों को श्रीपाद प्रभु स्वयँ भोजन परोसते.
श्रीपाद प्रभु का भोजन केवल
मुट्ठीभर ही होता था. चाहे वह मोरधन हो, या ज्वारी का भात हो या रागी की
संकटी हो. भक्तों का पेट भरने से ही उन्हें अपना पेट भरने की तृप्ति प्राप्त होती
थी.
रविदास नामक एक रजक था. उसे
श्रीपाद प्रभु के वस्त्र धोने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. परन्तु श्रीपाद प्रभु के
दर्शन के पश्चात भी बुरी प्रवृत्तियाँ उसे कष्ट पहुंचाती थीं. उनके निवारण के लिए
उसने श्रीपाद प्रभु के चरणों में आश्रय लिया. श्रीपाद प्रभु कहा करते कि “पितरों
का विधियुक्त श्राद्ध करने से उन्हें शान्ति प्राप्त होकर मुक्ति मिलती है.
अष्टादश वर्णों के सभी लोगों को अपने-अपने धर्म-कर्म के अनुसार फल भोगना पड़ता है.
इसमें किसी प्रकार का पक्षपात नहीं होता. आज जो सुसन्धि प्राप्त हुई है, वह हमेशा मिलती रहेगी, ऐसा संभव नहीं है. मेरे अगले अवतार में मुझे थोड़ा कठिन
प्रवर्तन करना होगा.”
अनेक जन्मों के पुण्यों के
फलस्वरूप ही श्रीपाद प्रभु के दर्शन का लाभ होता है. ऐसी संधि का पूरा-पूरा लाभ
उठाना चाहिए. इस संधि का उपयोग न करने से अनेक जन्मों तक सद्गुरू के दर्शन होना
कठिन है. इस विशाल प्रपंच में, जिस युग में एक लाख पच्चीस हज़ार महासिद्ध पुरुषों में
उनके अंशमात्र में विद्यमान भक्त को उनका आश्रय एवँ अनुग्रह प्राप्त होता है, और उसीके माध्यम से इस सृष्टि को
इन भक्तों का ही आधार प्राप्त होता है. श्रीपाद प्रभु के केवल संकल्प मात्र से
सृष्टि का निर्माण, स्थिति एवँ विनाश होता रहता है.
जब भक्तजन अपने गुरू को श्रद्धाभाव
से प्रणाम करते हैं, तब गुरू उस प्रणाम को अपने गुरू तक
पहुँचाते हैं. इस प्रकार हमारे द्वारा अपने गुरू के चरणों में किया गया प्रणाम
अनेक गुरुओं तक पहुंचता है. यदि ईश्वर हम पर क्रोधित भी हो जाएँ, फिर भी गुरू उस क्रोध से हमारी रक्षा करते हैं.
प्रत्येक शिष्य को गुरू का आशीर्वाद प्राप्त होता है. गुरू की आराधना से इहलोक एवँ
परलोक, दोनों की प्राप्ति होती है. श्रीपाद प्रभु के सारे
शिष्य सात्विक भाव वाले थे.
ह्रदय में ईश्वर का नामस्मरण करते
हुए कर्म का आचरण
कुरुगड्डी की विशेष महिमा नित्य
क्षेत्र के समान है. यहाँ स्थित देवता जागृत स्वरूप में हैं. इस क्षेत्र में अनेक
देवता, महर्षि, महापुरुष वेष बदलकर गुप्त रूप में आकर रहते हैं. यहाँ
उनका अपना-अपना स्थान निश्चित है. ह्रदय में ईश्वर का नाम भरकर सदाचरण करते हुए
विहित कर्म करते रहो, ऐसा श्रीपाद प्रभु अपने भक्तों से
कहा करते थे. यदि हर व्यक्ति अपने-अपने धर्म के अनुसार आचरण करे, फलस्वरूप पूर्व जन्म के पापों का क्षय करे, पश्चात पुण्य कर्म करते हुए उसका श्रेय स्वयँ को न दे, तो उसे पुण्य कर्म का शुभ फल प्राप्त होता है.
श्रीपाद प्रभु के इस दिव्य वचन का पालन करने से हमारी जीवन नौका इस भवसागर को
सुलभता से पार करेगी.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय ४९
श्रीपाद प्रभु का कर्म विनाश के
संबंध में विधान
तैतीस (३३) संख्या की विशेषता –
कुरुगड्डी में
श्रीपाद प्रभु के कार्यक्रम
श्रीपाद प्रभु ने एक बार कहा, “शंकर भट्ट! हम जिसका अनुष्ठान
करते हैं, वह अग्नि विद्या है. अग्नि उपासना करना
श्रोत्रिय लक्षण है. तेरी अग्नि उपासना तो बुझी हुई अंगीठी पर खाना बनाने जैसी है.
इस पर मैं प्रभु की जय जयकार करते हुए बोला, “महाराज, मेरे जीवन के उपरांत भी यह अंगीठी ऐसी ही रहने वाली है.” श्रीपाद प्रभु ने
कहा, “तेरी बुझी हुई अंगीठी में स्वयँ की शक्ति नहीं
है. मेरी योग शक्ति से उस अंगीठी पर बनाया गया भोजन प्रसाद स्वरूप होकर भक्तों के
दैन्य. दुःख का हरण कर रहा है. यह अंगीठी और नौ वर्षों तक जलती रहेगी. इसलिए मैं
तैंतीस (३३) वर्षों तक गुप्त स्वरूप में रहा. पश्चात तीन वर्ष तेज स्वरूप में रहकर
श्रद्धालु भक्तों को ही दर्शन देता रहा. तब मैं तैंतीस वर्ष का था. योगियों के
जीवन में तैंतीसवें वर्ष में अनेक परिवर्तन होते हैं. रूद्र गणों की संख्या तैंतीस
करोड़ है.” श्रीपाद प्रभु ने आगे कहा, “हमारा
अग्नियज्ञ इसके पश्चात भी चलता ही रहेगा. कर्म को स्थूल रूप प्रदान कर उसे दग्ध
करने के प्रतीक स्वरूप अग्नि आराधना की जाती है. इससे भक्तों के कर्म स्थूल रूप
ग्रहण करने से पहले सूक्ष्म-रूप में रहते हैं, इससे पूर्व
कारण-रूप देह कारण-शरीर में स्थित होता है. इसलिए तैंतीस वर्ष हो जाने पर इस
प्रकार की अग्निपूजा की आवश्यकता नहीं रहती. उस समय मेरे आश्रय में आने वालों के
पाप-कर्म सूक्ष्म-शरीर में रहकर एवँ कारण-शरीर में रहकर योग अग्नि से दग्ध हो जाते
हैं.
मेरे भक्त आकर अपना-अपना भोजन बना
कर अपनी क्षुधा तृप्ति करेंगे. ऐसा तीन वर्षों तक चलता रहेगा. इसके पश्चात इस
स्थूल रूप में अग्निपूजा करने की आवश्यकता न रहेगी. पृथ्वी यज्ञ का प्रारम्भ मैंने
कर दिया है, वह यशस्वी रीति से चल रहा है.
उसी प्रकार जल यज्ञ भी मैंने आरम्भ कर दिया है. वह भी धूमधाम से चल रहा है. अब
अग्नि पूजा एवँ अग्नि यज्ञ का आरम्भ करना है. वह यज्ञ भी अद्वितीय होगा, इसमें कोई संदेह नहीं. समस्त जीव राशि में अग्नि स्वरूप मेरा ही है. सबका
शुद्धिकरण मैं ही करता हूँ. सबका नाश करने वाला भी मैं ही हूँ. पंचतत्वों से
संबंधित यज्ञ की जितनी जानकारी मुझे है, उतनी
किसी को भी नहीं है.
एक दिन एक नवविवाहित जोड़ा श्रीपाद
प्रभु के दर्शन के लिए आया. प्रभू ने उन्हें पंचदेव पहाड़ के दरबार में रहने की
आज्ञा दी. उनके आदेशानुसार वे दोनों पति-पत्नी पंचदेव पहाड़ के दरबार में गए.
परन्तु दो ही दिनों में वह युवक गतप्राण हो गया. उसकी अकस्मात् मृत्यु से वह नववधू
बहुत भयभीत हो गई. वह बोली, “प्रभु अपने भक्तों की रक्षा
करते हैं और उनकी कृपा दृष्टी सब पर रहती है, ऐसा
सुना था. परन्तु आज तो यह अघटित घटना हो गई.” वह शोक में विलाप करने लगी. उनके
रिश्तेदार सूचना मिलते ही पंचदेव पहाड़ पर आए. उस मृत
देह का दहन क्यों न किया जाए – यह प्रश्न सबके सम्मुख था.
श्रीपाद प्रभु की आज्ञा के बिना
मृत देह दरबार से बाहर नहीं ले जाया जा सकता, ऐसा दरबार के सेवाधारी भक्त बोले. तभी श्रीपाद प्रभु दरबार में आये. शोक
सागर में डूबी हुई उस नववधू ने श्रीपाद प्रभु को अपने दुर्भाग्य की कथा सुनाई.
श्रीपाद प्रभु बोले, “ कर्म का फल भोगना
अनिवार्य है. नववधू ने बड़े श्रद्धा भाव से कहा, “प्रभु!
आपके लिए असंभव ऐसा इस विश्व में कुछ भी नहीं है. मेरा मांगल्य देकर मुझे इस भयंकर
दुःख से उबारें.” उस नववधू को श्रीपाद प्रभु के करुणामय स्वभाव पर दृढ़ विश्वास
था.
मृतक को जीवन दान
श्रीपाद प्रभु ने कहा, “तेरा दृढ़
विश्वास ही फलदायक होगा. मुझ पर जो तेरी श्रद्धा है, उसके फलस्वरूप तेरा पति अवश्य ही जीवित हो जाएगा. कर्म सिद्धांत का
व्यतिरेक न करते हुए तुझे एक उपाय बताता हूँ. तू अपने पति के वजन के बराबर लकडियाँ
खरीद. इसके लिए अपना मंगलसूत्र बेच दे. उन लकड़ियों पर खाना बना. जैसे-जैसे चूल्हे
में वे लकडियाँ जलेंगी, वैसे-वैसे तेरा अमंगल
दग्ध हो जाएगा.” श्रीपाद प्रभ की आज्ञानुसार उस नववधू ने किया. सारी लकडियाँ जल
जाने के बाद वह नवयुवक ऐसे उठ गया मानो नींद से जागा हो. अपने चारों और सभी
रिश्तेदारों को देखकर उस नववधू के आनंद की सीमा न रही. सभी भक्तजनों ने हर्षोल्लास
के साथ श्रीपाद प्रभु का जय जयकार किया.
दरिद्री ब्राह्मण पर श्रीपाद प्रभु
की विशेष कृपा
एक बार एक अत्यंत गरीब ब्राह्मण
श्रीपाद प्रभु के दर्शन के लिए आया. वह अपनी परिस्थिति से इतना दुखी था कि श्रीपाद
प्रभु की कृपादृष्टि प्राप्त न होने पर उसने आत्मह्त्या करने का निश्चय कर लिया
था. श्रीपाद प्रभु उसके मन का भाव जान गए. उन्होंने अंगीठी से एक जलती हुई लकड़ी
निकाल कर उससे ब्राह्मण की पीठ को स्पर्श किया. उस जलती हुई लकड़ी के कारण ब्राह्मण
की पीठ जल गई और काफी देर तक उसे वेदनाएं होती रहीं. श्रीपाद प्रभु ने कहा, “अरे ब्राह्मण! तू आत्महत्या
करने निकला था. यदि मैं तेरी उपेक्षा करता तो तू सचमुच में आत्महत्या कर लेता. उस
आत्महत्या से संबंधित समस्त पाप कर्मों के स्पंदन इस जलती हुई लकड़ी के स्पर्श से
नष्ट हो गए. अब तुझे दारिद्र्य से मुक्ति मिल जायेगी.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने
वह ठंडी हो गई लकड़ी उस ब्राह्मण को दी और उसे अपने उत्तरीय में बांधकर संभाल कर घर
ले जाने को कहा. प्रभु के आदेशानुसार ब्राह्मण उस लकड़ी को अपने उत्तरीय में बांधकर
घर ले गया. घर पहुँच कर जैसे ही उत्तरीय खोलकर देखा तो वह लकड़ी सोने में परिवर्तित
हो गई थी. इस प्रकार उस गरीब ब्राह्मण पर श्रीपाद प्रभु ने विशेष कृपा की थी.
श्रीपाद प्रभु ने अनेक भक्तों के
पापों का अग्नि यज्ञ से दहन किया था. कभी वे भक्तों को बैंगन, भिन्डी, कद्दू आदि सब्जियां लाने को कहते. उन सब्जियों के रूप में भक्तों के
पापकर्मों के स्पंदन आकर्षित कर लेते. इस प्रकार की सब्जियां पकाकर भक्तों को
खिलाते. ऐसा करने से वे कर्म बंधन से मुक्त हो जाते.
एक बार एक उपवर कन्या श्रीपाद
प्रभु के दर्शनों के लिए आई. उसकी शादी कहीं निश्चित नहीं हो रही थी. उसे मंगल का
दोष होने के कारण प्रभु ने उसे कंद लाने के लिए कहा. उस कंद की सब्जी उस लड़की समेत
उसके परिवार जनों को खाने के लिए कहा. ऐसा करने से कर्मबंधन से मुक्त होकर उसका एक
सुयोग्य वर के साथ विवाह हो गया.
श्रीपाद प्रभु कुछ लोगों से गाय का
घी लाकर उसे भोजन बनाने के लिए देने को कहते. किसी-किसी को गाय के घी का दिया
भगवान के सामने जलाने को कहते. घर में यदि अत्यंत विकट परिस्थिति हो, अथवा कन्या के विवाह में
कठिनाई आ रही हो तो ऐसे भक्तों को श्रीपाद प्रभु हर शुक्रवार को राहुकाल में
(प्रातः १०.३० से १२.०० तक) अंबिका माता की पूजा करने के लिए कहते.
एक बार श्रीपाद प्रभु का एक भक्त
खूब बीमार हो गया. प्रभु ने उसके परिवार वालों से कहा, कि रोगी के कमरे में एरंडी के
तेल का दिया निरंतर जलाएं और यह ध्यान रखें कि वह बुझने न पाए. ऐसा करने से वह
भक्त शीघ्र ही रोगमुक्त हो गया.
एक भक्त की आर्थिक परिस्थिति
अत्यंत विकट थी. उसे श्रीपाद प्रभु ने लगातार आठ दिनों तक गाय के घी का अखण्ड दीपक
जलाने को कहा. ऐसा करने से उसके घर को लक्ष्मी जी का वरद हस्त प्राप्त हुआ.
इस प्रकार की
अनेक नई-नई विधियों द्वारा श्रीपाद प्रभु ने अपने भक्तों को पापकर्मों से मुक्त
किया. इस सब के बारे में समझना सामान्य मानव के लिए असंभव है.
।। श्रीपाद प्रभु की जय जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ५०
गुरू निंदा करने से दारिद्र्य
प्राप्ति
एक वृद्ध ब्राह्मण पेट दर्द से
पीड़ित था. वह श्रीपाद प्रभु के दर्शनों के लिए कुरुगड्डी आया. उसकी पीड़ा इतनी
असह्य थी, कि उसे उन वेदनाओं को सहन करने की अपेक्षा आत्महत्या
करना अधिक उचित लगता था.
नाम स्मरण महिमा
उस ब्राह्मण ने श्रीपाद प्रभु के
दर्शन किये और अत्यंत दीन-हीन स्वर में प्रभु से अपनी पीड़ा दूर करने की विनती की.
तब श्रीपाद प्रभु बोले, “अरे, ब्राह्मण! तूने पूर्व जन्म में अपनी कठोर वाणी से
अनेक लोगों का दिल दुखाया है. अनेक लोगों को अपने ह्रदय भेदी कठोर शब्दों से घायल
किया है. इस कर्म के फलस्वरूप तुझे इस जन्म में यह पेट दर्द की व्याधि लग गई है.
इस कलियुग मे वाक् दोष से मुक्त होने का मानव के लिए केवल एक ही मार्ग है, और वह है – “नाम स्मरण”. ईश्वर के नाम स्मरण से वायु
मंडल शुद्ध होता है. मैं कुरुगड्डी में नामस्मरण महायज्ञ का आयोजन करने वाला
हूँ. इस “नाम” के साथ “श्रीकार” भी जोड़ने वाला हूँ. इसके फलस्वरूप परा, पश्यंती, मध्यमा, एवँ वैखरी –
ये चारों वाणियाँ चिरस्थाई रूप से नियंत्रित हो जायेंगी. जो भक्त “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद
वल्लभ दिगंबरा”, तथा “श्री दत्ता दिगंबरा” नाम-स्मरण मनःस्फूर्ति से करेंगे
उन्हें मैं अत्यंत सुलभ रूप से प्राप्त होकर उनकी मनोकामना पूर्ण करूंगा.” उस
व्याधिग्रस्त ब्राह्मण को श्रीपाद प्रभु ने तीन दिन एवँ तीन रात कुरुगड्डी में
रहकर “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपादवल्लभ दिगंबरा” नाम का जाप करने को कहा. श्री
प्रभु के आदेशानुसार वह वृद्ध ब्राह्मण तीन दिन, तीन रात
कुरुगड्डी में रहा एवँ उसने अत्यंत श्रद्धाभाव से जाप किया. उसके पेट का दर्द कम
हो गया.
श्रीपाद प्रभु बोले, “वायु मंडल
में आज भी पहले के ही समान वाक् जल भरा हुआ है. हमारे द्वारा उच्चारित प्रत्येक
वाक्य प्रकृति में उपस्थित सत्व, रज, तम इन तीन गुणों से अथवा इनमें से एक अथवा दो गुणों
से परिपूर्ण होता है. इस त्रिगुणात्मक सृष्टि का पञ्च महाभूतों पर प्रभाव पड़ता है.
ये पञ्च महाभूत जब दूषित होते हैं, तो समूचा अंतरिक्ष दूषित हो जाता है. इसके फल स्वरूप
मानव द्वारा पाप कर्म किये जाते हैं और वह दरिद्री हो जाता है. इस दारिद्र्य के
कारण उसके हाथ से पुनः पापकर्म हो जाते हैं. इस पापकर्म के फलस्वरूप मन दूषित हो
जाता है, उसके द्वारा दान, धर्म, लोक सेवा आदि
सत्कर्म नहीं किये जाते, फलस्वरूप वह पुनः दरिद्री हो जाता है. यह दुष्ट चक्र
निरंतर चलता रहता है.
त्रिकरण शुद्धि की आवश्यकता
मानव को दारिद्र्य एवँ पापकर्म से
मुक्ति पाना हो तो उसे काया, वाचा, मनसा शुद्ध होना चाहिए. इसी को त्रिकरण
शुद्धि कहते हैं. जो हमारे मन में है, उसी को वाणी
प्रकट करे. मन में दुष्ट भाव हों, और वाणी मधुर हो, इस प्रकार का दोगलापन वांछनीय नहीं है. वाणी के ही
समान आचरण भी पवित्र होना चाहिए. त्रिकरण शुद्धि प्राप्त मानव महान पद को प्राप्त
होता है. मन में एक प्रकार का भाव हो, वाणी कुछ अन्य ही प्रकट करे एवँ इन
दोनों से बिलकुल भिन्न आचरण करने वाले को दुरात्मा कहते हैं. इस कलियुग में ईश्वर
ने जीवन सागर पार करने के अनेक मार्ग बताए हैं. इनमें सबसे सुलभप्राय साधन है “नाम-स्मरण”. नाम-स्मरण करने वाले साधक
की वाणी मधुर होती है, नाम-स्मरण न करने वाले का मन भी
अशुद्ध होता है. नाम-स्मरण के फलस्वरूप पवित्र कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त होती
है.
कर्म विमोचन
एक बार क्षय रोग से ग्रस्त एक
व्यक्ति कुरवपुर आया. उसे मधुमेह एवँ कुछ अन्य व्याधियां भी थीं. उसे देखते ही
श्रीपाद प्रभु अत्यंत क्रोधित हो गए. वह व्यक्ति पूर्व जन्म में एक कुख्यात चोर
था. उसने अनेक निरपराध लोगों की संपत्ति लूटकर उन्हें निर्धन बना दिया था.
एक उपवर कन्या के पिता ने उसके
विवाह के लिए संपत्ति संचय करके रखी थी. उस दुष्ट चोर ने वह संपत्ति लूट ली, फलस्वरूप उस
कन्या का विवाह न हो सका. वर-दक्षिणा देने के लिए धन के न होने से उसे योग्य वर न
मिल सका. अंत में एक वृद्ध वर-दक्षिणा के बिना विवाह के लिए तैयार हुआ. इस प्रस्ताव
के कारण उस उपवर कन्या ने आत्महत्या कर ली. पूर्व जन्म के ऐसे पाप कर्मों के कारण
वह क्षय रोग से ग्रस्त व्यक्ति अत्यंत दीन-हीन अवस्था में श्रीपाद प्रभु के पास
आया और उसने अत्यंत करुणापूर्ण वाणी से प्रभु से प्रार्थना की कि उसे इस दुर्धर
व्याधि से मुक्त करें. दयावन्त श्रीपाद प्रभु ने उसे पञ्चपहाड़ में स्थित गोशाला
में सोने के लिए कहा. वहाँ मच्छर प्रचुर मात्रा में थे. प्यास लगने पर पीने के लिए
पानी भी नहीं था. उस रात को उसने सपने में देखा कि एक राक्षस उसका गला दबाकर उसके
प्राण ले रहा है. वह घबरा कर उठ बैठा. इधर-उधर देखने लगा और यह विश्वास करके कि वह
स्वप्न ही था, वह पुनः सो गया. उसने फिर से एक सपना देखा. उसके सीने
पर एक बड़ा पत्थर रखा था और उस पत्थर पर एक बलवान पहलवान बैठा था. इन दोनों
स्वप्नों के कारण उसके कर्म फल का परिष्कार हो गया और वह अपनी क्षय रोग की एवँ
अन्य व्याधियों से मुक्त होकर स्वस्थ्य हो गया. अनेक वर्षों से क्षय रोग से पीड़ित
ऐसे व्यक्ति को श्रीपाद प्रभु ने सपने में दंड देकर कर्म विमुक्त कर दिया.
श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो
श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये
अध्याय – ५१
जलोदर से रक्षा – ग्रन्थ पारायण की
महिमा
मैं कुरवपुर में ही था कि अश्विन
कृष्ण द्वादशी का दिन आ पहुंचा. उस दिन हस्त नक्षत्र था. कृष्णा नदी में स्नान
करने के पश्चात श्रीपाद प्रभु कुछ देर तक ध्यान मुद्रा में बैठे. ध्यान से बाहर
आकर उन्होंने मुझे एक बार और स्नान करने के लिए कहा. उनकी आज्ञा के अनुसार मैंने
एक बार फिर कृष्णा नदी में दुबकी लगाई और उनके पास आया. तब प्रभु बोले, “अरे, शंकर भट्ट ! मेरे गुप्त रूप से रहने का समय आ गया है. मैं कृष्णा नदी में
अंतर्धान होकर इस कुरवपुर में गुप्त रूप से संचार करूंगा, पश्चात नृसिंह सरस्वती के नाम से सन्यासी रूप में धर्मोद्धार के लिए अवतार
लूँगा.”
तू जिस ग्रन्थ की रचना कर रहा है, वह “श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत” महा पवित्र ग्रन्थ भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के समान लाभदायक होगा. वह
ग्रन्थ “अक्षर सत्य” होगा. “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा “ – मेरे इस मन्त्र का जयघोष सर्वत्र होगा. इस
ग्रन्थ के पठन से संसार सुखी होगा. इहलोक एवँ परलोक में सौख्य की प्राप्ति होगी.
इस ग्रन्थ का प्रत्येक शब्द वेद वाक्य के समान माना जाएगा. तू जो लिख रहा है, वह संस्कृत ग्रन्थ मेरे महासंस्थान के औदुम्बर वृक्ष के नीचे शब्द स्वरूप
में हमेशा रहेगा. वहाँ से निकलने वाले दिव्य शब्द दर्शन हेतु आने वाले भक्तों को
सुनाई देंगे. ह्रदय पूर्वक जो व्यक्ति मेरे दर्शनों के लिए तड़प रहे हैं, उन्हें मेरे दर्शन अवश्य होंगे. मैं अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव
तत्पर रहता हूँ. तेरे इस संस्कृत ग्रन्थ का तेलुगु भाषा में अनुवाद किया जाएगा. वह
अनुवाद बापन्नाचार्युलु की तैंतीसवी पीढी के वंशज द्वारा प्रकाश में आएगा. इस
ग्रन्थ के अनेक भाषाओं में अनुवाद होंगे. इस पवित्र ग्रन्थ का पठन चाहे किसी भी
भाषा में क्यों न किया जाये, दिव्य अनुभव की प्राप्ति
होगी और पठन करने वाले भक्तों का सब कुछ शुभ मंगल होकर, उनकी
सकल व्याधियों से रक्षा होगी.
भक्तों को श्रीपाद प्रभु का अभय वचन
श्रीपाद प्रभु ने शंकर भट्ट से आगे
कहा, “तूने मेरी बहुत सेवा की है.
तूने मुझे पिता के समान सन्मान देकर, मनःपूर्वक मेरी सेवा का
व्रत अत्यंत श्रद्धा एवँ नियम पूर्वक निभाया है. मैं अपनी लकड़ी की चरण पादुकाएं
तुझे भेंट स्वरूप दे रहा हूँ. मेरे न होने पर दु:खी मत होना. तू तीन वर्षों तक
यहीं रहना. इन तीन वर्षों में मैं तुझे तेजोवलय रूप में दर्शन देता रहूँगा. साथ ही
अनेक योग-रहस्यों के बारे में ज्ञान दूँगा.”
श्रीपाद प्रभु अंतर्धान हुए
“हे शंकर भट्ट! तीन वर्षों के
पश्चात आने वाली अश्विन कृष्ण द्वादशी के दिन तेरे द्वारा रचित :श्रीपाद श्रीवल्लभ
चरित्रामृत” ग्रन्थ मेरी चरण पादुकाओं के निकट रखना. उस दिन दर्शन हेते आने वाले
सारे भक्त धन्य हो जायेंगे. सबको मेरा मंगलमय आशीर्वाद.”
इस प्रकार श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु
ने बिदा ली और वे कृष्णा नदी में अंतर्धान हो गए. उनकी लकड़ी की चरण पादुकाएं लेकर
मैंने ह्रदय से लगा लीं और माँ से बिछुड़े हुए बालक की भाँति फूट-फूटकर रोने लगा.
श्रीपाद प्रभु पानी में दिखाई दे रहे हैं, अथवा नहीं, यह देखने के लिए मैंने फिर एक बार
नदी में स्नान किया और बाहर आकर ध्यानस्थ हो गया.
तब मेरे मन:चक्षुओं को श्रीपाद
प्रभु ने तेजोमय रूप में दर्शन दिए..
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ५२
शंकर भट्ट का योगानुभव का निरूपण
श्रीपाद प्रभु के दिव्य दर्शन
मैं लगातार तीन वर्षों तक हर रोज़ मध्यरात्री
के समय श्रीपाद प्रभु के दिव्य तेजोमय दर्शनों का लाभ प्राप्त
करता रहा. मैंने योग की अनुभूतियाँ एक पुस्तक के रूप में लिखीं. वह पुस्तक हिमालय
से एक योगी आकर ले गए. यह श्रीपाद प्रभु की ही इच्छा होगी, ऐसा मेरा विश्वास है. उनकी आज्ञा से ही यह घटित हुआ
इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।
अध्याय – ५३
श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत का
पीठिकापुरम् क्षेत्र में पहुँचने का विधान
ग्रन्थ की विशेषता
मेरे द्वारा लिखित “श्रीपाद
श्रीवल्लभ चरित्रामृत “ ग्रन्थ कुछ दिनों तक श्रीपाद प्रभु के मामा के घर में था.
इसके बाद इस संस्कृत ग्रन्थ का तेलुगु भाषा में अनुवाद किया गया. तेलुगु भाषा में
अनुवाद होने के उपरांत मूल संस्कृत ग्रन्थ अदृश्य हो गया. गन्धर्वों ने उसे
श्रीपाद प्रभु के जन्म स्थान पर ले जाकर ज़मीन के नीचे गहरे गाड़ कर रख दिया. उस
ग्रन्थ का सिद्धयोग द्वारा पठन हो रहा है. मेरे द्वारा रचित चरित्रामृत श्रीपाद
प्रभु की दिव्य चरण पादुकाओं के निकट रखकर मैंने उन्हें पढ़कर सुनाया. चरित्रामृत
को सुनने के लिए आए पाँच भक्त उसका श्रवण करके धन्य हो गए.
मैं पंडित नहीं हूँ, अतः किस अध्याय को पढ़ने से क्या फल मिलेगा, यह कह नहीं सकता. श्री बापन्नाचार्युलु की तैंतीसवी
पीढी के कालखंड में इस ग्रन्थ की तेलुगु प्रति उदित होही. जो भाग्यवान व्यक्ति इस
ग्रन्थ को खोज निकालें, वे श्रीपाद प्रभु के जन्म स्थान पर
जाकर वहाँ महासंस्थान के पवित्र परिसर में ग्रन्थ का पठन करके उसे श्रीपाद प्रभु
के चरणों में अर्पित करें. इस ग्रन्थ का पठन होते समय पठन करने वाले भाग्यवान भक्त
को गाणगापुर क्षेत्र से भेजा हुआ प्रसाद प्राप्त होगा. वह प्रसाद लाकर देने वाला
व्यक्ति बापन्नाचार्युलु की तैंतीसवी पीढी से होगा. यह तेजोमय स्वरूप में दर्शन
देने वाले श्रीपाद प्रभु का दिव्य वचन है.
।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय
जयकार हो।।
।। हरिः ॐ तत्सत्।।
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