शनिवार, 30 जुलाई 2022

अध्याय - ४२

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ४२


श्रीपाद प्रभु पीठिकापुर से अन्तर्धान


श्रीपाद प्रभु के माता-पिता एवँ बापन्नाचार्युलु को दिव्य दर्शन


दोपहर के भोजन के पश्चात श्री भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद प्रभु ने शूद्र के घर जाकर दत्त दीक्षा दी. दीक्षा विधि के समय की जाने वाली पूजा-अर्चना तथा अन्य नियमों का पालन न करते हुए केवल भक्तों के हाथों में पवित्र धागा बांधा एवँ उन्हें भोजन करने के लिए कहा. श्रीपाद प्रभु ने दीक्षा लेने वाले भक्तों से कहा था कि वे स्वयँ ही दत्तात्रेय हैं एवँ उनके स्मरण मात्र से ही भक्तों की पीड़ा एवँ उनके  कष्टों का निवारण होता है. कोई ऐसा विचार भी मन में न लाये कि इस दीक्षा विधि में शास्त्रों की अवहेलना की गई. प्रभु ऐसा बार-बार जोर देकर कह रहे थे. परन्तु पीठिकापुरम् के ब्राह्मणों ने एकत्रित होकर तत्कालीन पीठाधीश शंकराचार्य से इस विषय में शिकायत कर दी. साथ ही श्री बापन्नाचार्युलु एवँ अप्पल राजू शर्मा को ब्राह्मण कुल से बहिष्कृत कर दिया जाए ऐसी सिफारिश भी की. उस समय श्री शंकराचार्य प्रभु अंतर्ध्यानस्थ थे, अतः वह चर्चा वहीं समाप्त हो गई. श्री शंकराचार्य की अनुमति के बिना आध्यात्मिक विषयों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करना संभव नहीं है, ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया. अनेक ब्राह्मणों का यह मत था कि इस सन्दर्भ में सोलह वर्ष की आयु के बालक द्वारा स्वयँ को श्री दत्त प्रभु के अवतार होने की घोषणा करना देवद्रोह के समान है. कुछ ब्राह्मणों के मन में कपट था, परन्तु ऊपर से झूठी सहानुभूति प्रकट करने के लिए वे बापन्नाचार्युलु के घर आए. बापन्नाचार्युलु ने कहा, “ श्रीपाद प्रभु अपने तेज से हमें चकाचौंध कर रहे हैं. वे महाप्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में बालक रूप में हमारे आँगन में खेले, और उन्होंने हमें अपने दिव्य आनंद का लाभ प्रदान किया. हमारी आंखों पर पडा हुआ मायारूपी परदा उन्होंने दूर हटाया. आज वे हमारे नेत्रों में किरण के सामान चमक रहे हैं. उनके नयन-मनोहारी, दिव्य दर्शन से हम भाव विभोर हो गए हैं. हम कितने भाग्यवान हैं, इसकी गणना ही नहीं की जा सकती.”

बापन्नाचार्युलु का यह वक्तव्य सुनकर झूठी सहानुभूति दिखाने आए ब्राह्मण कुछ भी बोले बिना वापस चले गए. उनके मन का किल्मिष धुल चुका था. कुछ देर में श्रीपाद प्रभु अपने घर लौटे. सुमति महाराणी, अप्पल राजू शर्मा, उनकी बहनें तथा भाई सभी अत्यंत प्रसन्न थे.

श्री अप्पल राजू शर्मा बोले, “श्रीपाद प्रभु के विषय में पहले हम बहुत चिंतित थे, परन्तु अब हमारे ह्रदय का बोझ हल्का हो गया है. उनका स्मरण करते ही वे हमारे मनःचक्षुओं के सामने प्रकट हो जाते हैं. हम जो भी उनसे माँगते हैं, उसे वे स्थूल रूप में आकर, हमसे वार्तालाप करके, देते हैं. श्री दत्त प्रभु को जन्म देने वाले जनक-जननी होने के कारण हम अत्यंत धन्य हैं. अब हमें निरंतर आनंद की प्राप्ति हो गई है.” इतना कहकर अप्पल राजू शर्मा ने अपने उत्तरीय से आंखों से बहने वाले आनंदाश्रु पोंछे. ब्राह्मणों ने जो सोचा था, यहाँ की स्थिति उससे पूरी तरह भिन्न थी. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी सब ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए बोले, “हे विप्रगण! आज तक हम केवल कुछ पल श्रीपाद प्रभु के साथ बिताते थे, परन्तु इसके पश्चात वे हमारे मनःचक्षुओं में सदैव वास करने वाले हैं. इसी प्रकार स्थूल देह से दर्शन देकर हमारे घर में ही निवास करने वाले हैं.” इसके बाद नरसिंह वर्मा ने ब्राह्मणों से कहा, “श्रीपाद प्रभु ने हमारी आंखों से माया का पर्दा हटाया है. नित्य विनोद, दिव्य विनोद करने वाले महाप्रभु श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में हमारे साथ उत्कट हास्य करते हुए हमारे चारों और रहेंगे. पहले से भी अधिक उत्साह भाव से वे स्थूल रूप में हमें दर्शन देंगे.”

श्रीपाद प्रभु के इस स्थूल स्वरूप की कल्पना कुक्कुटेश्वर में उपस्थित दत्त भक्त सन्यासी को हुई और उसके ह्रदय में खलबली मच गई. श्रीपाद प्रभु स्वयँ साक्षात दत्तात्रेय प्रभु हैं ऐसा स्पष्ट रूप से इशारा देकर वे ध्यानस्थ हो गए. श्रीपाद प्रभु कोई और देवता न होकर उनके उपास्य देव दत्तात्रेय हैं, यह उन्होंने जोर देकर कहा. श्रीपाद प्रभु का विरोध करने वाले कुछ ब्राह्मण पीठिकापुरम् में थे. उनके मन में सदा यही प्रश्न उठता था कि “क्या वास्तव में प्रभु श्री दत्तात्रेय श्रीपाद श्रीवल्लभ के रूप में अवतरित हुए हैं? यदि यह सत्य है तो हमारा उन्हें कष्ट पहुंचाना कठिन ही नहीं, अपितु असंभव भी है.” 

श्री दत्तात्रेय प्रभु का स्वभाव बहुत विशेष है. वे स्वयँ कष्ट सहन करके अनन्य भाव से शरण में आये हुए अपने साधकों का उद्धार करते हैं. यह उनके स्वभाव की विशेषता है. पीठिकापुरम् के अनेक ब्राह्मणों ने श्रीपाद प्रभु को ब्रह्म-रथ में बैठाकर शोभा यात्रा का आयोजन किया था. एक बड़ी राशि भी दक्षिणा स्वरूप अर्पण की थी.

दत्त दीक्षा देने वाले सन्यासी केवल गुरु दक्षिणा के लोभ में दीक्षा दे रहे थे. उन्होंने इसे धनार्जन का साधन बना लिया था. दीक्षित साधकों की इच्छा यदि पूरी न होती तो वे कह देते कि उनमें निष्ठा का अभाव है. इच्छा, मनोकामना पूरी होने पर वे कहते कि यह दत्त दीक्षा का फल है. उस सन्यासी के मन में श्रीपाद प्रभु का डर सदैव बना रहता. उन्हें ऐसा लगता था कि श्रीपाद प्रभु अपनी दिव्य लीलाओं से उनका सत्य स्वरूप सबके सामने उजागर कर देंगे.         

उस समय कुक्कुटेश्वर के मंदिर में एक वृद्ध ब्राह्मण आया. उसका नाम था नरसिंह, गोत्र था काश्यप. वह दूरस्थ महाराष्ट्र प्रदेश से आया था. उसने कुक्कुटेश्वर प्रभु के दर्शन बड़े भक्ति भाव से किये, फिर स्वयंभू श्री दत्तात्रेय के दर्शन किये. उस समय उसे ज्ञात हुआ कि वहाँ दत्त दीक्षा दी जा रही है. वह वृद्ध ब्राह्मण दीक्षा देने वाले परिव्राजकाचार्य के पास आया. उसने उस सन्यासी को बड़े नम्र भाव से नमस्कार किया और गुरुदक्षिणा के लिए लाये हुए सिक्के दिए. दक्षिणा देखकर सन्यासी बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने दीक्षा देने के लिए ब्राह्मण से अपनी अंजुली आगे बढाने को कहा. उसके हाथ पर कमंडलु का पवित्र जल डालने के लिए सन्यासी ने अपना कमंडलु उठाया और ब्राह्मण के हाथ पर पवित्र जल डाला. परन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि कमंडलु से जल के साथ साथ एक बिच्छू भी ब्राह्मण के हाथ पर गिरा. उस ब्राह्मण का गला सूख गया. सन्यासी ने ब्राह्मण से हाथ पर डाला हुआ जल पीने को कहा और बोला, “ अहाहा! तूने अनेक वर्षों से की गई तपश्चर्या का फल आज मुझे अर्पण किया.” तभी वह ब्राह्मण बिच्छू के दंश से चिल्लाया. मंदिर में उपस्थित कुछ ब्राह्मणों को बिच्छू के दंश का दाह कम करने का मन्त्र ज्ञात था. उन्होंने ब्राह्मण के लिए वह मन्त्र पढ़ा, परन्तु दाह कम न हुआ. अब सन्यासी डर के मारे मंदिर के एक कोने में छिप गया. दाह कम होने के लिए अनेक मन्त्र पढ़े गए, कुक्कुटेश्वर का अभिषेक किया गया; स्वयंभू दत्तात्रेय की विशेष कर्पूर आरती की गई, परन्तु किसी भी बात से कोई  भी सुधार नहीं हुआ. ब्राह्मण मूर्च्छित अवस्था में पडा था, उसके मुख से झाग निकल रहा था. झाग देखकर कुछ लोगों ने सोचा कि ब्राह्मण को शायद साँप ने काटा है. परन्तु कुछ ब्राह्मणों ने उस ब्राह्मण के हाथ पर कमंडलु के जल के साथ गिरते हुए बिच्छू को देखा था. सभी ने अपनी ओर से ब्राह्मण की सहायता करने की पूरी कोशिश की, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ. अब सभी ने सोचा कि इस पूरी घटना का कारण वह सन्यासी ही है. वेदना सहन न कर पाने के कारण वृद्ध ब्राह्मण कुछ देर तक गड़बड़ लोटता रहा, फिर मूर्च्छित हो गया.

कुछ देर बाद ब्राह्मण को होश आया, परन्तु उसके पेट में असह्य वेदना होने लगी और वह हिचकियाँ लेने लगा. तभी वहाँ एक किसान आया. उसने वृद्ध ब्राह्मण से कहा, “हमारे कुल के वेंकय्या नामक एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने श्रीपाद प्रभु की मंत्राक्षताएं दी है. ब्राह्मण ने अत्यंत श्रद्धाभाव से श्रीपाद प्रभु का स्मरण किया और उन मंत्राक्षताओं को हाथ में लेकर अपने मस्तक पर धारण कर लिया. और, आश्चर्य की बात यह हुई कि कुछ ही क्षणों में ब्राह्मण की सारी वेदनाएं नष्ट हो गईं और वह पूर्ववत स्वस्थ्य हो गया.

इस घटना से लोगों का सन्यासी से विश्वास उठ गया. सब दीक्षित साधकों ने उसे दी हुई गुरुदक्षिणा उससे वापस ले ली और उसे पीठिकापुरम् से निकाल दिया.

सन्यासी से वापस ली गई धनराशि का उपयोग किस प्रकार से किया जाए, इस बारे में सभी साधकों ने बापन्नाचार्युलू से पूछा, तब वे बोले, “उस धन से भोजन सामग्री लाकर सबको अन्नदान किया जाए. अन्नदान से दत्त प्रभु प्रसन्न होंगे, किसी और दत्त दीक्षा की आवश्यकता नहीं है.”

बापन्नाचार्युलु के कथनानुसार कुक्कुटेश्वर के प्रांगण में एक बड़ा मंडप डाला गया. वहाँ बड़ी मात्रा में अन्न संतर्पण किया गया. भोजन के पश्चात सब लोगों ने “दिगंबरा, दिगंबरा, श्रीपाद श्रीवल्लभ दिगंबरा” इस दिव्य नाम घोष से पूरा परिसर गुंजायमान कर दिया. इस दिव्य महामंत्र से सारा विश्व व्याप्त हो जाएगा, ऐसी भविष्यवाणी श्रीपाद प्रभु पहले ही कर चुके थे.

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

अध्याय - ४१

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ४१


परिव्राजक का वृत्तांत


श्री भास्कर पंडित बोले, “श्रीपाद श्रीवल्लभ महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली, राजराजेश्वरी स्वरूप हैं. उनके देवीतत्व का ज्ञान उनका अनुष्ठान करने वाले भक्तों को होता है.”

मैंने भास्कर पंडित से पूछा, “हे आर्य! मैंने सूना है कि वाणी के चार रूप – परा, पश्यंती, मध्यमा एवँ वैखरी होते हैं. कृपया इनके बारे में विस्तार से बताएँ.” इस पर भास्कर पंडित बोले, “अंबिका प्रत्येक वाक्य द्वारा व्यक्त होती है. वह प्रत्येक व्यक्ति के माध्यम से बोलती है. जो वाक्य हम अपने कानों से सुनते हैं, वह स्थूल होता है. कभी-कभी वाक्य मुख के बाहर बिलकुल सुनाई नहीं देता, केवल होठों की हलचल से ही अर्थ बोध होता है. तब इसे “मध्यमा” वाणी कहते हैं. इस “मध्यमा” से कुछ और सूक्ष्म वाणी को “वैखरी” कहते हैं. कंठ के भीतर जब वाणी गले तक आए, परन्तु बाहर न आ सके, अर्थात जो भीतर ही भीतर मन में घूमती है, उसे “पश्यंती” वाणी कहते हैं. इस “पश्यंती” से भी सूक्ष्म वाणी को, जो नाभि स्थान से निर्विकल्प रूप से संकल्प मात्र होती है, वह “परा” वाणी है.

अंबिका की आराधना त्रिपुर भैरवी स्वरूप में भी की जाती है. गुणत्रय, जगत्रय, मूर्तीत्रय, अवस्थात्रय – इन सबकी आदिशक्ति त्रिपुर भैरवी है. बालकों! यदि हम श्रद्धापूर्वक आत्मसमर्पण करके संपूर्ण शरणागति स्वीकार कर लें, तो इस लोक में अथवा अदृश्य लोक में किसी भी प्रकार का शत्रुत्व हमारा कोई नुक्सान नहीं कर सकता. विरोध शक्ति केवल भौतिक जगत में ही सीमित नहीं है, बल्कि वह प्राणमय, भौतिकमय, मानसिकमय, अध्यात्मिकमय भी होती है. हमें जितनी प्रगति करने की इच्छा है, उतनी प्रगति प्राप्त करने पर, भौतिक जगत में हम जिस प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं, अन्य लोकों में भी उसी प्रकार का जीवन बिता सकते हैं.

मानव को यदि प्रगति करना हो, तो मन में श्रद्धा का होना आवश्यक है. हम अपना जीवन विश्वास के आधार पर ही बिताते हैं. संकट के समय परमेश्वर निश्चय ही सहायता करेंगे और वे ही इस संकट से मुक्ति देंगे, यह दृढ़ विश्वास मन में होना चाहिए. यह विश्वास ही एक प्रकार की सुरक्षा की भावना उत्पन्न करता है और आत्मविश्वास को बढाता है.

शक्तिहीन ज्ञान निर्लेपता की और बहता है.ज्ञानहीन शक्ति अंधी होती है और वह विनाश का कारण बनती है. इसलिए मानव को ज्ञान संपादन करके प्रकृति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए. शक्ति अनुग्रह के उपरांत परिपूर्णता साधनी चाहिए.

सांख्य मार्ग में चैतन्य को पुरुष कहा गया है. कर्म करने वाले को प्रकृति कहा गया है. निम्नावस्था में इन दोनों में विरोध होता है. चैतन्य – कर्म नहीं करता एवँ प्रकृति में ज्ञान नहीं होता. प्रकृति एवँ पुरुष दोनों मिलकर ही सृष्टि का कार्यभार संभालते हैं. ये दोनों ही अपंग हैं. चैतन्य – देखा जाए तो लंगडा है और प्रकृति – अंधी है. सभी लोगों में यह अपंगत्व- अंधापन और लंगड़ापन – किस प्रकार व्याप्त है, यह समझाने के लिए श्रीपाद प्रभु के परिवार में एक भाई जन्म से अंधा था तथा एक भाई जन्म से लंगडा था. ये दोनों अंधत्व एवँ लंगडेपन के प्रतीक थे.

उन्नत स्थिति में पहुँचने पर पुरुष एवँ प्रकृति “ईश्वर” तथा “ईश्वरी” नाम से जाने जाते हैं. तब इन दोनों में परस्पर विरोध नहीं होता. श्रीपाद प्रभू योग्य काल आने पर अपने बंधुओं का अपंगत्व दूर करेंगे, इसमें कोइ संदेह नहीं. लोगों में व्याप्त अंधत्व एवँ पंगुत्व को दूर करने के अपने ब्रुहदत्तर कार्य की सूचना स्वरूप वे यह करेंगे. अतीत ऐसे स्वामी रूप में विद्यमान पुरुष-प्रकृति को ब्रह्म माया के नाम से संबोधित किया जाता है. श्रीपाद प्रभु ने अपनी आयु के सोलहवें वर्ष में वैराग्य धारण किया और घर त्याग कर धर्म प्रचार हेतु निकल पड़े. इस गृहत्याग का उद्देश्य था सामान्य लोगों को यह समझाना कि वे स्वयं ही ब्रह्म हैं और वे ही माया हैं. अपरिमित एवँ अनंत गुणों से युक्त ब्रह्मस्वरूप को परिमितता देने वाली शक्ति ही माया है. श्रीपाद प्रभु का जन्म पीठिकापुरम् में हुआ – इसका उद्देश्य यह सूचित करना था कि वे अपरिमित ब्रह्मस्वरूपी होने के कारण माया के सम्मुख न झुकते हुए परिमित व्यवहार करते हैं. सोलह वर्ष की आयु में वे माया के बंधन में न पड़कर केवल भक्तों का उद्धार करने का संकल्प करके घर त्याग कर चले गए.

समूचे विश्व में श्रीपाद प्रभु की महिमा का विस्तार होने के पश्चात आगामी शतक में उनके संकल्प के अनुसार पीठिकापुरम् के निवासियों का भी ज्ञानोदय होने वाला है. श्रीपाद प्रभु की दिव्य चैतन्य शक्ति    मानव चैतन्य के अंधत्व तथा अपंगत्व का निवारण करेगी. श्रीपाद प्रभु की लीलाएँ सामान्य मानवों के लिए अनाकलनीय हैं.

एक बार एक सन्यासी श्री कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आया. वह श्री दत्तात्रेय का भक्त था. वह दत्त दीक्षा भी दिया करता था. उसने अपने वक्तव्य में कहा था कि दत्त दीक्षा लेने से मानव का नियोजित कार्य बिना किसी विघ्न बाधा के सिद्ध हो जाता है. पीठिकापुरम् के अनेक ब्राह्मणों ने दत्त दीक्षा स्वीकार की. वह सन्यासी दीक्षा देकर साधक से दक्षिणा स्वीकार करता था. इस दक्षिणा का कुछ भाग वह दीक्षित ब्राह्मणों को दिया करता. अनेक ब्राह्मणों तथा अन्य कुलीनों ने विचार विमर्श करके दत्त दीक्षा ली और गुरुदक्षिणा दी. परन्तु मंदिर में आये कुछ लोगों में यह विवाद प्रारम्भ हो गया कि दत्त दीक्षा ली जाए अथवा नहीं. ब्राह्मण परिषद्, क्षत्रिय परिषद्, वैश्य परिषद् का एक संयुक्त सम्मलेन आयोजित किया गया. सम्मलेन के अध्यक्ष श्री बापन्नाचार्युलु थे. वे बोले, “श्री दत्तात्रेय प्रभु सभी के हैं. अतः सभी दत्त दीक्षा ले सकते हैं. अष्टादश वर्णों के लोग सन्यासी महाराज से दत्त दीक्षा ले सकते हैं. दीक्षा प्राप्त करने की यह सुवर्ण संधि सभी के लिए उपलब्ध है. इस अवसर पर ब्राह्मण परिषद् के कुछ व्यक्तियों का यह मत था कि ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य आचार संपन्न होने के कारण दीक्षा के पात्र होते हैं, परन्तु शूद्र अनाचारी होने के कारण दीक्षा के अधिकारी नहीं हैं. उनसे दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से उन्हें शुद्ध कर सकते हैं. इस पर बापन्नाचार्युलु ने कहा, “सभी कुलों में आचारवंत तथा अनाचारी – दोनों प्रकार के लोग होते हैं. कौन आचारवान है तथा कौन अनाचारी – यह कहना कठिन है. इसलिए सामूहिक कल्याण, स्थैर्य, क्षेम को दृष्टिगत रखते हुए हम श्री दत्त-होम अथवा अन्य यज्ञ-यागादी कार्यक्रम करके संघ के भीतर क्षेम, स्थैर्य बनाए रख सकते हैं. दक्षिणा लेकर शूद्रों को दीक्षा न देना उन पर अन्याय करने के समान है, ऐसा मेरा मत है. दक्षिणा लेकर हम अपनी तपः शक्ति से शूद्र लोगों को शुद्ध करने के पश्चात ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य लोगों का भी उद्धार कर सकते हैं. इस प्रकार किसी भी कुल के लोगों को व्यक्तिगत दीक्षा की आवश्यकता नहीं. इसके अतिरिक्त दक्षिणा की राशि बहुत अधिक रखी गई है. प्रत्येक कुल में गरीब लोग होते हैं. वे इतनी धन राशि दक्षिणा के रूप में नहीं दे पायेंगे. इतना धन देने के पश्चात उन्हें कुछ दिनों के लिए भूखा रहना पडेगा. अतः दक्षिणा ऐच्छिक होनी चाहिये. यथाशक्ति एवँ श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से दी गई दक्षिणा का ही स्वीकार करना चाहिए, तभी श्री दत्त प्रभु संतुष्ट होंगे.”

इस पर वहाँ एकत्रित ब्राह्मण बोले, “महाराज जब हमारे गाँव में पधारे तो हमने उनका स्वागत पूर्ण कुम्भ से एवँ वेद मन्त्रों के घोष से नहीं किया. महाराज ने स्वयँ ही जनहित की भावना से हम सबको दत्त दीक्षा दी, परन्तु हमारी ब्राह्मण परिषद् ने उन्हें कुछ भी नहीं दिया, यह बड़ी लज्जाजनक बात है.”

इस पर बापन्नाचार्युलू ने कहा, “वास्तव में देखा जाए तो परमहंस परिव्राजकाचार्य का स्वागत करने की एक विशेष विधि होती है. प्रथम, उनके प्रधान शिष्यों द्वारा कुछ दिन पूर्व ब्राह्मण परिषद् को सूचना भेजी जानी चाहिए. परिषद् इस पर पूरी तरह से विचार करके प्रधान शिष्यों से विचार विमर्श करके सारी बातें निश्चित करती है. इससे प्रधान शिष्यों का सबसे परिचय हो जाता है. तत्पश्चात परिषद् एक निर्णय लेकर एक योग्य परिव्राजक शिष्य का चुनाव करती है. इसके बाद परमहंस परिव्राजक अपने पधारने का निर्णय लेते हैं. तब उनका स्वागत वेदमंत्रों से, पूर्ण कुम्भ से किया जाता है. फिर उनके साथ शास्त्र चर्चा की जाती है. फिर परिव्राजक महोदय की सूचनानुसार यज्ञ, याग, दीक्षा अथवा प्रवचनों का आयोजन किया जाता है. इस प्रकार की कोई भी पूर्व सूचना दिए बिना परिव्राजकाचार्य कुक्कुटेश्वर के मंदिर में आ गए. आते ही उन्होंने दीक्षा का प्रस्ताव रखा एवँ गुरुदक्षिणा की भी मांग की. यह सब हमारे नियमों के विरुद्ध हुआ है.”

इस पर ब्राह्मणों ने उत्तर दिया, “नियमों के उल्लंघन के बारे में चर्चा करने का यह समय नहीं है. अब आप अथवा आपके दामाद अप्पल्रराजू शर्मा दीक्षा दक्षिणा देने वाले हैं अथवा नहीं ?” इस पर बापन्नाचार्युलु ने उत्तर दिया, “सामूहिक स्थैर्य के लिए दीक्षा लेने का हमारा विचार है. व्यक्तिगत क्षेम अथवा स्थैर्य के लिए नहीं. हम दीक्षा नहीं ले रहे, इसलिए दक्षिणा भी नहीं देंगे. जिन ब्राह्मणों को दीक्षा लेनी है वे स्वेच्छा से दीक्षा ले सकते हैं. ब्राह्मण परिषद् सामूहिक समस्याओं के निवारण के लिए होती है. सामूहिक प्रयोजन वाले विषयों पर परिषद् विचार विनिमय करती है. व्यक्तिगत दीक्षा एवँ व्यक्तिगत समस्या पर विचार नहीं करती.” श्रेष्ठी एवँ नरसिंह वर्मा ने दीक्षा लेने से इनकार कर दिया. ब्राह्मण, क्षत्रिय एवँ वैश्य लोगों को उनकी इच्छानुसार दीक्षा लेने अथवा न लेने की स्वतंत्रता दी गई थी.

 

श्रीपाद प्रभु से दत्त दीक्षा

श्रीपाद प्रभु पर श्रद्धा भक्ति रखने वाले लोगों में कुछ काश्तकार / किसान भी थे. इनमें प्रमुख थे वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी. श्रीपाद प्रभु वेंकटप्पय्या के घर गए और कहने लगे, “दत्त दीक्षा प्राप्त नहीं हुई इस बात से कोई भी निराश न हो. मैं दत्त दीक्षा दूँगा. इसके लिए मंडल (४० दिन) दीक्षा की भी आवश्यकता नहीं. एक रात भी दीक्षा ली जाए तो पर्याप्त है.”

श्रीपाद प्रभु एक दिन भर वेंकटप्पय्या के घर अष्टादश वर्ण के लोगों को दीक्षा दे रहे थे. दीक्षा ग्रहण करने वाले साधकों में कुछ ब्राह्मण, कुछ क्षत्रिय एवँ कुछ वैश्य थे.

 

श्रीपाद प्रभु का श्री दत्तात्रेय स्वरूप में प्रकट होना

श्रीपाद प्रभु बहुरूपी थे – यह उनके श्री दत्त स्वरूप में प्रकट होने का दिन था. वह दिन दत्त प्रभु का प्रिय दिन गुरूवार था. जिन भक्तों को उन्होंने दीक्षा दी थी, उन्हें मंगल आशीर्वाद दिया. सब भक्तों ने बड़े श्रद्धा भाव से श्री दत्त प्रभु का भजन अर्चन किया. इसके पश्चात श्रीपाद प्रभु ने अपने भावी कार्यक्रम के बारे में भक्तों को विस्तृत जानकारी दी. उन्होंने भक्तों से कहा कि श्री दत्त प्रभु स्मरण करते ही भक्तों को दर्शन देते हैं और उनकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं. इसके बाद दूसरे दिन (अर्थात शुक्रवार को) सुबह मैं नरसिंह वर्मा के घर गया. वहाँ श्रीपाद प्रभु का मंगल स्नान हो रहा था. स्नान के पश्चात नरसिंह वर्मा ने श्रीपाद प्रभु को खाने के लिए अनेक फल लाकर दिए परन्तु उन्होंने केवल एक केला ही उठाया. वह भी वर्मा के घर में बंधी गोमाता को दे दिया. इसके पश्चात वे वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर आये. यहाँ भी उन्हें मंगल स्नान करवाया गया. वहाँ श्रीपाद प्रभु ने मक्खन, दूध, छाछ एवँ मलाई स्वीकार की. वहाँ उन्होंने कहा, “मेरे भक्त मुझे बुला रहे हैं. पीठिकापुरम् छोड़कर जाने का समय हो रहा है.”

वेंकटप्पय्या के घर से निकल कर वे अपने नाना जी बापन्नाचार्युलु के घर आये. वहाँ भी उन्होंने मंगल स्नान किया. श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु प्रत्यक्ष दत्त स्वरूप हैं. उन्होंने अपने भक्तों के दुःख, पीड़ा, बाधाएं दूर करने के लिए अवतार धारण किया है. अपने वक्तव्य में उन्होंने अनेक बार स्पष्ट रूप से यह बात कही थी. अपनी दिव्य लीलाओं द्वारा जनता जनार्दन के उद्धार हेतु नियत किये गए कार्यक्रम की जानकारी श्रीपाद प्रभु ने अपने भक्तों को दी. इसके पश्चात वे अपने घर आये. श्रीपाद प्रभु के पीठिकापुरम् छोड़कर जाने के निश्चय के बारे में उनके माता-पिता को ज्ञात हो चुका था. उन्होंने श्रीपाद प्रभु को समझाने का काफी प्रयत्न किया, परन्तु प्रभु अपने निर्णय पर अडिग रहे. इसके बाद श्रीपाद प्रभु के माता-पिता ने उनके विवाह संबंधी चर्चा आरम्भ की. तब श्रीपाद प्रभु बोले, “मैंने अनेक बार श्रेष्ठी दादा जी को, वर्मा दादा जी को अनघालक्ष्मी सहित दर्शन दिए हैं. इस दिव्य दंपत्ति का विहार श्रेष्ठी दादाजी की आमराई में सबने देखा है. यह देखो अनघा लक्ष्मी सहित मेरा दिव्य मंगलमय स्वरूप.”  इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने उस दिव्य स्वरूप के दर्शनों का लाभ माता-पिता को दिया. उस मंगलमय स्वरूप को देखकर माता-पिता भाव विभोर हो गए. उनके मुख से शब्द ही नहीं निकले. श्रीपाद प्रभु बोले, “मैं जब अवधूत रूप में आया था, तभी मैंने कहा था कि मेरे विवाह का प्रस्ताव रखते ही मैं घर छोड़कर चला जाऊंगा.”

इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने अपने दोनों बड़े भाइयों को स्पर्श करके अपनी अमृतमय दृष्टी से उनकी और देखा. तत्काल अंधे बंधू को दृष्टी प्राप्त हो गई, और पंगु भाई चलने लगा. उस दिव्य स्पर्श से दोनों बंधुओं को ज्ञान की प्राप्ति भी हो गई और वे ज्ञान के तेज से दमकने लगे. यह सब देखकर प्रभु के माता-पिता को आनंदाश्चर्य का धक्का लगा, उनके मुख से शब्द ही नहीं फूटे. तभी वहाँ नानी राजमाम्बा और नाना जी बापन्नाचार्युलू आये. साथ ही वेंकटप्पा श्रेष्ठी और उनकी धर्मपत्नी सुब्बमाम्बा; नरसिंह वर्मा तथा उनकी धर्मपत्नी अम्माजम्मा आए. श्रीपाद प्रभु प्रसन्नता पूर्वक सबके साथ हँसी मज़ाक करते हुए बातें कर रहे थे. तब सुमति महाराणी ने कहा, “बेटा, श्रीपाद! तुमने कहा था कि तुम सारी जिम्मेदारियां पूरी करके जाओगे परन्तु तुमने अभी तक वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के घर की दूध बाकी , वत्सवाई के घर की दूध बाकी, मल्लादी की दूध बाकी पूरी नहीं की.” इस पर श्रीपाद प्रभु बोले, “माँ! तुम ठीक कहती हो. इन तीनों वंशों के लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा. यदि मैं भूल भी जाऊँ, तो तुम याद दिला देना. उनसे यथायोग्य सेवा करवाकर मैं उन्हें वर प्रदान करूंगा. तुम्हारे मायके के किसी एक घर में भोजन के लिए आता रहूँगा, परन्तु दक्षिणा स्वीकार नहीं करूंगा. तुम्हारे मायके के लोग मुझसे अत्यंत वात्सल्यपूर्ण व्यवहार करते हैं, और मुझे दामाद कहकर संबोधित करते हैं. मैं इस मानवी संबंध को स्वीकार करके उनके साथ दामाद के लिए योग्य व्यवहार ही करूंगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु ने पिता की और मुड़कर कहा, “तात, हमारे घंडीकोटा वंश में अनेक वर्षो से वेद परंपरा चली आ रही है. अब मेरे दोनों बड़े भाई वेदशास्त्र संपन्न होकर महापंडित हो गए हैं. वे अपनी वेद परंपरा जारी रखेंगे. घंडीकोटा  वंश के लोगों को मैं कभी भी नहीं भूलूंगा.” श्रीपाद प्रभु कुछ देर आँखें बंद करके बैठे और फिर बोले, “अपने श्रीधर शर्मा आगे किसी जन्म में “समर्थ रामदास” नाम से एक महापुरुष के रूप में महाराष्ट्र में जन्म लेंगे. नरसिंह वर्मा छत्रपति शिवाजी के नाम से जन्म लेकर महाराष्ट्र में राज्य स्थापित करेंगे और श्री समर्थ रामदास का शिष्यत्व स्वीकार करेंगे. इस प्रकार अपने पूर्व संबंध बंधू रूप में स्पष्टत: कायम रहेंगे. समर्थ रामदास के पश्चात श्रीधर शर्मा शिवग्राम (शेगांव) क्षेत्र में गजानन नामक महायोगी के रूप में जन्म लेंगे. उनके कारण शिवग्राम  क्षेत्र की महिमा अपरंपार बढ़ेगी. रामराज शर्मा “श्रीधर” के नाम से जन्म लेकर महायोगी बनेंगे. श्रीधर की शिव परंपरा वाले इस पीठिकापुर में मेरे आंगन में महासंस्थान का निर्माण होने वाला है. वेंकटप्पय्या श्रेष्ठी के साथ के अपने ऋणानुबंध  स्थायी स्वरूप ग्रहण करेंगे. इतना ही नहीं, बल्कि इसके पश्चात वत्सवाई कुटुंब के लोग भी यहां आएँगे. यहाँ सावित्र-पन्न का पारायण (वाचन) होगा.” इतना कहकर श्रीपाद प्रभु मौन हो गए. उन्हें वेद-पठन अत्यंत प्रिय था. अनेक बार श्रीपाद प्रभु वेद पठन होते देखकर आत्मलीन हो जाते थे. उस समय वेद पठन करने वाले विप्रगण अत्यंत श्रद्धाभाव से श्री प्रभु के दिव्य मुख की और एकाग्रता से देखते हुए वेद पठन जारी रखते.

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

सोमवार, 25 जुलाई 2022

अध्याय - ४०

 

 

 

।। श्रीपाद राजं शरणं प्रपद्ये।।


अध्याय – ४०.


भास्कर शास्त्री, शंकर भट्ट एवँ धर्मगुप्त के अनुभव


हम अनेक प्रकार के वाहनों से यात्रा कर रहे थे. कभी पैदल, कभी दो बैलों वाली गाडी से या कभी घोड़ा-गाडी से. हमारी यात्रा जारी थी. इस तरह से यात्रा करते हुए हम त्रिपुरान्तक क्षेत्र पहुंचे. वहाँ त्रिपुरान्तकेश्वर के दर्शन किये. इस स्थान पर हमें अनेक दिव्य अनुभव प्राप्त हुए. हमारे पास श्रीपाद प्रभु की दिव्य पादुकाएं थीं. हमें ऐसा प्रतीत होता कि हमारे साथ-साथ श्रीचरण भी चल रहे हैं. मानो हमारे पैर जब आगे बढ़ते तो उनमें श्रीचरण ही प्रवेश करके उन्हें आगे बढाते. हम जब बातें भी करते, तो समझ नहीं पाते थे कि क्या कह रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता मानो श्रीपाद प्रभु ही हमारे माध्यम से बोल रहे हों. हम भोजन करते, तो मानो वे हमारे मुख के माध्यम से स्वयँ भोजन करते. ऐसा अनुभव हो रहा था मानो हमारे शरीर के मांस, रक्त, नाड़ियों में श्रीपाद प्रभु ही प्रविष्ट हो गए हैं. शास्त्रों के कथन, “जीवात्मा ही परमात्मा है”, को हमने सुना तो था, मगर आज यह अनुभव हो रहा था कि श्रीपाद प्रभु के स्पर्श के बिना ही, उनका चैतन्य हमारे समूचे शरीर में व्याप्त हो गया है. इस प्रकार की लीला हमने पहले कभी न तो देखी थी, न ही उसके बारे में कभी सुना था.

श्री त्रिपुरान्तकेश्वर के अर्चक स्वामी का नाम था भास्कर शास्त्री. उन्हें हम पर बहुत गर्व था. वे पीठिकापुरम् में वास कर चुके थे. अर्चना करने के लिए उनकी नियुक्ति हुई थी. वे षोडशी राजराजेश्वरी देवी के भक्त थे. श्री पीठिकापुर निवासिनी कुक्कुटेश्वर महाप्रभु की स्वामिनी श्री राजराजेश्वरी देवी ने उन्हें स्वप्न में मन्त्र दीक्षा दी थी. उन्होंने हमसे विनती की, कि हम उनके घर में आतिथ्य स्वीकार करें. उन्हें ज्ञात था कि हमारे पास श्रीपाद प्रभु की चरण पादुकाएं हैं, हमने वे चरण पादुकाएं उनके पूजा-मंदिर में रखी थीं. उन चरण पादुकाओं से प्रभु की दिव्य वाणी सुनाई दी. प्रभु ने कहा, “बच्चों, तुम कितने धन्य हो. इन चरण पादुकाओं की भास्कर शास्त्री पूजा किया करते थे. ये पादुकाएँ वर्त्तमान में ताम्र रूप में हैं. भास्कर शास्त्री की मंत्रोपासना के बल पर कुछ सालों में वे सुवर्ण रूप में परिवर्तित हो जायेंगी. हिरण्य लोक के कुछ महापुरुषों ने इन चरण पादुकाओं को हिरण्यलोक ले जाकर उनकी अर्चना एवँ अभिषेक किया था. इसके पश्चात ये पादुकाएँ कारण लोक में विद्यमान मेरे पास लाई गईं. इन पादुकाओं को पहन कर मैं कारण लोक में आकर यहाँ की दिव्य आत्माओं को आशीर्वाद देता हूँ. इसके बाद हिरण्यलोक जाकर वहाँ के महापुरुषों को आशीर्वाद देता हूँ. उस समय मेरी पादुकाओं को तेजोमय सिद्धि प्राप्त होती है. भविष्य में इन चरण पादुकाओं को अठारह हज़ार महासिद्ध पुरुष स्वर्ण विमान में ले जायेंगे और पीठिकापुरम् में मेरे जन्म स्थान पर समन्त्र पूजा-अर्चना करके ज़मीन के नीचे तीन सौ फुट की गहराई पर इनकी प्रतिष्ठापना करेंगे. वहाँ स्वर्णमय कान्तियुक्त दिव्य नाग प्रतिदिन मेरी अर्चना करेंगे. उनके साथ चौंसठ हज़ार योगिनी होंगी.  चरण पादुकाओं को स्वर्ण सिंहासन पर रखा जाएगा. वहाँ मैं ऋषि समुदाय और योगिनियों के साथ दरबार भर कर सबको सत्संग का लाभ दूँगा. इस भूमि से संलग्न, परन्तु अदृश्य एवँ अगोचर एक और स्वर्ण पीठिकापुरम् है. उसका अनुभव केवल योगदृष्टि वाले भक्तों को ही होता है. मेरी सुवर्ण पादुकाओं की प्रतिष्ठा जिस स्थान पर होगी, उसी स्थान पर पीठिकापुरम् की स्थापना होगी. अतः तुम सब लोग अत्यंत प्रसन्न चित्त होकर रहो, भविष्य में अनेक विचित्र घटनाएं होने वाली है. मेरे महासंस्थान में मेरी चरण पादुकाओं के दर्शन के लिए भक्तों की चींटियों जैसी कतार लगेगी.”

यह देव वाणी सुनकर हम अत्यंत आश्चर्यचकित हो गए. शरीर पर रोमांच उठ आये, नेत्रों से अश्रु बहने लगे. पता ही नहीं चला कि हम ऐसी स्थिति में कितनी देर तक थे. श्री भास्कर शास्त्री षोडशी राजराजेश्वरी के परम श्रेष्ठ भक्त थे. मैंने उनसे प्रार्थना की कि राज राजेश्वरी देवी के वैभव के बारे में वर्णन करें.

 

श्री राज राजेश्वरी देवी विवेक की खान है

 

श्री भास्कर शास्त्री बोले, “ बंधुओं, श्री राजराजेश्वरी देवी के चैतन्य का विचार करने वाला तुम्हारा मन विशाल सीमा पार करके जाने वाला है. राजराजेश्वरी के शुद्ध आचरण से तुम्हारे सर्व साधारण मन, मेधा व शक्ति में परिवर्तन होगा. तुम्हारी बुद्धि विवेकपूर्ण बनाने के लिए वह महामाता तुम्हारी सहायता करेगी. संकुचित वृत्ति का निर्मूलन करके तुम्हें विशाल दृष्टी प्रदान करेगी.

आम तौर से किसी व्यक्ति में शक्ति एवँ विवेक दोनों एक साथ नहीं दिखाई देते. परन्तु राजराजेश्वरी देवी के अनुग्रह से शक्ति एवँ विवेक दोनों ही एक ही व्यक्ति में स्थिर हो जाते हैं. दिव्य चैतन्य अनेक रूपों में विद्यमान है - इन रूपों को समझने की शक्ति हमें राजराजेश्वरी देवी से प्राप्त होती है. विश्व में उदात्त भावों की वृद्धि करने में श्री राजराजेश्वरी मुक्त हस्त से सहायता देती हैं. अत्यंत अद्भुत दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हेतु, शाश्वत दिव्य मातृशक्ति की प्राप्ति हेतु, विश्व के महान कार्यों की सफलता हेतु माता का अनुग्रह अत्यंत आवश्यक है. श्री राजराजेश्वरी देवी अनंत विवेक की खान हैं. यदि वे किसी बात को जानने का संकल्प करें, तो उसे जान लेती है. इस विश्व में ऐसी कोई चीज़ नहीं, जो उनके लिए अगम्य हो. सभी विषय, सभी जीव, उनके स्वभाव, उन्हें गतिमान करने की सामर्थ्य; इस विश्व का प्रत्येक धर्म, उससे संबंधित योग्य काल – ये सभी राजराजेश्वरी देवी के आधीन हैं. माता में पक्षपाती दृष्टि नहीं है. उन्हें न तो किसी के प्रति अभिमान या न ही किसी के प्रति द्वेष है. जो भक्त साधना के बल पर माता के दर्शन की अभिलाषा करते हैं, उन्हें विश्वासपात्र समझ कर वे अपने अन्तरंग में स्वीकार करती हैं. साधक राजराजेश्वरी देवी की शक्ति में वृद्धि करके, अपने विवेक बल से विरोधी शक्तियों का निर्मूलन कर सकते हैं. माता अपने भक्तों को इच्छित फल की प्राप्ति करवाती है. श्री राजराजेश्वरी देवी विश्व में किसी के भी साथ कोई अनुबंध रखे बगैर अर्थात, असंगत्व की भावना से अपना कार्य करती रहती हैं. माता अपने प्रत्येक साधक से उसके स्वभाव के, उसकी आवश्यकता के अनुसार व्यवहार करती हैं. वह किसी पर भी बलपूर्वक शासन नहीं करतीं. साधना पूरी होने के पश्चात वह अपने भक्तों को उनकी योग्यतानुसार प्रगति पथ पर अग्रसर करती हैं. अज्ञानियों को उनके अज्ञान मार्ग पर जाने देती हैं. उस मार्ग से जानेवाले भक्तों का पालन-पोषण करके उनके अपराधों को क्षमा करती हैं. वे चाहे अच्छा व्यवहार करें या बुरा, वह उस पर ध्यान नहीं देतीं. माता की करुणा अनंत है. वह इस संसार रूपी सागर से तारने वाली हैं. उनकी दृष्टि में समूचे संसार के सभी मानव उनकी संतान के समान हैं. राक्षस, असुर, पिशाच सभी को वह अपनी संतति की भाँति देखती हैं. चाहे उनके मन में कितनी ही दया उत्पन्न हो, परन्तु उनका विवेक सदा जागृत रहता है. परमात्मा द्वारा निर्देशित मार्ग वह किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़तीं. उसकी शक्ति का ज्ञान केंद्र वे स्वयँ ही हैं. इसलिए उनका अनुग्रह प्राप्त करने पर हमें “सत्यज्ञान बोध” होता है. यदि राजराजेश्वरी देवी की शक्ति प्राप्त करनी हो तो हमें कर्तव्य दक्षता, सत्य शोधन आदि गुणों का पालन करना चाहिए.

मैंने पीठिकापुरम् में वास किया था, इसलिए मैं श्रीपाद प्रभु की कृपा का पात्र बन सका. इन्हीं के कृपा प्रसाद के कारण मेरी राजराजेश्वरी देवी की दीक्षा फलीभूत हुई. आज मेरा दीक्षा दिन है. अपनी प्रगति की जांच का दिन. साथ ही अधिक समय तक ध्यान करने का दिन. श्रीपाद प्रभु किस परिस्थिति में  पीठिकापुरम् से निकल कर संचार करने के लिए निकलेंगे, यह मैं आपको कल बताऊँगा.. आपके यहाँ आने से पहले मैंने श्रीपाद प्रभु को जो प्रसाद अर्पण किया था, उसमें से थोड़ा सा भी यदि ग्रहण करोगे तो आप भी धन्य हो जाओगे.”

 

।। श्रीपाद श्रीवल्लभ प्रभु की जय जयकार हो।।

Complete Charitramrut

                     दिगंबरा दिगंबरा श्रीपाद वल्लभ दिगंबरा                श्रीपाद श्रीवल्लभ चरित्रामृत लेखक   शंकर भ ट्ट   ह...